ओड़िसा के मयूरभंज जिले की संथाल (आदिवासी) महिला द्रौपदी मुर्मु भारतीय गणतंत्र की पंद्रहवी राष्ट्रपति बन गई हैं। इस सर्वोच्च संवैधानिक पद पर बैठनेवाली वे पहली आदिवासी और दूसरी महिला हैं। उनके निर्वाचन को भारत के आदिवासियों की अस्मिता और मुख्यधारा में उनकी मान्यता से जोड़कर देखा जा रहा है। एनडीए ने भी उन्हें राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाते समय उनकी आदिवासी पहचान को ही सामने रखा। उनके आदिवासी होने के कारण मध्य प्रदेश, ओड़िसा, महाराष्ट्र, झारखण्ड जैसे आदिवासी बहुल राज्यों समेत कई अन्य प्रदेशों से भी विपक्ष के वोट उन्हें मिले। विपक्षी खेमा सतर्क था कि उनके विरोध को आदिवासियों के वीरोध के रूप में न देखा जाए। स्वयं द्रौपदी मुर्मु ने राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद अपने संबोधन की शुरुआत ‘जोहार’ से की, जो कि आदिवासियों का स्वागत-सम्बोधन है। मूल रूप में आदिवासी, जिनका पूरा जीवन वनों पर निर्भर रहा है, जंगल में घास-लकड़ी, आदि काटते हुए ‘जोहार’ बोलते हैं। अब यह ‘प्रणाम’ के अर्थ में अधिक प्रयुक्त होता है, खैर।
द्रौपदी मुर्मु के राष्ट्रपति बनने के साथ ही देश के
आदिवासियों और उनके हालात की ओर ध्यान जाना स्वाभाविक ही है। मीडिया में नए
राष्ट्रपति की आदिवासियों मूल की चर्चा खूब हो रही है। आदिवासियों के लिए भी यह
गर्व की बात है। अपनी इस गर्वीली पहचान को स्वयं नई राष्ट्रपति ने भी स्वीकार किया
और ‘जोहार’ से अपना भाषण शुरू करते हुए वे यह कहना नहीं
भूलीं कि “मैं आदिवासी परिवार में पैदा हुई, जो कि हजारों
साल से प्रकृति के साथ समन्वय बनाकर जीवन यापन करते आए हैं। मैंने वनों और
जल-संसाधनों का महत्व समझा है। हम (आदिवासी) प्रकृति से आवश्यक संसाधन जुटाते हैं
और उतने ही सम्मान से प्रकृति की सेवा करते हैं। यह संवेदनशीलता आज पूरे विश्व के
लिए आवश्यक हो गई है।” उन्होंने आदिवासी कवि भीम भोई की पंक्तियां भी उद्धृत कीं।
सामान्य तौर पर यही माना जाता है कि उन्नत और प्रभावशाली
आर्यों के भारत आने से पहले यही लोग यहां रहते थे। आम तौर पर इनका निवास जंगलों
में था और भोजन (फल, कंदमूल, शिकार, आदि)
तथा आवास (कंदराएं) के लिए ये जंगलों पर ही निर्भर थे। वनों के अलावा नदियां इनका
मुख्य जीवन-आधार थीं। घुमंतू जीवन शैली वाले आदिवासियों ने बस्तियां बसाकर रहना और
खेती करना बाद में सीखा। इनके धर्म, ईश्वर और संस्कृति बहुत
भिन्न और मूलत: प्रकृति-आधारित रहे। आज भी ये प्रकृति-पूजक ही हैं। विभिन्न भागों
के आदिवासी सब एक से नहीं हैं। उनकी बोलियां और रीति-रिवाज फर्क हैं लेकिन हैं वे
सभी मूलत: प्रकृति पर निर्भर और उसे पूजने वाले समाज हैं। उनका समाज, या कबीले, एक परिवार की तरह रहते हैं। कबीले की अपनी
शासन-व्यवस्था होती है और वे एक तरह से आत्मनिर्भर होते हैं। कबीले परिवार
केंद्रित होने की बजाय समाज-केंद्रित होते हैं। मुखिया ही कबीले का पालनहार और
रखवाला होता है। उनके जीवन में अर्थ यानी धन की कोई जगह नहीं होती। प्रकृति ही
उनका धन-धान्य है। बाहर की दुनिया से उनका कोई लेना-देना नहीं होता। उनके कबीलों
में सभी बराबर होते हैं। हिंदू समाज की तरह कोई भेदभाव या जातीय छुआ-छूत नहीं बरती
जाती। स्त्री का स्थान बहुत सम्मानजनक होता है। वह पुरुषों की दासी की तरह नहीं
रहती। उसका स्वतंत्र व्यक्तित्व होता है और विवाह में भी उसकी मर्जी चलती है। कई
आदिवासी समाज मातृसत्तात्मक होते थे, जहां स्त्री की सत्ता
चला करती थी। समय के साथ उनमें बहुत बदलाव आए हैं लेकिन आज भी उनका समाज ह्मारे
हिंदू समाज-व्यवस्था से बहुत भिन्न है। वे अपने को हिन्दू मानते भी नहीं। यह अलग
बात है कि जैसे-जैसे आदिवासी मुख्य धारा में शामिल होते गए या उसके सम्पर्क में
आते गए, उनमें उसके प्रभाव आते गए।
आर्यों ने भारत में अपना प्रभुत्त्व जमाने के साथ ही भोले-भाले
आदिवासियों को अपना दास बनाया, उन्हें उनके इलाकों से खदेड़ा और उन्हें
शिक्षा तथा सनसाधनों से दूर ही रखा। अंग्रेजों के आगमन के बाद जब वनों और अन्य
प्राकृतिक संसाधनों का दोहन होने लगा तब आदिवासियों का जीवन-आधार तेजी से छिनता और
सिकुड़ता गया। 1864, 1878 और 1927 के वन कानूनों ने उन्हें विभिन्न
क्षेत्रों के वनों से उजाड़ दिया। कई इलाकों में आदिवासियों ने विद्रोह किया और
अंग्रेजों से लड़े। मुण्डाओं, भीलों, गोंडों,
संथालों, आदि आदिवासियों के कई लम्बे और उग्र विद्रोह
इतिहास में दर्ज़ हैं।
देश की स्वतंत्रता के बाद यद्यपि संविधान और नई शासन
व्यवस्था ने आदिवासियों का अस्तित्व स्वीकार किया और उन्हें कुछ रियायतें (जैसे
आरक्षण) दीं लेकिन विकास योजनाओं के नाम पर उनके प्राकृतिक संसाधान लगातार छिनते रहे।
कभी बड़े बांधों के लिए, कभी पर्यटन केंद्रों के विकास और
वन-विहारों एवं अभयारण्यों के नाम पर उन्हें उनके परम्परागत इलाकों से खदेड़ा गया
और कभी उन्हें मुख्य धारा में शामिल करने के नाम पर। तमाम कीमती वन-सम्पदा और खनिज
उन्हीं जंगलों, पहाड़ों और नदी घाटियों में हैं जहां आदिवासी
रहते थे। ‘मायनॉरिटी ग्रुप इंटरनेशनल’ के
एक अध्ययन के अनुसार भारत की 90 प्रतिशत कोयला खानें, 72 प्रतिशत
वन और 80 प्रतिशत खनिज पदार्थ आदिवासी भूमि पर पाए जाते हैं। स्वाभाविक ही विकास
परियोजनाओं की सर्वाधिक मार आदिवासियों पर पड़ी। खनन के नाम पर और शहरीकरण के लिए
भी उनकी जमीनें छिनती गईं और आज भी छीनी जा रही हैं। विस्थापन तेज हुआ लेकिन
पुनर्वास उपेक्षित रहा। नतीजा यह हुआ कि आदिवासी सिकुड़ते और सीमित होते गए।
जनजातीय आरक्षण के सहारे कई आदिवासी समाज पढ़ाई-लिखाई और नौकरियों के रास्ते देश की
मुख्य धारा में शामिल हुए लेकिन इस प्रक्रिया में अपनी पहचान और संस्कृति खोते गए।
वनों और नदियों से दूर होते जाने के कारण उनकी पूरी जीवन शैली बदलती गई। कतिपय
आदिवासी समाज आज भी बचे-खुचे जंगलों में अपना अस्तित्व बचाने की कोशिश में लगे हैं
लेकिन उनकी संख्या लगातार कम होती जा रही है। जैसे, अंडमान
निकोबार के जारवा आदिवासी, जिनकी संख्या अब दहाई में ही रह
गई है। उत्तराखण्ड के वनराजि या वनरावत भी चंद सैकड़ा संख्या में रह गए हैं।
माना जाता है कि देश के उत्तर-पूर्व का क्षेत्र आर्यों के
प्रभाव से मुक्त रहा, इसलिए वहां आदिवासी अधिक स्वतंत्र और शक्तिशाली बने रहे। आज
भी असम, अरूणाचल, नगालैण्ड, मिजोरम समेत समस्त उत्तर-पूर्वी राज्यों में विभिन्न आदिवासी समूह
राजनीतिक-आर्थिक रूप से काफी संगठित और प्रभावशाली हैं। इन राज्यों में उनकी पहचान
कायम है, वे चुनाव परिणामों को भी प्रभावित करते हैं और कई
बार अपनी ताकत के बल पर सरकारों से बातचीत और समझौता करने की स्थिति में होते हैं।
इसीलिए यहां की मिजो, नगा, कुकी,
गारो, खासी, बोडो,
आदि कई जनजातियों की चर्चा न केवल आकर्षक सांस्कृतिक प्रस्तुतियों
के लिए बल्कि, राजनीतिक कारणों से भी अक्सर सुनाई देती है।
उत्तर प्रदेश में 1967 में सिर्फ थारू, बुक्सा,
भोटिया-सौका, जौनसारी और
वनराजियों को ही आदिवासी यानी जनजातियों में शामिल किया गया था। बाद में मिर्जापुर,
चंदौली, कुशीनगर, संतकबीरनगर,
भदोही और बुंदेलखण्ड की कुछ जातियों को भी यह दर्जा दिया गया।
भोटिया-सौका, जौनसारी और वनराजि (वनरावत) अब उत्तराखण्ड में
ही हैं। कई जातियां अपने को जनजाति घोषित करवाने के लिए लड़ रही हैं। ऐसा भी है कि
कोई जनजाति जैसे, सहरिया, ललितपुर जिले
में जनजाति में शामिल है तो दूसरे जिले में अनुसूचित जाति में। ऐसा ही गोंडों के
साथ भी हुआ है। यह विसंगति कायम है और शुरू में ही लिख दिया गया है कि एस टी यानी
अनुसूचित जनजातियों में शामिल सभी वास्तविक अर्थों में आदिवासी यानी मूल निवासियों
में नहीं आते।
भारत ने आदिवासियों के लिए कुछ संवैधानिक रियायतें तो दी
हैं लेकिन उन्हें ‘मूल निवासी’ नहीं माना है। आदिवासियों या
मूल निवासियों को अपने-अपने देश में मान्यता, सुरक्षा और
अवसर प्रदान किए जाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने जो 107वां कंवेंशन
(समझौता) तैयार किया, उस पर भारत ने भी हस्ताक्षर तो किए हैं लेकिन आदिवासियों को
मूल निवासी मानने से इनकार करते हुए यह तर्क रखा कि यहां रहने वाले सभी मूल निवासी
हैं। इसके विपरीत दुनिया के कई देशों में, विशेषकर लातीनी
अमेरिकी देशों में आदिवासियों को कानूनी रूप से मूल निवासी माना गया है। कई देशों
के आदिवासी यह अधिकार पाने के लिए लड़ रहे हैं। भारत में भी कई प्रदेशों में
आदिवासी अपने जल-जंगल-जमीन लगातार छीने जाने के विरोध में और अपने अधिकारों के लिए
संघर्ष कर रहे हैं। आज उनमें सामाजिक-राजनैतिक चेतना का विकास हुआ है और वे अपनी
पहचान को लेकर सतर्क व जागरूक हुए हैं।
द्रौपदी मुर्मु के राष्ट्रपति निर्वाचित होने से आदिवासी समुदायों में खुशी स्वाभाविक है। ऐसी ही प्रसन्नता दलितों को भी हुई थी जब उनके बीच जन्मा एक व्यक्ति पहली बार राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठा था। खुशी अपनी जगह है लेकिन यह मानना दिवास्वप्न देखना होगा कि एक आदिवासी महिला के राष्ट्रपति बन जाने से आदिवासियों के हालात सुधरेंगे, उनके जल-जंगल-जमीन पर अधिकार बहाल होंगे, विकास परियोजनाओं, खानों और बांधों के लिए आदिवासी अपनी भूमि से नहीं उजाड़े जाएंगे, और प्रकृति को बचाने और उसके सम्मान का वह जीवन-दर्शन लौटेगा जिसकी चर्चा नई राष्ट्रपति ने अपने पहले सम्बोधन में की है। इसके बावजूद यह उम्मीद बनी रहेगी कि समय-समय पर राष्ट्रपति आदिवासी समाजों की खूबियों, समस्याओं और अपेक्षाओं की चर्चा करेंगी। यह भी आशा की जानी चाहिए कि बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के नाम पर विस्थापित किए गए आदिवासियों का बेहतर पुनर्वास होगा- नकद मुआवजे से नहीं, बल्कि जमीन व जंगल के बदले जमीन एवं जंगल देने वाला पुनर्वास।
-न जो.
(दस्तक टाइम्स के लिए, 28-07-2022)