Friday, October 30, 2020

पुलिस की दाढ़ी में तिनका, तोंद पर फूल!


हमारे एक मित्र सुबह-सुबह अखबार पढ़ते हुए अक्सर गम्भीर टिप्पणी या कभी-कभार चुहल कर दिया करते हैं। चंद रोज पहले उन्होंने फोन किया-
ये बताओ भाई, क्या पुलिस मैनुअल में तोंद रखने की अनुमति है?’ हमने पूछा- क्यों?’ बोले- दाढ़ी रखने में एक सब-इंस्पेक्टर निलम्बित हो गया। बड़ी-बड़ी तोंद वाले हाँफते पुलिस वाले अपराधियों को पकड़ने में तैनात हैं, इसलिए पूछा।फिर वे ठहाका लगाकर हंसे। हंसते हुए हमें बागपत का किस्सा याद आ गया। 

बागपत थाने के सब-इंस्पेक्टर इम्तियाज अली ने दाढ़ी कटाने के बाद सावधान की मुद्रा में सलूट मारा तो पुलिस अधीक्षक ने उनको ड्यूटी में बहाल कर दिया है। बिना अनुमति दाढ़ी रखने की अनुशासनहीनता में उन्हें कुछ दिन पहले निलम्बित कर दिया गया था। पुलिस सेवा आचार संहिता में मूंछें रखने की अनुमति है लेकिन सिखों को छोड़कर और कोई धर्मावलम्बी दाढ़ी नहीं रख सकता। मूंछें कड़कदार और रोबीली हों तो उनके रख-रखाव का भत्ता भी मिल सकता है। नाम तो अब याद नहीं रहा लेकिन लखनऊ में ही एक सिपाही की दोनों गालों को ढंकती डिजायनर मूंछों की तस्वीर पिछले दशक तक अक्सर छपा करती थी।

खैर, मित्र की चुहल सिर्फ हंसी के लिए नहीं थी। मामला विचारणीय है। यूं तो तोंद  सार्वकालिक और अंतराष्ट्रीय समस्या है लेकिन पुलिस और अन्य सुरक्षा बलों के लिए वह सर्वथा अस्वीकार्य है। वह उनकी चुस्ती-फुर्ती पर बड़ा प्रश्न उठाती है। किसी अपराधी का पीछा करना हो तो तोंद वाले पुलिस कर्मी कैसे  दौड़ें? कभी-कभार जिले के चुस्त एसएसपी सिपाहियों-थानेदारों को पुलिस लाइन में दौड़ लगवा देते हैं। तब कई तोंद वाले हाँफने लगते हैं या गिर पड़ते हैं।

सिर्फ तोंदियल सिपाहियों-थानेदारों की बात नहीं है। कोई तीन साल पहले भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने सुरक्षा बलों की तोंद-समस्या पर गम्भीरता से विचार किया था। तब जो सुझाव आया था कि आईपीएस हों या छोटे पुलिस अधिकारी उनकी प्रोन्नति से पहले उनकी तोंद देखी जाए यानी फिटनेस। पता नहीं सुझाव कहां अटक गया। हाल ही में भारत-चीन सीमा पर तैनात आईटीबीपी जवानों-अफसरों के लिए उनके एक महानिदेशक ने बाकायदा तोंद-मुक्त 2020अभियान शुरू किया। इसमें अफसरों की सख्त ट्रेनिंग के साथ उनकी पत्नियों को भी हलकी-फुलकी कसरत कराना शामिल है क्योंकि फिटनेस पूरे परिवार की अच्छी होती है। बीएसएफ के महानिदेशक को यह अभियान पसंद आया तो उन्होंने भी इसे लागू करवाया है।

सीमा पर तैनात जवान और अफसर तो खैर कठिन ड्यूटी करते हैं, लेकिन शहरों में जगह-जगह ऐसे सिपाही-दरोगा-अफसर दिख जाते हैं जिन्हें हर तीन-चार मिनट में तोंद से नीचे सरक गई पतलून ऊपर समेटनी पड़ती है। बहुत समय नहीं हुआ जब मध्य प्रदेश के ऐसे ही एक बेहद बेडौल सिपाही को देखकर चर्चित लेखिका शोभा डे ने व्यंगात्मक ट्वीट कर दिया था। यह पता चलने पर कि उसे कोई असाध्य बीमारी है, शोभा डे की लानत-अलामत हुई और मुम्बई के नामी डॉक्टरों ने उस सिपाही का नि:शुल्क इलाज किया था। आशय यह कि पुलिस वालों की तोंद अपवाद स्वरूप ही बीमारी हो सकती है, सामान्यतया वह शिथिल तन-मन की निशानी ही है। तोंदियल अपराधी नहीं दिखते लेकिन पुलिस वाले खूब दिखते हैं।

अपने यू पी में मुंह से ठांय-ठांयबोलकर अपराधियों को खदेड़ने वाले प्रत्युत्पन्नमति पुलिसकर्मी हंसी का पात्र बन जाते हैं लेकिन तोंदियल थानेदारों पर कोई अंगुली नहीं उठाता। छप्पन इंचकी छाती हिंदी का नया मुहावरा बन गई लेकिन थानेदारों की तोंद कितने इंच की हो कि चर्चा में आए?

थाईलैंड में पुलिस वालों के लिए साल में कम से कम एक बार फैट बेली डिस्ट्रक्शन प्रोग्रामयानी तोंद ध्वंस कार्यक्रमचलाता है जिसमें कड़ी मशक्कत कराई जाती है। अपने यहां साल में एक बार रैतिक पुलिस परेड के अलावा कुछ नहीं होता। कौन करे? चूंकि तोंद के मामले में नेता सबसे आगे हैं, इसलिए यह मुद्दा दबा ही रहने के आसार हैं।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 31 अक्टूबर 2020)              

 

 

Friday, October 23, 2020

नई तकनीक से वंचित वर्ग की नई समस्याएं

 


कोरोना ने किस-किस तरह और कैसी-कैसी मार मारी है! किसी को संक्रमण हो जाने पर तो अस्पताल जाने और भर्ती होने की सुविधा मिल सकती है लेकिन दूसरे किसी भी गम्भीर रोग में इलाज मिलना बहुत मुश्किल हो गया। जिनके ऑपरेशन तय थे या डायलिसिस हो रही थी या दिल की बीमारी नियमित जांच और डॉक्टरी सलाह मांगती थी, उन्हें बहुत परेशान होना पड़ा। दिल का दौरा पड़ने की स्थिति में जब तत्काल इलाज की जरूरत होती है, किसी भी अस्पताल में कोई डॉक्टर बिना कोरोना जांच कराए हाथ लगाने को तैयार नहीं। कोविड से मरने वालों के सही-गलत जैसे भी हैं, आंकड़े मिल जाएंगे लेकिन पिछले करीब नौ महीनों में इलाज नहीं मिल पाने के कारण कितनी मौतें हुईं, इसकी कोई गिनती नहीं मिलेगी।

बहरहाल, महीनों बाद पीजीआई और केजीएमयू की ओपीडी खुली है। यह राहत की सूचना है हालांकि इस राहत की भी टेढ़ी-मेढ़ी गलियां हैं जिनमें एक बड़ी आबादी को भटकना पड़ रहा है। बिना ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन के ओपीडी में जाना समय बर्बाद करना और संक्रमण का खतरा मोल लेना होगा। दोनों ही संस्थानों ने सतर्कता वश यह व्यवस्था की है कि ओपीडी में आने से पहले ऑनलाइन समय लें या फोन करके नाम दर्ज कराएं। इस डिजिटल दौर में बड़े संस्थानों के लिए यह व्यवस्था बना देना आसान है लेकिन उस जनता का क्या करें जो अभी डिजिटल युग के दरवाजे तक भी नहीं पहुंची है?

रोजाना कई मरीज और तीमारदार वहां ऐसे पहुंच रहे हैं जिन्हें यह सब मालूम नहीं या ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन कराना उनके बस की बात नहीं। उनके लिए इतना काफी है कि अस्पताल खुल गया है। पीजीआई की प्रक्रिया और भी जटिल है। इस संकट काल में ये सतर्कताएं आवश्यक होंगी लेकिन जो इस डिजिटल भारत से बाहर हैं और उनकी संख्या बहुत बड़ी है, उनके लिए कोई क्या कोई रास्ता है?

केवल अस्पतालों की बात नहीं है, सरकार गरीब कल्याण के बहुतेरे कार्यक्रम चलाती है। इनमें बहुत घपले होते हैं, जिन्हें दूर करने और पारदर्शिता लाने के लिए ऑनलाइन व्यवस्था लागू की गई। उज्जवला योजना हो या प्रधानमंत्री आवास योजना या शौचालय निर्माण अनुदान, रजिस्ट्रेशन और बैंक खाते अनिवार्य हैं। आम ग्रामीण और कामगार वर्ग के लिए बैंक से लेन-देन भी आसान नहीं है। पिछले छह सालों में बेहिसाब खाते खोले गए। उनमें से कितने खाते चालू हालत में हैं, यह किसी भी बैंक से पता किया जा सकता है।

बैंक हों या जिला-तहसील के कार्यालय, जनता के एक बड़े वर्ग के लिए आज भी बिना किसी की मदद के उन तक पहुंच मुश्किल है। जनता में आर्थिक खाई ही बड़ी नहीं है, सामाजिक हैसियत, शिक्षा और आत्मविश्वास के बीच भी भारी अंतर है। इसीलिए आधार कार्ड बनवाने से लेकर सरकारी कार्यक्रमों का लाभ दिलाने वाला दलाल वर्ग उभर आया है। ऑनलाइन व्य्वस्था में किसी बिचौलिए की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए थी, लेकिन वह और भी अधिक हो गई है क्योंकि जनता के बहुत बड़े वर्ग की न उस तक पहुंच है न समझ।

विडम्बना यह है कि जो वर्ग सबसे ज़्यादा जरूरतमंद है, उसी की पहुंच इस तंत्र के विविध माध्यमों तक नहीं है। सरकारी अस्पताल में पर्चा बनवाना भी जिसके लिए सबसे कठिन काम हो वह कैसे नहीं दलालों के चंगुल में आ जाया? पीजीआई, मेडिकल कॉलेज से लेकर सरकारी अस्पतालों तक गरीब मरीजों और तीमारदारों को बहकाकर निजी अस्पतालों में ले जाने वाले बिचौलिए इसीलिए फल-फूल रहे हैं।

भारत के इस विशाल वर्ग को सामाजिक-शैक्षिक और आर्थिक रूप से सशक्त बनाने के ईमानदार प्रयास इसीलिए सर्वोच्च प्राथमिकता से करने की आवश्यकता है।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 24 अक्टूबर, 2020)                        

Saturday, October 17, 2020

लॉकडाउन, अदृश्य भारत और कृष्णजित के रेखांकन



दो-तीन दिन से सोशल मीडिया में कोलकाता की एक पूजा समिति (बारिशा क्लब, बेहला) की दुर्गा-मूर्ति की फोटो वायरल हो रही है। मूर्तिकार पल्लव भौमिक की बनाई यह मूर्ति अद्भुत और बंगाल की राजनैतिक-सामाजिक चेतना की गवाह है। मई-जून के देशव्यापी लॉकडाउन में करोड़ों कामगार भूखे और नंंगे पांव सैकड़ों-हजारों मील दूर अपने घरों को जिन हालात में लौटने को मजबूर हुए थे, उसने सम्वेदनशील वर्ग को गहरे प्रभावित किया। उन श्रमिकों के चित्र अब भी दिल-दिमाग में ताज़ा हैं और मन में कसक पैदा करते हैं। पल्लव भौमिक ने कामगार मजदूरिन को, जिसकी गोद में एक नन्हा नंग-धड़ंग शिशु है, दुर्गा बना दिया है। एक बेहाल मजदूरिन में दुर्गा का रूप देखना बंगाल की धड़कती सामाजिक -राजनैतिक चेतना और कलात्मक अभिव्यक्ति का शानदार प्रतीक है। सत्यानंद निरुपम ने फेसबुक पर इस तस्वीर को साझा करते हुए टिप्पणी की- 'कोलकाता, ओह कोलकाता/ रचनात्मकता की धरती कोलकाता..।'

जब मैं इस तस्वीर को देखकर अभिभूत हो रहा था, तभी मेरे हाथ में 'नवारुण प्रकाशन' से सद्य: प्रकाशित एक छोटी-सी पुस्तिका पहुंची और उसके पन्ने पलटते हुए मुझे बंगाल की रचनात्मकता और सम्वेदनशीलता को सलाम कहने का मन हो आया। बरहमपुर, मुर्शिदाबाद के कलाकार कृष्णजित सेनगुप्ता के बनाए करीब चालीस रेखांंकनों की यह किताब देशव्यापी बंदी से बेहाल, भुखमरी की कगार पर पहुंचे उस भारत का चेहरा है जिस पर सरकारों, राजनैतिक दलों, योजनाकारोंं, प्रशासकों से लेकर उच्च और मध्य वर्ग की दृष्टि नहीं जाती। इसी गणतंत्र में वह भारत है और विशाल रूप में है, जिसकी एक झलक भर शेष भारत ने मई-जून की तपती दोपहरियों में सड़कों पर या थोड़ा-बहुत मीडिया में देखी। 

'प्रवासी मजदूर' कहे गए इस भारत पर काफी कुछ लिखा गया, सोशल मीडिया की टिप्पणियों से लेकर लेख, कविताएं, कहानियां और विरोधी दलों की टीका टिप्पणियां भी, लेकिन कलाकार कृष्णजित सेनगुप्ता ने अभिनव काम किया है। इस सचेत कलाकार ने कागज पर कलम से सिर्फ रेखाओं के माध्यम से पत्थर तराशने वालोंं, रिक्शा चालकों, सायकिल-ठेले वालों, नाई, बढ़ई, घरेलू कामगारों, फेरी वालों, आदि-आदि का  वह भारत रचा है जो आज के भारत में लगभग अदृश्य रहता है। इन चेहरों में सैकड़ों मील पैदल चल चुकने की टूटन है, भूख से पिचके गाल और उभरी हड्डियां हैंं, टकटकी लगाए गड्ढे में धंसी आंखें हैं, जिजीविषा है, संघर्ष है और हताशा भी। कृष्णजित की रेखाएं वह सब कह देती हैं जो शब्दों से नहीं कहा जा पाता, जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। 

कृष्णजित की रेखाएं बहुत सम्वेदनशीलता से सब कुछ सम्प्रेषित कर देती हैं। छोटी-सी भूमिका में वे पूछते हैं- 'बीमारी के संक्रमण से डरकर सरकार ने सबके मुंह में चीथड़े (मास्क) बांध दिए हैं। अनगिनत लोगों के मुंह और नाक अब निगाहों से ओझल हो गए हैं। पर क्या कपड़ों के इन चीथड़ों से अनगिनत लोगों के बेकाम और बिन पैसे के जीवन की अनिश्चितताओं को ढका जा सकता है?' यही चुभता सवाल उनके बिना चीथड़े वाले इन रखांकनों से चीत्कार की तरह उछलता है। प्रत्येक रेखा चित्र में एक चेहरा है, एक नाम है और उसके नीचे एक-दो लाइनें। जैसे, मिंटू शेख के चेहरे के नीचे दर्ज है- 'ईंट भट्टे में करते थे मजूरी/ मालिक ने कहा- आओ मत/ नहीं आई मजूरी भी इसलिए।'  

यह वास्तव मेंं मिंटू शेख का चेहरा नहीं है। कृष्णजित लिखते हैं - 'एक भी चेहरा वैसा नहीं उकेरा गया है जैसा वह है। मैंने  'क' की आंखें 'ख' के ललाट के नीचे लगा दी हैं। 'ग' के होठों' के दोनों तरफ बना दिए हैं 'घ' के गाल..।' ऐसा क्यों किया? 'क्योंकि इन भूखे और बेरोजगार लोगों का अपमान न हो। इसीलिए नाम भी बदल दिए हैं। हालांकि जांता हूं, ज्यों ही आप इन चेहरों को देखेंगे, इनमें देखेंगे आपके पहचाने हुए चेहरे।'

हिंदी में इस तरह का काम नहीं दिखाई देता लेकिन सुना है बंगाल में होता रहता है। यह पुस्तिका बांग्ला में छपी तो 'ऑल इण्डिया पीपुल्स फोरम' और 'ऐक्टू' ने इसे हिंदी में लाने की पहल की और 'नवारुण प्रकाशन' ने बहुत अच्छे तरीके से प्रकाशित किया है। पुस्तिका का शीर्षक है- 'लॉकडाउन में मज़दूर, भूखा, बेरोजगार।' हिंदी में अनुवाद मृत्युंजय ने किया है। छप्पन पेज की पुस्तिका एक सौ रु में नवारुण प्रकाशन (सम्पर्क- 9811577426) से मंगाई जा सकती है। शायद flipkart पर भी उपलब्ध है।           

Friday, October 16, 2020

सहमा त्योहारी मौसम और उदास इकतारा


काला महीना बीत गया। आज से नवरात्र शुरू हो गए हैं। हवा में शारदीय त्योहारों की गमक है लेकिन इस बार वह धमक नहीं है जो इस ऋतु की बहुत जानी पहचानी है। कोरोना का संक्रमण आंकड़ों में कम हो गया दीखता है और बाजारों में भी कुछ चहल-पहल लौटी है लेकिन आशंकाएं कम नहीं हुईं। बल्कि खतरा बढ़ गया है कि इस त्योहारी मौसम की लापरवाहियां और हवा में बढ़ते प्रदूषण-कणों के कारण वायरस फिर बेकाबू न हो जाए। यूरोप के देश संक्रमण के दूसरे दौर से हलकान हैं।

अप्रैल-मई की देशव्यापी बंदी ने कामगार तबके का बहुत नुकसान किया। करोड़ों की संख्या में दिहाड़ी श्रमिक, ठेले-खोंचे वाले, छोटे-छोटे दुकानदार, वगैरह भुखमरी की कगार पर आ गए थे जिससे उबरना अब तक हो नहीं पाया। यह त्योहारी मौसम इस असंगठित क्षेत्र की कमाई का बड़ा जरिया होता था। मकानों की रंगाई-पुताई से लेकर पण्डाल बनाने-सजाने, साज-सज्जा का सामान, खेल-खिलौने, कुम्हार-कलाओं, गुब्बारों से लेकर धनुष-बाण, पिपहरी, चाट, आदि-आदि। यह असंगठित क्षेत्र इतना विशाल है कि गिनाना मुश्किल। उसकी लगभग आधे साल की और किसी-किसी की तो पूरे साल की कमाई इसी त्योहारी मौसम में होती थी। उस पर दूसरी आफत टूट रही है।

सरकार ने रामलीलाओं और पूजा-पण्डालों को सीमित अनुमति दी है। इससे भक्ति-भाव तो शायद पूरा हो जाए, इनसे जुड़े आम जन की आर्थिकी को कोई सहारा नहीं मिलने वाला। इन दिनों घर-घर रंगाई-पुताई-सफाई का काम चलता था। कारीगर ढूंढे नहीं मिलते थे और दिन-रात दो-दो पालियों में काम करते थे। आप अपने आस-पास देख सकते हैं कि यह धंधा किस कदर प्रभावित हुआ है। कोरोना की चिंता किए बगैर श्रमिक काम करने के लिए तैयार हैं लेकिन काम कराने वाले बेहद सतर्क हैं। किसी-किसी घर में ही काम लगा दिख रहा है।

नवरात्र, दशहरा-दीवाली से लेकर नव वर्ष तक के बेशुमार आयोजन बड़े व्यापारियों को ही नहीं, असंगठित क्षेत्र का बड़ा सहारा बनते थे। इस बार ईद भी इसी बीच पड़ने वाली है यानी त्योहारों की चांदी। चूड़ी-बिंदी वाले हों, पटाखे वाले या दर्जीया बिसातखाने वाले, ऐसे बहुतेरे काम-धंधे व्यवसायमें नहीं गिने जाते और अपने देश में ऐसे करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी का कोई हिसाब ही नहीं दर्ज होता। विशेषज्ञ कहते हैं कि भारत का असंगठित क्षेत्र उसकी आर्थिक रीढ़ का सबसे बड़ा सहारा है। मई-जून में जब करोड़ों की संख्या में कामगार अपने-अपने घरों को लौट रहे थे तब इस भारत को देखकर शेष भारत कितना अचम्भित हुआ था!

यह विशाल भारत, जिसके पास न खेती है न नियमित नौकरी, अपना पेट भरने के जतन स्वयं करता है। उसकी तरफ सरकारों का ध्यान नहीं होता। किसी औद्योगिक घराने के डूबते कारोबार का खूब हल्ला मचता है और उसे सहारा देने के लिए सरकारें आगे आती हैं, मंदी से उबरने के लिए अरबों-खरबों के सरकारी पैकेज घोषित होते हैं, लेकिन इस असंगठित क्षेत्र की मंदी, बल्कि पूरी बंदी पर कहीं कोई पत्ता नहीं हिलता। बांस की पतली खपच्ची को धनुष की तरह मोड़, उसमें तार बांध कर जो इकतारा बजाता-बेचता इन दिनों दिन भर मुहल्लों में घूमता था या जो पूरा परिवार महीनों बैठकर धनुष-बाण-गदा बनाता था कि दशहरे में धंधा चोखा होगा, ऐसी ही अनगिनी मेहनतों पर जिनका जीवन टिका रहता है, उसके लिए कहां कोई पैकेज कभी आया!

इसीलिए यह असंगठित क्षेत्र कोरोना से नहीं डरता। आप लाख कोसते रहिए कि ये लोगमास्क नहीं पहन रहे, संक्रमण फैला रहे हैं, असल बात यह है उनकी चिंता मास्क और सैनीटाइजर नहीं, पेट है। यह त्योहारी मौसम भी इन पेटों के लिए जो बीमारी लाया है, उसका क्या इलाज है?

(सिटी तमाशा, नभाटा, 17 अक्टूबर, 2020)

Saturday, October 10, 2020

कोरोना काल में स्कूल खोलने की ज़द्दोज़हद

 


कोरोना काल की एक बड़ी चुनौती अब स्कूल-कॉलेज खोलना साबित होगी। सबसे बड़ी चुनौती करोड़ों की संख्या में बेरोजगार हुए कामगारों के लिए काम की व्यवस्था करना अब भी बनी हुई है। काफी आर्थिक गतिविधियां शुरू हो गई है लेकिन जिनके पैर ही उखड़ गए थे उनका स्थिर होना लम्बे समय तक बड़ी समस्या बना रहेगा। इस दौरान बहुत सारे लोगों ने नौकरियां खोई हैं। इनमें छोटी तनख्वाहों वाले भी है और भारी-भरकम पैकेज वाले भी। आधुनिक जीवन पद्धति ने भारी-भरकम पैकेज वालों की हालत भी दयनीय बना रखी है। कई बार वे कामगारों से भी बुरी हालत में पाए जा रहे हैं। खैर, यह बिल्कुल अलग मुद्दा है।

पंद्रह अक्टूबर से अपने प्रदेश में दसवीं से आगे की कक्षाओं को चलाने की अनुमति सरकार ने दे दी है। साथ में शर्तें हैं और वे आसान नहीं हैं। बताते हैं कि इसमें अभिभावकों का समर्थन है। अभिभावक लिखकर देंगे तब बच्चे स्कूल जा सकेंगे। वहां छह फुट की शारीरिक दूरी रखेंगे, कॉपी-किताब, कलम, कुछ भी एक-दूसरे से साझा नहीं करेंगे, चिकित्सकीय जांच होगी, वगैरह-वगैरह्। स्कूल प्रबंधकों के लिए इनका पालन करवा पाना आसान होगा? बच्चे, दसवीं-बारहवीं के ही सही, आवश्यक सावधानियां मानेंगे?

वे कौन और कितने अभिभावक है जो बच्चों को स्कूल भेजने के लिए परेशान हैं? लगता है सारा जोर निजी और गैर-सहायता-प्राप्त विद्यालयों के मालिकों-प्रबंधकों का ही है कि स्कूल खोले जाएं। पढ़ाई से कहीं अधिक यह व्यवसाय की चिंता लगती है। इसके लिए उन्होंने प्रशासन की शर्तें स्वीकार कर लीं। कैसे वे आधे-आधे छात्रों की कक्षाएं दो पालियों में चला पाएंगे, जबकि ऑनलाइन कक्षाएं भी जारी रखनी होंगी, उनके लिए जो अब भी स्कूल नहीं आना चाहते। यह बड़ी चुनौती है और उतना ही बड़ा खतरा भी।

कोरोना-त्रस्त दुनिया में जहां-जहां भी स्कूल खुले, वहां-वहां महामारी बढ़ी है। बच्चों-किशोरों-युवाओं से कोरोना बंदी और सावधानियों का पालन कराना बहुत मुश्किल साबित हुआ है। परिवार के बीच रहते हुए भी उन्हें घर से बाहर न जाने के लिए मनाना कठिन रहा है। एक बार स्कूल खुले तो इन आजाद परिंदों को उड़ने से कैसे रोका जा सकेगा? सावधानियों के पालन पर कौन नज़र रखेगा? फिर, जो बच्चे अपने घर से दूर शहरों में पढ़ते हैं, वे क्या करेंगे?  

स्कूलों से संक्रमण फैला तो कौन जिम्मेदार होगा? स्कूल प्रबंधक कह रहे हैं कि यह दायित्व उनका नहीं है। स्कूल परिसर में कुछ भी होता है तो प्रबंधक अपने दायित्व से कैसे बच सकते हैं? क्या वे यह कहेंगे कि अभिभावकों ने लिखित सहमति दी है इसलिए संक्रमण होने पर परिवार वाले ही जानें? सभी अभिभावक स्कूल खोलने पर सहमत हों, ऐसा नहीं है। पढ़ाई और करिअर की चिंता स्वाभाविक ही सबको होगी, विशेष रूप से दसवीं-बारहवीं के बच्चों के लिए लेकिन अभी संक्रमण नियंत्रित नहीं हुआ है। दूसरे दौर का खतरा सामने है।

तर्क यह दिया जा रहा है कि जब अधिकतर व्यावसायिक गतिविधियों की अनुमति दे दी गई है तो स्कूल ही क्यों बंद रखे जाएं। कोरोना शीघ्र विदा होने वाला नहीं और वैक्सीन का कोई भरोसा है नहीं। उसके साथ रहना सीखना है तो स्कूल-कॉलेज भी खुलें। हमारे यहां स्कूल बहुत बड़ा व्यवसाय हैं। असल चिंता इसी व्यवसाय की है।

सरकारी स्कूलों की आर्थिक हालत इतनी खराब है कि उनके पास कोरोना के लिए आवश्यक सावधानियां बरतने के लिए बजट ही नहीं है। सरकारी और निजी स्कूलों में संसाधनों की बहुत बड़ी खाई है। निजी स्कूलों को व्यवसाय की चिंता है तो सरकारी स्कूलों को आवश्यक खर्चों की। अंकों की होड़ को शिक्षा न मानें तो वह दोनों ही जगह मार खाती है।  

(सिटी तमाशा, 10 अक्टूबर, 2020)          

Thursday, October 08, 2020

प्रतिभा की ‘मारीना’


किताब तो जनवरी में दिल्ली के पुस्तक मेले से खरीद लाया था लेकिन तत्काल पढ़ना हो नहीं पाया। फिर अपना उपन्यास पूरा करने में लग गया। उससे मुक्त हुआ तो
मारीनाप्रतीक्षा कर रही थी। प्रतिभा कटियार की किताब है और उसकी पहली ही है, इसलिए पढ़ना ही था। पुस्तक अच्छी होगी, यह उम्मीद प्रतिभा को जानने के कारण थी ही लेकिन मारीनाइतनी अच्छी निकली कि लगा जिस प्रतिभा को जानता था, वह उससे बहुत आगे निकल गई है। शाबाश, प्रतिभा।

वे 1996-98 के दिन थे। स्वतंत्र भारतपत्रकारिता की अपनी सम्पन्न विरासत खो चुका था तो भी हम कुछ लोग उसकी स्मृतियां पकड़े हुए वहां अटके हुए थे। उन्हीं दिनों प्रतिभा कटियार नाम की लड़की कभी-कभार फीचर या लेख लेकर आती। प्रकाशन के साथ-साथ उसका आग्रह यह बताए जाने का होता था कि इसे और अच्छा कैसे बनाया जाए या और क्या अच्छा लिखा जा सकता है। उसकी लगन देखकर हमने उसे अपनी टीम में शामिल किया। क्रमश: विपन्न होते अखबार के एक दड़बे में फीचर की छोटी-सी टीम थी। अनुभवी विनोद श्रीवास्तव के अलावा हमारा वीर बालकथा- गज़लगो विवेक भटनागर। उसी में प्रतिभा भी शामिल हुई। उसके आगे-पीछे अनुजा शुक्ला आई। रचनात्मक ऊर्जा और सपनों से भरे युवा। प्रतिभा में सीखने और निरंतर अच्छा करने की ललक थी। कभी वह गुलजार का इंटरव्यू कर लाती, कभी जावेद अख्तर की शायरी पर लिखती। वह बड़ा आत्मीय और रचनात्मक साथ था। हम मिलकर अजब-गजब प्रयोग करते, कुछ बहुत अच्छे बन जाते कुछ हास्यास्पद। खाली समय में पहाड़ (मेरा प्रिय विषय) और समंदर और कविताओं की बातें होतीं।     

डेढ़-दो साल में हम अलग-अलग राहों पर चल पड़े। प्रतिभा नौकरियां बदलती रही लेकिन निरंतर सम्पर्क में रही। अपना लिखा पढ़ाती और पढ़ने को किताबें ले जाती (अब भी कुछ किताबें उसके पास होंगी) हिंदुस्तानमें भी उसने हमारे साथ कुछ समय काम किया। फिर आई-नेक्स्टके पेजों में उसकी मेहनत अक्सर दिखाई दे जाती। कुछ अलग-सा करती तो फोन पर बताना नहीं भूलती थी कि बताइए कैसा रहा और क्या कमी रही।

एक दिन उसने फोन किया कि अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशनके लिए एप्लाई किया है और आपका नाम संदर्भ व्यक्तिके रूप में दे दिया है। मुझे पता था, उसका चयन हो जाएगा। कुछ समय बाद देहरादून से उसका खिलखिलाता फोन आया था- मैं आपके पहाड़ों पर पहुंच गई हूं।फिर अपनी पहाड़ यात्राओं के बारे बहुत खुश होकर बताती। कुछ वर्ष पहले देहरादून यात्रा में मैं उसके घर खाना भी खा आया लेकिन तब जान नहीं पाया था कि वह पहाड़ों से प्रेम करते-करते प्रेम के कितने समंदर पार कर गई है।

यह बताया मारीनाने। प्रतिभा के ही शब्दों में यह मारीना पर किताब लिखना नहीं है, खुद मारीना हो जाना है। एक शताब्दी से अधिक समयांतर के बावजूद इस पुस्तक में यह कायांतरण, प्रतिभा से मारीना और मारीना से प्रतिभा की आवा-जाही अद्भुत रूप में है। यह प्रेम के पहाड़, रेगिस्तान और समंदर पार किए बिना सम्भव नहीं था। पिछले बीसेक साल में प्रतिभा की कहानियां और कविताएं पढ़ने को मिलती रहीं, जिनमें प्रेम के बहुतेरे शेड्स होते थे। प्रेम उसका प्रिय विषय रहा है। इस सृष्टि की प्रत्येक वस्तु से प्रेम और प्रेम से भी अपार प्रेम। उसकी फेसबुक पोस्टों से भी खुशबूदार प्रेम झरता है जैसे चीड़ वन में हवा में महकता है पराग।

मारीना त्स्वेतायेवा (1892-1941) रूस की ऐसी कवयित्री थी जिसने एक तूफानी और हर चीज के अतिरेक से भरा जीवन जीया। बाल्यकाल की अमीरी और किशोरावस्था से मृत्युपर्यंत दर-दर की ठोकरें, निर्वासन और भुखमरी के हालात तक जिन दो चीजों का दामन उसने नहीं छोड़ा वह थे लेखन और प्रेम। लेखन में मारीना ने कई प्रयोग किए जो सराहे भी गए और खारिज भी खूब किए गए। उसने जो जीया वही लिखा और कभी कोई समझौता नहीं किया। उसने खूब प्रेम किए, प्रेम पाया और उतनी ही उपेक्षा भी। उसके जीवनकाल में उसकी कविताओं का विशेष नोटिस नहीं लिया गया। रूस से निर्वासन (एक तरह से आत्मनिर्वासन) के लम्बे दौर में यूरोप में उसे कुछ समझा गया, कहीं-कहीं सराहना भी मिली लेकिन अधिकतर वह उपेक्षित ही रही। अपने अंतिम दिनों में उसकी रूस वापसी की दास्तान हृदय विदारक है। तो भी उसने कभी लिखना नहीं छोड़ा। छोटी बेटी मर रही थी तब भी, बड़ी बेटी मरणासन्न थी तब भी और फंदे पर लटकने का फैसला करके बेटे के लिए सुरक्षित भविष्य की कामना करते समय भी वह लिखती रही थी। मारीना को रूस में 1960 के बाद क्रमश: सराहना और मान्यता मिल पाई।

हिंदी में मारीना की यथा सम्भव प्रामाणिक कहानी लिखना इसलिए बहुत चुनौतीपूर्ण था क्योंकि उस पर जो भी सामग्री है वह रूसी में है या फ्रेंच और जर्मन में। अंग्रेजी में भी बहुत कम चीजें उपलब्ध हैं। बिना रूसी, फ्रेंच या जर्मन भाषाएं जाने मारीना की विश्वसनीय कथा कहने की चुनौती प्रतिभा ने स्वीकार की तो सिर्फ इसलिए कि किशोरावस्था में पिता की पुस्तकों के बीच मारीना के बारे में कुछ पढ़ कर वह उससे प्रेम कर बैठी थी। कहा जाता है न कि सच्चे प्रेम में भाषा की क्या बाधा! सो, प्रतिभा ने मारीना तक की यात्रा प्यार-मुहब्बत के सहारे तय की और उससे संवाद भी किए। यह कैसे सम्भव हुआ, यह किताब पढ़कर ही जाना जा सकता है। यह किताब मारीना की कविताओं के बारे में नहीं है, उसके जीवन के बारे में है लेकिन फिर मारीना का जीवन ही उसकी कविताएं हैं।

हिंदी में मारीनाका प्रकाशन बड़ी उपलब्धि है। अपनी टिप्पणी में डॉ वरयाम सिंह ने बिल्कुल सही लिखा है कि यह शोध-ग्रंथ नहीं है, यह प्रेम है।यह पुस्तक पढ़ कर ही जान पाया कि वर्षों से प्रतिभा जो प्रेम-प्रेम जपती रही है, उस समर्पण एवं साधना का फल कितना संतोषदायक है। हिंदी के युवा लेखकों के लिए यह एक सीख भी है।

प्रतिभा से हम भविष्य में और बड़े कामों की उम्मीद पाल सकते हैं। उसके कविता संग्रह की भी प्रतीक्षा है।

-नवीन जोशी (8 अक्टूबर, 2020)

Sunday, October 04, 2020

ऐसी ‘सामाजिक दूरी’ कि असामाजिक प्राणी हो गए!

 

कोरोना हमें किस कदर असामाजिक प्राणी बना दिया है!

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, बचपन से यही पढ़ते आ रहे थे। कोरोना महामारी ने यह पाठ बदल दिया है। जीवित रहना है तो असामाजिक प्राणी बनकर रहो!

कोरोना वायरस का आक्रमण होते ही सबको सचेत किया गया था कि सामाजिक दूरी’ (सोशल डिस्टेंसिंग) बनाकर रखें। आपत्ति की गई थी कि इसे सामाजिक दूरीक्यों कहा जा रहा है। वायरस तो शारीरिक  नजदीकी होने पर संक्रमित होता है। शारीरिक दूरी कहिए या भौतिक दूरी। सामाजिक दूरी बनाकर मनुष्य कैसे रह पाएगा? धीरे-धीरे सामाजिक दूरीको शारीरिक दूरीकहा जाने लगा लेकिन हुआ वही जो पहले-पहल मुंह से निकला था- पिछले छह महीनों में हम एक-दूजे से, अपने करीबियों से, समाज से कट गए। असामाजिक हो गए!

कुछ समय पहले अम्बेडकर नगर के जिलाधिकारी राकेश मिश्र की फेसबुक पोस्ट के अंश दिमाग से निकलते ही नहीं। अपने जिले के मुख्य चिकित्सा अधीक्षक डॉ एस पी गौतम की कोरोना संक्रमण से हुई मौत पर उन्होंने लिखा था- ‘’आज हर उम्मीद को तोड़ती खबर आई। हम लखनऊ भागे... अंतिम विदाई... पूरा परिवार था, पर बॉडी-बैग में सील्ड देह थी... अंतिम दर्शन, मुख देखना भी न हो सका... विद्युत शवदाह गृह के कर्मचारी अपने विशेष वस्त्र पहनने लगे। हमें भी अपने पांव, सर, हाथ, मुंह सब ढकना था.. वहां सबकी पहचान खो गई...।‘’

एक तस्वीर देखी थी जो भूलती ही नहीं। रह-रह कर सिहरन से भर देती है। एक युवक की कोरोना संक्रमण से मौत हो गई। दूर रहने वाले माता पिता रोते-रोते भागे आए लेकिन बेटे का अंतिम संस्कार करना तो दूर, उसे देख भी नहीं पाए। अस्पताल कक्ष के खुले दरवाजे के बाहर खड़े होकर जिसे वे देख पा रहे थे वह सिर्फ प्लास्टिक का पूरी तरह बंद लम्बा बंडल था वहां न किसी का चेहरा था, न हाथ-पांव। एक प्रतीति भर थी कि उसमें उनके जाये बेटे की ठंडी देह है। यह अहसास भी अस्पताल के कर्मचारियों के बताने से हुआ था।

अपने जाये बेटे का चेहरा भी अंतिम बार नहीं देख पाने की यह कसक कोरोना-काल की नई दारुण कथा है। प्रतिदिन ऐसे मार्मिक प्रसंग सुनने में आ रहे हैं। पत्नी, पति का चेहरा नहीं देख सकती, छूना तो दूर की बात है। बॉडी-बैग़ में सील बंद देह को बेटे-बेटी या सगे सम्बंधी कंधा नहीं दे पा रहे। पुलिस ले जा रही गाड़ी में और अंत्येष्टि कर दे रही। शोक व्यक्त करने भी कोई नहीं आ सकता। 

सुख में न जा पाते किसी के, कोई बात नहीं थी। हारी-बीमारी में, दु:ख-तकलीफ में तो अपनों की सहायता चाहिए, सहारा चाहिए, सांत्वना देने वाला चाहिए। वह भी नहीं हो पा रहा। गमी में जाना किसी के शोक में शामिल होना ही नहीं होता, पुण्य का काम भी माना जाता है। इजा कहती थी- किसी के अच्छे में शामिल भले न हो पाओ, दु:ख-परेशानी और शोक में अवश्य शरीक हो आना चाहिए। मित्र तो मित्र, शत्रु की गमी में भी जाना चाहिए। पिछले दिनों इजा नहीं रही। वह अपनी पूरी उम्र काटकर गई। शोक तो शोक है। मित्र-सम्बंधी, पड़ोसी और परिचित, इजा का सम्मान करने वाले कई लोग आना चाह कर भी नहीं आ पाए। हमने ही कई लोगों को मना कर दिया। कहा कि जहां हैं वहीं से उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना कर लीजिए।

यह कैसा समय आया! यह तो सचमुच सामाजिक दूरीहो गई! कौन नामुराद था जिसने सोशल डिस्टेंसिंगकहा था?

एक सुबह अचानक ध्यान गया कि कब से जूता नहीं पहना है। कोरोना-बंदी घोषित होने के बाद से उसकी आवश्यकता ही नहीं रही। रैक में पड़ा-पड़ा वह धूल खा रहा है। उसके अंदर पड़े मुड़े-तुड़े जुराबों के ऊपर मकड़ियों ने जाला बना लिया। फिर कपड़ों की अल्मारी की याद आई। धुले-इस्तरी किए कई जोड़े कपड़े हैंगर में लटक रहे हैं। दो-चार घरेलू कपड़ों के अलावा छह महीने से बाहरी कपड़े पहने ही नहीं। घर में क्या पैण्ट-कमीज पहनकर बैठें! पास की बाजार से कभी-कभार अत्यावश्यक चीजों की खरीद घरेलू कपड़ों में हो जाती है। कुछ वेबिनार और लाइवमें हिस्सेदारी करनी पड़ी तो कुर्ते से ही काम चल गया या पाजामे के ऊपर कमीज डाल ली, बस!

ठीक-ठाक कपड़े-जूते सामाजिक प्राणी को चाहिए जो इन दिनों हम रहे नहीं। शादी-ब्याह में हजारों मित्रों-सम्बंधियों का आतिथ्य सत्कार करने वाले चंद परिवारी जनों के बीच रश्में निभा ले रहे हैं। न बैण्ड-बाजा-बारात, न भव्य दावतें। जन्म दिन की अंतरंग पार्टियां तो भूल ही गए। गंजिंग किसे कहते थे? मॉल-मल्टीप्लेक्स भी हुआ करते थे? किसलिए पहनें धुले-साफ कपड़े, चमचमाते जूते? कई पुरुषों‌-महिलाओं को जानता हूं जिन्हें नई-नई काट के अच्छे से अच्छे कपड़े पहनने का शौक है। हर महीने उनकी वार्डरोब में नई आवक होती थी। वे इन दिनों क्या कर रहे होंगे? सजने-संवरने का चाव घर में या ऑनलाइनकितना पूरा होता होगा? फेसबुक में फोटो डालकर वह प्रशंशा कहां पाई जा सकती है जो हर निगाह अपनी ओर उठते देखकर होती थी! खुद ही सजो, खुद ही आईने के सामने खड़े होकर तारीफ करो, ऐसा भी कहीं होता है?

इधर आपने घर के कूड़ेदान पर गौर किया?  हमने तो पाया कि आजकल वह भरता ही नहीं। दूध के खाली पैकेटों के अलावा उसमें कोई पॉलीथीन नहीं फेंकी जा रही। कुछ सब्जी-फलों के छिक्कल, कुछ बिस्कुट, दवाइयों, आदि के रैपर, बस! बाजार ही जाना नहीं होता। डरते-डरते गए भी तो सिर्फ अत्यावश्यक खरीदारी हो रही। शॉपिंगकहते थे जिसे, जरूरत हो न हो, बाजार निकले, घूमे-टहले और कुछ खरीद लाए, वह सब नहीं हो रहा। इसलिए इन दिनों घर से बहुत कम कचरा निकल रहा है। पहले हर रोज कूड़ेदान भर जाता था। कई दिन कचरा कूड़ेदान के बाहर भी फैल जाता था।

इस कोरोना-काल में मनुष्य का सामाजिक प्राणी होना सिर्फ तब दिखाई दिया था जब चालीस दिन के लॉकडाउन के बाद दारू की दुकानें खुली थीं। लोग संक्रमण के डर से घरों में दुबके थे। जिन्होंने अपने सेवकों-सहायकों तक को घर में आने से रोक दिया था और खुद बर्तन मांजना-झाड़ू-पोछा करना मंज़ूर किया, वे अचानक मदिरा की दुकानों पर टूट पड़े थे। क्या अद्भुत दृश्य था! उस दिन सचमुच सोशल डिस्टेंसिंगको धूल चटा दी गई थी। साबित कर दिया गया था कि मनुष्य अंतत: एक सामाजिक प्राणी है। किंतु यह एक असामाजिकता के सतत सिलसिले में एक क्षेपक ही साबित हुआ।

आजकल सब कुछ डिजिटल है, वर्चुअल। सामाजिक कुछ भी नहीं। ऑफिस का काम ऑनलाइन। स्कूल ऑनलाइन। मीटिंग-सेमीनार का नाम ही बदल गया है- वेबीनार, वर्चुअल मीटिंग्।। शॉपिंग ऑनलाइन हो रही। पड़ोसियों की कुशल-क्षेम ऑनलाइन। मुहल्ले का निंदा-पुराण व्हाट्सऐप पर। कुछ भी आमने-सामने नहीं। डॉक्टर भी मरीज को ऑनलाइन देख रहे। कभी-कभी सोचता हूं, सूचना क्रांति न हुई होती, कम्प्यूटर-मोबाइल-इण्टरनेट नहीं होते तो इस कोरोना –काल में काम कैसे चलता? कनेक्टिविटी ही है जो थोड़ा-बहुत सामाजिक बनाए हुए है- वर्चुअल सामाजिक!

कोई आशा भी नहीं दिखाई देती कि इस असामाजिकता पर शीघ्र विराम लगेगा। वैक्सीन पर ट्रायल चल रहे हैं लेकिन शोध-विशेषज्ञ भी नहीं बता पा रहे कि कब तक बनेगी और बन भी गई तो उसका असर कितने दिन रहेगा। विज्ञान ने बहुत तरक्की की है लेकिन एक वायरस ने दुनिया हलकान कर रखी है। हारना तो कोरोना को है ही लेकिन जब तक हमारी विजय सुनिश्चित नहीं हो जाती असामाजिक प्राणी के रूप में रहना है।    

यही न्यू नॉर्मलहै।

(विश्ववार्ता, 1-15 अक्टूबर, 2020)  

 

  

 

 

  

Friday, October 02, 2020

हाथरस काण्ड हो या गांधी जयंती, सवाल एक है

 


जैसा कि हमेशा होता है, बल्कि कर दिया जाता है, हाथरस या बलरामपुर या किसी भी जगह किसी युवती के बलात्कार और हत्या का मुख्य मुद्दा दूसरे विवादों में उलझा दिया जाएगा। जैसे, एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने फॉरेंसिक जांच का हवाला देकर घोषणा कर दी है कि हाथरस की दलित युवती से बलात्कार नहीं हुआ था। उसकी मृत्यु गर्दन की हड्डी टूटने की वजह से हुई। अब विवाद में पड़ते रहिए कि बलात्कार क्या है और हुआ था या नहीं या फॉरेंसिक रिपोर्ट में छेड़छाड़ तो नहीं हुई।

पुलिस प्रशासन यह भी कहने लगा है कि हाथरस कांड की आड़ में प्रदेश में जातीय विद्वेष फैलाने और सरकार को बदनाम करने की साजिश की गई। प्रशासन अब जांच करेगा कि इसके पीछे कौन लोग थे। उन पर कार्रवाई की जाएगी। मूल अपराध और अपराधी कहीं नेपथ्य में चले जाएंगे।     

बलात्कार और हत्या जैसे संगीन अपराधों को मुद्दा बनाकर कांग्रेस या किसी भी विरोधी दल का सत्ता पक्ष के विरुद्ध आंदोलन करना स्वाभाविक होना चाहिए लेकिन बहस इस पर होने लगेगी कि राहुल-प्रियंका को हाथरस जाने का ड्रामा करने की क्या जरूरत थी। विपक्ष में कोई भी पार्टी हो, यही करेगी।   यह उसका लोकतांत्रिक अधिकार भी है। सरकार क्या और क्यों कर रही है, यह सवाल भी बराबर पूछना होगा।

यह मुद्दा भी हर बार की तरह पीछे छूट जाएगा कि हमारा समाज आज भी स्त्रियों के प्रति कितना संवेदनहीन और पाशविक है। स्त्री और वह भी दलित,  मनुष्य होने का दर्जा ही नहीं रखती। दलितों और स्त्रियों पर अत्याचार होते जा रहे हैं। यह वही हाथरस है जहां साल-डेढ़ साल पहले कोर्ट के आदेश के बावजूद एक दलित लड़की की बारात गांव के मुख्य रास्ते से नहीं आने दी गई। प्रशासन ने ही बीच-बचाव करके दूसरा रास्ता बनवाया। यह कैसा बीच-बचावहै जो अन्याय का समर्थन करता है? अपराधियों के समर्थन में जातीय गोलबंदी होती है और मीडिया में आने के बावजूद प्रशासन के कान में जूं नहीं रेंगती।

जीभ काटना और गर्दन तोड़ देना जैसा जघन्य अपराध बताता है कि घृणा कितनी गहरी है। यह भी कि अपराधियों को कानून का भय नहीं रहा। कोई एक मामला नहीं है और सिर्फ इसी सरकार के कार्यकाल की बात नहीं है। बलात्कार और हत्या सामान्य अपराध बन गए हैं। वंचित वर्ग सर्वाधिक उपेक्षित और उत्पीड़ित है। क्या इसके पीछे सरकारों और जांच एजेंसियों के संवेदनहीन रवैये नहीं हैं?

प्रशासन का दायित्व अपराधों को छुपाना या अपराध को कमतर साबित करना नहीं, अपराधियों को पकड़ना, सबूत जुटाना और अदालत तक पहुंचाना है ताकि उन्हें कड़ा दण्ड मिले। जब परिवार के विरोध के बावजूद प्रशासन आधी रात को पीड़िता का अंतिम संस्कार करा देता है तो लगता नहीं कि उसकी प्राथमिकता वही है जो होनी चाहिए थी। आगे-पीछे हुए दो मामलों में रात को पुलिस पहरे में किए गए अंतिम संस्कार क्या साबित करते हैं?

महात्मा गांधी की जयंती पर देश ने उन्हें ससमारोह याद किया। समारोह करने और श्रद्धा बरतने में कितना अंतर है! श्रद्धा में अनुकरण की भावना भी निहित होती है। गांधी ने कहा था कि सरकारों को कोई भी फैसला लेते वक्त कतार में सबसे पीछे खड़े व्यक्ति का ध्यान करना चाहिए कि फैसले का उस पर क्या असर पड़ेगा। समाज में सबसे पिछड़े और वंचित वर्ग का कितना और कैसा ध्यान रखा जा रहा है?

गांधी सिर्फ तस्वीरों, मूर्तियों और समारोहों में हैं। हाथरस से बलरामपुर तक हम जो होता देखते हैं उसमें गांधी कहां हैं?     

(सिटी तमाशा, नभाटा, 03 अक्टूबर, 2020)