Sunday, August 28, 2016

दलों में दम घुटने और कूदने-फांदने का समय


नवीन जोशी
आजकल सभी पार्टियों के भीतर कुछ नेताओं का दम अचानक घुटने लगा है. फिर वे किसी दूसरी पार्टी की खुली हवा में सांस लेते दिखाई देते हैं और उसके गुणगान करने लगते हैं, जिसको कोसते-गरियाते उनकी अब तक की राजनीति परवान चढ़ी होती है.
पार्टियों के रणनीतिकार दूसरे दलों के ऐसे बेचैन नेताओं की तलाश में रहते हैं. पहला मकसद बड़ी मछलियांफंसाने का होता है. मछली की जाति का विशेष महत्व है. स्वामी प्रसाद मौर्य का उदाहरण लेते हैं. वे बड़ी मछली हैं और उनका ओबीसी होना और भी मूल्यवान है. मौर्य इस कीमत को जानते हैं. इसीलिए बसपा छोड़ने पर पहले बाजार का रुख देखते रहे. अंतत: भाजपा में गए. भाजपा इसे बड़ी उपलब्धि के तौर पर प्रचारित कर रही है.  उसे  पिछड़े और दलित नेताओं की जरूरत है. किसी बड़े मुस्लिम नेता की और भी ज्यादा. लेकिन इससे अंदरूनी पेंच भी फंसते हैं. जैसे, भाजपा में एक बड़े मौर्य पहले से हैं, इस नाते बड़ा पद भी मिला है. अब दूसरे बड़े मौर्य के आ जाने से उनकी पूछ कम तो होगी. वे कुछ खिन्न बताए जाते हैं लेकिन इतने नहीं कि बगावत कर बसपा में चले जाएं. बसपा में उनका बड़ा स्वागत होगा.
हां, दल-बदल के दांव ऐसे भी होते हैं. तू मेरा ऊंट मार, मैं तेरा हाथी.  जैसे, अभी बसपा के हाथ पूर्व सपा सांसद रीना चौधरी लग गई हैं. वे आर के चौधरी की कमी पूरी करेंगी, पार्टी ऐसा मानती है. चुनावी राजनीति मोहरों का खेल है. कांग्रेस के तीन मुस्लिम विधायक बसपा में खिसक लिए. एक तो मायावती सौ से ज्यादा मुसलमानों को टिकट दे रही हैं, दूसरे, कांग्रेस में जीतने के आसार उनको सबसे कम लगे होंगे. कांग्रेस यू पी में खड़े हो पाने के लिए बड़ा जोर लगाए हुए है. हाल की उसकी रैलियों और सोनिया के रोड शो में खूब भीड़ जुटी लेकिन कांग्रेस में शामिल होने के लालायित बहुत कम होंगे. चुनाव जीतने की सम्भावना भी होनी चाहिए.
सबसे ज्यादा सम्भावनाशील पार्टी भाजपा मानी जा रही है. ब्राह्मणब्रजेश पाठक भी उसी के दरवाजे गए. लेकिन वहां पहले से मौजूद लोगों में चिंता भी है. दूसरे दलों से आए लोगों की पूछ ज्यादा होगी, टिकट का वादा तो है ही. सो, जो पहले से पैर जमाए और उम्मीदों से भरे है, उन्हें बेदखल होने की फिक्र खाए जा रही है. सीधे विरोध कोई नहीं रहा, उसके अपने खतरे हैं लेकिन कोई साक्षी महाराज से कहलवा रहा है तो कोई किसी और से. 

दल-बदल की मण्डी में बसपा के भाव कुछ कम हुए हैं तो सपा के बढ़े हैं. सपा में समस्या यह है कि कौन-सा दरवाजा खटखटाया जाए कि कोई नाराज न हो. चुनाव करीब आते-आते यह खेल तेज होगा. असंतुष्टों की फसल बढ़ेगी और दूसरे दल उन मोहरों को अपनी बाजी में फिट करने का कौशल दिखाएंगे. टिकट के लिए पाला बदलने वालों के बारे में साबित तथ्य यह है कि अंतत: वे अपना सम्मान और रुतबा खो देते हैं. मगर इस मुई राजनीति में सम्मान की चिंता है किसे! ( नभाटा, 28 अगस्त, 2016)

Wednesday, August 24, 2016

दलित-मुस्लिम एका है मायावती की चुनावी रणनीति


नवीन जोशी
बसपा में स्वामी प्रसाद मौर्य एवं आर के चौधरी जैसे बड़े नेताओं की बगावत और कुछ विधायकों के निष्कासन/दलबदल के बाद मायावती को कमजोर मान रहे राजनीतिक विश्लेषकों को उनकी आगरा रैली से जवाब मिल गया होगा. हालांकि आगरा रैली के अगले ही दिन यानी 22 अगस्त को पूर्व सांसद  ब्रजेश पाठक भी बसपा छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए. स्वामी और चौधरी की तुलना में ब्रजेश पाठक की खास गिनती नहीं है. भाजपा खुश हो सकती है कि उसने बसपा का एक ब्राह्मण नेता तोड़ लिया है लेकिन बसपा को इससे बहुत फर्क पड़ने वाला नहीं है. आज तक बसपा को छोड़ कर जितने भी नेता गए हैं वे बसपा को खास नुकसान नहीं पहुंचा सके. बसपा जिस तरह की पार्टी है और जो उसका जनाधार है वह अब तक बहन जी के इशारों पर चलता आया है. इस स्थिति में फिलहाल कोई बदलाव होता नहीं दिखता. 
2017 के विधान सभा चुनाव के लिए अपनी चुनावी  रैलियों की शुरुआत मायावती ने 20 अगस्त को आगरा से की है. दीपावली तक वे हर इतवार ऐसी रैलियां प्रदेश के विभिन्न भागों में करेंगी. उसके बाद दूसरा चरण शुरू होगा. आगरा रैली में जो भारी भीड़ जुटी उससे कहीं भी नहीं लगता कि मायावती का प्रभाव कम हो रहा है. अपने दलित वोट बैंक पर उनकी पकड़ कायम है. यह अलग बात है कि सत्ता में आने के लिए उन्हें इस वोट बैंक के अलावा भी मतदाता चाहिए. जैसे, 2007 में ब्राह्मणों का व्यापक समर्थन उन्हें मिला था. ब्राह्मण अब शायद उनके साथ उस तरह नहीं होंगे. ब्राह्मण वोटों के लिए बड़ी जद्दोजहद चल रही है. कांग्रेस ने अपने इस पुराने वोट समुदाय से इस बार बड़ी उम्मीद लगा रखी है. शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में पेश करना इसी रणनीति का हिस्सा है. मायावती इस बदले माहौल से खूब परिचित हैं. इसीलिए वे इस बार मुसलमानों पर ज्यादा फोकस कर रही हैं. दलित-मुस्लिम वोट बैंक काफी महत्वपूर्ण हो जाता है. सवर्णों से मायावती ने ध्यान नहीं हटाया है लेकिन प्रदेश विधान सभा की 403 सीटों में एक सौ सीटों पर मुसलमानों को टिकट देकर उन्होंने अपनी मंशा साफ कर दी है. बसपा अपने सभी उम्मीदवार तय कर चुकी है और पार्टी के स्तर पर घोषणा भी की जा चुकी है. इसमें कुछ ही बदलाव होंगे, जो कि मायावती ही करेंगी.
लोक सभा चुनाव में बसपा प्रदेश की एक भी सीट नहीं जीत सकी थी. तभी से मायावती के कमजोर पड़ने की चर्चाएं चलती रहीं हैं. दलित मतदाताओं का भी एक हिस्सा तब  नरेंद्र मोदी के साथ गया था. लेकिन यह देखना चाहिए कि 2014 का लोक सभा चुनाव बिल्कुल दूसरे मुद्दे पर लड़ा गया.  उस समय राजनीतिक नेतृत्व में बदलाव की लहर थी और जनता को नरेंद्र मोदी के रूप में एक सक्रिय और तेज-तर्रार नेता दिखाई दे रहा था. 2014 के नतीजे बदलाव के पक्ष में दिए गए थे और दलितों का भी उसमें योगदान था.  उसके बावजूद बसपा का वोट प्रतिशत ज्यादा गिरा नहीं था.  सिर्फ यू पी की बात करें तो बसपा को 2014 में 19.60 फीसदी वोट मिले थे, हालांकि सीट एक भी नहीं मिली थी. सपा के हिस्से 22.20 प्रतिशत वोट आए थे और पांच सीटें. वोट प्रतिशत के मामले में राष्ट्रीय स्तर पर बसपा, भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बाद तीसरे नम्बर का दल बना था. वोट प्रतिशत और सीटों का गणित अनेक बार उलझा हुआ होता है. कांग्रेस का उदाहरण देख सकते हैं, जिसे मात्र 7.50 फीसदी वोट मिले लेकिन उसके हिस्से दो सीटें आई थीं.
तो, लोक सभा चुनाव नतीओं के आधार पर बसपा यानी मायावती को विधान सभा चुनाव में भी कमजोर आंकना गलत होगा.परिवर्तन के प्रतीक बने नरेंद्र मोदी का जादू भी दो साल में टूटा है. दूसरे, स्वामी प्रसाद मौर्य एवं आर के चौधरी जैसे नेताओं के बसपा छोड़ने का बहुत नुकसान मायावती को नहीं होना है. ध्यान दीजिए कि कांशी राम का युग बीतने के बाद मायावती के तानाशाही रवैए से खिन्न होकर बसपा के कई पुराने नेता बाहर जाते रहे हैं. खुद आर के चौधरी ने पार्टी छोड़ दी थी और कई साल बाद उन्हें पार्टी में वापस लिया गया था. आम तौर पर मायवती पार्टी छोड़कर जाने वालों को वापस नहीं लेतीं लेकिन आर के चौधरी इसके अपवाद बने थे. चौधरी जमीनी नेता हैं और पासियों पर उनका अच्छा प्रभाव है. इसके बावजूद वे बसपा को बड़ा नुकसान नहीं पहुंचा सके थे. मौर्य बसपा का प्रमुख पिछड़ा चेहरा थे लेकिन वे जानते थे कि अलग पार्टी बना कर वे बसपा को नुकसान पहुंचा पाएंगे न कुछ खास हासिल कर पाएंगे. इसलिए काफी सोच-समझ कर वे भाजपा में चले गए. यह बात भी नोट की जानी चाहिए कि बसपा छोड़ने वाले नेता मायावती पर भारी रकम लेकर टिकट बांटने और दलित हितों की उपेक्षा करने आरोप लगाते रहे हैं. मायावती के लिए ये आरोप नए नहीं हैं. सब जानते हैं कि मायावती बड़ी रकम ले कर टिकट देती रही हैं. दलित वोटरों पर इस आरोप का पहले असर पड़ा न अब पड़ने वाला है.
इसके विपरीत यह देखा जाना चाहिए कि मायावती आज भी दलितों की अलगभग एकछत्र नेत्री क्यों बनी हुई हैं. यू पी की सत्ता में चार बार आकर मायावती ने दलितों का स्वाभिमान जगाने और उनके सामाजिक सशक्तीकरण का महत्वपूर्ण काम किया है. यू पी में दलित अब चुपचाप दमन सहन नहीं करते. वे सीना तान कर विरोध करते और लड़ते हैं. यह बहुत महत्वपूर्ण बदलाव है और इसका श्रेय राजनीतिक सत्ता से मिली सामाजिक ताकत है. यह अलग बात है कि यह राजनीतिक सत्ता मायावती और उनके इर्द-गिर्द ही सीमित रही और आम दलित को उसमें हिस्सेदारी नहीं मिली. यह भी सच है कि मायावती दलित स्वाभिमान की लड़ाई को आर्थिक सशक्तीकरण और दूसरे जरूरी मोर्चों तक नहीं ले जा सकी. कांशी राम के समय से अब तक दलितों की नई पीढ़ियां बड़ी हो गई हैं और वे सिर्फ स्मारक और मूर्तियों से खुश होने वाली नहीं. अगर मायावती कमजोर पड़ेंगी तो इसी वजह से, वर्ना बसपा छोड़ने वाले नेता, मौर्य हों या चौधरी या पाठक, उन्हें बड़ा नुकसान नहीं पहुंचा पाएंगे. दलितों का बड़ा वर्ग अब भी मायावती को ही अपनी नेता मानता है. उनके पास कोई बेहतर विकल्प है भी नहीं.
गौर कीजिए कि हाल तक सभी  मान भी रहे थे कि 2017 का सत्ता संग्राम भाजपा बनाम बसपा होगा. भाजपा लोक सभा चुनाव के बाद से ही यहां सता की प्रमुख दावेदार बनी हुई है, समाजवादी पार्टी की सरकार ने युवा अखिलेश की अपेक्षाकृत अच्छी छवि के बावजूद साख खो दी है और कांग्रेस अपनी बची खुची जमीन भी बचा सके तो बहुत होगा. इसी आधार पर कहा जा रहा था कि मायावती ही हैं जो अपने ठोस दलित आधार तथा कानून-व्यवस्था पर पकड़ के कारण भाजपा को जोरदार टक्कर देंगी. लेकिन जून में स्वामी प्रसाद मौर्य और फिर जुलाई में आर के चौधरी जैसे पुराने वफादारों के पार्टी छोड़ देने से बसपा को कमजोर आंका जाने लगा. लेकिन जैसा हम ऊपर कह चुके हैं इन नेताओं के चले जाने से बसपा को बड़ा नुकसान होने के आसार नहीं हैं.  
आने वाले विधान सभा चुनाव में मायावती की सफलता इस पर निर्भर करेगी कि वे दलितों के अलावा और किस वर्ग का कितना समर्थन हासिल कर पाती हैं. क्या मुसलमान सपा से छिटक कर उन्हें समर्थन देंगे? फिलहाल तो वे इसी समीकरण पर काम कर रही हैं. हाल में देश भर में दलितों और मुसलमानों पर हुए हमलों को वे चुनावी मुद्दा बना रही हैं. भाजपा पर उनके हमले का मुख्य आधार यही हैं. भाजपा और उसके अनुषांगिक संगठनों ने जिस तरह बीफ के बहाने दलितों और मुसलमानों पर हमले किए हैं, वह मायावती के लिए बेहतर चुनावी औजार बना है. मुसलमानों का वास्तविक हित न करने के लिए सपा भी उनके निशाने पर है. आगरा की रैली में एक खास बात यह देखी गई कि कांग्रेस के प्रति मायावती का रुख नरम रहा. इसका कोई बड़ा संकेत निकालना अभी जल्दबाजी होगी. इतना तय है कि मायावती की चुनावी रणनीति अधिक से अधिक मुस्लिम समर्थन हासिल करना  होगी. इससे जहां वे भाजपा के खिलाफ मुख्य लड़ाई में होने का संदेश दे पाएंगी वहीं सपा को भी कमजोर बना सकेंगी. भाजपा विरोधी मतदाता, विशेष कर मुसलमान यह देखते हैं कि भाजपा प्रत्याशी को हराने में कौन सक्षम है. उनका वोट उसी को मिलता है. मायावती बसपा को इस स्थिति में पेश कर सकीं तो सपा को बड़ी मुश्किल होगी. अपने दलित आधार को कायम रखते हुए मायावती इसी पेशबंदी में लगी हैं.



Sunday, August 21, 2016

चुनावी बयार में सपा की अंदरूनी रार


नवीन जोशी
समाजवादी पार्टी का अंदरूनी सत्ता-संघर्ष न तो नया है और न ही पहली बार सामने आया है. चुनाव पूर्व नाजुक समय पर इसके कुछ और तेजी से भड़क उठने के बाद मौजू सवाल यह है कि पार्टी की चुनावी सम्भावनाओं पर यह कैसा और कितना असर डालेगा? चचा-भतीजे की रार परिवार की तनातनी तक सीमित रहेगी या पार्टी का भी सिरदर्द बनेगी?
सपा की इस पालेबंदी को अगर अंदरूनी झगड़े की बजाय विचार एवं शैली के विरोधाभास के रूप में देखें तो दो धाराएं दिखती हैं. पहली शिवपाल की शैली है जो मुलायम ही की परम्परा है. उसमें चुनाव जिता सकने में समर्थ कोई भी नेताअपराधी नहीं होता. डी पी यादव या मुख्तार संसारी सहज स्वीकार्य और उपादेय होते हैं . उनका भरपूर इस्तेमाल किया जाता है. दूसरी धारा अखिलेश की है जो 2012 के डी पी यादव प्रकरण के बाद उनकी छवि के साथ जोड़ दी गई. अखिलेश के युवा और बेदाग चहरे के साथ इसे सपा का नया ब्राण्ड बताया जाने लगा. पिछले साढ़े चार साल में ये दो धाराएं समानांतर चलती रहीं. एक का प्रतिनिधित्व शिवपाल करते रहे और दूसरा मुख्यमंत्री के रूप में अखिलेश के साथ जुड़ा रहा. अखिलेश यादव की समस्या यह है कि वे अपनी धारा का सिक्का जमा नहीं पाए या उन्हें इसका मौका ही नहीं दिया गया, जबकि शिवपाल ने न केवल पार्टी में बल्कि सरकार में भी अपनी पकड़ बढाई और जब-तब जोर भी दिखाया. मुलायम दोनों में संतुलन बनाने की कोशिश में लगे रहे. शिवपाल की तुलना में उनका चाबुक अखिलेश पर ज्यादा चला. चुनाव वेला में शिवपाल ने दवाब बढ़ा दिया है. उन्हें मुख्तार जैसे तत्व चुनाव जीतने के लिए जरूरी लगते हैं. मुलायम इससे इनकार नहीं कर सकते. उन्हें दोनों चाहिए- अखिलेश की छवि और शिवपाल के बहाने अपने ही पुराने दांव-पेंच.  
अगला विधान सभा चुनाव सपा फिर अखिलेश के युवा और साफ-सुथरे चेहरे को आगे करके लड़ने जा रही है. मगर खुद अखिलेश भी यह गारण्टी नहीं दे सकते कि अच्छी छवि ही से चुनाव जीता जा सकता है. उसके लिए जातीय-धार्मिक समीकरण साधने के अलावा अराजक और आपराधिक तत्वों का सामंजस्य भी बैठाना पड़ता है. एक-एक सीट के जीतने के दांव-पेच चलने पड़ते हैं. मुकाबिल इस बार बसपा से ज्यादा भाजपा है जो नरेंद्र मोदी-अमित शाह के आक्रामक नेतृत्व में चुनाव जीतने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार है.  इसलिए मुलायम की मजबूरी है कि वे शिवपाल सिंह की कवायद को अखिलेश से ज्यादा तरजीह दें. इसलिए मुख्तार अंसारी या उन जैसे दूसरे कुछ और भी सपा के खेमे में फिर दिखाई देने लगें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. बल्कि आने वाले महीनों में हम ऐसे कई बदलाव देखेंगे. दूसरे दलों के विधायकों, आदि की अदला-बदली शुरू हो ही चुकी है. सपा के लिए मुस्लिम वोट बहुत महत्वपूर्ण हैं लेकिन अखिलेश सरकार ने अपनी कई योजनाओं से सवर्ण हिंदुओं को खुश करने की खूब कोशिश की है.
सपा में भीतरी खींच-तान तो रहेगी लेकिन दोनों पाले इसे उस हद तक नहीं जाने देंगे जहां से पूरी पार्टी कमजोर होने लगे. शेष समर चुनाव बाद देखा जाएगा. (नभाटा. 21 अगस्त, 2016)

         

Wednesday, August 17, 2016

ताल ठोकते कांग्रेसी पहलवान के अगर-मगर


नवीन जोशी
सन 2017 में उत्तर प्रदेश की सत्ता किस दल के हाथ में जाएगी, इस महत्वपूर्ण प्रश्न के अलावा राजनीतिक विश्लेषकों से लेकर जनता तक की उत्सुकता के केंद्र में यह भी है कि कांग्रेस का क्या होगा? अपने अस्तित्व की सबसे कठिन चुनौती से जूझ रही पार्टी यूपी से ससम्मान वापसी की राह पर आ पाएगी या राजनीतिक बियाबान में और पीछे जाती रहेगी? कांग्रेस स्वयं भी इसे करो या मरो जैसी लड़ाई मान कर चल रही है. इसीलिए उसने कम से कम यूपी में नया अवतार ग्रहण करने का प्रयास किया है.  शीर्ष पर नेहरू गांधी की वंश पताका लहराते हुए जो भी सम्भव था, वह उसने कर डाला. इस जंग के लिए नए महारथी और नए हथियार जुटाए हैं. मुख्यमंत्री पद की घोषित उम्मीदवार शीला दीक्षित, नए प्रदेशाध्यक्ष राजबब्बर, उनकी नई टीम और नेपथ्य से प्रशांत किशोर के चुनाव प्रबंधन का पहला प्रदर्शन राहुल गांधी की लखनऊ रैली में दिखाई दिया. जो आशातीत भीड़ जुटी उसने विपक्षियों को तो चौंकाया ही, कांग्रेस कार्यकर्ताओं में जरूरी जोश भी भरा है. नरेंद्र मोदी के चुनाव क्षेत्र में सोनिया का रोड शो इसी की अगली कड़ी रही.
देखना यह होगा कि भीड़ जुटाने में सफल हुए सम्भावित कांग्रेसी प्रत्याशी क्या उसे अपने लिए वोटों में बदल पाएंगे? प्रशांत किशोर के चुनावी प्रबंधन कौशल के कारण कांग्रेस का टिकट चाहने वालों ने अपनी दावेदारी मजबूत करने के लिए भीड़ जुटाने में पूरी क्षमता झौंकी. अब वही भीड़ कांग्रेसी उम्मीदवारों को वोट भी देगी और किस आधार पर, यह कैसे कहा जा सकता है? कांग्रेस का नारा ‘27 साल यू पी बेहालप्रदेश से ज्यादा कांग्रेस की बेहाली बयां करता लगता है. तो भी कांग्रेस कुछ फायदे में रह सकती है. उसका कारण शीला दीक्षित या राजबब्बर नहीं, प्रदेश की राजनीतिक स्थितियां और चौकौनी लड़ाइयां होंगी. राहुल गांधी की लखनऊ रैली और सोनिया के वाराणसी रोड शो का टेम्पो कांग्रेसी बनाए रख सके तो पार्टी आम जनता की नजर में चढ़ेगी और जमीनी स्तर के कार्यकर्ता उत्साहित होंगे. प्रश्न यह भी कि इस स्तर के कार्यकर्ता कांग्रेस के पास बचे कितना हैं?

कांग्रेस को पुनर्जीवित करने और उसे तेवरदार नेतृत्व देने में राहुल की विफलता जग जाहिर है. इस मजबूरी का विकल्प काफी समय से प्रियंका-प्रियंका की गुहार लगा कर तलाशा जा रहा है. अबकी शीला दीक्षित ने खुले आम और गुलाम नबी आजाद एवंर राजबब्बर ने इशारों में प्रियंका को स्टार प्रचारक के रूप में उतारने की मांग कर दी है. क्या सोनिया प्रियंका को इस भूमिका में उतारेंगी? लेकिन प्रियंका में भी इंदिरा गांधी से छवि-साम्य के अलावा और क्या है? स्पष्ट दिशा, प्रखर नेतृत्व और जनता को आकर्षित करने लायक ठोस कार्यक्रमों की कांग्रेस को बड़ी जरूरत है. हमारा प्रदेश जातीय-धार्मिक राजनीति का भी गढ़ बना हुआ है. भाजपा तक नरेंद्र मोदी का विकास एजेण्डा छोड़ कर जातीय-धार्मिक ध्रुवीकरण पर उतारू है. इस दलदल में कांग्रेस किस वोट-बैंक का भरोसा करे? चुनाव मैदान में वह जोर-शोर से ताल तो ठोक रही है लेकिन खुद उसके पहलवान और उस्ताद अभी कई सवालों से जूझने में लगे हैं.  (नभाटा, 7 अगस्त 2016)

Sunday, August 14, 2016

मायावती को कमजोर आंकना अभी गलत होगा

नवीन जोशी

देश की राजनीति पर इस समय दलितों के स्वाभिमान और अधिकारों का मुद्दा छाया हुआ है. भाजपा जैसी सवर्णपार्टी लोक सभा चुनाव के बाद से ही दलितों को रिझाने के उपाय करती रही है. बिहार चुनाव में हार के बाद यू पी चुनाव की रणनीति में उसने दलित वोटों के लिए और भी बाजीगरियां कीं. मगर भाजपाई-संघी गौ-रक्षकों ने देश के कई हिस्सों में दलितों पर जिस तरह बर्बर हमले किए, उसने भाजपा के दलित प्रेम की हवा निकाल दी. तभी तो प्रधानमंत्री को इस मुद्दे पर अपनी चुप्पी तोड़नी पड़ी. यू पी में चुनावी नाव पार लगाने के लिए भाजपा ही नहीं, सभी दलों को दलित वोट बहुत जरूरी लग रहे हैं. तो, ऐसे समय यू पी में दलित वोटों की अब तक एकछत्र नेत्री रहीं मायावती का क्या हाल है?  इधर दो-ढाई महीने से अचानक यह सवाल क्यों पूछा जाने लगा है कि क्या मायावती का राजनीतिक प्रभाव कम हो गया है या उतार पर है?
हाल तक माना जा रहा था कि 2017 का सत्ता संग्राम भाजपा बनाम बसपा होगा. भाजपा लोक सभा चुनाव के बाद से ही यहां सता की प्रमुख दावेदार बनी हुई है, समाजवादी पार्टी की सरकार ने युवा अखिलेश की अपेक्षाकृत अच्छी छवि के बावजूद साख खो दी है और कांग्रेस अपनी बची खुची जमीन भी बचा सके तो बहुत होगा. इसी आधार पर कहा जा रहा था कि मायावती ही हैं जो अपने ठोस दलित आधार तथा कानून-व्यवस्था पर पकड़ के कारण भाजपा को जोरदार टक्कर देंगी. लेकिन जून में स्वामी प्रसाद मौर्य और फिर जुलाई में आर के चौधरी जैसे पुराने वफादारों के पार्टी छोड़ देने से बसपा को कितना बड़ा धक्का लगा है?  मौर्य के भाजपा में चले जाने से उसे फायदा और बसपा को बड़े कितना नुकसान होने के तर्क दिए जा रहे हैं.  
क्या वास्तव में दलितों पर मायावती का प्रभाव वैसा नहीं रहा? मौर्य और चौधरी जैसे नेताओं ने कुछ संकेत पकड़े हैं या यह उनकी निजी खुन्नस है? बड़ी रकम ले कर टिकट देने के आरोप मायावती के लिए नए नहीं हैं. यू पी की सत्ता में चार बार आकर मायावती ने दलितों का स्वाभिमान जगाने और उनके सामाजिक सशक्तीकरण का महत्वपूर्ण काम किया है. लेकिन इस लड़ाई को वे आर्थिक सशक्तीकरण और दूसरे जरूरी मोर्चों तक नहीं ले जा सकी. अन्य राज्यों में भी वे पकड़ नहीं बना सकीं. कांशी राम के समय से अब तक दलितों की नई पीढ़ियां बड़ी हो गई हैं और वे सिर्फ स्मारक और मूर्तियों से खुश होने वाली नहीं. अगर मायावती कमजोर पड़ेंगी तो इसी वजह से, वर्ना बसपा छोड़ने वाले नेता, मौर्य हों या चौधरी, उन्हें बड़ा नुकसान नहीं पहुंचा पाएंगे. दलितों का बड़ा वर्ग अब भी मायावती को ही अपनी नेता मानता है. उनके पास कोई बेहतर विकल्प है भी नहीं. लोक सभा चुनाव में दलित वोट भाजपा के पक्ष में भी गए थे लेकिन एक तो विधान सभा चुनाव के मुद्दे फर्क होते हैं, दूसरे भाजपा का असली दलित विरोधी चेहरा उसके ही स्वयंभू सेनानियों ने खूब उजागर कर दिया है. मायावती को अभी कमजोर आंकना गलती होगी.  (नभाटा, 14 अगस्त 2016)