हमारे एक मित्र सुबह-सुबह अखबार पढ़ते हुए अक्सर गम्भीर टिप्पणी या कभी-कभार चुहल कर दिया करते हैं। चंद रोज पहले उन्होंने फोन किया- ‘ये बताओ भाई, क्या पुलिस मैनुअल में तोंद रखने की अनुमति है?’ हमने पूछा- ‘क्यों?’ बोले- ‘दाढ़ी रखने में एक सब-इंस्पेक्टर निलम्बित हो गया। बड़ी-बड़ी तोंद वाले हाँफते पुलिस वाले अपराधियों को पकड़ने में तैनात हैं, इसलिए पूछा।’ फिर वे ठहाका लगाकर हंसे। हंसते हुए हमें बागपत का किस्सा याद आ गया।
बागपत थाने के सब-इंस्पेक्टर
इम्तियाज अली ने दाढ़ी कटाने के बाद सावधान की मुद्रा में सलूट मारा तो पुलिस
अधीक्षक ने उनको ड्यूटी में बहाल कर दिया है। बिना अनुमति दाढ़ी रखने की ‘अनुशासनहीनता’ में उन्हें कुछ दिन पहले
निलम्बित कर दिया गया था। पुलिस सेवा आचार संहिता में मूंछें रखने की अनुमति है
लेकिन सिखों को छोड़कर और कोई धर्मावलम्बी दाढ़ी नहीं रख सकता। मूंछें कड़कदार और
रोबीली हों तो उनके रख-रखाव का भत्ता भी मिल सकता है। नाम तो अब याद नहीं रहा
लेकिन लखनऊ में ही एक सिपाही की दोनों गालों को ढंकती डिजायनर मूंछों की तस्वीर
पिछले दशक तक अक्सर छपा करती थी।
खैर, मित्र की चुहल सिर्फ हंसी
के लिए नहीं थी। मामला विचारणीय है। यूं तो तोंद सार्वकालिक और
अंतराष्ट्रीय समस्या है लेकिन पुलिस और अन्य सुरक्षा बलों के लिए वह सर्वथा अस्वीकार्य
है। वह उनकी चुस्ती-फुर्ती पर बड़ा प्रश्न उठाती है। किसी अपराधी का पीछा करना हो
तो तोंद वाले पुलिस कर्मी कैसे दौड़ें? कभी-कभार
जिले के चुस्त एसएसपी सिपाहियों-थानेदारों को पुलिस लाइन में दौड़ लगवा देते हैं।
तब कई तोंद वाले हाँफने लगते हैं या गिर पड़ते हैं।
सिर्फ तोंदियल सिपाहियों-थानेदारों की बात नहीं है। कोई तीन
साल पहले भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने सुरक्षा बलों की तोंद-समस्या पर गम्भीरता
से विचार किया था। तब जो सुझाव आया था कि आईपीएस हों या छोटे पुलिस अधिकारी उनकी
प्रोन्नति से पहले उनकी तोंद देखी जाए यानी फिटनेस। पता नहीं सुझाव कहां अटक गया।
हाल ही में भारत-चीन सीमा पर तैनात आईटीबीपी जवानों-अफसरों के लिए उनके एक
महानिदेशक ने बाकायदा ‘तोंद-मुक्त 2020’ अभियान
शुरू किया। इसमें अफसरों की सख्त ट्रेनिंग के साथ उनकी पत्नियों को भी हलकी-फुलकी
कसरत कराना शामिल है क्योंकि फिटनेस पूरे परिवार की अच्छी होती है। बीएसएफ के
महानिदेशक को यह अभियान पसंद आया तो उन्होंने भी इसे लागू करवाया है।
सीमा पर तैनात जवान और अफसर तो खैर कठिन ड्यूटी करते हैं, लेकिन
शहरों में जगह-जगह ऐसे सिपाही-दरोगा-अफसर दिख जाते हैं जिन्हें हर तीन-चार मिनट
में तोंद से नीचे सरक गई पतलून ऊपर समेटनी पड़ती है। बहुत समय नहीं हुआ जब मध्य
प्रदेश के ऐसे ही एक बेहद बेडौल सिपाही को देखकर चर्चित लेखिका शोभा डे ने
व्यंगात्मक ट्वीट कर दिया था। यह पता चलने पर कि उसे कोई असाध्य बीमारी है, शोभा डे की लानत-अलामत हुई और मुम्बई के नामी डॉक्टरों ने उस सिपाही का
नि:शुल्क इलाज किया था। आशय यह कि पुलिस वालों की तोंद अपवाद स्वरूप ही बीमारी हो
सकती है, सामान्यतया वह शिथिल तन-मन की निशानी ही है।
तोंदियल अपराधी नहीं दिखते लेकिन पुलिस वाले खूब दिखते हैं।
अपने यू पी में मुंह से ‘ठांय-ठांय’ बोलकर अपराधियों को खदेड़ने वाले प्रत्युत्पन्नमति पुलिसकर्मी हंसी का पात्र
बन जाते हैं लेकिन तोंदियल थानेदारों पर कोई अंगुली नहीं उठाता। ’छप्पन इंच’ की छाती हिंदी का नया मुहावरा बन गई लेकिन
थानेदारों की तोंद कितने इंच की हो कि चर्चा में आए?
थाईलैंड में पुलिस वालों के लिए साल में कम से कम एक बार ‘फैट बेली
डिस्ट्रक्शन प्रोग्राम’ यानी तोंद ध्वंस कार्यक्रम’ चलाता है जिसमें कड़ी मशक्कत कराई जाती है। अपने यहां साल में एक बार रैतिक
पुलिस परेड के अलावा कुछ नहीं होता। कौन करे? चूंकि तोंद के मामले
में नेता सबसे आगे हैं, इसलिए यह मुद्दा दबा ही रहने के आसार
हैं।
(सिटी तमाशा, नभाटा, 31 अक्टूबर 2020)