Thursday, February 29, 2024

बच्चों और किशोरों में मोटापा महामारी बन गया है

 

भारत के बच्चे और युवा 'मोटापे की महामारी' की चपेट में आ गए हैं। विज्ञान और स्वास्थ केंद्रित प्रसिद्ध शोध पत्रिका 'द लांसेट' के ताज़ा वैश्विक अध्यय्न में यह चिंताजनक तथ्य सामने आया है। इस रिपोर्ट  के अनुसार भारत के पांच वर्ष से 19 वर्ष तक के एक करोड़ पच्चीस लाख बच्चे, जिनमें 73 लाख लड़के और 52 लाख लड़कियां हैं,अत्यधिक मोटापे के शिकार हैं। उनका वजन बहुत अधिक पाया गया है। सन 1990 के अध्ययन की तुलना में ये आंकड़े बहुत अधिक हैं।

मोटापा बच्चों ही नहीं , बड़ों के लिए भी चिंता का कारण बन गया है। महिलाओं में मोटापा होने की दर 9.8 प्रतिशत पाई गई है, जबकि 1990 में यह 8.6 प्रतिशत थी। पुरुषों में यही दर 5.4 प्रतिशत है जो कि 1990 में 4.9 प्रतिशत थी। 

मोटापे की बीमारी जो 1990 तक वयस्कों में पाई जाती थी, अब स्कूली बच्चों में तेजी से फैल गई है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार मोटापा शरीर में अत्यधिक या असामान्य वसा का जमा हो जाना है। यह स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। 25 से अधिक 'बॉडी मास इंडेक्स' (बीएमआई) को सामान्य से अधिक वजन माना जाता है और यही 30 से अधिक होने पर मोटापा कहलाने लगता है। 20 से कम है तो उसे कुपोषित माना जाएगा।

बीएमआई महत्वपूर्ण सूचक है। इसे नापने का तरीका आसान है। अपने वजन (किलोग्राम में) को अपनी ऊंचाई (मीटर में) के वर्ग से भाग दें। जैसे- अगर किसी का वजन 90 किलोग्राम है और ऊंचाई पांच फुट आठ इंच है, तो बीएमआई नापने के लिए ऊंचाई को मीटर में बदल दें। इस व्यक्ति की ऊंचाई होगी 1.73 मीटर। अब 90 को 1.73 के वर्ग (यानी 1.73x1.73) से भाग दे दें। उसका बीएमआई 3.1 आया । यह व्यक्ति ज़्यादा वजन की सीमा पार कर मोटापे की बीमारी की ओर बढ़ गया है। 

'द लांसेट' के अध्ययन में पाया गया है कि भारत की 20 वर्ष से ऊपर की चार करोड़ 40 लाख महिलाओं का वजन ज़्यादा है। पुरुषों में यह आंकड़ा दो करोड़ 60 लाख है। 1990 में 24 लाख महिलाएं और 11 लाख पुरुषों का वजन ज़्यादा था। यानी समस्या बढ़ती जा रही है।

ये आंकड़े इसलिए भी अधिक चिंताजनक हैं क्योंकि भारत में हृदय रोग, दिल व मस्तिष्क के दौरे, और मधुमेह जैसी बीमारियां तेजी से बढ़ रही हैं। मोटापा इन सब बीमारियों का बड़ा कारण है। किशोरों में भी मधुमेह पाए जाने के मामले बढ़े हैं। 

इस अध्ययन से जुड़े विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत में मोटापे की महामारी फैलने का मुख्य कारण यह है कि जनता के खान-पान की आदतें बदल गई हैं और शारीरिक श्रम करना कम हो गया है। हमारा परम्परागत भोजन दालें, मोटे अनाज, फल और सब्जियां, आदि रहे हैं। हम लोग पशु उत्पाद, नमक, रिफाइण्ड तेल, चीनी और मैदा वगैरह कम खाते थे। लेकिन अब जनता अधिक कैलोरी वाला और कम पौष्टिक भोजन पसंद करने लगी है। रिफाइण्ड तेल, अधिक वसा वाला भोजन, मांसाहार और डिब्बा बंद खाद्य पदार्थ अधिक प्रयुक्त होने लगे हैं। हमारा सामाजिक व्यवहार, रहन-सहन और आदतें भी बहुत बदल गए हैं। बच्चों में तो कुछ अधिक ही। इसीलिए बच्चों-किशोरों में मोटापा बढ़ने की प्रवृत्ति बढ़ गई है। 

देश में मोटापे का महामारी का रूप लेना ही नहीं, उपयुक्त पोषण न मिलना यानी कुपोषण भी एक बड़ी समस्या के रूप में इस अध्ययन से सामने आया है। कुपोषण जनता के सभी आयु वर्गों में पाया गया है। कम वजन वाली (कुपोषित) लड़कियों के मामले में हमारा देश दुनिया में शीर्ष पर है। कुपोषित लड़कों की संख्या के हिसाब से दुनिया में हमारा नम्बर दूसरा है। 

मोटापा और कम वजन  दोनों ही कुपोषण के रूप हैं। इस हिसाब से हमारा देश कुपोषण की दोहरी मार झेल रहा है । यहां जरूरत से ज़्यादा खाने और पेट भर न खा पाने वाले लोग बहुत हैं। यह स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए बड़ी चुनौती है।

देश में पांच से 19 साल के बीच की तीन करोड़ 50 लाख लड़कियां और चार करोड़ बीस लाख लड़के कुपोषण के शिकार हैं। 1990 में यह आंकड़ा क्रमश: तीन करोड़ 90 लाख और सात करोड़ था। यानी कुछ सुधार हुआ है। 2022 में कम वजन वाली यानी कुपोषित महिलाओं व पुरुषों की संख्या क्रमश: छह करोड़ 10 लाख और पांच करोड़ 80 लाख पाई गई है। ये आंकड़े 1990 में क्रमश: 13.7 प्रतिशत और 12.5 प्रतिशत सुधार पाया गया है। 

भारत में लगातार छिट-पुट कुछ न कुछ खाते रहने, डायटिंग करने, होटलों-ढाबों में खाने और पार्टियां करने का चलन बहुत बढ़ गया है। मीठा खाना मोटापा बढ़ाने का प्रमुख कारण है। इसी के साथ सोडा, मीठी कॉफी, कोला पेय, जूस, चाय का भी योगदान है। 

विशेषज्ञ बताते हैं कि स्वस्थ और चुस्त रहने के लिए दिन भर में कम से कम 60 मिनट की शारीरिक मेहनत अवश्य चाहिए। स्वास्थ्य के लिए हानिकारक खाद्य पदार्थों के विज्ञापनों पर लगाम लगनी चाहिए। ये विज्ञापन विशेष रूप से बच्चों को ललचाने के लिए बनाए जाते हैं। स्कूल-कॉलेज की कैंटीन में खाने-पीने की पौष्टिक चीजें मिलनी चाहिए।

लेकिन क्या जिम्मेदार लोग सुन रहे हैं? क्या इस समस्या पर किसी सरकार का ध्यान है? बाजार तो हमें वह सब खाने के लिए ललचा रहा है जो नुकसानदेह है और हमारे बच्चे और युवा उसी की गिरफ्त में हैं।

-न जो, 01 मार्च 2024

( Indian Express, March 01, 2024 में प्रकाशित रिपोर्ट पर आधारित, चित्र इंटरनेट से)



Monday, February 26, 2024

कार्बन डाइऑक्साइड को पकड़कर समुद्र में दफनाएंगे!

हमारी धरती और वायुमंडल का तापमान लगातार बढ़ रहा है जो बड़ी चिंता का विषय है। दुनिया भर में इस 'क्लाइमेट चेंज' यानी मौसम परिवर्तन को रोकने के लिए उपाय किए जा रहे हैं। हर साल इस बारे में विश्व नेताओं के सम्मेलन होते हैं और सभी देश एक दूसरे से कहते हैं कि अपने यहां कार्बन उत्सर्जन कम करिए। वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड का जमा होते जाना ही इस मौसम परिवर्तन या तापमान बढ़ने के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार है। जितनी भी औद्योगिक गतिविधियां हैं, कल-कारखाने आदि, उन सभी से कार्बन उत्सर्जन होता है। लेकिन 'आधुनिक विकास' के लिए औद्योगिक गतिविधियां आवश्यक मानी गई हैं। इसलिए चाह कर भी कार्बन उत्सर्जन कम नहीं हो पा रहा। कोयले, आदि का वैकल्पिक ईंधन इतना नहीं हो पाया है कि उसका इस्तेमान बंद किया जा सके। बल्कि, कोयले का उपयोग कम करना भी मुश्किल हो रहा है। हर साल करीब डेढ़ डिग्री से अधिक तापमान बढ़ रहा है। 

यूरोप के सबसे धनी मुल्क जर्मनी ने तापमान कम करने के लिए नए उपायों पर विचार करना शुरू कर दिया है। वह इस योजना पर काम कर रहा है कि वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड को 'पकड़' कर उसे समुद्र की सतह के नीचे 'कैद' कर दिया जाए। कार्बन डाइऑक्साइड कम होगी तो तापमान नहीं बढेगा। जर्मनी के उप-राष्ट्रपति (वाइस-चांसलर) हबेक का मानना है कि औद्योगिक कार्बन उत्सर्जन को बहुत कम करना हो नहीं पाया है और अब समय नहीं बचा है कि इसके उपायों पर विचार करते रहा जाए। दुनिया इतनी गर्म हो चुकी है कि अब और तापमान वृद्धि की अनुमति नहीं दी जा सकती। सन 2000 में हम कह सकते थे कि चलो, कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए कुछ समय और प्रतीक्षा कर लेते हैं। अब और इंतज़ार नहीं किया जा सकता।

इसलिए जर्मनी गम्भीरता से विचार कर रहा है कि कार्बन डाइऑक्साइड को एकत्र करके उसे अपने क्षेत्र के समुद्र के नीचे जमा करते रहा जाए। इसे जमीन के नीचे दफनाने के अलग खतरे हैं, इसलिए इसकी अनुमति सम्भव नहीं लगती। समुद्री जीवों के संरक्षण वाले समुद्री क्षेत्रों को छोड़ दिया जाएगा। अपने बाकी समुद्री इलाके में पानी के नीचे कार्बन डाइऑक्साइड का भंडारण किया जाएगा। इस योजना के विरोधी भी हैं। उनका कहना है कि इस योजना की सफलता संदिग्ध है। इसकी बजाय ऊर्जा के वैकल्पिक उपायों को बढ़ाया जाना चाहिए, जैसे कि सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा, जिनसे कार्बन उत्सर्जन नहीं होता। वैसे, जर्मनी उन मुल्कों में है जो वैकल्पिक ईंधन पर जोर-शोर से काम करते आए हैं। 

विरोध करने वालों में ग्रीन पार्टी मुख्य है। उसका कहना है कि यह योजना उन उद्योगों को बचाने और बढ़ाने के लिए है जो खूब कार्बन उत्सर्जन के दोषी हैं जबकि वे वैकल्पिक ईंधन का उपयोग बढ़ाने की स्थिति में हैं। हबेक स्वयं पर्यावरणवादी ग्रीन पार्टी के सदस्य हैं। वे कहते हैं कि कार्बन डाइऑक्साइड को समुद्र के नीचे जमा करने की योजना पर सन 2000 से विचार किया जा रहा है। उस समय इसका विरोध अधिक हुआ था लेकिन अब नई टेक्नॉलॉजी का विकास होने से यह उपाय अधिक सुरक्षित  हो गया है। शोध परियोजनाओं और अन्य कुछ स्थानों पर इसका प्रयोग भी हो रहा है। जर्मनी के पड़ोसी मुल्क डेनमार्क ने पिछले वर्ष एक महत्वाकांक्षी परियोजना पर काम शुरू कर दिया है जिसका उद्देश्य कार्बनडाइऑक्साइड को समुद्र के नीचे जमा करना है।

जर्मनी के एक ऊर्जा विशेषज्ञ कार्स्टन स्मिठ कहते हैं कि समुद्र के नीचे कार्बन डाइऑक्साइड जमा करके हम भावी पीढ़ियों के लिए और भी बड़ा खतरा छोड़ जाएंगे। आखिर वे इस कार्बनडाइऑक्साइड भंडार से कैसे निपटेंगे? 

- न जो, 27 फरवरी, 2024 (ग्राफ  इण्टरनेट से)


Thursday, February 08, 2024

जीवन-राग और स्मृतियों से गमकती कविताएं

भूपेंद्र बिष्ट की कविताएं पढ़ते हुए मीठी 'नराई' घेर लेती है। वे बहुत सारी चीजें जो हमसे छूट गई हैं और अब भी छूटती चली जा रही है, मन को विह्वल भी करने लगती हैं। गांवों-कस्बों के बिसराए चित्र, मंथर गति से चलते जीवन के कुछ मोहक बिम्ब, कुछ सहज मानवीय क्रियाकलाप, कोई सौंधी खुशबू, उड़ता कोहरा, परिचित-सी कोई गंध, कोई टर्रा स्वाद, लोकाचार और कहा-अनकहा रह गया प्रेम, कोई किस्सा, कुछ रिश्ते, मानव मन की कोमल संवेदनाएं, कोई उल्लास, कोई उदासी, वगैरह-वगैरह से मन भीगने लगता है। कोई मीठी कसक सी बनी रह जाती है। कवि के भीतर जम कर बैठा पहाड़ रह-रह कर टेरता है और अगर उस पहाड़ से आपका रिश्ता रहा है तो पत्थर और मिट्टी पात्रों की तरह आपसे बतियाने, सुख-दुख सुनाने करने बैठ जाते हैं।

भूपेंद्र बिष्ट लम्बे समय से पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं लेकिन 'गोठ में बाघ' (अंतिका प्रकाशन, 2023) उनका पहला ही कविता संग्रह है। यहां गोठ यानी गोशाला में घुस आया बाघ भी आतंक की तरह नहीं, एक सामान्य घटना या स्मृति की तरह आता है-

"दिवाली भी हो गई/ और चले गए बच्चे, जो आए थे छुट्टियों में/ घर-गांव सुनसान हो गया ..... किसी जाने वाले के हाथ ही भेजेगी/ ईजा कुछ खबर/ कि परसों गोठ में आ गया था बाघ/ इस बार लाही बहुत हुई/ और इतनी झक्क भी..."। 

इन कविताओं में कथाएं गुंथी हुई हैं और कथाओं में उस जीवन की खुशबू महकती रहती है जो बीत-छीज रहा है, एक बीत रही पीढ़ी की स्मृतियों में 'अफगान स्नो' की डिब्बी की अलोप छवि की तरह रिस रहा है- 

"कुछ सब्जियां/ जिन्हें पिता पता नहीं कहां से लाते थे/ और माँ ही बनाना जानती थी उनको/ अब दिखाई नहीं पड़तीं ...../ माँ के साथ ही खत्म हो गई कुछ चीजें/ पर मैंने उनकी याद को बनाए रखने का जतन किया है/ मुकम्मल/ अफगान स्नो की के पुरानी डिबिया/ साफ कर /उसमें रख छोड़ा है जीरा/ माँ की पिटारी में भीमसेनी काजल की डिबिया/ और भृंगराज केश तेल की एक शीशी के साथ...।"

'सूटकेस', 'तलघर', 'रेडियो', 'इज्जतनगर बरेली:1986', जैसी कविताएं में ऐसी ही स्मृतियां दिप-दिप करती हैं। कवि अत्यंत संवेदनशील तो है ही, अपनी स्थानीयता से गहन रूप से स्मृति-बद्ध भी है। उसके पास कविता का कोई जटिल, अबूझ तानाबाना नहीं है। बहुत सरल, सहज किस्सागोई की तरह उसकी कविताओं में जीवन बोलता है। वह घर-गांव, विशेष रूप से पहाड़ के रोजमर्रा जीवन से, प्रकृति से, चीजों के स्वाद से, रिश्तों से, हँसी से, लोकरीति से और स्थानीय विशिष्टता से छोटे-छोटे बिम्ब उठा लेता है और कुछ सूत्र-वाक्यों की तरह प्यारी-सी कविता खिल उठती है। ज्गत में आ रहे बदलावों पर कवि की नज़र ठहरी रहती है लेकिन उसमें नएपन का स्वागत एवं उल्लास उतना नहीं दिखता, जितना बीतती-बिसरती चीजों का मोह झलकता है। अब जब चिट्ठियां नहीं लिखी जा रहीं तो कवि को प्यार किए जाने पर भी संशय होता है, हालांकि वह कहता है कि 'लोग प्यार करते हैं अब भी'- 

"यह उस जमाने की बात है/ जब लेटर बॉक्स का जंक खाया, धूसर रंग भी/ मुझे लगता था गुड़हल के फूल से भी ज़्यादा सुर्ख/ स्वाद की जुबान  में कहूं तो/ अधिक पक चुकी रक्ताभ किल्मोड़ी से भी सुस्वादु/ ...चिट्ठियां नहीं लिखते एक-दूसरे को प्रेमीजन/ इसलिए संशय होता है प्यार किए जाने की बात पर..."

आजमगढ़ की बेटी ब्याह कर अल्मोड़ा क्या आ गई, दो अलग-अलग क्षेत्रों की मिट्टी-हवा-पानी का स्वाद  कविता में अद्भुत ढंग से गमकने लगता है-

"जंघई आए हैं रानी से मिलने/ कहने/ तेहार सेनुल बनल रहो/ ढेर सत्तू और खूब कच्चे कुंदरू परोरा लेकर/ ...आज लौट रहे हैं बाबूजी/ भोर वाली बस से/ बेटी ने बांध दिए कुछ गहत और भट की पोटलियां/ अम्मा के वास्ते..."  

यहां वीरेन डंगवाल और मंगलेश डबराल याद आने लगते हैं, जिन्हें कवि भी अपनी कविताओं में याद करता रहता है। यह स्वाद ही है, और 'शील्ह लोढ़ा कुटवा लो' की पुकार भी, जिसके कारण कवि को सिलबट्टे का बेदखल हो जाना भी आहत करता है कि 

"... लेकिन पशेमां है मेरा मन/ कि किसी दिन चारपाई के नीचे से निकालकर/ इस सिलबट्टे को नई पीढ़ी/ कहीं ड्रॉइंग रूम में न कर दे आरास्ता/ बतौर एंटीक पीस।" 

यह अलग बात है कि नया नारीवाद 'साड़ी के सौंदर्य' की तरह ही 'सिलबट्टे के स्वाद' को भी मर्दवादी जकड़न का प्रतीक करार दे चुका है। बहरहाल, स्त्री, विशेष रूप से पहाड़ की स्त्री, इन कविताओं में अपने कष्टों, संघर्षों और अनकहे दर्दों के साथ अपने मोर्चे पर डटी हुई उपस्थित है- 

"पहाड़ की औरत पर/ जब दुख पड़ते हैं भारी/ वह कपड़े के एक टुकड़े में/ चावल, मास की दाल और एक रुपए का सिक्का/ बांध कर रख देती है/ गोल्ल देवता के नाम।"‌ (पहाड़ की औरत) "वे ज़िंदगी भर गोठ से नौले तक/ बाखली से जंगली वीथिकाओं तक महदूद रही/ डामर की पक्की सड़कों पर चलना/ वे क्या जानें/ दौड़कर हल्द्वानी के लिए मोटर पकड़ने का /शऊर भी तो नहीं उन्हें" (स्त्री की बीमारी) "बचपन में छिपा दी गई/ उसकी तख्ती और दवात/ और इस तरह दूर रखा गया/ उसे वर्णमाला सीखने से/ बाद में/ लकड़ी और घास के बड़े-बड़े गट्ठर/ रख दिए गए सिर पर/ ताकि स्वप्न-वय की कोई उमंग उठ न सके/ यह माँ थी मेरी" (माँ का नाम) "हँसने को एक पर्दे की मानिंद प्रयोग में लाना/ स्त्रियों का आदिम स्वभाव है/ इसीलिए दुख में भी हँस सकती हैं स्त्रियां/ अपितु स्त्रियां जब-तब हँसी के पीछे ही/ छुपाती हैं अपना दुख" (हेमंत स्त्रियों के हँसने की ऋतु है)

भूपेंद्र बिष्ट के इस कविता संग्रह में प्रेम की जो छ्टा कौंधती है वह अत्यंत मधुर, रससिक्त और मद्धिम आंच-सी तपती हुई है और साथ बनी रह जाती है- 

"तुम तो हंसो/ कोहरे को जीतती इन सूर्य रश्मियों के बीच/ जैसे हंसी थी सूर्यास्त की बेला में कल/ और आज भिनसारे भी जरा/ उतने मोहक ढब से / माँ हँसी।" 

बिना किसी प्रचलित वाद और नारे के लिखी गई ये कविताएं गहरी संवेदना से भरपूर और अलग-सा आस्वाद लिए हैं। अपने दिल को तो बहुत करीब से स्पर्श कर गया यह कविता संग्रह्। भूपेंद्र जी को बधाई और शुभकामनाएं।

-न जो, 08 फरवरी 2024



Tuesday, February 06, 2024

उत्तराखण्ड में सुरंगें बनाने में गम्भीर लापरवाहियां जारी

उत्तराखण्ड विधान सभा में समान नागरिक संहिता विधेयक पेश होने और उसके शीघ्र पारित होने के बाद कानून बन जाने की सम्भावना के 'जोश' एवं 'उत्साह' में (आजकल ऐसी ही ऋतु चल रही है) जनता सिल्क्यारा सुरंग हादसे को भूल जाएगी। वैसे भी, अब तक वह अत्यंत गम्भीर मुद्दा चर्चा से बाहर हो चुका है। उत्तराखण्ड की संवेदनशील पहाड़ियां काफी समय से बड़े बांधों और सुरंगों से आक्रान्त हैं। कहीं बारामासी चार धाम रोड परियोजना के लिए तो कहीं ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलवे लाइन और कहीं बांधों के लिए सुरंगें बनाई जा रही हैं। सिल्क्यारा जैसे हादसे कई जगह सिर पर मंडरा रहे हैं। युवा पर्यावरण पत्रकार और गम्भीर अध्येता कविता उपाध्याय ने उत्तराखण्ड के ऐसे क्षेत्रों का दौरा करके एक विस्तृत खोजपूर्ण रिपोर्ट तैयार की है जो चंद रोज पहले thethirdpole.net में प्रकाशित हुई है। 

कविता कई विशेषज्ञों से बात करके तथ्यों-प्रमाणों के साथ लिखती हैं कि सिल्क्यारा एक ऐसा हादसा था जिसकी चर्चा अंतराष्ट्रीय स्तर पर हो गई, वर्ना उत्तराखंड में तो कई हादसे हो चुके हैं और कई सिर पर मंडरा रहे हैं क्योंकि सुरंगों के निर्माण के जो मानक हैं, उनकी घोर उपेक्षा की जा रही है। सरकार सिर्फ काम निपटाने की ज़ल्दबाजी में है। निर्माण में लगी कम्पनियां खर्च तथा समय बचाने के लिए आवश्यक सावधानियों का ही नहीं, भू-तकनीकी व भूगर्भीय चेतावनियों की भी अनदेखी किए जा रही हैं। यह तथ्य तो पहले ही सामने आ चुका है कि सिल्क्यारा-बारकोट सुरंग बनाने में सुरंग के समानांतर एक वैकल्पिक बचाव मार्ग का निर्माण नहीं किया गया, जो आवश्यक था और जिसका प्रावधान भी था लेकिन खर्च और समय बचाने के लिए इसे नहीं बनाया गया। इसकी पुष्टि कई विशेषज्ञों ने की है। अगर यह बनाया गया होता तो 41 मजदूरों को 17 दिनों तक मौत से लड़ना नहीं पड़ता। 'रैट होल माइनर्स' ने उन्हें अंतत: बचा लिया और इस वाहवाही में सुरंग निर्माण में बरती गई गम्भीर लापरवाहियां दबा दी गईं। 

कविता उपाध्याय की ताज़ा रिपोर्ट एक विशेषज्ञ के हवाले से दावा करती है कि सिल्क्यारा-बारकोट सुरंग निर्माण के लिए पूरे मार्ग पर मात्र तीन जगह छेद करके मिटी और चट्टानों की भूतकनीकी जांच करने की औपचारिकता निभा ली गई, जबकि 4.53 किमी सुरंग निर्माण के लिए सिर्फ तीन जगह जांच करना नितांत अपर्याप्त और अस्वीकार्य है क्योंकि हिमालयी क्षेत्र में मिट्टी और चट्टानों की प्रकृति थोड़ी-थोड़ी दूरी पर बदल जाती है। भारत के हिमालयी क्षेत्र में सुरंग निर्माण की नौ परियोजनाओं का जो अध्ययन 2022 में किया गया था वह बताता है कि इस काम में बहुत सी जटिल भूगर्भीय और भूतकनीकी चुनौतियों होती हैं। यही नहीं, सिलक्यारा-बारकोट सुरंग के निर्माण में पर्यावरण मूल्यांकन की अनिवार्यता को भी टाल दिया गया। पहाड़ों में 100 किमी से अधिक लम्बी सड़क के निर्माण के लिए सख्त पर्यावरण मानक हैं लेकिन इस शर्त से बचने के लिए पूरे चार धाम मार्ग (करीब नौ सौ किमी) को 53 छोटे-छोटे हिस्सों में बांट दिया गया। 

इस तथ्य और चेतावनी की उपेक्षा की गई कि उत्तराखण्ड में सुरंगों में कई हादसे हो चुके हैं। 2007 में जे पी ग्रुप की विष्णुप्रयाग जल विद्युत परियोजना की सुरंग में रिसाव हो गया था। 12 परिवारों को अन्यत्र बसाना पड़ा था। ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन के निर्माण में कई जगह सुरंगें बन रही हैं। 2016 में इसकी एक सुरंग के कारण स्वीठ गांव के कई घरों में दरारें पड़ गईं। 2021 में उत्तराखण्ड सरकार के भूगर्म एवं खनन विभाग ने एक सर्वेक्षण में गांव के 224 घरों को नुकसान होना पाया था। एक और गांव मरोदा में भी कई घरों को नुकसान हुआ था। 7 फरवरी 2021 को ऋषिगंगा और धौलीगंगा में आई भयानक बाढ़ से जो कम से कम 204 लोग मरे थे उनमें तपोवन-विष्णुगाड़ जल विद्युत परियोजना की सुरंग में मलबे में फंसकर मरने वाले 37 श्रमिक भी शामिल थे। जोशीमठ शहर में पिछले वर्ष आई बड़ी-बड़ी दरारें सुरंगों के निर्माण में विस्फोट करने का ही परिणाम हैं, हालांकि अधिकारी इसे स्वीकार नहीं करते। जोशीमठ से करीब एक किमी दूर सुरंग बन रही है जिसके लिए गुपचुप विस्फोट किए जाते हैं। 

विशेषज्ञों के अनुसार सड़कों के लिए पहाड़ काटने की बजाय सुरंगें बनाना अधिक सुरक्षित हो सकता है बशर्ते कि सभी मानकों, अनिवार्य स्वीकृतियों और सावधानियों का सख्ती से पालन किया जाए। उत्तराखण्ड में यही नहीं हो रहा। बल्कि राज्य सरकार परियोजनाओं को पूरा करने की ज़ल्दबाजी मे दिखाई देती है, जिसके लिए घातक लापरवाहियां की जा रही हैं।

कविता की पूरी रिपोर्ट इस लिंक पर पढ़ी जा सकती है-

https://www.thethirdpole.net/en/climate/as-norms-are-ignored-uttarakhand-faces-tunnelling-disasters/

- न जो, 7 फरवरी, 2024

 


Monday, February 05, 2024

खून-खराबे के बीच जीवित ‘घर लौटने का सपना’

सभ्यता के निरंतर विकाएवं विश्व शांति के तमाम दावों के बावजूद इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक में भी हम लगातार भयानक घृणा, दूसरों की जमीन पर जबरन कब्जेदारी और विनाशक युद्धों के बीच जी रहे हैं। यूक्रेन पर रूस के हमले को  24 फरवरी 2024 को पूरे दो साल हो जाएंगे। यूक्रेन अपनी स्वायत्तता की रक्षा करने के लिए लगातार युद्ध जारी रखने को विवश है। उधर, इजराइल फिलिस्तीन को नेस्तनाबूद करने पर आमादा है। इस बार वह गाज़ा में स्कूलों, अस्पतालों और राहत शिविरों को भी नहीं बख्श रहा। संयुक्त राष्ट्र की अपील और अंतराष्ट्रीय अदालत के युद्ध-विराम के आदेश की भी उसने अनसुनी कर रखी है। अमेरिका का मजबूत हाथ उसकी पीठ पर है ही। पिछले इजराइली आक्रमणों में फिलिस्तीन का समर्थन करने वाले बहुत सारे वैश्विक खेमे इस बार हमास के छापामार हमले की आड़ में इजराइली कार्रवाई का समर्थन करने में लगे हैं। दुनिया और भी कई युद्धों के बीच है लेकिन इन दो युद्धों के भयानक मंजर रोज सामने आ रहे हैं। फिलिस्तीन पर इजराइल का यह हमला अब समूचे पश्चिम एशिया को अपनी चपेट में लेता हुआ दिखाई दे रहा है।

 युद्ध के समय, विशेष रूप से त्रस्त-पीड़ित समाज का साहित्य किस स्वर में बोलता है? उसकी अभिव्यक्तियां कैसी होती हैं? वह केवल देशभक्ति और ओज से परिपूर्ण लेखन करता है या मानवता के हित में विश्व के भविष्य की चिंता का राग छेड़ता और बेहतरी के सपने देखता है? इस सिलसिले में घर लौटने का सपना’ (आज की फिलिस्तीनी कविता, चयन और सम्पादन- यादवेंद्र, नवारुण प्रकाशन) की कविताएं पढ़ते हुए युद्ध की विभीषिका से भीतर तक हिल जाने के बावजूद यह देखना आश्वस्ति देता है कि फिलिस्तीनी कविता का स्वर न आशा का दामन छोड़ता है, न सपने देखना और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि वह नज्मों के बंदूक बन जानेके विरुद्ध है और इसके प्रति सतर्क है।

इस संग्रह में जो फिलिस्तीनी कवि शामिल हैं, उनमें कुछ अपनी धरती पर ही टिके हुए हैं और प्रतिरोध के लिए जेल भेजे गए, कुछ दुनिया के दूसरे देशों में जाकर बस गए, एक का बेटा इजराइली बमबारी में मारा गया तो एक कवयित्री हिला अबु नादा पिछले वर्ष अक्टूबर में इज्राइली बमबारी में शहीद हो गईं। इनमें महमूद दरवेश जैसे विश्व स्तर पर चर्चित रहे कवि भी शामिल हैं लेकिन अधिकतर नई पीढ़ी के हैं। सभी का हाल शरणार्थी जैसा है और सभी अपनी धरती से गहन और स्थाई रागात्मक रूप से जुड़े हैं। इन कवि-पीढ़ियों की स्मृतियों में सतत युद्ध झेलता समाज है, सड़कों पर बिछी बच्चों-स्त्रियों-युवकों की लाशें हैं, रक्तरंजित वीथियां हैं, चिड़ियों के कलरव की जगह बमवर्षक विमानों का गर्जन है, फूल के सपने देखते सैनिक हैं, मलबे में अपने बच्चों के जीवित होने का भ्रम पाले माताएं हैं और ध्वस्त घरों की दीवार पर भी उग आए गुलाब हैं। इनमें स्वाभाविक क्रोध है, बदले की भावना भी लेकिन उसका मूल स्वर उस नफरत का नहीं है जो उनके विरुद्ध भड़काई गई है। अहलाम बशारत की कविता मैं सैनिकों को कैसे कत्ल करती हूंमें इस स्वर को स्पष्ट सुना-समझा जा सकता है-

अपने कातिलों के साथ बदला चुकाने का

मेरे पास कविता आसान उपाय था

पर मैं उन्हें बुढ़ाने दे रही हूं

उन्हें भी तो तजुर्बा हो

जीवन जब कुम्हला जाता है

तो कैसा लगता है

त्वचा में उनके भी झुर्रियां पड़ें

उनकी मुस्कराहट भी तो फीकी पड़े

उनके हथियार पर भी कूबड़ निकल आए”

 या, ताहा मुहम्मद अली अपनी कविता हमारा मरनामें कहते हैं-

 “पहली चीज जो सड़-गल कर नष्ट होनी शुरू होगी

हमारे अंदर की दुनिया में

वह होगी नफरत”

भयानक युद्ध, नरसंहार, विध्वंस और पलायन के बीच लिखी गई इन कविताओं में प्रेम है, बेहतरी की उम्मीद है और सुंदर कल का सपना है। मृत्यु के तांडव के बीच ये निराशा की कविताएं नहीं हैं, बल्कि इनमें अटूट विश्वास है और अंतहीन प्रेम है-

“मैंने कभी नहीं टांगी

अपने कंधों पर रायफल

या दबाया उसका घोड़ा

बस है मेरे पास बांसुरी की स्वर लहरी

एक ब्रश अपना सपना रंगने के लिए

स्याही से भरी एक दवात

बस है मेरे पास अगाध अडिग भरोसा

और अंतहीन प्रेम

विपदा के मारे अपने लोगों के लिए” (बस है मेरे पास)

1982 में जन्मी और एक कविता के कारण जेल भीजी गई दारेन तातूर की कविता देखिए-

एक दिन उन्होंने मुझे पकड़ लिया

और बेड़ियों से जकड़ दिया

मेरी देह, मेरी रूह

मेरा सब कुछ उनकी गिरफ्त में

उन्होंने हुक्म दिया- इसकी तलाशी लो

हमें पक्का यकीन है यह आतंकी है

.... सो, उन्होंने मेरी बार-बार तलाशी ली

थक गए तो मुझ पर खीझते हुए बोले-

कुछ नहीं मिला सिवा चिट्ठियों के

एक कविता के अलावा

इसकी जेब में और कुछ नहीं था” (एक कविता को कैद करना)

लेकिन कविता का होना इन कवियों के लिए, जो फिलिस्तीनी जनता के मुखर प्रतिनिधि हैं, बहुत बड़ी ताकत और आशा का होना है। वह युद्धों, अत्याचारों, बमों और नरसंहारों के मुकाबले के लिए कारगर हथियार है। एक कविता का होना एक बीज का होना है। फव्वाज तुर्की इसी भरोसे बीजों की रखवालीकरते हैं- 

“मैं तुम्हारी दरिंदगी से डरने वाला नहीं

मैं पूरे एहतियात के साथ बचा लूंगा

दरख्त का वह बीज

जो पीढ़ियों से हमारे पुरखों ने

खूब जतन से बचा रखा था

उस बीज को मैं फिर से रोप दूंगा

अपनी मातृभूमि की मिट्टी पर”

इन कविताओं का मार्मिक होना, और भावुक होना भी स्वाभाविक है। विस्थापन की पीड़ा है, घर न लौट पाने की कसक है और ऐसी सहज-स्वाभाविक मृत्यु की कामना भी है जिसमें कमीज पर गोलियों से बने सूराख न होंऔर साफ-सुथरे तकिया, गद्दे और दोस्तों से घिरे-घिरे मौत आ जाए, हमारे हाथ गुंथे हों हमारे प्रिय हाथों के साथ (यह भी अच्छा है- मोरीद बरगूती)। फिलिस्तीन की धरती पर मौतें कितनी खौफनाक और वीभत्स होती हैं!

यादवेंद्र जी ने इन कविताओं का संकलन हिंदी पाठकों के लिए तैयार करके सराहनीय काम किया है। इनकी मार्फत सदियों से नेस्तनाबूद किए जा रहे एक समाज और संस्कृति के दिल की आवाज सुनी जा सकती है। इस आवाज को सुनना भी अब कम होता जा रहा है। अपनी टिप्पणी में यादवेंद्र जी ने जो एक बहुत जरूरी बात रेखांकित की है, उस पर गौर किया ही जाना चाहिए- “पहले जहां दुनिया के किसी भी हिस्से में आज़ादी और लोकतंत्र के लिए संघर्षरत जनता का पक्ष अपने लोगों के बीच रखने को हमारे बुद्धिजीवी अपनी नैतिक जिम्मेदारी मानते थे, अब समय और साधन के लाभ-हानि का ख्याल निर्णायक भूमिका निभा रहा है.... बदलते राजनय में फिलिस्तीन का स्थान इजराइल ने बड़े हास्यास्पद और विडम्बनापूर्वक बतौर विक्टिम ले लिया है और पश्चिमी तर्कों की तर्ज़ पर हमारी हुकूमत फिलिस्तीनी भूमि पर कब्जे के पिछले पूरे इतिहास पर मिट्टी डालकर हालिया घटनाओं को बमबारी और कत्लेआम का कारण बताकर जनमानस बदलने का अभियान चला रही है।” इस माहौल में यह संग्रह आवश्यक हस्तक्षेप है।

नवारुण प्रकाशनकी विशेष रूप से सराहना इसलिए भी की जानी चाहिए कि पिछले ही वर्ष उसने रूस के हमले के बाद लिखी गई यूक्रेनी कविताओं का एक संकलन प्रकाशित किया था। निधीश त्यागी के संकलन और अनुवाद में प्रकाशित संकलन “इस जमीं पर बिखरे हुए हमारे सपने” भी “बहादुर लोगों की कविताएं हैं जो उन्हें नेस्तनाबूद करने की साजिश के बीच उनके होने, हुए होने और होते रहने की मुलायम निशानियां छोड़े जाती हैं।” (देखें- https://apne-morche-par.blogspot.com/2023/05/blog-post_25.html )

 

-    - न जो, 5 फरवरी, 2024

 

(घर लौटने का सपना। चयन और अनुवाद- यादवेंद्र, नवारुण प्रकाशन, जनवरी 2024। मूल्य- 225/-। सम्पर्क- 9811577426

इस जमीं पर बिखरे हुए हमारे सपने। संकलन और अनुवाद- निधीश त्यागी। नवारुण प्रकाशन, मई 2023। मूल्य- 150/-)                            

Thursday, February 01, 2024

दो फरवरी 1984 की याद और उदासी

आज दो फरवरी 2024 है। एक दो फरवरी 1984 भी थी जब अल्मोड़ा जिले के बसभीड़ा-घुंगौली (चौखुटिया से 5 किमी दूर) गांव से एक जनांदोलन शुरू हुआ था, जिसे बाद में 'नशा नहीं रोजगार दो' आंदोलन के नाम से जाना गया और जिसने आने वाले कई महीनों तक पूरे उत्तराखण्ड (तब अलग राज्य नहीं बना था) को झकझोर डाला था और प्रदेश सरकार को उसके दबाव में आकर कुछ मांगें माननी पड़ी थीं। वह जनता के आक्रोश का विस्फोट था क्योंकि स्थितियां ऐसी बना दी गई थीं कि इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा था। उत्तराखण्ड संघर्षवाहिनी ने इस आंदोलन का तब नेतृत्व किया था और इस आंदोलन को मात्र नशे के विरुद्ध नहीं, उत्तराखण्ड की मूलभूत समस्याओं से जोड़ा था।

वह चिपको आंदोलन की आंशिक सफलता (आंशिक विफलता भी) के बाद का दौर था और उससे उपजी सामाजिक-राजनैतिक चेतना से पहाड़ का समाज धड़क रहा था। जो सरकार सुदूर पर्वतीय गांवों में सड़क, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार जैसी मूलभ्होत सुविधाएं उपलब्ध कराने के बारे में गम्भीर नहीं थी, वह गांव-गांव नशे का तंत्र फैलाने में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से लगी हुई थी। सरकारी संरक्षण में शराब की विक्री के अलावा दवा के नाम पर बेचे जा रहे सुरा, टिंचरी, लिक्विड जैसे नशे से पहाड़ का जन-जीवन अस्त-व्यस्त था। स्कूली बच्चे तक नशे की गिरफ्त में आ रहे थे। परिवार उजड़ रहे थे और महिलाएं त्रस्त थीं। इसीलिए महिलाएं इस आंदोलन में सबसे आगे थीं। उन्होंने नशा बेचने वाली दुकानों के आगे धरने दिए, दुकानें बंद कराईं, शराब ठेकेदारों का घेराव किया, जिलाधिकारियों की घेराबंदी करके शराब की नीलामी रुकवाई और जन प्रतिनिधियों को सड़कों पर घेर उनसे तीखे सवाल किए।

आज चालीस साल बाद उत्तराखण्ड में स्थितियां और भी खराब हो गई हैं। जनता को उसका 'अपना राज्य'  मिले तेईस वर्ष हो गए हैं लेकिन उसके हालात अत्यंत खराब हैं। नशे का सरकारी तंत्र तो फैला ही है, जल-जंगल-जमीन की लूट चरम पर है, बड़े-बांधों, अनावश्यक फोर लेन हाईवे, भूमिगत रेल परियोजना, आदि-आदि के कारण पहाड़ का अस्तित्व ही दांव पर लगा दिया गया है। धर्म के नशे का अलग कहर बरपा हो रहा है।गांव उजड़ रहे हैं, भुतहा गांवों की संख्या निरंतर बढ़ रही है, सरकारी देखरेख में जमीनों की लूट मची है, दलालों-ठेकेदारों-माफिया की जकड़न में नदी-पहाड़,पानी, रेता-बजरी, जड़ी-बूटी, आदि-आदि संसाधनों का जबर्दस्त दोहन हो रहा है और जनता पहले से भी अधिक पलायन करने को मजबूर है।

ऐसे में 1984 की तुलना में आज प्रतिरोध की कहीं अधिक आवश्यकता है लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि कैसा सन्नाटा है। पुरानी आंदोलनकारी शक्तियां बिखर गईं या सता के बगलगीर हो गईं और नई पीढ़ी में जैसे कोई सुगबुगाहट ही नही। उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी, जो उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी का ही एक धड़ा है, हर साल बसभीड़ा में नशा नहीं रोजगार दो'आंदोलन की वर्षगांठ मनाता है लेकिन वाहिनी से निकले अन्य धड़ों में कोई हलचल नहीं होती। वे एक प्रतीकात्मक प्रदर्शन तक नहीं करते, न ही विज्ञप्ति जारी करते हैं। अब अधिकतर प्रतिरोध विज्ञप्तियों से या प्रतीकात्मक धरने से होते हैं।असहायता और विकल्पहीनता का अजब आलम है।

पिछले 22-23 वर्षों में कांग्रेस और भाजपा की सरकारें अदल-बदल कर बनती रही हैं। इन दलों से आजिज जनता घोर विकल्पहीनता के कारण इन्हीं नागनाथों और सांपनाथों में से एक को चुनने के लिए विवश है। एक सचेत और आंदोलनरत समाज के हिस्से यह राजनैतिक विकल्पहीनता क्यों आई? राजनैतिक विकल्प के नाम पर जो परिवर्तनकामी ताकतेंहैं भी, चुनावों में उनके गिने-चुने प्रत्याशियों को एक हजार वोट भी मुश्किल से मिलते हैं। हर चुनाव से पहले ये ताकतें मिल-जुल कर भाजपा एवं कांग्रेस के विरुद्ध एक सशक्त विकल्प बनाने की बातें करती हैं। 2022 के विधान सभा चुनाव के लिए भी इनमें एकता की बातें हुई थीं। 2023 में भी भाजपा के विरुद्ध सामूहिक चुनाव नीति बनाने की चर्चा बहुत दिनों से हो रही है। वास्तविकता यह है कि उनमें कभी जमीनी एकता नहीं हो पाई। बल्कि, इन छोटे-छोटे दलों-संगठनों में टूट बढ़ती गई है। फिलहाल इसकी सम्भावना नहीं दिखती कि अपने-अपने कोनों में सिमटी और जनाधार खोती जा रही ये पार्टियां किसी तरह एक हो भी जाएं तो दोनों राष्ट्रीय दलों का कामचलाऊ क्षेत्रीय विकल्प बन पाएंगी।

आज उत्तराखण्ड की जनता सबसे लाचार हाल में है। न कोई सरकार उनके हित में काम कर रही है न ही बड़े आंदोलन के लिए प्रेरित और नेतृत्व करने वाला कोई उनके बीच है। जनता की लाचारी का सबसे अच्छा उदाहरण राज्य का भू-कानून है। गांवों के गोचर-पनघट और खेत तक बिक रहे हैं और जनता चुपचाप देख रही है। राज्य की हालत ऐसी बना दी गई है कि अधिसंख्य ग्रामीण जनता को अपनी जमीन बचाने में कोई रुचि ही नहीं रह गई है जबकि पूर्व में वह सबसे कीमती संसाधन माना जाता रहा। जमीन बेचो और भागोही उसे एकमात्र विकल्प दिखाई दे रहा है। 

नशे का बुरी तरह जकड़ चुका शिकंजा भी उस जनता की निस्सहायता बताता है जिसने चालीस साल पहले अपने नशा विरोधी आंदोलन से उत्तर प्रदेश की सरकार को हिला दिया था। आज की सरकारों ने नशे के धंधे को राजस्व का सबसे बड़ा स्रोत बना लिया है। बसभीड़ा में उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के एक संक्षिप्त आयोजन के अलावा कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं है। दो फरवरी अब उदास ही करती है। 

- न जो, 2 फरवरी 2024