Wednesday, October 31, 2018

इतिहास का दोहराव या प्रहसन?



सामान्य चुनावी रणनीति यह कहती है कि यदि प्रतिद्वंद्वी लोकप्रिय है तो सीधे हमले करने की बजाय उसे इधर-उधर से घेरा जाए ताकि आपके तीर उसकी लोकप्रियता के कवच से टकरा कर व्यर्थ हों या आपकी ओर न मुड़ आएं. एनडीए सरकार की विफलताओं और सत्ता-विरोधी रुझानों के बावजूद अभी तक लोकप्रियता के पैमाने पर प्रधानमंत्री काफी आगे हैं. केंद्र सरकार से खिन्न अथवा नाराज जनता के बड़े वर्ग में मोदी से अब भी काफी उम्मीदें हैं. कम से कम उन्हें भ्रष्ट मानने को कोई तैयार नहीं है.

तब क्या कारण है कि कांग्रेस के युवा अध्यक्ष राहुल गांधी सीधे नरेंद्र मोदी पर लगातार भ्रष्टाचार और पक्षपात के आरोप लगाये चले जा रहे हैं? हाल के दिनों में उनके आरोप बहुत तीखे, अशालीन और अवमानना की सीमा तक पहुंच रहे हैं. फ्रांस के साथ राफाल लड़ाकू विमान सौदे के बारे में वे चौकीदार चोर हैचीख रहे हैं. ऐसा दिख रहा है कि राहुल ने 2019 के मुकाबले में नरेंद्र मोदी के विरुद्ध इसे ही अपना सबसे बड़ा हथियार बना लिया है. उन्हें इस बात की कोई चिंता नहीं दिखती कि अब तक साफ-सुथरी छवि वाले नरेंद्र मोदी पर उनके आरोप उनको ही भारी न पड़ जाएं.

इस प्रसंग में 1989 की याद आना स्वाभाविक है जब विश्वनाथ प्रताप सिंह बोफोर्स-दलाली के संगीन आरोप लगाकर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर लगातार हमले किये जा रहे थे. यह उनकी आक्रामक रणनीति ही थी कि मिस्टर क्लीन राजीव गांधी के दामन पर धब्बे लगे और वे लोकप्रियता के शिखर से लुढ़क गये थे. क्या राहुल गांधी कभी अपने पिता के विश्वस्त सहयोगी रहे और बाद में कट्टर शत्रु बन गये विश्वनाथ प्रताप सिंह की उसी रणनीति पर चल रहे हैं?

राजीव गांधी और नरेंद्र मोदी के हालात में कई साम्य भी हैं. सरकारी तंत्र और राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार से मुक्ति, पारदर्शिता, परिवर्तन और आशा की नयी किरण दिखाने के लिए राजीव जाने गये तो नरेंद्र मोदी ने भी यही सब वादे करके उम्मीदें जगाईं. दोनों को ही जनता ने अपार बहुमत के साथ सत्ता में बैठाया. बड़ी उम्मीदों के कारण दोनों से निराशाएं भी जल्दी घिरने लगीं. असमानताएं भी उल्लेखनीय हैं. राजीव अपनी माता इंदिरा गांधी की हत्या के बाद अचानक और अनिच्छा से राजनीति में आये जबकि मोदी राजनीति के पुराने घाघ खिलाड़ी हैं. राजीव सलाहकारों और दोस्तों पर पूरी तरह निर्भर थे तो मोदी सलाहकारों से ज्यादा अपनी राह चलते हैं. राजीव को बरगलाना आसान था. मोदी के बारे में ऐसी कल्पना भी नहीं की जा सकती.

सौदे में दलाली की सच्ची-झूठी कहानियों से राजीव आसानी से घिर गये थे क्योंकि उन्हें चुनौती देने वाला पहले उनका विश्वस्त सहयोगी हुआ करता था. राजीव गांधी की सरकार से बगावत करके विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जब बोफोर्स सौदे में दलाली के आरोप लगाये तो जनता ने आसानी से उन पर विश्वास कर लिया था. वीपी सिंह राजनीति के चतुर खिलाड़ी भी थे. वे जनसभाओं में अपनी जेब से एक पर्ची निकाल कर हिलाया करते थे कि इसमें दलाली खाने वालों के नाम हैं और जैसे ही हमारी सरकार बनेगी वे सब जेल के भीतर होंगे. विपक्ष के लिए वी पी सिंह शानदार अवसर बन कर आये थे. इसीलिए वे उनके समर्थन में खड़े हो गये थे. इस तरह 1984 में चार सौ से ज्यादा लोक सभा सीटें जीतने वाले राजीव गांधी 1989 में 200 के आंकड़े से नीचे रह गये. कई दलों के समर्थन से वीपी सिंह की सरकार बनी थी.

राफाल सौदे में भारी भ्रष्टाचार और पक्षपात का आरोप लगाकर 2019 में नरेंद्र मोदी को परास्त करने की रणनीति पर चल रहे राहुल गांधी क्या 1989 के वीपी सिंह की स्थिति में हैं? वीपी सिंह चूंकि सरकार से बगावत करके आये थे इसलिए उन पर ईमानदारी का ठप्पा लग गया था. इसके ठीक उलट राहुल जिस कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष हैं, उसकी पूर्व सरकारों पर भ्रष्टाचार के बहुत सारे आरोप हैं. वीपी सिंह को झूठा साबित करने के लिए राजीव गांधी के पास कुछ नहीं था. राहुल पर जवाबी हमला करने के लिए मोदी की टीम के पास ढेरों मुद्दे हैं. उनके पिता पर लगे बोफोर्स दलाली के आरोप भले साबित न हुए हों लेकिन भाजपा ने गांधी परिवार के खिलाफ बोफोर्स-दलाली को आज तक अपना बड़ा हथियार बना रखा है.

1989 में विरोधी दलों का साथ आना वीपी सिंह की बड़ी ताकत बना था. देवीलाल, चंद्रशेखर, मुलायम सिंह जैसे कई धुरंधर तब वीपी सिंह को अपना नेता मानने को मजबूर हो गये थे. 2019 की लड़ाई के लिए विरोधी दल राहुल की कांग्रेस का साथ देने में कई शंकाओं से घिरे हैं. स्वयं राहुल की छवि ऐसी नहीं बन पायी है कि अन्य दल उन्हें गठबंधन का नेता मानने के लिए आसानी से तैयार हो जाएं. मायावती जैसे कई बड़े क्षेत्रीय नेता उन्हें आंखें दिखा रहे हैं.

आज की भाजपा इतनी ताकतवर है और प्रचार माध्यमों पर उसका इतनी मजबूत पकड़ है कि वह अपने विरुद्ध किसी भी सही-गलत मुद्दे को विपक्ष का हथियार नहीं बनने देने के लिए पूरी ताकत झोंक देती है. राहुल की कांग्रेस इस मोर्चे पर भी कमजोर है. वह मोदी सरकार के खिलाफ कुछ बेहतर अवसरों को भी भुना नहीं सकी.

तब भी राहुल राफाल सौदे को मोदी के विरुद्ध 2019 का प्रमुख मुद्दा बनाने के लिए पूरी क्षमता से जूझ रहे हैं. महंगाई, बेरोजगारी, खेती एवं आर्थिक मोर्चे पर सरकार की असफलताओं, उसकी वादाखिलाफी, जैसे मुद्दे भी उन्होंने पीछे छोड़ दिये हैं. राफाल के लिए भी सीधा निशाना मोदी पर है. उनकी रणनीति है कि यदि मोदी के साफ दामन पर वे राफाल के दाग दिखा सकें तो बाजी पलट सकती है. मुद्दा तूल पकड़ गया तो अन्य विरोधी दल भी साथ आ जाएंगे.

1989 में वी पी सिंह की सफलता का बड़ा कारण यह था कि वे जनता को यह विश्वास दिला पाने में एक हद तक कामयाब रहे थे कि बोफोर्स तोप सौदे में शीर्ष स्तर पर दलाली खायी गयी है. अभी तक तो मोदी के खिलाफ राहुल की कोशिश जनता में असर डालती नहीं दिख रही. मगर राहुल ने मुद्दा जोरों से पकड़ रखा है. राफाल सौदे में बरती जा रही कतिपय गोपनीयता उनका तरकश है. वैसे भी राजनीति में सबूतों से ज्यादा आरोपों की बारम्बारता काम करती है. राहुल इसी भरोसे मोदी पर तीर पर तीर छोड़े जा रहे हैं.

वक्त बताएगा कि इतिहास अपने को दोहराता है या नया प्रहसन रचता है. फिलहाल नरेंद्र मोदी, राजीव गांधी नहीं हैं. राहुल का नाम भी वी पी सिंह नहीं है. 

(प्रभात खबर, 31 अक्टूबर, 2018)
  
 


Saturday, October 27, 2018

मल्टीप्लेक्स यानी लूट का आनंद-राग


लाई-चना, चना जोर गरम या मूंगफली चबाते हुए सिनेमा देखने का अपना आनंद होता था. इण्टरवल में बाहर जाकर कागज की पुड़िया में आप खस्ता-समोसा भी ला सकते थे. अब मल्टीप्लेक्स का जमाना है. न पीने का पानी साथ ले जा सकते हैं, न खाने का कुछ सामान. जो खाना हो वहीं खरीदना होता है. 40-50 की चीज 200-250 रु में. जेब ढीली कर सकें तो शान बघारते हुए खाइए या फिर तीन घण्टे कुढ़ते हुए सूम बने बैठे रहिए, अगल-बगल से आती चपर-चपर से कान मूंदे हुए.

चंद महीने पहले जब बम्बई उच्च न्यायालय ने एक जन हित याचिका पर महाराष्ट्र सरकार को निर्देश दिया कि जनता को मल्टीप्लेक्स में खाने-पीने का अपना सामान ले जाने की इजाजत दीजिए और वहां बिकने वाले सामान का मूल्य नियंत्रित कीजिए तो मल्टीप्लेक्स वालों ने अदालत में बड़ा मासूम-सा तर्क दिया था कि पंचतारा होटल में जाकर कोई ग्राहक यह तो नहीं कहता कि आपकी कॉफी की दरें बहुत ज्यादा हैं, कम करिए. उस होटल में जाना उसने स्वयं चुना. प्रकारान्तर से वे कह रहे थे कि जिनकी औकात नहीं है महंगा खरीदने की वे मल्टीप्लेक्स में जाएं ही क्यों.

उनका यह तर्क नहीं चला और अदालत के निर्देश पर सरकार को मल्टीप्लेक्स वालों को निर्देश देने पड़े कि वे दर्शकों को अपना सामान लाने दें और अपने यहां निर्धारित मूल्य पर ही चीजें बेचें. महाराष्ट्र से चली यह हवा कर्नाटक और तेलंगाना तक भी पहुंची. इन राज्यों में मल्टीप्लेक्स पर कुछ अंकुश लगने लगे हैं. वे पीने का साफ पानी नि:शुल्क उपल्ब्ध करा रहे हैं, हालांकि इस बहाने पानी की बोतल महंगी बेच रहे हैं.

उत्तर प्रदेश का ध्यान देश की राजनीति पर ज्यादा रहता है. इसलिए यहां अभी इस मुद्दे पर कोई हलचल नहीं हुई है. वैसे भी, मल्टीप्लेक्स की लूटके विरोध में आवाज उठाना पिछड़ापन है. लोग क्या कहेंगे? मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखने की औकात नहीं है तो विरोध कर रहे हैं. मध्य वर्ग इसी तरह सोचता है और अपने को लुटवा कर खुश होता है. अधिकारों की बात करना उसे पसंद नहीं है. यह उसकी शान के खिलाफ है. एकल सिनेमा घरों में फिल्म देखना अपमानजनक माना जाने लगा है. इसीलिए वे बंद होते जा रहे हैं.
थोड़ी सी पूंजी वाली किराने की दुकान में झोला लेकर जाने का जमाना गया. बड़ी पूंजी से चलने वाले मॉल और डिपार्टमेण्टल स्टोर से शॉपिंगकरना इन फैशनहै. मल्टीप्लेक्स में फूड कोर्टचलाना बहुत महंगा है. फ्लोर एरियाके हिसाब से किराया और मेण्टीनेंस तय होता है. इसकी भरपाई और अपने अच्छे मुनाफे के लिए सिने-दर्शकों की जेब पर हमला किया जाता है. दरें मनमानी होती हैं और कोई कम्पटीशन वहां होता नहीं.

सारी सुख-सुविधाएं और बेहिसाब धन वालों के लिए बढ़ती जा रही हैं. शहर में नालियों के किनारे या फुटपाथ पर ऐसे खोंचे-ढाबे मिल जाएंगे जहां गरीब लोग पेट भरते हैं. अतिक्रमण हटाओं के नाम पर उन्हें उजाड़ा जाता रहता है. दिन भर हाड़-तोड़ मेहनत करने वाला गरीब आदमी सुकून से कहीं बैठ कर सस्ते में ठीक-ठाक खाना खा सके, मनोरंजन कर सके, बच्चों को अच्छा पढ़ा सके, ऐसी सुविधाएं नहीं मिलेंगी. बड़े-बड़े होटल, शिक्षा के नाम पर बड़ी दुकानें, बार-पब, लाउंज, आदि खूब खुलते जा रहे हैं.

जीवन के हर क्षेत्र में यही हाल है. इसीलिए नयी पीढ़ी इतना कमाना चाहती है कि हर सुखभोग सके. नहीं कमा सकने वाले लुटेरे बन रहे हैं. भोग-विलास ही जीवन का आनंद है, यही धारणा बनती जा रही है.  

(सिटी तमाशा, 27 अक्टूबर, 2018)
  

Tuesday, October 16, 2018

महागठबंधन की बाधाएं


आम चुनाव नजदीक आ रहे हैं लेकिन भाजपा के खिलाफ विपक्ष के महागठबंधन की कोई शक्ल नहीं बन पा रही. बल्कि, विपक्ष की एकता की सम्भावनाओं पर सवालिया निशान लगते जा रहे हैं. कोशिशें हो रही हैं लेकिन पक्का नहीं है कि राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष का एक गठबंधन बन ही जाएगा. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में अपेक्षा के अनुरूप कांग्रेस का सपा और बसपा से समझौता नहीं हो सका. सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव कांग्रेस के प्रति अब भी नरम हैं लेकिन बसपा नेत्री मायावती ने भाजपा के साथ ही कांग्रेस के भी विरुद्ध मोर्चा खोल दिया है. महागठबंधन के प्रमुख पैरोकार शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने भी मध्य प्रदेश में अलग से चुनाव लड़ने का ऐलान किया है.

क्षेत्रीय स्तर पर विपक्षी दलों के गठबंधन की टुकुड़ा-टुकुड़ा शक्ल बनती दिख रही है. उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा आपसी समझौते पर अभी तक राजी हैं यद्यपि सीटों का बंटवारा होना बाकी है, जिसे मायावती बहुत महत्त्व देती हैं. अजित सिंह का राष्ट्रीय लोक दल इसका हिस्सा बनेगा या नहीं, तय नहीं. कांग्रेस उम्मीद तो कर रही है कि लोक सभा चुनाव में वह भी इस गठबंधन में शामिल होगी लेकिन मायावती के रुख के बाद इसमें बड़ा संदेह है. तेलंगाना विधान सभा चुनाव के लिए तेलुगु देशम, कांग्रेस, भाकपा और तेलंगाना जन समिति में समझौता हो चुका है. इस आधार पर आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम और कांग्रेस में संधि होने की सम्भावना बनती है लेकिन जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस की तेलुगु देशम से ठनी हुई है.          

महागठबन्धन की राह में दो बड़ी अड़चनें हैं. राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन के लिए एक राष्ट्रीय पार्टी का होना आवश्यक है जो उसकी माला की डोर बन सके. भाजपा के विरुद्ध इस समय वह पार्टी कांग्रेस ही हो सकती है. पहली दिक्कत यही है. क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व कांग्रेस-विरोध पर टिका है. उनका जन्म ही गैर कांग्रेसवाद से हुआ या फिर क्षेत्रीय भावनाओं और मुद्दों की उपेक्षा के कारण कांग्रेस-विरोध से. दक्षिण के द्रविड़-दल हों या  यूपी-बिहार के सपा, राजद, बसपा, आदि उनका मूल आधार कांग्रेस-विरोध रहा है. ऐसे क्षेत्रीय दलों के उभार से कांग्रेस कमजोर होती चली गयी. मसलन, उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति में मुलायम, मायावती, लालू, नीतीश आदि के हावी होने के साथ ही कांग्रेस हाशिए पर चली गयी.

कांग्रेस का मजबूत होना इन दलों के लिए खतरे की घण्टी जैसा है. इन दलों ने बीच-बीच में कांग्रेस को रणनीतिक या मुद्दा आधारित समर्थन दिया अथवा चुनावी गठबंधन किया लेकिन उन्हें यह शंका हमेशा परेशान करती रही कि कहीं कांग्रेस उन्हें खा न जाए. इसीलिए वे कांग्रेस को अपने राज्यों में छोटा सहयोगी बनाते रहे और बीच-बीच में झटके भी देते रहे. सपा-बसपा ने तो यूपीए का हिस्सा बनना भी मंजूर नहीं किया. राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में गठबंधन की कीमत में बसपा सीटों का बड़ा इसलिए मांग रही थी कि वह कांग्रेस के सहारे वहां अपना विस्तार कर सके. उत्तर प्रदेश की तरह भाजपा को हराना उन राज्यों में उसकी प्राथमिकता नहीं है. वह कांग्रेस की प्राथमिकता है.

दूसरी तरफ कांग्रेस की अपनी मजबूरियां हैं. उसे अपने अस्तित्व के लिए राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को हराना जरूरी है. इसके लिए आज उसे क्षेत्रीय दलों का सहयोग चाहिए किंतु इस सहयोग की वह इतनी बड़ी कीमत नहीं दे सकती कि उसकी अपनी पहचान खतरे में पड़ जाए. यही कारण है कि राष्ट्रीय नेतृत्व की इच्छा के बावजूद कांग्रेस की राज्य इकाइयों ने उसका विरोध किया.

महागठबंधन की राह की दूसरी बड़ी बाधा क्षेत्रीय दलों की आपसी राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता और आधार वोट की लड़ाई है. उत्तर प्रदेश में भाजपा से उनके अस्तित्व ही को खतरा न हो गया होता तो सपा-बसपा कभी एक नहीं हो सकते थे. यह अलग बात है कि तमिलनाडु के द्रमुक एवं अन्नाद्रमुक की तरह इन दोनों दलों का वोट-आधार एक नहीं है. बसपा का मूल आधार वोट दलित हैं तो सपा का यादव-प्रधान ओबीसी. दिल्ली में आपअगर कांग्रेस का साथ देगी तो स्वयं उसके लिए खतरा खड़ा हो जाएगा. कांग्रेस का आधार वोट लेकर ही वह भाजपा के मुकाबिल खड़ी हो सकी है. यही हाल बंगाल में तृणमूल कांग्रेस का है. वह अपने आधार वोट की कीमत पर कांग्रेस को उभरने का मौका क्यों देगी. आंध्र में तेलुगु देशम और वाईएसआर कांग्रेस में यही लड़ाई है. शरद पवार को सौदेबाजी की ताकत पाने के लिए दिखाना है कि वे मध्य प्रदेश जैसे राज्य में भी खेल बिगाड़ने या बनाने की हैसियत रखते हैं.

क्षेत्रीय दल किसी दूसरे राज्य में तो प्रतिद्वंद्वी दल को समर्थन दे सकते हैं लेकिन अपने गढ़ राज्य में वे थोड़ी भी जमीन छोड़ने के लिए आसानी से तैयार नहीं होने वाले. ऐसे प्रतिद्वंद्वी दलों को जो‌ड़ने का काम राष्ट्रीय पार्टी को करना होता है. आज कांग्रेस स्वयं ऐसी हालत में है कि उसकी ज्यादा चल नहीं रही. बसपा ने ही उसे आंखें दिखा दीं. राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में वह भाजपा से सत्ता छीन सकी तो अवश्य उसकी बात में वजन आ जाएगा.

कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद आज उन सभी को गठबन्धन की आवश्यकता अनुभव हो रही है तो उसका कारण भाजपा से उनके लिए पैदा हो गया खतरा है. चंद्र बाबू नायडू चार साल भाजपा के साथ गठबन्धन सरकार में रह कर आज उसके खिलाफ चुनावी गठबंधन के लिए प्रयासरत हैं तो इसीलिए कि आंध के मतदाता को खुश रख पाने लायक कुछ वे हासिल नहीं कर सके. बल्कि, भाजपा उनके जनाधार में सेंध लगाने लगी थी. ममता बनर्जी को भी भाजपा से खतरा महसूस हो रहा है. वे भी विपक्षी गठबन्धन के लिए कोशिशें कर रही हैं.

अब स्थिति यह है कि क्षेत्रीय दल अपने राज्य में भाजपा को हराने के लिए गठबन्धन करना चाहते हैं लेकिन अपनी कीमत पर कांग्रेस को भी उभरने का मौका नहीं देना चाहते. इसीलिए बीच-बीच में गैर-भाजपा-गैर-कांग्रेस-गठबन्धन की भी बात उठती है. मगर उसका राष्ट्रीय स्वरूप कैसे बने? गठबन्धन के लंगर के रूप में कोई राष्ट्रीय पहचान और व्यप्ति वाला दल चाहिए. नेतृत्व का मसला भी है. कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी होगी लेकिन आज के हालात में उसका नेतृत्व क्यों स्वीकार किया जाए. तीसरे मोर्चे के पूर्व प्रयोगों ने क्षेत्रीय नायकों  में भी महत्त्वाकांक्षा जगाने का काम किया है.

इन सब कारणों से भाजपा के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन आसान नहीं है. ऐन चुनावों के मौके तक भाजपा अजेय लगने लगेगी तो महागठबंधन के आसार बढ़ जाएंगे. विरोधी दलों को एकजुटता के लिए किसी बाध्यता की आवश्यकता होती रही है.  

 (प्रभात खबर, 17 अक्टूबर, 2018)

      

   

Sunday, October 14, 2018

वीआईपी सेवा में मगन सरकारी अस्पताल


बीती तीन अक्टूबर की देर शाम एक मित्र की मां की तबीयत अचानक बिगड़ी. उन्हें पहले एक स्थानीय डॉक्टर के पास ले गये, फिर उनकी सलाह पर सिविल अस्पताल, जिसका सरकारी नाम श्यामा प्रसाद मुखर्जी अस्पताल हो गया है. वहां इमरजेंसी में ईसीजी मशीन नहीं थी. बताया गया कि मंत्री जी के यहां गयी है. उन मां जी की तबीयत ज्यादा ही गम्भीर थी. उन्हें बचाया नहीं जा सका.


इसी वर्ष मार्च में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सरकार को निर्देश दिये थे कि अस्पतालों में वीआईपी-कल्चर खत्म किया जाए. न्यायालय ने उस दिन राज्य की चिकित्सा व्यवस्था में बड़े सुधारों के लिए  कई निर्देश जारी किये थे. इनमें  एक निर्देश यह था कि कोई बड़ा अधिकारी, मंत्री या दूसरे नेता सरकारी अस्पताल में इलाज के लिए जाएं तो ड्यूटी पर तैनात डॉक्टर उन्हें वैसे ही देखें जैसे वे सामान्य मरीजों को देखते हैं.

यह महत्त्वपूर्ण निर्देश है. क्या उसका पालन हो रहा है? हमारा अनुभव कहता है कि अगर कोई डॉक्टर किसी मंत्री या दूसरे नेता को सामान्य मरीज की तरह देखने की जुर्रत करेगा तो उसे तत्काल निलम्बन की सजा भुगतनी पड़ेगी. साथ में आयी समर्थकों की फौज हाथ-पैर तोड़ दे तो कोई आश्चर्य नहीं.

अव्वल तो नेता सरकारी अस्पताल में इलाज कराने खुद नहीं जाते. वे ही क्यों, उनके परिवारी जन और करीबी समर्थक भी अस्पताल नहीं जाते. अस्पताल खुद चल कर उनकी सेवा में उपस्थित होता है. सभी सरकारी अस्पतालों में मंत्रियों और आला अफसरों की मिजाज पुर्सी के लिए डॉक्टरों की अघोषित ड्यूटी लगती है. अक्सर इमरजेंसी ड्यूटी वाले डॉक्टरों को यह जिम्मेदारी मिलती है. वे ईसीजी और दूसरी जांच मशीनें लेकर वीआईपी की सेवा में दौड़ा करते हैं. नेता जी को अस्पताल आने का कष्ट तभी करना पड़ता है जब एक्स-रे या सीटी स्कैनर जैसी भारी-भरकम मशीनें उनकी सेवा में हाजिर कर पाना मुमकिन नहीं हो पाता.  

लोकतंत्र में जैसी अपेक्षा की जाती है और जैसा अदालत चाहती है कि कम से कम इलाज के मामले में वीआईपी और आम जनता में फर्क न किया जाए. ऐसा हो तो क्या कहने. बल्कि नेताओं को कहना चाहिए कि पहले जनता का ख्याल किया जाए. हमारे लिए तो और भी सुविधाएं हैं. यह सपना देखने जैसा है.

वीआईपी ने अपने लिए अलग से ढेर सारी सुविधाएं जुटा रखी हैं. फिर भी जनता के लिए उपलब्ध थोड़ी-सी सुविधाओं पर भी उन्होंने डाका डाल रखा है. गरीब मरीज को अस्पताल में दवा नहीं मिलेगी लेकिन वीआईपी हुजूर के लिए अस्पताल के कोटे से विटामिन सप्लाई किये जाते हैं. आम मरीज के लिए जरूरत पर डॉक्टर और जांच सुलभ नहीं.

चिकित्सा व्यवस्था बहुत बुरी हालत में है, जहां तक गरीब आदमी का सवाल है. अदालत ने सरकार से छह महीने बाद रिपोर्ट मांगी थी कि निर्देशों के बारे में क्या कदम उठाये गये. अब जवाब दाखिल करने का समय है. सरकारी तंत्र में बड़े काबिल लोग बैठे हैं. जवाब बनाने में उन्हें महारत हासिल है. वे कई तरह से साबित कर सकते हैं कि अस्पतालों में वीआईपी और आम जनता में कोई फर्क नहीं किया जाता.

खस्ताहाल सरकारी स्कूलों की हालत सुधारने के लिए भी अदालत ने निर्देश दिये थे कि सरकारी खजाने से वेतन-भत्ते लेने वाले सभी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाएं. उस निर्देश का जो हश्र हुआ वही अस्पतालों के बारे में अदालती निर्देश का हाल होगा. वीआईपी जनता की सुविधाएं लूटते रहेंगे. जनता मामूली इलाज के लिए भी तरसेगी.

सरकार में कोई पार्टी हो, यह हाल नहीं बदलता.
(city tamasha, NBT, Oct 13, 2018)

Friday, October 12, 2018

‘आईसीयू में पड़ी कांग्रेस’ से भाजपा इतना डरती क्यों है?


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह का कोई भाषण ऐसा नहीं होता है जिसमें वे कांग्रेस पर हमलावर न हों. बहुत तीखे शब्दों में, कई बार अमर्यादित होने की सीमा तक, वे कांग्रेस की निन्दा-आलोचना करते हैं. उनके खास निशाने पर एक परिवारहोता है. नेहरू-गांधी परिवार को वे पानी पी-पी कर कोसते हैं. इस देश की तमाम समस्याओं के लिए वे कांग्रेस और इस एक परिवारको जिम्मेदार ठहराते हैं. कहते हैं कि इस परिवार ने किसानों, मजदूरों, दलितों, पिछड़ों, आदि का कोई भला नहीं किया, बल्कि पूरे देश को लूटा. उनकी बातों से लगता है कि कांग्रेस देश की सबसे बड़ी समस्या है और सबसे बड़ा चुटकुला भी.

सन 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस को अपनी तीखी आलोचना के केंद्र में रखना और उस पर तरह-तरह के आरोप लगाना भाजपा नेताओं के लिए स्वाभाविक ही था. तब कांग्रेस सत्तारूढ़ गठबंधन यूपीए का नेतृत्त्व कर रही थी, उसका मजबूत अखिल भारतीय आधार था, वह स्वतंत्रता आंदोलन से जन्मी, उसकी मुख्य भागीदार और इसीलिए पूरे देश में जानी-पहचानी पार्टी थी. भाजपा उसे चुनौती दे रही थी. कांग्रेस को हराये बिना भाजपा न केंद्र की सत्ता में आ सकती थी और न उत्तर भारत के बाहर अपना विस्तार कर सकती थी. भाजपा ही क्यों, कोई दूसरी पार्टी भी अगर अखिल भारतीय स्वरूप ग्रहण करना चाहती तो उसे सबसे पहले कांग्रेस को चुनौती देनी होती.

इसलिए 2014 के चुनाव प्रचार में नरेंद्र मोदी का मुख्य निशाना स्वाभाविक ही कांग्रेस पर था. उन्हें अपनी कर्मठ छवि बनाने के लिए कांग्रेस को निकम्मा बताना ही था. अपने को बदलाव और विकास लाने वाला साबित करने के लिए कांग्रेस को देश की बरबादी के लिए जिम्मेदार ठहराना ही था. यह काम उन्होंने बखूबी किया. कांग्रेस को उन्होंने बुरी तरह हराया. लोक सभा में वह 44 सीटों पर सिकुड़ गयी. उसे सदन में विरोधी दल का दर्जा हासिल करने लायक सीटें भी न मिलीं. ऐसी पराजय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नाम की ऐतिहासिक पार्टी ने कभी देखी न थी.

भारी बहुमत से सत्ता में आ कर प्रधानमंत्री बनने के बाद भी नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस पर हमले बंद नहीं किये. बल्कि, वे इस देश से कांग्रेस का नाम मिटा देने की बात करने लगे. उन्होंने अपने भ्रष्टाचार-मुक्त भारतके आह्वान की तर्ज पर कांग्रेस-मुक्त भारतका नारा गढ़ा और हर मंच से उसे दोहराया. सोनिया और राहुल पर उनके आरोप और तंज तीखे होते गये. बल्कि, जवाहरलाल नेहरू भी उनके निशाने पर आ गये. सरदार पटेल को महानायक बताने के साथ ही नेहरू को वे खलनायक की तरह पेश करने लगे. नेहरू को भुलाने की कोशिशें की जाने लगीं. यहां तक कि राष्ट्रपति निर्वाचित होने के बाद राम नाथ कोविंद के संसद में दिये गये पहले भाषण में नेहरू का नामोल्लेख तक नहीं था, जबकि उनके पहले मंत्रिमण्डल के अधिकसंख्य सदस्यों का उल्लेख गर्व के साथ किया गया. 

नरेंद्र मोदी सरकार अपने कार्यकाल के अन्तिम वर्ष में है. अगले आम चुनाव नजदीक हैं. इस पूरे दौर में मोदी जी कांग्रेस और नेहरू-गांधी परिवार पर हमले करना कभी नहीं भूले. भारतीय जनता पार्टी ने इस दौरान कई राज्यों के चुनाव जीते और कांग्रेस को ज्यादातर राज्यों में सत्ता से अपदस्थ किया. कांग्रेस आज सिर्फ तीन राज्यों में सत्ता में है जबकि भारतीय जनता पार्टी की देश के 22 राज्यों में सत्ता में भागीदारी है. कांग्रेस-मुक्त भारतका अर्थ अगर उसे सत्ता से बेदखल करना था तो वह लगभग हो चुका है. कांग्रेस अपने जीवन के सबसे बड़े अस्तित्व-संकट से जूझ रही है, जबकि भाजपा आज अखिल भारतीय पार्टी बन चुकी है, जैसी कभी कांग्रेस हुआ करती थी.

स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि नरेन्द्र मोदी आज भी कांग्रेस ही के पीछे क्यों पड़े हैं? क्यों वे अब भी कांग्रेस को अपने मुख्य निशाने पर रखे हैं? क्यों सोनिया, खासकर राहुल उन्हें फूटी आंख नहीं सुहाते? कई क्षेत्रीय दल हैं जो अपने-अपने राज्यों में बहुत मजबूत हैं और भाजपा के लिए बड़ी चुनौती बने हुए हैं. इसके बावजूद मोदी जी को कांग्रेस ही अपनी मुख्य प्रतिद्वंद्वी क्यों लगती है, जबकि आज वह अत्यंत दयनीय स्थिति में है?

मोदी, शाह और भाजपा-संघ के बड़े नेता ही नहीं, दोनों संगठनों का पूरा प्रचारतंत्र और सोशल मीडिया टीम कांग्रेस तथा नेहरू-गांधी परिवार की सच्ची-झूठी आलोचना करने में रात-दिन लगे रहते हैं. सोशल मीडिया पर तो अनेक मनगढ़न्त किस्सों, फोटोशॉप से बनायी गयी तस्वीरों और चुटकुलों से इस एक परिवार की छवि खराब करने का अभियान हमेशा चलता रहता है.

तो, क्या भाजपा कांग्रेस से आज भी डर रही है? क्यों?  मोदी जी  के इस कांग्रेस-भयका कारण आखिर क्या है?

कांग्रेस की विचारधारा, उसके इतिहास, उसकी अखिल भारतीय व्यापकता एवं स्वीकार्यता तथा नेहरू के भारत-दर्शनऔर उनके विजनमें भाजपा के इस भयके कारण खोजे जा सकते हैं.

स्वतंत्रता आंदोलन की प्रमुख पार्टी के रूप में और बाद में महात्मा गांधी की विरासत वाली कांग्रेस आजादी के बाद देश की एकमात्र ऐसी शासक पार्टी बनी जिसकी व्याप्ति प्रारम्भ से ही अखिल भारतीय थी. देश के हर कोने में वह सुपरिचित नाम थी. उसके पास बड़े-बड़े नेताओं की कतार थी और नेतृत्त्व उस नेहरू के हाथ में था जिसे गांधी जी ने अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था. नेहरू के पास इस विरासत के अलावा एक व्यापक विश्व-दृष्टि थी. इस दृष्टि से उन्होंने  ऐसा विजनविकसित किया जिसने विविध और भिन्न धर्मों-समाजों-संस्कृतियों-पहचानों वाले भारत को एक मजबूत रिश्ते में बांध दिया. भारत के अनेक हिस्से दूसरे अनेक हिस्सों के सही नाम तक उच्चारित नहीं कर सकते थे लेकिन देश का संविधान और कांग्रेस की विचारधारा उन्हें आपस में जोड़े रखती थी. इसीलिए कई मतभेदों के बावजूद राजेंद्र प्रसाद, सरदार पटेल जैसे नेहरू के कद के नेता उन्हें अपना नेतास्वीकार करते थे.

कई विचलनों और मूल्यहीनताओं के बावजूद कांग्रेस का यह स्वरूप कायम रहा. उसे समय-समय पर क्षेत्रीय दलों से चुनौतियां और पराजय भी मिलीं लेकिन अखिल भारतीय पार्टी सिर्फ वही बनी रही.

1980 में भारतीय जनसंघ ने भारतीय जनता पार्टी का अवतार तो ले लिया लेकिन अपनी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की विचारधारा से वह अलग कैसे हो सकती थी? इसलिए सबका साथ, सबका विकासनारे के बावजूद उसकी विचारधारा एक-पक्षीय है. आज भी भाजपा का जो अखिल भारतीय रूप नजर आता है, वह भीतर से काफी उथला है. कांग्रेस की अखिल भारतीयता के मुकाबले वह काफी कमजोर है. देश में भाजपा-विरोधी विचार की बहुत बड़ी जगह कायम है.

चूंकि कांग्रेस की जड़ें बहुत गहरी और बहुलतावादी है, इसलिए अनुकूल हवा-पानी मिलते ही वे तेजी से उगेंगी. उसके पनपते ही भाजपा सिमटने लगेगी. कांग्रेस आज जितनी भी गयी-बीती लगती हो, भाजपा के लिएअसली खतरा वही है, कोई क्षेत्रीय दल नहीं. यह बात मोदी और उनकी टीम अच्छी तरह जानती है. इसलिए कांग्रेस को जनता की नजरों में लगातार गिराये रखना उनकी रणनीति है.

एक वजह और है जिसकी तरफ कुछ राजनैतिक विश्लेषक इशारा करते रहे हैं. कांग्रेस आज काफी कमजोर हाल में है. उसके अध्यक्ष राहुल गांधी कम से कम वक्तृता में नरेन्द्र मोदी के सामने नहीं टिकते. नरेंद्र मोदी को यह रणनीतिक लाभ मिल रहा है कि वे जनता को लुभाने, लच्छेदार भाषण देने और अपनी छवि साफ-सुथरी दिखाने में अव्वल हैं. इस आधार पर राहुल कमजोर प्रतिद्वंद्वी ठहरते हैं. कमजोर पहलवान को अपना मुख्य प्रतिद्वंद्वी बताना मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल करना माना जाता है. मोदी जी कांग्रेस क्या मुकाबला करेगी’, ‘विपक्ष के पास नेता ही नहीं’, ‘कांग्रेस तो आई सी यू में है’, जैसी बातें कहके यही मनोवैज्ञानिक बढ़त लेना चाहते हैं. वे क्षेत्रीय दलों को भी आगाह करते हैं कि कांग्रेस गठबंधन में शामिल दलों का सम्मान नहीं करती, ताकि उनमें कांग्रेस के प्रति अविश्वास बना रहे.

तीसरा कारण यह है कि अजेयमाने जा रहे नरेंद्र मोदी अपने शासन के पांचवें साल में काफी कमजोर जमीन पर खड़े हैं. उनकी सरकार की असफलताओं और विरोधियों की सूची बड़ी है. पेट्रोल-डीजल के दाम आसमान छू रहे हैं. पहले से बढ़ी महंगाई में इसने आग लगा दी हैं. दलितों में बहुत आक्रोश है. तमाम घोषणाओं के बावजूद किसान संकट में हैं. नोटबन्दी से बढ़ी बेरोजगारी विकराल रूप धारण कर चुकी है. जीएसटी अच्छा कदम होने के बावजूद हड़बड़ी में लागू किये जाने से व्यापारी परेशान हैं. राफेल सौदा कई सवाल खड़े कर रहा है. बैंकों के डूबे धन का मुद्दा भाजपा के भी खिलाफ जा रहा है. गोरक्षा के नाम पर लिंचिंग’, विरोधी विचार को दबाने और विभिन्न संवैधानिक संस्थानों में सरकारी हस्तक्षेप से काफी नाराजगियां हैं. इसके अलावा मोदी  2014 में किये गये अपने कई बड़े वादे पूरे करने में असफल रहे हैं.

इन सब ज्वलंत मुद्दों से जनता का ध्यान हटाने के लिए भी भाजपा के लिए विपक्ष या कांग्रेस-निंदा जरूरी हो गयी है. हालांकि विपक्ष एकजुट होकर इन समस्याओं को बड़ा मुद्दा बनाने में अभी तक कामयाब नहीं हुआ है लेकिन भाजपा नेतृत्व की रणनीति यह है कि ये मुद्दे जनता में चर्चा का विषय बन ही नहीं पाएं. इसलिए मोदी कांग्रेस के प्रति और भी आक्रामक हो गये हैं. कभी वे कांग्रेस के नामदारसे पूछते हैं कि कांग्रेस केवल मुसलमानों की पार्टी है क्या? और क्या वह मुस्लिम महिलाओं की भी पार्टी है?’ कभी वे कांग्रेस को बेलगाड़ीबताते हैं इसलिए कि उसके सभी बड़े नेता बेल पर हैं.फिर कहते हैं कि कांग्रेस तो आईसीयू में पड़ी है और बचने के लिए दूसरी पार्टियों का सहारा लेना चाहती है.

देश के राजनैतिक पटल पर फिलहाल मोदी छाये हुए हैं. उनकी वाक्‍-पटुता और नाटकीयता उनकी असफलताओं को ढके हुए है. प्रकट रूप में उनकी जोड़ का कोई विपक्षी नेता दिखाई नहीं देता. भाजपा यह धारणा बनाये रखना चाहती है कि मोदी का कोई विकल्प नहीं. लेकिन इस सच्चाई को भी वह जानते हैं कि भाजपा 2019 में हारे या पचास साल बाद’, हारेगी वह कांग्रेस से ही. इसलिए कांग्रेस को लगातार निशाने पर रखना है.

एक बात पर शायद उनका ध्यान नहीं है. कांग्रेस पर दिन-रात हमला करके, उसके नेताओं की खिल्ली उड़ा कर, उसे इतिहास से मिटा देने की बात करके असल में वे कांग्रेस को लगातार चर्चा में बनाये हुए हैं. कांग्रेसियों से कहीं ज्यादा कांग्रेस को मोदी और उनकी टीम जिलाए हुए हैं. 
(Super Idea, October, 2018)

    

Wednesday, October 10, 2018

माता महेश गिरि


मोहिनीदी से फिर मुलाकात की उम्मीद कम होती जा रही है. अब कहां भेंट होगी! हमसे गांव कबके छूट गया. वह भी क्या करने जाएगी गांव. उसकी ईजा, हमारी जेड़जा, जिंदा थी तो वर्षों में कभी एक चक्कर लगा लेती थी. कभी चिट्ठी भेजती थी. अब न वह जेड़जा रहीं, न परिवार का कोई और गांव में बचा है. क्या करने जाएगी वहां. वैसे भी, अब क्या माया-मोह बचा होगा उसमें.  मुश्किल ही है मुलाकात.

फिर भी, एक क्षीण-सी आशा सिर उठा लेती है. कभी किसी शहर में अचानक भेंट हो जाए या उसकी कोई खबर मिल जाए.

मोहिनी दी के बारे में लिखना कहां से शुरू करूं! कितना कम जानता हूँ उसके बारे में. कितना कम रहा हूँ मैं अपने गांव में और मोहिनीदी के साथ तो बहुत ही कम. जो कुछ चित्र हैं स्मृति में वे बहुत पुराने, बचपन के दिनों के हैं. तब की कुछ यादें चलचित्र की तरह अक्सर सामने आ जाती हैं. ऐसा लगता है जैसे मैं अपनी उम्र की खिड़की से कूद कर बचपन के उन दिनों में चला आया हूँ.

ऐसा ही एक स्मृति-चित्र है. हमारी बाखली के ठीक पीछे थोड़ी सी ऊंचाई पर ग्राम देवता छुरमल का मंदिर है. विशाल बांज-वृक्ष के नीचे छोटा-सा मंदिर भवन और उसकी बाईं तरफ एक मण्या. मण्या माने शरणस्थली, यात्रियों, खासकर जोगियों के वास्ते. जोगी तो शायद ही कभी वहां आते. वह मण्या हम बच्चों का अड्डा था.

तो, इस चित्र में उसी मण्या के पास मंदिर परिसर की दीवार पर हम कुछ बच्चे खड़े हैं और दम साधे नीचे देख रहे हैं. थोड़ा-सा नीचे, दो घरों की बाखली के एक तरफ अखरोट के पेड़ के नीचे महिलाओं का मजमा लगा है. वे सब बड़ी ममता से, शिबौ-भाव से एक छोटी लड़की को घेरे खड़ी हैं जिसके सिर के बाल जड़ से साफ किये जा रहे हैं. लड़की रो रही है. विरोध कर रही है. बाल नहीं काटने दे रही. मगर दो-चार लोगों ने उसे पकड़ रखा है. एक आदमी ब्लेड से उसका सिर मूंड़ रहा है.

वह लड़की हमारी मोहिनीदी है. दूसरी पीढ़ी की हमारी बहन. मुहन्दीकहते थे हम उसे. बड़े लोग कहते- , मुहनि’.

मोहिनीदी के साथ वह बाल काटने वाली अजूबी घटना नहीं हुई होती तो शायद उसका होना-न होना मेरे लिए कोई खास मायने नहीं रखता, जैसे उसके साथ की और लड़कियों से हमारा कोई वास्ता नहीं था. उस उम्र के लगभग सारे लड़के याद आते हैं लेकिन लड़कियों में सिर्फ मोहिनीदी. अगर यह घटना नहीं हुई होती तो मोहिनीदी भी मेरे लिए याद रखने लायक नाम न होता.

गांव में उस अखरोट के पेड़ के नीचे जब मोहिनीदी का जबरन मुण्डन हो रहा था तब शायद वह दसेक  साल की और हम पांच-छह वर्ष के आस-पास रहे होंगे. तो, मंदिर की दीवार से नीचे यह तमाशा देखते हुए हम सब हंस रहे हैं, मोहिनीदी को चिढ़ा रहे हैं और उसका रोना तेज होता जा रहा है. आठ-दस साल की लड़की के बाल जड़ से साफ किये जा रहे हों तो उसे कैसा लगेगा! वह दहाड़ मार कर रोएगी नहीं क्या! उस समाज में, जहां उपनयन संस्कार होने तक लड़कों के भी बाल नहीं काटे जाते, एक लड़की का सिर जबरन साफ किया जा रहा था. घोर अपशकुन! इसलिए हमें डांटा जा रहा है.

बात यह थी कि मोहिनीदी के सिर में इतनी ज्यादा जूं हो गई थीं कि दूर से नजर आ जाती थीं और बालों से होकर उसके पूरे शरीर में और जमीन पर टपका करती थीं. वह जहां बैठ जाती, वहीं जूं रेंगती दिखाई देतीं. उसके दोनों हाथ हर वक्त सिर खुजलाने में लगे रहते थे. कोई उसकी जूं नहीं बीन देता था. वे इतनी ज्यादा थीं कि बीनी ही नहीं जा सकती थीं. लोग उसके पास बैठने से कतराते थे. वह रोनी सूरत बनाए इधर-उधर घूमा करती और दुरदुराई जाती थी.

हमारी जेड़जा, मोहिनीदी की ईजा लगभग अंधी थी. कोई रोग था उसकी आंखों में जिसने उसकी रोशनी छीन ली थी. सफेद पर्दा-सा पड़ गया था उसकी आंखों में. उसे चीजें झिलमिल-झिलमिल यानी छाया जैसी दिखती थीं. आंखों में हर वक्त कीचड़ लगा रहता था. कोई टोकता तो धोती के पल्लू से पोछ लेती. उस सुदूर पहाड़ी गांव में इलाज की कोई व्यवस्था न थी. मोटर सड़क ही करीब दस मील दूर काण्डा में थी. आंख का अस्पताल जाने कितनी दूर रहा होगा. उसके पति यानी हमारे जेठबाज्यू जीवित नहीं थे. कौन इलाज कराता.

इलाज के नाम से बचपन की दो कटु स्मृतियां कौंध जाती हैं. हमारे एक जेठबाज्यू (ताऊजी) बीमार पड़े. बहुत जोर का पेट दर्द हुआ उन्हें. तड़पते-चीखते थे. कभी सिसौंण (बिच्छू घास) थपोड़ा जाता, कभी डाम (लोहा गरम कर पेट दागना) डालते. उनके दोनों बेटे फौज में थे. किसी ने सलाह दी कि रम रखी होगी घर में, थोड़ी पिला दो. जेड़जा ने बक्सा खोल कर रम की बोतल निकाली. किसी ने गिलास में ढाल कर पिला दी. जेठबाज्यू थोड़ी देर में शांत हो गये. प्राण शेष रहते होते तो दर्द होता!

दूसरी याद और भी डरावनी और कारुणिक है. हमारे विस्तारित परिवार में चंद दिन का एक नन्हा शिशु बीमार पड़ा. उलटी-दस्त से पस्त. मां का दूध पीना भी उसने छोड़ दिया था. जिसने जो बताया, वैसा किया गया. बच्चे की उखड़ती सांसें देख किसी ने नायाब दवा बतायी. हम बच्चों को बाड़े की मिट्टी खोद कर कुर्मू (मिट्टी के भीतर रहने वाला काला-सफेद मोटा कीड़ा) ढूंढने को कहा गया. हम फौरन चार-पांच कुर्मू खोद लाये. कुर्मू को मारकर उसकी लुगदी बच्चे के होंठ पर लगायी गयी. कुछ ही देर में स्त्रियों का विलाप गांव की चोटियों से टकरा कर गूंजने लगा. वह चीत्कार आज भी दिमाग में गूंजती है तो कंपकंपी होने लगती है.  

सन 2017 में भी इलाज की कोई व्यवस्था नहीं ठहरी उन बीहड़ गांवों में. मैं तो आपको सन 1960  का किस्सा बता रहा हूँ.

तो, मामूली ही रोग रहा होगा और बिना इलाज हमारी वह जेड़जा आंखों की रोशनी खो बैठी. अंदाजे से घर-बाहर आती-जाती, सारे काम करती. थोड़ी खेती-बारी भी कर लेती. सार पड़ गयी थी उसे. धान गोड़ने बैठती तो मजाल है कि घास की बजाय धान का एक भी पौधा उखड़ जाए! महिलाएं मजाक करतीं- परुली की ईजा, तुमने तो सब धान उखाड़ कर फेंक दिये!वह जवाब देतीं- तो ले जाकर अपने खेत में रोप लो. बढ़िया नानि-धानि का बीज है! 

तीन लड़कियां थीं जेड़जा की. बड़ी परुली का तब ब्याह हो चुका होगा और छोटी भागुली को हमने अपने बड़े होने पर देखा-जाना. मैंने कहा न कि अपने हम उम्र लड़कों के अलावा मुझे औरों की खास याद नहीं. उन्हें बड़े होने पर ही जाना-पहचाना.

तो,  बेहिसाब जूं से निजात पाने के सारे सम्भव घरेलू नुस्खे बेकार हो गये होंगे. तभी कुछ लोगों ने मंत्रणा कर मोहिनीदी का मुण्डन कर देने का फैसला किया होगा. इस फैसले का विरोध भी जरूर हुआ होगा. बड़ी अपशकुनी बात ठहरी लड़की के बाल काटना. मगर कोई चारा न देख अंतत: उसका मुण्डन कर दिया गया.
मुण्डन होने के बाद मोहिनीदी कैसी लग रही थी, यह बिल्कुल याद नहीं. क्या गंजी मोहिनीदी को हमने चिढ़ाया था? आज दिमाग पर बहुत जोर डालने के बाद भी कुछ याद नहीं पड़ता. उस स्मृति-चित्र में और कुछ दर्ज नहीं. वह चित्र बाल मूंड़े जाने के क्लोज-अप तक सीमित है. उसी पल में ठहरा हुआ. स्वाभाविक ही है कि मोहिनीदी को जूं से निजात मिल गयी होगी. बाल ही नहीं रहे तो जूं कहां रहतीं. धीरे-धीरे नये बाल निकल आये होंगे. शायद लम्बे-घने या क्या पता!

उसी के एक-डेढ़ साल में गांव मुझसे छूट गया. गांव से बहुत दूर था स्कूल जहां कई बच्चे जाते थे लेकिन अति-सतर्क ईजा ने मुझे वहां नहीं भेजा. बाबू के साथ लखनऊ पठा दिया. गांव छूटा तो बहुत कुछ पीछे रह गया. गांव की, ईजा की, दोस्तों की नराई लगती थी लेकिन लखनऊ का नया, पहाड़ से बहुत भिन्न संसार आकर्षित भी करता था. उस उम्र में मन बहुत तेजी से आगे भागता है. पीछे देखना ही नहीं चाहता. लखनऊ में मेरी नयी दुनिया बन गयी. नये लोग, नये दोस्त, नये खेल और स्कूल. जैसे पंख उग आये हों. गांव बहुत पीछे रह गया. अब गांव से उतना ही रिश्ता रह गया जितना स्कूल का गर्मी की छुट्टियों से होता है.

गर्मियों का डेढ़-दो महीना गांव में बीतता. हम आजाद पंछी की तरह उड़ते रहते. दिन भर धमाचौकड़ी और जंगल में भटकना. हिसालू-काफल-किल्मोड़ा-बेड़ू और जाने क्या-क्या. गांव की जीवन धारा से जैसे हमारा कोई वास्ता ही न था. खाना खाने की अनेकानेक पुकार भी हम अनसुना कर देते. ऐसे में मोहिनीदी क्या, कोई भी हमारे राडार में नहीं था. किसी की शादी हो तो जरूर हम बच्चे अपना कौशल दिखाते. रंगीन कागज की पताकाएं बनाकर आंगन सजाते और दूल्हे के बाप को चूतियाघोषित करने वाले गीत की कुछ लाइनें दिन भर गाते रहते और डांट खाते. हाँ, पोस्टमैन के गांव आने पर हमारी पूछ बढ़ जाती. हमें चिट्ठियां पढ़ कर सुनानी होतीं और कहे मुताबिक लिख देनी होतीं.

पता नहीं कितनी गर्मियां बीती होंगी, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं क्योंकि हमारे कैशोर्य ने बचपन को पूरी तरह विदा नहीं किया था. वह जेठ की एक दोपहर थी जब लोग खेतों और जंगल का काम जल्दी निपटाने के बाद भात खाकर कुछ घड़ी आराम कर रहे होते हैं. कोई घर के भीतर और कोई मक्खियों से बचने के लिए छुरमल के मंदिर में शिलंग और बांज के पेड़ की छाया तले. हम उस वक्त भी काफल के पेड़ों की डालियों में बंदरों की मानिंद उछल-कूद करते. ऐसे में गांव में चिट्ठीरसेन आया. वह महीने-बीस दिन में एक चक्कर लगाया करता था. बारी-बारी कई गांवों में जाना होता था उसे. लोग मनी-ऑर्डर एवं चिट्ठियों का इंतजार करते. आतुर महिलाओं की निगाह गांव के रास्ते पर लगी रहती. चिट्ठीरसेन आता दिखता तो गांव में हाँका-सा पड़ जाता.

उस दोपहर भी चिट्ठीरसेन आता दिखाई दिया तो हल्ला मच गया. प्रत्याशा में हमारी पुकार शुरू हो गयी- झट्ट से आओ रे नानतिनो, चिट्ठीसेन आ गया. हम दौड़ते हुए पहुंचे. छुरमल के मंदिर-प्रांगण में सब जुट गये. मनी-ऑर्डर पर गवाह के रूप में दस्तखत कर सकने वाले, चिट्ठी पढ़ और लिख देने वाले, लिखवाई हुई चिट्ठी लेकर कबसे इंतजार करने वाले, सब. पोस्टमैन ठीक से बैठ भी नहीं पाया था कि चारों तरफ से उस पर सवालों की बौछार होने लगी- हमारी चिट्ठी आयी?’ ‘हमारे इनकी तो आयी होगी, ना?’, ‘मनीआडर आया है?’, ‘हमारे तो बच्चों ने कबसे कुशल नहीं दी. आज तो आयी होगी?’

सबकी आतुरता और बेचैनी समझता था पोस्टमैन. सबसे पहले वह मनी-ऑर्डर की सूचना देता- तुम्हारा, तुम्हारा, तुम्हारा आया है. तुम्हारा तो नहीं पहुंचा अभी. आता होगा.’ उनका उदास मंह देख सात्वना भी देता- उस तरफ की सड़क टूटी है बल, डाक नहीं आ पा रही. धैर्य रखो.फिर  वह चिट्ठियां निकालता. सबको अच्छी तरह जानता था वह. चिट्ठी पाने वाले को और भेजने वाले को भी. पाने वाले के नाम कभी-कभार एक ही होते तो भेजने वाले के नाम से पता चल जाता कि किसकी है वह चिट्ठी.

उस दिन सबसे अंत में पोस्टमैन ने थैले से एक अंतर्देशीय पत्र और निकाला था. खुद अचम्भित-से उसने पूछा - मगर ये अन्तर्देशीय किसका होगा? मिले बसंती देवी, भेजने वाले महेश गिरि?’

-‘हैं? महेश गिरि? यहां तो कोई नहीं हुआ महेश गिरि किसी को चिट्ठी भेजने वाला! बसंती देवी तो हुईं तीन-चार.सब आश्चर्य में पड़ गये.

एक-कर बसंती देवी की पहचान की गयी. एक हुई पार रम्मू की ईजा. दया की घरवाली का नाम भी बसंती हुआ. और, हां, गोविंदी की ईजा भी हुई बसंती.

आज ख्याल आता है कि ऐसे ही मौकों पर गांव की उन स्त्रियों के नाम याद किये जाते थे. वर्ना पूरा पहाड़ अपनी पीठ पर ढोने वाली वे महिलाएं सदा दुरुली की ईजा’, ‘भुवन की ईजा’, ‘कांतिबल्लभ की घरवालीवगैरह-वगैरह ही ठहरीं. कोई-कोई चिट्ठी और मनी-ऑर्डर मिले भवानी दत्त की घरवाली कोया मिले धार में वाले रमेश की माता जी कोके नाम भी आने वाले ठहरे. शकुनाखर हों या चिट्ठी-मनी-ऑर्डर, उन महिलाओं की पहचान ऐसे ही होने वाली हुई. नाम गुम हो जाने वाला ठहरा उनका.

खैर, उस दिन हर बसंती देवी से खोद-खोद कर पूछा गया कि है कोई महेश गिरि, तुम्हें चिट्ठी भेजने वाला? याद करो तो!

न-न जी, कोई नहीं है हमारा इस नाम का. किसी ने अक्ल लगाई- भेजने वाले महेश गिरि हैं कहां के? यह तो देखो. लिखा होगा.

मैं माना जाता था होशियार लड़का. सो, वह अंतर्देशीय मुझे पकड़ाया गया. मैंने जोर से पढ़ा था- भेजने वाले महेश गिरि. महंत .... का आश्रम.आश्रम का नाम अब याद नहीं रहा.

आश्रम के नाम ने भ्रम और बढ़ा दिया था. नहीं जी, यहां किसी की नहीं है यह चिट्ठी. गलत आ पड़ी होगी. लेकिन मिले बसंती देवी के आगे सही-सही और पूरा पता हमारे ही गांव का था.

-‘खोल कर पढ़ लो, पता चल जाएगा. इस पर सहमति बन गयी थी.

मुझे ही आदेश हुआ अंतर्देशीय खोल कर पढ़ने का. याद है कि अंतर्देशीय खोलते हुए अजीब घबराहट-सी महसूस हुई थी. सब के सब दम साधे चिट्ठी पढ़े जाने का इंतजार कर रहे थे.

मैं चिट्ठी पढ़ता जाता और वहां बैठी सभी स्त्रियों के आंचल भीगते जाते. कई बार उनकी सिसकियां मेरी आवाज से ऊंची हो जातीं तो मुझे रुकना पड़ता. फिर-फिर पढ़नी पड़ती कई लाइनें. उस दिन और उसके बाद भी दसियों बार वह चिट्ठी मुझे पढ़नी पड़ी थी. जो आता वही पूरी सुनाने को कहता और जो सुनता वही चला आता.
उसके शब्द याद नहीं हैं लेकिन उनका दर्द याद है. एक-एक शब्द दर्द का पुलिंदा था. उस दर्द को उतनी तीव्रता से अपने शब्दों में भर पाना मेरे वश की बात नहीं.

नमोनारायणसे शुरू हुई थी वह चिट्ठी. उस चिट्ठी का चित्र हू-ब-हू याद है मुझे, जैसे मोहिनीदी की याद है, जब उसके बाल काटे गये थे.

हां, वह चिट्ठी मोहिनीदी की थी. मोहिनीदी ने नहीं लिखी थी. कैसे लिखती, कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा था उसने. बोल कर लिखवायी थी उसने. उसकी ईजा, हमारी जेड़जा का नाम बसंती था, यह हमने उसी दिन जाना.
यह भी मैंने उसी दिन जाना कि कोई साल-सवा साल पहले मोहिनीदी की शादी हो गयी थी. तब हम लखनऊ रहे होंगे. ईजा ने चिट्ठी में लिखा होगा तो मुझे याद न था. उन सुदूर गांवों के गरीब परिवारों में लड़कियों का ब्याह बड़ी समस्या होता था. कोई हाथ मांगने आ गया तो कुल-गोत्र अच्छा सुन कर ही खुश हो जाते और बिना ज्यादा पूछ-ताछ के लड़की ब्याह दी जाती. नेत्रहीन मां की बेटी और पितृहीन मोहिनीदी का रिश्ता भी ऐसे ही कहीं हो गया होगा.

चिट्ठी बता रही थी कि मोहिनी अब महेश गिरि हो गयी थी, बल्कि बना दी गयी थी. महेश गिरि ने लिखा था- ” ईजा, अब मैं तुम्हारी बेटी नहीं हूँ. किसी की बेटी, बहन, पत्नी या बहू, कुछ  नहीं हूँ. मैं अब जोगिया वस्त्र पहनने वाली, अलख जगाने वाली महेश गिरि हूँ.... मुझे तुम्हें ईजा भी नहीं कहना चाहिए. जोग्याणी की कोई ईजा नहीं होती. पर क्या करूं. तुम्हें ईजा कह कर गले लगाने को मन करता है. खूब रोने का मन करता है.

“मैं महेश गिरि कैसे बनी, यह किस्सा कहने का अब कोई अर्थ नहीं है. पर ईजा, यह जान ले कि अपनी बेटी को दुल्हन बना कर तूने जिस आदमी के साथ विदा किया था, वह आदमी नहीं व्यापारी निकला. तेरी देहली से दुल्हन बन कर निकली मोहिनी उसके घर पहुंच कर जानवर भी नहीं रही. उसने चार दिन मोहिनी का शरीर नोचा, फिर उसके गहने छीने, मारा-पीटा और एक दिन इस आश्रम में लाकर जबरदस्ती गुरु मंत्र दिलवा दिया. महेश गिरि रख दिया गया मेरा नाम. यह मुझे बाद में पता चला कि वह पहले भी एक शादी कर चुका था. उसकी पहली वाली भी यहीं मेरे साथ आश्रम में है.

“मैं आश्रम में नहीं आना चाहती थी. कौन लड़की अपने मन से आना चाहेगी यहां! मुझे कितना मारा-पीटा-सताया, अब क्या बताऊं. यह सब बताना अब बेकार है, मगर एक बार मन था तुझे बताने का. अब कुछ हो भी नहीं सकता. उस हैवान के पास कागज हैं कि मैंने अपनी मर्जी से गुरु मंत्र लिया है. तब बहुत रोयी, बिलखी और तड़पी थी. जोगिया वस्त्र काट खाते थे. सोचती कि मेरा कोई आकर मुझे यहां से ले जाता. तुम कहोगी, मुझे खबर क्यों नहीं की. कैसे करती! कितनी कोशिश की मैंने. तब पहली बार इस बात का अफसोस हुआ था कि मुझे लिखना क्यों नहीं आता. आश्रम से बाहर जाने की इजाजत नहीं थी . जेल जैसी थी शुरू में. आश्रम में जिससे भी लिख देने को कहती वही मना कर देता. सबको मना कर रखा था.  गुरुमंत्र लेने के बाद एक साल तक कहीं भी सम्पर्क करने की सख्त मनाही थी.

“अब मैं एक माता हूँ, महेश गिरि. एक जोग्याणी. अब यही मेरा जीवन है, बाकी किसी से कोई रिश्ता नहीं. सब कुछ हरि चरणों में. मेरा दुख, मेरी माया मत करना. सोचना, मोहिनी मर गयी....

छुरमल के मंदिर-प्रांगण में जितने भी थे उस समय, सब के सब रो रहे थे. मोहिनीदी की ईजा का रो-रोकर बुरा हाल हो गया था. उसे सम्भालने की कोशिश होती तो वह और भी दहाड़ मारने लगती. पोस्टमैन की भी आंखें भीग आयी थीं और मेरे गले में कुछ अटक-सा गया था. चिट्ठी पढ़ते-पढ़ते गला भर गया था.  यह शायद पहली घटना थी जिसने मेरे किशोर मन की सम्वेदना को गहरे छुआ था. खेतों-जंगलों में काम करते लोग विलाप सुन कर दौड़े आये थे. मुझे कई बार चिट्ठी पढ़ कर सुनानी पड़ी थी और हर बार उन शब्दों का दर्द गहरा होता जाता. सब स्तब्ध थे और रो रहे थे. अगर कोई नहीं रोया तो वह छुरमल देवता थे.

-शिब-शिब! बाप जिंदा होता तो कुछ खोज-खबर लेता बेचारी की.महिलाएं कह रही थीं.

-मां अंधी ठहरी. कोई जाए भी तो कहां जाए? किससे क्या कहे?’

-इतनी बड़ी दुनिया में कोई तो होता जो मेरी मोहिनी को मेरे पास पहुंचा देता. उन दुष्टों को नहीं रखना था तो यहां भेज देते. सीधे जोग्याणी कैसे बना दिया. नाश हो उनका, एक न रहे उनका!मोहिनी दी की ईजा का विलाप थमता न था.

-शिबौ, बेचारी के साथ बचपन ही में अशगुन हो गया था. लड़की के सिर में भी कोई ब्लेड लगाता है! लोगों को तब याद आया कि बहुत छोटी उम्र में अत्यधिक जूं हो जाने के कारण मोहिनीदी के बाल उतार दिये गये थे.
कई दिन तक यह दुख गांव पर छाया रहा. उसकी मां तो हर वक्त विलाप ही करती रहती. सयानी औरतें उसे समझातीं- अब चुप हो जा. इतना रोने से बिल्कुल ही फूट जाएंगी तेरी आंखें.

छुट्टियां बीतीं तो हम वापस लखनऊ आ गये और पढ़ाई-खेल-कूद में मस्त हो गये. मगर ईजा को कभी चिट्ठी लिखता तो मोहिनीदी के बारे में पूछना नहीं भूलता. जवाब आता कि फिर उसकी कोई चिट्ठी नहीं आयी. अगली या उसकी अगली गर्मियों में हम गांव पहुंचे तो पता चला कि मोहिनीदी की चिट्ठी कुछ दिन पहले आयी थी. उसने लिखा था कि अब वह मंदिरों-मठों-गांवों में घूमती है. मौका निकाल कर कभी गांव आएगी. पता नहीं क्यों 
मैं मोहिनीदी का इंतजार करने लगा था. मनाता कि वह मेरे गांव में रहते ही आ जाए. ईजा से उसके बारे में इतनी बार पूछा कि डांट तक सुननी पड़ी थी.

जल्दी ही एक दोपहर सामने की पहाड़ी से गांव को आने वाली पगडण्डी पर कोई गेरुआ वस्त्रधारी नमूदार हुआ.

-कोई जोगी आ रहा शायद आज.लोगों ने कहा.

-अरे, मोहिनी तो नहीं आ रही!किसी को याद आया कि उसने आने को लिखा था. सुनते ही मैं दौड़ पड़ा. मेरे पीछे कुछ और बच्चे भी दौड़े. हमारे साथ शेरू कुत्ता भी भौंकते हुआ दौड़ा और काफी आगे निकल गया.

वह मोहिनीदी ही थी. हमने देखा शेरू भौंकना बंद कर पूंछ हिला रहा है और वह उसे पुचकार रही है. मुझे मोहिनीदी का चेहरा याद नहीं था. वैसे भी उसे उन भगवा वस्त्रों में पहचान पाना आसान नहीं होता. पूरे तन पर गेरुआ वस्त्र, माथे से पीछे गरदन तक बालों को बांधे गेरुआ कपड़ा. हाथ में कमण्डल, कंधे में लम्बा गेरुआ झोला. गले में माला, रुदाक्ष की. माथे पर चंदन और रोली का तिलक.

अनायास मेरे हाथ जुड़ गये- मोहिनीदी, नमस्कार.

-नमोनारायणउसने कहा- कब आया तू लखनऊ से?’ मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि उसने मुझे पहचान लिया- तूने पहचान लिया मुझे!

उसने मेरा हाथ पकड़ लिया- अपने घर-गांव के बच्चों को कौन नहीं पहचानेगा रे!मोहिनीदी का हाथ मैंने रास्ते भर नहीं छोड़ा. घर पहुंचते ही उसे महिलाओं ने घेर लिया और रोना-धोना मच गया तो मुझे वहां से हटना पड़ा.
मोहिनीदी ने किसी से पैलागानहीं कहा. किसी-किसी ने उसे गले लगाना चाहा लेकिन उसने भौत कैभी नहीं कहा. नमोनारायणकहते हुए वह चाख में खिड़की के पास बैठ गयी. उसकी मां दहाड़ मार कर रोने लगी-कैसी सुंदर दुल्हन बन कर गयी थी और कैसे भेष में लौटी है!’ 

सभी औरतों के आंचल आंखों से लग गये. कोई उसके हाल-चाल पूछ रहा था, कोई जानना चाह रहा था कि ससुराल में हुआ क्या था. मोहिनीदी के भीतर कोई तूफान चल रहा होगा तो भी वह शांत बनी रही. तब तक वह अपने संन्यासी जीवन को पूरी तरह स्वीकार कर चुकी होगी. बस, बीच-बीच में कह उठती- जैसी हरि इच्छा!या हरि इच्छा बलवान!सभी के अभिवादन का उसके पास एक ही प्रत्युत्तर था- नमोनारायण.’

जितने दिन मोहिनीदी गांव में रही मेरा ज्यादातर समय उसी के साथ बीतता. उसके साथ ही लगा रहता. पता नहीं उससे कैसा मोह हो गया था.

मैं पूछता- मोहिनीदी तुम धोती क्यों नहीं पहनती?’

वह बताती- हमारे लिए यही कपड़े हैं, रे!

-हमेशा यही पहनोगी?’

-हां

उसका कमण्डल हाथ में लेकर पूछता- इससे क्या करते हैं?’

-गांव-गांव घूम कर इसमें भिक्षा मांगते हैं.

-तुम मांग कर खाती हो मोहिनीदी?’ तो वह हंस देती. एक दिन हम छुरमल के मंदिर में बैठे थे. मैंने कहा- मोहिनीदी, अब तू यहीं रह जा.

कहने लगी- जोग्याणी एक जगह नहीं रह सकती.मैंने कहा था- तू जोग्याणी मत बन. ये कपड़े छोड़ दे.वह चुप रही. कुछ देर बाद बोली थी- तू मुझे मोहिनीदी क्यों कहता है? मैं महेश गिरि हूँ. जोग्याणी किसी की दीदी नहीं होती. वह माता होती है सबके लिए. मैं माता हूँ. माता महेश गिरि.मगर मैं उसे माता नहीं कह सका, महेश गिरि दीदी भी नहीं.

उस दिन वह मुझे एकटक देखती रही थी. उसके भरे-भरे मुख पर कई भाव आये-गये. पहली बार मुझे वह सुंदर भी लगी थी. मालूम नहीं, वह क्या सोच रही थी. फिर अचानक ही नमोनारायणकहते हुए उठ खड़ी हो गयी.

-‘अरे, सोलह की थी जब शादी हुई. अभी बीस की भी नहीं हुई है. इसकी उम्र की लड़कियों के घर बच्चे जनम रहे हैं. कैसे दान किये होंगे इस अभागी ने!महिलाएं उसके पीछे कहतीं. कभी उसके सामने भी. सुन कर वह नमोनारायणके अलावा और कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करती.

मोहिनीदी ने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा था मगर महेश गिरि बन कर उसने तमाम भजन-कीर्तन और संस्कृत के कई श्लोक कंठस्थ कर लिये थे. सुबह-शाम व श्लोक पढ़ती, भजन गाती और आंखें बंद करके माला जपती. उसकी उम्र की गांव की महिलाएं दिन भर घर-बाहर के काम करतीं, बोलतीं-हंसती-झगड़तीं, अपने बच्चों को दूध पिलातीं-पुचकारतीं. मोहिनीदी शायद ही कभी खुलकर हंसती थी. बहुत गम्भीर हो गयी थी वह. उसे देख कर मन उदास हो जाया करता था.

जैसे वह गांव आयी थी वैसे ही एक दिन चली गयी, अपना झोला-कमण्डल लटकाए और सबसे नमोनारायण कहते हुए. बहुत सारे लोग उसे गांव की सीमा तक छोड़ने गये थे. उनमें मैं भी शामिल था. उस दिन भी मैंने उसका हाथ पकड़ रखा था. जाने से पहले अपने झोले से निकाल कर उसने मुझे रुद्राक्ष का एक दाना दिया था. वह रुद्राक्ष आज भी मेरे पास सुरक्षित रखा है.

उस पहाड़ी पर खड़े सब लोग उसे जाते देखते और रोते रहे. उसकी ईजा की सिसकियां थमती न थीं.

-ऐसे ही आते रहना, मोहिनी!रोती महिलाओं ने उस जाती हुई जोग्याणी से कहा था- अपनी मां से मिलने जरूर आना.  उसने सुना होगा पर कोई जवाब नहीं दिया. पीछे मुड़ कर भी नहीं देखा. धीरे से जैसी हरि इच्छाया नमोनारायणकहा भी होगा तो किसी को सुनाई नहीं दिया था.

साल भर लखनऊ में पढ़ाई और गर्मी की छुट्टियों में गांव जाने का हमारा सिलसिला चलता रहा. गांव के तमाम लोगों के हाल-चाल हमें तभी हमें मिलते. कैशौर्य की चंचलता जाने के साथ हमारा गांव के लोगों से मिलना-बतियाना, सुख-दुख पूछना, वगैरह शुरू हो गया था. किसी साल पता चलता कि मोहिनीदी की चिट्ठी आयी थी. कभी सुनने को मिलता- कहां चिट्ठी-पत्री! अब क्या माया-मोह रह गया होगा उसे.

एक बार चौंकाने वाली खबर सुनी. कोई बटोही बता गया था बल, कि इस गांव की लड़की जो जोग्याणी बन गयी थी, किसी के साथ भाग गयी, बल!

इस पर सभी महिलाओं ने उसे कोसा. भला-बुरा कहा- अरे, बना दिया था जोग्याणी तो उसे ही निभाती. पता नहीं किसके साथ किया मुंह काला.

-ये तो एक दिन होना ही था. भरी-पूरी जवान उमर. कब तक नहीं फिसलती. आसान जो क्या हुआ संन्यास निभाना!

-मेरी तरफ से तो मर ही गयीउसकी ईजा ने भी रोते हुए कहा था.

सच कहता हूँ, यह खबर सुन कर मुझे बहुत अच्छा लगा था. मेरी कल्पना में मोहिनीदी साड़ी पहन कर घूमने लगी थी. जोगिया वस्त्रों में वह मुझे बिल्कुल अच्छी नहीं लगती थी और उसका नमोनारायणकहना तो जैसे काट खाता था.

इसके बाद मोहिनीदी की चर्चा नहीं ही होती थी. मैं भी उसे भूलने लगा था. कभी उसका दिया रुद्राक्ष दिख जाता तो याद आती. यह सोच कर संतोष जैसा होता कि अब तो वह घर-गृहस्थी वाली होगी.

इसके चंद बरस बाद मिले बसंती देवीऔर भेजने वाले महेश गिरिकरके फिर उसकी चिट्ठी आयी तो सब चौंके. नमोनारायणके बाद उसने लिखवाया था- इधर कुछ साल से हम पूरे देश में घूम रहे थे. बहुत सारी जगहों और तीर्थों में गये- गंगा सागर, रामेश्वर, उज्जैन, प्रयाग, हरद्वार, काशी, बहुत जगह. नासिक के कुम्भ में भी गये.

उस चिट्ठी में तीर्थों की महत्ता का विस्तार से वर्णन था. ईश्वर-महात्म्य का बखान था. अपनी ईजा की कुशल की कामना की थी और उससे भी ईश्वर भजन करने की अपेक्षा की थी. यह भी लिखा था कि वह ईजा के लिए धोती-पेटीकोट-ब्लाउज का पार्सल अलग से भेज रही है. पंद्रह रुपए का मनी ऑर्डर भी.

मोहिनीदी के किसी आदमी के साथ भाग जाने की खबर सुनाने वाले उस बटोही को गांव की महिलाओं गालियां दीं. उसकी ईजा ने दसियों बार कहा- उस बदमाश के मुंह में कीड़े पड़ जाएं. मोहिनीदी के प्रति उन सबके मन में श्रद्धा भर आयी. उसके जालिम पति को कोसते हुए वे कहते- उस राक्षस ने तो उसका जनम बिगाड़ना चाहा था, मगर मोहिनी ने अपना लोक-परलोक सुधार लिया. खूब पुण्य कमा रही है.
उसकी खबर आने में लम्बा अंतराल हो जाता तो चिंता करने की बजाय कहा जाता कि कहीं आश्रम में या तीर्थों में तपस्या में लगी होगी. माया-मोह से दूर पक्की जोग्याणी हुई अब.

फिर हमसे गांव छूट गया. ईजा भी हमारे साथ लखनऊ आ गयी. गांव से कभी-कभार आने वाली चिट्ठियां कई खबरें लातीं. धीरे-धीरे लोग गांव छोड़ रहे थे. मोहिनीदी की छोटी बहन भागुली की शादी हो गयी. कुछ समय बाद वह अपनी ईजा को भी अपने साथ ले गयी. दिल्ली में कहीं उसकी आखें दिखाईं, बल. कुछ रोशनी लौटी, बल. सुनी-सुनाई खबरें.

मोहिनीदी की फिर कोई खबर मुझे नहीं मिली. मेरे पास सुरक्षित वह रुद्राक्ष उसकी याद दिलाता रहता है. सन 2000 के प्रयाग कुम्भ की कवरेज के लिए मैं एक हफ्ता कुम्भ नगरी के शिविर में रहा. वहां  माताओं को देख कर मोहिनीदी याद आती. मैं रोज देर रात तक गंगा पार झूंसी में लगे अखाड़ों-महंतों के आश्रमों में घूमता. इण्टरव्यू करता. कभी सोचता, क्या पता मोहिनीदी भी यहां हो. क्या पता, कहीं मिल जाए! अब वह कैसी दिखती होगी? कई संन्यासिनियों को गौर से देखता. फिर सोचता, कहीं हो भी तो क्या मैं उसे पहचान पाऊंगा? वही क्या मुझे पहचान सकेगी? हरद्वार के कुम्भ में भी एक बार में इस उधेड़बुन से गुजरा था.

बहुत साल पहले जब किसी बटोही ने उसके भाग जाने की खबर सुनाई थी, तब मैंने मोहिनीदी पर एक कहानी लिखी थी. माताशीर्षक से प्रकाशित इस कहानी में कई बातें सच थीं और कुछ कल्पित भी. कहानी का अंत इस प्रकार है- “मन करता है देश के किसी शहर, किसी कस्बे, किसी गांव में मोहिनीदी से भेंट हो जाए. मेरी 
नमस्तेके जवाब में वह नमोनारायणन कहे. मुझे अपने घर ले जाए, जहां एक आदमी से मिलाते हुए वह कहे- ये तेरे जीजाजी हैंऔर तभी एक बच्चा दौड़ता हुआ आकर उसकी गोद में चढ़ जाए.
“काश, ऐसा हो!

“और, इस कहानी में कम से कम यह झूठ न हो!”

यह मेरे एक कहानी-संग्रह में शामिल एक कथा ही रह गयी. अब भेंट होने की आशा बहुत क्षीण ही है.
एक मासूम किशोरी से जबरन भक्तिन बना दी गयी हमारी मोहिनीदी को मोक्ष मिल गया हो, तो भी कैसे पता चले.