Saturday, February 26, 2022

चुनाव नहीं, पाइथागोरस की प्रमेय भए!

चुनाव अब गणित का जटिल सवाल हो गए। गणित भी सीधा नहीं, पहेली-सा कठिन और उलझाऊ। उसे जीतने का मतलब कठिन समीकरण हल करना होता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शुरुआती चुनाव शायद मुख्यत: इस आधार लड़े लाते जाते हों कि किस पार्टी ने क्या किया, देश और समाज के लिए उसका क्या योगदान है, उसकी क्या योजनाएं हैं, उसके नेताओं का जनता से कैसा व्यवहार है और वे क्या कहते-करते हैं, इत्यादि। जाति-धर्म के आधार पर भी थोड़ा-बहुत वोट पड़ते होंगे लेकिन वह एकमात्र आधार नहीं होता होगा। अब चुनाव एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया कहने को है। लड़ा तो वह गणित के समीकरणों और शतरंजी चालों से है।

हर क्षेत्र की चुनावी बाजी लैपटॉप पर बिछती है। एक्सल शीटपर जातियों-उपजातियों और धर्म के विविध जोड़-घटाव-संयोग रखे जाते हैं। सभी पार्टियों के विशेषज्ञ लैपटॉप पर ही सिर खपाए रहते हैं। किस पार्टी के किस प्रत्याशी को पिछली बार किस जाति-उपजाति का कितने वोट मिले थे, किसने किस आधार पर किसके वोट काटे, विपक्षी अगर इस जाति का या उस उपजाति का हुआ तो कितने वोट किधर जा सकते हैं, कौन प्रत्याशी विपक्षी के वोट काट सकता है और कितने, वगैरह-वगैरह।

दिन-रात लगाया जाने वाला यह गणित इतना जटिल, अनिश्चित फॉर्मूले वाला और चालों भरा है कि इसके विशेषज्ञ तैयार हो गए हैं। प्रशांत किशोर आखिर क्यों बारी-बारी सभी दलों के रणनीतिकार बनने में कामयाब हो जाते हैं? उनका कौशल जमीन पर जनता के बीच नहीं, गणित के इन्हीं सवालों, समीकरणों और जटिल पहेलियों को समझाने-समझाने और हल करने में है। इसी आधार पर उन्हें चुनाव जिताऊ रणनीतिकार माना जाता है। वे मोदी से लेकर ममता तक को चुनाव जिताने का श्रेय ले चुके हैं लेकिन आम मतदाता को उनका नाम भी मालूम न होगा। एक चतुर खिलाड़ी मतदाताओं के वोटों का खेल कर जाता है। क्या पता आने समय में प्रशांत किशोर जैसे हिसाब-किताबियों की जगह आर्टिफीशियल इण्टेलीजेंस’ (कम्प्यूटरी दिमाग) ले ले!

सात-सात चरणों में मतदान ने चुनावी गणित के खेल को फॉर्मूलों में बांध दिया है। पश्चिम में जाट और मुसलमान हैं, रुहेलखण्ड मुस्लिम बहुल है, एक यादव लैण्डहै, एक दलित लैण्डहै, फिर शहरी मध्य वर्ग का इलाका है और उसके बाद पूर्वांचल के अन्य पिछड़ा और अन्य दलित इलाके हैं। इसी हिसाब से प्रत्याशियों का चयन होता है और उन्हें दूसरे दलों से तोड़ कर लाया जाता है। नेताओं के भाषण भी इसी हिसाब से तय होते हैं। जो पश्चिम में बोला गया, वह बुंदेलखण्ड में नहीं चलता। यादव बहुल क्षेत्र के मतदाताओं को लुभाने के लिए जो कहा जाता है वह मध्य उत्तर प्रदेश में काम नहीं आता। किसी भी दल के नेताओं के भाषण सुन लीजिए, वे इलाकावार गणित के हिसाब से जुमले गढ़ते और आरोप लगाते हैं। सर्वज्ञातापत्रकार भी इसी गणित में उलझे रहते हैं।

गणित ही तय करता है कि किस जगह किस जाति के वोट काटने के लिए डमीखड़ा किया जाए। तीन-चार कोणीय मुकाबला हो तो उसी में वोट कटवाढूंढना आसान हो जाता है। तीसरा और चौथा कोण का चुनावी समीकरण समझना और उसके मुताबिक चाल चलना पाइथागोरस प्रमेयकी तरह कठिन है और उलझा हुआ। अनेक बार इसकी कोशिश उलटी पड़ जाती है। अब तो पार्टियों में इसके विशेषज्ञ तैयार हो गए हैं। डेटा अनालिस्टनियुक्त किए जाते हैं। वे पिछले कई चुनावों में मतदाताओं के रुख का विश्लेषण करके फॉर्मूला बना देते हैं।

इतना सब करने के बाद भी सवाल गलत होने की पूरी सम्भावना रहती है। इति सिद्धमलिख देने से कागज पर सवाल हल हुआ दिखाई दे सकता है लेकिन जमीन पर मतदाता इन विशेषज्ञों से भी चालाक साबित हो सकता है।        

(चुनाव तमाशा, नभाटा, 26 फरवरी, 2022)  

Friday, February 18, 2022

एक ही बड़े नेता पर दारोमदार है दलों का

चुनाव प्रचार का स्वरूप बता रहा है प्रत्याशी महत्त्वपूर्ण नहीं रह गए हैं, पार्टियां और शीर्ष नेता ही सब कुछ हैं। बड़े नेताओं पर ही जीत-हार का दारोमदार रहता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। वे विधान सभा चुनावों में ही नहीं, उपचुनावों में भी प्रचार करने निकलते हैं। विधान सभा चुनावों में भी लोक सभा चुनाव की तरह प्रचार में उतरते हैं। पार्टी उन्हीं पर निर्भर है।

पहले किसी प्रधानमंत्री को तो क्या, मुख्यमंत्री को भी उप-चुनावों का प्रचार करते नहीं देखा जाता था। अब दृश्य उलट गया है। भाजपा की चुनाव रणनीति पंचायत स्तर के चुनावों को भी हर हाल में जीतने की होती है। यह नई आक्रामक चुनाव रणनीति है। भाजपा की पहचान मोदी से ही है। पहले उनके साथ अमित शाह का भी नाम लिया जाता था। अमित शाह को चुनाव जिताने में माहिर घोषित किया जाता था। अब यह श्रेय भी पूरी तरह मोदी के हिस्से जा पड़ा है। शाह और योगी भी अपने भाषणों में मोदी का नाम बार-बार लेना नहीं भूलते। मोदी युग से पहले भाजपा के पास कम से कम चार-पांच बड़े और बराबर के चेहरे होते थे।  

उत्तर प्रदेश में भाजपा की प्रमुख प्रतिद्वंद्वी समाजवादी पार्टी सिर्फ अखिलेश यादव पर निर्भर है। मुलायम सिंह यादव के स्वास्थ्य कारणों से घर बैठ जाने के बाद कोई दूसरा चेहरा सपा के पास नहीं है। मुलायम के समय सपा में कुछ बड़े नाम होते थे। अब आजम खान ही नहीं शिवपाल भी नेपथ्य में चले गए हैं। कांशीराम के बाद बसपा में मायावती के अलावा कोई दूसरा नेता हुआ ही नहीं या कहिए कि होने ही नहीं दिया गया। कांग्रेस, जो कभी बड़े-बड़े नामी नेताओं के लिए जानी जाती थी, आज राहुल और प्रियंका के भरोसे ही है। सोनिया सक्रिय नहीं हैं।

इसका असर यह है कि अनेक क्षेत्रों में जनता अपने प्रत्याशी को नहीं जानती। कई बार तो उसका नाम भी उनकी जुबान पर नहीं आता। वे पार्टी का चिह्न पहचानते हैं या भी मोदी अथवा अखिलेश भैया या बहन जीको। कौन स्थानीय नेता किस पार्टी से चुनाव मैदान में है, इसका भी बहुत असर इसीलिए नहीं दिखता। ऐसे कई दर्जन प्रत्याशी होंगे जो पिछली बार किसी और दल से चुनाव लड़ रहे थे और इस बार दूसरे दल से मैदान में हैं। चुनाव इतना व्यक्ति या धर्म-जाति केंद्रित हो गया है कि प्रत्याशी गौण हो गया है। अंगुलियों में गिने जाने लायक प्रत्याशी होंगे जिनको जनता उनके काम या व्यक्तिगत छवि से जानती-मानती और जिताती हो।

नेता के बाद मतदाता जिसे पहचानते हैं वह जाति-उपजाति है। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद से चुनावी राजनीति में सामाजिक न्याय का जो बिगुल बजा उसने भी प्रत्याशी पर उसकी जातीय पहचान को महत्वपूर्ण बनाया। प्रत्याशी को जानें या न जानें, वह कल ही राजनीति में आया नौसिखिया हो, जाति के आधार पर चुनाव में सशक्त दावेदार हो जाता है। सामाजिक न्याय का मुद्दा ही वैचारिक राजनीति को भी संचालित करता है। वैसे, विचार और सिद्धांत आधारित राजनीति थोड़ा-बहुत वामपंथियों के हिस्से रह गई लेकिन उनकी जगह चुनावी राजनीति में सिकुड़ती गई है।

इंदिरा गांधी के समय कांग्रेस पार्टी के अन्य बड़े नेताओं के पर कतरने की जो प्रवृत्ति शुरू हुई थी, वह अब सभी पार्टियों ने अपना ली है। प्रतिफल सामने है। हर पार्टी में एक ही बड़ा नेता है। दूसरा जो भी उसके बराबर होने की कोशिश करता है, उसका कद छोटा कर दिया जाता है। चुनावी जीत उसी नेता के सिर पर सेहरा बांधती है। वह इतना ताकवर होता है कि पराजय का चोला दूसरे को पहना देता है। 

(चुनावी तमाशा, नभाटा, 19 फरवरी, 2022)      

   

       

Tuesday, February 15, 2022

लोक गाथाएं खोलती हैं समाज, संस्कृति और इतिहास की परतें

प्रयाग जोशी उत्तराखण्ड के विरले लोक-अध्येता हैं। विरले इसलिए कि उन्होंने लोकका अध्ययन लोक के बीच जाकर और जीकर किया है। 1966 में एम ए करने के बाद जब वे पुरौला (उत्तरकाशी) इण्टर कॉलेज में अस्थाई अध्यापक नियुक्त हुए, तभी से वे अपनी जिज्ञासाएं लेकर गांव-गांव भटकने लगे थे। वहीं से लोक जीवन को समझने यानी कि लोक गीतों, होलियों, लोक कथाओं और लोक गाथाओं को सुनने-संकलित करने की शुरुआत हुई। बाद में पहाड़ के कुछ कॉलेजों में अध्यापन करने, पीएचडी करने के दौरान और फिर रायबरेली के एक डिग्री कॉलेज में 28 साल अध्यापन करते हुए भी वे एक नियमितता से उत्तराखण्ड के सुदूर अंचलों में घूमते रहे। वनराजियों के जीवन का अध्ययन करने का उनका बड़ा काम भी इसी लोक-यात्रा से निकला। इस श्रम-साध्य अध्ययन-संकलन के परिणाम स्वरूप कई मूल्यवान संग्रह हमें उनकी किताबों के रूप में मिलते रहे हैं। आज 79 वर्ष की आयु में भी वे अपने देखे-जाने-सुने का विवेचन-विश्लेषण करने में लगे हुए हैं।

पिछले वर्ष प्रकाशित उनकी पुस्तक उत्तराखण्ड की लोक गाथाएं-एक विवेचनउनके अध्ययन-संकलन की व्यापकता और गहराई का सुंदर उदाहरण है। हालांकि यह पूर्व में प्रकाशित उनकी दो पुस्तकों का  परिवर्धित संस्करण है, लेकिन दोनों को समेटने और नया जोड़ने से यह काफी कुछ नई बन गई है। अपनी लोक थात के संग्रह में उनका एक अद्वितीय काम सुदूर क्षेत्रों के लोक गायकों, वादकों, नर्तकों से सुन-सुनकर लोक गाथाओं के विविध रूपों का अंकन, उनका अध्ययन और विश्लेषण है। वे सीधे लोक से सुनी गाथाओं में उस समाज की संस्कृति की जड़ें तलाश करते हैं। इस तलाश में इतिहास, जीवन-पद्धति, राज व्यवस्था, राजनय, युद्ध, कृषि, वन्यता, जाति व्यवस्था, स्त्रियों का हाल और देवी-देवताओं की मान्यताएं और पूजा पद्धतियां सभी शामिल हैं। इस तरह सम्पूर्ण उत्तराखण्डी समाज का ऐतिहासिक-सांस्कृतिक स्वरूप वे सामने लाते हैं।

शुरू में ही प्रयाग जोशी का ध्यान इस ओर गया था कि उत्तराखण्ड की लोक सांस्कृतिक और भाषाई विशेषता पर तो काफी कुछ लिखा गया है लेकिन “सबसे ज्यादा अनखोजी और अप्रकाशित रह गई हैं लोक गाथाएं।” गढ़वाल में अवश्य डॉ गोविंद चातक ने लोक गाथाओं के संकलन का कुछ काम किया था जबकि “कुमाऊं अंचल ने कहावतों और मुहावरों पर ही ध्यान केंद्रित कर रखा था।” तब प्रयाग जी ने ठानी कि डॉ चातक की ही तरह वे भी लोकगाथाओं पर काम करेंगे। वास्तव में प्रयाग जी ने डॉ चातक से आगे कदम बढ़ाए। उन्होंने पूरे उत्तराखण्ड को अपने अध्ययन-संकलन का केंद्र बनाया।  

प्रयाग जोशी जब लोक गाथाकी बात करते हैं तो उनका एक विशिष्ट मंतव्य होता है। वे गाथाओं को  लोक कथाओं या लोक काव्य में अंतर्निहित कथाओं से अलग करते हैं। जिन अध्येताओं ने लोक गाथाओं से कहानियां निकाल कर पेश कीं, उसे भी प्रयाग जी वस्तुत: लोक गाथाओं का अत्यंत सीमित अध्ययन मानते हैं। उनका मानना है और सही मानना है कि लोक गाथाएं निरी कहानियां न होकर कथ्य-काव्य-गायन-अभिनय-नर्तन-वर्णन का सम्मिलित रूप हैं। इसीलिए लोक गाथाओं का वास्तविक अध्ययन उन्हें सीधे प्रस्तोताओं के मुंह से सुनकर, देखकर, अनुभवकर, गुणकर और उन्हीं से उनमें प्रयुक्त शब्दों, शैलियों, आदि को समझकर ही किया जा सकता है। जिन अध्ययेताओं ने गाथाएं गायकों से सुनकर ही लिपिबद्ध कर लीं हैं, वे इसी कारण अपनी सम्पूर्णता नहीं व्यक्त नहीं हो सकतीं। फिर, एक ही लोक गाथा के कई-कई रूप हो सकते हैं। यह गाथा के प्रस्तोताओं के निजी कौशल पर निर्भर है। इसलिए एक गाथा की एकाधिक श्रुतियां दर्ज करके उनका अध्ययन-विश्लेषण करना होता है। अपने पूर्ववर्ती और समकालीन अध्येताओं (डॉ गोविंद चातक, डॉ कृष्णानंद जोशी, डॉ उर्वादत्त उपाध्याय, आदि) को श्रेय देते हुए भी प्रयाग जी उनकी ऐसी कमियों को इंगित करते हैं। वे हिमालयन फोकलोरके संकलनकर्ताओं, ओकले और गैरोला के लिए भी कहते हैं कि कथा और गाथा को एक ही चीज समझा जाता रहा।” बल्कि, “ओकले को कथा और गाथा का भेद मालूम था पर जो चीज दिमाग में थी वह कृति में झलकी नहीं।”

तो, समझा जा सकता है कि प्रयाग जी लोक गाथाओं को कितनी गहराई से और अभिव्यक्ति के कितने रूपों में देखते हैं। उनका यह कथन देखिए- “सम्पूर्ण लोकगाथा भाषा में नहीं अंटती। स्वर लिपि में उसके संगीत को लिखना पड़ता है। वाद्यों में बजाना पड़ता है। वह मुक्ताकाशी मंच पर लोक के सम्मुख उतरती है।” इतना ही नहीं, “चरम क्षणों में गाथा, कथानक को छोड़ देती है और वह लय व ध्वनि की अनुगामी मात्र रह जाती है। उस समय केवल वाद्य बजते हैं। आलाप, टेक व नाच ही मुख्य हो जाते हैं।” और यह भी कि “अमूर्त प्रकृति के भीतर से भी संवाद फूटते दिखते हैं। आकाश बोलता है। दिशाएं बोलती हैं। हवाएं और भूत-प्रेत बोलते हैं। यह लोकगाथा में ही सम्भव है कि आकाश प्रश्न उछाल दे और गाथा प्रस्तोता के सामने उसका उत्तर देने की विवशता खड़ी हो जाए।” इतनी गहराई तक जाकर लोकगाथा को नहीं समझेंगे तो क्या नतीजा निकलेगा? “सामान्य संग्राहक या ले उड़ने वाला शोधार्थी, गाथा प्रस्तोता से आधा-अधूरा जैसा भी सुनता जाता है, वैसा ही लिख मारने की जल्दबाजी में कथ्य या वस्तु की कथन चारुता तक पहुंच ही नहीं पाता। यही वजह है कि लोक संवादों में निहित अर्थ-विदग्धता संकलित किताबों में देखने को नहीं मिलती।”

प्रयाग जी लोक गाथाओं में इतने गहरे उतरते हैं तो उन्हें वहां समाज की ऐतिहासिक-सांस्कृतिक जड़ें दिखाई देती हैं। वे गाथाओं में इतिहास के सूत्र खोज लाते हैं और इतिहास के उद्धरणों से उनका मोटा-माटी मिलान करते हैं। रंवाईं के बरमौएवं हारुलोंमें या जोहार के गरखाया कत्यूरियों की भिवाईमें राज परिवारों की वंशावली ही नहीं मिलती, उस सदी के ऐतिहासिक सूत्र, युद्धों या रणनीतियों के संकेत भी प्रयाग जी देख लेते हैं। “14वीं सदी से लेकर 16वीं सदी तक के कत्यूरी खानदान से जुड़ी लोक वार्ताओं में इतिहास और गाथा तत्वों का जितना ही घालमेल देखने को मिलता है, जौनसारी हारुलों में  उतने ही निखालिस इतिहास के वाकए उपलब्ध होते हैं। उनमें इस्तेमाल होने वाले मोगलऔर पठानजैसे शब्दों से निस्सन्देह कहा जा सकता है कि 16वीं सदी के उत्तरार्द्ध और 17वीं सदी के पूर्वार्द्ध में घटित हुई घटनाओं की सूचना दे रहे हैं।” इस पुस्तक के मौखिक परम्पराओं में इतिहास के खोजशीर्षक अध्याय में लोकगाथाओं के ऐसे कितने ही प्रसंग और सम्बद्ध ऐतिहासिक घटनाओं के उद्धरण दिए गए हैं। यहां खोजका अर्थ आविष्कार नहीं, ‘चिह्न है।

पूजा पद्धतियों, अनुष्ठानों, पर्वों, आदि से जुड़ी लोक गाथाओं में रामायण, महाभारत, स्थानीय देवी-देवताओं के किस्सों के अलावा स्थानीय जनजीवन के विविध रूप, जैसे फसलें, नदी, पर्वत, पशु-पक्षी और मानव जीवन के तत्कालीन रूप दिखते हैं। सम्पूर्ण प्रकृति से मनुष्य के तादात्म्य और संवाद के रोचक वर्णन आते हैं। प्रकृति का मनोहारी वर्णन करता है गाथा सुनाने वाला। “संज्या’ (संध्या) गाय की पूंछ में बैठकर आती है। वह दिन के कामों से थकी स्त्री के आंचल में दुबकी है।” उधर, किसान की समस्याएं भी बोलती हैं- “जोड़ी का एक बैल बूढ़ा हो गया है। गोठ में बहड़ा है, पर हल में जुतना सिखाने वाला हलवाहा नहीं मिल रहा। खेती के उपकरण, पथरीली सारियों में टूट जाते हैं। कुदाली, हंसिया, दरांती, आंसी, कसी-खंते तरेरने होते हैं। लोहार दूर घने जंगल के करीब बसते हैं। यत्र-तत्र बिखरे खेतों की किसानी की दिक्कतों को कई गुना बढ़ा देने वाली हू-ब-हू तस्वीरें रमौल गाथाएं पेश करती हैं।”

लोक गाथाओं में समाज का जातीय वर्गीकरण भी खूब दिखाई देता है- “जाति, वर्ण और समुदायों के बंटवारे में परम्परा के भी हिस्से हुए।... पहले उसमें सारा स्त्री समुदाय साझीदार था। गाथा गीतों में बामन स्त्रियों का कब्जा हो जाने से उनमें व्रत, अनुष्ठान, कथा श्रवण, प्रचारार्थ फलश्रुति जैसी पौराणिकता का चस्पा हुआ है। परंतु अठवालीके उत्तरार्द्ध के गाथा गीतों में सनातन स्त्री विद्यमान है। वह जाति, वर्ण, धर्म, संस्कृतियों के भी दायरे से ऊपर है।”

प्रयाग जी का अध्ययन-संकलन गहरा ही नहीं, व्यापक है। वे पूरे उत्तराखण्ड की विविध लोक गाथाओं का अनेक प्रकार से विश्लेषण करते हैं और देश के विविध अंचलों में व्याप्त समानधर्मा परम्पराओं से उनका जोड़ भी बैठाते हैं। पता चलता है कि समाज, प्रकृति और जीवन-व्यापार की प्रवृत्तियां अनेक बार एक जैसी होती हैं- “मणिपुर के अंचलों का वसंतरास, गुजरात का गरबा डांडिया और जौनसार का तांडिया रास किसी न किसी स्तर पर अंतर्सूत्र के सम्बंध का सुराग देते हैं। दादरा, नागर हवेली का चालाकुमाऊनी ठुलखेत की चाली से केवल नाम-लिंग में ही अलग है।”

लोकगाथाओं की सांस्कृतिक शब्दावली’, ‘शब्दावली के ऐतिहासिक सत्यापन’, और लोकगाथाओं के एकाभिनयसम्बंधी अध्याय अत्यंत रोचक हैं। लोक गाथा सुनाने वाला ऐसे-ऐसे शब्द कहता है जिन्हें समझना या उसके संदर्भ तलाशना आसान नहीं होता। प्रयाग जी ने जैसा सुनाया वैसा ही लिख दियानहीं माना, बल्कि गायक से उसके अर्थ और संदर्भ भी पूछे और उन्हें तत्कालीन सामाजिक संदर्भों से मिलाकर उनके अर्थ लगाए। “अचकनुं, छ्यालनुं, बिसूण, पैर-पाड्., ठ्यापा जैसे शब्दों का दूसरा ही सौंदर्य है। वे या तो ध्वन्यर्थक हैं या हरकतों के व्यंजक। मानसिक स्थितियों को व्यक्त करने के लिए इस्तेमाल हुए शब्द रंड़क, दणमण, मणसेण, अल्पण-कल्पण, रंगतालो-भंगतालो जैसे शब्दों से विशेषण, साभिप्राय विशेषण शब्द गाथाओं के गायन में बनते चले जाते हैं। रुड़क्योलिसांझ आसमान से उतरती है। सुड़सुड़ीधाद लगती है। भौंर्याली आंखेंघूमती हैं। लुपलुपिया कोहरा घिरता है। फूलों की ढकमकहोती है। झुमझुमियांवर्षा होती है। प्रकृति चारों ओर रोश्यार-पोश्यार बिखेरती है। बादलों के छंटने के बाद झुमक्यालाघाम आता है।” किताब के दो अध्यायों में प्रयाग जी हमें गाथाओं में प्रयुक्त ऐसी अद्भुत शब्दावली से परिचित कराते हैं तो मन रंगतुंगाजाता है। एक कसक भी उठती है कि अपनी कथित विकास यात्रामें हमारे समाज ने कैसी सशक्त शब्दावली खोई है। क्या ही अच्छा हो कि प्रयाग जी ऐसा शब्द कोश ही बना दें।

एक महत्त्वपूर्ण अध्याय लोक गाथाओं के पारम्परिक गायकों और उनकी जातियों पर भी है। एक अन्य अध्याय में प्रयाग जी की सतर्क दृष्टि कहती है- “घुटनों तक खिंची हुई मिर्जई, चूड़ीदार पायजामा, सिर पर पगड़ी बांधे दरबारी जैसा दिखने वाला व्यक्ति, हाथ में पकड़े हुए हुड़ुके की थाप पर गाथा गायन के कारण ही हुड़क्या कहा जाने लगा होगा। हुड़क्या उसकी जाति नहीं थी।... कालांतर में यह शब्द व्यावसायिक जाति-विशेष का सूचक बन गया।” गायकों, उनकी जातियों और उनके संरक्षण वाले अध्याय में वे विस्तार से गाथा प्रस्तोताओं की जातियों-उपजातियों की इलाकेवार चर्चा करते हैं। बाजित्री या बाजगी या औजी या ढोली या झुमर्या या दमाई मूलत: लोक वाद्यों के शिल्पी और कलाकार हैं लेकिन हैं वे अस्पर्श्य। डोलियां ढोने वाले कोलटा या कोली असवर्णों में सबसे छोटी मानी जाती है। दासभी असवर्णों में गिने जाते हैं। हुड़क्या या बाद्दी या मिरासी मूलत: गाने वाले हैं। क्या त्रासदी और विडम्बना है या कहिए कि साजिश है कि उत्तराखण्डी समाज की पूरी संस्कृति का वाहक और रक्षक समाज अछूत बनाकर रखा गया। नाम उन्हें शिल्पकारका दिया गया लेकिन कलाकार का सम्मान और ओहदा नहीं। वे सवर्ण समाज की दया और दान पर ही बसर करते रहे। प्रयाग जी उन्हें लोक गाथाओं के पारम्परिक प्रकाशककहते हुए दर्ज करते हैं कि “वे हमसे अच्छे संग्रहकर्ता हैं क्योंकि उन्हें विरासत से इसका (मौखिक) अभ्यास है।”

उनकी यह टिप्पणी शोध-अध्येताओं के लिए महत्वपूर्ण है कि “लोक कवि, लोक आख्यान, लोक प्रबंध जैसे शब्दों का प्रयोग करके बैठ-बैठे दूसरों द्वारा संकलित किए गए पाठों का विश्लेषण करके होशियारी दिखाने वालों को लोक गायक जातियों से सीधा परिचय बढ़ाना चाहिए।” उनकी यह पीड़ा किताब में कई जगह व्यक्त हुई है कि लोकके नाम पर रोजगार चलाने वाले लोक गाथा गायकों और ग्रामीण जन से प्रत्यक्ष सम्वाद करते ही नहीं।

इस पुस्तक में प्रयाग जी ने गंवरा-महेसर वाली आठूंकी लोक गाथा का गाथा-रूपक भी रचा है जिसे मय संगीत मंच पर अभिनीत भी किया जा सकता है।  

प्रयाग जोशी चुपचाप यह महत्त्वपूर्ण काम करते आए हैं। लोक के गम्भीर और जमीनी अध्ययन की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। स्व-प्रचार और नकल का हल्ला है। इसलिए भी उनके मौलिक काम की ओर कम ध्यान गया है। लगभग गुमनाम प्रकाशकों से प्रकाशित उनकी पुस्तकें अचर्चित ही रह गईं। कम से कम लोक अध्येताकहाने वालों को तो उनका काम देखना-गुनना चाहिए। और, उनके काम को देखने-समझने की कुंजी भी वे बता देते हैं- “मैंने लोक विधाओं को उनमें ही मौजूद मानकों से समझने की कोशिश की है। मेरी क्रियाशीलता किताब की शैली के निर्माण में नहीं रही है। मैं लोकावलोकन में ही सक्रिय हूं।”

देहरादून के समय साक्ष्यप्रकाशक ने प्रयाग जी की यह पुस्तक छाप तो दी लेकिन प्रूफ संशोधन पर कतई ध्यान नहीं दिया। एक शानदार किताब में अनगिन अशुद्धियां सुस्वादु भोजन में मिट्टी की तरह किरकिराती हैं।

-न जो, 14 फरवरी, 2022      

Friday, February 11, 2022

असफलताओं पर पर्दा हैं ‘फ्री’ वाले वादे

 

चुनावी रैलियों-भाषणों में अमर्यादित भाषा और आरोप छाए हुए हैं तो पार्टियों के चुनाव घोषणापत्रों में  लुभावने वादों की बहार है। 300 यूनिट तक फ्री बिजली देने की बात पहले एक दल ने की। अब एक से अधिक दलों ने यह वादा दोहरा दिया है। किसानों को लुभाने में सभी लगे हैं। सो, उन्हें ऋण माफी से लेकर फ्री बिजली देने के वादे हो रहे हैं। फ्री लैपटॉप, टैबलेट, मोबाइल और सायकिल पुरानी बातें हो गईं। अब स्कूटी का जमाना है। लड़कियों को फ्री स्कूटी बांटने का वादा पहले कांग्रेस लाई। फिर भाजपा ने भी दोहरा दिया यही वादा। अब दोनों इस बात पर भिड़े हुए हैं कि किसने किसका वादा चुरा लिया।

तमिलनाडु से सम्भवत: इसकी शुरुआत हुई थी। द्रविड़ दलों की चुनावी लड़ाई इतनी तीखी हुई कि फ्री रंगीन टीवी तक बांटे गए। धीरे-धीरे यह प्रवृत्ति पूरे देश में फैल गई और राष्ट्रीय राजनैतिक दलों ने भी इसे अपनाना शुरू किया। शुरू में इसकी बड़ी निंदा होती थी। समाज का सचेत वर्ग और कुछ राजनैतिक दल भी इसे मतदातों को रिश्वत देने जैसा मानते थे। चुनाव के समय नकद बांटना अपराध है तो चुनाव के समय वादा करके बाद में बांटना क्या कहा जाएगा?

एक बार चुनाव से कुछ पहले अटल जी के जन्म दिन पर लाजजी टंडन ने लखनऊ में एक समारोह करके महिलाओं को साड़ियां बांटी थी। उस समारोह में मची भगदड़ में कई मौतें हुई थीं। इस हादसे के लिए ही नहीं, मुफ्त साड़ियां बांटे जाने की बड़ी निंदा हुई थी, हालांकि तब तक चुनाव आचार संहिता लागू नहीं हुई थी। अब तो चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद भी मतदाताओं को खुले आम ऐसे लालच दिए जाते हैं, जिन पर निर्वाचन आयोग की नज़र जानी चाहिए लेकिन जाती नहीं। अब सब चलने लगा है।

हमारे यहां चूंकि राज्य की अवधारणा कल्याणकारीकी है, इसलिए यह माना जाता है कि सरकारें गरीब-गुरबों, निराश्रितों, बेघरों, आदि की मदद करेंगी। यह सरकार का दायित्व माना गया है कि कोई भी भूखा और बेघर न रहे, कोई शीत से प्राण न गंवाए। सस्ती दरों पर राशन और इलाज उपलब्ध कराने की योजनाएं इसी दर्शन के अनुसार बनाई जाती रहीं। वे चुनावी लालच का हिस्सा नहीं थीं।

अब तो बेरोजगारों को रोजगार देने का वादा भी चुनावी होकर रह गया है। घोषणाएं होती हैं कि सरकार में आने पर दो करोड़ नौकरियां देंगे। रोजगार सृजित करना सरकारों का दायित्व है। जो दायित्व है, उसे लुभावना वादा क्यों बना दिया गया? यह अलग बात है कि सरकारें रोजगार देने में विफल होती हैं। सरकारी यानी जनता का धन ऐए-ऐसे कार्यों में व्यय किया जाता है जो उत्पादक नहीं होता यानी जिनसे रोजगार सृजन नहीं होता। इसीलिए बेरोजगारी बढ़ती है और फिर चुनाव जीतने के लिए फ्री चीजों का लालच दिया जाता है।

जनता के बड़े वर्ग को फ्री चीजों की ऐसी लत लगा दी गई है कि वे चुनावों का इंतज़ार करने लगे हैं। यह एक तरह से अपनी विफलताएं छुपाने की चाल है। इस आड़ में जनता को निकम्मा बनाने का काम भी हो रहा है। जनता सरकार से सवाल पूछने की बजाय फ्री वस्तुओं का इंतज़ार करती है। यह बहुत खतरनाक है। हमारे एक बैंक कर्मी मित्र बताते हैं कि अधिकतर किसान बैंकों से ऋण लेकर उसकी अदायगी जान-बूझकर नहीं करते। कारण यह कि चुनाव के समय सभी दल ऋण माफी के वादे करते हैं और जीतने पर कर भी देते हैं। ऐसे ही, लोगों को फ्री गैस कनेक्शन, फ्री आवास, फ्री राशन और नकदी का भी इंतज़ार रहने लगा है।                         

जितनी अधिक विफलताएं, उतने अधिक फ्री वादे।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 12 फरवरी, 2022) 

     

Friday, February 04, 2022

राजनैतिक जिह्वा पर चढ़ी कैसी शब्दावली!

भाषा पर गौर कीजिए। शब्द चयन देखिए। हाथों के इशारे, चेहरे की भंगिमा और आंखों का घूरना देखिए। तेवर देखिए और गर्जना सुनिए। लग रहा है कि चुनाव लड़ा जा रहा है? मतदाताओं को लुभाने, समझाने की कोशिश हो रही है या दुश्मनी निभाई जा रही है? विरोधी की कमियां और अपनी अच्छाइयां बताई जा रही हैं कि मार-काट का ऐलान हो रहा है? चुनाव मैदान में प्रतिद्वंद्वी प्रत्याशी हैं या पुरानी रंजिशों के खूंख्वार वारिस?

साल-दर-साल राजनैतिक शब्दावली ऐसा रूप लेती जा रही है कि लगता है, अपने यहां लोकतंत्र नहीं गुण्डागर्दी है। चुनाव क्या लड़ा जाता है, महाभारत का युद्ध हो जाता है जहां मर्यादाओं को तार-तार हुए भी युग बीत गए। अब तो लगता है बस, प्रतिदवंद्वी को ज़िंदा ही खा जाने वाले हैं। देख लेंगे’, ‘औकात बता देंगे’, ‘गर्मी निकाल देंगे’, ‘बदला लेंगे’, और भी जाने क्या-क्या! सुनते ही कान में गरम सीसा-सा पड़ने लगता है। बोलने वाले जन-प्रतिनिधि हैं या होने वाले हैं, वे देश-प्रदेश की नीतियां और समाज का भविष्य निर्धारित करने वाले हैं। छोटे-बड़े संवैधानिक पदों पर बैठे या उसके दावेदार नेताओं की भाषा हमारे संविधान, लोकतंत्र और राजनैतिक व्यवस्था के संदर्भ में कैसी ठहरती है?

चुनाव सभाओं के मंच या डिजिटल रैलियों में ही नहीं, प्रसार माध्यमों के लेखों, भाषणों, बातचीत और प्रसारणों की भाषा भी मर्यादा, नैतिकता और मानकों का खुलकर उल्लंघन करने लगी है। चुनाव प्रचार में निष्पक्षता और सभी दलों को बराबर अवसर देने के लिए आकाशवाणी और दूरदर्शन पर सभी राजनैतिक दलों को जनता के सामने अपनी बात रखने के लिए एक निश्चित समय दिया जाता है। राजनैतिक दलों से लिखित भाषण मांगे जाते हैं जिन्हें एक तटस्थ समिति चुनाव आयोग के निर्देशों के अनुसार जांचती और स्वीकृत करती है। पिछले कई चुनावों से इस समिति का सदस्य बनने का अवसर मिलता रहा है।

कुछ वर्ष पहले तक राजनितिक दलों की प्रचार सामग्री में शालीनता होती थी। मंच पर नेता चाहे जितने अनर्गल और अपुष्ट आरोप लगाएं, लिखित भाषणों में संयम दिखाई देता था। अब ऐसा नहीं है। प्रसारण के लिए प्रस्तुत इन भाषणों में में भी आपत्तिजनक शब्दावली खुलकर प्रयोग की जाने लगी है। एक-दो चुनाव पहले तक ऐसे शब्दों या वाक्यांशों को काटे जाने पर वे मान भी जाते थे लेकिन अब उसे सही ठहराने के लिए तर्क-कुतर्क करने लगे हैं। इसे भी कटु और व्यकतिगत होती राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता का प्रमाण माना जा सकता है।

निर्वाचन आयोग ने भी शायद इस बदलते महौल को स्वीकार कर लिया है। सार्वजनिक मंचों पर राजनैतिक दलों के बड़े नेता भी जिस भाषा का प्रयोग करने लगे हैं, उस पर उसका ध्यान नहीं के बराबर है। पिछले लोक सभा चुनाव में भी आपत्तिजनक शब्दावली खूब सुनने को मिली थी और आयोग से शिकायतें भी की गई थीं। कुछ शिकायतों पर उसने ध्यान ही नहीं दिया था और कुछ को अस्वीकार कर दिया था। जिन कुछ शिकायतों पर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई गई, उसमें ऐसी कोई कार्रवाई नहीं हुई जिससे कि नेताओं की जुबान पर लगाम लग सके।  

चुनावी जय-पराजय चूंकि धार्मिक और जातीय ध्रुवीकरण पर अधिकाधिक निर्भर होती गई है, इसलिए इसी आधार पर वैमनस्य फैलाने वाली भाषा का अधिकाधिक उपयोग होने लगा है। रैलियों-सभाओं में जातीय समूहों और धार्मिक गुटों को ललकारते हुए नेता सुने जा सकते हैं। सोशल मीडिया पर वायरल ऑडियो-वीडियो तो अत्यंत भड़काऊ हैं। इन दिनों वैसे भी चुनाव प्रचार डिजिटल हो गया है, ये आपत्तिजनक ऑडियो-वीडियो संदेश निर्बाध फॉर्वर्ड किए जा रहे हैं। इन पर प्रतिद्वंद्वी समूहों में गाली-गलौज भी होती रहती है।

शायद अब यही न्यू-नॉर्मल है!

(चुनावी तमाशा, नभाटा, 5 फरवरी, 2022)

             

Thursday, February 03, 2022

हमारी दुनिया कब समझेगी ‘शिक्षा का अर्थ’?

1970 के दशक में हमने इवान इलिच की पुस्तक ‘डी-स्कूलिंग सोसायटी’  पढ़ी थी। ऑस्ट्रिया के इस समाजशास्त्री लेखक ने विश्व भर में व्याप्त स्कूली शिक्षा की संस्था-बद्ध प्रणाली को सिरे से खारिज करके समाज को शिक्षा की दुकानों से मुक्त करने का आह्वान किया था। इलिच का मानना था कि हर बच्चा अपनी तरह का अलग एवं विशिष्ट होता है और उन सबको को एक ढांचे में बांधकर वास्तविक अर्थों में शिक्षित नहीं किया जा सकता। उसने आधुनिक शिक्षा प्रणाली में कई तरह के सुधार सुझाए थे जिनमें बच्चों के स्वभावानुसार अलग-अलग समूह बनाकर उन्हें आपस में सीखने देने, समाज के सामने अपनी जिज्ञासाएं रखने देने और टेक्नॉलॉजी के उपयोग से विकेंद्रित केंद्र बनाने जैसे प्रयोग थे। उनका कहना था कि स्कूलों के माध्यम से सभी को एक समान शिक्षा देने का विचार ही बहुत अव्यावहारिक और अवैज्ञानिक है। इलिच की यह किताब दुनिया भर में बहुत चर्चित हुई, उस पर खूब विमर्श हुआ लेकिन स्कूली शिक्षा का स्वरूप नहीं बदला। यह किताब आज भी अक्सर उद्धृत की जाती है।

1980 के दशक में एक और अद्भुत किताब आई- तोत्तो चानजो आज भी बहुत पढ़ी-कही जाती है। जापानी टेलीविजन की महशूर हस्ती तेत्सुको कुरोयानागी की यह छोटी सी किताब सच्चा या संस्मरणात्मक अनुभव है जिसने वैश्विक स्कूली प्रणाली को बच्चों की जेलसाबित करते हुए सीखने के गैर-परम्परागत तरीकों को सबसे मूल्यवान प्रमाणित किया। तोत्तो चानद्वितीय विश्व युद्ध के समय एक शिक्षक सोसाकु कोबायाशी द्वारा स्थापित एक नायाब स्कूल की सच्ची कहानी है जहां बच्चों के लिए कुछ भी बाध्यकारी नहीं था। यह तोत्तो चान नामक एक बहुत शरारती, बिगड़ैल और दूसरे बच्चों के लिए भी खतरनाकमानी गई बच्ची की कथा है जो एक नामी स्कूल से निकाल दी गई थी। वह कोबायाशी के  अनोखे स्कूल में अपनी ही जिज्ञासाओं और शरारतों से सीखती हुई एक दिन जापान की मशहूर हस्ती बनी। कोबायाशी के स्कूल में बच्चों को वह सब करने की आजादी थी जो वे करना चाहते थे। बस, उन्हें एक सुरक्षित एवं बिल्कुल अपना लगने वाला वातावरण प्रदान कर दिया जाता था।

कुछ ऐसा ही नायाब विचार पिछले कुछ समय से अमेरिकी लेखक पीटर ग्रे प्रस्तुत करते रहे हैं जो मनोविज्ञान के प्रोफेसर हैं लेकिन आधुनिक स्कूली शिक्षा प्रणाली के गम्भीर आलोचक होने के साथ-साथ बच्चों के सीखने के नए और गैर-परम्परागत तरीकों की जबर्दस्त वकालत करते हैं। उनकी पुस्तक फ्री टु लर्नबहुत लोकप्रिय है। उनका मुख्य जोर बच्चों को खेलते हुए सीखने देने पर है।

उत्तराखण्ड के सुदूर क्षेत्रों के बच्चों में विज्ञान चेतना विकसित करने का महत्त्वपूर्ण काम कर रहे आशुतोष उपाध्याय ने पीटर ग्रे के कुछ व्याख्यानों को हिंदी में प्रस्तुत करके 66 पेज की एक पुस्तिका तैयार की है –शिक्षा का अर्थजिसे कुछ दिन पहले ही नवारुण ने प्रकाशित किया है। अत्यंत सरल एवं प्रभावकारी भाषा में प्रस्तुत यह पुस्तिका कई समाजों के अध्ययनों और प्रयोगों का हवाला देकर अत्यंत विश्वनीय ढंग से यह बताती है कि बच्चों के वास्तव में शिक्षित होने का सबसे स्वाभाविक एवं उपयुक्त माध्यम खेल हैं।

वे तो यहां तक कहते हैं कि "हमें कुछ निर्धारित घण्टों के लिए शहर की सड़कों को बंद कर देना चाहिए ताकि बच्चे उन पर कब्जा जमाएं और खेल सकें।"

पीटर बताते हैं कि जैसे-जैसे समाज सभ्य-संस्कारी और आधुनिक बनता गया, बच्चों से उनका स्वाभाविक विकास छीन लिया जाता रहा- “खेलने और खोजने की आज़ादी उनसे छीन ली गई। मनमर्जी, जो कभी एक गुण मानी जाती थी, अब बुराई में गिनी जाने लगी, जिसका इलाज सिर्फ पिटाई था। .... एक अच्छे बच्चे का मतलब था, एक आज्ञाकारी बच्चा, जो खेलने और खोजने की अपनी सहज वृत्ति पर लगाम लगा सके। ...माना गया कि बचपन सीखने की उम्र है और इस तरह सीखने की जगह के रूप में स्कूल खड़े किए जाने लगे। ... शिक्षा दिमागों में ठूंसने का पर्याय बन गई।”

पीटर ग्रे मानते हैं कि “खेलने और खोजने की मानवीय वृत्तियां इतनी जबर्दस्त होती हैं कि इन्हें किसी बच्चे के दिल-दिमाग से रगेदा नहीं जा सकता।” तो, हुआ यह कि जो बच्चे खेलते हुए और खोजते हुए दुनिया में खड़े होने और सम्मान से जीने लायक सब कुछ सीख सकते थे, वे स्कूलों की कैद में ऐसे पाठ सीखने को मजबूर कर दिए गए जो स्वभावत: उनकी चाहत नहीं थे। थोपे गए विषय और सिखाने के तरीके तो उन्हें कतई नहीं भाते। इसलिए विषयों से उनका टकराव होता है। खेलों को और उनकी स्वाभाविक शरारतों को स्कूलों में ही नहीं, घरों में भी सजा का कारण बना दिया गया। पीटर ग्रे इतिहास में जाते हैं, घुमंतू-संग्राहक समाजों के दृष्टांत देते हैं और बड़े तार्किक ढंग से स्कूली शिक्षा की जोर-जबर्दस्ती को हमारे सामने रखते हैं।

आज हमारे देश में शिक्षा की जो स्थिति है, स्कूलों का जो-जैसा धंधा चल रहा है और जैसी पढ़ी-लिखी लेकिन अशिक्षितफौज वे पैदा कर रहे हैं, उसे हमसे अधिक कौन जानता है? क्या यह हमारा ही दर्द नहीं हैं, जब पीटर ग्रे कहते हैं कि- “हमारे बच्चे उस लड़ाई के मोहरे बन गए हैं जिसमें एक अभिभावक को दूसरे अभिभावक से, एक शिक्षक को दूसरे शिक्षक से, एक स्कूल को दूसरे स्कूल से और एक देश को दूसरे देश से इसलिए भिड़ाया जा रहा है कि कौन अपने बच्चों से ज्यादा से ज्यादा अंक निकलवाने में कामयाब होता है। हम अपने बच्चों से उनकी नींद छीन रहे हैं, खेलने और खोजने की उनकी स्वतंत्रता छीन रहे हैं। दूसरे शब्दों में, ज्यादा से ज्यादा अंकों की खातिर हम उनसे उनका बचपन छीन रहे हैं।”

क्यों किशोरों-युवाओं में आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ रही है? क्यों आज के बच्चे कुण्ठा एवं अवसाद ग्रस्त हैं? क्यों वे परिवार और समाज से कटे-कटे हैं? क्यों असहिष्णुता, झगड़े और तनाव बढ़ रहे हैं? क्या इन सबका सम्बंध हमारे स्कूलों और उस शिक्षा से नहीं से है जो वे दे रहे हैं और जिस तरीके से दे रहे हैं?

तो इलाज क्या है? पीटर ग्रे कहते हैं कि एक ही कुंजी है- चाहत। बच्चे जो चाहते हैं, उसे करने को मिले। सीखने का सम्बंध चाहत से होना चाहिए। बच्चे जो चाहते हैं उसे सीख करके रहते हैं। इसलिए पीटर ग्रे वकालत करते हैं कि “बच्चों के लिए पाठ्यक्रम, पाठ योजना, सीखने का प्रोत्साहन, परीक्षा और उन बातों की चिंता हमें नहीं करनी चाहिए जिन्हें शिक्षा शास्त्र के दायरे में रखा जाता है। इसके बजाय हमें इन चीजों में खर्च होने वाली ऊर्जा को ऐसे साफ-सुथरे वातावरण के निर्माण में लगाना चाहिए जहां बच्चे ठीक से खेल सकें। बच्चों की शिक्षा खुद बच्चों की जिम्मेदारी है, हमारी नहीं। यह काम वही कर सकते हैं। इसके लिए वे कुदरतन तैयार होते हैं।”

पीटर अपने सुझावों के पक्ष में कुछ ऐतिहासिक साक्ष्यों के अलावा मैसाचुसेट्स के सडवरी वैली स्कूल का उदाहरण पेश करते हैं “जहां के लोकतांत्रिक वातावरण में सभी बच्चों को वास्तव में बड़ों की तरह सभी अधिकार मिले हुए हैं। यहां बच्चे पूरी तरह स्वनिर्देशित गतिविधियों से खुद को शिक्षित करते हैं। ...यहां कोई परीक्षा नहीं होती, न कोई सुनहरा सितारा या इनाम दिया जाता है। यहां न कोई पास होता है, न फेल, न कोई पूर्व निर्धारित पाठ्यक्रम या पाठ, न ही पढ़ने के लिए कोई मान-मनौव्वल, न ही जोर-जबर्दस्ती....। यकीन मानिए, वे कुशल कारीगर, रसोइए, चिकित्सक, इंजीनियर, उद्यमी, वकील संगीतकार, वैज्ञानिक, समाजसेवी और सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनते हैं। वे उन सभी पेशों में नाम कमा रहे हैं जिन्हें हम अपने समाज में इज्जत देते हैं।”

इस किताब को अवश्य पढ़िए। बहुत छोटी-सी है लेकिन बहुत बड़ा संदेश देती है। आशुतोष उपाध्याय और नवारुण प्रकाशन ने यह अत्यंत सराहनीय काम किया है। जिन्होंने न पढ़ी हो वे तोत्तो चानभी इसके साथ पढ़ें। हमें शिक्षा की पूरी तस्वीर बदलने की दिशा में अवश्य सोचना-विचारना और इसके लिए वातावरण बनाना चाहिए ताकि यह दुनिया और भयानक होने से बचे।

पुस्तक- शिक्षा का अर्थ- पीटर ग्रे, अनुवाद- आशुतोष उपाध्याय। नवारुण प्रकाशन। मूल्य- 100 रु, सम्पर्क- 9811577426, 9990234750  

-न जो, 04 फरवरी, 2022                               

Tuesday, February 01, 2022

बुरी मौत और अच्छी मौत

दुनिया में बहुत सारे लोग 'बुरी मौत' मर रहे हैं- चेतावनी की तरह यह बात अंतराष्ट्रीय विशेषज्ञों की 27 सदस्यीय एक समिति ने कही है। बुरी मौत से उनका आशय है, अस्पतालों में दवाओं एवं मेडिकल उपकरणों से विलम्बित बना दी गई तकलीफदेह मौत। 

इस विशेषज्ञ समिति का कहना है कि दुनिया भर में परिवारीजन और डॉक्टर अपने प्रियजनों की आसन्न मृत्यु को टालते रहने का हरसम्भव जतन करने लगे हैं, तब भी जबकि उनका अर्थपूर्ण या कष्ट रहित जीवन बचाना सम्भव नहीं रह जाता है। निश्चित एवं स्वाभाविक मृत्यु का स्वागत करने की बजाय मरीज अस्पतालों की आईसीयू में लगभग अकेले, उपकरणों से छिदे, होश-बेहोशी के बीच झूलते हुए कष्ट झेलते रहते हैं और कह भी नहीं पाते।

अकेले भारत में 39 लाख मौतें, जो कुल सालाना मौतों का एक तिहाई हैं, गम्भीर बीमारियों एवं अत्यंत कष्टकारक स्थितियों के बाद होती हैं। कॉलकाता से प्रकाशित अंग्रेजी अखबार 'द टेलीग्राफ' में आज इस बारे में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। यह रिपोर्ट अंतराष्ट्रीय ख्याति वाले मेडिकल जरनल 'द लांसेट' में प्रकाशित विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट के संदर्भ में लिखी गई है। 

चिकित्सा विज्ञान ने बहुत तरक्की कर ली है, इतनी कि किसी मरते हुए या लगभग मर चुके व्यक्ति को भी पूरी तरह मरने से रोका जा सकता है। यह अलग बात है कि तब उसके जीने का कोई अर्थ होता नहीं। उलटे, वह आईसीयू में विविध सुइयों से छिदा हुआ, उपकरणों से बंधा हुआ, कृत्रिम सांसें लेता हुआ अत्यंत कष्ट में होता है। परिवार एकल हो गए हैं। उनके पास अपने बुजुर्गों या मरणासन्न सम्बंधियों की सेवा करने या उनके पास कुछ समय बिताने की फुर्सत नहीं होती। अनेक बार वे अपने बीमार परिवारीजनों से बहुत दूर भी होते हैं। इसलिए वृद्धावस्था में देखभाल और इलाज के एक से एक 'सुविधा सम्पन्न' अस्पताल खुल गए हैं। मरणासन्न परिवारीजनों को इन अस्पतालों में डालकर लोग निश्चिंत हो जाया  करते हैं। कभी-कभार कोई देखने आ गया तो ठीक वर्ना डॉक्टर, नर्स, आदि से ही वे घिरे रहते हैं। वे ही उनके गले में या नसों में पड़ी नलियों से खाना और दवाएं डालते हैं। यह स्थिति बीमारों के लिए शारीरिक और मानसिक रूप से अत्यंत कष्टकारी होती है।

'द लांसेट' में प्रकाशित विशेषज्ञों की रिपोर्ट में इसे ही 'बुरी मौत' कहा गया है। तो फिर 'अच्छी मौत' क्या है?

जीवन के अंतिम क्षणों में देखभाल के लिए समर्पित भारत की एक स्वैच्छिक संस्था 'पैलियम इण्डिया' के अध्यक्ष डॉ राजगोपाल 'द टेलीग्राफ' से कहते हैं- जीवन के अंतिम समय में, जबकि कोई व्यक्ति चिकित्सकीय मदद के लाभ से परे चला गया हो, उसे आईसीयू मेंं डाले रखने से अधिक भयानक कुछ नहीं हो सकता है। ऐसे समय तो होना यह चाहिए कि घर वाले उसके पास रहें, उससे प्यार से दो बातें करें, उसका आलिंगन करें। ऐसे समय मृत्यु को अपरिहार्य मानकर उस व्यक्ति को अधिकाधिक शारीरिक एवं मानसिक सुकून देना चाहिए। उसे अपनी पसंद की जगह, अस्पताल या घर पर रखना चाहिए ताकि जब मृत्यु आए तो  सहजता, सम्मान और निश्चिंतता के साथ वह उसका स्वागत कर सके। यही समानजनक या अच्छी मृत्यु है।

अपने देश में ऐसी अच्छी मौत पाने वाले कितने होंगे? डॉ राजगोपाल बताते हैं कि हमारा मानना है कि करीब चार प्रतिशत लोगों की ऐसी मौत मिलती है।

डॉ राजगोपाल यह भी कहते हैं कि पिछली एक-दो पीढ़ियों से हम स्वाभाविक मृत्यु की समझ ही भूलने लगे हैं। बढ़ते एकल परिवारों की वजह से ऐसा अधिक हुआ है। मौत के बारे में लोग आसानी से बात ही नहीं करते। मौत को ऐसे देखा जाता है कि उसे हर हाल में हराना ही है, जबकि हम जानते हैं कि हमेशा यह सम्भव नहीं है। मरणासन्न व्यक्ति के लिए घर वाले डॉक्टरों-अस्पतालों की दौड़ लगाते हैं। होना यह चाहिए कि जितना भी समय उसके पास बचा है, उसे सुकून दें, अपनापन दें, उसकी अंतिम इच्छा पूछें और पूरी करें। हो सकता है अंंतिम समय में वह कुछ खाना चाहता हो, किसी को देखना चाहता हो, कुछ कहना चाहता हो या किसी की नाराजगी दूर करना चाहता हो।

और, ऐसे समय में डॉक्टरों, आदि की क्या भूमिका होनी चाहिए? यही कि उसकी तकलीफ कम से कम हो। ध्यान जीवन की गुणवत्ता पर होना चाहिए। जब मृत्यु निश्चित हो गई हो तब उसे किसी भी रूप में नाम मात्र के लिए जीवित रखने और इस प्रक्रिया में कष्ट देने का कोई अर्थ नहीं है। 

है न यह एक ज्वलंत और विचारणीय विषय? ऐसे विमर्श कम ही अखबारों में पढ़ने को मिलते है। आज पढ़ा तो सोचा आपसे साझा करूं।

और, इसे पढ़ते-लिखते हुए मुझे दार्शनिक जे  कृष्णमूर्ति याद आने लगे। मृत्यु पर उनके बड़े गूढ़ लेकिन रोचक व्याख्यान हैं। रवींद्र वर्मा जी ने मुझे पिछले वर्ष उनकी एक पुस्तक पढ़ने को दी थी। सब तो समझ में नहीं आया लेकिन वे मृत्यु को अत्यंत सहजता से लेने और उसका स्वागत करने की बात करते हैं। एक स्वगत व्याख्यान में वे जीवन के अंतिम समय की तुलना पेड़ से झरे पीले जर्जर पत्ते से करते हैं जो हवा में उड़ा और पानी में बहा चला जाता है। मृत्यु को उस पत्ते की ही तरह आनंद से देखना चाहिए। ऐसा जैसा कुछ। 

-न जो, एक फरवरी, 2022 (चित्र इण्टरनेट से)