Friday, November 29, 2019

सड़क सिर्फ गाड़ियों के लिए, पैदल की कोई कद्र नहीं


चंद रोज पहले यह रिपोर्ट पढ़ने को मिली थी कि 2018 में भारत की सड़कों पर प्रतिदिन 62 पैदल यात्री मारे गए. 2014 में यह आंकड़ा 34 था जो चार साल में बढ़कर 62 हो गया. पैदल चलने वालों को सड़कों पर कुचले जने के ये भयावह आंकड़े केंद्रीय परिवहन मंत्रालय के हैं. स्वाभाविक है कि इसमें वही दुर्घटनाएं शामिल होंगी जो पुलिस थानों या सरकारी कागजों में कहीं दर्ज़ हुई होंगी. वास्तव में यह आंकड़ा इससे कहीं ज़्यादा होगा.

पैदल चलने वालों के इतनी बड़ी तादाद में सड़क-दुर्घटना में मारे जाने का कारण स्पष्ट करते हुए डाउन टु अर्थकी पिछले साल की एक रिपोर्ट कहती है कि हमारे देश में सड़कें पैदल चलने वालों की सुरक्षा को देखते हुए बनाई ही नहीं जातीं. पैदल यात्रियों के बाद सबसे बड़ी तादाद में साइकल वाले मारे जाते हैं. उनके लिए भी सड़कें और यातायात बहुत खतरनाक हैं. न तो योजनाकार इस बारे में सोचते हैं, न यातायात संचालित करने वाले और न ही वाहन चालक. पैदल चलने वालों को भारी यातायात के बीच किसी तरह अपनी राह बनानी पड़ती है. सड़क पार करने के लिए जूझना पड़ता है. अपने को बचना खुद उनकी ज़िम्मेदारी है. वाहन चालक कोई परवाह नहीं करते!

राजधानी लखनऊ और प्रदेश के बड़े शहरों की सड़कों का हाल यही साबित भी करता है. तीस-चालीस साल पहले हालात इतने बुरे नहीं थे. सड़कों के दोनों तरफ तनिक ऊंचे फुटपाथ होते थे जो कुछ तो बचाव करते ही थे. सड़कों को चौड़ा करने के लिए फुटपाथों की बलि ले ली गई. योजनाकारों ने ध्यान ही नहीं दिया कि पैदल जनता कहां चलेगी. पैदल को सड़क पर बिल्कुल असुरक्षित छोड़ दिया गया है.

चौराहों पर कहने को सड़क पार करने के लिए जेब्रा क्रॉसिंगबनी हैं. हज़रतगंज चौराहे का हाल देख लीजिए. जेब्रा क्रॉसिंग  से आगे तक वाहन खड़े हो जाते हैं. कार वालों की अकड़ का तो कहना ही क्या, दोपहिया सवार भी पैदल चलने वालों को रास्ता देने को तैयार नहीं होते. यातायात सिपाहियों को तो शायद जेब्रा क्रॉसिंग के बारे में कुछ सिखाया-बताया नहीं जाता. हेल्मेट और सीट बेल्ट पर जोर देने वाले दिनों में भी जेब्र क्रॉसिंग छेके खड़े वाहनों को रोका-टोका नहीं गया.

दुनिया के अधिकतर देशों में इस सिद्धांत का पालन किया जाता है कि सड़क पर सबसे पहला अधिकार पैदल चलने वालों का है. वहां फुटपाथ अनिवार्य हैं. सड़क पार करते लोगों को देखकर गाड़ियां काफी पहले रोक दी जाती हैं. अनेक देशों में पैदल लोगों को यह अधिकार है कि वे चलता ट्रैफिक रोक दें. इसके लिए जगह-जगह सड़क किनारे अलार्म-बटन लगे हैं. बटन दबाया और निश्चिंत होकर सड़क पार कर ली.  चलते वाहन ठहर कर रास्ता दे देते हैं.

पैदल यात्री का वहां इतना सम्मान है, सुरक्षा है. हमारे देश में वह सर्वाधिक लाचार और असुरक्षित है. योजनाकारों ने पुराने फुटपाथ हड़प लिए और सब-वे या ओवरहेड फुट ब्रिज बनाए नहीं. जहां बने भी हैं, जनता उनका इस्तेमाल लगभग नहीं करती. जान हथेली पर लिए पैदल सड़क पार करनी होती है और अंधा है क्या?’ , ‘मरना है क्या?’ जैसी घुड़कियां सुननी पड़ती हैं.

डाउन टु अर्थकी रिपोर्ट यह भी बताती है कि सड़क पर कुचलकर मरने वाले पैदल यात्रियों में अधिकतर गरीब-गुरबे होते हैं. दुर्घटना के बाद उनके परिवार और भी दयनीय हालत में पहुंच जाते हैं. मरने वाला कमाऊहुआ तो परिवार दर-दर की ठोकरें खाता है. इस तथ्य से यह भी संकेत मिलता है कि गरीब ही ज़्यादातर पैदल चलते हैं. साधन-सम्पन्न लोग पैदल चलना पसंद नहीं करते. गरीबों की परवाह कोई क्यों करे.       

(सिटी तमाशा, 30 नवम्बर, 2019)  
      

Wednesday, November 27, 2019

महाराष्ट्र-लोकतंत्र को बौना किया पार्टियों ने


महाराष्ट्र के राजनैतिक-संवैधानिक प्रहसन में एक बात पूरी तरह भुला दी गई है. जनादेश की अवहेलना की कोई चर्चा ही नहीं कर रहा. राजनीति के नए चाणक्यऔर मराठा पहलवानसे लेकर लोकतंत्र की हत्याऔर संविधान के मखौलकी चर्चा में यह बात पूरी तरह भुला दी गई है कि राज्य के मतदाता ने बहुमत से किसे सत्ता सौंपी थी. अगर राजनैतिक दल उसकी राय के विपरीत आचरण करें तो चुनाव की सार्थकता क्या है?    

भाजपा और शिवसेना का चुनाव-पूर्व गठबंधन था. महाराष्ट्र के मतदाताओं ने इस गठबंधन को पूर्ण बहुमत से सत्ता में वापस भेजा. स्वाभाविक रूप से उनकी सरकार बननी थी. वह क्यों नहीं बनी? ये दोनों ही पार्टियां महाराष्ट्र की जनता के प्रति ज़वाबदेह हैं. आखिर उन्होंने गठबंधन किसलिए किया था? यह अचानक भी नहीं किया गया था. दोनों महाराष्ट्र की राजनीति में तीन दशक से एक साथ हैं. कई विवादों के बावजूद दोनों ने मिलकर सरकार बनाई और चलाई है. इस बार चुनाव नतीज़े आने के बाद गठबंधन में खींचतान और अंतत: टूटन का कारण जनहित था या व्यक्तिगत? ऐसा क्या हुआ कि तीस साल पुराना रिश्ता तोड़ दिया गया? मतदाता को यह जानने का हक क्यों नहीं है?

चुनाव परिणामों में व्यक्त जनता की भावनाओं के विपरीत अब शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस की सरकार बन रही है जो स्वयं में एक विद्रूप और प्रहसन भी है. कांग्रेस-एनसीपी के गठबन्धन को जनता ने अस्वीकार कर दिया था. अब वही गठबन्धन उस शिवसेना के साथ मिलकर सरकार बना रहा है जो जनादेश की उपेक्षा करने की बराबर उत्तरदाई है. फिर, अपनी मूल विचारधारा में शिवसेना की कट्टर विरोधी रही कांग्रेस अब उस शिव सेना-नीत गठबंधन सरकार में भागीदार बन रही है जो भाजपा से अधिक कट्टर हिंदुत्त्व और संकीर्ण क्षेत्रीयतावाद के लिए जानी जाती है. सत्ता के लिए विचार की राजनीति की तो हत्या हो ही चुकी. अब राजनैतिक दल खुलेआम जनादेश का अपमान करने लगे हैं. विडम्बना देखिए कि यह लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर हो रहा है.     

चुनाव-पूर्व गठबंधन करने वाले दलों के लिए क्या चुनाव-पश्चात कोई गठबंधन-धर्म नहीं होता? ध्यान दीजिए कि मतदाता ने त्रिशंकु विधान सभा नहीं चुनी थी. लगभग समान विचारधारा वाले स्वाभाविक-सहयोगी दलों के गठबन्धन को सरकार बनाने का आदेश दिया था. उसकी जगह जो सर्वथा विपरीत-ध्रुवी दलों का अस्वाभाविक गठबंधन सरकार बनाने जा रहा है, उसके स्थायित्व की क्या गारण्टी है, जबकि सत्ता से वंचित सबसे बड़ा दल उसके अंतर्विरोधों से उपजने वाली फूट की ताक में सतत बैठा हुआ रहेगा?

एक अन्य पहलू, जिस पर खूब चर्चा हो रही है, संवैधानिक संस्थाओं/पदों  की गरिमा का है. संविधान और लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ पहले भी होते रहे हैं लेकिन महाराष्ट्र में मूल्यों के पतन की नई सीमा बनी. यूं तो इस खिलवाड़ के पात्र सभी सम्बद्ध राजनैतिक दल हैं लेकिन सबसे बड़ी ज़वाबदेही केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा की बनती है क्योंकि इसमें उसकी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष बड़ी भूमिका रही. राज्यपाल से लेकर राष्ट्रपति भवन तक इस खिलवाड़ में इस्तेमाल किए गए. सदन में बहुमत साबित करने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री का सदन का सामना करने से पहले ही त्यागपत्र दे देना निश्चय ही इन संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों की भूमिका पर भी सवाल उठाता है.

राज्यपालों का राजनैतिक दुरुपयोग कांग्रेस की सरकारों ने भी खूब किया लेकिन शुचिता और पारदर्शी राजनीति से सुशासन लाने के बड़े-बड़े दावे करने वाली भाजपा ने भी न केवल उसी अनैतिक मार्ग का अनुसरण किया, बल्कि वह कुछ और आगे तक चली गई है. यह सवाल बहुत बाद तक पूछे जाते रहेंगे कि महाराष्ट्र में लागू राष्ट्रपति शासन हटाने के लिए मंत्रिमण्डल के सामूहिक निर्णय का सम्पूर्ण दायित्व अकेले प्रधानमंत्री ने क्यों उठाया और उस आदेश पर हस्ताक्षर के लिए राष्ट्रपति को तड़के नींद से क्यों जगाना पड़ा? ऐसी कौन सी इमरजेंसी आ गई थी? सरकार बनाने के फड़णवीस के दावे का सम्यक परीक्षण किए बिना ही राजभवन के एक कक्ष के लगभग एकांत में सुबह साढ़े आठ बजे मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री को पद और गोपनीयता की शपथ राज्यपाल को किस आपात स्थिति में  दिलवानी पड़ी?

भाजपा-समर्थकों के लिए भी यह ज़ल्दबाजी रहस्यपूर्ण और संदेहास्पद रही. सवाल अत्यंत स्वाभाविक है कि ऐसी कौन ही अनिवार्यता या संवैधानिक संकट उत्पन्न हो गया था? सुबह-सुबह प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष के ट्वीट में फड़णवीस और अजित पवार के सत्ता सम्भालने पर बधाई संदेश पढ़कर सारा देश चौंका था, जबकिसुबह के सभी समाचारपत्र शिवसेना-कांग्रेस-एनसीपी के गठबंधन पर मोहर लगने की सुर्खियों से भरे हुए थे.

यूं तो सुप्रीम कोर्ट को बार-बार यह निर्देश देने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि सरकार के बहुमत या अल्पमत में होने का फैसला सदन में ही होना चाहिए. संविधान इस मामले में बिल्कुल स्पष्ट है. 1994 में बोम्मई प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट इस संवैधानिक व्यवस्था की पक्की व्याख्या कर चुका है और वह एक मुकम्मल नज़ीर बन चुका है. राज्यपाल का विवेक महत्त्वपूर्ण है लेकिन बहुमत का निर्णय वह अंतिम रूप से नहीं कर सकता. इसके बावज़ूद  शपथ ग्रहण के बाद दल-विशेष के मुख्यमंत्री को सदन में बहुमत साबित करने के लिए इतना अधिक वक्त दे दिया जाता है कि सत्तारूढ-दल विधायकों की खरीद-फरोख्त कर सके. हाल में कर्नाटक और कई राज्यों में हम यह देख चुके हैं. कई राज्यों में विपक्ष की याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा है.

महाराष्ट्र में एक बार फिर यही दोहराया गया. सदन का सामना किए बिना ही फड़णवीस का मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना साबित करता है कि उनके पास बहुमत नहीं था. आने वाले दिनों में वे इसका बंदोबस्त करते लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें इसका अवसर नहीं दिया. ऐसे में राज्यपाल के विवेक का क्या सम्मान रह गया और उनका भी जिन्होंने शीर्ष स्तर से इस प्रहसन के मंचन में सक्रिय भूमिका निभाई?

सत्ता में राजनैतिक पार्टियां आती-जाती रहेंगी. जनादेश कभी एक के पक्ष में होगा कभी किसी दूसरे के या कभी किसी के स्पष्ट पक्ष में नहीं होगा. लोकतंत्र में राजनैतिक दलों के मेल-बेमेल गठबंधन भी होते रहेंगे. स्थिर सरकार बनाने के लिए उनके अवसरानुकूल समझौते कोई नई बात नहीं. विजेता गठबंधन कुर्सी के लिए लड़े, स्वार्थवश  सरकार नहीं बनाए और हारे हुए दल एकजुट होकर सत्ता में आ जाएं, यह विधि सम्मत तो हो सकता है लेकिन जनादेश की दृष्टि से अनैतिक ही कहा जाएगा.

फिर, संवैधानिक पदों पर बैठे लोग अपनी दलगत प्रतिबद्धता के कारण संविधान के प्रावधानों को तोड़ें-मरोड़ें तो संविधान की क्या मर्यादा रह जाएगी? विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के गर्वीले दावे लोकतंत्र की कसौटी  पर भी तो खरे उतरने चाहिए.
     
(प्रभात खबर, 28 नवम्बर, 2019) 
         

Saturday, November 23, 2019

गठबन्धन यानी मोल-भाव की राजनीति



चुनावी राजनीति के खेल अजब-गजब ही होते हैं. थोड़ी हार-जीत भी शेर को बिल्ली और बिल्ली को शेर बना देती है. महाराष्ट्र ताज़ा और सबसे अच्छा उदाहरण है. भाजपा बहुमत पा गई होती तो शिव सेना चुपचाप उसकी सारी बातें मान लेती. वह पिछला प्रदर्शन भी दोहरा पाती तो बात इतनी बिगड़ती नहीं. थोड़ी-बहुत तनातनी के बाद समझौता हो जाता. महाराष्ट्र में ही नहीं हरियाणा में भी भाजपा को उम्मीद से बहुत कम सीटें मिलीं. शिव सेना और उसके बीच इतनी रस्साकशी हुई  कि रिश्ता ही टूट गया. हरियाणा में भी नई-नई बनी जननायक जनता पार्टी ने गठबंधन करने के लिए भाजपा से उप-मुख्यमंत्री का पद झटक लिया. इस राज्य में उसकी जीती सीटों की संख्या पहले से काफी कम हो गई थीं, इसलिए उसे दुष्यंत चौटाला की शर्त माननी पड़ी. इसके बावज़ूद मंत्रिमंडल विस्तार कई दिन टला.

हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव नतीजों में भाजपा का कद घटना कितनी दूर तक असर कर रहा है, यह देखना हो तो झारखण्ड के राजनैतिक परिदृश्य पर नज़र डालिए. वहां एनडीए में भाजपा के सहयोगी दलों ने सीटों की मांग के लिए उस पर बहुत दबाव डाला और जब बात नहीं बनी तो वे भाजपा के ही विरुद्ध चुनाव मैदान में हैं. अखिल झारखण्ड छात्र संघ (आजसू), केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) और नीतीश कुमार का जनता दल (यू) भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं. अंतिम समय तक सीटों के तालमेल की बात इन क्षेत्रीय संगठनों के दबाव में टूट गई. कारण सिर्फ यही है कि भाजपा हाल के दो विधान सभा चुनावों में कमजोर होकर उभरी. कमजोर होती बड़ी पार्टी से अधिकाधिक वसूल लेने की प्रवृत्ति गठबंधन के छोटे दलों में अब अनिवार्य रूप से पाई जाती है.

थोड़ा पीछे चलें तो गठबंधन की मज़बूरियां पर्त-दर-पर्त खुलती दिखती हैं. 2019 के लोक सभा चुनाव से पहले आम धारणा यही थी कि भाजपा 2014 के चुनावों जैसा प्रदर्शन नहीं दोहरा पाएगी. खुद भाजपा के भीतर ऐसा माना जा रहा था, हालांकि प्रकट तौर पर वे बड़े-बड़े दावे कर रहे थे. इसलिए उस समय भाजपा ने गठबंधन के सहयोगी दलों की मांगें आसानी से मान ली थीं. बिहार में जनता दल (यू) ने भाजपा के बराबर सीटें मांगी तो उसे देनी पड़ीं क्योंकि नीतीश कुमार वहां बड़ी ताकत हैं. लेकिन वहीं छोटे से दल लोजपा ने भी अपनी मांग बढ़ाकर रखी और खूब दबाव बनाया. परिणाम यह रहा कि भाजपा ने अपने हिस्से की सीटें कम करके लोजपा की मांग पूरी की थी. जद (यू) अपने हिस्से से एक भी सीट छोड़ने को तैयार न था.

शिव सेना- भाजपा  की ताज़ा तनातनी लोक सभा चुनाव के समय भी दिखाई दी थी. तब भी शिव सेना बराबर सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए अड़ी रही. अंतत: दो कम सीटों पर राजी हो गई थी. विधान सभा चुनाव से पहले भी इसी तरह की रस्साकशी हुई. चुनाव परिणामों में जैसे ही भाजपा की सीटें कम हुई हुए शिवसेना मुख्यमंत्री पद के लिए ज़िद ठान बैठी.

उत्तर प्रदेश में दो छोटी-छोटी जाति-आधारित पार्टियों से भाजपा का गठबंधन था. कुर्मियों के अपना दल ने 2014 में भाजपा के सहयोग से मिली दोनों से सीटें जीती थीं. 2019 में वह दो से ज़्यादा सीटें मांगने लगी जबकि भाजपा दो भी नहीं देना चाहती थी. अंतत: दो सीटें देनी ही पड़ीं. इसी तरह, सुहेलदेव राजभर पार्टी, जो सिर्फ विधान सभा चुनाव में भाजपा के साथ थी, लोक सभा की सीटें भी मांगने लगी और अंतत: मांगें नहीं पूरी होने पर भाजपा की प्रदेश सरकार से अलग हो गई. यह अलग बात है कि लोक सभा चुनाव नतीजों ने भाजपा का सिक्का जमा दिया.

महाराष्ट्र और हरियाणा में कमजोर साबित हुई भाजपा झारखण्ड में पूरा दम-खम लगा रही है. यह सिर्फ झारखण्ड की सत्ता बचाने की ही कवायद नहीं है, बल्कि इस चुनाव के परिणामों की सीधा प्रभाव अगले साल होने वाले बिहार विधान सभा के चुनावों पर पड़ेगा, यह उसे अच्छी तरह पता है. झारखण्ड में भी वह कमजोर पड़ी तो नीतीश कुमार ही नहीं, रामविलास पासवान भी सेर पर सवा सेर हो जाएंगे. यह ठीक वैसा ही है जैसे एक युद्ध में पराजित राजा दूसरे युद्ध में स्वाभाविक रूप से कमजोर माना जाता है और शत्रु उस पर मनोवैज्ञानिक रूप से भारी हो जाता है. राजनीति में शत्रु नहीं, मित्र अवसर पाते ही मित्रताकी अच्छी कीमत वसूलते हैं.

महाराष्ट्र  के अलावा झारखण्ड में भी सहयोगी दलों की मांगों के आगे नहीं झुकने की भाजपा की रणनीति से कुछ और प्रश्न उठते हैं. क्या भाजपा अब सहयोगी दलों को संसद की अपनी ताकत का अहसास कराकर उनके दबाव में झुकने से इनकार कर रही है? शिव सेना के एनडीए से बाहर निकलने और लोक सभा में विपक्ष में बैठने से मोदी सरकार की सेहत पर बहुत फर्क नहीं पड़ता. राज्य सभा में भी भाजपा क्रमश: बहुमत के करीब पहुंचती जा रही है. अयोध्या-प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय राम मंदिर के पक्ष में आ जाने से भी वह अपने को बहुत मज़बूत राजनैतिक भूमि पर पा रही होगी. कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने से उसे पहले ही बाकी देश में व्यापक समर्थन मिला है.

क्या इन स्थितियों में भाजपा सहयोगी दलों की मांगें मानने की बजाय उलटे उन्हें दबाव में लेना चाहती है कि हमारे सहारे ही तुम्हारा अस्तित्व है? क्या महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लगाकर वह शिव सेना को ऐसा ही संदेश नहीं दे रही? जब अमित शाह यह कहते हैं कि जिसके पास समर्थन हो, वह सरकार बना ले, तो क्या वे यही तेवर नहीं दिखा रहे? झारखण्ड में उन्होंने एक भी सहयोगी दल की मांग नहीं मानी. रामविलास पासवान को एक मजबूत वोट-बैंक के कारण उसे कभी नाराज़ नहीं किया लेकिन झारखण्ड में उन्हें भी लाल झण्डी दिखा दी. क्या यह नई राजनैतिक परिस्थितियों से पाया आत्मविश्वास है?

पिछले दिनों आए लोकनीती-सीएसडीएसके एक सर्वेक्षण के परिणाम भी भाजपा को नव-अर्जित शक्ति की अनुभूति करा रहे होंगे. इस सर्वेक्षण के अनुसार भाजपा का हिंदू-समर्थक-आधार बहुत व्यापक हुआ है. 2014 मे जहां उसे 36 प्रतिशत हिंदू वोट मिले थे, वहीं 2019 में यह प्रतिशत बढ़कर 44 हो गया. इसके मुकाबले उसके सहयोगी दलों को मात्र सात-आठ फीसदी हिंदू-वोट मिले. कश्मीर और अयोध्या के फैसलों ने यह आधार बढ़ाया ही होगा.

तो भी यह सोचना गलत होगा कि भाजपा को अब सहयोगी दलों की आवश्यकता नहीं रही. हम लम्बे समय से गठबंधन सरकारों का दौर देख रहे हैं, केंद्र में और राज्यों में भी. 2014 का चुनाव भाजपा ने करीब 35 विभिन्न दलों का गठबंधन बनाकर लड़ा था. 1996 में उसका 12 दलों से गठबंधन था, 1998 में यह संख्या 18 हुई जो 1999 में 24 तक पहुँच गयी थी. 2014 और 2019 में अकेले  बहुमत मिल जाने के बावजूद भाजपा ने सभी साथी दलों को जोड़े रखा. कुछ दल अन्यान्य कारणों से एनडीए से अलग भी हुए.

यूपीए शासन के दोनों कार्यकालों में बीस से ज़्यादा दल कांग्रेस के सहयोगी थे. आज भाजपा का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस को ज़्यादा से ज़्यादा सहयोगी दलों की ज़रूरत महसूस हो रही है. इसलिए भारतीय राजनीति में  गठबंधन अभी एक अनिवार्यता की तरह बना रहने वाला है. नेतृत्वकारी दल की मजबूती और कमजोरी के आधार पर समय-समय पर सौदेबाजी और रूठने-मनाने के दौर भी चलते रहेंगे.     
    
(नभाटा, मुम्बई, 24 नवम्बर, 2019)  
   


Friday, November 22, 2019

चिड़ियाघर हटा तो उसकी हरियाली का क्या होगा?


सरकार और प्रशासन चलाने वालों का भी ज़वाब नहीं. ये सभी अपनी चतुराई का ही खाते-भोगते हैं. जब यह समाचार पढ़ा कि चिड़ियाघर के पशु-पक्षियों को प्रदूषण से बचाने के लिए शहर से बाहर कहीं बसाया जाएगा तो उनकी दाद देनी पड़ी. इनसानों की चिंता में हलकान प्रशासन पशु-पक्षियों की भी कितनी चिंता करता है! शहर की हवा का गुणवत्ता सूचकांक बेचारे वन्य-प्राणियों के फेफड़े खराब कर रहा है. प्रशासन ने वन विभाग और उद्यान-प्रशासन से पता करने को कहा है कि बढ़ते शोर और वायु-प्रदूषण का उन पर कितना और कैसा असर पड़ रहा है. उन्हें शहर से बाहर भेजे जाने का प्रस्ताव बनाया गया है.

सवाल उठता है कि चिड़ियाघर दूर भेज दिया गया तो उसकी करीब 72  एकड़ जमीन में मौज़ूद हरियाली का क्या होगा? तभी एक कौंध की तरह सरकारों और प्रशासन के वे कई प्रयास याद आ गए जो लखनऊ प्राणि उद्यान की जगह मंत्री-आवास या अन्य सरकारी भवन बनाने के लिए किए जा चुके हैं. पहले के ऐसे सभी प्रयास कुछ सचेत प्रशासनिक अधिकारियों और  सामाजिक कार्यकर्ताओं के विरोध से सफल नहीं हो पाए. इस बार पशु-पक्षियों को प्रदूषण से खतरे का बहाना शायद काम आ जाए. क्या खूब तरकीब निकाली गई है!

चिड़ियाघर के भीतर हवा की गुणवत्ता कैसी रहती है, इसका अध्ययन तो अभी तक सामने नहीं आया है लेकिन जहां करीब दस हजार पेड़, हरे-भरे उद्यान और तालाब हों, वहां की हवा शेष शहर से निश्वय ही काफ़ीअच्छी होगी. यह सही है कि चिड़ियाघर अत्यधिक प्रदूषित हज़रतगंज के निकट है लेकिन जंगल और पानी में इतनी क्षमता होते है कि वे अपने आसपास की हवा को यथासम्भव साफ कर सकें. सच तो यह है कि प्राणि उद्यान शहर का ऑक्सीजन प्लाण्ट है. उसकी हरियाली इलाके का प्रदूषण दूर करती है.

अंधाधुंध शहरीकरण और सरकारी निर्माणों ने शहर की हरियाली कई बहानों से धीरे-धीरे खत्म की है. 1990 के शुरुआती वर्षों तक माल एवन्यू में खूब हरी-भरी सरकारी नर्सरी थी. बड़े-बड़े पेड़ हवा में झूमते हुए शहर की हवा साफ करते रहते थे. एक दिन सरकार ने फैसला किया कि वहां वीवीआईपी गेस्ट हाउस बनाया जाएगा. पत्रकारों की हमारी पीढ़ी और कई सचेत नागरिकों ने इस फैसले का विरोध किया. तर्क दिया कि वीवीआईपी के लिए गेस्ट हाउस शहर से बाहर भी बनाया जा सकता है. उन्हें आने-जाने में कौन सी परेशानी होनी है. तत्कालीन सरकार ने वीवीआईपी की सुरक्षा का बहाना बनाकर वह प्राणदायिनी हरियाली मिटा दी. आज वहां खड़ा विशाल वीवीआईपी अतिथि गृह शहर को प्रदूषण और यातायात समस्या देने के अलावा और क्या कर रहा है?

उसी के बाद से चिड़ियाघर की ज़मीन पर भी नज़रें पड़ने लगी थीं. जब-जब विधायकों-मंत्रियों के लिए नए आवास या कोई नया भवन बनाने की बात हुई, चिड़ियाघर को शहर से बाहर स्थानांतरित करने के प्रस्ताव बनाए गए. मायावती की सरकार के समय भी एक बार प्राणि उद्यान को कहीं दूर ले जाने की बात चली थी. खैर, अब तक यह बचा रहा है. शंका होती है कि अब पशु-पक्षियों को प्रदूषण से बचाने के नाम पर चिड़ियाघर को हटाने की बात की जा रही है. पशु-पक्षियों के कारण वहां अच्छी हरियाली बची है. वे शहर से बाहर हुए तो शहर के इस फेफड़े में भी कंक्रीट भरने में देर नहीं लगेगी.

जानवरों की इतनी ही चिंता है तो चिड़ियाघर बनाए ही क्यों जाते हैं? पशु-पक्षी जंगल में कहीं अधिक उन्मुक्त जीवन और स्वच्छ हवा पाएंगे. प्राणि उद्यान के बहाने शहर के पास थोड़ी हरियाली बची है. जनता आसानी से वहां पहुंचकर थोड़ा अच्छा समय गुज़ार लेती है. यह सुकून और ऑक्सीजन का एक स्रोत मत छीनिए. कृपया, उसे बना रहने दें.
   
(सिटी तमाशा, नभाटा, 23 नवम्बर, 2019)

Saturday, November 16, 2019

एक तमाशा यह भी हुआ



कोई महीने भर पहले का दृश्य याद कीजिए. हर दो पहिया चालक हेलमेट लगाए है. कार-चालक सीट-बेल्ट कसे प्रदूषण जांच केंद्रों की तरफ भागा जा रहा है. वहां लम्बी लाइन लगी है. चार-चार घण्टे इंतज़ार करने के बाद किसी तरह प्रमाण-पत्र मिल पा रहा है. चौराहों ही नहीं बीच सड़क या कहीं ओने-कोनों में भी सिपाही तैनात हैं जो गाड़ियों के कागजात जांच रहे हैं. होमगार्ड जवानों के हाथ में स्मार्ट फोन हैं जो गाड़ियों के नम्बर प्लेट की फोटो खींच कर चालान काट रहे हैं. लग रहा है कि सरकार और प्रशासन जाग गए हैं. शहरों का यातायात सुधर जाएगा, सड़कें अपेक्षाकृत सुरक्षित हो जाएंगी और वाहनों से होने वाला प्रदूषण भी कुछ नियंत्रित हो जाएगा.

मोटर वाहन अधिनियम में हुए संशोधनों की बड़ी चर्चा थी. यातायात नियमों के उल्लंघन पर ज़ुर्माने की रकम कई गुणा बढ़ा दिए जाने के विरुद्ध आक्रोश व्यक्त किया जा रहा था. एक बड़ा वर्ग यह तर्क दे रहा था कि भारी ज़ुर्माने और सख्ती से ही जनता नियमों का पालन करेगी. इस कारण ज़ुर्माना बढ़ाने और सख्ती से लागू करने का स्वागत किया जा रहा था.

इसके विपरीत इस व्यवस्था को जानने-समझने वाले कह रहे थे कि कुछ दिन बाद देखिएगा, नया कानून और सख्ती सब धरे रह जाएंगे. महीने-दो महीने बाद यही पुलिस कुछ और कर रही होगी. जनता ही नहीं प्रशासन भी सारे नियम-कानून भूल चुके होंगे. कहने की आवश्यकता नहीं कि पुरानी अराजकता वापस लौटने लगी है. कानून कागज में और जनता-पुलिस पुराने ढर्रे पर आते जा रहे हैं.

कोई भी सरकार हो, हर बार ऐसे ही अनुभव होते हैं. पॉलीथीन का चलन बंद कराना हो या अतिक्रमण हटाना, बीचबीच में प्रशासन को जोश आता है. वह सक्रिय होता है लेकिन कुछ ही समय बाद सब-कुछ पुराने ढर्रे पर आ जाता है.

 बहुत आश्चर्य होता है कि हम अपनी सुरक्षा के लिए भी सतर्क नहीं है. समझ की बड़ी कमी है. सामाजिक दायित्व बोध के मामले में हालत दयनीय है. अपनी सुरक्षा की चिंता नहीं तो दूसरे की चिंता क्यों होने लगी!  पर्यावरण किसी की चिंता के दायरे में नहीं. यातायात विभाग के ज़िम्मेदार कह रहे हैं कि जनता को जागरूक कर रहे हैं. असल बात यह कि यातायात नियमों के पालन की ज़िम्मेदारी सम्भालने वाले स्वयं जागरूक नहीं है, न नियमों के प्रति न अपने दायित्व के प्रति. यह अलग बात है कि नियमों की समझ होने से उनके पालन करने का कोई सम्बंध नहीं है.

पॉलीथीन बंद करने का तमाशा कबसे हो रहा है. कितनी सरकारें आईं-गईं लेकिन उसका उत्पादन बंद नहीं हुआ. उत्पादन होगा तो पॉलीथीन बिकेगी और इस्तेमाल होगी. नियम-कानून बनाते रहिए. अतिक्रमण सबकी आंखों के सामने होता है. होता और बढ़ता रहता है. कभी-कभार उसे हटाने का ड्रामा होता है. अतिक्रमण करने और हटाने वाले दोनों जानते हैं कि शाम होते-होते सब कुछ वापस अपनी जगह पर आ जाना है.

पिछले दिनों की सख्ती में जिन्हें हेलमेट खरीदना पड़ गया था, उनमें से कई ने उसे घर में रख दिया है. कुछ आने वाले दिनों में लगन छोड़ देंगे. प्रदूषण जांच केंद्र कुछ अच्छा बिजनेस करने के बाद दूसरा काम तलाश रहे होंगे. स्कूलों में बच्चों को यातायात नियमों से लेकर नैतिकता तक का पाठ पढ़ाया जा रहा है. इस सबका पालन नहीं करना है, यह पाठ बिना पढ़ाए वे सीख रहे हैं.

दूसरों की ही नहीं, हम अपनी आंखों में भी धूल झोंकना कितनी अच्छी तरह जानते हैं. 

(सिटी तमाशा, 16 नवम्बर, 2019)        
 


सिटी तमाशा

कोई महीने भर पहले का दृश्य याद कीजिए. हर दो पहिया चालक हेलमेट लगाए है. कार-चालक सीट-बेल्ट कसे प्रदूषण जांच केंद्रों की तरफ भागा जा रहा है. वहां लम्बी लाइन लगी है. चार-चार घण्टे इंतज़ार करने के बाद किसी तरह प्रमाण-पत्र मिल पा रहा है. चौराहों ही नहीं बीच सड़क या कहीं ओने-कोनों में भी सिपाही तैनात हैं जो गाड़ियों के कागजात जांच रहे हैं. होमगार्ड जवानों के हाथ में स्मार्ट फोन हैं जो गाड़ियों के नम्बर प्लेट की फोटो खींच कर चालान काट रहे हैं. लग रहा है कि सरकार और प्रशासन जाग गए हैं. शहरों का यातायात सुधर जाएगा, सड़कें अपेक्षाकृत सुरक्षित हो जाएंगी और वाहनों से होने वाला प्रदूषण भी कुछ नियंत्रित हो जाएगा.
मोटर वाहन अधिनियम में हुए संशोधनों की बड़ी चर्चा थी. यातायात नियमों के उल्लंघन पर ज़ुर्माने की रकम कई गुणा बढ़ा दिए जाने के विरुद्ध आक्रोश व्यक्त किया जा रहा था. एक बड़ा वर्ग यह तर्क दे रहा था कि भारी ज़ुर्माने और सख्ती से ही जनता नियमों का पालन करेगी. इस कारण ज़ुर्माना बढ़ाने और सख्ती से लागू करने का स्वागत किया जा रहा था.
इसके विपरीत इस व्यवस्था को जानने-समझने वाले कह रहे थे कि कुछ दिन बाद देखिएगा, नया कानून और सख्ती सब धरे रह जाएंगे. महीने-दो महीने बाद यही पुलिस कुछ और कर रही होगी. जनता ही नहीं प्रशासन भी सारे नियम-कानून भूल चुके होंगे. कहने की आवश्यकता नहीं कि पुरानी अराजकता वापस लौटने लगी है. कानून कागज में और जनता-पुलिस पुराने ढर्रे पर आते जा रहे हैं.
कोई भी सरकार हो, हर बार ऐसे ही अनुभव होते हैं. पॉलीथीन का चलन बंद कराना हो या अतिक्रमण हटाना, बीचबीच में प्रशासन को जोश आता है. वह सक्रिय होता है लेकिन कुछ ही समय बाद सब-कुछ पुराने ढर्रे पर आ जाता है.
 बहुत आश्चर्य होता है कि हम अपनी सुरक्षा के लिए भी सतर्क नहीं है. समझ की बड़ी कमी है. सामाजिक दायित्व बोध के मामले में हालत दयनीय है. अपनी सुरक्षा की चिंता नहीं तो दूसरे की चिंता क्यों होने लगी!  पर्यावरण किसी की चिंता के दायरे में नहीं. यातायात विभाग के ज़िम्मेदार कह रहे हैं कि जनता को जागरूक कर रहे हैं. असल बात यह कि यातायात नियमों के पालन की ज़िम्मेदारी सम्भालने वाले स्वयं जागरूक नहीं है, न नियमों के प्रति न अपने दायित्व के प्रति. यह अलग बात है कि नियमों की समझ होने से उनके पालन करने का कोई सम्बंध नहीं है.
पॉलीथीन बंद करने का तमाशा कबसे हो रहा है. कितनी सरकारें आईं-गईं लेकिन उसका उत्पादन बंद नहीं हुआ. उत्पादन होगा तो पॉलीथीन बिकेगी और इस्तेमाल होगी. नियम-कानून बनाते रहिए. अतिक्रमण सबकी आंखों के सामने होता है. होता और बढ़ता रहता है. कभी-कभार उसे हटाने का ड्रामा होता है. अतिक्रमण करने और हटाने वाले दोनों जानते हैं कि शाम होते-होते सब कुछ वापस अपनी जगह पर आ जाना है.
पिछले दिनों की सख्ती में जिन्हें हेलमेट खरीदना पड़ गया था, उनमें से कई ने उसे घर में रख दिया है. कुछ आने वाले दिनों में लगन छोड़ देंगे. प्रदूषण जांच केंद्र कुछ अच्छा बिजनेस करने के बाद दूसरा काम तलाश रहे होंगे. स्कूलों में बच्चों को यातायात नियमों से लेकर नैतिकता तक का पाठ पढ़ाया जा रहा है. इस सबका पालन नहीं करना है, यह पाठ बिना पढ़ाए वे सीख रहे हैं.
दूसरों की ही नहीं, हम अपनी आंखों में भी धूल झोंकना कितनी अच्छी तरह जानते हैं.        
 


किसी तरह प्रमाण-पत्र मिल पा रहा है. चौराहों ही नहीं बीच सड़क या कहीं ओने-कोनों में भी सिपाही तैनात हैं जो गाड़ियों के कागजात जांच रहे हैं. होमगार्ड जवानों के हाथ में स्मार्ट फोन है जो गाड़ियों के नम्बर प्लेट की फोटो खींच कर चालान काट रहे हैं. लग रहा है कि सरकार और प्रशासन जाग गए हैं. शहरों का यातायात सुधर जाएगा, सड़कें अपेक्षाकृत सुरक्षित हो जाएंगी और वाहनों से होने वाला प्रदूषण काफी नियंत्रित हो जाएगा.
मोटर वाहन अधिनियम में हुए संशोधनों की बड़ी चर्चा थी. यातायात नियमों के उल्लंघन पर ज़ुर्माने की रकम कई गुणा बढ़ा दिए जाने के विरुद्ध आक्रोश व्यक्त किया जा रहा था. एक बड़ा वर्ग यह तर्क दे रहा था कि भारी ज़ुर्माने और सख्ती से ही जनता नियमों का पालन करेगी. इस कारण ज़ुर्माना बढ़ाने और सख्ती से लागू करने का स्वागत किया जा रहा था.
इसके विपरीत इस व्यवस्था को जानने-समझने वाले कह रहे थे कि कुछ दिन बाद देखिएगा, नया कानून और सख्ती सब धरे रह जाएंगे. महीने-दो महीने बाद यही पुलिस कुछ और कर रही होगी. जनता ही नहीं प्रशासन भी सारे नियम-कानून भूल चुके होंगे. कहने की आवश्यकता नहीं कि पुरानी अराजकता वापस लौटने लगी है. कानून कागज में और जनता-पुलिस पुराने ढर्रे पर आते जा रहे हैं.
कोई भी सरकार हो, हर बार ऐसे ही अनुभव होते हैं. पॉलिथीन का चलन बंद कराना हो या अतिक्रमण हटाना, बीच–बीच में प्रशासन को जोश आता है. वह सक्रिय होती है लेकिन कुछ ही समय बाद सब-कुछ पुराने ढर्रे पर आ जाता है. क्यों होता है ऐसा?
एक बड़ा कारण तो यही कि हम अपनी सुरक्षा के लिए भी सतर्क नहीं है. समझ की बड़ी कमी है. सामाजिक दायित्व बोध के मामले में हालत दयनीय है. अपनी सुरक्षा की चिंता नहीं तो दूसरे की चिंता क्यों होने लगी!  पर्यावरण किसी की चिंता के दायरे में नहीं. यातायात विभाग के ज़िम्मेदार कह रहे हैं कि जनता को जागरूक कर रहे हैं. असल बात यह कि यातायात नियमों के पालन की ज़िम्मेदारी सम्भालने वाले स्वयं जागरूक नहीं है. चौराहों पर यातायात सम्भालने वालों की परीक्षा ली जाए तो शायद कुछ ही पास हों. यह अलग बात है कि नियमों की समझ होने से उनके पालन करने का कोई सम्बंध नहीं है.
 




Thursday, November 14, 2019

नई परिस्थितियों में कांग्रेस



महाराष्ट्र में ऊँट जिस भी करवट बैठे, कांग्रेस की सतर्क सक्रियता से यह संकेत अवश्य मिलता है कि देश की यह मुख्य विपक्षी पार्टी, जो आज अंदर-बाहर से बिखरी पड़ी है, खुद को समेटने का जतन कर रही है. मुम्बई की गतिविधियों पर कांग्रेस कार्यसमिति बराबर बातचीत करती रही. अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर अपना रुख तय करने के लिए भी उसने त्वरित विचार-विमर्श किया. उसने यह प्रतिक्रिया देने में विलम्ब नहीं किया कि वह सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का स्वागत करती है और अयोध्या में राम मंदिर बनाए जाने के पक्ष में है.

इस सुचिंतित त्वरित प्रतिक्रिया की तुलना संविधान के अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाए जाने के मोदी सरकार के फैसले पर कांग्रेस के असमंजस से कीजिए. यह ठीक है कि सरकार ने वह प्रस्ताव बिल्कुल अचानक ही पेश किया था, जिसकी किसी को भी भनक नहीं थी, किंतु मुख्य विपक्षी दल होने के नाते वह न तत्कालअपने को एकजुट कर सकी और न ही दूसरे विरोधी दलों के साथ विचार-विमर्श कर पाई. परिणाम यह हुआ था कि अनुच्छेद 370 को हटाने और राज्य का दर्ज़ा छीन कर जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटने के निर्णय पर स्वयं उसके नेताओं में एक राय नहीं बन सकी थी. कई नेताओं के सरकार-समर्थक बयानों से पार्टी की किरकिरी ही हुई थी.

तो, क्या कांग्रेस की नवीनतम सर्कता और सक्रियता हरियाणा और महाराष्ट्र के बेहतर चुनाव नतीज़ों से मिली ऑक्सीजन है? ऑक्सीजन की बहुत अच्छी खुराक तो उसे 2018 में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ के चुनावों में जीत से भी मिली थी. फिर क्यों वह लोक सभा चुनाव में बुरी तरह पिट गई? क्या यह सोनिया और 
राहुल के नेतृत्व-कौशल और पार्टी में उनकी स्वीकार्यता के स्तर का अन्तर है? 

राहुल के त्यागपत्र से उपजे लम्बे नेतृत्व-शून्य के बाद हाल के दिनों में सोनिया ने पार्टी की कमान पूरी तरह 
सम्भाली है. सोनिया की सक्रियता का एक प्रभाव कांग्रेस के पुराने नेताओं के प्रभावी होने में भी दिखता है. राहुल-राज में जो भूपेंद्र सिंह हूडा हाशिए पर चले गए थे, उन्हें हरियाणा में कांग्रेस के अच्छे प्रदर्शन का श्रेय मिला क्योंकि बहुर देर से ही सही उन्हें मोर्चे पर लाया गया. हूडा की वापसी और कुमारी शैलजा के हाथ नेतृत्व सौंपने में गुलाम नबी आज़ाद और अहमद पटेल जैसेअनुभवी सयाने नेताओं की सुनी गई. इसी तरह महाराष्ट्र में अशोक चह्वाण की जगह बालासहेब थोराट ने कमान सम्भाली. आज यह माना जाता है कि यदि समय रहते ये परिवर्तन किए गए होते इन दो राज्यों के परिणाम और बेहतर हो सकते थे.

क्या कांग्रेसियों को दिक्कत राहुल से है? या पार्टी की युवा पीढ़ी सयानों के साथ तालमेल नहीं बैठा पा रही? राहुल ने कांग्रेस का अध्यक्ष पद सम्भालने के बाद उसे नई ऊर्जा से भरने की कोशिश की थी. बुजुर्ग नेताओं के अनुभव का ससम्मान लाभ उठाने की बातें कही गईं किंतु यह भी सच है हरियाणा में प्रभावशाली हूडा जैसे नेता राहुल के कारण ही नेपथ्य में चले गए थे. राजस्थान और मध्य प्रदेश में चुनाव जीतने के बाद मुख्यमंत्री के चयन पर नई और पुरानी पीढ़ी के बीच बहुत रस्साकशी हुई थी. सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थकों ने बहुत हाथ-पैर मारे थे. बाजी अंतत: सयाने गहलौत और कमलनाथ के हाथ आई.

कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टी में बड़े बदलाव कभी आसान नहीं रहे. इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी और सोनिया   को भी जूझना पड़ा था लेकिन वे ज़ल्दी ही अपने नेतृत्व का सिक्का जमा ले गए. क्या नेहरू-गांधी वंश का राज-दण्ड हाथ में होने के बावजूद राहुल लड़खड़ाए? उत्तर प्रदेश जैसे महत्त्वपूर्ण राज्य में कोई डेढ़ वर्ष तक पूर्णकालिक पार्टी अध्यक्ष नहीं था. सोनिया ने हाल ही में उस पद पर भी चयन किया है. जितिन प्रसाद जैसा राहुल खेमे का प्रभावशाली युवा नेता लोक सभा चुनाव के समय क्यों इतना रुष्ट हो गया था कि उनके पार्टी छोड़ने की चर्चा चल पड़ी थी?

नई राजनैतिक परिस्थितियों में तथा शक्तिशाली भाजपा के मुकाबिल कांग्रेस को खड़ा करना बहुत चुनौतीपूर्ण काम है. कांग्रेस इतिहास का यह सबसे कठिन दौर है. सोनिया के नवीनतम प्रयास और उनकी भूमिका 'अंतरिम' ही कहे जाएंगे. नेहरू-गांधी परिवार के बाहर का अध्यक्ष चुनना कांग्रेसियों के वश की बात नहीं. कांग्रेस का नया नेता परिवार के बाहर से चुना जाए, राहुल की यह बात अब भुला दी गई है. इसलिए देर-सबेर राहुल को ही फिर मोर्चे पर आना है. क्या वे अपने को नए सिरे से तैयार कर रहे हैं? राहुल स्वयं किनारे हुए हैं. पार्टी उन्हें अपने अविवादित नेता के रूप में ही देखती-बरतती है. यही कारण है कि हरियाणा और महाराष्ट्र में कांग्रेस के अच्छे प्रदर्शन का श्रेय राहुल के हिस्से भी लगाया गया था.

सोनिया से अधिक राहुल की चुनौती यह है कि 2014 के बाद देश का राजनैतिक परिदृश्य बिल्कुल बदल गया है. उग्र हिंदुत्त्व और राष्ट्रवाद की राजनीति ने अपने लिए बड़ी जगह बना ली है. आयडिया ऑफ इण्डिया यानी बहुलतावाद का विचार, जो कांग्रेसी नीतियों के मूल में था, खतरे में है. संविधान के अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी कर देने और अयोध्या की विवादित भूमि पर राम मन्दिर का मार्ग प्रशस्त होने से भाजपा और आरएसएस के दो पुराने एजेण्डे पूरे हो गए हैं. तीसरे बड़े एजेण्डे, समान नागरिक संहिता की चर्चा तेज है. ये ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें  भाजपा 1990 के दशक से बड़ी हुई पीढ़ी के बड़े हिस्से को प्रभावित करने में सफल हुई है. वह पीढ़ी चली गई या सक्रिय नहीं रह गई जो कांग्रेसी मूल्यों से जुड़ी हुई थी.

इस 'नए भारत' को कांग्रेस भारत के विचार की राह पर वापस कैसे लाए? यही उसकी सबसे बड़ी चुनौती है. इससे भी पहले उसके नेताओं  को अपने मूल मूल्यों को अच्छी तरह आत्मसात करना होगा. पूर्व में उसने गलतियां कम नहीं कीं. सबसे बड़ी चूक राजीव गांधी के समय शाहबानो प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलट देना थी, जिससे उपजी हिंदू-नाराजगी का प्रतिकार करने के लिए अयोध्या में ताला खुलवाया गया और विहिप को राम मंदिर के शिलान्यास की अनुमति दी गई. उसी के परिणामस्वरूप आज का बदला भारत उसे मिला है जिसमें उसे अपनी जगह बनानी है.

उसके लिए अच्छी बात यही है कि आज भी कांग्रेसी जनाधार कमोबेश कायम है. नए मुद्दों और मतदाताओं की नई पीढ़ी के साथ उसे तालमेल बैठाना है. नेतृत्व को जनता से जोड़ने वाली उसकी कड़ियां टूट गई हैं. भाजपा से उसे इतना अवश्य सीखना चहिए कि मजबूत संगठन से पार्टी कैसे शिखर चढ़ती है.  

(प्रभात खबर, 14 नवंंबर, 2019)  


      
      


Monday, November 11, 2019

आज भी खूब लगते हैं मेले लखनऊ के


हिंदू धर्मावलम्बियों के लिए कार्तिक पूर्णिमा पर गंगा-स्नान का बड़ा माहात्म्य है. लखनऊ वालों के लिए उनकी गोमती या गोमा ही गंगा है. कार्तिक पूर्णिमा पर यहां गोमती-स्नान होता है. स्नान हो और मेला न लगे, ऐसा कैसे हो सकता है! कतकी मेला अर्थात कार्तिक पूर्णिमा पर लगने वाला मेला धार्मिक नहीं, लखनऊ की विशिष्ट सांस्कृतिक पहचानों में एक है.

गोमती के किनारे बांस मंडी, सूरजकुण्ड, मूंगफली मंडी से सिटी स्टेशन के इर्द-गिर्द सैकड़ों साल से कतकी का मेला लगता आ रहा है. यातायात-समस्या के कारण प्रशासन ने पिछले साल से इसे झूलेलाल घाट की तरफ स्थानांतरित कर दिया है. यह लखनऊ के उन चंद मेलों में है जिसका स्वरूप वर्षों से लोक-शिल्प एवं सांस्कृतिक बना हुआ है. राजधानी के विस्तार के साथ अनेक गांव लखनऊ शहर में समा गए लेकिन आज भी बचे-खुचे गांव महीनों पहले से कतकी मेले के लिए अपने विशिष्ट शिल्प और कला-कौशल को सहेजने में लग जाते हैं.

मेले में मिट्टी के खिलौने, बर्तन, मूर्तियां, कलाकृतियां, कांच का विविध सामान, लकड़ी के खिलौनों से लेकर तरह-तरह की वस्तुएं, लोहे के बर्तन-औजार, घरेलू सामान, मसाले, जाड़ों का बिस्तर, नई-पुरानी काट के कपड़े और भी जाने क्या-क्या उपलब्ध होता है. वह सब भी जो शहरी जीवन से गायब होता जा रहा है, मेले में जनता को अपनी याद दिलाने को आता है. बच्चों के खिलौने और महिलाओं की पसंद की विविध सामग्री के बिना तो खैर मेला पूरा हो ही नहीं सकता. यही बात लखनवी चाट, कुल्फी, मक्खन-मलाई, मिठाइयों और झूलों-चरखियों, बाजों, आदि के लिए कही जाएगी. और हां, तमाशे भी मेले में मिलेंगे- बंदर नचाने वाला हो या रस्सी पर कलाबाजियां करती बालिका, बंदूक से गुब्बारों पर निशाना लगाना हो या बिसातखाने के ठेले पर चक्का फेंकना, मेले में सब मनोरंजन और खर्चने-कमाने के लिए दूर-दूर से आते हैं.     

स्नान तो पूर्णिमा के दिन निपट जाता है लेकिन मेला लम्बा चलता है- लगभग महीने भर. खूब भीड़ जुटती है. मेले का आनंद अधिकतर गरीब-गुरबे और निम्न मध्य वर्ग के लोग लेते हैं लेकिन कतकी मेले में शहरी मध्य और उच्च वर्ग के लोग भी दुर्लभ होती पुरानी शैली की सामग्री खरीदने पहुंचते हैं. फोकअब नया फैशन-फण्डा जो है.

कतकी मेले की चर्चा के साथ लखनऊ के कई और विशिष्ट मेलों की याद आती है. जेठ के बड़े मंगल तो अब भण्डारे लगाकर ओछे वैभव-प्रदर्शन के निमित्त बन गए हैं लेकिन पहले जब जेठ का पहला मंगल ही बड़ा मंगल माना जाता था,  तब अलीगंज के नए-पुराने हनुमान मंदिरों को जाने वाले रास्ते बड़े मंगल के मेलेके लिए ख्यात थे. अलीगंज की संकरी सड़कों के किनारे मेला सजता था और हनुमान जी के दर्शन करके लौटते लोगों के लिए बड़े आकर्षण का केंद्र होता था. यह मेला आज भी लगता है लेकिन भण्डारों की होड़ में वह खो गया है. अति-साधारण चीजों का यह मेला पूरी ग्रामीण छाप में होता है और संकरी सड़क के दोनों तरफ पर छोटी-छोटी पटरियों पर सजता है.

सावन में लगने वाला बुद्धेश्वर का मेला यूं तो सोमवार को बुद्धेश्वर महादेव की आराधना से जुड़ा है लेकिन वह पूरे सावन मास लगा रहता है. मेले में संगीत भी होता है और खेल-तमाशा भी. कभी कुश्ती समेत खेल-कूद भी. तरह-तरह की खरीदारी तो चलती ही रहती है. कतकी मेले की तरह बुद्धेश्वर मेला भी डेढ-दो किमी के दायरे में करीब एक मास चलता है.

होली के बाद अष्टमी को लगने वाला शीतलाष्टमी या आठों का मेला लखनऊ का बहुत पुराना मेला है जो  मेहंदीगंज के शीतला देवी मंदिर के इर्द-गिर्द लगता है. शीतला देवी को बसौढ़ा’ (बासी पकवान) का भोग लगाया जाता है. कहा जाता है कि इस दिन होली में बने सभी पकवान खत्म करने होते हैं. अनुमान किया जा सकता है कि बढ़ती गर्मी में बासी पकवान बीमारियों का कारण न बनें, इसलिए उन्हें आठ दिन के भीतर निपटा देने के लिए यह परम्परा बनी होगी. देवी को बासी पकवानों का भोग चढ़ाने का और क्या कारण होगा? बहरहाल, यह मेला भी लखनऊ का लोकप्रिय मेला है. यहां बच्चों-महिलाओं के कौतुक की कई सामग्री मिलती हैं. नव-विवाहित दम्पति शीतला माई का आर्शीवाद लेने विशेष रूप से मंदिर में आते हैं और मेले का आनन्द लेते हैं.

बक्शी का तालाब के ग्राम कटवारा के चंद्रिका माई मंदिर में अब तो साल भर मेले का दृश्य रहता है लेकिन अमावस्या और नवरात्रों में यहां बहुत बड़ा मेला बहुत पुराने जमाने से जुटता है. महिलाओं की टिकुली-बंदी-चूड़ी- माला, बच्चों के खिलौनों, कपड़ों, लोहे के बर्तन, किसानी के औजार और जड़ी-बूटियों तक हर चीज मेले में खूब खरीदी-बेची जाती है. टोने-टोटके भी खूब उतारे जाते हैं. मेले का गंवई स्वरूप खूब खिलता है.  

ईद-उल-फित्र के अगले दिन लगने वाला टर का मेलाअपने नाम में ही नहीं अपनी प्रकृति में भी अनूठा है. मेले का आनंद सभी उठाते हैं लेकिन मूलत: यह बच्चों का मेला है जो ईदी खर्च करने की उनकी उन्मुक्तता से जुड़ा है. लखनऊ का चिड़ियाघर ईद के दूसरे दिन सुबह से देर शाम तक बच्चों की मस्ती और हुड़दंग से गुलजार रहता है. चिड़ियाघर को जाने वाली सड़कों पर मेले के विविध रंग बिखरे होते हैं. सबसे ज़्यादा आनंद और उत्साह में बच्चे होते है जो पहले दिन परिवार के बड़ों से मिली ईदीकी रकम मनमाने ढंग से खर्च करने को लालायित रहते हैं. इसमें बड़ों की कोई टोका-टाकी नहीं होती. पता नहीं इसे टर’ (या टर्र ?) का मेला क्यों कहा जाता है. क्या बच्चों की निरंतर टर्र-टर्रके कारण? यह भी पता नहीं कि यह लखनऊ में चिड़ियाघर में ही क्यों लगता है. वहां तो कोई बाजार नहीं? चिड़ियाघर बच्चों के लिए घूमने, मस्ती करने और पशु-पक्षियों के मनोरंजक संसार में विचरने की जगह है, सम्भवत: इसलिए.  टर का मेलाइलाहाबाद और गोरखपुर समेत कुछ और शहरों में भी लगता है.

नागपंचमी के दिन हुसेनगंज में लगने वाला गुड़िया का मेलाकभी खूब रौनक बटोरता था. लड़कों के गुड़िया पीटने का खूब तमाशा हुआ करता था. वक्त के साथ गुड़िया पीटना कम होता गया और अन्य कारणों से भी मेला बेरौनक हो गया. गुड़िया का मेला लगता आज भी है लेकिन अब नाम को ही रह गया है.

हैदर कैनाल के किनारे होने वाली रामलीला के दिनों में कैण्ट रोड पर हुसेन गंज चौराहे से सदर बाजार तक दशहरे का बहुत भव्य मेला लगा करता था जो दीवाली तक चलता था. यहां खील-बताशे, खिलौने से लेकर चीनी मिट्टी, कांच और मिट्टी के बर्तन, दीवाली का सामान और हर-तरह की सामग्री बिका करती थी. लखनवी शैली के मिट्टी के खिलौने यहां बहुत बड़ी संख्या में बिकने आते थे. सस्ता सामान खरीदने के लिए लोग साल भर इस मेले का इंतजार करते थे. अब यह मेला बिल्कुल सिकुड़ गया है. इसी तरह रक्षा बंधन की शाम सदर बाज़ार में लगने वाला मेला भी उजड़ चुका है.

1975-76 में शुरू हुआ लखनऊ महोत्सवअब यहां के बड़े और आधुनिक मेलों में गिना जाने लगा है. जहां दूसरे स्वत:-स्फूर्त मेलों का स्वरूप गंवई होता है, वहीं सरकारी संरक्षण में भारी-भरकम बजट से आयोजित होने वाला लखनऊ महोत्सव भव्य शहराती मेला बन गया है, जहां आम आदमी कम, राजधानी का मध्य एवं उच्च वर्ग तथा सरकारी अमला अवधी फूड’, ‘हैंडीक्राफ्ट्स और  फोक आर्टके साथ  मुम्बइया चकाचौंध में डूबता-उतराता है.

लखनऊ के उत्तराखण्डी समाज का उत्तरायणी मेलापिछले एक दशक से लखनऊ के चर्चित मेलों में गिना जाने लगा है. मकर संक्रांति पर गोमती किनारे गोविन्द बल्लभ पंत सांस्कृतिक उपवनमें दस दिन तक चलने वाला उत्तरायणी मेलाउत्तराखण्ड की लोक-संस्कृति और कलाओं के प्रदर्शन से लेकर वहां के विशिष्ट खान-पान, और हस्त-शिल्प, आदि की उपलब्धता के लिए प्रसिद्ध हो चुका है. इसी तर्ज़ पर उत्तराखण्ड महोत्सवभी नवम्बर मास में आयोजित होता है.

लखनऊ के प्राचीन मेले यहां की सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता और गंगा-जमुनी तहज़ीब के परिचायक रहे हैं. प्राचीन मेलों को नवाबी दौर में सांस्कृतिक प्रश्रय भी मिला. मूलत: धार्मिक स्वरूप वाले मेले भी कालांतर में सामाजिक-सांस्कृतिक और मिली-जुली संस्कृति के प्रतीक बन गए. समाज की आर्थिक गतिविधि के केंद्र भी वे बनते गए. हर वर्ग की उनमें सक्रिय भागीदारी हो गई. इस तरह वर्ग-विशेष के मेले पूरे समाज के मेले बन गए.
आज के दौर की पीढ़ी अपने प्राचीन मेलों से कट गई है. हमारे अभिभावक हमें मेलों में घुमाना अपना आवश्यक कर्तव्य समझते थे. आज के माता-पिताओं की नई जीवन-शैली पुराने मेलों को देहाती मेलेमानने लगी. नई पीढ़ी को वे वह जीवन-स्पंदन नहीं सौंप पाए जो इन मेलों में धड़कता है. लखनऊ महोत्सव में फनढूंढने वाली पीढ़ी जीवन के इस आनन्द-मेलों से और अपनी जमीन से भी कटती गई है.  

आम जनता के मेले आज भी लगते हैं. अपनी जमीन से जुड़े बहुत सारे लोग वहां जुटते हैं और जीवन का आनंद-राग, कला-कौशल और माटी की महक पाकर खिलखिलाते हैं. ये मेले मीडिया की सुर्खियां नहीं बनते किंतु आम जन की जिह्वा पार उनके चटखारे-चरचे रहते हैं.     
     
(नभाटा, लखनऊ, 10 नवम्बर, 2019)

   

Saturday, November 09, 2019

वातावरण से ज़्यादा दिमागों में है प्रदूषण



अपनी बेटी का जन्म दिन मनाकर सपरिवार घर लौट रहे एक डॉक्टर को कुछ लड़कों ने पीट दिया. परिवार के साथ दुर्व्यवहार किया. डॉक्टर का दोष सिर्फ इतना बताया जा रहा है कि उसने पीछे से आती लड़कों की गाड़ी को पास देने में देर कर दी. इससे गुस्साए लड़कों ने पहले डॉक्टर की गाड़ी में ठोकर मारी, फिर उनकी पिटाई कर दी. ये आज के नवयुवक हैं जो नशा करके सड़कों पर मस्ती कर रहे थे.

यह मस्तीनहीं है, दिमागी प्रदूषण है, जो सिर चढ़कर बोल रहा है. अपवाद स्वरूप एक-दो किस्से नहीं हैं. आए दिन ऐसी घटनाएं सुनने को मिलती हैं. बहुत सारे लोग इसके भुक्तभोगी हैं. मनचाही आइसक्रीम नहीं मिली तो वे दुकानदार को पीट देते हैं. बर्गर के ऑर्डर में देरी होने या किसी और को पहले दे देने पर वे वेटर की ठुकाई कर देते हैं. एक डिलीवरी बॉय को इसलिए लहूलुहान कर दिया गया कि उसने पैकेट देने से पहले बिल पकड़ा दिया. सामान ले लिया मगर भुगतान नहीं किया. रात दस बाद बंद बीयर बार का शटर नहीं खोलने पर सरे बाजार गोली चला दी गई.

प्रदूषण सिर्फ हवा-पानी यानी हमारे वातावरण में नहीं होता. वह हमारे दिमागों में होता है. वास्तव में, दिमागों में ही ज़्यादा होता है. दिमागों से ही चारों तरफ फैलता है. हवा-पानी का प्रदूषण कम-ज़्यादा हो सकता है. वह दूर हो सकता है. दिमागों का प्रदूषण कैसे दूर होगा?

नव-उदारवाद ने एक ऐसा वर्ग पैदा किया है जिसके पांव और दिमाग ज़मीन पर नहीं हैं. न उसे मानव-इतिहास से मतलब है, न वर्तमान की समस्याओं से और न उसके भविष्य की तनिक भी चिंता है. यह धरती और इसके संसाधन सिर्फ उनके लिए हैं और उनके जीवन तक सीमित हैं. सड़क भी उनके लिए है और बाज़ार भी. दूसरे उनकी राह का कांटा हैं. यह सिर्फ उस नशे का प्रभाव नहीं है जो वे शौकिया करते हैं. यह नशा उनके लालन-पालन के साथ उनके दिमाग पर चढ़ा है. चढ़ता ही जा रहा है.

यही वर्ग है जो खतरनाक वायु-प्रदूषण के बीच भयानक आवाज़ और धुंआ वाले पटाखे फोड़ता है. फिर गर्व से गर्दन टेढ़ी कर इतराता है. महंगी गाड़ियां खरीदता है और सड़कों पर इस तरह फर्रटा भरता है कि फुटपाथ पर सोए गरीब-गुरबे चीटीं की तरह कुचले जाते हैं. यह बयान उनके लिए अत्यंत स्वाभाविक है कि फुटपाथ पर सोएंगे तो और क्या होगा, वह कोई सोने की जगह है!  किसी को भी ठोकर मार देना, कुचल देना और गाली-गलौज करना या राह चलती लड़की को उठा लेना उनके लिए फ़नहै.

लेट्स हैव सम फ़नवाले इस वर्ग को पूंजी और प्रभाव के कारण सत्ता-प्रतिष्ठान का संरक्षण प्राप्त होता है. धन-दौलत और बाहुबल की ओर सत्ता स्वयं खिंची चली जाती है. नए दौर में यही वर्ग राजनीति को भी नियंत्रित कर रहा है. उत्पीड़न के तमाम मामले गवाह हैं कि प्रशासन इसी वर्ग की तरफ झुकता है. वह न्याय-प्रक्रिया को भी प्रभावित करने की क्षमता रखता है. उत्पीड़ित गरीब-गुरबों या निम्न मध्य वर्ग की सुनवाई नहीं हो पाती या प्रक्रिया इतनी विलम्बित कर दी जाती है कि वह टूट जाता है.

नव-उदारवाद ने हमारी शासन-व्यवस्था का जन-कल्याणकारी स्वरूप समाप्त कर दिया है. नया स्वरूप प्रभु वर्ग के लिए कहीं अधिक कल्याणकारी है. परिवर्तन के लिए आवाज़ बुलंद करने की बजाय नई पीढ़ी का बड़ा हिस्सा इसी प्रभु वर्ग में शामिल होने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तत्पर है. इस पीढ़ी का दिमाग ज़मीन पर ला सकने वाले नेता आज नहीं हैं. साहित्यिक-सांस्कृतिक नेतृत्व का भी सन्नाटा है. यह सचमुच कठिन समय है.     
(सिटी तमाशा, नभाटा, 09 नवम्बर, 2019)