Monday, February 27, 2017

मतदान के हर चरण में बदल रहा परिदृश्य

नवीन जोशी
उत्तर प्रदेश की चुनावी तस्वीर हाल में बहुत तेजी से बदली और अब भी बदलती नजर आ रही है. पांच चरणों का मतदान हो चुका है. दो चरण बाकी हैं. विकास के दावों और वादों से शुरू हुआ प्रचार अब जातीय जोड़-तोड़, धार्मिक ध्रुवीकरण और व्यक्तिगत आरोपों-प्रत्यारोपों के निम्न स्तर तक उतर आया है. कब्रिस्तान-श्मशान और गदहे तक भाषणों में खासी जगह पा रहे हैं. इससे भी समझा जा सकता है कि चुनावी तस्वीर किसी एक के स्पष्ट पक्ष में नहीं दिख रही है. नेता गण विचलित हैं और इसे अपने पाले में करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रहे.
समाजवादी पार्टी का झगड़ा जब चरम पर था तब लगता था कि यूपी की सत्ता के लिए मुख्य लड़ाई भाजपा और बसपा के बीच होगी. सन 1992 के बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद से सपा के साथ मजबूती से जुड़े रहे मुसलमान मतदाता असमंजस में थे. इसीलिए उनका झुकाव मायावती की ओर दिख रहा था. मायावती की रणनीति भी दलित-मुस्लिम समीकरण के सहारे चुनाव जीतने की थी. उन्होंने इस बार सबसे ज्यादा मुसलमान प्रत्याशी इसीलिए खड़े किए हैं. यह समीकरण बसपा के पक्ष में जाता लग रहा था. भाजपा भी बसपा को मुख्य प्रतिद्वंद्वी मान कर मायावती को दलित विरोधी साबित करने में लगी थी.
भारतीय जनता पार्टी अपने सवर्ण आधार के साथ गैर-यादव पिछड़ों और गैर-जाटव दलितों का समर्थन पाने के लिए काफी समय से लगी हुई थी. सपा की लड़ाई का फायदा उठाते हुए वह बसपा को कमजोर करने  की रणनीति पर काम कर रही थी. स्थिति भी ऐसी बन रही थी कि सपा से खिन्न गैर-यादव जातियां पार्टी विभाजन से आजिज आकर भाजपा का साथ दे सकती हैं. मायावती के चंद बड़े दलित और पिछड़े नेताओं को भाजपा पहले ही अपने पाले में ला  चुकी थी. इन जातियों के समर्थन और मुसलमान वोटरों का बंटवारा होने की स्थिति में उसे यूपी की सत्ता का रास्ता साफ  लग रहा था.    
सपा की लड़ाई का फैसला अखिलेश यादव के पक्ष में होते ही यह दृश्य बदल गया. लगभग पूरी सपा पर अखिलेश का कब्जा होने, सायकिल चुनाव चिह्न उन्हें मिलने तथा कांग्रेस से अंतिम क्षणों में तालमेल होने से मुसलमानों का असमंजस खत्म होने के साफ संकेत थे. युवा मुख्यमंत्री अखिलेश की साफ-सुथरी छवि, विकासपरक उनकी सोच, अपराधी छवि के नेताओं से दूरी बनाने और कतिपय उल्लेखनीय उपलब्धियों की सर्वमान्य स्वीकृति से लगने लगा कि वे दौड़ में सबसे आगे रहेंगे.
यही वजह थी कि प्रधानमंत्री मोदी समेत सभी भाजपा नेताओं के हमले अखिलेश की सरकार और कांग्रेस पर तेज हो गए. साथ ही उन्होंने बसपा को मुख्य प्रतिद्वंद्वी बताना जारी रखा ताकि मुसलमान वोटरों में भ्रम पैदा हो, वे सपा-बसपा के बीच बंट जाएं और भाजपा की जीत की बाधा दूर हो.
ग्यारह फरवरी को मतदान का पहला चरण पूरा होते ही दृश्य फिर बदल गया. पश्चिमी उत्तर प्रदेश से मतदान के जो संकेत निकले वह भाजपा के पक्ष में कतई नहीं थे. मतदान के रुझान, मीडिया की जमीनी रिपोर्टों और पार्टी नेताओं के रुख से लगा कि जाट वोटरों ने भाजपा का साथ नहीं दिया, जैसा उन्होंने 2014 के लोक सभा चुनाव में एकमुश्त किया था. खबर यह रही कि जाट वोटर अपने परम्परागत ठिकाने, अजित सिंह की राष्ट्रीय लोक दल की तरफ लौट आए और मुसलमानों ने भाजपा को हरा सकने वाले सपा या बसपा प्रत्याशी का समर्थन किया. सन 2013 से ही पश्चिम में धार्मिक ध्रुवीकरण में लगी भाजपा के लिए यह बड़े नुकसान का संकेत है. उसे पहले चरण से अच्छी उम्मीद थी.
मतदान का दूसरा चरण मुस्लिम बहुल रुहेलखण्ड क्षेत्र में था और पंद्रह फरवरी की शाम ने हवा बदलने का संकेत दिया. मुसलमान वोटों का सपा-बसपा में बंटवारा होने की खबरों ने भाजपा के खेमे में उत्साह पैदा किया. तीसरा चरण मध्य यूपी के मुख्यत: शहरी क्षेत्र में था और भाजपा के काफी अच्छा प्रदर्शन करने की खबरें हैं. इसी के साथ पहली बार यह दिखाई दिया कि अखिलेश और राहुल की कैमिस्ट्री मंच पर भले दिखती हो, जमीन पर उनके कार्यकर्ताओं में आच्चा तालमेल नहीं है. कई जगह दोस्ताना लड़ाईके अलावा भी सपा कार्यकर्ताओं को लगता है कि वे कांग्रेस के बिना बेहतर करते. मतदान के बुंदेलखण्ड तक पहुंचते-पहुंचते यह खबरें आने लगीं कि गठबंधन कमजोर पड़ रहा है और भाजपा बेहतर करती जा रही है.
बुंदेलखण्ड से बसपा के लिए भी अच्छी खबर नहीं आई. बहुत पिछड़ा और बड़े-बड़े आर्थिक पैकेजों के प्रचार के बावजूद समस्याओं से ग्रस्त यह इलाका बसपा का गढ़ रहा है. मगर इस बार मतदान के संकेत बताते हैं कि अन्य पिछड़ी और कुछ दलित जातियों ने पाला बदल कर भाजपा का साथ दिया है. कुछ राजनैतिक विश्लेषक मान रहे हैं कि भाजपा की जातीय जोड़-तोड़ की रणनीति काम कर रही है. करीब एक माह से पूरे प्रदेश में घूम रहे वरिष्ठ पत्रकार बृजेश शुक्ल दावे के साथ कहते हैं कि गैर-यादव एवं गैर-जाटव दलित पहली बार भाजपा के पक्ष में एकजुट हो गए हैं. बृजेश तो यह भी कह रहे हैं कि गांव-देहात के गरीबों में नोटबन्दी का सकारात्मक प्रभाव भी भाजपा को फायदा पहुंचा रहा है. विरोधी दलों के प्रचार के विपरीत वे नोटबंदी को अमीरों के खिलाफ और गरीबों के हक में मान रहे हैं.
मतदान के पांचवे चरण के समय परिदृश्य यह है कि शुरुआत में लड़ाई में पिछड़ती दिख रही भाजपा अब आगे निकल रही है. अखिलेश यादव की बेहतर छवि और उनकी चर्चित उपल्ब्धियों से उन्हें तारीफ तो खूब मिल रही है लेकिन शायद वोट उस अनुपात में नहीं. सपा-कांग्रेस का गठबंधन सम्भवत: खास फायदे का सौदा नहीं हुआ. प्रारम्भ में भाजपा को सीधी टक्कर देने वाली मायावती की सोशल इंजीनियरिंग और दलित-मुस्लिम एकता के प्रयास अंतत: उतने प्रभावकारी नहीं लगते जितने शुरू में दिख रहे थे.
अपनी पार्टी को अब बढ़त में देख कर ही मोदी समेत भाजपा के सारे नेता अंतिम दो चरणों में अधिकतम लाभ लेने के वास्ते आक्रामक व्यक्तिगत प्रचार और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण कराने में लगे हैं.   (26 फरवरी, 2017)  
https://swarajyamag.com/politics/as-up2017-enters-fifth-round-a-bjp-surge-is-evident )
   

  

Saturday, February 25, 2017

इस बार वोट ‘करना’ था, आपने ‘दिया’ तो नहीं ?

नवीन जोशी

सबसे पहले हमने निर्वाचन आयोग की होर्डिंग में पढ़ा- वोट कीजिएतो सोचा कि छापे की गलती होगी. गलत लिखावट जहां-तहां देखने को मिलती रहती है. दीजिएका कीजिएहो गया होगा. एक-दो रोज बाद एक अखबार में पढ़ा- वोट जरूर कीजिए’. तब भी यही सोचा कि गलती से हो गया होगा. एक से एक विद्वान सम्पादकों-उप सम्पादकों के आ जाने के बाद अखबार प्रूफ रीडरों को विदा कर चुके हैं. वैसे भी, सूचना विस्फोट के इस युग में हिज्जों की गलती की किसे परवाह है.  अर्थ का अनर्थ होता रहता है. यह पाठक की जिम्मेदारी है कि वह गलत पढ़े और सही समझे. हमने भी ठीक ही समझा कि वोट दीजिए’. जरूर, अपना वोट अवश्य देंगे, भाई!

फिर दूसरे समाचार पत्रों में भी पढ़ने को मिलने लगा. टीवी चैनलों के पर्दे पर भी दिखाई दिया- वोट करना हमारा लोकतांत्रिक दायित्व है.मुस्कान बिखेरते परिचित चेहरे चहकने लगे- छुट्टी नहीं मनाना है, वोट करने जाना है.तब हमारा माथा ठनका. गलती न छापे की है, न प्रिण्टर की, न कॉपी एडिटर की. गलती हमारी है. हम बदलते और बेहतर होते समय के साथ नहीं चल पा रहे. वोट देनाभी अब वोट करनाहो गया होगा.  यह नया चुनाव सुधार होगा.

पहले मत पत्र होता था और मत पेटी होती थी. मत पत्र पर मुहर लगा कर उसे मत पेटी में डाला जाता था. इसलिए कहा जाता था- हमने अपना वोट डालदिया. मुहर मेरी लगेगी वहां...जैसे गाने भी बजते थे. वोट डालना’, मुहर लगाना’, ‘बैलेट बॉक्स लूटनापुरानी बातें हो गईं. मतपेटी से निकली पंजे की आंधीजैसा शीर्षक सुन कर आज का पत्रकार चकरा जाएगा. जैसे वोट करनापढ़-सुन कर हम चकरा रहे हैं.

हमारे एक युवा साथी ने कहा- सर, वक्त के साथ टेक्नॉलॉजी बदलती है और भाषा भी. पहले खत लिखतेथे अब ईमेल करते हैं. लिखने की क्रिया करनेमें बदल गई. हमने उसे शाबाशी दी, समझाने के लिए. फिर पूछा- सो तो ठीक, लेकिन ये बताओ कि जब इलेक्ट्रॉनिंग वोटिंग मशीन में बटन दबाते हैं तो वोट दबानाक्यों नहीं कहते. जैसे, अपना अमूल्य वोट अवश्य दबाइए?’
युवा साथी चकरा गया. थोड़ी देर बाद बोला- सर, आप अब भी खाना खाते हैं?’ हमने कहा- कैसी बात करते हो, खाना नहीं खाएंगे तो जिंदा कैसे रहेंगे?’ वह हंसा- सॉरी सर, मेरा मतलब था कि अब तो हम ब्रेकफास्ट करते हैं, लंच करते हैं, डिनर करते हैं. खाना खाना अब पचता नहीं’.

तो, वोट करना पचता है? वोट देना क्यों नहीं पचता?’ हमने पूछा. वह हंसता हुआ चला गया, जैसे कह रहा हो कि आप समझेंगे नहीं! हम गुजरे जमाने का होने को तैयार नहीं थे. इसलिए  फौरन पड़ोसी के घर की घण्टी बजाई, सॉरी, कॉल बेल. पूछा- वोट कर आए?’ 
वे हंसे- क्या हो गया आपको? वोट कब से किया जाने लगा? हम तो वोट दे कर आए हैं.

हमने कहा- आप ध्यान से अखबार नहीं पढ़ते? टी वी ठीक से नहीं देखते?  इस साल से वोट किया जाने लगा है.

भाई जी, कम से कम हमारे वोट के साथ मजाक मत कीजिए.कह कर उन्होंने मुंह फेर लिया. हम उन्हें कैसे समझाएं कि अखबार-टी वी मजाक नहीं करते. (नभाटा, 26 फरवरी, 2017) 
      


    

चुनाव के कौतुक और कौतुकों का चुनाव

चुनाव हमारे यहां कौतुक भी कम नहीं. महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अलावा मेला और मनोरंजन. पिछले दो दशक में चुनाव आयोग ने इसकी शुचिता के लिए कई जरूरी एवं सख्त कदम उठाए. नतीजा यह हुआ कि राजनैतिक दलों और प्रत्याशियों की बहुत सारी अराजकता और मनमानियां दूर हुईं. जनता की परेशानियां कम हुईं लेकिन चुनाव का जो कौतुक पक्ष था, वह भी जाता रहा. झण्डे, पर्चे-पोस्टर, बैनर, बिल्ले, नारे, चौबीस घण्टे का गीत-संगीत और गली-मुहल्ली घूमती गाड़ियों के पीछे भागते बच्चे, आदि-आदि गायब हो गए. प्रचार के नए तरीके निकल आए. मोबाइल पर भांति-भांति के ऑडियो-वीडियो संदेशों  में वह मजा कहां जो चींघाड़ती गाड़ियों से उड़ाए जाते पर्चों-बिल्लों को देखने या लूटने में आता था. आमने-सामने डटीं दो विरोधी प्रत्याशियों की प्रचार गाड़ियों की जवाबी नारेबाजी या कव्वाली अब देखने को नहीं मिलतीं. खैर.

गांवों कस्बों में आज भी चुनाव अच्छा मेला-तमाशा है. ढाबों-चौपालों की बैठकी बहुत मजेदार होती है. सयाने लोगों के सामने मजमा लगा रहता है. तरह-तरह की बातें होती हैं. प्रत्याशी आते हैं तो दृश्य रोचक हो जाता है. दुआ-सलाम से लेकर पांयलगी तक होती है. प्रत्याशी आशीर्वाद मांगता है तो खुले दिल से दिया जाता है. कहा जाता है कि तुम ही जीतोगे. दूसरे प्रत्याशियों पर भी कृपा बरसाई जाती है. उनके जाने की बाद हंसी-ठट्ठा भी होता है. आलोचना और तारीफें होती हैं. कई बार बहस तीखी हो जाती है. जाति-उप जाति के लोग एक-दूसरे को तौल रहे होते हैं.

मीडिया की टीम पहुंचती है तो माहौल फिर बदल जाता है. गम्भीर बने ग्रामीण अपना मन खोलते नहीं. आप पूछते रहिए, किसका जोर है, कौन जीतेगा, वे कभी सीधा उत्तर नहीं देंगे. घुमा-फिरा कर बात करेंगे. उलटे पूछ लेंगे, आप पंच बताओ, केहिका जितावा जाई? वे सवाल पूछने पर और प्रत्याशियों के निवेदन करने पर मजे लेते हैं. आश्चर्य नहीं कि, एक ही क्षेत्र से लौटे अलग-अलग मीडिया वालों की राय अलग-अलग होती है. ज्यादातर तो राय बना ही नहीं पाते और जनता के डायलॉग कोट करके या हिन्दू-मुसलमान और जातियों का आंकड़ा बता कर चुनाव रिपोर्ट तैयार कर देते हैं. भारतीय मतदाता मीडिया को ही नहीं, चुनाव सर्वेक्षणों और एक्जिट पोल विशेषज्ञों को भी चकमा देने में माहिर हैं.

जातियों-उपजातियों में गहरे बंटा असमान भारतीय समाज चुनाव नतीजों में मुखर होता रहा है. खास लहर वाले कुछेक चुनावों को छोड़ दें तो समाज का यही बंटवारा प्रत्याशियों  की नैया पार लगाता या डुबोता  है. आजादी के बाद के शुरुआती दशकों के चुनावों में जातीय रणनीतियों पर विकास और विचार की राजनीति हावी थी. तब राजनीति में कुछ मूल्य होते थे. धीरे-धीरे जाति की राजनीति हावी होती गई. आज राष्ट्रीय कहे जाने वाले दल भी जाति और धर्म की राजनीति पर उतर आए हैं. क्षेत्रीय दलों का उभार जाति आधारित रहा, भले ही समाजवाद जैसे शब्द आवरण बने हों. जातीय असमानता और घोर वंचना से यह राजनीति पनपी और कुछ संदर्भों में उसकी सार्थकता भी है. मतदाता इस आधार पर अपना वोट नहीं तय करने वाला हो तो भी राजनैतिक दल उसे मजबूर कर देते हैं.
क्या विडम्बना है कि प्रबंधन के विशेषज्ञ कम्प्यूटर और सॉफ्टवेयर पर जातीय समीकरण का जोड़-तोड़ करके जीत का फॉर्मूला बनाते हैं! उसी आधार पर जिताऊ प्रत्याशी चुना जाता है. भारतीय चुनावों में यह भी कम कौतुक की बात नहीं. (नभाटा, 12 फरवरी, 2017)

  


Saturday, February 04, 2017

राजनैतिक चंदे का श्रोत अज्ञात रहना है तो सीमा कैसी?


नवीन जोशी
आम बजट प्रस्तावों में एक यह भी है कि राजनैतिक दल किसी भी व्यक्ति से नकद में दो हजार रु से ज्यादा चंदा नहीं ले सकेंगे. अभी यह सीमा बीस हजार रु है.  इस प्रस्ताव को राजनैतिक चंदे में पारदर्शिता लाने की दिशा में बड़ा कदम माना जा रहा है. कहा जा रहा है कि यह चुनाव सुधारों की तरफ भी बड़ा कदम है. क्या वास्तव में?
अभी बीस-बीस हजार रु का चंदा हजारों-लाखों अग्यात लोगों से लेकर इस सीमा की खिल्ली उड़ाई जाती है. किसी एक व्यक्ति से लाखों-करोड़ों रु नकद चंदा लेकर उसे अलग-अलग अग्यात नामों से दिखाया जा सकता है. आगे से दो-दो हजार रु लाखों अग्यात लोगों से मिला हुआ दर्ज किया जा सकता है. यानी राजनैतिक चंदा पहले की तरह अब भी गोपनीय रहेगा. उसे सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर जो कर दिया गया.
इसका सबसे अच्छा उदाहरण मायावती पेश करती रही हैं. उन पर आरोप लगते आए हैं कि वे बसपा को चंदे के नाम पर करोड़ों रु लेती रही हैं. मायावती हर बार यही जवाब देती हैं कि लाखों की संख्या में बहुजन समाज के लोग बसपा को एक-एक, दो-दो  रु चंदा देते हैं. नोटबंदी के बाद बसपा के बैंक खाते में 104 करोड़ रु जमा होने की खबर आने पर भी उन्होंने यही जवाब दिया था. मौजूदा नियमों में यह कोई गुनाह नहीं है. मायावती एक-दो रु चन्दा लाखों अग्यातलोगों से मिलने की बात कहती हैं, दूसरी पार्टियां लाखों लोगों से दो-दो हजार रु लेने की बात कह सकती हैं और पाक-साफ बनी रहेंगी.
तो, नकद चंदा लेने की सीमा बीस हजार से घटा कर दो हजार करने का प्रस्ताव जनता की आंख में धूल झौंकने के सिवा और क्या है? उससे न इस मामले में पारदर्शिता आनी है न कोई चुनाव सुधार होना है. पारदर्शिता लाने के लिए जरूरी है कि पार्टियों को चंदा किस-किस से और कितना मिला, यह सार्वजनिक किया जाए. दो हजार रु से ज्यादा का जो चंदा पार्टियां चेक से लेंगी, उसका दाता भी गोपनीय ही रहेगा. राजनैतिक दलों को बड़ी-बड़ी रकम चंदे में देने वाले का नाम ही उजागर नहीं होगा तो कैसी पारदर्शिता?
यही नहीं, वित्त मंत्री ने जो चुनाव बॉण्ड जारी करने का प्रस्ताव किया है, वह भी कोई सुधारात्मक कदम नहीं है. कोई भी व्यक्ति कितनी भी रकम का बॉण्ड खरीद कर पार्टियों को चंदे के रूप में दे सकता है. उसका नाम जनता के लिए 'अग्यात' ही रहेगा.  
अग्यात श्रोतों से मिलने वाला भारी राजनैतिक चंदा भ्रष्टाचार और सरकारी पक्षपात का बड़ा कारण है.  एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक 2004-05 से 2014-15 के बीच सात राष्ट्रीय दलों और 50 क्षेत्रीय पार्टियों को मिले कुल चंदे का 70 फीसदी 'अग्यात श्रोतोंसे आया था. अगर चंदे का श्रोत अग्यातही रहना है तो उसकी सीमा दो हजार हो या दो लाख, क्या फर्क पड़ने वाला है?

कुछ समय पहले कानपुर की रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव आयोग से अपील की थी कि वह राजनैतिक चंदे के मामले में पारदर्शिता बरतने के लिए पार्टियों पर दवाब डालें. इस चंदे को सूचना के अधिकार के दायरे में लाकर यह काम मोदी जी खुद क्यों नहीं करते? (नभाटा, 05 फरवरी, 2017)