Friday, February 28, 2020

इस नाजुक वक्त में हम और हमारे नेता


दिल्ली की सम्प्रदायिक हिंसा की दिल दहलाने वाली खबरों के बीच जब हम यह खबर भी पढ़ते हैं कि उत्तर प्रदेश विधान सभा में कई सदस्यों ने अपने वेतन-भत्ते, सुविधाएं और विधायक निधि बढ़ाने की मांग की तो कैसा लगता है?

दिल्ली में तीन दिन की हिंसा ने पूरे देश को दहलाया है. दिल्ली हाई-कोर्ट ने आधी रात को दिल्ली पुलिस को फटकारते हुए यह अकारण नहीं कहा कि हम 1984 जैसा फिर नहीं होने दे सकते. धर्म के आधार पर पैदा की जा रही नफरत का ख़ामियाजा यह देश विभाजन के बाद से अब तक समय-समय पर भुगतता रहा है. इस आग में बहुत कुछ अमूल्य भस्म हो जाता है. समाज आगे बढ़ने की बजाय गर्त में चला जाता है. उनके दुख-दर्द की कल्पना करना मुश्किल है जिनका सब-कुछ इस आग में जला दिया गया.

एक बार फिर यह साबित हुआ कि नफरती हिंसा में ज़्यादातर वे मारे जाते हैं जिनका इस सब से कोई सरोकार नहीं होता. रोजी-रोटी की ज़द्दोज़हद में लगे बेकसूर लोग इस आग की चपेट में आते हैं. साजिश रचने वाले आग लगाकर कहीं दूर से तमाशा देखते हैं. बात सिर्फ दिल्ली की नहीं है. हम सबको अपने गिरेबान में झांकना होगा कि नफरत की बढ़ती राजनीति में हमारी क्या भूमिका है.

आग लगाकर या पत्थर फेंककर ही इस आग में घी नहीं डाला जाता. सोशल मीडिया चालित इस दौर में हम अपने हाथ के मोबाइल से भी नफरत फैलाने का खतरनाक खेल जाने-अनजाने  खेलते हैं. फेसबुक और व्हाट्सऐप पर दिन-रात जो संदेश फॉरवर्ड करने में हम लगे रहते हैं, उसका कहां-क्या असर पड़ रहा है, सोचते हैं क्या? संदेश क्या है, किस मकसद से बनाया गया है, सच है या झूठ, किसको उससे फायदा हो रहा है और कौन उसके पीछे हो सकता है, इस पर हमें विचार क्यों नहीं करना चाहिए? इसके बिना हम नफरत फैलाने वालों के हाथों में खेल रहे होते हैं, उनके औजार बन जाते हैं, चिंगारी को शोला बना देते हैं.

अक्सर हैरत होती है कि कितने संवेदनहीन और स्वार्थी होते जा रहे हैं हम और हमारे नेता. दिल्ली जल रही थी और उत्तर प्रदेश विधान सभा में कई सदस्य अपने वेतन-भत्ते और सुविधाएं बढ़ाने की मांग कर रहे थे. इस मामले में सभी दलों के विधायकों में खूब एकता होती है.

एक विधायक जी को यह कष्ट है कि उन्हें विमान में सामान्य श्रेणी में यात्रा करने की सुविधा है जबकि अधिकारी बिजनेस या एक्जीक्यूटिव क्लास में सफर करते हैं. उनकी मांग थी कि इस अन्याय को दूर करके विधायकों को बिजनेस क्लास की सुविधा दी जानी चाहिए. किसी को महंगाई इतनी सता रही थी कि वेतन-भत्ते ऊंट के मुंह में जीरा लग रहे थे. कोई विधायक निधि दो करोड़ से सीधे दस करोड़ करने की मांग कर रहा था. एक विधायक जी  प्रदेश में कैसिनो (जुआ घर) खोले जाने की योजना के बारे में इस तरह पूछ रहे थे जैसे कि अब  किसी और चीज की आवश्यकता ही नहीं रही.

समाज नाजुक दौर से गुजर रहा है. जनता तरह-तरह से बहकाई-भड़काई जा रही है. नफ़रत की आग में वोटॉ की राजनीति की जा रही है. ऐसे में फूक-फूक कर कदम रखने की जरूरत है. जनता के जो नेता हैं, उनकी भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है. हमें देखना चाहिए कि जो नेता हमने चुने, ऐसे बुरे वक्त में उनकी क्या भूमिका है. नेताओं को पहचानने का यह बढ़ियाअवसर है.  

(सिटी तमाशा, नभाटा, 29 फरवरी, 2019)  
  
    


Friday, February 21, 2020

बहुत कुछ मिट गया, कॉफी हाउस कैसे बचेगा


साहित्यकारों , पत्रकारों, कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों, राजनेताओं, समाजसेवियों आदि का लोकप्रिय और पुराना अड्डा, लखनऊ का कॉफी हाउस एक बार फिर खतरे में है. पिछले दिनों किसी ने उस पर अपना हक जताते हुए ताला डाल दिया जिसे उच्च स्तर पर हस्तक्षेप के बाद खोल तो दिया गया लेकिन विवाद बना हुआ है. कॉफी हाउस से मुहब्बत करने वाले सरकार और राज्यपाल से अपील कर रहे हैं कि इस ऐतिहासिक अड्डे को बचा लिया जाए.

यह खतरा पहली बार नहीं आया है. पहले भी वह कई बार बंद हो चुका है. कभी उसे बेचने की तो कभी उस पर कब्जे की कोशिशें हुई हैं. भावनात्मक जुड़ाव और इतिहास का गवाह होने के बावज़ूद कॉफी हाउस ऐसे दौर से भी गुजरता है जब उसके पास बिजली का बिल जमा करने के लिए धन नहीं होता. बार-बार उसे जिला लिया गया तो सिर्फ इसलिए कि अभी इस शहर में ऐसे लोग हैं जो उसके लिए आवाज़ उठाते रहते हैं.

इस बार भी शायद उसे बचा लिया जाए लेकिन इन हालात में कब तक उसकी खैर मनाई जा सकती है? लखनऊ की कितनी पहचानें धीरे-धीरे गायब हो गईं. हो गईं या कर दी गईं. इतिहास और सांस्कृतिक पहचानों को बनाए रखने में हम विफल रहे हैं. भू-माफिया ही नहीं, सरकारें, प्राधिकरण और निगम तक विरासतों को लील जाते रहे और हम सिर्फ अपील या स्यापा करते रहे.

इसी लखनऊ में मुंशी नवलकिशोर का छापाखाना था जो 1858 में स्थापित हुआ था और जिसने 1861 में मिर्ज़ा गालिब के दीवान से लेकर उर्दू-फारसी की ऐसी-ऐसी किताबें छापीं जिनके बारे में सोच-सोच कर आश्चर्य होता है. नवलकिशोर प्रेस लखनऊ की  शान और पहचान दोनों था, जहां से न केवल सालों-साल चलने वाला अवध अखबारनिकला बल्कि मुंशी जी के वंशज विशन नारायण भार्गव और दुलारेलाल भार्गव ने माधुरी’ (1922) और सुधा’ (1927) जैसी साहित्यिक पत्रिकाएं भी निकालीं. प्रेमचंद, निराला और उस समय के कई जाने-माने साहित्यकार इन पत्रिकाओं और नवलकिशोर प्रेस से जुड़े थे. आज कहां है वह समृद्ध विरासत और कितनों को उसकी जानकारी है?

जिन यशपाल, अमृतलाल नागर और भगवती चरण वर्मा की साहित्यकार तिकड़ी की बैठकी के लिए कॉफी हाउस को कुछ लोग आज भी याद करते हैं, उन्हीं में से यशपाल जी के विप्लव प्रेस की क्या आज कोई निशानी बची है? हीवेट रोड की वह ऐतिहासिक इमारत जहां से यशपाल जी ने विप्लवके कई अंक निकाले, उसे बचाने के किसने और कितने प्रयास किए? एक दिन कुछ लोगों ने उस कोठी पर कब्जा किया और फिर वहां व्यावसायिक प्रतिष्ठान खड़े हो गए.

चौक की जिस शाहजी की कोठी में नागर जी बरसों बरस रहे, जिस बैठक में उन्होंने बोल-बोल कर कई बड़े उपन्यास लिखवाए, जहां लखनऊ की विरासत सहेजी और जिस विशाल आंगन में महत्त्वपूर्ण आयोजन हुए, वह कोठी आज ढहने को है? नागर जी की स्मृति में वहां संग्रहालय बनने की बातें कहां खो गईं? लालजी टंडन जैसे नागर जी के और कॉफी हाउस के भी प्रेमी कुछ कर पाए क्या? भगवती बाबू की अपनी कोठी परिवारी जनों के कारण सुरक्षित तो है लेकिन क्या उस चित्रलेखाको आज कोई याद करता है, गर्व करना तो दूर?

मीर से लेकर मज़ाज़ और बेगम अख्तर की यादें ही यहां कितनी बची हैं और किस हाल में हैं? कॉफी हाउस भी एक दिन ऐसी ही याद बन कर रह जाएगा. वहां कोई बड़ा शो-रूम दिखाई देगा. अपनी समृद्ध सांस्कृतिक पहचान और विरासत को खो देने वाला समाज बिना जड़ के पेड़ जैसा ढह पड़ता है.

ढह नहींं रहे क्या हम?
    
('सिटी तमाशा' नभाटा, 22 फरवरी, 2020)

Monday, February 17, 2020

डिफेंस एक्स्पो जैसी चुस्ती अक्सर क्यों नहीं दिखती



पिछले सप्ताह डिफेंस एक्सपो की गहमागहमी थी. जनता में भी कौतुक और उत्साह था. पूरा सरकारी अमला इस अवसर को आलीशान ढंग से सम्पन्न कराने में जुटा था. शहर, खासकर प्रदर्शनी और आयोजन-स्थल, साफ-सुथरे थे. सेना का शौर्य प्रदर्शन गोमती किनारे हो रहा था और अपनी गोमती पहचानी ही नहीं जा रही थी. उसमें काफी पानी था और साफ भी. खर-पतवार, झाड़-झंखाड़ तो खैर साफ किए ही गए थे, कुछ जगहों पर उसकी तलहटी से मलबा भी निकाला गया था. नदी तट, जो अब रिवर फ्रण्ट कहलाता है, बहुत साफ और खूबसरती से सजाया गया था.

जब भी कोई बड़ा आयोजन होता है, सरकारी विभाग आयोजन स्थल और शहर को स्वच्छ बनाने और सजाने के लिए सिर के बल खड़े हो जाते हैं. इन्वेस्टर समिट हो या प्रधानमंत्री का शहर आगमन, सरकारी अमले की मुस्तैदी और कर्तव्य परायणता देखते ही बनती है. आयोजन स्थल और उधर जाने वाले मार्ग जगमगा उठते हैं. बाकी दिन वह कर्तव्य-बोध कहां चला जाता है?

नगर निगम हो या विकास प्राधिकरण या दूसरे संस्थान और विभाग, उनमें शहर को साफ-सुथरा और व्यवस्थित रखने की क्षमता है, यह इन आयोजनों से स्पष्ट हो जाता है. संसाधनों का रोना बेकार ही रोया जाता है. कमी संकल्प-शक्ति की है. डिफेंस एक्स्पो जैसी चुस्ती रोज नहीं हो सकती लेकिन उसकी आधी क्षमता भी लगाई जाए तो नागरिकों की अधसंख्य शिकायतें दूर की जा सकती हैं.

सबसे सुखद आश्चर्य गोमती नदी को देख कर हुआ. लग ही नहीं रहा था कि वह अपनी ही गंधाती, कचरे से भरी और शहर का मल-मूत्र बहाने वाली गोमती है. जाहिर है उसमें कहीं से साफ पानी छोड़ा गया होगा. इस बीच नालों से गन्दगी का प्रवाह भी अवश्य बंद किया गया होगा, वर्ना सारी कवायद बेकार हो जाती. जैसे पिछले वर्ष अर्धकुम्भ के समय गंगा किनारे के सभी उद्योग दो-तीन महीने के लिए बंद कर दिए गए थे ताकि उनके गंदे पानी से नदी का गंदा होना रुक जाए और संगम पर साफ पानी मिले.

उद्योगों को कुछ समय के लिए बंद करना या नालों का प्रवाह सप्ताह भर को रोक देना नदियों को साफ रखने के उपाय नहीं हो सकते. वह किसी आयोजन-विशेष के लिए दिखावा ही कहा जाएगा. इससे इतना स्पष्ट है कि सरकार नदियों की दुर्दशा को समझती है और जानती है कि क्या करने से नदियों की सूरत बदली जा सकती है. गंगा की सफाई के नाम पर अरबों रु बहा दिए गए लेकिन आज तक उसके तट पर स्थित उद्योगों को स्थानांतरित करने या उनका उच्छिष्ट पूरी तरह साफ करके नदी में बहाने का जरूरी काम नहीं किया जा सका. 
गोमती नदी में आज भी शहर के नाले गन्दगी बहा रहे हैं. सीवेज ट्रीटमेंट प्लाण्ट सिर्फ बजट खपाने को आधे-अधूरे लगे या बेकार पड़े हैं. इस काम को सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं दी गई. सरकार संकल्प ले तो सभी नालों को सीवेज ट्रीट प्लांट से जोड़ना क्या कठिन है? एक दिन में नहीं होगा लेकिन बहुत समय भी नहीं लगेगा. जैसी इच्छा-शक्ति डिफेंस एक्स्पो के समय दिखाई गई, वैसी कर्मठता दिखानी होगी. किया जा सकता है, यह साबित हो चुका है. यही सरकारी अमला कर सकता है.

काम-चोरी, लापरवाही, भ्रष्टाचार हमारे सरकारी तंत्र की विशेषता बन चुके हैं. कोई काम कैसे शीघ्र और सबसे बढ़िया हो, यह निष्ठा-भाव ऊपर से नीचे तक नदारद है. काम में अड़ंगा लगाना और नियमों की चकरघिन्नी में घुमाना सबको खूब आता है. आला अफसर हों या नेता-मंत्री, सब जानते हैं कि कहां क्या बीमारी है. यह बीमारी ही सामान्य आचारण बन गई है. इसलिए डिफेंस एक्स्पो का आयोजन सिर के बल खड़े होना लगता है.

(सिटी तमाशा, नभाटा, 15 फरवरी, 2020) 
         

Tuesday, February 11, 2020

अमित शाह को लगा करण्ट और योगी के हिस्से बिरयानी



दिल्ली के मतदाताओं ने भारी बहुमत से फिर ‘आम आदमी पार्टी’ की सरकार चुनी है. भाजपा की घोर साम्प्रदायिक राजनीति खारिज हुई लेकिन उसने कुछ असर अवश्य डाला है.  इसी कारण उसका मत-प्रतिशत अच्छा बढ़ा हालांकि सीटें चंद ही बढ़ पाईं. केजरीवाल सरकार के स्कूल,  अस्पताल, सड़क, बिजली, पानी और अन्य जन हितैषी काम भाजपा की नफरत की राजनीति पर खूब भारी पड़े. कांग्रेस का फिर सफाया हुआ है. उसके लिए फिलहाल यही संतोष है कि भाजपा नहीं जीती.

झारखण्ड के बाद दिल्ली की करारी हार मोदी और शाह के लिए सबक है. यह इस देश के बहुलतावादी चरित्र के लिए आशा की किरण है. सीएए के विरुद्ध चल रहे आंदोलनों को भी यह ताकत देगा. आपका यह बयान महत्वपूर्ण है कि यह जीत देशभक्ति की है. भाजपा ने केजरीवाल को पाकिस्तान समर्थक से लेकर आतंकवादी तक बताया था.          

दिल्ली का किला फतह करने के लिए भाजपा ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी. चुनाव जिताने के माहिर अमित शाह ने खुद मोर्चा सम्भाला और रात तक गली-मोहल्लों में उन्होंने पर्चे बांटे. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सीधे मैदान में उतारा और नारा दिया- “दिल्ली चले मोदी के साथ.”

दिल्ली मोदी के साथ नहीं चली. वह केजरीवाल के पीछे मजबूती से खड़ी है.  

अमित शाह ने अपने 200 सांसदों, और पचास वर्तमान या पूर्व मंत्रियों को दिल्ली की सड़कों-गली-मुहल्लों में उतार रखा था कि दिल्ली का चुनाव हर हाल में जीतना है. उसके नेताओं ने 5677 आम सभाएं और रोड शो किए. 52 सभाएं और और रोड शो अकेले अमित शाह ने किए. 41 सभाएं राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा ने और 12 रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कीं. इसी ताकत के दम पर अमित शाह ने अपील की थी –गुस्से में इस तरह बटन दबाना कि शाहीनबाग वालों को करण्ट लगे.

दिल्ली वालों ने शाहीनबाग को नहीं, फिलहाल अमित शाह को ही करण्ट लगाया है.   

भाजपा को लगता था कि केजरीवाल का पलड़ा भारी है. इसलिए उसने केजरीवाल को बदनाम करने के लिए हर चाल चली. शाहीनबाग के सीएए विरोधी प्रदर्शन को केजरीवाल से जोड़ा ही नहीं, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और भाजपा के स्टार प्रचारक आदित्यनाथ योगी ने रहस्योद्घाटनकिया कि केजरीवाल शाहीनबाग के प्रदर्शनकारियों को बिरयानी खिलाता है. केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने तो यहां तक कह दिया कि केजरीवाल आतंकवादी है.

दिल्ली के नतीजे वास्तव में योगी को बिरयानी परोसने  और जावड़ेकर को आईना दिखाने वाले हैं.

भाजपा नेताओं ने पूरे चुनाव को हिंदू बनाम मुस्लिम बनाने की हर साजिश की. इस प्रयास में उसके नेताओं ने नैतिकता और शालीनता की सभी सीमाएं पार कीं. दिल्ली से उसके सांसद परवेश शर्मा ने दिल्ली की जनता से यह तक कहा कि शाहीनबाग के प्रदर्शनकारी आपके घरों में घुसकर आपकी बहन-बेटियों से बलात्कार करेंगे और उन्हें मार डालेंगे. केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने अपनी सभा में नारे लगवाए थे- देश के गद्दारों को... गोली मारों सालों को.

दिल्ली वालों ने इन कुवचनों पर ध्यान नहीं दिया.

भाजपा ने नए नागरिकता कानून को उसने हिंदू हितों का रखवाला और ’70 सालों का अन्यायदूर करने वाला बताया. इसी तरह कश्नीर से अनुच्छेद 370 हटाने के मोदी सरकार के फैसले को दिल्ली चुनाव में भुनाने की कोशिश की.

दिल्ली की जनता ने राष्ट्रीय मुद्दों पर नहीं, स्थानीय मुद्दों पर फैसला सुनाया. सीएए मुद्दा था भी तो बहुमत ने उसका साथ नहीं दिया.

जामिया विश्वविद्यालय में सीएए विरोधी प्रदर्शनकारी छात्र-छात्राओं पर पुलिस ने जुल्म ढाया. जेएनयू में पुलिस संरक्षण में गुण्डों ने प्राध्यापकों और विद्यार्थियों को लहू-लुहान किया. जामिया और जेएनयू को भाजपा ने राष्ट्रविरोधी तत्वों का अड्डा बताया. हर तरह से उन्हें बदनाम करने की कोशिश की.

दिल्ली के मतदाताओं ने अयह कुपाठ पढ़ने से मना कर दिया.  

भाजपा ने जिस तरह अपनी पूरी ताकत झोंकी, नफरत की जैसी राजनीति की, जिस तरह हिंदू-मुसलमान को मुद्दा बनाया और खुद प्रधानमंत्री ने यह कहकर कि संविधान और तिरंगे की आड़ लेकर देश को तोड़ने का प्रयोग हो रहा है, जिस तरह लोकतांत्रिक और संवैधानिक विरोध को गलत रंग देने की की कोशिश की, उसने कुछ तो असर दिखाया है. उसके वोट प्रतिशत में अच्छी वृद्धि हुई है. कुछ सीटें वह बहुत कम अन्तर से हारी. एक बार तो वह 21 सीटों पर बढ़त में थी. 

राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को अभी खारिज करना इतना आसान नहीं. विधान सभा के साथ दिल्ली में लोक सभा चुनाव भी हुए होते तो क्या परिणाम इसी के आनुपातिक होते? क्या केंद्रीय स्तर पर केजरीवाल मोदी को चुनौती दे सकते हैं? कहना बहुत कठिन है. कुछ महीने पहले हुए चुनाव में आप दिल्ली में तीसरे स्थान पर रही थी. एक भी विधान सभा सीट पर उसे बढ़त नहीं मिली थी.

बहरहाल, ‘आपकी दिल्ली-विजय में केजरीवाल की इस समझदारी का भी बड़ा हाथ रहा कि उन्होंने भाजपा के साम्प्रदायिक प्रचार के जाल में फंसने की बजाय अपनी सरकार की उपलब्धियों पर ही चुनाव लड़ा. केजरीवाल ने शाहीनबाग से भी दूरी बनाए रखी. न वे भाजपा के उकसावे में आए, न ही उसके आरोपों की काट करने में उलझे. उन्होंने यह कुश्ती अपने ही अखाड़े में लड़ी.         

कांग्रेस का सूपड़ा फिर साफ है. यह इस राष्ट्रीय पार्टी और उसके नेतृत्व के लिए गम्भीर चिंतन का मुद्दा होना चाहिए. उसने दिल्ली का चुनाव पूरी ताकत से लड़ा भी नहीं. क्या वह आपके लिए रास्ता आसान कर रही थी? या, कांग्रेस के आधार वोटर ने भाजपा का साथ देकर उसे मजबूत बनाया? यह विश्लेषण और अटकलबाजी होते रहेंगे.

फिलहाल, भाजपा की राज्यों में पराजय का सिलसिला और आगे बढ़ा है. और, मोदी और शाह की आंखों में केजरीवाल खटकते रहेंगे.   
     


Friday, February 07, 2020

कस्बों की छाप अब भी बाकी लेकिन कब तक?

फिलहाल तो चारों तरफ डिफेंस एक्स्पो’ की चर्चा है और स्वाभाविक है. भारतीय सेना के शौर्य-प्रदर्शन के साथ प्रतिरक्षा उद्योग के लिए अपनी सम्भावनाओं और क्षमताओं को दिखाने का यह सर्वोत्तम अवसर है. बहुत महत्त्वाकांक्षी और अंतराष्ट्रीय स्तर का बड़ा आयोजन. इसकी गूंज दूर तक सुनाई देनी है.
पिछले सप्ताह राजधानी में बिल्कुल दूसरी तरह का एक आयोजन हुआ जिसने हमें धीरे-धीरे हमसे छूट रहे जीवनपरम्परा और सांस्कृतिक विरासत के अंतरंगता के साथ दर्शन कराए. सनतकदा के पांच दिनी महोत्सव का विषय इस बार अवध के कस्बाती रंग’ था. अवध के कस्बों का अपना गौरवशाली इतिहास रहा है जिसने यहां की गंगा-जमुनी तहज़ीब को रचा-पोषा और दूर-दूर तक फैलाया. उस परम्परा के प्रदर्शन को देखना-महसूस करना गर्व करने के साथ भावुक बना देना वाला भी रहा.
आम तौर पर लखनऊ और उसकी विरासत की चर्चा में उसके चौरतरफा कस्बों का ज़िक्र नहीं आया करता. लखनऊ के नवाबी इतिहासब्रिटिश काल और आधुनिक स्वरूप की चर्चा बहुत होती है. उस बारे में देसी-विदेशी इतिहासकारों ने कई किताबें लिखीं लेकिन उन कस्बों पर कम ही ध्यान गया है जो लखनऊ के बनने से पहले से अस्तित्व में थे और जिनके होने से लखनऊ वह लखनऊ’ बना जिसे अंतराष्ट्रीय ख्याति मिली.
लखनऊ के चारों तरफ के उन शांत मगर जीवन से धड़कते कस्बों में सूफी संत हुएलौकिक और पारलौकिक प्रेम की शायरी रची गईनाच-नौटंकी और रंगमंच विकसित हुआमोहर्रमताजियों और रामलीलाओं में भागीदारी पनपीविविध स्वादिष्ट खान-पान निकले और चर्चित हुएप्रेम-प्रसंगों ने तमाम दीवारें तोड़ींअजूबा-सी इमारतें बनींकिस्से गढ़े गए और मेले लगे. वहीं किसानों ने जमीदारों के खिलाफ आंदोलन खड़ा किया तो अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत के बीज भी पड़े. अनन्त कथाएं हैं कस्बों की.
आज कहां और किस हाल में हैं अवध के ये ऐतिहासिक कस्बे? जिनका जिक्र बड़े गर्व से वहां के वाशिंदे अपने नाम में किया करते थे (जैसे-बिलग्रामीमलिहाबादीकाकोरवीआदि) वे कस्बे तथाकथित विकास की धारा में धीरे-धीरे गुम होते गए. शहर फैलाकस्बे सिकुड़ेजमीनें और बाग बिकेनई पीढ़ी नई शिक्षा और जीवन-शैली की तरफ दौड़ीगीत-संगीत-साहित्य-नाट्य-रहन-सहन-खान-पानहर क्षेत्र में हर नए ने हर पुराने को पीछे धकेल दिया.
लखौरी ईटों से बनी इमारतों से झड़ते सुर्खी-चूने की तरह धीरे-धीरे कस्बों का समृद्ध जीवन-वैविध्य छीज गया. सण्डीला के लड्डू का नाम आज भी है लेकिन खान-पान के नए बाजार ने उसकी आत्मा और स्वाद दोनों निचोड़ लिए. कस्बों के साथ ऐसा हर क्षेत्र में हुआ. कस्बों से आगे गांवों के साथ भी ऐसा ही हुआ और हो रहा है.
कस्बों-गांवों को वैसा ही नहीं रह जाना था. उन्हें बदलना था और आगे बढ़ना था लेकिन अपनापन और विरासत नहीं खोनी थी. नया सीखना और करना था लेकिन अपनी जड़ें बचा कर रखनी थीं ताकि नया भी उनसे महके और वह खास पहचान ग्रहण करे जो स्थानीय कहलाती है. भाषा-बोलियों और उनके सृजन-संसार के साथ भी यही होना था. किंतुविकास की जो धारा चली कि उसने पूरे देश में ही ऐसा नहीं होने दिया तो अवध के कस्बों-गांवों में क्या होता.
सनतकदा के इस महोत्सव ने दिखाया कि खण्डहरों की तरह या जतन से बचाई गई कुछेक पुश्तैनी इमारतों की तरह अवध के कस्बों का कुछ जीवनरंग और स्वाद अब भी बचा है. कुछ झलकियां मिलीं और जी जुड़ा गया. लेकिन कब तकस्थानीय विशिष्टताओं को बहुत तेजी से निगलते हुए जो नव-उदारवादी अजगर बढ़ा चला आ रहा हैउसके सामने छोटी-छोटी व्यक्तिगत कोशिशें कितनी देर तक टिक सकती हैं.    
(सिटी तमाशा, नभाटा, 8 फरवरी, 2020)

Wednesday, February 05, 2020

नफरत की खाद से चुनावी फसल उगाने का खतरनाक खेल


समाज चिंताजनक रूप से दो फाड़ हो गया है. राजनैतिक दलों ने, विशेष रूप से भाजपा और संघ परिवार ने देश को सीधे-सीदे हिंदू और मुसलमान में बांट दिया है. बांट ही नहीं दिया, रिश्तों में नफरत घोल दी है.
दिल्ली विधान सभा के लिए चुनाव हो रहे हैं. चुनाव जीतने के लिए नफरत की राजनीति खुलकर की जा रही है. शाहीनबाग का डेढ़ महीने पुराना विरोध-प्रदर्शन राजनैतिक और लोकतांत्रिक है. उसे घृणा फैलाने का माध्यम बना दिया गया है.

शाहीनबाग का मतलब सीएए के विरोध की बजाय सीधे-सीधे मुसलमान, पाकिस्तान और आतंकवाद बना दिया गया है. उसका समर्थन करने का अर्थ पाकिस्तान-समर्थक, राष्ट्र-विरोधी और अर्बन नक्सल होना बताया जा रहा है.

राजनैतिक विरोध को नफरत में बदले जाने का ही नतीजा है कि चंद बौखलाए लोग पिस्तौल-कट्टे लेकर कभी शाहीनबाग में प्रदर्शनकारियों के बीच घुसते हैं, कभी जामिया में गोली चलाते हैं. अब तक चार वारदात हो चुकी हैं. ताज़ा मामला लखनऊ का है, जहां घण्टाघर पर प्रदर्शन कर रही महिलाओं को जान से मारने की धमकी दी गई है. अब शाहीनबाग के एक हमलावर को आपसे जोड़कर चुनावी बदला चुकाने की कोशिश हो रही है.

दिल्ली में चुनाव हो रहे हैं और हमारे प्रधानमंत्री कहते हैं कि शाहीनबाग तिरंगे और संविधान की आड़ लेकर देश को तोड़ने का प्रयोग है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी दिल्ली में प्रचार करने जाते हैं और शाहीनबाग के पास सभा करके पाकिस्तान-पाकिस्तान की रट लगाते हैं. वे चेतावनी भी दे देते हैं कि बोली से नहीं मानेंगे तो गोली से मानेंगे.’

चंद रोज पहले केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर चुनाव सभा के मंच से नारे लगवाते हैं- देश के गद्दारों को....सभा में कुछ लोग उनका नारा पूरा करते हैं- गोली मारो सालों को.एक नहीं, कई बार वे नारा लगवाते हैं.
घृणा से भरा एक युवक गोली मारने निकल पड़ता है. पुलिस की गिरफ्त में भी वह चीखता रहता है –इस देश में सिर्फ हिंदुओं की चलेगी. उसके चहेरे पर नफरत पढ़ी जा सकती है जो पहले नहीं थी. यह नफरत उसमें और उस जैसे दूसरे आम लोगों में कौन भर रहा है?

भाजपा ने दिल्ली का चुनाव जीतने के लिए शाहीनबाग को हिंदू-ध्रुवीकरण का जरिया बना लिया है. शाहीनबाग में उसे अपने चुनाव जीतने का जिस कारण अवसर दीख रहा है वह नई पैदा की गई नफरत ही है. शाहीनबाग को वह मुसलमानों, उनका समर्थन करने वाले दलों और अर्बन नक्सलियोंकी देश विरोधी साजिश बता रही है. उन्हें पाकिस्तानी और देश विरोधी बताया जा रहा है. खुद प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और योगी जैसे मुख्यमंत्री इसमें शामिल हैं.

नफरत फैलाने का दुस्साहस और तरीका देखिए. भाजपा के सांसद प्रवेश शर्मा दिल्ली में ललकारते हैं- वहां (शाहीनबाग में) लाखों लोग एकत्र हैं. दिल्ली के लोगों को सोचना होगा और फैसला लेना होगा... ये लोग आपके घरों में घुसेंगे और आपकी बहन-बेटियों से बलात्कार करेंगे, उन्हें मार डालेंगे.

भाजपा के वाचाल प्रवक्ता सम्बित पात्रा ट्वीट करते हैं- दिल्ली तू जाग रे... कहीं फिर देर न हो जाए. ये फिरंग और मुगलिए फिर से देश न तोड़ जाए.

यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि पात्रा किसे मुगलिएऔर फिरंगकह रहे हैं. वे किसको जगारहे हैं और क्या करने के लिए? चुनाव जीतने के लिए कितनी नफरत घोली जाएगी?

नफरत से भरकर कट्टा-पिस्तौल निकाल लेने के अभी चार-पांच ही मामले हुए हैं लेकिन आप सड़क के नुक्कड़, चाय के ढाबों, दफ्तरों, घरों और बाजारों में घुल रही नफरत देख सकते हैं. वह सोशल मीडिया में उगली जा रही है. वह आपसी बातचीत में निकल रही है. वह दोस्तियां तोड़ रही है. वह घरों में झगड़े करा रही है. चारों तरफ हिंदू-मुसलमान हो रहा है.

सीएए और  एनआरसी राजनैतिक मुद्दे हैं. देश की बड़ी आबादी को लगता है कि यह संविधान विरोधी है और धर्म के आधार पर नागरिकों में भेदभाव करने वाला है, उन्हें इसके विरोध का लोकतांत्रिक अधिकार संविधान देता है. इसलिए जो लोग शाहीनबाग और देश भर में सैकड़ों जगह विरोध कर रहे हैं, वे न सिर्फ मुसलमान हैं, न देश-विरोधी और न ही पाकिस्तानी.

यह नफरत देश को कहां ले जाएगी?

भाजपा दिल्ली में केजरीवाल से हारने के डर से त्रस्त है. इसलिए ज़्यादा ही बेचैन और हताश है. इस भाजपा के नेता-मंत्री हताशा में कैसे-कैसे बयान दे रहे हैं और उसका समाज पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, इसकी चिंता किसी को नहीं है.

यूपी के मुख्यमंत्री योगी दिल्ली जाकर कहते हैं- पाकिस्तान का एक मंत्री केजरीवाल के समर्थन में बयान क्यों देता है? क्योंकि केजरीवाल शाहीनबाग वालों को बिरयानी खिलाता है.केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर केजरीवाल को आतंकवादी बता देते हैं. केजरीवाल में सौ खामियां होंगी, उनके शासन में गड़बड़ियां हुई होंगी, उनके खिलाफ बहुत सारे मुद्दे हो सकते हैं लेकिन केजरीवाल को कौन आतंकवादी मानेगा?  भाजपा क्या साबित करना चाहती है?   

चुनावों में सभी राजनैतिक दलों के नेता मर्यादा तोड़ते हैं. व्यक्तिगत आरोप लगाते हैं. झूठे दावे करते हैं. मतदाताओं की भावनाओं को भड़काने के लिए ऊल-जलूल बयान देते है. मगर अब सारी सीमाएं तोड़ दी गई हैं.
चुनाव आयोग ने भी जैसे आंख-कान बंद कर लिए हैं. हाल के वर्षों में इतना लाचार उसे नहीं देखा.

भाजपा नेताओं की अनर्गल वाणी और नफरती प्रचार देखते हुए सोमवार, 03 फरकरी को देश के नारीवादियों, महिला अधिकार कार्यकर्ताओं और कई स्वयंसेवी संगठनों (एनजीओ) ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखकर मांग की है कि वे अपने नेताओं के ऐसे बयानों  की निंदा करें और उनसे बाज आने को कहें.

तीखी शब्दावली में यह चिट्ठी पूछती है कि “मोदी जी क्या आपकी पार्टी दिल्ली की महिलाओं को यह संदेश देना चाहती है कि भाजपा को जिताओ वर्ना आपके साथ बलात्कार हो जाएगा?” चिट्ठी आगे पूछती है कि क्यों यह साम्प्रदायिक घृणा और डर फैलाए जा रहे हैं, जिससे सभी समुदायों की महिलाएं असुरक्षित और भयग्रस्त हो रही हैं, और आप सरकार के मुखिया होकर उसे प्रोत्साहित कर रहे हैं? हमने अपने शरीर पर पहले ही बहुत हिंसा झेली है और न्याय से भी वंचित ही रही हैं. हमारे दर्द और भय के लम्बे दौर की अनदेखी करके उसे सस्ती और विभाजनकारी चुनावी राजनीति के लिए इस्तेमाल करने की हम कड़ी निदा करते हैं.

प्रधानमंत्री को लिखी इस चिट्ठी पर 175 नामी गिरामी महिलाओं के हस्ताक्षर हैं. ऐसी चिट्ठियों को कोई उत्तर नहीं आता. चिट्ठी के जवाब में समर्थकों से एक और बड़ी चिट्ठी लिखवा दी जाती है. बस!