Wednesday, July 27, 2022

कम से कम आदिवासियों के मुद्दे केंद्र में तो आए

 ओड़िसा के मयूरभंज जिले की संथाल (आदिवासी) महिला द्रौपदी मुर्मु भारतीय गणतंत्र की पंद्रहवी राष्ट्रपति बन गई हैं। इस सर्वोच्च संवैधानिक पद पर बैठनेवाली वे पहली आदिवासी और दूसरी महिला हैं। उनके निर्वाचन को भारत के आदिवासियों की अस्मिता और मुख्यधारा में उनकी मान्यता से जोड़कर देखा जा रहा है। एनडीए ने भी उन्हें राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाते समय उनकी आदिवासी पहचान को ही सामने रखा। उनके आदिवासी होने के कारण मध्य प्रदेश, ओड़िसा, महाराष्ट्र, झारखण्ड जैसे आदिवासी बहुल राज्यों समेत कई अन्य प्रदेशों से भी विपक्ष के वोट उन्हें मिले। विपक्षी खेमा सतर्क था कि उनके विरोध को आदिवासियों के वीरोध के रूप में न देखा जाए। स्वयं द्रौपदी मुर्मु ने राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के बाद अपने संबोधन की शुरुआत जोहार’  से की, जो कि आदिवासियों का स्वागत-सम्बोधन है। मूल रूप में आदिवासी, जिनका पूरा जीवन वनों पर निर्भर रहा है, जंगल में घास-लकड़ी, आदि काटते हुए जोहारबोलते हैं। अब यह प्रणामके अर्थ में अधिक प्रयुक्त होता है, खैर।

द्रौपदी मुर्मु के राष्ट्रपति बनने के साथ ही देश के आदिवासियों और उनके हालात की ओर ध्यान जाना स्वाभाविक ही है। मीडिया में नए राष्ट्रपति की आदिवासियों मूल की चर्चा खूब हो रही है। आदिवासियों के लिए भी यह गर्व की बात है। अपनी इस गर्वीली पहचान को स्वयं नई राष्ट्रपति ने भी स्वीकार किया और जोहारसे अपना भाषण शुरू करते हुए वे यह कहना नहीं भूलीं कि “मैं आदिवासी परिवार में पैदा हुई, जो कि हजारों साल से प्रकृति के साथ समन्वय बनाकर जीवन यापन करते आए हैं। मैंने वनों और जल-संसाधनों का महत्व समझा है। हम (आदिवासी) प्रकृति से आवश्यक संसाधन जुटाते हैं और उतने ही सम्मान से प्रकृति की सेवा करते हैं। यह संवेदनशीलता आज पूरे विश्व के लिए आवश्यक हो गई है।” उन्होंने आदिवासी कवि भीम भोई की पंक्तियां भी उद्धृत कीं।

आदिवासी इस धरती के या क्षेत्र विशेष के मूल निवासी माने जाते हैं- जो आदि यानी बिल्कुल शुरुआत से यहां रह रहे हैं। विडम्बना ही है कि पूरी दुनिया में आज वे वंचित समुदायों में शामिल हैं। भारत के विभिन्न प्रांतों में आदिवासी निवास करते हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार देश में कुल आबादी का 8.6 प्रतिशत आदिवासी हैं। कुल संख्या 10 करोड़ 42 लाख 81 हजार चौंतीस है। जनगणना के अनुसार भारत में सबसे अधिक आदिवासी मध्य प्रदेश (14.7%) में हैं। उसके बाद ओड़िसा (9.2%), महाराष्ट्र (10.1%), राजस्थान (8.8%), गुजरात (8.5%), झारखण्ड (8.3%) और पश्चिम बंगाल (5.1%) का नम्बर है। बाकी राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में इनकी संख्या पांच प्रतिशत से नीचे है। उत्तर प्रदेश में ये मात्र 1.1% और उत्तराखण्ड में केवल 0.3% प्रतिशत हैं। ध्यान देने वाला तथ्य यह है कि यह संख्या वास्तविक अर्थों में आदिवासियोंकी नहीं है। यह आंकड़े उनके हैं जिन्हें भारतीय संविधान अनुसूचित जनजाति मानता है। इन सूचिबद्ध जनजातियों में ज़्यादातर वास्तविक आदिवासी ही हैं लेकिन सभी नहीं। कई राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक कारणों से ऐसी जातियों को भी अनुसूचित जनजाति में शामिल कर दिया गया है जो वास्तविक रूप में आदिवासी नहीं हैं, जबकि कुछ मूल आदिवासी इसमें शामिल होने से वंचित रह गए हैं।

सामान्य तौर पर यही माना जाता है कि उन्नत और प्रभावशाली आर्यों के भारत आने से पहले यही लोग यहां रहते थे। आम तौर पर इनका निवास जंगलों में था और भोजन (फल, कंदमूल, शिकार, आदि) तथा आवास (कंदराएं) के लिए ये जंगलों पर ही निर्भर थे। वनों के अलावा नदियां इनका मुख्य जीवन-आधार थीं। घुमंतू जीवन शैली वाले आदिवासियों ने बस्तियां बसाकर रहना और खेती करना बाद में सीखा। इनके धर्म, ईश्वर और संस्कृति बहुत भिन्न और मूलत: प्रकृति-आधारित रहे। आज भी ये प्रकृति-पूजक ही हैं। विभिन्न भागों के आदिवासी सब एक से नहीं हैं। उनकी बोलियां और रीति-रिवाज फर्क हैं लेकिन हैं वे सभी मूलत: प्रकृति पर निर्भर और उसे पूजने वाले समाज हैं। उनका समाज, या कबीले, एक परिवार की तरह रहते हैं। कबीले की अपनी शासन-व्यवस्था होती है और वे एक तरह से आत्मनिर्भर होते हैं। कबीले परिवार केंद्रित होने की बजाय समाज-केंद्रित होते हैं। मुखिया ही कबीले का पालनहार और रखवाला होता है। उनके जीवन में अर्थ यानी धन की कोई जगह नहीं होती। प्रकृति ही उनका धन-धान्य है। बाहर की दुनिया से उनका कोई लेना-देना नहीं होता। उनके कबीलों में सभी बराबर होते हैं। हिंदू समाज की तरह कोई भेदभाव या जातीय छुआ-छूत नहीं बरती जाती। स्त्री का स्थान बहुत सम्मानजनक होता है। वह पुरुषों की दासी की तरह नहीं रहती। उसका स्वतंत्र व्यक्तित्व होता है और विवाह में भी उसकी मर्जी चलती है। कई आदिवासी समाज मातृसत्तात्मक होते थे, जहां स्त्री की सत्ता चला करती थी। समय के साथ उनमें बहुत बदलाव आए हैं लेकिन आज भी उनका समाज ह्मारे हिंदू समाज-व्यवस्था से बहुत भिन्न है। वे अपने को हिन्दू मानते भी नहीं। यह अलग बात है कि जैसे-जैसे आदिवासी मुख्य धारा में शामिल होते गए या उसके सम्पर्क में आते गए, उनमें उसके प्रभाव आते गए।  

आर्यों ने भारत में अपना प्रभुत्त्व जमाने के साथ ही भोले-भाले आदिवासियों को अपना दास बनाया, उन्हें उनके इलाकों से खदेड़ा और उन्हें शिक्षा तथा सनसाधनों से दूर ही रखा। अंग्रेजों के आगमन के बाद जब वनों और अन्य प्राकृतिक संसाधनों का दोहन होने लगा तब आदिवासियों का जीवन-आधार तेजी से छिनता और सिकुड़ता गया। 1864, 1878 और 1927 के वन कानूनों ने उन्हें विभिन्न क्षेत्रों के वनों से उजाड़ दिया। कई इलाकों में आदिवासियों ने विद्रोह किया और अंग्रेजों से लड़े। मुण्डाओं, भीलों, गोंडों, संथालों, आदि आदिवासियों के कई लम्बे और उग्र विद्रोह इतिहास में दर्ज़ हैं।

देश की स्वतंत्रता के बाद यद्यपि संविधान और नई शासन व्यवस्था ने आदिवासियों का अस्तित्व स्वीकार किया और उन्हें कुछ रियायतें (जैसे आरक्षण) दीं लेकिन विकास योजनाओं के नाम पर उनके प्राकृतिक संसाधान लगातार छिनते रहे। कभी बड़े बांधों के लिए, कभी पर्यटन केंद्रों के विकास और वन-विहारों एवं अभयारण्यों के नाम पर उन्हें उनके परम्परागत इलाकों से खदेड़ा गया और कभी उन्हें मुख्य धारा में शामिल करने के नाम पर। तमाम कीमती वन-सम्पदा और खनिज उन्हीं जंगलों, पहाड़ों और नदी घाटियों में हैं जहां आदिवासी रहते थे। मायनॉरिटी ग्रुप इंटरनेशनलके एक अध्ययन के अनुसार भारत की 90 प्रतिशत कोयला खानें, 72 प्रतिशत वन और 80 प्रतिशत खनिज पदार्थ आदिवासी भूमि पर पाए जाते हैं। स्वाभाविक ही विकास परियोजनाओं की सर्वाधिक मार आदिवासियों पर पड़ी। खनन के नाम पर और शहरीकरण के लिए भी उनकी जमीनें छिनती गईं और आज भी छीनी जा रही हैं। विस्थापन तेज हुआ लेकिन पुनर्वास उपेक्षित रहा। नतीजा यह हुआ कि आदिवासी सिकुड़ते और सीमित होते गए। जनजातीय आरक्षण के सहारे कई आदिवासी समाज पढ़ाई-लिखाई और नौकरियों के रास्ते देश की मुख्य धारा में शामिल हुए लेकिन इस प्रक्रिया में अपनी पहचान और संस्कृति खोते गए। वनों और नदियों से दूर होते जाने के कारण उनकी पूरी जीवन शैली बदलती गई। कतिपय आदिवासी समाज आज भी बचे-खुचे जंगलों में अपना अस्तित्व बचाने की कोशिश में लगे हैं लेकिन उनकी संख्या लगातार कम होती जा रही है। जैसे, अंडमान निकोबार के जारवा आदिवासी, जिनकी संख्या अब दहाई में ही रह गई है। उत्तराखण्ड के वनराजि या वनरावत भी चंद सैकड़ा संख्या में रह गए हैं।

माना जाता है कि देश के उत्तर-पूर्व का क्षेत्र आर्यों के प्रभाव से मुक्त रहा, इसलिए वहां आदिवासी अधिक स्वतंत्र और शक्तिशाली बने रहे। आज भी असम, अरूणाचल, नगालैण्ड, मिजोरम समेत समस्त उत्तर-पूर्वी राज्यों में विभिन्न आदिवासी समूह राजनीतिक-आर्थिक रूप से काफी संगठित और प्रभावशाली हैं। इन राज्यों में उनकी पहचान कायम है, वे चुनाव परिणामों को भी प्रभावित करते हैं और कई बार अपनी ताकत के बल पर सरकारों से बातचीत और समझौता करने की स्थिति में होते हैं। इसीलिए यहां की मिजो, नगा, कुकी, गारो, खासी, बोडो, आदि कई जनजातियों की चर्चा न केवल आकर्षक सांस्कृतिक प्रस्तुतियों के लिए बल्कि, राजनीतिक कारणों से भी अक्सर सुनाई देती है।

उत्तर प्रदेश में 1967 में सिर्फ थारू, बुक्सा, भोटिया-सौका, जौनसारी और वनराजियों को ही आदिवासी यानी जनजातियों में शामिल किया गया था। बाद में मिर्जापुर, चंदौली, कुशीनगर, संतकबीरनगर, भदोही और बुंदेलखण्ड की कुछ जातियों को भी यह दर्जा दिया गया। भोटिया-सौका, जौनसारी और वनराजि (वनरावत) अब उत्तराखण्ड में ही हैं। कई जातियां अपने को जनजाति घोषित करवाने के लिए लड़ रही हैं। ऐसा भी है कि कोई जनजाति जैसे, सहरिया, ललितपुर जिले में जनजाति में शामिल है तो दूसरे जिले में अनुसूचित जाति में। ऐसा ही गोंडों के साथ भी हुआ है। यह विसंगति कायम है और शुरू में ही लिख दिया गया है कि एस टी यानी अनुसूचित जनजातियों में शामिल सभी वास्तविक अर्थों में आदिवासी यानी मूल निवासियों में नहीं आते।      

भारत ने आदिवासियों के लिए कुछ संवैधानिक रियायतें तो दी हैं लेकिन उन्हें मूल निवासी नहीं माना है। आदिवासियों या मूल निवासियों को अपने-अपने देश में मान्यता, सुरक्षा और अवसर प्रदान किए जाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने जो 107वां कंवेंशन (समझौता) तैयार किया, उस पर भारत ने  भी हस्ताक्षर तो किए हैं लेकिन आदिवासियों को मूल निवासी मानने से इनकार करते हुए यह तर्क रखा कि यहां रहने वाले सभी मूल निवासी हैं। इसके विपरीत दुनिया के कई देशों में, विशेषकर लातीनी अमेरिकी देशों में आदिवासियों को कानूनी रूप से मूल निवासी माना गया है। कई देशों के आदिवासी यह अधिकार पाने के लिए लड़ रहे हैं। भारत में भी कई प्रदेशों में आदिवासी अपने जल-जंगल-जमीन लगातार छीने जाने के विरोध में और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। आज उनमें सामाजिक-राजनैतिक चेतना का विकास हुआ है और वे अपनी पहचान को लेकर सतर्क व जागरूक हुए हैं।

द्रौपदी मुर्मु के राष्ट्रपति निर्वाचित होने से आदिवासी समुदायों में खुशी स्वाभाविक है। ऐसी ही प्रसन्नता दलितों को भी हुई थी जब उनके बीच जन्मा एक व्यक्ति पहली बार राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठा था। खुशी अपनी जगह है लेकिन यह मानना दिवास्वप्न देखना होगा कि एक आदिवासी महिला के राष्ट्रपति बन जाने से आदिवासियों के हालात सुधरेंगे, उनके जल-जंगल-जमीन पर अधिकार बहाल होंगे, विकास परियोजनाओं, खानों और बांधों के लिए आदिवासी अपनी भूमि से नहीं उजाड़े जाएंगे, और प्रकृति को बचाने और उसके सम्मान का वह जीवन-दर्शन लौटेगा जिसकी चर्चा नई राष्ट्रपति ने अपने पहले सम्बोधन में की है। इसके बावजूद यह उम्मीद बनी रहेगी कि समय-समय पर राष्ट्रपति आदिवासी समाजों की खूबियों, समस्याओं और अपेक्षाओं की चर्चा करेंगी। यह भी आशा की जानी चाहिए कि बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के नाम पर विस्थापित किए गए आदिवासियों का बेहतर पुनर्वास होगा- नकद मुआवजे से नहीं, बल्कि जमीन व जंगल के बदले जमीन एवं जंगल देने वाला पुनर्वास।  

-न जो.

(दस्तक टाइम्स के लिए, 28-07-2022)

Saturday, July 16, 2022

सुंदर लाल बहुगुणा को याद रखने के कई आयाम हैं

पिछले वर्ष सुंदरलाल बहुगुणा के रूप में उत्तराखण्ड, हिमालय और देश-दुनिया ने एक दृढ़ संकल्पवान गांधीवादी पर्यावरण-योद्धा खो दिया था। उन्होंने अपनी यात्राओं, लेखों-भाषणों, अनशनों-आंदोलनों और जीवन-शैली से कई पीढ़ियों को प्रभावित किया। उनका न रहना एक ईमानदार एवं समर्पित हिमालय हितैषी का न रहना है। पिछले दिनों बहुगुणा जी की स्मृति में उनकी पत्नी विमला बहुगुणा एवं सुंदरलाल बहुगुणा पर्यावरण संरक्षण एवं शोध संस्थान ने संकल्प के हिमालयनाम से स्मृति-ग्रंथ प्रकाशित किया है। उनकी बेटी मधु पाठक के सम्पादन में प्रकाशित इस ग्रन्थ में उनके परिवारीजनों, सम्बंधियों, आंदोलन के सहयोगियों-कार्यकर्ताओं, शिष्यों, गांधीवादी संस्थाओं के प्रतिनिधियों और पर्यावरणविदों के स्मृति लेख हैं- 63 हिंदी में और 22 अंग्रेजी में।

इस ग्रंथ को पढ़ना बहुगुणा जी के ज्ञात-अल्पज्ञात जीवन-प्रसंगों, संकल्पों, आंदोलनों, प्रभाव-क्षेत्रों और प्रेरक व्यक्तित्व से प्रभावित होते चलना है। विमला बहुगुणा जी ने, जिन्होंने सुंदरलाल जी से विवाह ही इस शर्त पर किया था कि वे राजनीति (वे तब कांग्रेस में जिला स्तरीय पदाधिकारी थे) से सदा के लिए मुंह मोड़कर समाज सेवा में प्रवृत्त होंगे, उनके पारिवारिक और सामाजिक जीवन पर बिना भावुक हुए गहरी अंतदृष्टि से लिखा है। सुंदरलाल बहुगुणा को दुनिया जिस रूप में जानती है या दुनिया के कम जानते हुए भी जो-जो जमीनी काम उन्होंने किए, उस व्यक्तित्व को गढ़ने में विमला जी का ही पूरा योगदान है। विमला जी ने यह संकल्प और जीवन-दृष्टि सरला बहन की शिष्या के रूप में लक्षी आश्रम, कौसानी में पढ़ते-रहते हुए पाई थी। फिलहाल उनका यह लेख श्रद्धाजंलि स्वरूप है, भविष्य में उनसे विस्तार से इस पर लिखने की अपेक्षा की जानी चाहिए, बल्कि आग्रह। सुंदरलाल जी ने भी विमला जी के इस योगदान को स्वीकार किया था, जैसा कि राधा भट्ट दीदी ने अपने लेख में उनको उद्धृत किया है- “मैं विमला के बल पर खड़ा हूं। मैं झण्डा हूं, सबको दिखाई देता हूं पर झण्डे को फहराने वाला डंडा तो विमला का है।”

मेधा पाटकर ने बहुगुणा जी को बड़े बांधों के विरोध और नर्मदा आंदोलन में उनकी भागीदारी के संदर्भ में दिल से याद किया है। लम्बे समय तक बहुगुणा जी के सहयोगी रहे धूम सिंह नेगी, प्रसिद्ध लेखक और बहुगुणा जी के निकट सम्बंधी विद्यासागर नौटियाल, सुशीलचंद्र डोभाल, सदन मिश्र, कुंवर प्रसून,  भतीजी डॉ प्रज्ञा पाठक और आंदोलनकारी समीर रतूड़ी के लेख सुंदरलाल जी के विचार, व्यवहार और  योगदान पर गहरी नजर डालते हैं। 13 साल की उम्र में श्रीदेव सुमन से प्रभावित होकर टिहरी राजशाही के विरुद्ध बगावती तेवर अपनाने से लेकर बाद के सर्वोदयी-गांधीवादी नेता के रूप में उनके विविध सामाजिक एवं निजी प्रयोगों, विचार-व्यवहार और आंदोलनों के बारे में बहुत-सी जानकारियां सामने आती हैं। उनके शिष्यों अथवा उनके सहयोग से जीवन में ऊंचे मुकाम हासिल करने वालों में चंद्र सिंह का लेख बहुगुणा जी के बहुत कम जाने गए पक्ष पर प्रेरक रोशनी डालता है। एक दर्जी-बाजगी परिवार में जन्मे चंद्र सिंह को बहुगुणा जी ने कैसे 25 किमी पैदल जाकर, उनके गांव से लाकर टिहरी के ठक्कर बापा छात्रावास में डाला और आगे तक ऐसी राह दिखाई कि एक दिन चंद्र सिंह प्रशासनिक सेवा में पहुंचकर टिहरी नरेश की उस कुर्सी पर जिलाधिकारी की हैसियत से बैठे, जिस पर बैठे राजा ने एक दिन उनके पिता को दुत्कार दिया था जो अपने एक बेटे को स्कूल में भर्ती करा देने के लिए दरबार में गिड़गिड़ा रहा था। यह विडम्बना ही है कि चंद्र सिंह बाद में उस टिहरी बांध के परियोजना निदेशक बने जिसके विरोध में बहुगुणा जी ने अपना जीवन दांव पर लगा दिया था। अपने जीवन में उनके योगदान से विनत चंद्र सिंह यही कर सके कि डूब गए ठक्कर बापा छात्रावास के लिए नई टिहरी में ठीक से जमीन और मुआवजा दिलवा गए। बहुगुणा जी के भक्त रहे प्रशासनिक अधिकारी डॉ प्रदीप कुमार भी टिहरी प्रशासन में दुविधाग्रस्त हो तैनात रहे, जिनके हिस्से टिहरी खाली करवाकर बांध जल्दी बनवाने की जिम्मेदारी आई थी।  

बीज बचाओ आंदोलन को समर्पित विजय जड़धारी ने 1979 के बडियारगढ़ के चिपको आंदोलन का विस्तार से जिक्र करते हुए बहुगुणा जी को आत्मीयता के साथ याद किया है। उनके लेख में कुंवर प्रसून की निर्भीकता और धूम सिंह नेगी के जुझारूपन का भी अच्छा विवरण है। कुंवर प्रसून का एक पुराना लेख चिपको के इतिहास पर है। राजीव लोचन साह ने उन्हें नैनीताल समाचार के एक प्रेरणा-स्रोत और पत्रकार के रूप में पेश किया है। कुछ लेख मात्र श्रद्धांजलि स्वरूप हैं। सभी लेखों की चर्चा यहां की भी नहीं जा सकती। अंग्रेजी लेखों को फिलहाल पढ़ा नहीं जा सका है।  

सुंदरलाल जी से असहमतियां और उनसे जुड़े विवाद भी कम नहीं हैं लेकिन सम्पादक मधु पाठक ने लिखा ही है- “कुछ ऐसे भी लेख मिले जो आलोचनात्मक रूप से लिखे गए थे। यह उनके लिए उपयुक्त मंच नहीं था। इसलिए मैं उनको शामिल नहीं कर सकी।” इस स्मृति ग्रंथ में शेखर पाठक के लेख की अनुपस्थिति उल्लेखनीय है। आखिर वह बहुगुणा जी ही थे जिन्होंने इस पीढ़ी को सर्वाधिक उप्रेरित किया। अस्कोट-आराकोटयात्रा का विचार उनका ही दिया हुआ है, जिसने उत्तराखण्ड को देखने की नई दृष्टि दी और उस टोली के प्रारम्भिक चार युवकों में आज शेखर पाठक ही हमारे बीच हैं और बहुगुणा जी के अत्यंत प्रिय भी रहे हैं। लेकिन सबसे अधिक चौंकाने वाली अनुपस्थिति चंडी प्रसाद भट्ट जी की है, जो प्रारम्भ में बहुगुणा जी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चले-लड़े, हालांकि बाद में उनमें विवाद हुए और राहें भी अलग गईं।

जैसे, सुंदर लाल जी जैसे व्यक्तित्वों के होने से गांधी जी की प्रासंगिकता आज तक बनी आई है, वैसे ही सुंदरलाल जी की प्रासंगिकता उनके रोपे पौधों और उनसे प्रेरित पीढ़ियों की सक्रियता से बनी रहेगी।

- न जो, 14 जुलाई, 2022 (नैनीताल समाचार के लिए) 

                        

Friday, July 15, 2022

संस्कृत में डॉन क्विग्जोट!

सन 1935 की एक दोपहर जब धनवान अमेरिकी व्यापारी कार्ल टेल्डिन केलर किताबों के अपने संग्रह को गर्व से निहार रहा था तो उसकी नजर दुनिया का पहला आधुनिक उपन्यास मानी जाने वाली सर्वांतीस की बहु-प्रसिद्ध रचना डॉन क्विग्जोटपर पड़ी। इस उपन्यास के मूल स्पेनी संस्करण के अलावा उसके संग्रह में विश्व की कई भाषाओं में अनूदित प्रतियां थीं। अचानक उसे सूझा डॉन क्विकजोटका संस्कृत अनुवाद भी उसके पास होना चाहिए। उसने सुन रखा था कि संस्कृत दुनिया की प्राचीन भाषाओं में एक है।

केलर को दुनिया की बेहतरीन पुस्तकें एकत्र करने का जुनून था। श्रेष्ठ साहित्यिक पुस्तकों के विभिन्न भाषाओं में अनूदित संस्करणों के संग्रह का जुनून। बस, वह जुट गया अपना ख्वाब पूरा करने की कोशिश में। उसने अपने दोस्त सर मार्क ऑरेल स्टाइन से सम्पर्क किया जो कि अच्छे प्राच्य भाषाविद, पुरातत्वविद, अन्वेषी और भारत के जानकार थे। केलर ने स्टाइन को लिखे पत्र में स्वीकार किया कि “मैं अपनी इस ख़्वाहिश के बचकानेपन को समझ रहा हूं लेकिन फिर भी मैं अपनी इस इच्छा को पूरी करने के लिए बहुत उतावला हूं। भले ही कुछ अंश हों, लेकिन संस्कृत में हों।” केलर को भरोसा था कि उसका दोस्त इस काम के लिए सही आदमी की तलाश कर देगा।

स्टाइन ने केलर को निराश नहीं किया। उसने अपने कश्मीरी मित्र, संस्कृत विद्वान नित्यानंद शास्त्री से सम्पर्क किया और केलर की इच्छा पूरी कर देने का अनुरोध भी। शास्त्री जी उन दिनों पक्षाघात के कारण बिस्तर तक सीमित थे लेकिन स्टाइन के आग्रह और इस काम के रोमांच को देखते हुए राजी हो गए। अपनी सहायता के लिए उन्होंने दूसरे कश्मीरी पण्डित और संस्कृत विद्वान जगाधर जदू को रख लिया। दोनों कश्मीरी पण्डितों को स्पेनी भाषा तो आती नहीं थी, सो उन्होंने डॉन क्विग्जोटके अंग्रेजी अनुवाद से संस्कृत अनुवाद करना तय किया और अठारहवीं सदी के चार्ल्स जार्विस के मूल स्पेनी से अंग्रेजी अनुवाद को इसके लिए छांटा।

केलर के मन में डॉन क्विकजोटका संस्कृत अनुवाद हासिल करने की इच्छा अंकुरित होने करीब दो साल बाद कश्मीरी पंडितों की मेहनत रंग लाई और इस उपन्यास के आठ अध्याय प्रांजल संस्कृत में केलर के संग्रह की शोभा बढ़ा रहे थे। लेकिन यह इतनी आसानी से नहीं हुआ था। केलर और स्टाइन के बीच इस दौरान जो चिट्ठी-पत्री चली, उससे पता चलता है कि इस काम पर विश्व युद्ध और हिटलर के आतंक का साया भी मंडराया था। स्टाइन यहूदी मूल के थे और अपनी यात्राओं में देख-समझ रहे थे कि नाजी क्या करने वाले हैं। स्टाइन तो बच गए लेकिन उनके परिवार को यहूदी होने की कीमत चुकानी पड़ी। इस भयावह दौर में भी केलर का जुनून और स्टाइन का प्राच्य भाषा-प्रेम कायम रहा था।    

1955 में केलर की मौत हो गई। उसकी वसीयत के मुताबिक पुस्तकों का उसका दुर्लभ और विशाल संग्रह हार्वर्ड विश्वविद्यालय को सौंप दिया गया। नित्यानंद और जगाधर जी की वह संस्कृत पांडुलिपि भी उनमें थी जिस पर अगले 57 साल तक किसी की नजर नहीं पड़ने वाली थी।

सन 2002 में नित्यानंद शास्त्री जी के पोते सुरिंदर नाथ पण्डित ने एक लेख में अपने दादा जी के इस अनुवाद का उल्लेख किया था जिस पर 2012 में बिल्कुल अचानक ही डॉ द्रागोमीर दिमित्रोव की नजर पड़ी। डॉ दिमित्रोव मारबर्ग, जर्मनी के फिलिप्स विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं और भारत एवं तिब्बत के विशेषज्ञ होने के साथ ही संस्कृत में उनकी बड़ी रुचि है। वे इस पांडुलिपि की खोज में जुट गए। हार्वर्ड विवि के हाउटन पुस्तकालय की एक शेल्फ में उन्हें यह भुरभुरी और नाजुक पड़ चुकी पाण्डुलिपि हाथ लग गई। मधुर, प्रांजल संस्कृत में डॉन क्विग्जोटके पृष्ठ देखकर डॉ दिमित्रोव चमत्कृत रह गए। तभी उनके मन में एक नई ख्वाहिश ने अंगड़ाई ली। स्पेन, भारत और जर्मनी के बीच सांस्कृतिक सहयोग की एक परियोजना शुरू हुई कि डॉन क्विग्जोटका ऐसा अभिनव द्वि-भाषी संस्करण प्रकाशित किया जाए जिसमें एक पेज पर अंग्रेजी और दूसरे पेज पर संस्कृत अनुवाद छपा हो। इसके लिए डॉ दिमित्रोव उपन्यास का चार्ल्स जार्विस का किया वही अंग्रेजी अनुवाद भी खोज लाए, जिससे नित्यानंद और जगाधर जी ने 1935-36 में संस्कृत अनुवाद किया था।

डॉ दिमित्रोव के सम्पादन में पुणे विश्वविद्यालय ने इसे प्रकाशित करने की जिम्मेदारी ली और अंतत: 07 जुलाई, 2022 को दिल्ली में हुए एक समारोह में डॉन क्विग्जोटके अंग्रेजी-संस्कृत अनुवाद का यह अभिनव संस्करण जारी किया गया, जिसमें शास्त्री जी के पोते सुरिंदर नाथ पंडित, स्पेनी राजदूत और पुणे विश्वविद्यालय के सम्पादक समेत कई विद्वान उपस्थित थे। किताब के साथ संस्कृत में एक ऑडियो बुक भी जारी की गई है। सुरिंदर नाथ पंडित के लिए स्वाभाविक ही यह बहुत भावुक लेकिन गर्वीला क्षण था।

एक अमेरिकी धनवान संग्रहकर्ता की 1935 की एक बचकानी ख्वाहिशसन 2022 में दिल्ली में एक अनोखी धरोहर, भाषा-प्रेम और अन्तर्राष्ट्रीय सहकार का शानदार प्रतीक बनी। (The Guardian में प्रकाशित लेख पर आधारित)           

 - नवीन जोशी, 15 जुलाई, 2022  

         

Wednesday, July 13, 2022

वे लड़ते रहे हैं इसलिए बचे हुए हैं

लम्बे और व्यापक जन भागीदारी वाले आंदोलन के बावजूद सरदार सरोवर बांध बन गया लेकिन नर्मदा घाटी के लोग हारे नहीं। बांध बन गयाइसलिए आंदोलन असफल हो गया- इसे वे नहीं मानते और कहते हैं कि "आंदोलन ने विकास के मापदण्डों को नया आयाम दिया है। अब यह सिर्फ बांध विरोधी संघर्ष नहीं है, बल्कि अब यह सामाजिक परिवर्तन का संघर्ष है।" इसलिए वे आज भी लड़ रहे हैं। गांव डूबे हैं, विस्थापन हुआ है लेकिन जमीन के बदले जमीन वाले पुनर्वास और नदी तथा जंगल के लिए आंदोलन जारी है। नर्मदा आंदोलन की बहुपक्षीय आंशिक एवं दीर्घकालिक सफलताएं हैं। जिन ग्रामीणों ने मुआवजा ले लिया और अन्यत्र बस गए वे भी आंदोलन में भाग लेते हैं।

'नर्मदा घाटी से बहुजन गाथाएं' (नवारुण प्रकाशन) शीर्षक किताब नर्मदा घाटी के उन सीधे, सरल किंतु जीवट वाले ग्रामीणों और वनवासियों की जुबानी कहे गए, अपने हक के लिए लड़ने के अनुभवों और उसकी जय-पराजयों के बारे में है। ये वही आदिवासी हैं, वनवासी और आम ग्रामीण हैं, जिन्हें पता नहीं था कि सरकारी विकास क्या होता है, बांध क्या होता है, वह उनका क्या-क्या छीन लेगा, और जिन्हें मेधा ताईया मेधा दीदी और उनके साथियों ने धीरे-धीरे समझाया और एक बार जब वे समझ गए तो ऐसे गांधीवादी लड़ाका बन गए कि उनकी आवाज राष्ट्रीय सीमाएं पार कर अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर कही-सुनी गई, उसका असर हुआ जिसके कारण बांध बनने के बावजूद वे अपना अधिकार जताने और अपने विरोध को जायज ठहरा पाने में काफी हद तक कामयाब हुए। यह वनों पर, नदियों पर, जमीनों पर आम ग्रामीणों के अधिकार की चेतना और उसे बचाने के लिए लड़ने का संकल्प ही है, जो पीढ़ी-दर पीढी वे लड़ पा रहे हैं।      

नर्मदा घाटी से बहुजन कथाएं सामान्य लेकिन संघर्ष की चेतना से भरे चौदह ग्रामीणों की कहानी है जिसे तीनों राज्यों की बांध प्रभावित नर्मदा घाटी में घूम-घूम कर उन्हीं की भाषा में एकत्र किया गया, अंग्रेजी में उसे सम्पादकों की एक टीम (ओजस एस वी, मधुरेश कुमार, एम जे विजयन और जो अत्यालि) ने लिखा-सम्पादित किया और फिर चिन्मय मिश्र ने हिंदी में अनुवाद करके प्रस्तुत किया। इसीलिए यह सामान्य किताब नहीं है। यह इस देश के अत्यंत साधारण लोगों के मुंह से निकली वह आवाज है जो पूरी ताकत से कहती है कि अपने पानी, अपने जंगल, अपनी जमीन और अन्य प्राकृतिक संसाधनों पर पहला हक हमारा है और विकास के नाम पर हमें अपनी जड़ों से बेदखल करना वास्तव में पूरी सभ्यता, संस्कृति और जीवन-शैली को नष्ट करना है और हमें ज़िंदा रहने के लिए उससे लड़ना है।

जिस अंदाज और शैली में ये बातें कही गई हैं, उन्हें कोई पर्यावरणविद, कोई समाजशास्त्री, कोई जन नेता या विशेषज्ञ नहीं कह सकता क्योंकि ग्रामीणों की आवाज प्रकृति के साथ सदियों के तादात्म्य से उपजी मौलिक भाषा में निकली है। उदाहरण के लिए, डोमखेड़ी, महाराष्ट्र की अत्यंत जुझारू आंदोलनकारी डेडली बाई वसावे ने बांध बनाने वालों से पूछा- हमारे पास पूरी नदी है और बदले में तुम हमें हैंडपम्प दे रहे हो?” यह बात उन लोगों के अलावा और कौन कह सकता है जिन्होंने पीढ़ियों से नदियों, जंगलों और जमीनों के साथ आत्मीय रिश्ता बनाकर जीवन जीया है? सम्पादकीय में ठीक ही कहा गया है कि “यह पुस्तक नर्मदा आंदोलन के सरदार सरोवर परियोजना प्रभावित क्षेत्रों से आने वाले कार्यकर्ताओं की ढेर सारी आवाजों को एक साथ रखने का प्रयास है जो काफी हद तक परिष्कार रहित है और जटिलताओं को आपस में जोड़ने में उतनी महारत शायद नहीं रखतीं। परंतु उनके पास उनके और हमारे आसपास मौजूद भिन्न-भिन्न सामाजिक व राजनीतिक मुद्दों को लेकर एक स्पष्ट और मजबूत नजरिया मौजूद है।”

बामनी, महाराष्ट्र के पुण्या वसावे ने पुनर्वास स्वीकर कर लिया और सोमवाल जाकर बस गए लेकिन वे मूल गांव एवं आंदोलन से जुड़े हुए हैं और नियमित भागीदारी करते हैं। वे कहते हैं- “विस्थापन और पुनर्वास के अनुभव से हमें यह समझ में आया कि सरकार इसे लेकर जो तमाम कानून और नीतियां बनाती है, वह न सिर्फ बेकार हैं, बल्कि विनाशकारी भी हैं। सरकार बजाय छोटी योजनाएं बनाने के अनावश्यक रूप से बड़ी परियोजनाओं में धन बर्बाद कर रही है। नर्मदा बचाओ आंदोलन ने बिलगांव में एक छोटी परियोजना बनाकर दिखाई है जो कि पूरे गांव के लिए बिजली पैदा कर सकती है। लेकिन इस बड़े बांध ने बहुत सारी उपजाऊ जमीन और जंगल डुबो दिए हैं और अनेक समुदायों को विस्थापित भी किया है।” खार्या भादल, मध्य प्रदेश के गोखरू मण्डल ने गांव उजाड़ने आए अफसरों, पुलिस वालों से पूछा- “आपका काम तो गांव की रक्षा करना है और इसके बजाय आप गांव को नष्ट कर रहे हो। तो, अपराधी कौन है?” इस तरह वे समझ गए कि “यदि हम नहीं लड़ेंगे तो भी हर हाल में अपने अधिकारों को खो देंगे। यह तो मौत से भी बदतर है।”

सभी आंदोलन कमजोर पड़ते हैं लेकिन उसका क्या असर होता है? गोखरू कहते हैं- “बहुत से लोगों ने हमारा साथ छोड़ दिया है और राज्य के दलाल बन गए हैं। नदी पार करते ही ककराना गांव में शराब की दुकानें फिर दिखाई देने लगी हैं। दुकानदारों और पुलिस की मिली भगत है। लोगों की अधिक मात्रा में धन कमाने की आकांक्षा की वजह से हमारी एकता नष्ट हो गई है। शराब दुकानें उन लोगों की हैं जिन्हें जमीन मिल गई है और वे पुनर्वास स्थल पर चले गए हैं।”

शिक्षक की नौकरी छोड़कर आंदोलन में शामिल हुए भीलखेड़ा, मध्य प्रदेश के कैलाश अवास्या आन्दोलन द्वारा संचालित जीवनशालाओंके बारे में बताते हैं- “जीवनशालाएं आंदोलन के नवनिर्माणसे सम्बंधित प्रयासों का हिस्सा हैं। दीर्घकालिक संघर्ष से कई बार लोग थकान महसूस करने लगते हैं। अतएव नवनिर्माण या रचनात्मक कार्य करने की आवश्यकता होती है।” जीवनशाला वास्तव में वे स्कूल हैं जो सरकारी स्कूलों की बदहाली और उपेक्षा से खिन्न होकर ग्रामीणों ने खुद बनाई और चलाईं, क्योंकि बच्चों के लिए पढ़ना जरूरी है। जीवनशालाओं ने नई पीढ़ी को न केवल स्कूली शिक्षा दी बल्कि सामाजिक, राजनीतिक चेतना भी दी जिससे आंदोलन को नई पीढ़ी का साथ मिलता गया। इतना लम्बा आंदोलन एक ही पीढ़ी नहीं चला सकती थी। बकौल रहमत- “मुख्य धारा की शिक्षा बच्चों को गांव के नजरिए से कुछ भी नहीं पढ़ाती। तो बच्चे पढ़ने के बाद गांव छोड़ देते हैं। इसके बजाय जीवनशाला ने श्रम की गरिमा और गांधी जी की नई तालीम पर जोर दिया जिससे उस नजरिए से एक शिक्षित आदिवासी पीढ़ी तैयार हुई।” जातीय भेदभाव भी इससे काफी हद तक दूर हुआ। कैलाश से यह सुनना भी महत्त्वपूर्ण है कि “हमें भी चुनाव लड़ना चाहिए क्योंकि वर्तमान परिस्थितियां हमारे पक्ष में नहीं हैं। हमारे कार्यकर्ता बिखरे हुए हैं और इसलिए हमारे पास इतनी ताकत नहीं है कि चुनाव लड़ें और जीत सकें परंतु पंचायत स्तर पर हमारे लोग लड़ते हैं और जीतते हैं तथा वे हमारे मुद्दे उठाते हैं।”

बांध को वे नहीं रोक पाए लेकिन इसे आंदोलन की असफलता नहीं मानते। कड़माल, मध्य प्रदेश के देवराम भाई कनेरा से सुनिए- “आन्दोलन ने कई क्षेत्रों में अपना प्रभाव छोड़ा है। लोगों में आए परिवर्तन, उनकी सोच, नजरिए और जागरूकता में आए परिवर्तन बहुत-बहुत उल्लेखनीय हैं। हमारे परिप्रेक्ष्य से देखें तो महिलाओं और आदिवासियों का सशक्तीकरण, जन आंदोलनों की ताकत का प्रदर्शन और दलितों, कमजोरों और गरीबों को आवाज देना सम्भवत: अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।” और, चिखल्दा, मध्य प्रदेश के रेहमत इसी बात को और साफ करते हैं- “कई बार लोग पूछते हैं- संघर्ष से क्या हासिल हुआ, बांध तो बन गया? हमारा विश्लेषण इतना सामान्यीकरण वाला भी नहीं होना चाहिए कि चूंकि बांध बन गया, इसलिए आंदोलन असफल हो गया। आंदोलन ने विकास के मापदण्डों को नया आयाम दिया है। अब यह सिर्फ बांध विरोधी संघर्ष नहीं है, बल्कि अब यह सामाजिक परिवर्तन का संघर्ष है। इसने तमाम छोटे संघर्षों जैसे महिलाओं और किसानों के मुद्दों के संघर्षों को प्रेरणा दी है।”

पुनर्वास कैसा हो, आदिवासी राण्या गोंज्या पडवी की जुबानी सुनिए- “पुनर्वास स्थल की स्थिति ऐसी है कि खेती से चाहे हम जितना उपजा लें, पूरा ही नहीं पड़ता। 30 लोग केवल पांच एकड़ जमीन पर आश्रित हैं। शहरों में इतनी कम जमीन के साथ जी पाना सम्भव नहीं है। यहां न तो वृक्ष हैं और न ही पेड़-पौधे। यदि हमें अधिक जमीन मिल भी जाती है तो शहरों में ज़िंदा रह पाना कमोबेस असम्भव है। हम सिर्फ जमीन के सहारे नहीं रह सकते। हमें पेड़ों और जंगलों की आवश्यकता भी है।” नदी कहना शायद उनसे छूट गया होगा।

सभी चौदह लोगों के पास वे अनुभव हैं जो जन-आंदोलन के नेताओं के पास भी शायद ही होते हों, समाजविज्ञानियों और पर्यावरण विशेषज्ञों की तो छोड़ ही दीजिए। इतनी लम्बी लड़ाई के बाद जो निष्कर्ष उनके हैं, वह गौर करने लायक हैं। चिमलखेड़ी, महाराष्ट्र के विज्या जुगल वसावे कहते हैं- “किसी दिन हम भी पुनर्वास स्थल पर चले जाएंगे परंतु हम जानते हैं कि यदि हमें नई जमीन मिल भी जाती है तो भी हमें संघर्ष को ज़िंदा रखना है। आज देश के सभी हिस्सों के आदिवासियों एवं गरीबों के पास गरिमामय जीवन जीने के लिए संघर्ष के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं है।” संघर्ष और संकल्प के इन जमीनी बयानों को पढ़ना, प्रकृति और उसके संसाधनों का पूरा सम्मान करते हुए इस दुनिया को बेहतर एवं गरिमापूर्ण बनाने की लड़ाई को जारी रखने का नर्मदा घाटी के लोगों का हौसला समझना है।

अंत में बात मेधा पाटकर की। इन बयानों में मेधा पाटकर किसी शीर्ष नेता की तरह नहीं, ‘दीदी’, ‘जीजीऔर ताईके आत्मीय रूप में उपस्थित हैं। मीडिया ने उन्हें नर्मदा बचाओं आंदोलन की शीर्ष नेता के रूप में पेश किया और आम तौर पर वे जानी भी इसी तरह जाती हैं लेकिन ये किस्से बताते हैं कि मेधा पाटकर ने नेता की तरह नहीं, ग्रामीणों-वनवासियों के बीच उन्हीं की तरह रहते-जीते एक प्रेरक सहयोगी के रूप में काम किया। उनकी कोशिश रही कि हर कार्यकर्ता नेता की तरह विकसित हो और आंदोलन उन्हीं पर निर्भर हो। जन-आंदोलनों के नेताओं और मेधा में यही फर्क है जो इस किताब से बहुत साफ-साफ उजागर होता है। देखिए- “ताई यह सुनिश्चित करती थीं कि बैठक में आए प्रत्येक व्य्यक्ति, जिनमें बच्चे, वृद्ध और महिलाएं तक शामिल थे, को भागीदारी का मौका मिले” (पुण्या वसावे), “जब संघर्ष के लिए इकट्ठा होते तो दीदी जानबूझकर हरिजन या आदिवासी के यहां खाना खाती थीं” (देवराम भाई कनेरा), “ताई, डॉ बरंठ और हम कुछ सौ लोग 14 दिन के लिए धुले जेल में बंद थे। मेरे बच्चे भी जेल में थे। कोर्ट ने हमें 300 रु की जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया। हमने आपस में बातचीत की और ताई ने मुझसे पूछा- डेडली बाई, हम क्या करें? हम सबको इस काम के लिए तीन-चार लाख रु लगेंगे। मैंने जमा करने से मना कर दिया... ताई हमेशा हमारा हौसला बढ़ाते हुए कहती थीं कि हम एक अच्छे मकसद के लिए संघर्ष कर रहे हैं, हमें कुछ नहीं होगा।” (डेडली बाई वसावे), “पत्रकारों ने मेधा दीदी से पूछा- आपने न्यायालय के सामने बहुत अच्छे सवाल खड़े किए लेकिन यदि सरकार आपकी नहीं सुनती तो क्या होगा? उन्होंने कहा- मुझसे यह मत पूछो, उनसे पूछो जो प्रभावित हैं। सरकार ये सब गरीबों के नाम पर कर रही है। तब मैंने कहा- हमारी जीवन शैली में बिजली की कोई जरूरत नहीं है। इसके बावजूद सरकार हम सबको भूमिहीन बनाकर बिजली उत्पादन के लिए विशाल बांध बना रही है। दिल्ली में भी यमुना नदी है। आप बिजली उत्पादन के लिए इस पर बांध क्यों नहीं बनाते और दिल्ली को क्यों नहीं डुबोते? क्या हमारे अधिकार दिल्ली के लोगों से अलग हैं?” (बाबा महरिया, जलसिंघी, मध्य प्रदेश)।

इस तरक प्रत्येक कार्यकर्ता ने मेधा पाटकर की जो तस्वीर पेश की है, वह नेता की नहीं, जरूरी सहयोगी की है, जो अपने को और अपने फैसलों को आगे रखने की बजाय हर कार्यकर्ता को आगे करती हैं और उनके बराबर खड़ी रहती हैं। उनमें वह व्यक्तिगत नायकत्वकी चाह नहीं है, जो हम अन्यत्र आंदोलनों के नेताओं में पाते हैं। 

नर्मदा घाटी के इन सामान्य लेकिन संकल्पबद्ध लोगों की संघर्ष कथाएं पढ़ते हुए बार-बार टिहरी बांध विरोधी आंदोलन की याद आती है। उस आंदोलन की भी दुनिया भर में चर्चा हुई थी लेकिन भिलंगना और भागीरथी घाटियों के लोग टूट गए, हार गए। अपने अधिकारों के लिए लड़ने की बजाय वे अधिक से अधिक आर्थिक मुआवजा पाने में लग गए और शायद अब भी लगे हैं। अपने गहन शोध-अध्ययन 'हरी-भरी उम्मीद' (पृष्ठ 384-85, वाणी प्रकाशन) में शेखर पाठक लिखते हैं-

नर्मदा घाटी के लोग नष्ट नहीं होना चाहते थे और अब तक लड़ रहे हैं। उत्तराखण्ड में पिछली डेढ सदी की पलायन की प्रक्रिया ने अपनी जड़ों से कटने के मनोविज्ञान को एक सीमा तक उचित मान लिया था। अत: सबसे बेहतरीन जमीन को बचाने की लड़ाई वे शुरू ही नहीं कर सके।... सुंदर लाल बहुगुणा और मेधा पाटकर के फर्क को समझना भी जरूरी है...। आज टिहरी से गए विस्थापित और यहां शेष रह गए लोग आवाज विहीन हैं।”

'नर्मदा घाटी से बहुजन गाथाएं' टिहरी बांध और सुंदरलाल बहुगुणा का जिक्र किए बुना मेधा पाटकर और बहुगुणा जी का फर्क साफ समझा देती है। 

पुस्तक की प्रस्तावना में अरुणा राय लिखती हैं कि “यह संकलन हर उस व्यक्ति को पढ़ना चाहिए जो भारतीय लोकतंत्र के सबसे कमजोर और सबसे अरुचिकर हिस्से को समझना चाहते हैं।” इसके साथ ही मैं कहूंगा कि देश में जहां-जहां जनता के आंदोलन चल रहे हैं, विशेष रूप से उत्तराखण्ड के उन सब कार्यकर्ताओं और नेताओं को यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए जो जानना चाहते हैं कि ऐतिहासिक जन-आंदोलनोंके बाद भी उनके समाज में बदलाव की राजनैतिक चेतना क्यों विकसित नहीं हुई।

नवारुण प्रकाशनने यह पुस्तक प्रकाशित करके अत्यंत महत्त्वपूर्ण काम किया है।

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पुस्तक- नर्मदा घाटी से बहुजन गाथाएं। सम्पादक—ओजस एस वी, मधुरेश कुमार, विजयन एम जे, जो अत्यालि। अनुवादक- चिन्मय मिश्र। प्रकाशक- नवारुण प्रकाशन। मूल्य- रु 350/- सम्पर्क- 9811577426         

               

Saturday, July 09, 2022

हमारे 'दाज्यू' और सबके ‘उस्ताद’ को बधाई

जाने-माने वयोवृद्ध कथाकार शेखर जोशी को अमर उजालासमूह का आकाशदीप सम्मान देने की घोषणा हुई है। यह सम्मान समग्र साहित्यिक योगदान के लिए दिया जाता है। आने वाली 10 सितम्बर को नब्बे साल पूरे करने जा रहे शेखर जोशी आज भी लेखन में सक्रिय हैं यद्यपि आंखों की असाध्य बीमारी ने यह काम बहुत मुश्किल कर दिया है। एक विशेष आकारवर्धक शीशे से वे नया लेखन पढ़ने की कोशिश करते हैं और इसी तरह थोड़ा-थोड़ा लिख भी लेते हैं। इन दिनों मुख्य रूप से कुमाऊंनी में लिख रहे हैं। साहित्यिक लेखन से उनके अद्यतन रहने का ताजा उदाहरण यह है कि अंतराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार से समानित गीतांजलि श्री के उपन्यास रेत समाधिका अंग्रेजी संस्करण (जो उनकी पोती ले आई थी) न केवल उलटा-पुलटा एवं उसका क्थासार जाना है, बल्कि गीतांजलि श्री और डेजी रॉकवेल के बारे में जानकारी भी हासिल कर ली है। गीतांजलि श्री को बधाई देते हुए वे यह भी पूछते हैं कि जब डेजी रॉकवेल ने वर्षों पहले भीष्म साहनी के तमसका अंग्रेजी अनुवाद किया था, तो वह पुरस्कार समिति के संज्ञान में क्यों नहीं आया?     

बहरहाल, शेखर दाज्यू ने पहली कहानी राजे खत्म हो गएनाम से 1952 या 53 में लिखी थी। दूसरे विश्व युद्ध में हमारे पहाड़ों से हजारों युवा फौज में गए थे। उन दिनों कुमाऊं मोटर ओनर्स यूनियन की मोटरें फौजियों से इतनी भरी रहती थीं कि आम सवारियों को जगह नहीं मिल पाती थी। जब उनकी उम्र करीब दस साल रही होगी तो एक दिन गांव से पैदल अल्मोड़ा जाते हुए उन्होंने जगह-जगह मोटर के इंतजार में फौजियों को खड़े देखा। उनको विदा देने के लिए उनके परिवार की बहुत सी महिलाएं भी वहां थीं। पुरुष कम दिखाई देते थे। जैसे ही गाड़ी आती, फौजी बक्सा पकड़कर चट से गाड़ी के अंदर बैठ जाते लेकिन जैसे ही गाड़ी चलती थी, तो पीछे जो रुलाई फूतती थी, वह इतनी दर्दनाक होती थी कि उनके बाल मन में वह अमिट रह गई। गांवों में बहुत-सी विधवाएं भी वे देखते थे। उस कहानी में एक बुढ़िया है  जो अपने बेटे का इंतजार कर रही है। वह इस भ्रम में है कि बेटा ज़िंदा है और आएगा लेकिन बेटा पता नहीं कब शहीद हो चुका है। गांव में एक मंत्री जी आए हुए हैं। उन्होंने दही खाने की इच्छा व्यक्त की। लोग दही लेने के लिए बुढ़िया के पास पहुंचे। बुढ़िया ने बड़ी खुशी से दही की हाँडी उनको दे दी और कहा- अच्छा, राजे आए हैं!  कभी मेरा राजा भी आएगा। नैरेटर कहता है कि मैंने उससे कहा नहीं लेकिन राजे तो खत्म हो गए हैं। शेखर जी की यह कहानी तब समासपत्रिका में छपी थी लेकिन उनके किसी संग्रह में शामिल नहीं है। वे इस पहली कहानी को अपनी प्रसिद्ध कहानी कोसी का घटवार का बीज मानते हैं। उनकी दूसरी कहानी आदमी और कीड़ेको धर्मयुग की कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिला था। वह भी किसी संग्रह में नहीं है। 

तीसरी कहानी दाज्यूने शेखर जोशी को कहानीकार के रूप में बड़ी प्रसिद्धि दिलाई। आज भी उसकी चर्चा होती है। उसे लिखे जाने का भी रोचक किस्सा है। 1951 से 1955 तक वे दिल्ली में आयुध कारखाने की ट्रेनिंग के दौरान रहे। पहाड़ी की नराई लगती थी। एक इतवार को अखबार में पर्वतीय जन विकास समितिकी बैठक की सूचना छपी थी। वे साइकिल लेकर वहां पहुंच गए। वहां होटलों में काम करने वाले पहाड़ी लड़कों की बैठक चल रही थी। हुआ ये था कि कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव पी सी जोशी को पता चला था कि ये पहाड़ी लड़के दिन में होटलों में काम करने के बाद शाम को सस्ते होटलों में जाकर बिगड़ रहे हैं, जबकि बड़े प्रतिभावान हैं। कामरेड जोशी ने इन लड़कों को एकजुट करने और उनकी रुचि का परिष्कार करने के लिए पर्वतीय जन विकास समितिनाम से सांस्कृतिक संस्था बनवा  दी। बाद में ब्लिट्ज के सम्पादक हुए नंद किशोर नौटियाल उस समिति के एक मासिक बुलेटिन का  सम्पादन करते थे। शेखर जोशी भी उससे जुड़ गए और टिप्पणियां लिखने लगे। जब उसका वार्षिकांक  निकालने की योजना बनी तो नौटियाल जी ने शेखर जोशी से एक ऐसी कहानी लिखने को कहा, जिसमें  पात्र होटल वर्कर हों। तब दाज्यू कहानी लिखी गई। पी सी जोशी ने वह कहानी पढ़ी और प्रभावित हुए। बाद में 1955 में इलाहाबाद जाने पर वहां के साहित्यकारों के बीच उन्होंने दाज्यूपढ़ी जिसे खूब सराहना मिली। तभी उपेंद्र नाथ अश्क ने दाज्यूकहानी अपने संकेतसंकलन में प्रकाशित की। फिर तो उनकी ख्याति फैलती गई और उन्होंने एक से एक कहानियां हिंदी साहित्य को दीं, जिनमें मजदूरों और कारखानों के जीवन पर उस्ताद’, ‘बदबू,’ ‘मेण्टल’, ‘नौरंगी बीमार है’, ‘आशीर्वचन’, ‘हेड मासिंजर मंटूउनकी प्रसिद्ध कहानियां भी हैं। श्रमिकों पर यादगार कहानियां लिखने वाले वे अकेले हैं। साथ-पैंसठ साल पहले लिखी गई उनकी कहानियां आज भी जगह-जगह उद्धृत की जाती हैं। यह उपलब्धि विरल है। कोसी का घटवारतो गुलेरी जी की जग प्रसिद्ध कथा उसने कहा थाके समकक्ष ठहराई जाती है।

शेखर दाज्यू को इस सम्मान के लिए बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं कि उनके रचनातरत रहते हम उनकी जन्म शताब्दी मनाएं।  

 - न जो, 09 जुलाई, 2022