Friday, September 29, 2017

पत्रकारिता का ‘पेट’ और दिमाग


पत्रकारों पर इधर हमले ही बहुत नहीं हुए, दलगत और व्यक्तिगत निष्ठाओं के लिए भी उनकी खूब लानत-मलामत हो रही है. आरोप-प्रत्यारोप और व्यक्तिगत हमलों तक पहुंचे इस संग्राम से सोशल साइट्स भरे पड़े हैं. कई वरिष्ठ पत्रकार भी इस अप्रिय विवाद में जूझे हुए हैं. पत्रकारिता के स्तर, पत्रकारों की नयी पीढ़ी की भाषा, विषयों की उसकी समझ, आदि पर चर्चा कम ही होती है. वैसे तो संस्कृति, अपराध, संसदीय, लगभग सभी क्षेत्रों की रिपोर्टिंग में कई बार रिपोर्टर के अज्ञान और सम्पादन की लापरवाहियों से हास्यास्पद खबरें छपी मिलती हैं. मेडिकल रिपोर्टिंग की स्थिति तो अक्सर बड़ी दयनीय दिखाई देती है.
बीते शुक्रवार की सुबह लखनऊ के एक हिंदी दैनिक में यह खबर पढ़कर हम चौंके कि लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान में पेट की सीटी मशीनलगाने की स्वीकृति मिल गयी है. खबर कह रही थी कि “संस्थान के निदेशक डॉ दीपक मालवीय ने बताया कि पेट की सीटी मशीन......” कोई डॉक्टर तो ऐसा नहीं कह सकता. हमने एनबीटी समेत कुछ दूसरे अखबार देखे तो बात साफ हुई. बात “पेट की सीटी मशीन” की नहीं, “पेट” जांच मशीन की है. पोजिट्रॉन एमीशन टोमोग्राफी यानी पी ई टी जांच को संक्षेप में “पेट” कहा जाता है, जिससे कैंसर समेत शरीर की विभिन्न जटिल व्याधियों की पहचान आसानी से हो जाती है. बेचारे उस रिपोर्टर ने पेट” को शरीर का अंग, पेट समझ लिया, लिख दिया और छप गया.
बताने-समझाने-सिखाने वाले सम्पादक और वरिष्ठ पत्रकार अब कम होते जा रहे हैं. पठन-पाठन, शोध, सलाह-मशविरे, और सीखते रहने की प्रवृत्ति नये पत्रकारों में लगभग गायब है. कभी अपनी कॉपी’ (खबर) जंचवाने में नयी पीढ़ी के पसीने छूटते थे. क्लास लग जाती थी. कुछ गुस्सैल सम्पादक रिपोर्टर के मुंह पर कॉपी दे मारते थे. अब लाखों की फीस लेने वाले पत्रकारिता संस्थानों से प्रशिक्षितयुवाओं की बड़ी फौज आने के बावजूद यह हाल है. आखिर वे वहां क्या सीखते हैं और सिखाने वाले क्या सिखाते हैं? इतना तो सिखाया ही जाना चाहिए कि जो बात आपको खुद समझ में नहीं आ रही, उसे पाठक क्या समझेंगे? इसलिए या तो पूछ कर समझ लीजिए या फिर उस बात को लिखिए ही नहीं.  
टूटे-फूटे स्ट्रेचर से लेकर डॉक्टर की लापरवाही से मरीज की मौतजैसी खबरों तक सीमित मेडिकल रिपोर्टिग के बारे में वरिष्ठ डॉक्टर कभी शिकायत और हंसी-मजाक किया करते थे. पीजीआई के एक प्रोफेसर ने कभी मेडिकल रिपोर्टिंग पर कार्यशाला का सुझाव दिया था. एक डॉक्टर मित्र ने हाल में एक खबर दिखाकर सवाल उठाया था कि डॉक्टर ने ऑपरेशन में लापरवाही कीलिखने वाला रिपोर्टर यह भी तो लिखे कि क्या गलती हुई. तब मन में सवाल उठा था कि मेडिकल रिपोर्टर डॉक्टर न सही, पैरा-मेडिकल स्टाफ की तरह प्रशिक्षित  क्यों नहीं होना चाहिए? और यह बात हर बीट पर लागू क्यों नहीं होनी चाहिए? ऐसा दिन कभी आएगा?
पत्रकारों के लिए पहले एक कहावत मशहूर थी- “जैक ऑफ ऑल ट्रेड्स एण्ड मास्टर ऑफ वन.” यानी उन्हें हर विषय के बारे में थोड़ा-थोड़ा जानना चाहिए लेकिन एक विषय का विशेषज्ञ होना चाहिए. अब तो लगता है कि पत्रकारों ने अपने को हर विषय का पैदाइशी विशेषज्ञ मान लिया है. सीखने की जरूरत ही नहीं. वैसे भी रिपोर्टर जो लिख देता है, वैसा ही छप जाता है. ज्यादातर जगह सम्पादन नाम की चिड़िया फुर्र हो गयी.
निष्ठा जताने के लिए भी आखिर कुछ समझ और भाषा की जरूरत होती होगी!
(सिटी तमाशा, नभाटा, 30 सितम्बर 2017)


  


Friday, September 22, 2017

स्वच्छ भारत बनाम ट्रेन की पटरियां


लखनऊ में मेट्रो ट्रेन शुरू होने के चंद रोज बाद सोशल साइट्स पर एक वीडियो वायरल हुआ. एक प्रौढ़ व्यक्ति अपनी धोती समेटे डिब्बे के भीतर सू-सू करने के अंदाज़ में बैठे हुए हैं. निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि वे सचमुच वही कर रहे थे जो करते-जैसे दिखाई दे रहे हैं या यह भी कोई सोशल साइट्स का फोटोशॉप तमाशा है? कर भी रहे हों तो क्या आश्चर्य. ट्रेनें हमारे यहां लघु और दीर्घशंका के लिए बहुत उपयुक्त जगह मानी जाती रही हैं. ट्रेन प्लेटफॉर्म पर खड़ी हो या यार्ड में या आउटर पर सिगनल हरा होने का इंतजार कर रही हो, आस-पास के लोग दीर्घ न सही लघु शंका तो फटाफट निपटा ही लेते हैं.
टॉयलेट- एक प्रेम कथामें भी आपने देखा होगा कि नायक अपनी नव-ब्याहता को रोज सुबह शौच के लिए स्टेशन ले जाता है, जहां दो मिनट के लिए एक ट्रेन रुकती है. ट्रेनों के शौचालय बहुत सारे लोगों के लिए ऐसी ही राहत होते हैं. अपने मेट्रो वालों ने विदेशी कोच मंगवा लिए या उसकी तर्ज पर अपने यहां कोच बना लिए. उन्होंने भारतीय यात्रियों का ध्यान रखा ही नहीं. यहां मेट्रो ट्रेन के डिब्बों में भी शौचालय चाहिए, पीकदान चाहिए. नहीं बनाएंगे तो कहीं भी निपटा जाएगा, ओने-कोने थूका जाएगा. वैसे, पीकदान में थूकना भी हम तौहीन ही समझते हैं.
स्वच्छ भारत अभियानचलाने वाले हमारे प्रधानमंत्री और उस पर जोर-शोर से अमल कराने वाले अपने मुख्यमंत्री योगी को चाहिए कि वे ट्रेन-पटरियों के किनारे-किनारे हर आधा किमी पर शौचालय बनवा दें. हमारे देश में पटरियों के किनारे सुबह-सुबह जो दृश्य दिखाई देता है, वह विश्वविख्यात है. कई विदेशी यात्री उस पर रोचक टिप्पणियां लिख चुके हैं. पटरियों के दोनों तरफ रेलवे की जमीन पर अवैध रूप से बसी झुग्गी-झोपड़ियों वाले ही नहीं, साहबों की कोठियों के चाकर भी डबा-बोतल लेकर सुबह-सुबह पटरियों की तरफ दौड़ते हैं.
अगर खुले में शौच-मुक्त देश बनाना है तो रलवे बजट में विशेष प्रावधान करना होगा ताकि पटरियों के किनारे-किनारे शौचालय बनाए जा सकें. इसका एक अतिरिक्त लाभ रेलवे को हो सकता है. पटरियों के किनारे शौच करने वालों को पटरियों की देखभाल का जिम्मा दिया जा सकता है. आजकल वैसे भी ट्रेनों के पटरियों से उतरने के मामले बहुत बढ़ गये हैं. पटरियों के सतत निरीक्षण के लिए इतना विशाल अमला रेलवे नियुक्त नहीं कर सकता. शौच के लिए रेलवे की शरण आने वाले पटरी-सुरक्षा के अवैतनिक मुस्तैद सिपाही हो सकते हैं.
जहां तक लघुशंका निवारण का सवाल है, उसके लिए भारतीय पुरुषों के पास अनंत आकाश के नीचे जगह ही जगह है. टेलीफोन और बिजली के खम्बों की दुर्गति के लिए हम बेवजह ही बेचारे कुत्तों को दोष देते हैं. आदमियों ने तो दीवारों का सीमेण्ट-प्लास्टर तक गला डाला है. किसी भी ब्राण्ड का सीमेण्ट निरंतर प्रवहमान उस धार के सामने टिक नहीं सकता.
पिछले साल उत्तर प्रदेश परिवहन निगम ने फैसला किया था कि राज्य के सभी बस स्टेशनों में खुफिया कैमरे लगाए जाएंगे जो दीवारें खराब करने वालों की तस्वीर (पीछे से) खींच लेंगे. ये तस्वीरें सोशल साइटों पर डाली जाएंगी ताकि ऐसा करने वाले शर्मिंदा हों और दूसरों को भी सबक मिले.
मुझे पूरी उम्मीद है कि परिवहन निगम ने अपने फैसले पर अमल नहीं किया होगा. इससे यहां कौन शर्मिंदा होता है. उलटे, लोग खुद ही सेल्फी अपलोड करने लगेंगे. मेट्रो वाले साहबान सुन रहे हैं?    

 (सिटी तमाशा, नभाटा, 23 सितम्बर 2017)

शिवपाल की बेचैनी है सपा के नये संग्राम का कारण


समाजवादी पार्टी के आपसी संग्राम का नया मोर्चा खुल गया है तो यही मानना चाहिए कि शिवपाल अपने सगे बड़े भाई मुलायम की तरह राजनीति के नेपथ्य में जाने करने को तैयार नहीं हैं. इसीलिए उन्होंने मुलायम को आगे करके शांत लग रही चिंगारियों को हवा दे दी है.
मुलायम के मन में चिंगारी हो, न हो, शिवपाल के मन में तो लावा उबल रहा है. उन्हें अपनी खोयी राजनैतिक जमीन पाने के लिए कुछ न कुछ करते रहना है. इसलिए अब लोहिया ट्रस्ट के सचिव पद से रामगोपाल यादव को हटा दिया गया है. उस जगह पर मुलायम ने शिवपाल यादव को नियुक्त कर दिया है. रामगोपाल मुलायम के चचेरे भाई हैं और अखिलेश के साथ डट कर खड़े हैं.
शिवपाल की ताजा बेचैनी यह है कि 23 सितम्बर को समाजवादी पार्टी का प्रदेश सम्मेलन हो रहा है. उसमें सपा का नया प्रदेश अध्यक्ष चुना जाना है. पांच अक्टूबर को आगरा में राष्ट्रीय सम्मेलन भी होने वाला है. शिवपाल को औपचारिक निमंत्रण तक नहीं मिला है, जबकि वे मांग कर रहे हैं कि मुलायम को फिर से सपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया जाए.
उन्हें लगता होगा कि अखिलेश पर दवाब डालने का यह बढ़िया मौका है और दवाब डालने के लिए उनके पास एक ही तुरुप है- मुलायम सिंह. चूंकि मुलायम सीधे अखिलेश पर निशाना साधेंगे नहीं, इसलिए वार हुआ रामगोपाल पर. मुलायम भी रामगोपाल ही को सारे झगड़े की जड़ मानते हैं.
रामगोपाल की पहल पर ही समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर मुलायम सिंह की जगह अखिलेश को चुना गया. रामगोपाल ने ही निर्वाचन आयोग में पैरवी करके सपा का चुनाव निशान साइकिल अखिलेश खेमे को दिलावा दिया था. मुलायम आयोग के समक्ष कुछ भी साबित नहीं कर सके थे.
इसलिए रामगोपाल को लोहिया ट्रस्ट से निकाल दिया गया है. वैसे, लोहिया ट्रस्ट कोई राजनैतिक संगठन है नहीं. वह लोहिया जी के विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए बना ट्रस्ट है. मुलायम जरूर इसे पार्टी का महत्वपूर्ण संगठन मानते हैं. अखिलेश ने मुख्यमंत्री बनने के बाद छोटे लोहिया कहलाने वाले जनेश्वर मिश्र के नाम पर भी ऐसा ही संगठन बनाया है.
तो, अखिलेश पर दवाब बढ़ाने के लिए शिवपाल ने एक और दांव चला है. उन्होंने बताया कि नेता जी 25 सितम्बर को (सपा के प्रदेश सम्मेलन के दो दिन बाद) सम्वाददाता सम्मेलन में महत्त्वपूर्ण घोषणा करेंगे. अब सभी यह कयास लगाने में लगे हैं कि मुलायम कौन सी महत्वपूर्ण घोषणा कर सकते हैं.
क्या वे नयी पार्टी बनाने का ऐलान करेंगे? इसके आसार नहीं हैं, क्योंकि उनके अत्यंत करीबी और कट्टर समर्थक भी मान चुके हैं कि मुलायम अब नयी पार्टी खड़ी करने की स्थिति में नहीं है. भविष्य तो अखिलेश हैं. इसीलिए लगभग सभी अखिलेश के साथ चले गये. एक बार शिवपाल ने नयी पार्टी बनाने का ऐलान भी किया था, लेकिन तब मुलायम ने जानकारी न होने की बात कह कर उन्हें एक तरह से बरज दिया था.
मुलायम सपा के संरक्षक होने के नाते अखिलेश को यह आदेश भी नहीं देंगे कि शिवपाल को पार्टी में सम्मानजनक स्थान दीजिए. मुलायम जानते हैं कि अखिलेश और रामगोपाल उनकी यह बात नहीं मानेंगे. ऐसी असफल कोशिश वे पहले कर चुके हैं. खुद शिवपाल दोयम दर्जे के नेता के रूप में अब नहीं लौटना चाहेंगे.
तो, क्या वे शिवपाल को आशीर्वाद देंगे कि वह एक समाजवादी मोर्चा बना लें? शिवपाल की तो ऐसी ही इच्छा है, जो वे एकाधिक बार व्यक्त भी कर चुके हैं. अब तक मुलायम उन्हें इसके लिए हतोत्साहित करते रहे हैं. अलग मोर्चा बनाकर शिवपाल सपा का अपना खेमा बढ़ाने और अन्य दलों से हाथ मिलाने की कोशिश कर सकते हैं. राजनैतिक दांव-पेच के लिए कम से कम एक अखाड़ा उन्हें मिल जाएगा.
यह भी हो सकता है कि 25 सितम्बर को नेता जी कोई खास ऐलान करें ही नहीं. यह सिर्फ शिवपाल की कोरी घोषणा साबित हो. इधर काफी समय से मुलायम अक्सर अपनी बातों से पलटते रहे हैं. और, 25 सितम्बर को किसी ऐलान की बात खुद मुलायम ने कही भी नहीं है. 
दरअसल, सेहत और उम्र का तकाजा देख कर मुलायम ने शायद अब अपना वानप्रस्थ मान लिया है. अखिलेश ने उनके सम्मान में कोई कमी भी नहीं की है. उन्हें पार्टी का संरक्षक बनाया है.
लेकिन शिवपाल अभी कैसे वानप्रस्थ में चले जाएं? राजनीति के हिसाब से वे अभी युवा ही हैं और महत्वाकांक्षा भी कोई कम नहीं. उन्हें लड़ना है और राजनीति में अपनी जगह बनानी है. मुलायम के साथ कंधे से कंधा मिला कर जो पार्टी खड़ी की थी, जिस संगठन पर उनकी पकड़ होती थी, उसे भतीजा ले गया. अब अकेले मुलायम ही उनके सहारा हैं. तुरुप का बड़ा पत्ता, जिसे वे जब-तब दिखाते रहते हैं.
इसीलिए वे बार-बार मांग करते हैं कि मुलायम सिंह को सपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष पद लौटाया जाए. विधान सभा चुनाव में सपा की बड़ी पराजय के बाद तो उन्होंने यह मांग जोर-शोर से उठाई थी. उनका तर्क था कि मुलायम के रहते पार्टी की यह हालत नहीं होती.
लेकिन उनकी सुन कौन रहा है, मुलायम के सिवा!
(http://hindi.firstpost.com/politics/shivpal-singh-yadav-uneasiness-and-fear-is-main-cause-of-new-and-fresh-dispute-of-samajwadi-party-pr-55539.html) 

   

Tuesday, September 19, 2017

बड़े बांध विरोधी स्वर तेज हो रहे


कई तकनीकी एवं कानूनी रुकावटों और लम्बे जन-आंदोलनों के बावजूद सरदार सरोवर बांध अंतत: अपनी पूरी ऊंचाई के साथ हकीकत बन गया. मगर एक आदिवासी के विस्थापन की तुलना में सात आदिवासियों को लाभ पहुंचाने’ के दावे वालेदुनिया के दूसरे सबसे बड़े इस बांध के उद्घाटन के साथ बड़े बांधों के व्यापक नुकसान की चर्चा थम नहीं गयी है. बड़े बांधों के खिलाफ आवाज बुलंद करने वालों के तेवर और तर्क अपनी जगह कायम हैं. बल्किसरदार सरोवर के उद्घाटन के बाद वे और ज्यादा गूंजने लगे हैं.
यह सवाल और भी शिद्दत से पूछा जाने लगा है कि क्या विकास के लिए बड़े बांध जरूरी हैंक्या बड़े बांधों के आर्थिक लाभ एक विशाल आबादी के अपने समाजसंस्कृतिपेशेजमीनरिश्तोंजीवन शैली और पर्यावरण से बेदखल होने की भरपाई कर सकते हैंक्या छोटे-छोटे कई बांध उनका विकल्प नहीं हो सकते?
यह संयोग नहीं है कि सरदार सरोवर बांध के उद्घाटन के दरम्यान उत्तराखण्ड में नेपाल सीमा पर महाकाली नदी पर प्रस्तावित पंचेश्वर बांध के विरोध में जनता आंदोलन कर रही है. पंचेश्वर दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी जल विद्युत परियोजना बतायी जाती है. यह टिहरी बांध से तीन गुणा बड़ा होगा जो पिथौरागढ़चम्पावत और अल्मोड़ा जिलों की चौदह हजार जमीन पानी में डुबो देगा. 134 गांवों के करीब 54 हजार लोग विस्थापित हो जाएंगे. विस्थापित होने वाले लोगों के समूल उजड़ने की त्रासदी सिर्फ आंकड़ों से नहीं समझाई जा सकती. त्रासदी को कई गुणा बढ़ा देने वाली सच्चाई यह है कि विस्थापित लोगों के लिए राहत और पुनर्वास की ठीक-ठाक व्यवस्था करने में हमारी सरकारें कुख्यात हैं.
विरोध टिहरी बांध का भी बहुत हुआ था लेकिन 2007 में उसे पूरा कर दिया गया. दावा था कि उससे 2400 मेगावाट बिजली बनेगी. हकीकत यह है कि आज उससे बमुश्किल 1000 मेगावाट बिजली पैदा हो पा रही है. सैकड़ों गांवों के जो हजारों लोग विस्थापित हुए थे उनमें से बहुत सारे आज भी उजड़े ही हैं. टिहरी नगर की जो प्राचीन सभ्यता डूबी उसकी क्षति का कोई हिसाब नहीं. टिहरी बांध से विस्थापित नहीं होने वाले किंतु उस प्राचीन नगर से जुड़े कई गांवों की आर्थिकी और जीवन शैली नष्ट हो गईउसका भी कोई सरकारी हिसाब नहीं.
हिमालय की कमजोर शैशवावस्था और भूकम्प के बड़े खतरों के तर्क भी टिहरी बांध के समय नहीं सुने गये थे. अब पंचेश्वर बांध के समय तो बांध विरोधी जनता के तर्क सुनने का धैर्य भी नहीं दिखाया जा रहा. इस सवाल का जवाब देने वाला कोई नहीं है कि अगर टिहरी बांध अपनी घोषित क्षमता का एक तिहाई ही विद्युत उत्पादन कर पा रहा है तो क्या गारण्टी है कि पंचेश्वर बांध से 5040 मेगावाट बिजली बन ही जाएगी? और उत्तराखण्ड के बेहतर आबाद, उपजाऊ क्षेत्र से बड़ी आबादी का विस्थापन और पर्यावरण की व्यापक क्षति उसके लिए किस तरह उचित है?
बड़े बांध बनाने के मामले में भारत का दुनिया में तीसरा नम्बर है. राहत और पुनर्वास के मामले में वह फिसड्डी ही ठहरेगा. आजादी के बाद हीराकुण्ड बांध पहला था, जिसका उद्घाटन करते हुए जवाहरलाल नेहरू ने बांधों को ‘आधुनिक भारत के मंदिर’ बताया था. विस्थापितों की समस्या पर तब उन्होंने राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत वक्तव्य दिया था कि देश के हित में तकलीफ उठानी चाहिए.’ देश के हित में तकलीफ उठाने का हाल यह है कि हीराकुंड और भाखड़ा नंगल बांधों से विस्थापित होने वाले लाखों लोगों में से कई के वंशज आज भी पुनर्वास का इंतजार करते हुए रिक्शा चला रहे हैं या मजदूरी कर रहे हैं. बाद-बाद में नेहरू जी बांधों से विस्थापित होने वाली जनता के प्रति ज्यादा संवेदनशील हो गये थेसन 1958 में भाखड़ा नंगल बांध का उद्घाटन करते हुए उन्होंने कहा था कि भारत विशालता के रोग’ से पीड़ित हो रहा है. उसी दौरान मुख्यमंत्रियों को लिखे एक पत्र में उन्होंने इस बात पर जोर दिया था कि विकास परियोजनाओं की जरूरत और पर्यावरण की सुरक्षा की आवश्यकता में संतुलन बनाया जाना चाहिए.
जब सरदार सरोवर बांध की योजना बनी थी यानी आज से सात-आठ दशक पहले तब बड़े बांधों के बारे में  समझ एकतरफा थी. सोचा यह गया था कि नदियों की क्षमता का बेहतर उपयोग होगाप्रदूषण-मुक्त बिजली मिलेगी और दूर-दूर तक खेतों की सिंचाई हो सकेगी. लेकिन पचास के दशक तक आते-आते इससे उपजने वाली बड़ी समस्याएं सामने आने लगी थीं. नेहरू जी का विचार-परिवर्तन इसी का नतीजा था.
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी बड़े बांधों  के तुलनात्मक लाभों पर सवाल उठने लगे थे. दुनिया भर में एक बड़ा वर्ग बड़े स्तर पर जन-जीवन के अस्त-व्यस्त होने के अलावा बांधों के क्षेत्र में जैविकी एवं पर्यावरण के तहस-नहस होने का मुद्दा उठाने लगा. उनकी आवाज को व्यापक समर्थन मिला. अकेले अमेरिका में अब तक करीब एक हजार बांध ध्वस्त किये जाने की चर्चा करने वाले लेख इण्टरनेट पर मौजूद हैं. अब तो वहां मध्यम आकार के बांधों को भी पानी की गुणवत्ता और नदी की सम्पूर्ण जैविकी को नष्ट करने वाला माना जाने लगा है. मिस्र में नील नदी के प्रवाह-क्षेत्र में व्यापक क्षरणकृषि-उत्पादन में गिरावट और कई परजीवी-जनित रोगों के लिए आस्वान बांध को जिम्मेदार ठहराया जाता है.
हमारे देश में बड़े बांधों से उपजी समस्याएं और भी ज्वलंत इसलिए हैं  क्योंकि विस्थापित जनता को राहत देने  और उनके पुनर्वास के मामले में घोर संवेदनहीनता बरती गयीं. सरदार सरोवर और टिहरी बांधों के विरोध में छिड़े व्यापक आंदोलनों ने इन मुद्दों को जोर-शोर से उठाया. उन्हें समर्थन भी काफी मिला. नर्मदा बचाओ आंदोलन का ही नतीजा था कि सरदार सरोवर बांध के लिए मदद दे रहे विश्व बैंक ने बाद में अपनी शर्तें काफी कड़ी बना दीं जो भारत सरकार को मंजूर नहीं हुईं और मदद अस्वीकार कर दी गयी.
सरदार सरोवर बांध के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने भी राहत और पुनर्वास के सवालों को अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना. एक समय तो उसने बांध के निर्माण पर रोक लगा दी थी. बाद में पूरी ऊंचाई तक निर्माण की इजाजत देते हुए विस्थापितों के पर्याप्त पुनर्वास और राहत प्रक्रिया की नियमित देख-रेख करते रहने के निर्देश दिये थे.

बांध-विरोधी आंदोलनकारी टिहरी बांध का बनना रोक सके न सरदार सरोवर बांध को. सरकारों के तेवर से लगता है कि पंचेश्वर बांध भी बन कर रहेगा. इतने वर्षों के आंदोलन की सफलता यह है कि राहत और पुनर्वास के मुद्दों पर राष्ट्रव्यापी जागरूकता फैली है. इस तर्क को भी व्यापक स्वीकृति मिली है कि बड़े बांधों या विशाल परियोजनाओं वाले विकास-मॉडल का विकल्प अपनाया जाना चाहिए.
(प्रभात खबर, 20 सितम्बर 2017) 

Friday, September 15, 2017

बच्चों की घुट्टी में डर और सतर्कता ?


मुझे कुछ दिन से रवींद्रनाथ टैगोर की कहानी काबुलीवालाबहुत याद आ रही है. काबुलीवाला जैसे मुहब्बत वाले इनसान बहुत होंगे और इनसान के रूप में शैतान बहुत कम मगर क्या अब कोई बच्ची किसी काबुलीवाले को प्यार से पुकार नहीं सकेगी? क्या सभी बच्चों को सिखाना होगा कि हर बाहरी आदमी खूंखार हत्यारा और बलात्कारी है? कोई काबुलीवाला किसी नन्हीं बच्ची में अपनी बिटिया का चेहरा नहीं देख सकता? छोटे बच्चे, या हम बड़े भी नकली और असली काबुलीवाला में भेद कैसे करें
गुड़गांव के एक स्कूल में सात साल के बच्चे की हत्या ने सबकी रूह कंपा दी है. एक हफ्ते से ज्यादा हो गया, यह दर्दनाक खबर सुर्खियों में बनी हुई है. इस बहाने बच्चों की सुरक्षा पर हर छोटे-बड़े शहर में हर कोण से विमर्श हो रहा है. केंद्र से लेकर राज्यों की सरकारें तक बच्चों की सुरक्षा के उपाय सुझाने में लगी हैं. सरकारें, प्रशासन. स्कूल प्रबंधन और अभिभावक सभी चिंतित और सतर्क दिखाई दे रहे हैं.
स्कूलों में जगह-जगह खुफिया कैमरे लगाने, स्कूल-वाहनों के ड्राइवर-कण्डक्टर से लेकर सभी टीचरों एवं बाकी कर्मचारियों का पुलिस सत्यापन कराने जैसे उपायों पर जोर दिया जा रहा है. अभिभावकों को सलाह दी जा रही है कि वे अपने बच्चों पर निगाह रखें, उनकी बात ध्यान से सुनें और उनके साथ समय बिताएं.  
बेतहाशा भागती आज की दुनिया में अबोध बच्चे सबसे ज्यादा खतरे में हैं. अभिभावकों की आपा-धापी ने इस खतरे को बढ़ाया है. बच्चे आज अकेले और भावनात्मक रूप से उपेक्षित हैं. टेक्नॉलॉजी ने एक झटके में सारी दुनिया उनके सामने खोल दी है. इस रहस्य को साझा करने या समझाने वाले उनके पास नहीं हैं. स्कूल पवित्र स्थान नहीं, दुकान है. महंगी दुकान में बच्चे को पहुंचा कर गौरवान्वित माता-पिता को इस गोरखधंधे की तरफ देखने की फुर्सत नहीं. दुकान वालों को सिर्फ धंधे के मुनाफे से मतलब है. 
गुड़गांव के स्कूल में सुरक्षा की चूक थी कि कण्डक्टर बच्चों के शौचालय में चला गया. उसे स्कूल परिसर में प्रवेश की अनुमति नहीं होनी चाहिए थी.  परंतु जब स्कूल का ही चौकीदार या अध्यापक बच्चों को हवस का शिकार बनाए तो क्या कहेंगे? उसे किस चौकसी से रोकेंगे? खुफिया कैमरा अपराधी को पकड़ने में सहायक हो सकता है लेकिन अपराध होने को कैसे रोकेंगे?
मनुष्य के भीतर का शैतान  क्या अब ज्यादा जागने लगा है? क्या आजकल वह ज्यादा विवेकहीन और सम्वेदनहीन हो गया है? हमने स्कूल आते-जाते बच्चों से रिक्शा वालों और ड्राइवर-कण्डक्टरों के बड़े मोहिले रिश्ते देखे हैं. अनेक बार वे उनके सबसे अच्छे और निश्छल दोस्त होते हैं. अब क्या हर ऐसे रिश्ते को शक की निगाह से देखना होगा? क्या बच्चों से कहना होगा कि वे रिक्शा वाले से, स्कूल बस वाले से डरे-डरे रहें, उनसे बातचीत या दोस्ती न करें?
सात साल के बच्चे को क्या, किसी बड़े को भी यह कैसे समझाया जा सकता है कि दोस्त लगने वाला स्कूल बस का कण्डक्टर उसका गला रेत सकता है? या पांच साल की बच्ची को स्कूल के माली और चौकीदार या क्लास टीचर को शैतान समझना कैसे सिखाया जा सकता है? उनका बचपन ही कुचल देना होगा क्या? हमेशा सतर्क और डरे रहने की घुट्टी बच्चों को पिलानी होगी? इनसानी रिश्तों और कोमल भावनाओं की कोई जगह ही इस जमाने में नहीं होगी?
यह सोच कर भी तो रूह कांपती है!
(सिटी तमाशा, 16 सितम्बर, 2017) 


‘नाद रंग’ और आलोक पराड़कर


कल आलोक (पराड़कर) ने मुझे नाद रंगका पहला अंक दिया तो उनकी प्रतिभा और क्षमता के एक और प्रतिमान से साक्षात्कार हुआ. इस पत्रिका को आलोक ने कला, संगीत और रंगमंच की संगतकहा है. पिछले कोई ढाई साल से वे नियमित पत्रकारिता के अलावा कला स्रोत फाउण्डेशनके साथ कला स्रोतनाम से पत्रिका का सम्पादन कर रहे थे. नाद रंगउसी शृंखला की अगली कड़ी है लेकिन किसी फाउण्डेशन या संस्था से बिल्कुल स्वतंत्र, आलोक का अपना निजी प्रयास. प्रवेशांक में उत्तर प्रदेश के विभिन्न शहरों के हिंदी रंगमंच का जायजा लिया गया है.
हमारे यहां प्रदर्श कलाओं की पत्रिकाओं की कमी है. उप्र संगीत नाटक अकादमी की छायानटलम्बी बंदी के बाद शुरू तो हुई लेकिन उसमें कतई वह बात नहीं जो कभी नरेश सक्सेना जी के सम्पादन में सामने आती थी. कला पर केंद्रित अवधेश मिश्र के सम्पादन वाली कला दीर्घा जरूर स्तरीय बनी हुई है. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की रंग प्रसंग’, केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी की पत्रिका संगनाऔर नेमिचंद्र जैन वाली नट रंगका हाल मुझे बहुत दिनों से नहीं पता.
कला स्रोतदेखते रहने के बाद मुझे भरोसा है कि नाद रंगअपनी जगह बना लेगी. प्रयास व्यक्तिगत है और उसे संसाधनों की कमी रहेगी. इस वजह से उसकी बारंबारता में फर्क पड़ सकता है, स्तर पर नहीं.
प्रसंगवश, लखनऊ के अखबारों में प्रदर्श कलाओं पर जो लिखा जा रहा है, वह पत्रकारिता के दीवालियेपन ही का सबूत है. नाटकों की समीक्षाएंहास्यास्पद होती हैं, जो नाटक देखे या कुछ समझे बिना लिखी जाती हैं. अब तो नाटक करने वाले भी दूसरे आयोजनों की तरह प्रेस नोट पहले से बना कर रखते हैं, सुना. नाटक के नाम पर चलताऊ काम करने वालों को यह सुविधाजनक लगता है. अखबारों में उनके बारे में कुछ छप जाता है. कला प्रदर्शनियों के उद्घाटन की खबरें भर छपती हैं, अगर राज्यपाल या किसी वीवीआईपी मुख्य अतिथि हुए तो.
लखनऊ में आलोक पराड़कर की उपस्थिति कला और रंग जगत की रिपोर्टिंग और समीक्षा की इस गरीबी और दुर्दशा को भरसक दूर करने का प्रयास करती है. हिंदुस्तान’, लखनऊ के सम्पादन के वर्षों में मैंने आलोक की प्रतिभा का खूब इस्तेमाल किया. आलोक ने भी बहुत मन से सांस्कृतिक रिपोर्टिंग की. कई लेख और साक्षत्कार भी लिखे. पिछले कुछ वर्षों से वह अमर उजालामें बहुत अच्छा लिख रहे हैं. उनके आलेखों का एक संकलन पिछले दिनों प्रकाशित हुआ है.
पिछले कुछ समय से सुभाष राय के सम्पादन में ‘जन संदेश टाइम्स’ शहर की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों पर विभिन्न रचनाकारों से लिखवा कर सराहनीय काम कर रहा है, यद्यपि उसकी पहुंच सीमित है.
याद आता है कि स्वतंत्र भारतमें कभी-कभार गुरुदेव नारायण और बाद में अश्विनी कुमार द्विवेदी नियमित रूप से संगीत संध्याओं की बहुत अच्छी रिपोर्ट लिखा करते थे.  उसके बाद अमृत प्रभातमें कृष्ण मोहन मिश्र ने सांस्कृतिक रिपोर्टिंग के प्रतिमान बनाए. यह अखबार साहित्य-संगीत-कला-रंगमंच को काफी जगह देता था. नवभारत टाइम्समें अनिल सिन्हा गाहे-ब-गाहे अच्छी सांस्कृतिक रिपोर्ट लिखते थे. टाइम्स ऑफ इण्डियामें मंजरी सिन्हा की रिपोर्ट पढ़कर आनंद आता था. उसके बाद लखनऊ के अखबारों में साहित्य-संस्कृति की रिपोर्टिंग का स्तर ही नहीं गिरा, उसकी समझ रखने वाले रिपोर्टर भी नहीं हुए.
हिंदुस्तानमें मैंने कई युवा पत्रकारों को यह जिम्मेदारी दी लेकिन जब तक आलोक पराड़कर हमारी टीम में शामिल नहीं हुए, तब तक साहित्य-संस्कृति की रिपोर्टिंग दयनीय ही बनी रही थी. आलोक के आने से इस क्षेत्र में हिंदुस्तान की कद्र बढ़ी थी. आजकल वह स्थान अमर उजालाको हासिल है. आलोक की वजह से ही.
इसलिए विश्वास है कि नाद रंगइस शून्य को भरने का जरूरी काम कर पाएगी.

 - नवीन जोशी

Thursday, September 14, 2017

चंद पैंसों की ऋण-माफी से ठगे-से हैं यूपी के किसान


किसी को नौ पैसे तो किसी को दो रु का ऋण माफ होने के प्रमाण पत्र बांटे मंत्रियों ने
नवीन जोशी
नगीना (जिला बिजनौर, उत्तर प्रदेश) की किसान बलिया देवी को जब बताया गया कि प्रदेश की योगी सरकार ने उनका नौ पैसे (जी हां, नौ पैसे मात्र) का फसली ऋण माफ कर दिया है तो वे हैरान रह गयीं. बहुत देर तक उनके मुंह से बोल ही नहीं फूटे.
उमरी गांव (जिला हमीरपुर, उ प्र) की शांति देवी को प्रदेश के श्रम एवं रोजगार मंत्री मुन्नू कोरी ने किसान कर्ज माफी का प्रमाण पत्र सौंपा तो वे बहुत खुश हुईं. लेकिन जब पता चला कि उनका सिर्फ रु 10.37 (दस रुपए सैंतीस पैसे) माफ हुआ है तो सारी खुशी काफूर हो गयी.
हमीरपुर जिले ही के मौदहा के किसान मुन्नी लाल के हाथ में आया कृषि ऋण मोचन योजनाका प्रमाण पत्र बताता है कि उनका रु 215 मात्र ( दो सौ पंद्रह रु मात्र) माफ हुआ है. मंत्री जी के हाथों प्रमाण पत्र पाने के बाद से मुन्नी लाल की समझ में नहीं आ रहा कि हंसें कि रोएं.
भरथना (जिला इटावा) के ईश्वर दयाल मात्र 19 पैसे और चकर नगर के रामानंद 179 रु की कर्ज माफी का प्रमाण पत्र देख कर  माथा पीट रहे हैं. जालौन, कन्नौज, फर्रुखाबाद और महोबा जिलों के भी कई किसान ऐसी ही ऋण माफी से खिन्न और हैरान हैं.
किसानों की कर्ज माफी का बड़ा ढिंढोरा पीट रही उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने बहुत से किसानों को ठगा-सा एवं हैरान-परेशान कर रखा है. दावा था एक लाख रु तक का फसली ऋण माफ करने का लेकिन कई किसान नौ पैसे, चौरासी पैसे, दो रु, दस रु, जैसी ऋण माफी का पत्र पाकर सिर पीट रहे हैं.
आश्चर्य तो इन किसानों को यह भी है कि ऐसी ऋण माफी का प्रमाण पत्र वितरित करने के लिए जिला मुख्यालयों पर समारोह आयोजित किये गये, जिसमें मंत्रियों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी की तारीफों के पुल बांधते हुए किसानों से किया गया वादा पूरा करने का श्रेय लूटा.
प्रधानमंत्री का था चुनावी वादा
उत्तर प्रदेश का चुनावी रण जीतने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव सभाओं में वादा किया था कि राज्य में भाजपा की सरकार बनने पर किसानों का पूरा कर्ज माफ किया जाएगा. उन्होंने यह भी वादा किया था कि भाजपा सरकार अपनी पहली ही मंत्रिमंडल बैठक में किसानों की कर्ज माफी का फैसला करेगी.
उत्तर प्रदेश में भाजपा को प्रचण्ड बहुमत मिला..
महंत आदित्यनाथ योगी के नेटृत्त्व में बनी सरकार करीब एक महीने तक अपनी कैबिनेट मीटिंग ही इस कारण नहीं कर पायी कि किसानों का फसली ऋण माफ करने का फैसला लेना  टेढ़ी खीर बन गया था. अंतत: फैसला किया गया कि प्रदेश के लघु एवं सीमांत किसानों का एक लाख रु तक का फसली ऋण माफ कर दिया जाएगा.
उस समय सरकार ने बताया था कि इस फैसले से उत्तर प्रदेश के करीब सवा दो करोड़ किसानों पर बकाया 36,36,359 करोड़ रु का कर्ज माफ होगा. अब लाभान्वित होने वाले किसानों की संख्या लगभग 66 लाख बतायी जा रही है.
ऋण मोचन समारोह और हास्यास्पद ऋण माफी
बहरहाल,  योगी सरकार ने बीती 17 अगस्त को व्यापक प्रचार करके अपनी’ ‘कृषि ऋण मोचन योजनाकी शुरुआत की. उस दिन राजधानी लखनऊ में आयोजित भव्य कार्यक्रम में मुख्यमंत्री योगी और केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने, जो लखनऊ से सांसद हैं, 50 किसानों को अपने हाथ से ऋण मोचन प्रमाण पत्र वितरित किये. बताया गया कि उस दिन कुल 7574 किसानों को कर्ज मुक्त किया गया.
उसके बाद जिलों में आयोजित ऐसे ही कार्यक्रमों में प्रदेश सरकार के मंत्रियों ने ऋण मोचन प्रमाण पत्र वितरित किये. लखनऊ के कार्यकम में तो कोई शिकायत सामने नहीं आयी लेकिन जिलों से ऋण-मोचन के अजीबोगरीब किस्से सामने आने लगे.
बिजनौर में, सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 22,000 किसानों को कर्ज-मुक्त किया गया. इनमें 880 किसान ऐसे थे जिन्हें  500 रु (पांच सौ रु मात्र) की कर्ज-माफी मिली. नौ पैसे की कर्ज-माफी वाली बलिया देवी इन्हीं में शामिल हैं. उन्होंने टाइम्स ऑफ इण्डियाके संवाददाता को बताया कि हमने डेढ़ लाख रु का कर्ज लिया था और सब चुका भी दिया था. अब हमें बताया गया कि हमारा नौ पैसे का कर्ज बकाया था जो माफ कर दिया गया है.  
हमीरपुर के शिवपाल ने 93,000 रु का ऋण लिया था. उनका मात्र 20, 271 रु माफ हुआ है. शांति देवी ने एक लाख 55 हजार रु कर्ज लिया था. उन्हें मात्र 10.37 रु की माफी मिली. मुन्नी लाल के 40,000 रु के फसली कर्ज में मात्र 215 रु माफ हुआ है.
हमीरपुर के ऋण-मोचन समारोह में प्रमाण-पत्र बांटने वाले मंत्री मन्नू कोरी से जब हिंदुस्तान टाइम्सके संवाददाता ने इस बाबत पूछा तो पहले उन्होंने कहा कि प्रमाण पत्र में छपाई की गलती होगी. बाद में  ऐसी कई शिकायतें आने लगीं तो उन्होंने कहा कि ऋण माफी नियमानुसार की गयी है. कोई गड़बडी हुई होगी तो दिखवा लेंगे.
प्रचार से भ्रमित किसान
यह कैसा गड़बड़ घोटाला है? क्या किसानों को ठगा जा रहा है? एक बैंक के अधिकारी ने नाम जाहिर न करने की शर्त पर बताया कि लघु और सीमांत किसानों पर एक लाख रु तक बकाया माफ करने की योजना तो है लेकिन इसमें तरह-तरह की शर्तें हैं. पहली शर्त तो यह कि 31 मार्च, 2016 तक का ही बकाया माफ होगा.
बैंक अधिकारी के अनुसार चंद पैसे या कुछ रुपयों का कर्ज माफ होने वाले किसान वे हैं जो कर्ज की किस्तें चुकाते रहे हैं. किसी ने डेढ़ लाख रु का कर्ज लिया और एक लाख उनचास हजार रु चुकता कर दिये. अब चूंकि 31 मार्च 2016 को उस पर मात्र एक हजार रु का कर्ज है तो उतना ही माफ किया गया. जबकि सरकारी प्रचार से किसान यह समझे थे कि पूरे एक लाख रु की माफी मिलेगी.
नौ पैसे और चौरासी पैसे जैसी हास्यास्पद ऋण माफी के बारे में एक जिला कृषि अधिकारी ने बताया कि किसान क्रेडिट कार्ड से ऋण लेते रहते हैं. बैंक में खाता खोलने आदि में काफी लिखा-पढ़ी करनी पड़ती है. इसलिए ऋण चुकता कर देने के बावजूद चंद रु या कुछ पैसे का ऋण बकाया रख कर खाता चालू रहने देते हैं ताकि अगली बार उसी खाते में फिर ऋण लिया जा सके. बैंक अधिकारियों ने एक लाख रु तक के ऋण वाले किसानों की सूची में ऐसे बकायेदार किसानों के नाम भी शामिल कर दिये.
किसानों में रोष
तकनीकी वजहें जो भी हों, हर जिले में ऐसे किसानों की बड़ी संख्या है जिनकी ऋण-माफी की रकम पांच सौ रु से कम है. ऐसे किसान सचमुच ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं. कई तो ऋण-मोचन प्रमाण पत्र लेने भी नहीं गये. दूसरी तरफ, उन किसानों की संख्या भी काफी कम है जिनका एक लाख के करीब कर्ज माफ हुआ है. इससे किसानों में रोष है. उनका आरोप है कि सरकार ने ऋण माफी वाले किसानों की संख्या बढ़ाने के लिए यह चालाकी की है. सिर्फ उन्हीं किसानों का बचा-खुचा कर्ज माफ किया जो पहले से किस्तें अदा कर रहे थे.
स्वयं राज्य सरकार के आंकड़ों के अनुसार पहले चरण में  जिन 11 लाख 93 हजार किसानों का ऋण माफ किया गया है उनमें एक रु से लेकर एक हजार रु तक की कर्ज माफी वाले किसानों की संख्या 34,262 है. इनमें भी 4814 किसानों को एक से एक सौ रु तक की कर्ज माफी मिली है. एक हजार से दस हजार रु तक का कर्ज माफ होने वाले किसान 41, 690 हैं, जबकि 11 लाख 27 हजार किसानों का दस हजार रु से ज्यादा का ऋण माफ हुआ है
विपक्षी नेताओं ने भी योगी सरकार पर कटाक्ष किये हैं कि उसने कर्ज माफी के नाम पर किसानों के साथ भद्दा मजाक किया है.
सरकारी सूत्रों के अनुसार ऋण माफी का पहला चरण पूरा हो गया है. इसमें उन्हीं किसानों का कर्ज माफ किया गया है जिनके बैंक खाते आधार नम्बर से जुड़े थे. अगले चरण में पहले किसानों के बैंक खाते आधार नम्बर से जुड़वाने का कठिन काम करवाना है. ऐसे किसानों की संख्या काफी ज्यादा है. उनके लिए कैम्प लगवाये जा रहे हैं. (फर्स्टपोस्टट हिंदी, 13 सितम्बर, 2017)

(http://hindi.firstpost.com/india/yogi-adityanath-has-delaed-9-paisa-relief-for-bjp-farmers-53485.htm)

Friday, September 08, 2017

मेट्रो के गौरव-बोध में राजनैतिक फजीहत


राजधानी लखनऊ के लिए मेट्रो सेवा की शुरुआत गौरव का अवसर थी लेकिन श्रेय लूटने की कोशिश में सत्तारूढ़ भाजपा और विरोधी दल सपा ने इसे अनावश्यक विवाद का विषय बना दिया. मुख्यमंत्री से लेकर भाजपा के कई नेता मेट्रो के उद्घाटन अवसर पर सपा सरकार और उसके नेताओं का मजाक उड़ाते रहे. पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी, जिन्हें निश्चय ही मेट्रो परियोजना शुरू करने का श्रेय है, जवाबी तंज कसे. सपा कार्यकर्ताओं को मेट्रो स्टेशन के भीतर नारेबाजी करने की क्या जरूरत थी? जब आम शहरी मेट्रो की पहली सवारी का सुखद अनुभव करने पहुंच रहे थे तो सपाइयों पर लाठी चलाई जा रही थी.
अच्छा होता यदि भाजपा सरकार सिर्फ औपचारिक निमंत्रण भेजने की बजाय अखिलेश यादव को उद्घाटन समारोह में सादर बुलाती, अखिलेश वहां जाते और राज्यपाल, मुख्यमंत्री एवं राजनाथ सिंह के साथ मेट्रो की उद्घाटन-सवारी करते. यह भाजपा का निजी कार्यक्रम नहीं था. जनता के धन से बनी एक अच्छी और जरूरी परिवहन सेवा के उद्घाटन का अवसर राजनैतिक रूप से इतना शालीन और सद्भावना भरा क्यों नहीं होना चाहिए था? मुख्यमंत्री और विरोधी दल के नेता मेट्रो को एक साथ हरी झण्डी क्यों नहीं दिखा सकते थे? उद्देश्य जन-हित है या पार्टी-हित?    
यह प्राचीन इतिहास का भूला-बिसरा प्रसंग नहीं है कि शोध करके बताना पड़े कि मेट्रो की शुरुआत कब और किसने की. इसके लिए सपा का प्रदर्शन करना उतना ही हास्यास्पद है जितना भाजपा का स्वयं श्रेय लेना. सुखद है कि सपा शासन में शुरू हुई इस परियोजना को भाजपा सरकार ने उसी रफ्तार से पूरा होने दिया. वर्ना तो सत्ता में पार्टी बदलने पर पूर्व सरकार की विकास योजनाओं के साथ सौतेला व्यवहार करना हाल के दशकों में परिपाटी बन गयी है.
कई पुल, सड़कें एवं जनता के लिए नितांत आवश्यक विकास योजनाएं भी इसलिए अधूरी छोड़ दी जाती हैं कि उन्हें विरोधी पार्टी की सरकार ने शुरू कराया था. नयी सरकार वैसी ही दूसरी योजनाएं शुरू करती है, जिन्हें अधूरा रह जाने पर अगली सरकार फिर लटका देती है. सिर्फ श्रेय लूटने के लिए ऐसा किया जाता है, जबकि जनता वास्तविकता जानती है. यह जनता के साथ अन्याय और उसके धन की बरबादी ही है.
बहरहाल, प्रदेश की राजधानी मेट्रो वाली हो गयी है, हालांकि अभी बहुत छोटा हिस्सा इसके दायरे में आया है. दिल्ली-एनसीआर की जनता ने अपनी मेट्रो को इज्जत बख्शी है.  उसे अराजकता, फूहड़ता और गंदगी से बचा रखा है. नवाबों की नगरी की नयी उच्छृंखल पीढ़ी अपनी मेट्रो के साथ क्या सलूक करेगी? डिब्बों की दीवारों पर अश्लील टिप्पणियां, प्रेमियों के नाम, पान-गुटका की पीक के साथ दाद-खाज व नामर्दगी के अचूक नुस्खे वाले स्टिकर और राजनैतिक पोस्टर दिखाई देंगे या हम अपना सलीका बदलेंगे?
इस मौके पर तारीफ के चंद शब्द मेट्रो कॉर्पोरेशन के सबसे छोटे, बल्कि दिहाड़ी वाले कर्मचारियों  के लिए. जब से मेट्रो का काम चला और खुदाई एवं निर्माण के कारण सड़कें तंग हुईं, यातायात सम्भालने में लगे मेट्रो-सिपाहियों ने गजब की मुस्तैदी दिखाई. शहर का कोई भी इलाका, जो चौड़ी सड़कों और ट्रैफिक सिपाहियों की तैनाती के बावजूद अराजक नागरिकों की वजह से जाम से त्रस्त रहता था, वही मेट्रो निर्माण के साथ-साथ बावजूद बहुत सकून से चल रहा है. मेट्रो-सिपाही ट्रैफिक पुलिस से कहीं ज्यादा मुस्तैदी से संकरी हो गयी सड़कों पर बेहतर यातायात संचालित कर रहे हैं. मेट्रो के नव-गौरव में उनकी सलामी भी बनती है.
(सिटी तमाशा, नभाटा, 09 सितम्बर 2017)  






  

Wednesday, September 06, 2017

मंत्रिपरिषद-फेरबदल: छवि चमकाने की चतुर चाल


नरेंद्र मोदी का तीसरा मंत्रिपरिषद-विस्तार एकाधिक कारणों से चर्चा में है. यह मोदी जी की खूबी है कि वे अपने फैसलों को बहुचर्चित बना देते हैं. नोटबंदी के बारे में रिजर्व बैंक की रिपोर्ट आने के बाद उनकी चौतरफा आलोचना हो रही थी. देश के सकल घरेलू उत्पाद में दो प्रतिशत की बड़ी गिरावट होने, बेरोजगारी बढ़ने, काले धन और जाली नोटों पर सरकार के दावे गलत साबित होने की सर्वत्र चर्चा थी. मंत्रियों से लेकर सरकार और भाजपा का पूरा प्रचार तंत्र इसकी प्रभावी काट नहीं कर पा रहा था. मंत्रिपरिषद में फेरबदल ने एक झटके में सरकार की नकारात्मक चर्चा को बंद करा दिया. विरोधी दल और मोदी के आलोचक भी कम से कम एक परिवर्तन की प्रशंसा करने को बाध्य हुए हैं कि पहली बार एक महिला को पूर्णकालिक रक्षा मंत्री बनाया गया है.
क्या मोदी जी ने छुट्टी के दिन और अपनी विदेश यात्रा की सुबह अपनी टीम में बदलाव इसीलिए किया? मंत्रिपरिषद में बदलाव की चर्चा कुछ दिन पहले से थी. कुछ मंत्रियों को हटाने, पूर्णकालिक रक्षा मंत्री नियुक्त करने और नये सहयोगी दलों, जद(यू) एवं अन्नाद्रमुक को केंद्रीय मंत्रिपरिषद में शामिल करने की खबरें चल रही थीं. कहा जा रहा था कि प्रधानमंत्री अपने विदेश दौरे से लौटकर यह बदलाव करेंगे. राष्ट्रपति को भी उत्तर-पूर्व के दौरे पर निकलना था. तो भी प्रधानमंत्री ने रविवार की सुबह शपथ-समारोह करवा लिया. सहयोगी दलों के बिना फेरबदल करने की जल्दबाजी के क्या कुछ निहितार्थ नहीं निकाले जा सकते?
जो भी हो, मोदी जी के साहसिकफैसलों की खूबियां बखानी जा रही हैं. एक झटके में कुछ मंत्री नालायक साबित हो गये, कुछ तारीफें पाकर प्रोन्नत हो गये और दक्षिण भारत के तीन राज्यों की प्रतिनिधिनिर्मला सीतारमण रक्षा मंत्री की कुर्सी पा कर स्टारबन गयीं.
अपनी टीम में बदलाव प्रधानमंत्री को करना ही था. सरकार बने तीन साल से ऊपर हो चुके. 2019 का चुनाव बहुत दूर नहीं है. स्वच्छ भारत मिशन’, ‘नमामि गंगे’, कौशल विकास से युवाओं को रोजगार देने, जैसी अपनी कुछ प्रिय योजनाओं के खाते में वास्तविक उपलब्धियों के नाम पर ज्यादा कुछ उनके पास नहीं है. सरकारी आंकड़ों और खूबसूरत विज्ञापनों की बात अलग मगर अर्थव्यवस्था संकट में है और किसानों –युवाओं में असंतोष है. इसलिए मोदी जी को सरकार की कमर कसना जरूरी लगने लगा था.
कुछ मंत्रियों को हटाकर, कुछ को महत्व कम करके चेतावनी देकर और कुछ को बड़ा दर्जा देकर प्रधानमंत्री ने जनता से लेकर अपनी पार्टी तक को कुछ साफ संदेश दे दिये हैं. यह कि, सरकार पर उनकी जबरदस्त पकड़ है, कि मंत्रियों के काम-काज पर वे कड़ी नजर रखते हैं, कि काम करना एवं नतीजे देना उनका लक्ष्य है, कि नाकामयाबी और ढीला-ढाला रवैया उन्हें बर्दास्त नहीं, कि कड़े फैसले लेने में उन्हें कतई संकोच नहीं.
चूंकि पार्टी और सरकार पर मोदी जी का पूर्ण नियंत्रण है, इसलिए हटाये या घटाये गये मंत्री नहीं पूछ सकते कि जो काम नहीं हुए या जो योजनाएं बहुत सुस्ती से चलीं, उनके लिए हम ही अकेले क्यों दोषी हैं. मसलन, राजीव प्रताप रूडी सवाल  उठाने का साहस नहीं कर सकते कि श्रीमान प्रधानमंत्री जी, कौशल विकास आपका विजन था, यह मंत्रालय आपने ही बनवाया, इसलिए इसे चलाने में आपके मार्गदर्शन की बहुत जरूरत थी और अगर पिछले तीन साल में उसकी प्रगति संतोषजनक नहीं थी तो आपने दिशा क्यों नहीं दिखायी? या उमा भारती यह प्रश्न नहीं पूछ सकतीं कि नमामि गंगे परियोजना की देख-रेख यदि स्वयं प्रधानमंत्री कार्यालय कर रहा था और इसके लिए अफसरों से सीधे सम्पर्क करता था, तो विफलता का सारा दोष इस साध्वी के सिर ही क्यों डाल दिया गया, महोदय?
भाजपा में नहीं पूछे जा सकते लेकिन नरेंद्र मोदी की कार्य शैली को देखते हुए ये प्रश्न महत्त्वपूर्ण हैं. सन 2014 में सरकार गठन के समय का एक वाकया हम यहां याद दिलाना चाहेंगे. तब अपने मंत्रालयों का कार्य भार सम्भालते ही मोदी जी के कई मंत्री अपनी-अपनी पसंद के अधिकारियों को अपना निजी सचिव तैनात करने लगे थे, जैसा कि सभी सरकारों में होता आया था. यह पता चलते ही मोदी जी ने निर्देश जारी कर मंत्रियों को ऐसा करने से मना कर दिया. सभी मंत्रियों के साथ अधिकारियों की तैनाती प्रधानमंत्री कार्यालय से की गयी. सरकार में नंबर दो का दर्जा रखने वाले गृह मंत्री राजनाथ सिंह तक को अपना पसंदीदा अधिकारी हटाना पड़ा था.
इस उदाहरण से दो बातें साफ हैं. एक, मोदी जी अपने मंत्रियों को ज्यादा छूट न देकर खास अनुशासन में रखते हैं और दो, अधिकारियों की मार्फत उन पर कड़ी नजर रखी जाती हैं. वे टीम लीडर से ज्यादा रिंग लीडर के रूप में काम करते हैं. विभिन्न मंत्रालयों के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ उनकी अक्सर होने वाली बैठकें गवाह हैं कि वे अफसरों पर बड़ा भरोसा करते हैं. उन्हीं को निर्देश देते और रिपोर्ट लेते हैं. कहा यह भी जाता है कि उनकी बैठकें मंत्रियों के साथ कम, अफसरों के साथ ज्यादा होती हैं. स्वच्छ भारत मिशन, नमामि गंगे, आदि अपनी प्रिय योजनाओं की देख-रेख तो वे अपने कार्यालय की मार्फत कराते ही रहते हैं. अकारण नहीं कि चार पूर्व-अधिकारियों को इस फेरबदल में मंत्री बनाया गया है.
मोदी के कुछ मंत्री अपेक्षाकृत तेज और कुछ सुस्त हो सकते हैं, कार्यशैली भी उनकी अलग-अलग होगी लेकिन सफलता-विफलता अकेली उनकी नहीं हो सकती. प्रधानमंत्री का भी उसमें बराबर हिस्सा होगा. अगर पास-फेल के रूप में परिणाम जारी किया गया है तो उसके मायने सियासी ही हैं. निर्मला सीतारमण और धर्मेंद्र प्रधान ने बेहतर काम अवश्य किया होगा, लेकिन उन्हें प्रथम श्रेणी देने का सीधा मतलब दक्षिण के राज्यों और उड़ीसा में भाजपा की पैठ बढ़ाना है. उग्र और आपत्तिजनक बयानों के लिए कुख्यात अनंत कुमार हेगड़े को शामिल करने का उद्देश्य कर्नाटक में हिंदू-ध्रुवीकरण के अलावा और क्या हो सकता है. उत्तर भारत के जातीय समीकरणों पर तो ध्यान है ही.
प्रधानमंत्री ने मंत्रिपरिषद का यह विस्तार बड़ी चतुराई से किया है. सरकार की विफलताओं अथवा सुस्ती का जिम्मा कुछ मंत्रियों पर डाल कर खुद अपनी छवि पर आंच नहीं आने दी है. जनता में मोदी की छवि तीन साल बाद भी बेहतर काम करने, फटाफट फैसले लेने और देश में बदलाव लाने वाले नेता की बनी हुई है. भाजपा के लिए यह छवि चुनाव जिताऊ है, इसलिए अत्यंत जरूरी है. 2019 तक इसे अक्षुण्ण बनाये रखना है. केंद्र सरकार की धुली-पुछी छवि नयी इसीलिए गढ़ी गयी है. महिला को रक्षा मंत्री बनाने का चमत्कारिक एवं खुशनुमा फैसला इसमें चार-चांद लगाता है.
कहना होगा कि आज मोदी राजनीति के सबसे चतुर खिलाड़ी हैं.
‌प्रभात खबर, 06 सितम्बर, 2017) 
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Friday, September 01, 2017

स‌‌‌‌ड़क पर मौत के सौदागर


मुम्बई में अतिवृष्टि से हुए भारी जलजमाव में मशहूर डॉक्टर और वकील समेत कई लोगों की मौतें दिल दहलाने वाली हैं.  द्रवित मन से हम पूछ रहे हैं कि पेट रोगों के प्रख्यात उस डॉक्टर क्या सूझी होगी कि कार से उतर कर पैदल घर जाने लगे और मैनहोल में गिए कर लाश बन गये! मन बहलाने के लिए कह सकते हैं कि मौत कितने बहानों से बुला लेती हैमगर क्या इन मौतों के लिए कोई जिम्मेदार नहीं है?
तत्काल ध्यान अपने शहर में हो रही ऐसी ही कई मौतों की तरफ चला जाता हैजिन्हें हम मौत का विचित्र बुलावा भले मान लेंहोती वे दूसरों की घोर लापरवाहियों से ही हैं. चंद रोज पहले का वाकया याद कीजिएतीन दोस्त एक कार से जा रहे थे कि उलटी दिशा से एक ट्रक आ गया. ट्रक में लदे लोहे के एंगल बाहर निकल रहे थे. एक एंगल सामने का शीशा तोड़ते हुए कार चला रहे युवक की छाती को चीरता हुआउसकी पीठ व सीट फाड़ता हुआ पीछे बैठे युवक के शरीर में जा धंसा. एक युवक की मौत हो गयीदूसरा मरणासन्न था.
क्या हमें यह मान लेना चाहिए कि यह मौत थी जो लोहे के एंगल का रूप धर कर आयीआये दिन शहर में ऐसी दर्दनाक वारदात होती रहती हैं. कभी कोई बिजली के खम्भे में उतरे करण्ट से मरता हैकोई खुले मैनहोल में गिरकरकोई सड़क पर साड़ों की लड़ाई का शिकार बनता है. इनके लिए कभी किसी को कटघरे में खड़ा नहीं किया जाता. ये दुर्घटनाएं हरगिज नहीं हैं. इन्हें हत्या कहा जाना चाहिए.
ट्रकठेलेरिक्शेआदि पर एंगलसरियाआदि खुले आम व्यस्त सड़कों पर ढोये जाते हैं जो खतरनाक ढंग से बाहर निकले रहते हैं. अक्सर ही वे गलत दिशा में चलते हैं. किसी को बहुत ख्याल आया तो एक लाल कपड़ा सरिया पर लटका दियाअन्यथा कोई चेतावनी देना जरूरी नहीं समझा जाता. कई बसोंटेम्पोऔर दूसरी गाड़ियों में उनके टूटे हिस्से या गाड़ी के बचाव के लिए लगाये गये एंगल की नोकें भाले की तरह बाहर निकली रहती हैं. अक्सर ये जानलेवा साबित होते हैं.
क्या मौत का ऐसा इंतजाम करने वालों पर इरादतन न सहीगैर-इरादतन हत्या का मुकदमा नहीं लिखाया जाना चाहिएक्या आरटीओ और ट्रैफिक पुलिस को भी इन मौतों के लिए कटघरे में खड़ा नहीं किया जाना चाहिएकिसी भी वाहन में बाहर निकले नुकीले हिस्से मोटर वाहन अधिनियम में गैरकानूनी हैं.टक्कर-रोधी उपाय भी नुकीले नहीं होने चाहिए. सरिया-एंगल इस तरह ढोना तो जुर्म है. जुर्म करने वाले और होने देने वाले अपराधी ठहरते हैं. सांड़ बाजार में किसी की जान ले लें या खुले मैनहोल में मौतें हों तो नगर निगम पर अभियोग क्यों नहीं चलना चाहिए?
एक बड़े सरकारी अस्पताल के शव-गृह में आवारा कुत्ते किसी महिला की लाश नोच डालें तो च्च-च्च-च्च’ करके उस बेचारी की किस्मत पर रोना चाहिए या अस्पताल प्रशासन के अलावा नगर निगम पर मुकदमा दर्ज करना चाहिए?
हमारे यहां ऐसी सामाजिक सक्रियता नहीं दिखाई देती. दूसरे देशों में इन घातक लापरवाहियों पर तुरंत मुकदमे और बड़ी सजाएं हो जातीं. आरटीओनगर निगमट्रैफिकबिजली जैसे विभाग न केवल लापरवाह हैंवरन्‍ मुट्ठी गर्म करके ऐसी जानलेवा हरकतों को होने देने के अपराधी भी हैं.

पीआईएल वाले महारथी  क्या इसे मुद्दा नहीं बनाएंगे
(सिटी तमाशा, नभाटा, 02 सितम्बर 2017)