Wednesday, September 28, 2016

पत्रकारिता के अंधेरे में ‘नैनीताल समाचार’ का होना

बदलते परिदृश्य पर एक सरसरी नजर
नवीन जोशी
सन 1977 में जब हमने लखनऊ के स्वतंत्र भारत से पत्रकारिता की शुरुआत की तब सम्वाददाताओं को दफ्तर की तरफ से छोटी-सी नोट बुक और कलम मिला करते थे. इसी नोट बुक में वे प्रेस कॉन्फ्रेस और अन्य खबरें नोट किया करते थे. एक दिन हमारे एक वरिष्ठ सम्वाददाता किसी प्रेस कॉन्फ्रेंस से बढ़िया नोट बुक और कलम लेकर आए जो सम्बद्ध पार्टी ने पत्रकारों को बांटे थे. स्वतंत्र भारत के हम युवा पत्रकारों की टीम ने उस दिन इस पर आपत्ति जताई थी. हमने बहस की थी कि किसी भी रिपोर्टर के लिए प्रेस वार्ता करने वाले पक्ष से नोट बुक और पेन लेना नैतिक रूप से गलत है. अखबार इसके लिए अपनी नोट बुक और पेन देता है. प्रेस कॉन्फ्रेंस में चाय-नाश्ता, सिगरेट, वगैरह पेश करना आम बात थी लेकिन कई पत्रकार इसे ठीक नहीं समझते थे और ग्रहण नहीं करते थे. सिगरेट की डिब्बी और काजू जेब में रख ले जाने वाले रिपोर्टर भी होते ही थे जिनका मजाक बनाया जाता था.
आपातकाल के बाद का वह दौर अखबारों (तब भारत में न्यूज चैनल, इंटरनेट नहीं थे) के विस्तार का भी था. मालिकों-सम्पादकों-पत्रकारों की पुरानी पीढ़ी के जाने और नई के उभरने का भी यही समय था. इसी तरह राजनीति और प्रशासन में नई पीढ़ी कब्जा जमा रही थी (याद कीजिए, संजय गांधी और उनकी टीम के तेवर) आजादी के समय से चले आ रहे जीवन मूल्य, नैतिकता, ईमानदारी, सामाजिक सरोकार, वगैरह बदल रहे थे. उनकी नई परिभाषा गढ़ी जा रही थी. प्रेस वार्ता में पेन-पैड ही नहीं, महंगे गिफ्ट बांटे जाने लगे थे और पत्रकारों में उन्हें लपकने की होड़ मचनी शुरू हो गई थी. रात को दारू-मुर्गा पार्टियां आम हो गई थीं. विधान सभा सत्र के दौरान अपने भाषण छपवाने के लिए मंत्री-विधायक चुनिंदा पत्रकारों को खाने-पीने की दावतें देने लगे थे. मुझे याद है सन 1983 में लखनऊ के सस्ते गल्ले के (कण्ट्रोल) दुकानदारों ने अपनी समस्याओं के बारे में प्रेस वार्ता की तो दो-दो किलो चीनी के थैले पत्रकारों को बांटे थे (उन दिनों खुले बाजार में चीनी ज्यादा महंगी थी) तब प्रसिद्ध फोटो-पत्रकार सत्यपाल प्रेमी रिपोर्टरों से तंज में कहा करते थे कि कल सुअर पालकों की प्रेस वार्ता है, गिफ्ट में चार-चार पिल्ले दिए जाएंगे. जरूर आना!
मतलब यह कि 1980 के दशक से पत्रकारिता में शुचिता और नैतिकता के मूल्य तेजी से गायब होने लगे थे. धोती-कुर्ता धारी बूढ़े सम्पादकों का स्थान लेने वाले टाई-सूट में सुसज्जित युवा सम्पादकों में कई सरकार और निजी क्षेत्र से मालिकों के हित साधने में ज्यादा दिलचस्पी लेने लगे थे. पहले इस काम के लिए संस्थानों में कुछ खास रिपोर्टर रखे जाते थे. सम्पादकों का काम मुख्यत: लेखन-सम्पादन और अखबार का स्तर बनाए रखना होता था. मगर अब भूमिकाएं बदल रही थीं.
लेकिन जो शोचनीय स्थितियां आज यानी 2016 में हैं उनकी तुलना में बीसवीं सदी के अंत तक भी हालात बहुत अच्छे थे. पत्रकारिता के मूल्यों और प्रतिबद्ध सम्पादकों-पत्रकारों की जगह भी बनी हुई थी. संस्थान से लेकर सरकार तक वे सम्मान की नजर से देखे जाते थे. अखबारों को भी अच्छा लिखने, और अच्छी छवि वाले पत्रकारों की जरूरत रहती थी. उनके लिए कहा जाता था- अरे, वे उस तरह के सम्पादक नहीं हैं. आज जो उस तरह के नहीं हैं उनका मीडिया में टिक पाना मुश्किल हो गया है. अपवाद अवश्य हैं लेकिन वे भारी दवाब में रहते हैं. खरी-खरी और बेबाक लिखने वाले पत्रकार-सम्पादक संस्थान विरोधी माने जाते हैं. उनसे सबसे पहली अपेक्षा यह की जाती है कि वह संस्थान के मुनाफे की चिंता करेंगे. सत्य को उद्घाटित करने या कोई भण्डाफोड़ करने की बजाय उसे संस्थान हित में भुनाएंगे और उसे पत्रकारिता का खूबसूरत मुखौटा पहनाएंगे. सम्पादकों को आज मुख्यमंत्रियों/मंत्रियों/ वरिष्ठ अफसरों का करीबी होना पड़ता है. उनकी योग्यता इससे आंकी जाती है कि उनके कितने नेताओं से कैसे सम्बंध हैं, मुख्यमंत्री से सीधे और तुरन्त मिल सकते हैं या नहीं, उनसे संस्थान का कोई प्रस्ताव तुरंत स्वीकृत करवा सकते हैं या नहीं. महंगे गिफ्ट, पंचतारा होटलों की दावतें, विदेश यात्राएं, जैसे प्रलोभन पत्रकारों के लिए अब आम हैं और इसे कोई नैतिकता से जोड़ता भी नहीं. परिभाषाएं पूरी तरह बदल गई हैं.
बहरहाल, 1977 में हम युवा थे. उत्साह, जोश और सपनों से भरे हुए. दूसरी आजादी के नारे हवा में थे और जे पी (जय प्रकाश नारायण) का नेतृत्व बहुत उम्मीदें जगा रहा था जिन्होंने मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार को गांधीजी की समाधि पर खड़ा कर के राजनीति और प्रशासन में सार्थक बदलाव लाने की शपथ दिलवाई थी. देश में जगह-जगह अपनी जीवन स्थितियों को बेहतर बनाने के लिए आंदोलन चल रहे थे और उनमें युवाओं की जबर्दस्त भागीदारी थी. पत्रकारिता हमें इस बदलाव को देखने, जांचने और उसकी समीक्षा करते हुए उसमें शामिल होने का बेहतरीन माध्यम लगती थी. इसीलिए मैं एम ए करके पहाड़ में मास्टरी करने का सपना भूल कर पूरी तरह पत्रकारिता में रम गया था. उम्मीदें बहुत जल्दी-जल्दी टूट भी रही थीं, इसलिए पत्रकारिता और भी जरूरी लगती थी.
उत्तराखण्ड में चिपको (वन ) आंदोलन पूरे जोर पर था. जिस जोश और गुस्से के साथ महिलाएं और युवा विशेष रूप से उस आंदोलन में शामिल थे, उसमें हम पूरे पहाड़ की व्यवस्था के बदल जाने की उम्मीदें देखते थे और अखबारों में इसी आशय के लेख लिखा करते थे. अगस्त, 1977 से “नैनीताल समाचार का प्रकाशन हमें लखनऊ में भी नए उत्साह और ऊर्जा से भर गया था. मैंने नै स के दूसरे अंक से ही प्रवासी पहाड़ी की डायरी लिखना शुरू किया. समाचार के अंकों का बेसब्री से इंतजार रहता था और अंक मिलते ही सुझावों और तीखी प्रतिक्रियाओं का दौर शुरू हो जाता था.
स्वतंत्र भारत में हम नौकरी करते थे. सम्पादक के रूप में अशोक जी इतने प्रभावशाली थे कि हमें उनके अलावा और किसी से कोई मतलब नहीं होता था. तो भी, यह अहसास रहता था कि हमारा एक मालिक है. नै स के हम खुद मालिकनुमा थे और मालिक-सम्पादक नामधारी राजीव से कुछ भी कह-सुन सकते थे, और झगड़ा कर सकते थे. स्वतंत्र भारत में हमें सिखाया जाता था कि चिकोटी काटो, बकोटा नहीं लेकिन नै स में शब्दों की तलवारें भांज सकते थे, किसी की भी चीर-फाड़ ही नहीं, ऐसी-तैसी करने को भी आजाद महसूस करते थे. प्रदेश में तब जनता पार्टी की सरकार थी और उसके वन मंत्री श्री चंद को श्री चंठ बना कर क्या कुछ नहीं लिखा! कुछेक बार जोश और गुस्से में नादानियां भी कीं. अपुष्ट और आधी-अधूरी जानकारियों के आधार कुछ भी लिख डाला. समाचार की जागरूक टीम से पलट कर डांट भी पड़ी.
नै स के दफ्तर में, जो तब बहुत जीवंत और खुला वैचारिक अड्डा था, हर खबर, टिप्पणी और घटनाक्रम पर लम्बी बहस चला करती थी. हर चीज की चीर-फाड़ होती थी. अपने निराले ही अंदाज में मेरी भी सुन ली जाए, भले मानी न जाए कहने वाले गिर्दा, आम तौर शांत लेकिन कभी-कभी भड़क जाने वाले व्यावहारिक भगत दा, अध्ययन और घुमक्कड़ी से सदा अद्यतन शेखर दा, सबकी सुनने को मजबूर-जैसे सम्पादक राजीव, बीच-बीच में गर्म छौंक लगा जाने वाले हरीश दाढ़ी, (इस केंन्द्रीय टीम में लोग जुड़ते और जाते भी रहे) और भी नैनीताल आवत-जावत संगी साथियों की मण्डली एक-एक अंक की प्लानिंग में इतना डूबी रहती कि अंक ही संकट में पड़ जाता. अथक विचार-मंथन से किसी तरह अंक पास हुआ भी तो ट्रेडिल मशीन की छपाई में असम्भव को सम्भव बनाने में अक्षर जुड़ान-छपान वाली टीम के पसीने छूट जाते. मगर जब अखबार छप कर आता तो लगता कि कुछ ऐसा काम हुआ है जो शायद और कहीं नहीं हो पा रहा, कि हां, पत्रकारिता का यही तो दायित्व है. एक संतोष-सा भर जाता. फिर भी एक असंतोष बना रहता और वह बेचैनी अगले अंक की प्रसव पीड़ा जैसी होती.
आज 39 साल पीछे मुड कर देखने पर भी लगता है कि हां, नै स ने जिम्मेदार पत्रकारिता की भूमिका बखूबी निभाई. प्रारम्भिक वर्षों में तो उसके तेवर कई बार दुस्साहस की हद तक और रोंगटे खड़े करने वाले रहे. तवाघाट और कर्मीं जैसे भूस्खलन हों, या उत्तरकाशी से ऊपर अलकनंदा में झील बनने और फिर उसके टूटने से मची तबाही हो, पंतनगर का गोली काण्ड हो या अल्मोड़ा मैग्नेसाइट की हड़ताल, शैले हॉल में वनों की नीलामी रोकने का आंदोलन रहा हो या उसके बाद लगभग पूरे उत्तराखण्ड में पुलिसिया दमन, नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन की पहाड़ व्यापी कवरेज हो अथवा तराई के विस्थापितों के दुख-दर्दों की रपटें, नै स की टीम ने जान खतरे में डाल कर, यथासम्भव शीघ्र घटना स्थल पर पहुंच कर जो आंखों देखी रिपोर्टिंग की और जिस अंदाज में उन्हें पेश किया, वैसा हमारे समय की पत्रकारिता में दुर्लभ ही कहा जाएगा. इन रपटों को पत्रकारों की नई पीढ़ी को अवश्य देखना चाहिए. जनमुखी पत्रकारिता का अगर कोई पाठ्यक्रम बने तो इन्हें उसका हिस्सा भी अनिवार्य रूप से होना चाहिए. उन रपटों में पत्रकारिता के स्थापित मानकों का उल्लंघन भी कई बार हुआ होगा लेकिन यह विश्लेषण का विषय होगा कि ऐसा क्यों हुआ और ऐसा होने से रिपोर्ट को जो तेवर मिले, जनहित में वे कितने जरूरी थे. नै स की इस तेवरदार पत्रकारिता का बीच के वर्षों में भले लोप हो गया हो, लेकिन वह धारा मौजूद थी और उत्तराखण्ड आंदोलन में वह सर्वथा नए रूप और साहस के साथ प्रकट हुई. उस दौर का उत्तराखण्ड बुलेटिन और गिर्दा का उत्तराखण्ड काव्य सहमी-डरी जनता को सूचना, समाचार विश्लेषण और हिम्मत देने वाली वाचिक पत्रकारिता के नायाब नमूने हैं.
नै स ने पहली बार सम्पूर्ण उत्तराखण्ड को एक समाचार-इकाई के रूप में देखा. जब तथाकथित बड़े अखबार हर जिले के अलग-अलग संस्करण निकाल कर एक जिले के पाठकों को दूसरे इलाके की खबरों से वंचित कर रहे थे तब नै स ने पूरे उत्तराखण्ड की खबरें एक साथ परोसने का जरूरी काम किया और दूसरे अखबारों को भी राह दिखाई. वह रूढ़ अर्थों में समाचार पत्र कभी नहीं रहा. जरूरी खबरों तथा घटनाओं के अंदरूनी, गोपनीय पक्ष को उजागर करने के साथ नै स उत्तराखण्ड के इतिहास, पुरातत्व, जल-जंगल-जमीन और खनिज की लूट, पलायन और प्रवास, विकास के नाम पर कच्चे पहाड़ के विनाश, राजनीतिकों के दोहरे चरित्र, प्रशासनिक तंत्र का अमानवीय चेहरा उजागर करने का काम करता रहा है. जरूरत पड़ने पर न्यायालय को भी कटघरे में खड़ा करने का अत्यंत साहसिक काम उसने किया है, जिसकी भूमिका पर, चंद अपवादों को छोड़कर, मीडिया चुप ही रहता आया है.
ऐसे अनेक कारण हैं कि नै स अपनी सीमित प्रसार संख्या के बावजूद प्रभावशाली माना जाता है और महत्वपूर्ण हस्तक्षेप करता है. इसीलिए जब-जब मुख्यत: आर्थिक संकट के कारण उसके बंद होने की नौबत आई या कुछ समय के लिए उसे स्थगित किया गया, हर तरफ से उसे चलाए रखने की अपीलें हुईं और मदद भी पहुंची. जिसने भी नै स पढ़ा है, अंधेरे में एक रोशनी की वह उसे तरह जरूरी लगता है, क्योंकि आज की पत्रकारिता कतई भरोसेमंद नहीं रह गई. सच का मुंह स्वर्ण पात्र से ढका है और आज पत्रकारिता सच का अन्वेषण भूल कर स्वर्ण पात्र की दीवानी हो गई है.

इस सच के बावजूद कि नै स हमारे समय का रांख (छिलुकों का मुट्ठा, जिसे जलाकर पहाड़ के लोग घने अंधेरे में भी रास्ता पार करते आए हैं) या मशाल है, उसे इसी तरह बनाए और चलाए रखना बहुत दिनों तक व्यावहारिक नहीं होगा जब तक कि उसे नई संकल्पवान टीम नहीं मिले. संसाधन तो जैसे-तैसे जुट जाएंगे लेकिन विचार, तेवर और समर्पण वाली टीम कहां से आएगी? पुरानी टीम के उम्र से भी चुकने का समय आ रहा है. यह संकट सिर्फ नैनीताल समाचार का नहीं पहाड़ और दूसरी ऐसी संस्थाओं/संगठनों के सामने भी है. उन्हें नए संवाहक चाहिए. तभी विचार, तेवर और जनमुखी पत्रकारिता की यह धारा प्रवहमान रह पाएगी. 
(नैनीताल समाचार, 15 अगस्त-30 सितम्बर 2016)
http://www.nainitalsamachar.com/patrakarita-ke-andhere-mein-nainital-samachar-ka-hona/

अति उत्साही गोरक्षकों का अत्याचार बढ़ता ही गया

दादरी में अखलाक की हत्या का एक वर्ष

नवीन जोशी
28 सितम्बर, 2015. उत्तर प्रदेश के दादरी इलाके का बिसाहड़ा गांव. शाम को पास के एक मंदिर के लाउडस्पीकर से कोई घोषणा करता है कि “बकरीद के मौके पर मुहम्मद इखलाक के परिवार ने गाय की हत्या की है और गोमांस खाया है. अब भी उसके घर में गोमांस रखा है.” थोड़ी देर बाद लाठी-सरिया से लैस भीड़ मोहम्मद अखलाक के घर धावा बोलती है. करीब 50 साल के अखलाक की इतनी पिटाई होती है कि उसकी जान चली जाती है. उसके 20 साल के बेटे दानिश को गम्भीर हालत में अस्पताल में भर्ती कराना पड़ता है. उसकी पत्नी और बूढ़ी मां को भी नहीं बख्सा जाता.
गोहत्या के शक में इखलाक की हत्या देश-विदेश के मीडिया की सुर्खियां बनता है. “बीफ” खाने की आजादी और गोवध कानून पर सख्ती से अमल की तीखी बहसें ड्रॉइंग रूम से लेकर सोशल साइटों पर छा जाती हैं. सेकुलर या बहुलतावाद के समर्थक इस हत्या को तर्कवादियों एम कलबुर्गी, नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे की हत्याओं से जोड़कर मोदी सरकार में बढ़ती “असहिष्णुता” और “अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश” के खिलाफ सड़कों पर उतर आते हैं.
विभिन्न भाषाओं के साहित्यकारों, रंगकर्मियों, इतिहासकारों, फिल्मकारों-कलाकारों, विज्ञानियों, आदि-आदि के सामूहिक सम्मान/पुरस्कार वापसी, संस्थानों से इस्तीफों और प्रदर्शनों से अभूतपूर्व प्रतिरोध होता है. इसके मुकाबले सरकार समर्थकों का जमावड़ा भी लगता है.
लेकिन धीरे-धीरे यह प्रतिरोध ठंडा पड़ने लगता है. जो मुद्दा शांत नहीं होता, वह है अखलाक की हत्या का कारण या बहाना – गोहत्या और गोमांस खाने के आरोप.
अखलाक की हत्या के ठीक एक साल बाद हम पाते हैं कि “गोहत्या का विवाद और भी हिंसक रूप लेता जा रहा है. साल भर में इसी आरोप में “गोरक्षकों” के हाथों कम से कम तीन लोगों की हत्या हो चुकी है और दर्जनों लोग निर्मम पिटाई का शिकार हुए हैं. जगह-जगह रातों रात “गोरक्षक”, “गोसेवक” और उनकी समितियां उग आई हैं. अकेले दादरी इलाके में ही दर्जनों “गोरक्षक समितियों” का पता चला है और उनके “अभियानों, “छापोंसे होने वाली झड़पों की खबरें आती रहती हैं. इन तथाकथित “गोरक्षकों” के हमलों का शिकार दलित और मुस्लिम हो रहे हैं. मरे जानवरों की खाल उतारते दलितों पर गोहत्या का आरोप लगाया जाता है. मुसलमानों पर “गोमांस” खाने का आरोप लगाना बहुत आसान है. जम्मू-कश्मीर के एक निर्दल विधायक पर “बीफ-पार्टी” करने का आरोप लगा कर भारी हंगामा किया गया था.
अक्टूबर 2015 में दिल्ली के केरल हाउस में “बीफ” परोसे जाने की शिकायत के बाद वहां पुलिस के छापे से लेकर जुलाई 2016 में गुजरात के उणा कस्बे में गोहत्या के आरोप में दलित युवकों को नंगा कर लोहे की रॉड से पीटे जाने तक पूरे देश में, विशेष रूप से उत्तर भारत में हिन्दूवादी संगठनों की ज्यादातियों के इतने मामले सामने आए हैं कि  भारतीय जनता पार्टी को इसके राजनीतिक दुष्परिणाम का डर सताने लगा है. तभी तो अखलाक की हत्या की निंदा करने की मांग के बावजूद चुप रहते आए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने करीब ग्यारह महीने बाद अपनी चुप्पी तोड़ी और अधिसंख्य गोरक्षकों को “असामाजिक” और “फर्जी” बताया. उन्हें यहां तक कहना पड़ा कि 80 फीसदी “गोरक्षक” फर्जी हैं जो रात में अवैध काम करते हैं और दिन में गोरक्षा के नाम पर अपनी दुकानें चलाते हैं.
प्रधानमंत्री की इस तीखी प्रतिक्रिया  के स्पष्ट कारण हैं. पिछले एक वर्ष में गुजरात, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और झारखण्ड से लेकर सुदूर मणिपुर और जम्मू-कश्मीर तक तथाकथित “गोरक्षकों” के अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं और बड़ा राजनीतिक नुकसान साफ दिखाई दे रहा है.
अखलाक की हत्या के वक्त भाजपा नेताओं की प्रतिक्रियाएं निंदात्मक नहीं थीं.  केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था- “हम यह कैसे स्वीकार कर सकते हैं कि इस देश में गाएं मारी जाएं” और संस्कृति मंत्री महेश शर्मा का बयान था कि “अखलाक की मौत एक दुर्घटना है.”
भाजपा चुनाव में “गौ और गोवंश की रक्षा को बढ़ावा और मजबूती देने” का वादा करती रही है. इसलिए भी अतिउत्साही “गोरक्षकों” पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है. प्रधानमंत्री की निंदा के बावजूद उनके अभियान रुके नहीं हैं.
सच्चाई यह है कि  यू पी और गुजरात समेत कई राज्यों के विधान सभा चुनावों के लिए दलितों का समर्थन हासिल करने के लिए प्रयासरत भाजपा को तथाकथित गोरक्षकों के अत्याचारों के कारण दलितों के व्यापक आक्रोश का सामना करना पड़ा है. “गोमांस” के संदेह पर घरों में छापों, बिरयानी के ठेलों से बोटी के नमूने एकत्र करने, जानवरों को ढो रहे ट्रकों को रोक कर ड्राइवरों की पिटाई जैसे मामले सामने आते रहे हैं. खाल निकालने के लिए मरी गायों को ले जा रहे दलित युवकों पर गुजरात के उणा कस्बे में  जो बर्बर अत्याचार किए गए उसका देशव्यापी विरोध तो हुआ ही, दलितों ने भी बड़े पैमाने पर एकजुटता दिखाई और विरोध प्रदर्शन किए. कई जगह तो दलितों ने मरे जानवरों को उठाने तक से इनकार कर दिया. सुरेंद्र नगर में 80 गायों के शवों को इसी कारण दफनाना पड़ा.
गोहत्या भारत में हमेशा से सम्वेदनशील मुद्दा रहा है. अधिसंख्य राज्यों में गोहत्या निषेध कानून लागू है. केरल, पश्चिम बंगाल और असम को छोड़कर उत्तर-पूर्व के सभी राज्यों में गोहत्या पर रोक नहीं है. आंन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना और असम में “वध योग्य” यानी और किसी भी काम के लिए अनुपयुक्त और बिहार में 15 वर्ष से ऊपर की गाएं मारी जा सकती हैं.
गो हत्या निषेध में गोवंश भी शामिल है जिसमें बछड़े, बैल और सांड़ आते हैं. भैंसें भारत में आधिकारिक रूप से काटी जाती हैं. सच तो यह है कि भैस के मांस यानी बीफ के निर्यात में भारत विश्व में पहले स्थान पर है. वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के अधीन कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ निर्यात विकास प्राधिकरण के अनुसार 1969 में शुरू बीफ का निर्यात 2015-16 में दो खरब 66 अरब 81 करोड़ 56 लाख रु तक पहुंच गया है. भारतीय भैंस का मांस कम वसा और कॉलेस्ट्रॉल के कारण साठ से ज्यादा देशों में काफी पसंद किया जाता है. देश के विभिन्न नगर निकायों में रजिस्टर्ड बूचड़खानों की संख्या चार हजार और गैर-रजिस्टर्ड की संख्या 25 हजार बताई गई है, जो वास्तव में इससे कहीं ज्यादा होगी.
यह भी सच है कि गोहत्या पर कानूनी रोक के बावजूद गोमांस के लिए चोरी-छुपे गोहत्या होती हैं. भैसों के साथ-साथ गोवंश की तस्करी भी होती है. कई प्रभावशाली लोग, हिंदू-मुसलमान दोनों, इस वैध-अवैध धंधे में शामिल हैं, जिन्हें पुलिस का संरक्षण मिलता है.
इस धंधे का धर्म और राजनीति से कोई सम्बंध नहीं है लेकिन केंद्र में भाजपा सरकार के भारी बहुमत से आने के बाद यह धर्म और राजनीति दोनों से जोड़ दिया गया. शांत पड़ीं चंद गोरक्षा समितियां न केवल सक्रिय हो उठीं बल्कि बड़ी संख्या में नई अति उत्साही समितियां खड़ी हो गईं. अखलाक के घर हमला ऐसी ही समितियों की अति सक्रियता का नतीजा था.
हमले के समय अखलाक के घर से “गोमांसभी  “बरामद” किया गया था. प्रारम्भिक जांच में राज्य सकार की लैब ने उसे बकरे का गोश्त बताया लेकिन बाद में मथुरा की सेण्ट्रल फॉरेन्सिक लैब ने उसे “गाय या गोवंश” का मांस बताया. इस रिपोर्ट के आधार पर बिसाहड़ा के कुछ लोग अदालत पहुंचे और कोर्ट के आदेश पर इखलाक के परिवार वालों के खिलाफ 15 जुलाई 2016 को गोवध निषेध कानून में मुकदमा दर्ज किया गया. अखलाक के भाई जान मुहम्मद को छोड़कर बाकी सभी लोगों की गिरफ्तारी पर अदालत ने रोक लगा दी. जान मुहम्मद भी बाहर ही हैं.
अब तक यह साबित नहीं हो सका है कि अखलाक ने गोहत्या की थी. गोहत्या पर रोक के बावजूद गोमांस खाना यूपी में गैर-कानूनी नहीं है.
भारत जैसे बहुलतावादी देश में किसी की रसोई या प्लेट में ताक-झांक करना तथा खान-पान के आधार पर या सिर्फ शक की बिना पर हमले करना कानून अपने हाथ में लेने के अलावा निजी स्वतंत्रता के हनन के दायरे में ही आएगा. 
समाज में बंटवारा बढ़ता जा रहा है. गायों की रक्षा तो नहीं ही हो पा रही.   (बीबीसी.कॉम/हिंदी, 28 सितम्बर, 2016))

  




Sunday, September 25, 2016

सपा के गृह-युद्ध और शांति के कुछ सबक


नवीन जोशी
समाजवादी पार्टी के “गृह-युद्ध” के “मुलायम-समाधान” से आज की चुनावी राजनीति के कुछ सबक सामने आए हैं. चुनाव सामने हैं और एक माहिर खिलाड़ी ने ये कदम उठाए हैं, इसलिए मानना चाहिए कि सबक महत्वपूर्ण हैं.
एक- मुख्यमंत्री की बेहतर छवि से चुनाव नहीं जीता जाता.  वर्ना मुलायम अखिलेश को सबसे लाचार और “जी, पिता जी” वाला कमजोर बेटा क्यों बनाते. युवा अखिलेश सपा के चेहरे को अपनी तरह साफ-सुथरा बनाना चाहते हैं. मुख्यमंत्री के रूप में साढ़े चार साल के कार्यकाल में उन पर कोई व्यक्तिगत दाग नहीं लगा, यह उनके विरोधी भी मानते हैं. लेकिन चुनावी अखाड़े के पहलवान पिताश्री ने इसे ठीक नहीं माना. आरोपों की कमाई जरूरी है.
दो- चुनावी राजनीति और जोड़-तोड़ के लिए अमर सिंह अनिवार्य हैं. तभी तो उन्हें अखिलेश तथा राम गोपाल के भारी विरोध और सार्वजनिक आलोचना के बावजूद  सपा का राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया. शिवपाल भी अत्यंत उपयुक्त हैं. सरकार में बहुत महत्वपूर्ण हैसियत रखने वाले “चाचा” अब पार्टी के प्रदेश अध्य्क्ष भी हो गए हैं. उनकी छवि और कार्यशैली की चर्चा अक्सर होती रहती है. उनके इर्द-गिर्द भांति-भांति के लोगों का जमावड़ा रहता है.  प्रदेश अध्यक्ष नहीं रहते हुए भी संगठन पर उनकी जबर्दस्त पकड़ थी. वे अब जब चाहें मुख्तार अंसारी और उन जैसे अन्य को पार्टी में शामिल करा सकते हैं. रास्ता निष्कंटक है.
तीन – मंत्रियों के खुल्लम-खुल्ला भ्रष्टाचार के कोई मायने नहीं है. शिकायतें, सबूत और जाचें अपनी जगह पड़ी रहें. गायत्री प्रजापति के मामले ने यह डंके की चोट पर बता दिया है. मुख्यमंत्री ने भले उन्हें भ्रष्ट मानते हुए मंत्रिमण्डल से हटाया लेकिन मुलायम और शिवपाल ने उनमें कुछ ऐसा खास देखा है जो सरकार और पार्टी के लिए बहुत जरूरी है. यह खूबी सारे धतकरम छुपा लेती है. एक सुपाठ यह भी कि गायत्री प्रजापति और राज किशोर सिंह होने में बड़ा अन्तर है. राजकिशोर जैसों को अभी और मेहनत करनी होगी.  
चार- समाजवाद को लोहिया के नाम से जोड़ने की गलती नहीं करनी चाहिए. अमर सिंह यूं ही अपने को “मुलायमवादी” नहीं कहते. वे आज की चुनावी राजनीति के सिद्धांतकार हैं. सोशल साइटों पर कुछ दिलजलों ने गायत्री प्रजापति की फोटो लगाकर टिप्पणी की थी- “समाजवाद का नया चेहरा.” उनके किए यह तीखा व्यंग्य था पर बात सच्ची और गम्भीर है. समाजवाद बदल गया है. अब तक सपा में अच्छे समाजवादी रहे आए राजेंद्र चौधरी से चुपचाप पूछ लीजिए, शायद बता दें.  
पांच- अंतिम यह कि सपा अखिलेश के चहरे को आगे कर चुनाव लड़ने की बात भले अब भी करे, लेकिन अखिलेश का कोई चेहरा ही नहीं बचा. इस युवा चेहरे पर कई चेहरे चस्पा हो गए हैं. मुलायम का चेहरा, शिवपाल का चेहरा, अमर सिंह का मुखड़ा और गायत्री का भी. अखिलेश में जनता यही चेहरे देखेगी और सपा को वोट देगी. अखिलेश का अपना चेहरा फिलहाल मिसफिट है, जब तक कि वे पिता और चाचा का चेहरा नहीं पा लेते. विफल हुए तो विकल्प चाचा हैं ही.

राजनीति का यह पुनर्पाठ फिलहाल सपा से निकला है लेकिन समय तथा स्थितियों के अनुसार सभी दलों पर लागू होता है. (नभाटा, 25 सितम्बर, 2016)

Sunday, September 18, 2016

इस कलह के जिम्मेदार खुद मुलायम हैंं


नवीन जोशी
परिवारवारिकराजनीतिक दलों में विरासत की जंग नई बात नहीं है. कांग्रेस इसका अपवाद रही क्योंकि उसमें एक से ज्यादा दावेदार कभी हुए नहीं. नेहरू के बाद इंदिरा उनकी अकेली वारिस थीं. संजय और राहुल गांधी में ठन सकती थी लेकिन बड़े भाई राजीव को राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं थी और उनकी बेगम सोनिया को इससे चिढ़ थी. संजय की अकाल मृत्यु नहीं हुई होती तो राजीव-सोनिया-राहुल-प्रियंका को आज इस रूप में कौन जानता. उनकी अगली पीढ़ी में राहुल और वरुण में विरासत का युद्ध हो सकता था लेकिन उनकी राहें (पार्टियां) पहले ही जुदा हो गईं थीं. चरण सिंह और बीजू पटनायक की पार्टियां भी एकमात्र उत्तराधिकारी के कारण बची रहीं. दक्षिण भारत की घोर पारिवारिक पार्टियों का अंदरूनी सत्ता संग्राम बहुत जाना-पहचाना है. एम जी आर के बाद उनकी राजनीतिक विरासत का युद्ध उनकी पत्नी (जानकी) और फिल्मों की नायिका (जयललिता) में छिड़ा. करुणानिधि के बेटों-बेटियों-पोतों का राजनीतिक युद्ध अब तक चला आ रहा है. बाल ठाकरे की शिव सेना की विरासत के लिए उनके बेटे और भतीजे में रार मची. अपना दलमें सोने लाल पटेल की विरासत के लिए मां-बेटी में जंग चल रही है. 
सो, अगर समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह की राजनीतिक विरासत के लिए मार मची है तो इस पर आश्चर्य कतई नहीं होना चाहिए. आश्चर्य इस बात पर किया जाना चाहिए कि राजनीतिक अखाड़े के उस्ताद मुलायम ने अपनी विरासत का मामला समय रहते बेहतर ढंग से हल करने में चूक क्यों की. उनका परिवार बड़ा है. कई भाई-भतीजे-बहुएं राजनीति में सक्रिय हैं. उन्हें अच्छी तरह पता रहा होगा कि इस बड़े राजनीतिक परिवार में उनका अगला वारिस बनने की महत्वाकांक्षा किस-किस में पल रही है. उन्हें अपनी जगह किसी एक को स्थापित करने से पहले मुकम्मल तैयारी करनी चाहिए थी ताकि युद्ध की स्थिति नहीं आए. उनके इस संकट को उन्हीं का पैदा किया हुआ मानना चाहिए.
मुलायम से अच्छी तरह और कौन जानता था कि उनके छोटे भाई और शुरू से पार्टी तथा परिवार में उनके अभिन्न सहयोगी शिवपाल अपने को उनका पहला उत्तराधिकारी मानते आए हैं. मुलायम अगर इस जगह अपने बेटे अखिलेश को देखना चाहते थे तो उन्हें शिवपाल को धीरे-धीरे इसके लिए तैयार कर लेना चाहिए था. सन 2012 के विधान सभा चुनाव में उन्होंने अखिलेश को प्रमुखता जरूर दी लेकिन उन्हें मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में पेश नहीं किया. बहुमत पा जाने के बाद उन्होंने अखिलेश का नाम मुख्यमंत्री के रूप में अचानक ही पेश कर दिया. शिवपाल इसके लिए कतई तैयार नहीं थे. झगड़ा वहीं से शुरू हो गया था. बीते साढ़े चार साल में इसकी परिणति कई रूपों में देखी गई. मुलायम कभी अखिलेश की और कभी उनके मंत्रियों की सार्वजनिक आलोचना कर शिवपाल को खुश रखने में लगे रहे. इससे अखिलेश अजीबोगरीब स्थिति में पड़े और उनके भीतर आक्रोश जमा होता गया. नतीजा सामने है.
चुनाव करीब हैं. इसलिए यह झगड़ा किसी तरह शांत हो जाएगा. नेता जी की बात पर अभी सुलह हो जाएगी लेकिन चिंगारी भीतर-भीतर सुलगती रहेगी और अवसर पाते ही भड़क उठेगी.  (नभाटा, 18 सितम्बर 2016)