Tuesday, April 30, 2019

क्योंकि जाति ही जिताऊ है


2019 के आम चुनाव की विधिवत घोषणा होने के बाद भारत ने एक महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक उपलब्धि हासिल की. अंतरिक्ष की निचली कक्षा में उपग्रह को मार गिराने की क्षमता का सफल प्रदर्शन करके हम विश्व का चौथा ऐसा देश बन गये. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं राष्ट्र के नाम विशेष संदेश प्रसारित करके यह बड़ी घोषणा की थी.

इतनी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि पाने वाले देश की सत्रहवीं लोक सभा के लिए हो रहे चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा विज्ञान नहीं, जाति है. हर पार्टी और हर प्रत्याशी के पास हर चुनाव क्षेत्र की जातीय संरचना का आँकड़ा है. जाति के आधार पर प्रत्याशी किये गये हैं. जाति के आधार पर ही एक दल दूसरे दल के दाँव-पेचों की काट कर रहा है. जाति और धर्म के आधार पर वोट मांगे जा रहे हैं. यह आदर्श चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन है. हुआ करे!

भारतीय चुनावों में जाति की अद्भुत भूमिकाकी चर्चा सात समंदर पार तक है. आखिर जाति कैसे चुनावों को प्रभावित करती है, इसका अध्ययन करने के लिए विदेशी पत्रकारों, विश्लेषकों और राजनीति के अध्येयताओं के दल इन दिनों देश भर में घूम रहे हैं. कई देशों की सरकारें भी अपने राजनयिकों के माध्यम से यह रोचकजानकारी एकत्र करा रही हैं. ये अध्ययेता विशेष रूप  से बिहार और उत्तर प्रदेश के चुनाव क्षेत्रों का दौरा करने के अलावा वरिष्ठ पत्रकारों और राजनीति विज्ञान के विशेषज्ञों से बातचीत करके इस गुत्थी को समझने का प्रयास कर रहे हैं.

इन दिनों स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जाति पक्ष-विपक्ष की चुनावी बहस का मुद्दा बनी हुई है. 2014 के चुनाव मोदी ने अपने को पिछड़ी जाति का बताया था तो विरोधी दल यह तथ्य खोज लाये थे कि मोदी थे तो अगड़ी जाति के लेकिन 2002 में गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने अपनी जाति को पिछड़े वर्ग में शामिल करा लिया था. इस बार विपक्षी नेता आरोप लगा रहे हैं कि मोदी नकली पिछ्ड़े हैं. इसके जवाब में मोदी ने रहस्योद्घाटन किया है कि वे पिछड़ी नहीं, बल्कि अति-पिछड़ी जाति के हैं. इससे पहले उन्होंने यह भी जोड़ा था कि हालांकि मैं जाति की राजनीति नहीं करता लेकिन वे मेरा मुँह खुलवा रहे हैं तो बता दे रहा हूं. प्रसंगवश बता दें कि इस चुनाव में प्रधानमंत्री ही नहीं, राष्ट्रपति की जाति की भी चर्चा छेड़ी गई थी, जिसकी कड़ी निंदा हुई.

यह भी कम विडम्बनात्मक नहीं कि जाति की राजनीति करने वाले सभी दल प्रकट रूप में इसकी निंदा करते हैं और एक-दूसरे पर जाति के आधार पर चुनाव लड़ने का आरोप लगाते हैं. सच्चाई यह है कि लगभग हर राज्य में जाति आधारित पार्टियाँ हैं और सब जानते हैं कि किस दल का आधार वोट कौन सी जाति या जातियाँ हैं. किसी प्रमुख जातीय दल को हराने के लिए उसकी समर्थक जातियों के वोट बैंक में सेंध लगाने की जातीय रणनीति बनायी जाती है. एक-दूसरे के प्रभावशाली जातीय नेताओं को तोड़ा जाता है. जाति ही उद्धारक है, जाति ही संहारक.

भारतीय समाज की जातीय संरचना और उससे उत्पन्न भेदभावपूर्ण व्यवस्था पर सबसे बड़ी चोट करने वाले डॉ भीमराव आम्बेडकर पर आज सभी दलों का आदर और प्यार प्रेम उमड़ा हुआ है तो इसलिए नहीं कि ये पार्टियाँ उनकी तरह जाति का विनाशचाहती हैं. आम्बेडकर की प्रशस्ति चुनाव सभाओं में इसलिए गायी जा रही है क्योंकि उनका नाम आज सबसे बड़े जातीय वोट-बैंक की कुंजी बन गया है. जिन आम्बेडकर ने अपना पूरा जीवन इस क्रूर सामाजिक संरचना के अध्ययन-मनन और उसका विनाश करने की कोशिशों में लगाया, आज उन्हीं को राजनैतिक दलों ने वोट के लिए जातीय राजनीति के फंदे में जकड़ रखा है.

माना जाता है कि जाति और नस्ल-भेद जैसी प्रथाएं दुनिया के सभी समाजों में मौजूद थीं जो सभ्यता के विकास और आर्थिक तरक्की के साथ धीरे-धीरे समाप्त हो गईं. भारतीय समाज में हर तरह की तरक्की के बावजूद उसकी जकड़न आज तक बनी हुई  है. पढ़े-लिखे और सम्पन्न परिवारों में भी सजातीय विवाह के आग्रह से लेकर तमाम जातीय भेदभाव बरतना देखकर आश्चर्य होता है. सबसे ज्यादा अफसोस इस पर होता है कि मतदाता अपना संसदीय प्रतिनिधि चुनते समय भी जातीय आग्रह रखते हैं.

दलित-शोषित और पिछड़ी जातियों को बराबरी पर लाने के उद्देश्य से जो संवैधानिक संरक्षण दिया गया, उससे बराबरी कितनी हासिल हुई, यह विवाद का विषय हो सकता है लेकिन इसमें कोई विवाद नहीं कि इससे जातीय जकड़न और मजबूत होती गई. आज अपेक्षाकृत सम्पन्न और अगड़ी जातियाँ भी आरक्षण की मांग पर आंदोलित हो गई हैं. वोट के लिए राजनैतिक दल इन अगड़ी जातियों को गोलबंद किये हुए हैं. यही नहीं, आर्थिक आरक्षण की नयी व्यवस्था बनायी जा रही है, जबकि संविधान निर्माताओं की मंशा में आरक्षण का आधार शुद्ध रूप से जातीय था, आर्थिक नहीं.

समाज के सभी वर्गों में हर तरह की समानता लाये बिना जाति-प्रथा खत्म नहीं हो सकती. समानता लाने के लिए जो संवैधानिक उपाय किये गये, वे ही जातीय भेदभाव का बहाना बन गये.अगड़ी जातियाँ दलितों-पिछड़ों के साथ अपना श्रेष्ठ स्थानबांटने को तैयार होतीं या नहीं, राजनैतिक दलों ने उन्हें इतना सोचने का अवसर ही नहीं दिया. फौरन अगड़ों की राजनीति शुरू हो गयी.  

जाति का विनाशकागजों पर रह गया. संसद का मार्ग ही जातीय वर्चस्व की लड़ाई बन गया.

(प्रभात खबर, 01 मई, 2019) 
     

   

Friday, April 26, 2019

आपकी गाड़ी की टेल-लाइट जलती है?


‘जेण्टलमैन, मेक योर टेल लाइट वर्किंग... अभी मैंने कुचल दिया होता’- वर्षों पहले एक सयाने व्यक्ति ने बीच सड़क पर टोका था.  वह नौकरी के शुरुआती दिन थे. अगले दिन के अखबार के पन्ने तैयार करके देर रात घर लौटना होता था. स्कूटर की पिछली बत्ती कभी खराब हो गयी होगी. हेड लाइट जरूरी लगती थी, टेल लाइट पर ध्यान नहीं दिया. लगभग सुनसान अंधेरी सड़क पर चले जा रहे थे कि पीछे से हॉर्न बजा. फिर एक कार बराबर आयी और खिड़की से बुजुर्ग की डॉट सुनाई दी- भले आदमी, अपने स्कूटर की टेल लाइट ठीक करा लो.

यह समझने में कुछ देर लगी कि उन्हें सड़क पर आगे चलती मेरी स्कूटर दूर से नहीं दिखाई दी होगी. पास आने पर अचानक ब्रेक लगना पड़ा होगा. तभी मुझे सचेत करना जरूरी समझा. वाहनों पर पीछे की बत्ती का जलना कितना जरूरी है, समझ में आया.

पिछले दिनों लखनऊ-आगरा एक्सप्रेस-वे में कुछ भीषण दुर्घटनाएं हुईं.  तेज रफ्तार एक बस आगे जा रहे ट्रक में जा भिड़ी और आग का गोला बन गयी. एक और बस अचानक ब्रेक लगाने से पलट गयी. कई की जान गईं. ऐसी कई दुर्घटनाओं का प्रमुख कारण वाहनों की टेल लाइट का न जलना है. हाई-वे में वाहन तेज चलते हैं. टेल लाइट के बिना चल रहे वाहन पीछे से आ रही गाड़ियों को दूर से दिखते नहीं. नजदीक आने पर वे अचानक दिखते हैं और बड़ी दुर्घटनाएं हो जाती हैं.

हाई-वे पर ज्यादातर ट्रक बिना टेल लाइट के दिखते हैं. ट्रैक्टर, ट्रॉलियां, डम्पर वाले तो कभी ध्यान नहीं देते कि टेल लाइट भी कोई चीज होती है और कितनी आवश्यक. इसीलिए ट्रेक्टर-ट्रॉलियों में वाहनों के पीछे से भिड़ने की दुर्घटनाएं सबसे ज्यादा होती हैं.    

शहरों में भी अक्सर हम देखते हैं कि चौपहिया-दुपहिया वाहन बिना टेल लाइट के दौड़ते रहते हैं. हेड लाइट तो लोग ठीक करा लेते हैं लेकिन टेल लाइट और ब्रेक-लाइट की ओर ध्यान बहुत कम लोग देते हैं. टेम्पो, ऑटो, डाला, आदि कमर्शियल वाहन वैसे भी खचड़ा हालत में दौड़ाए जाते हैं. उनमें टेल लाइट-ब्रेक लाइट पर खर्च कौन करे. अंधेरे में या अचानक ब्रेक लगाने पर पीछे आ रहा वाहन भिड़ जाए, कोई चोट खा जाए, यह भी भला कोई चिंता करने की बात है!   

यह आपराधिक लापरवाही हमारे ही देश में सम्भव है. यूरोप-अमेरिका को छोड़ दीजिए, सिंगापुर-थाइलैण्ड जैसे छोटे-छोटे देशों में भी बिना टेल लाइट गाड़ी चलाना संगीन अपराध है. अपने मोटर वाहन अधिनियम में इसे आवश्यक बताया गया है. इसका उल्लंघन दण्डनीय अपराध भी है लेकिन सिर्फ कागज पर. ट्रैफिक पुलिस वीवीआईपी वाहनों को बेधड़क गुजर जाने देने के लिए तैनात होती है या अवैध वसूली के लिए. परिवहन विभाग का काम खटारा और खतरनाक वाहनों को परमिट देना है. आश्चर्य नहीं कि सड़क दुर्घटनाओं में सबसे ज्यादा मौतें हमारे देश में होती हैं.

लखनऊ-आगरा एक्सप्रेस-वे पर बढ़ती दुर्घटनाओं का संज्ञान लेते हुए सुना है कि परिवहन आयुक्त इस मार्ग पर वाहनों के लिए रेट्रो रिफ्लेक्टिव टेप लगाना अनिवार्य करने का सुझाव देने जा रहे हैं. लाल-पीला यह टेप रोशनी पड़ने पर चमकता है. यह चमक पीछे से आने वाले वाहनों को सचेत कर देगी. पहल अच्छी है लेकिन सिर्फ उसी मार्ग पर ही क्यों? सभी वाहनों के लिए अभी मार्गों पर इसे अनिवार्य क्यों नहीं किया जाता?

सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल यह कि वाहनों पर यह टेप लगा है, इसे सुनिश्चित कौन करेगा? मोटर व्हीकल एक्ट के अनुसार टेल लाइट जले, इसका ही पालन सख्ती से क्यों नहीं किया जाता?

एक जमाना था जब साइकिल और रिक्शे के लिए भी रात में ढिबरी जलाना अनिवार्य था.  शायद अंग्रेजों के जमाने से नियम रहा होगा. आजादी के बाद हमने नियम-कानूनों से भी आज़ादी पा ली.      


(सिटी तमाशा, नभाटा,
27 अप्रैल, 2019)

Monday, April 22, 2019

पहाड़ों से महानगरों तक बगरा वसंत


भवाली से नीचे उतरते ही पहाड़ी सड़क के तीखे मोड़ पर एकदम से वह सामने दिख गया. चटख लाल रंग वाले फूलों की ओढ़नी ओढ़े, इतराता सड़क पर झुका हुआ था.

-आ-हाssss! बुरांश!वसंत की गुनगुनी धूप में खिलखिला रहे उन बड़े-बड़े सुर्ख फूलों ने तन-मन में गुदगुदी मचा दी. गाड़ी मोड़-दर-मोड़ पार करती ढलान उतर रही थी. घाटी के उस पार पहाड़ी की घनी हरियाली के बीच भी जगह-जगह बुराँश के फूल दहक रहे थे. मन का लोक गायकगा उठा- पारा भीड़ा बुरूँशी फुली रै, मी झै कूनूँ मेरि हीरू ऐ रै छ.उस पार पहाड़ी पर बुराँश क्या खिले कि मुझे लगा मेरी हीरू आकर खड़ी हो गयी है!

प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत को तो खिले बुराँश देखकर लगा था कि पूरा जंगल ही जल उठा है. वन-प्रांतर को दहका देने वाली अपनी रंगत वाले बुराँश ने पंत जी को अपनी एकमात्र कुमाऊँनी कविता लिखने के लिए विवश कर दिया था- सार जंगल में त्वे जस क्वे न्हाँ रे, क्वे न्हाँ! फुलन छै के बुराँश सार जंगल जस जलि जाँ!...पूरे जंगल में तुझ जैसा कोई नहीं रे, कोई नहीं. तू फूलता क्या है, बुराँश कि सारा जंगल ही सुलग उठता है.... तुझ में दिल की आग है, तुझ में जवानी का फाग है!

साल-दर-साल गर्मियों में सचमुच की आग से जल उठने वाले कुमाऊं के जंगल इस अप्रैल तक लप-लप कर फैलती लम्बी-आड़ी-तिरछी अनगिन अग्नि-जिह्वाओं और ऊपर उठते धुएँ के तप्त गुबारों से बचे हैं. इसलिए सुर्ख बुराँश-जड़ित हरित पर्वत शृंखलाओं के पार हिम-शिखरों को चूमती धूप अपना आनंद चारों तरफ लुटा पा रही है. प्रकृति के अद्भुत चितेरे कवि चंद्र कुँवर बर्त्वाल ने इसी वसंत के स्वागत में लिखा था- रोएगी रवि के चुम्बन से अब सानन्द हिमानी. फूट उठेगी गिरि-गिरि के उर से उन्मद वाणी.

हमने बचपन में साक्षात देखा था. युवा सूर्य महाशय इतने उन्मत्त होकर हिमानी को चूमते कि उसके आनन्द-रुदन से नदियाँ खूब कल-कल निनाद करती, इठलाती पहाड़ों से उतरती थीं. जितना ऊष्ण चुम्बन, उतनी तेज और ऊंची लहरें. पता नहीं अब रवि के चुम्बन में वह ऊष्मा नहीं रही या हिमानी ही उतना प्रेम-विगलित नहीं हो पाती, हिम-पोषित नदियाँ कल-कल, छल-छल करना ही भूल गयी हैं.

बाँज-बुराँश के जंगल से निकल कर सड़क किसी गाँव के पास से गुजरने लगी तो बाग-बगीचों में आड़ू, खुबानी, पुलम, आलूबुखारू के पेड़ हलकी गुलाबी और सफेद रंगत वाले फूलों से लदे दिखे. कुछ पेड़ों की शाखों पर एक भी पत्ता नहीं है. एक-एक डाल, एक-एक टहनी नन्हे-नन्हे फूलों के गुच्छों से लदी-फदी है. पराग-कण एकत्र करने के लिए मधुमक्खियाँ उन पर मणमणाती नाच रही हैं. क्या इन मधुमक्खियों को पता है कि इस प्रक्रिया में वे प्रकृति के फलने-फूलने के लिए गर्भाधान का उत्सव भी रचा रही हैं? पखवाड़े भर बाद ही इन फूलों के पीछे फलों की गोलाइयाँ आकार लेने लगेंगी!    

पूरे पर्वत प्रदेश पर वसंत उतरा हुआ है. पेड़-पौधों की शाखाओं पर नव-पल्लव मंद-मंद हवा में नाच रहे हैं. हरी-धानी-पीताभ-रक्ताभ नाजुक पत्तियों पर धूप नाच रही है. नहीं, अपने मद्धिम ताप से सेक कर उन्हें आने वाले समय से लड़ने के लिए तैयार कर रही है. इसीलिए हर रोज पत्तियों का रंग बदल रहा है.

पत्तियों पर वसंत के राग-रंग का अद्भुत कोलाज वापसी में रामनगर से गुजरते हुए कॉर्बेट पार्क में दिखाई दिया. पूरा जंगल जैसे अदृश्य पिचकारियों से होली खेल रहा था. अलग-अलग रंगों के विविध शेड्स में खिलखिलाते पेड़ एक दूसरे से होड़ ले रहे थे. एक ही वृक्ष पर कितने ही रंग. नये फूटे पल्लवों का अलग शेड है तो दो-चार दिन पुरानी पत्तियों की अलग ही दीप्ति. हफ्ते भर धूप ताप चुकी पत्तियों ने हरे-धानी रंग पर तनिक लालिमा भी ओढ़ ली है. कहीं लाल-लाल पत्तियों से सजा पेड़ फूलों का भ्रम दे रहा है तो कहीं पत्ते विहीन शाखों पर फूल-ही फूल हैं. कहीं अपना जीवन पूरा कर चुकी पीली-भूरी कुछ पत्तियाँ अब भी शाखा से चिपके रहने का मोह नहीं छोड़ पा रहीं. जाते-जाते पास की टहनी पर उगी नयी कोपलों से उनका कोई संवाद चल रहा होगा शायद- अनुभव जन्य कोई गूढ़ सन्देश! इन सबके बीच टेसू अलग ही शान से गमक रहा है. सड़क पर दौड़ती गाड़ी के भीतर भी जंगल के इस वसंत राग की मादक महक से मस्त हुई हवा की किलकारी हमारे कान सुन पा रहे थे.

भारी मन से अपने शहर लौटना हुआ कि महानगरों के कंक्रीट-वन में वसंत का यह उत्सव कहाँ देखने को मिलेगा. वसंत यहाँ आना तो दूर, इस तरफ झाँकने में भी सहम जाता होगा. मौसमों और ऋतुओं के लिए हमने शहरों में कोई गुंजाइश ही कहाँ छोड़ी है.

पहाडों पर वसंत के मेले की मधुर यादों के साथ उदास होकर दूसरी सुबह खिड़की से बाहर झांका तो सामने के छोटे से पार्क में आम के पेड़ ने उलाहना दिया- वसंत को हमने भी न्यौता है, हुजूर, देखने की फुर्सत है आपको? लपक कर बाहर आया तो पाया कि पूरा आम वृक्ष मंजरियों से लदा, खुशी के मारे कुछ नीछे झुक आया है.    मुहल्ले का इकलौता कचनार सफेद-बैगनी फूलों से सचमुच फूला नहीं समा रहा. थोड़ी दूर एक मकान के पीछे से झाँक रहे सेमल में लाल-नारंगी अनार फूट रहे हैं.

तो, हमारे हिस्से का वसंत कंक्रीट के इस जंगल में भी नाना विधि उत्सव मचाये हुए है. सहजन के सफेद फूल तेजी से झर-झर कर अपने पीछे नाजुक पतली फलियों को दिन दूना रात चौगुना बढ़ाने में लगा है. चिड़ियाघर, राजभवन, और जहाँ कहीं भी अच्छी हरियाली बची है, वहाँ वसंत पूरी मस्ती में उतर आया है. पीपल के ताजा पत्तों पर उसने सुनहरी पॉलिश चढ़ा दी है. चिलबिल के पेड़ों पर धानी गुच्छे बन्दनवारों की तरह डोल रहे हैं.  

हाँ, महानगरों में भी वसंत ने यहाँ-वहाँ जंगली बेरियाँ पका दी हैं. सिंगड़ी की कंटीली झाड़ों के सिरों पर वह प्रकृति की जलेबी को आकार देने में लगा है. कहीं-कहीं अब भी बच रहे इमली के विशाल पेड़ों पर आकार लेतीं फलियां अभी से जीभ में चटकारा भर दे रही हैं. उस शांत-शर्मीले पेड़ पर कब जामुनी शहतूत निकल आये, हमने देखा ही नहीं!  

मन की उदासी पूरी तरह बिला गयी. महानगरों में हमने प्रकृति की ओर देखना छोड़ दिया है या हमें फुर्सत ही नहीं है लेकिन प्रकृति बिना आहट रचना में मगन है. नीम की कोमल धानी पत्तियों के बीच निमकौरियों के गर्भाधान के भी यही दिन हैं. और, गुलमोहर तथा अमलतास मई-जून की चटक दोपहरियों में धूप को मात देती हँसी के साथ खिलने को तैयार हो रहे हैं.


(नभाटा, मुम्बई, 21 अप्रैल, 2019)

Friday, April 19, 2019

दलित-पिछड़ा वोटोंं के लिए भाजपा की कसरत



भाजपा ने उत्तर प्रदेश में दलित-पिछड़ा वोट बैंक में सेंध लगाने का सघन अभियान छेड़ दिया है. सपा-बसपा-रालोद के गठबन्धन की तगड़ी चुनौती का सामना करने के लिए कई स्तरों पर काम चल रहा है. सपा-बसपा नेतृत्व से असंतुष्ट उप-जातियों का समर्थन जुटाने की हरचंद कोशिश हो रही है.

दलित बस्तियों में पर्चे-पोस्टर बांटे जा रहे हैं जिनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कुम्भ में सफाई कर्मियों के पैर धोते दिखाया गया है. इन पोस्टरों में आम्बेडकर की स्मृति से जुड़े स्थानों की तस्वीरें भी हैं जिन्हें भाजपा सरकार संवार रही है.

पिछड़ी जाति की तुरुप चाल

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं पिछड़ी जातिका तुरुप चल दिया है. उन्होंने अपनी पिछड़ी जाति का उल्लेख करते हुए कांग्रेस पर आरोप लगाया है कि वह सभी पिछड़ी जातियों को चोरकह कर उनका अपमान कर रही है.

सन 2014 के चुनावों में मोदी ने अपनी पिछड़ी जाति का उल्लेख बार-बार किया था. उनका कोई भाषण तब चायवालाऔर पिछड़ी जातिकहे बिना पूरा नहीं होता था. इसका उद्देश्य पिछड़ी जातियों और गरीबों से अपने को जोड़ना था. तब उन्हें पिछड़ी और दलित जातियों के अच्छे वोट मिले थे. उत्तर प्रदेश में 80 में से 71 सीटें जिताने में इन मतदाताओं के समर्थन का बड़ा हाथ था.

इस बार फिर यही पत्ते चले जा रहे हैं. सपा-बसपा-रालोद के एक साथ आ जाने से भाजपा को बहुत बड़ी चुनौती मिल रही है. पिछड़ों-दलितों-मुसलमानों के इस मजबूत वोट बैंक में सेंध लगाए बिना दिल्ली की गद्दी दोबारा पाना आसान नहीं होगा.

दलितों के पैर धोने वाले पोस्टर

टाइम्स ऑफ इण्डियामें गुरुवार को प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश की दलित बस्तियों में जो पर्चे-पोस्टर बंटवाए जा रहे हैं उनमें वे तस्वीरें हैं जो प्रधानमंत्री के कुम्भ-स्नान के बाद खूब प्रचारित हुई थीं.  इनमें मोदी सफाई कर्मियों और नाव वालों के पाँव धो कर पोछ रहे हैं. आम्बेडकर की स्मृति से जुड़े इन पांच स्थलों की फोटो भी इनमें हैं  -मऊ का आम्बेडकर जन्म स्थल, लंदन का उनका डेरा, नयी दिल्ली का आम्बेडकर स्मारक, दीक्षा भूमि- जहां उन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण किया था और दादर, मुम्बई का वाला स्मारक. भाजपा सरकार इन्हें विकसित कर रही है.

दलितों में सफाईकर्मियों यानी बाल्मीकियों का बड़ा समुदाय है. मोदी ने कुम्भ में उन्हें कर्मयोगीकहकर उनके पाँव धोये थे. उनके साथ नाव चलाने वाले मल्लाह भी थे जो पिछड़ी जातियों में आते हैं. इन पर्चों से भाजपा दोनों समुदायों को बताना चाह रही है कि मोदी जी उनका कितना ख्याल रखते हैं.   

बुधवार को सोलापुर (महाराष्ट्र) में मोदी केभाषण को भी इसी कोण से देखना चाहिए. उन्होंने कहा- कांग्रेस ने कई बार मेरी जाति को गालियाँ देने में कोई कसर नहीं छोड़ी. उनके नेताओं ने बार-बार मुझे और मेरी जाति को गालियां दी है. मुझे गाली दो, मेरा अपमान करो, मैं सह लूंगा. लेकिन इस बार वे और नीचे गिर गये हैं. पूरे पिछड़े समुदाय को चोर कह रहे हैं. मैं इसे बर्दाश्त नहीं करूंगा.

मतदान अब उन क्षेत्रों की तरफ बढ़ रहा है जहाँ ये जातियाँ, खासकर पिछड़े मतदाता निर्णायक हैं. चंद रोज पहले उन्होंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जय भीमकह कर दलित मतदाताओं का स्वागत किया था.  मोदी जानते हैं कब, कहां, कौन सा पत्ता चलना है.   

जय भीम, जय आम्बेडकर

अलीगढ़ की चुनाव सभा में मोदी ने अपने भाषण की शुरुआत भारत माता की जयऔर जय भीम से की थी. अलीगढ़, हाथरस और बुलन्दशहर के मतदाताओं को सम्बोधित करते हुए उन्होंने आम्बेडकर की तारीफ करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और कहा कि दलितों को सपा-बसपा-रालोद गठबंधन के झांसे में नहीं आना चाहिए जो जाति के आधार पर मतदान करने की बात करते हैं.

उन्होंने दलित मतदाताओं को लक्ष्य करके कहा कि – आपके समर्थन से यह चौकीदार आम्बेडकर के दिखाये मार्ग पर चलने की कोशिश कर रहा है. हमारी सरकार ने बाबा साहेब आम्बेडकर को पूरा सम्मान दिया है. उनसे जुड़े पाँच स्थानों को तीर्थ का दर्जा दिया है. मोदी ने यह भी कहा कि आम्बेडकर महान अर्थशास्त्री, नीति-निर्माता, लेखक और कानून-विशेषज्ञ थे. बाबा साहेब के बनाए संविधान की ताकत यह है कि एक व्यक्ति जो समाज के  वंचित, शोषित वर्ग से आया, आज देश के राष्ट्रपति के पद पर बैठा है, ग्रामीण और किसान परिवार से आने वाला उप-राष्ट्रपति है और एक चायवाला देश का प्रधानमंत्री है.

मोदी की जाति पर विवाद हुआ था

2014 के चुनाव में जब मोदी ने अपने को पिछड़ी जाति का बताना शुरू किया था तो इस पर खूब विवाद छिड़ा था. कांग्रेस ने पुराने दस्तावेज निकाल कर बताया था कि मोदी वास्तव में घांचीजाति के हैं जो अगड़ी जातियों में शामिल है. सन 2002 में जब वे मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने राजनैतिक लाभ लेने के लिए अपनी जातो को पपिछड़ी जातियों में शामिल करा दिया था.  गुजरात कांग्रेस के नेता शक्ति सिंह गोहिल ने यह आरोप लगाते हुए सन 2002 का वह सर्कुलर भी जारी किया जिसमें घांचीजाति को ओबीसी में डालने का आदेश हुआ था.

उसी के बाद से मोदी ने अपनी पिछड़ी जाति का मुद्दा जोर-शोर से उठाया और कहा कि कांग्रेस पिछड़ी जातियों का अपमान करती है. उत्तर प्रदेश की चुनाव सभाओं में उन्होंने यह मुद्दा खूब उठाया और दलितों एवं पिछड़ी जातियों के काफी वोट पाने में सफल रहे थे. इस बार वे फिर वही पत्ते खेल रहे हैं.

उत्तर प्रदेश में दलितों और पिछड़ों की कतिपय उप-जातियाँ बसपा और सपा नेतृत्व से नाराज हैं. जाटव पूरी तरह मायावती के साथ हैं लेकिन पासी, बाल्मीकि समेत कई कुछ उप-जातियों में यह नाराजगी है कि बसपा के सत्ता में आने का लाभ उन्हें नहीं मिला. उनका मायावती से मोहभंग हुआ है. हाल के वर्षों में उनका नया नेतृत्व भी उभरा है. इसी तरह गैर-यादव पिछड़ी जातियों में सपा के प्रति नाराजगी है.

भाजपा इन्हीं दलित एवं पिछड़ी उप-जातियों को अपने साथ लेने के लिए पूरा जोर लगा रही है. कई दलित नेताओं को बसपा से तोड़ कर उसने अपने साथ लिया है. दलितों और पिछड़ों को अच्छी संख्या में  टिकट भी दिये हैं. गैर-यादव पिछड़ी जातियों को 27 फीसदी आरक्षण में अलग से कोटा देने का झुनझुना भी दिखाया है.
यूपी में भाजपा का प्रदर्शन इस पर निर्भर करता है कि वह दलित-पिछड़ा वोट बैंक में कितनी सेंध लगा पाती है. 

 

आप यह तमाशा देख कर हैरान तो नहीं?



सत्रहवीं लोक सभा के लिए चुनाव हो रहे हैं. विभिन्न राजनैतिक दलों के स्टार प्रचारकों और प्रत्याशियों के भाषण सुनिए और सुबह अखबार में दैनंदिन जीवन से जुड़ी खबरों पर नजर डालिए. क्या भाषणों, दावों और जमीनी हकीकत में कोई साम्य, कोई सम्बंध दिखाई देता है?

एक खबर बता रही है कि राजधानी के बड़े-बड़े अस्पतालों में पर्याप्त वेण्टीलेटर नहीं होने से मरीज दम तोड़ रहे हैं. एक और खबर है कि कोहरे के कारण रद्द कई ट्रेनें गर्मी में भी नहीं चल रही हैं और यात्री परेशान हैं. और देखिए- राजधानी में ही बिना पंजीकरण के फर्जी अस्पताल चल रहे हैं, लखनऊ विश्ववविद्यालय में लॉ की फर्जी डिग्री बेचने का धंधा चल रहा है, बिना जमीन और नक्शे के बिल्डर रेरा में रजिस्ट्रेशन कराने पहुँच गये, सफाई कर्मचारियों ने स्मार्ट घड़ी पहनने के विरोध में हड़ताल की तो नगर निगम ने कामचोरी पकड़ने वाली यह व्यवस्था ही वापस ले ली. हैरान करती हैं ऐसी कई खबरें या अब नहीं करतीं?

उधर, यह भी पढ़ने को मिल रहा है कि अमुक प्रत्याशी की सम्पति पिछले पाँच साल में कई करोड़ रु बढ़ गयी, अमुक दल के नेता की सम्पत्ति में इतनी भूमि, इतने मकान और इतने जेवरात बढ़ गये. सभी प्रत्याशियों के यह वादे भी खूब छप रहे है कि विकास के लिए वोट दीजिए, कि हमने पिछले पाँच साल में शहर के लिए क्या-क्या कर दिया, कि हमने तो अपने शासन काल में लखनऊ को चमका दिया, आदि-आदि.

एक वेण्टीलेटर की कीमत कुछ लाख रु होती है, जिससे कारगर इलाज मिलने तक मरणासन्न मरीज की सांसें थामी जा सकती हैं. मेडिकल कॉलेज को कम से कम 400 वेण्टीलेटर की आवश्यकता है. हैं सिर्फ 214 जिनमें से कुछ खराब हैं. बलरामपुर अस्पताल में चार वेण्टीलेटर हैं लेकिन चलाने वाला स्टाफ नहीं है. सिविल में तीन साल पहले आठ वेण्टीलेटर खरीदे गये थे लेकिन अब तक चालू नहीं किये जा सके. बाकी अस्पतालों का भी कमोबेस यही किस्सा है.

नेताओं की सम्पत्ति करोड़ों-अरबों में बढ़ रही है लेकिन अस्पतालों में वेण्टीलेटरों की संख्या नहीं बढ़ पाती. खरीदे जाने के बावजूद वे इंस्टॉल नहीं हो पाते. खराब हो जाते हैं तो ठीक नहीं हो पाते. स्टाफ नहीं मिलता इसलिए वे चालू नहीं हो पाते. वेण्टीलेटर के लिए तीमारदार यहाँ से वहाँ भटकते रहते हैं और मरीजों की सांसें थम जाती हैं. पांच साल में नेताओं की बढ़ी सम्पत्ति और बंद हुए वेण्टीलेटरों में कोई रिश्ता होता है?

इस बार जाड़े में कोहरा ज्यादा नहीं पड़ा था लेकिन ट्रेनें बदस्तूर रद्द की गईं. गरमी आ गयी लेकिन ये ट्रेनें अब तक नहीं चलाई गयी हैं. क्या रेल मंत्री, रेलवे बोर्ड और बड़े अधिकारियों को पता है कि जनता कितनी परेशानी झेल रही है? जो ट्रेनें चल रही हैं, उनकी लेट लतीफी छुपाने के लिए आईआरटीसी की साइट गलत जानकारी देती है.चुनाव लड़ने वाले इन ट्रेनों से नहीं चलते. चुनाव प्रचार के लिए उड़ रहे चार्टर्ड विमानों तथा रद्द एवं लेट लतीफ ट्रेनों में कोई सम्बंध है?

नेता दावा कर रहे हैं लखनऊ स्मार्ट सिटी बन गया है. उन्हीं पन्नों पर ये खबर भी  होती हैं कि कितने अवैध निर्माण फल-फूल गये, बिना पार्किंग बने कितने कॉम्प्लेक्स जाम का कारण हैं, इंजीनियर ही बिल्डरों को अवैध निर्माण करने देते हैं, कि अवैध होटल, अस्पताल, मॉल सील करने के आदेश के बावजूद चल रहे हैं, कि.., कि...

छोड़िए, हकीकत से हलकान मत होइए. यह चुनाव का समय है. आप राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा, धर्म रक्षा, घुसपैठियों और पाकिस्तान पर ध्यान दीजिए. वेण्टीलेटरों के बिना दम तोड़ते मरीज, रद्द ट्रेनें और चौतरफा अव्यवस्था का रोना तो लगा ही रहता है.        


(सिटी तमाशा, नभाटा, 20 अप्रैल, 2019)

Wednesday, April 17, 2019

बेचारी आचार संहिता



आदर्श चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन करने के कारण चुनाव आयोग ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी, पूर्व मुख्यमंत्री और बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती, केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी और पूर्व मंत्री आजम खान को दो से तीन दिन तक चुनाव प्रचार करने से रोक दिया है. आयोग ने यह सख्तकार्रवाई इसलिए की है कि ये नेता चुनाव प्रचार में साम्प्रदायिक भावनाएं भड़काने और अभद्र  टिप्पणियों के दोषी पाये गये. इसे संयोग कहिए या सुप्रीम कोर्ट का दवाब कि इस कार्रवाई से पहले सर्वोच्च अदालत ने चुनाव आयोग से पूछा था कि धर्म और जाति के आधार पर वोट मांग कर आचार संहिता का उल्लंघन करने वालों पर क्या कार्रवाई की जा रही है.

चुनाव आयोग की इस सख्त कार्रवाई से एक बात स्पष्ट है कि संवैधानिक पदों पर बैठे जिम्मेदार नेता भी अब चुनाव आचार संहिता का खुल कर उल्लंघन करने लगे हैं. छुटभैय्ये नेताओं और प्रत्याशियों की जुबान फिसलनेया जानबूझ कर जातीय-धार्मिक और व्यक्तिगत अशालीन टिप्पणियाँ करने के मामले चुनाव के दौरान पहले भी खूब होते थे. हाल के वर्षों में ऐसे मामले न केवल बढ़े हैं बल्कि ऐसे नेता भी आचार संहिता का उल्लंघन करने लगे हैं जो संविधान की शपथ लेकर महत्त्वपूर्ण पदों पर बैठे हैं.

देश के सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री, उसी प्रदेश में चार बार मुख्यमंत्री रहीं और अपनी पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष, एक वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री और कई बार मंत्री रहे एक नेता से यह अपेक्षा कतई नहीं की जाती कि वे आचार संहिता का उल्लंघन करेंगे. बल्कि, उनसे अपेक्षा यह रहती है कि वे अपनी पार्टी के छोटे नेताओं-कार्यकर्ताओं को ऐसा करने से रोकेंगे. लेकिन देखिए कि न केवल उन्होंने साम्प्रदायिक भावना भड़काने वाले भाषण दिये बल्कि उनमें से दो ने चुनाव आयोग की इस बारे में मिली नोटिस का जवाब तक देना उचित नहीं समझा. और, इन जिम्मेदार नेताओं में से एक ने भी यह नहीं माना कि उनसे गलती हुई.

यहाँ यह उल्लेख कर देना आवश्यक है कि योगी ने अपने भाषण में कहा था कि उन्हें अली प्यारे हैं तो हमें बजरंगबली प्यारे हैं.’ उन्होंने हरे वायरसका उल्लेख भी किया था. मायावती ने देवबंद में मंच से अपील की थी मुसलमान अपने वोट का बंटवारा न करें और सिर्फ गठबंधन के उम्मीदवार को ही वोट दें. गलती स्वीकार करने की बजाय हमारे इन नेताओं ने क्या किया? मुख्यमंत्री योगी ने चुनाव आयोग को दिये जवाब में कहा है कि मैंने आचार संहिता का उल्लंघन किया ही नहीं. मैं तो विपक्षी नेताओं की छद्म धर्मनिरपेक्षता का पर्दाफाश कर रहा था. पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने सम्वाददाता सम्मेलन में कहा कि मैंने कुछ गलत नहीं कहा. चुनाव आयोग प्रधानमंत्री के दवाब में और दलित-विरोधी मानसिकता से काम कर रहा है.

इसका अर्थ यह है कि इन नेताओं ने जो कहा और जिसे साफ-साफ आचार संहिता का उल्लंघन माना गया, वह गलती से या भावावेश में मुँह से नहीं निकला, वह सोच-समझ कर ही कहा गया. यही वह तथ्य है जो चिंताजनक है. चुनावी राजनीति आज उस जगह पहुँच गयी है जहाँ आचार संहिता उल्लंघन इरादतन और वर्ग-विशेष के मतदाताओं को इंगित करके किया जाता है.

प्रत्येक चुनाव क्षेत्र का एक विशिष्ट जातीय-धार्मिक गणित है. कहीं मुसलमान मतदाता बहुतायत में हैं, कहीं सवर्ण हिंदू, कहीं पिछ्ड़ी जातियों के वोटर ज्यादा हैं और कहीं दलित. हर पार्टी के पास इनकी उप-जातियों का गणित भी है. पूरा चुनाव इसी गणित और गोलबंदी से लड़ा जाता है. हमारी चुनाव प्रणाली की त्रासदी यह है कि मात्र 25-30 फीसदी वोट पाने वाला  प्रत्याशी चुनाव जीत जाता है. एक अध्ययन के अनुसार 70 प्रतिशत विधायक और सांसद कुल पड़े वोटों के अल्पमत से चुनाव जीतते हैं यानी मतदाताओं का बहुमत उसके विरुद्ध होता है.

चूँकि चुनाव जीतने के लिए कोई 30 फीसदी वोट पर्याप्त होते हैं, इसलिए सभी उम्मीदवार और प्रत्याशी जातीय-धार्मिक मतदाता समूहों को लक्ष्य करके प्रचार करते हैं. कोई मुसलमानों को सम्बोधित करता है और कोई जवाब में हिंदू मतों का ध्रुवीकरण कराने की कोशिश में लगा रहता है. इसी जातीय-धार्मिक आधार पर प्रत्याशी खड़े किये जाते हैं और भाषण भी इन्हीं वोटर-समूहों को लक्ष्य करके दिये जाते हैं. पहले इतना लिहाज बरता जाता था कि खुलेआम आचार संहिता का उल्लंघन नहीं होने पाये. येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने के इस अनैतिक और उग्र दौर में आचार संहिता और मर्यादा सबकी धज्जियाँ उड़ाई जाने लगी हैं. गलती न मानना भी इसी रणनीति का हिस्सा है कि जो कहा सही कहा और डंके की चोट पर कहा.

इसलिए काफी पहले से चल रही चुनाव सुधार चर्चाओं में एक सुझाव यह भी शामिल है कि चुनाव जीतने के लिए कुल मतदान का पचास फीसदी से ज्यादा वोट पाना अनिवार्य कर दिया जाए. सन 2000 में गठित संविधान कार्यकरण समीक्षा आयोग की बैठकों में इस पर खूब चर्चा हुई थी. सवाल उठा था कि यदि किसी को भी पचास फीसदी से अधिक वोट नहीं मिले तो? उपाय सुझाया गया कि तब सबसे ज्यादा वोट पाने वाले दो प्रत्याशियों के बीच पुनर्मतदान हो. चुनाव आयोग ने भी इसे व्यावहारिक पाया था लेकिन पता नहीं क्यों अंतिम रिपोर्ट में इस सुझाव को सिफारिश के तौर पर शामिल नहीं किया गया. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने भी इसे चुनाव सुधार के लिए महत्त्वपूर्ण सिफारिशों में शामिल किया है.

चुनाव जीतने के लिए पचास फीसदी से ज्यादा वोट पाना अनिवार्य करने का एक लाभ यह होगा कि प्रत्याशियों को जातीय-धार्मिक मतदाता समूहों की बजाय क्षेत्र के सभी मतदाताओं को सम्बोधित करना होगा. उनके बीच लोकप्रिय होने की कोशिश करनी होगी. इस प्रयास में वह जातीय-धार्मिक आधार पर प्रचार से बचेगा. बहुमत से जीतने वाला जनता का वास्तविक प्रतिनिधि भी होगा.

जिस तरह आज आचार संहिता की जान-बूझ कर धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं, चुनाव जीतने के लिए समाज की सतरंगी चादर तार-तार की जा रही है और धन-बल से मतदान को प्रभावित किया जा रहा है, उसे देखते हुए चुनाव सुधार अब अत्यावश्यक हो गये हैं.

पिछले दो-तीन दशक में चुनाव-प्रक्रिया कुछ साफ-सुथरी हुई थी. प्रत्याशियों की सम्पत्ति और आपराधिक इतिहास के शपथ-पत्र दाखिल करना अनिवार्य करने से जो बदलाव आया था, वह निष्प्रभावी लगने लगा है. आचार संहिता का सख्ती से पालन कराने से भी थोड़ा फर्क पड़ता है लेकिन जातीय और साम्प्रदायिक आधार पर चुनाव लड़ने की बढ़ती प्रवृत्ति को थामने के लिए कुछ बड़े सुधारों की जरूरत होगी.

लोकतंत्र की शक्ति के लिए चुनाव की शुचिता को बनाए रखना जरूरी है लेकिन उस देश के ताने-बाने को अक्षुण्ण रखना उससे ज्यादा जरूरी है जिसमें लोकतंत्र रहना है.
             
(प्रभात खबर, 18 अप्रैल, 2019) 
      


बजरंगबली के नाम की सजा, बजरंगबली की शरण!


सन 2014 के लोक सभा चुनाव में भड़काऊ भाषण देकर आचार संहिता का उल्लंघन करने के कारण चुनाव प्रचार करने से रोके गये भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने माफी का हलफनामा देकर सजा माफ करा ली थी लेकिन 2019 में  उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी का ऐसा कोई इरादा नहीं है. वे तीन दिन तक प्रचार से दूर रहकर वास्तव में बजरंगबली की शरणमें हैं.

बजरंगबलीके नाम पर मिली सजा बजरंगबली के दर्शन-भजन में ही काटने का उनका कार्यक्रम बहुप्रचारित है. उल्लेखनीय है कि योगी को उनकी टिप्पणी उनको अली प्यारे हैं तो हमको बजरंगबलीके कारण तीन दिन तक चुनाव प्रचार से दूर रहने की सजा चुनाव आयोग ने दी है.

सजा के पहले दिन, मंगलवार को वे लखनऊ के हनुमान सेतु मंदिर में हनुमान चालीसा का पाठ करने बैठे. मंदिर में हनुमान भक्तों के बीच उन्होंने कुछ समय गुजारा लेकिन किसी से बात नहीं की. बुधवार को वे अयोध्या में हैं, जहाँ रामलला के दर्शन करने के बाद उनका प्रसिद्ध हनुमान गढ़ी मंदिर में बजरंगबली से आशीर्वाद लेने का कार्यक्रम प्रचारित है. उसके बाद वे देवीपाटन मंदिर में पूजा-पाठ करेंगे. सजा के अंतिम दिन, गुरुवार को वे वाराणसी के प्रख्यात संकटमोचन मंदिर में बजरंगबली की आराधना करेंगे.

टाइम्स ऑफ इण्डिया में बुधवार को प्रकाशित एक समाचार में एक भाजपा नेता का यह बयान भी प्रकाशित हुआ है कि ”चूंकि योगी जी को बजरंगबली का नाम लेने पर चुनाव प्रचार से रोक दिया गया है इसलिए उन्होंने बजरंगबली के मंदिरों में दर्शन करने की ठानी है ताकि उनके समर्थकों तक यह संदेश पहुँचे. उन्हें चुनाव प्रचार करने से रोका गया है. हनुमान मंदिरों में जाने से उन्हें कोई नहीं रोक सकता.”

योगी भाजपा के स्टार प्रचारक हैं. मोदी और अमित शाह के बराबर ही वे दूसरे राज्यों में भाजपा का प्रचार कर रहे हैं. स्वाभाविक है कि भाजपा को तीन दिन उनकी कमी खल रही होगी. मंगलवार को नगीना और फतेहपुर सीकरी में उनकी चुनावी रैलियाँ स्थगित करनी पड़ीं. लखनऊ में राजनाथ सिंह के नामांकन जुलूस में भी योगी शामिल नहीं हो सके. बुधवार को उन्हें दक्षिण भारत का चुनावी दौरा करना था.

इसलिए भाजपा नेताओं ने दिल्ली में चुनाव आयोग से मिलकर योगी की सजा पर पुनर्विचार करने की अपील की है. तर्क यही दिया गया है कि योगी ने अपने भाषण में अपनी आस्था का जिक्र किया था. उनका कोई इरादा धर्म के नाम पर मतदान की अपील करना नहीं था. चूंकि आयोग ने यह कार्रवाई सुप्रीम कोर्ट के सवाल उठाने पर की है, इसलिए लगता नहीं कि वह सजा पर पुनर्विचार करेगा.

प्रसंगवश बता दें कि पिछले दिनों एक एनआरई की पीआईएल पर सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से पूछा था कि धर्म और जाति के आधार पर वोट मांग कर आचार संहिता का उल्लंघन करने वालों पर क्या कार्रवाई की जा रही है. तब आयोग की तरफ से कोर्ट को बताया गया कि उसके अधिकार सीमित हैं. वह सिर्फ नोटिस देकर जवाब मांग सकता है और एफआईआर दर्ज करा सकता है. इस पर मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई तनिक आक्रोश में कहा था कि अब हम चुनाव आयोग की शक्तियों पर कल सुनवाई करेंगे. इसी टिप्पणी के फौरन बाद आयोग ने उक्त चार नेताओं को दो-से तीन दिन तक प्रचार करने से रोक दिया .  

आचार संहिता लोड़ने के कारण चुनाव प्रचार से रोके गये अन्य तीन नेता फिलहाल आराम कर रहे हैं. मायावती अपने घर में ही अगले चरणों की रणनीति बना रही हैं. मंगलवार को उन्हें नगीना में सपा-बसपा-रालोद की संयुक्त रैली को सम्बोधित करना था. उनकी जगह उनके भतीजे आकाश ने वहाँ भाषण दिया. इस तरह आकाश को अपना पहला राजनैतिक भाषण देने का मौका मिला. आकाश को वे अपने उत्तराधिकारी के रूप में बढ़ा रही हैं. उसके लिए अखिलेश यादव और अजित सिंह की संगत में यह प्रशिक्षण रैली साबित हुई.

आजम खान रामपुर के अपने घर में ही रहे, उनके बेटे अब्दुल्ला ने उनके लिए प्रचार किया. उसने सम्वाददाता सम्मेलन में कहा कि मेरे पिता के खिलाफ आयोग ने इसलिए कार्रवाई की है क्योंकि वे मुसलमान हैं. उनके इस बयान पर विवाद छिड़ना ही था.

ऐसा ही बयान एक दिन पहले मायावती ने भी दिया था. उन्होंने चुनाव आयोग पर पक्षपात का आरोप लागाते हुए कहा था कि दलित होने के कारण मेरे खिलाफ कार्रवाई की गयी है. चुनाव आयोग दलित विरोधी मानसिकता से काम कर रहा है.

चुनाव आयोग द्वारा प्रचार करने से रोके गये ये नेता दरअसल इस प्रतिबंध को भी अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश कर रहे हैं. इनमें से किसी भी नेता को अपने आपत्तिजनक भाषणों पर खेद नहीं है. ये सभी मानते हैं और कह भी चुके हैं कि उन्होंने आचार संहिता नहीं तोड़ी है. चुनाव आयोग को दिये जवाब में भी इन्होंने यही कहा है. मायावती और आजम खान क्रमश: दलित और मुस्लिम होने की बात कह कर सजा से सहानुभूति बटोरने की कोशिश कर रहे हैं तो योगी बजरंगबली प्रकारांतर से यह संदेश देना चाह रहे हैं कि मुझे तो बजरंगबली का नाम लेने पर सजा दी गयी है.

https://hindi.oneindia.com/news/india/lok-sabha-elections-2019-yogi-adityanath-offers-prayer-lord-hanuman-after-ec-bars-campaign-72-hours-502295.html

Tuesday, April 16, 2019

तो चुनाव आयोग सोया था!



तो, चुनाव आयोग सो रहा था और अब जाग गया है!

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी, पूर्व मुख्यमंत्री और बसपा अध्यक्ष मायावती, केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी और सपा नेता एवं पूर्व मंत्री आजम खान को दो से तीन दिन के लिए चुनाव प्रचार करने से रोकने के चुनाव आयोग के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि लगता है कि आयोग अब जाग गया है. इसलिए इस मामले में अब और कोई आदेश देने की जरूरत नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को चुनाव आयोग के एक सक्षम प्रतिनिधिको भी तलब किया था ताकि चुनाव आयोग की शक्तियों पर विचार करते समय वह वहाँ मौजूद रहे. एक दिन पहले एक एनआरई की पीआईएल पर सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से पूछा था कि धर्म और जाति के आधार पर वोट मांग कर आचार संहिता का उल्लंघन करने वालों पर क्या कार्रवाई की जा रही है. तब आयोग की तरफ से कोर्ट को बताया गया कि उसके अधिकार सीमित हैं. वह सिर्फ नोटिस देकर जवाब मांग सकता है और एफआईआर दर्ज करा सकता है. तभी मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ ने तय किया था कि मंगलवार को वह इसी बारे में सुनवाई करेगा.

सुप्रीम कोर्ट के यह कहते ही कि वह अगले दिन चुनाव आयोग की शक्तियों पर विचार करेगा, आयोग को अपनी शक्तियों की याद आ गयी. उसने उक्त चार नेताओं पर आचार संहिता उल्लंघन के मामलों में कार्रवाई कर दी. योगी और आजम खान को 72 घण्टे यानी तीन दिन और मेनका तथा मायावती को 48 घण्टे यानी दो दिन के लिए चुनाव प्रचार करने से रोक दिया.

इसी से साबित हो जाता है कि उसके पास पर्याप्त शक्तियाँ हैं और वह चाहे तो आचार संहिता उल्लंघन के मामलों पर कड़ा रुख अपना सकता है, बशर्ते कि वह सोया हुआ न हो. चुनाव आयोग सोया हुआ था या जानबूझ कर आंखें बंद किये हुए था, यह तो वही बता सकता है.

टीएन शेषन ने मुख्य चुनाव आयुक्त रहते साबित कर दिया था कि चुनाव आयोग क्या-क्या कर सकता है, बशर्ते कि उसकी आंखें खुली हों और वह किसी दवाब में न आये. देश में जब सत्रहवीं लोक सभा के चुनाव हो रहे हों और आचार संहिता उल्लंघन की शिकायतें लगातार आ रही हों, तब चुनाव आयोग आंखें कैसे मूँदे रह सकता है?

मामला सिर्फछुटभैय्ये नेताओं और प्रत्याशियों की जुबान फिसलनेया जानबूझ कर जातीय-धार्मिक अपीलें करने या व्यक्तिगत अशालीन टिप्पणियाँ करने का नहीं था. मामला था संविधान की शपथ लेकर महत्त्वपूर्ण पदों पर बैठे जिम्मेदार नेताओं द्वारा खुले आम आचार संहिता की धज्जियाँ उड़ाने का.

देखिए, देश के सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री पद पर बैठे गोरक्षपीठाधीश्वरआदित्यनाथ योगी क्या कह रहे थे- उन्हें अली प्यारे हैं तो हमें बजरंगबली प्यारे हैं.’ और हरे वायरससे सावधान रहना है. चार बार राज्य की मुख्यमंत्री रह चुकीं मायावती कहती है- मुसलमान अपने वोट का बंटवारा न करें और सिर्फ गठबंधन के उम्मीदवार को ही वोट दें.मेनका गांधी एक मुस्लिम बहुल गाँव में साफ-साफ कहती हैं- जीत तो मैं रही हूँ लेकिन मुसलमानों के वोट के बिना जीती तो ऐसे में दिल खट्टा हो जाता है. फिर आपको मेरी जरूरत पड़ेगी तो मैं सोचूंगी कि रहने दो...  और आजम खान तो विवादास्पद बयानों के लिए जाने ही जाते हैं. खाकी अंडरवियरवाली टिप्पणी अमर सिंह के लिए हो या जया प्रदा के लिए, है तो अभद्र ही और अवांछित.

आचार संहिता उल्लंघन के इन मामलों का चुनाव आयोग को स्वत: संज्ञान लेना चाहिए था. वह तो नहीं हुआ लेकिन जब आयोग के पास शिकायतें पहुँचाई गईं तब भी वह टाल-मटोल वाले अंदाज में रहा. किसी मामले में वह नोटिस जारी करके बैठा रहा तो किसी में नोटिस का जवाब न आने पर भी चुप लगाए रहा. इससे पहले भी उसकी सुस्तीया नींद के लक्षण दिखाई दे रहे थे.

आचार संहिता लागू होने के बाद भी प्रधानमंत्री ने उपग्रह मार गिराने की क्षमता के सफल प्रदर्शन की घोषणा करने के लिए राष्ट्र के नाम संदेश प्रसारित किया. चुनाव आयोग से इसकी पूर्व अनुमति भी नहीं ली और शिकायत करने पर इसे आचार संहिता का उल्लंघन नहीं माना. आयोग के इस निर्णय पर सवाल उठे. चुनावों की घोषणा के बाद नमो टीवी लांच किया गया. उस पर जारी नरेंद्र मोदी के प्रचार पर आयोग कई दिन तक चुप लगाए रहा. फिर उस पर राजनैतिक प्रसारणपर रोक लगाने का फैसला हुआ भी तो बहुत देर से. अब भी नमो टीवीविज्ञापन प्लेटफॉर्म के रूप में भाजपा और मोदी का प्रचार कर रहा है. मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने भारतीय सेना को मोदी की सेनाकहा और चौतरफा आपत्तियों के बाद चुनाव आयोग सिर्फ उन्हें यह सलाहदे सका कि भविष्य में सावधान रहें.

यही नहीं, राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर बैठे कल्याण सिंह ने अपने को भाजपा कार्यकर्ता बतते हुए मोदी को जिताने की अपील की. इसे आचार संहिता का उल्लंघन मानते हुए चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति को पत्र लिखा. राष्ट्रपति ने वह पत्र गृह मंत्रालय को भेज दिया और सरकार चुप लगाकर बैठ गयी. चुनाव आयोग ने जानने की कोशिश तक नहीं की कि उस पर क्या हुआ. ऐसे संगीन मामले में सरकार कैसे और क्यों चुप बैठी है, यह पूछने की जरूरत अब तक नहीं समझी है.

ये मामले बता रहे थे कि चुनाव आयोग, जिस पर निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव कराने का दायित्व है, सोया है या सोने का बहाना कर रह रहा है. इतना उनींदा हमारा चुनाव हाल के वर्षों में नहीं था.

सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी के बाद ही सही, चुनाव आयोग नींद से जागा है तो उम्मीद है कि वह फिर ऊंघने नहीं लगेगा. देश के लिए यह बहुत महत्त्वपूर्ण चुनाव है. इसे सम्पन्न कराने तक उसे बराबर सजग और सक्रिय रहना होगा.