Sunday, August 24, 2014

तमाशा मेरे आगे / जेई तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं!

(नभाटा, लखनऊ, 24 अगस्त को प्रकाशित)
आम तौर पर सुबह अखबार पढ़ते हुए मन भारी हो जाया करता है. देश-दुनिया की ऐसी-ऐसी खबरें कि बांचना भी ज़रूरी और बांचने के बाद मन पर मनों बोझ आसानी से जो उतर जाए! भला हो सम्पादक जी का, उस सुबह ऐसी खबर छापी कि हमारा दिल बाग-बाग हो गया. हमें बहुत समय बाद यह मुहावरा भी उसी दिन याद आया.
खबर यह थी कि लेसा का एक जेई रिश्वत लेते रंगे हाथ पकड़ा गया. एक दुकानदार से नए बिजली कनेक्शन के लिए छह हज़ार रु में बात तय हुई थी. “बात तय होना” समझते हैं न! तो, दुकानदार ने चार हज़ार रु अग्रिम दे दिए. जेई ने फौरन कनेक्शन करवा दिया मगर दुकानदार की नीयत में खोट आ गया. सोचा होगा कनेक्शन तो हो गया, मीटर भी लग ही जाएगा. लेकिन जेई बात का पक्का निकला. उसने कहा-, बाकी दो हज़ार दो तो मीटर लगे. दुकानदार किसी बहकावे में भ्रष्टाचार निवारण संगठन के पास चला गया.
बिना काम के बोर होते भ्रष्टाचार निवारण वालों ने तत्परता दिखाई और जेई को धर दबोचा. हमारा दिल बाग-बाग करने वाली बात ठीक इसी के बाद हुई. जैसे ही जेई को घूस लेते जाने पकड़े जाने की खबर फैली, उनकी यूनियन के लोग थाने पहुंच गए और अपने साथी को छुड़ाने के लिए प्रदर्शन करने लगे. तीन घण्टे तक वे थाने पर डटे रहे. यह हुई न एकता! पता नहीं, कब किसकी बारी आ जाए.
जब भी कोई भूले-भटके रिश्वत लेते पकड़ा जाता है तो बेचारा कितना अकेला पड़ जाता है, थाने में मुंह छुपाए ऐसा उदास बैठा रहता है जैसे उसने बड़ा भारी अपराध किया हो. अब लेसा वालों ने रास्ता दिखा दिया है. आइन्दा रिश्वत लेते पकड़े जाने वालों के समर्थन में थाना घेरने वाले, “भैया, तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं” जैसे नारे लगाने वाले होंगे और जेल के अंदर भी उनका मनोबल ऊंचा रहेगा. शाबाश!
आगे के लिए हमारे पास चंद सुझाव हैं. एक- उन्हें मांग करनी चाहिए कि तय रकम का एक हिस्सा देने के बाद बाकी रकम देने से इनकार करने और शिकायत करने वालों पर भ्रष्टाचार निवारण वालों को विश्वास भंग के लिए कड़ी कारवाई करनी चाहिए. दो- सीधे-साधे-सरल लोग ही रंगे हाथ पकड़े जाते हैं. अत: रंगे हाथ पकड़ने की व्यवस्था हटाने के लिए लड़ाई लड़नी चाहिए. बहुत सारे संगठन साथ आ जाएंगे. तीन- विधायकों-मंत्रियों से अपील करनी चाहिए कि जन हित में बची-खुची कार्य-संस्कृति को बनाए रखने के लिए उनका सार्थक हस्तक्षेप ज़रूरी है. वे थाने पर धावा भले न बोलें लेकिन कम से कम भ्रष्टाचार निवारण के अफसर को हड़काएं ज़रूर. आखिर उनकी भी साख का सवाल है.
लोग यह समझते ही नहीं कि बिजली कनेक्शन देने, मीटर बदलने, वगैरह में इंजीनियरों को कितनी मेहनत करनी पड़ती है. कागज-पत्तर भरने पड़ते हैं, दौरा करना पड़ता है, सामान जुटाना पड़ता है और किसके लिए? वैसे भी, इस ज़बर्दस्त महंगाई के जमाने में रिश्वत के बिना काम कहां चलता है. धत तेरे की, हम इसे रिश्वत क्यों कहे जा रहे हैं, इसके तो कई बेहतर नाम प्रचलन में हैं. खैर, इसी से न्यारे बंगले बनते हैं और बच्चे आलीशान गाड़ियों में सबसे अच्छे स्कूलों में जाकर अपना भविष्य बनाते हैं. कुछ लोगों को नोटों के बिस्तर पर ही नींद आती है तो क्या वे रात-रात भर जागते रहें? इसके बिना क्या कोई बीवी को कायदे की जुलरी दिला सकता है? और बेटे-बेटी का ब्याह? इतने सारे मैरिज लॉन, और फॉर्म हाउस इसी को तो ध्यान में रख कर खोले गए होंगे! ज़्यादा क्या कहना, भगवान की महिमा तक इसी से बची हुई है. जितनी कमाई बढ़ती जाती है, उतने सुंदर मंदिर और मूर्तियां बनती हैं, भजन-भण्डारे होते हैं. जिसको मौका नहीं मिलता वही इससे चिढ़ता है. अपने मन से ही पूछ लीजिए न!
एक बात हम “अच्छे दिन” लाने वालों से भी विनम्रता से कहना चाहते हैं. जितने भी ”निवारण” और “निषेध” नामधारी सरकारी विभाग बचे हैं, सोचिए कि आज उनकी प्रासंगिकता क्या है? मद्य निषेध विभाग को “मद्य विकास विभाग” बना दीजिए तो इस दफ्तर के भी अच्छे दिन आएं. भ्रष्टाचार निवारण संगठन को “तत्काल कार्य विभाग” जैसा कोई नाम दिया जाए. जैसे ट्रेन रिजर्वेशन में तत्काल होता है, ज़्यादा पैसे देकर फौरन रिजर्वेशन, वैसे ही. आज़ादी के बाद पैदा हुई पीढ़ी के लिए “निषेध” और “निवारण” बेमानी हो चुके. वह शौचालयों से परहेज़ करने वाली 75 पार पीढ़ी का दिमागी दिवालियापन है. योजना आयोग खत्म हो सकता है तो इन विभागों को भी बदल कर स्वच्छ-निर्मल भारत बनाइए. बंदा सेवा में हाज़िर है!


Saturday, August 16, 2014

तमाशा मेरे आगे / प्लास्टिक का तिरंगा बनाम देश का मान



(नभाटा, लखनऊ में 17 अगस्त को प्रकाशित)

साइकिल के कैरियर में झव्वा रखा कर सड़क किनारे वह अमरूद बेच रहा था. भाव पूछा तो बताया- “40 रु किलो.” उससे थोड़ी दूर पर ठेले वाला तीस रु किलो की आवाज़ लगा रहा था. “ज़्यादा नहीं है?” कहने पर वह बिदक गया- “क्या ज़्यादा है, बाबू. दो रोटी खाना मुश्किल हो गया है. जब से मोदी आए हैं, आलू खरीदना भी मुश्किल हो गया है.”
हमने कहा- आलू मोदी ने महंगा किया है क्या?”
-“और नहीं तो क्या! पहले आदमी किसी तरह खा तो रहा था.”
-“मोदी को आप ही ने तो जिताया.” हमने उसे छेड़ा.
-“हम हाथी वाले हैं, सच बताए देते हैं.” उसने सगर्व कहा और एक बड़े अमरूद की जगह छोटा वाला रखकर तौल सही की. इतने में एक छोटा लड़का तिरंगे झण्डों की गड्डी लिए आ पहुंचा- “एक ले लीजिए साहेब.” हमने एक झण्डा ले लिया. राष्ट्र ध्वज के वास्ते नहीं, उस लड़के की मासूम मनुहार के कारण. स्वाधीनता दिवस के मौके पर झण्डे बेच कर उसे कुछ कमा लेने का मौका मिला है.
-“और दिन क्या बेचते हो?” हमने बच्चे से पूछा.
जवाब अमरूद वाले ने दिया- “कुछ भी बेचे साहेब, लेकिन देश नहीं बेचता.”
अमरूद वाले का ताना तीर की तरह दिल में उतर गया. क्या गहरी बात कह दी उसने! मैं सन्नाटे में आ गया. एक गरीब आदमी अमरूद-केला बेच कर परिवार पालने की ज़द्दोज़हद में लगा हुआ है और उसे अच्छी तरह पता है कि बहुत सारे लोग देश बेच कर ऐश कर रहे हैं. इसीलिए उसके भीतर बड़ी कड़वाहट भरी हुई है.
उसकी बात मन में बवण्डर मचाती रही. चारों तरफ झण्डे लहरा रहे थे. सरकारी इमारतों पर तीन दिन से जगमग रोशनी हो रही थी. उस सुबह जगह-जगह तिरंगा फहराया गया, राष्ट्र गीत गाया गया, बड़े-बड़े भाषण दिए गए. लाल किले पर पिछले दस साल से आसमानी पगड़ी में एक कमजोर आवाज़ देश के बारे में गौरवपूर्ण बातें करती थी. इस साल उसी जगह से सुर्ख पगड़ी और ओजपूर्ण वाणी में देशवासियों को खूबसूरत सपने सुनाए गए.
क्या झण्डे लहराने, ओजपूर्ण भाषण देने, और जै-हिंद के गगन भेदी नारे लगाने से देश बनता है? सपने देखना-दिखाना ज़रूरी है पर वे सच किस के लिए हो रहे हैं? अमरूद वाला कहता था कि वह बच्चा झण्डे बेच रहा था, देश नहीं. देश कौन बेच रहा है?
दिल्ली में कैबिनेट सचिव ने इस बार आला अफसरों को पत्र भेज कर कहा था कि लाल किले के स्वाधीनता समारोह में उनकी उपस्थिति हर साल कम होती जा रही है. इस बार उन सभी अधिकारियों का आना ज़रूरी है, अन्यथा इसे गम्भीरता से लिया जाएगा. क्या ड्रेस कोड में उनकी उपस्थिति इस बात की गारण्टी है कि उनके रोज़मर्रा के काम भी देश-सेवा के लिए होते हैं? नेताओं का खद्दर का बाना क्या यह आश्वस्ति देता है कि वे इस देश के सामान्य जन की बेहतरी का संकल्प भी धारण किए हुए हैं? वे जो कहते हैं उस पर लोग कितना भरोसा करते हैं? उनकी कथनी और करनी में जो फर्क दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है, उसकी शर्म उन्हें क्यों नहीं होती? वे कितनी शान से राष्ट्र ध्वज फहराते हुए देश सेवा, कर्तव्यों और दायित्वों के बारे में बड़बोले बयान दिए जाते हैं! क्या एक पल को भी वे आत्मचिंतन करते होंगे कि उन्होंने क्या कहा और किया क्या?
हमारे एक पत्रकार साथी ने वाट्सऐप पर संदेश भेजा था कि बाज़ार में प्लास्टिक के तिरंगों की भरमार है और यह राष्ट्र ध्वज का अपमान है. इसके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए. उस बच्चे से हमने जो झण्डा खरीदा था वह भी प्लास्टिक का ही था. नियमत: यह गलत है लेकिन क्या वह निरीह बच्चा राष्ट्र ध्वज और देश का अपमान कर रहा था? क्या इस ध्वज को कितने ही लोग तरह-तरह से पददलित नहीं कर रहे हैं? ऐसे लोग मज़े कर रहे हैं और बाकी जनता रोजी-रोटी की ज़द्दोज़हद में ही परेशान है. ऐसा क्यों है और कब तक रहेगा?  
देश अगर एक भूगोल के अलावा विविध जातीय-धार्मिक-सांस्कृतिक एकता का नाम भी है तो सिर्फ चुनावी स्वार्थों के कारण कौन लोग इसके ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने में लगे हैं? पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही पिछले कुछ महीनों से जो फसाद कभी जमीन के एक टुकड़े, कभी पंचायत या कभी एक लाउडस्पीकर के बहाने पैदा किए जा रहे हैं और जो लोग यह कर रहे हैं, वे देश का कैसा सम्मान कर रहे हैं? वे कौन लोग हैं?
एक और पंद्रह अगस्त मना चुकने के बाद क्या हम इन सवालों के उत्तर तलाशने और समझने की कोशिश कर रहे हैं?



Sunday, August 10, 2014

हरेले की चिट्ठी



 ("नैनीताल समाचार" के हरेला अंक-2014 में प्रकाशित)


आहा संपादक जी, इस बार आपने हरेले की चिट्ठी लिखवाने को हमें पकड़ ही लिया! कितने बरस बाद अपने समाचार को पत्र लिखने बैठा हूँ। याद नहीं, कब लिखी थी पिछली चिट्ठी। उत्तराखण्ड के हाल, निजी सुख-दुख, यहाँ-वहाँ की खबरें और छिट-पुट टिप्पणियाँ फोन पर कह-सुन ली जाने वाली ठहरीं या फिर एसएमएस से....आज देख रहा हूँ कि कागज पर कलम से उतर रहे हरफ कितने प्यारे लग रहे हैं! अब यह अलग बात है कि प्यारे लग रहे इन शब्दों के अर्थ तकलीफदेह हो जाएँ। आम तौर पर स्वस्ति सिरी सर्वोपमायोग्य…’ से शुरू होने वाली हरेले की चिट्ठी आहा से शुरू हो पड़ी है और यह आहा पत्र पूरा होते-होते एक आह में बदल जाए तो माफ कर देना हो, संपादक जी।
देश के हालात आपको पता ही ठहरे। अच्छे दिन दिल्ली से चलने ही वाले हैं या अब तक चल ही चुके होंगे। वैसे भी हमारे बड़े-बड़े अखबार आपको बता ही रहे होंगे कि अच्छे दिन कैसे और कहाँ-कहाँ से आ रहे हैं। रास्ते में थोड़ी अबेर तो हो ही जाने वाली हुई। यही देख लो कि इन अच्छे दिनों को गुजरात से दिल्ली पहुँचने में ही कोई बारह बरस लग गए। लेकिन अब उम्मीद है कि दिल्ली से ये जल्दी-जल्दी देश के ओने-कोने में पहुँच जाएंगे। आपके पास आ जाएँ तो फट से एक एसएमएस कर देना या वाट्स-ऐप फ्री का ठैरा। आखिर इतने बरस से, अबोध कैशौर्य और उत्तेजनापूर्ण जवानी से लेकर परिपक्व बुढ़ापे तक आप अच्छे दिनों के लिए ही तो लड़ रहे ठहरे! आते ही इन अच्छे दिनों को जल्दी से जल्दी आप सुदूर गाँव-कस्बों को रवाना करना जहां कब से इनका बेसब्री से इंतज़ार हो रहा। कितनी बड़ी लड़ाई लड़ी जनता ने, कैसे-कैसे बलिदान जो दिए ठहरे।

यही देखो संपादक जी कि आप नदियों के लिए कितने चिंतित रहने वाले हुए, नदी बचाओ यात्राएं करने वाले हुए, जंगल और जमीन से भी पहले जल पर जनता के निर्बाध हक़ की वकालत करने वाले हुए। तो, आप जैसे विचारकों की भावनाओं का सम्मान करते हुए मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही गंगा को शुद्ध करने का राष्ट्रीय अभियान छेड़ दिया है और गंगा निकलने वाली ठहरी हमारे ही उत्तराखण्ड से। हमारी कितनी नदियों, गाड़-गधेरों से बनने वाली हुई गंगा। कितना आनंददायी है कि अच्छे दिनों की शुरुआत गंगा से हो रही है- नमो गंगे! आप लोग ख़्वामख़्वाह शंका करते हो, लिखते रहते हो कि जनता से उसकी नदियाँ छीन कर सुरंगों में डाली जा रही हैं, वगैरह। हो सकता है संपादक ज्यू की पहले की बुरे दिन वाली सरकारें ऐसा कर रही हों। अब तो दिन बदलने लगे हैं। आज गिर्दा ज़िंदा होता तो तुम तो पानी के व्योपारी की बजाय अजी वाह, क्या बात तुम्हारी, तुम तो गंगा के उद्धारी! नहीं लिखता क्या!

संपादक ज्यू, मुझे लगता है की हमारे अच्छे दिन नदियों के ही रास्ते आएंगे लेकिन बब्बा हो, तुम्हारी तो सारी की सारी नदियां नीचे मैदानों को बह आती हैं! उत्तराखण्ड के हिस्से के अच्छे दिन भी उनके साथ ही नीचे को बहते रहेंगे क्या?... मगर कोई बात नहीं, उत्तराखण्ड की सरकारें, कांग्रेसी हों या भाजपाई, बांध बनवाने में माहिर ही हुईं। अच्छे दिनों को वहीं रोके रखने के लिए और बांध बनवा दिए जाएंगे। 

संपादक ज्यू हो, अच्छे दिन आते हैं तो छप्पर फाड़ के ही आते हैं, बल! देखो न, उधर कॉर्पोरेट-मीडिया-अवतारी प्रधानमंत्री ने अच्छे दिन देने शुरू किए और इधर उत्तराखण्ड की राजधानी कैंप करने पहुँच गई गैरसैण! गजब हुआ कि नहीं? लाख आंदोलन किए हों, नारे लगाए हों पर आपने कभी सोचा था कि उत्तराखण्ड की विधान सभा गैरसैण में बैठेगी, तम्बू के भीतर ही सही? जनता कब से टेर रही ठहरी कि गैरसैण को बनाओ राजधानी, कौन सुन रहा था अब तक? लेकिन देखो, जैसे हरदा के नेतृत्व वाली कांग्रेसी सरकार को रात में सपना आया हो, दून सरकार और विधान सभा दौड़ी-दौड़ी पहुँच गई गैरसैण! विघ्न-संतोषी कह रहे हैं कि तम्बू पंचतारा थे! होंगे भई, होंगे, लेकिन यह तो देखो कि उत्तराखण्ड की विधान सभा तीन दिन वहाँ बैठी और विधाई काम-काज निपटाया। कम जो छोटी बात हुई क्या! और कैसे होती है अच्छे दिनों की शुरुआत? हमारे यहाँ तो परंपरा ही ठहरी कि शुभ काम-काज से पहले गणेश में दुब धरते हैं। गैरसैण में भी यह दुब धरना हो गया। अब आबदेब भी हो ही जाएगा, कि हे देवो, आओ और यहाँ गैरसैण में बिराजो! आप भी दो तिनड़े हरेला गैरसैण को भेजना मत भूलना हो!

आप हमें माफ करना संपादक ज्यू, लेकिन हमको ये गैरसैण राजधानी वाला मामला कुछ समझ में जैसा नहीं आ रहा। गैरसैण को उत्तराखण्ड की राजधानी बनाना है या राजधानी देहरादून को गैरसैण में बसाना है? राज्य आपने लड़-भिड कर बना लिया। थोड़ा और लड़ कर गैरसैण भी स्थाई न सही, अस्थाई राजधानी बन ही जाएगा। मगर वह राजधानी आम जनता के लिए होगी या या नेताओं-दलालों-अफसरों-माफिया के गठजोड़ के लिए, जैसी कि राजधानी आज देहरादून है? ऐसी राजधानी का गैरसैण में क्या करोगे? आज वहाँ जो ज़मीनें गाँव वालों के पास हैं उनसे भी वे उजाड़ दिए जाएंगे। क्याप्प जैसी ही बात लगेगी संपादक ज्यू, लेकिन हम सलाह देना चाहेंगे कि ऐसी राजधानी को गैरसैण ले जाने की बजाय देहरादून से भी कहीं दूर, लखनऊ-दिल्ली कि तरफ धकेल देना चाहिए। नहीं क्या!

खाल्लि रीस में नहीं कह रहा ठैरा मैं यह बात। मुझे तो संपादक ज्यू, जितनी बार पहाड़ की तरफ आता हूँ, क्या-क्या जो दिखाई-सुनाई देता है। अभी इसी महीने दो दिन को देहरादून जाना हुआ। वाह, कैसी दड़ि-मोटी, दैल-फैल राजधानी दिखी हमें! निरंतर फैलती दून घाटी में दिल्ली-गुड़गांव टाइप अपार्टमेंट बने देखे तो सच कहूँ हो, हमारा लखनऊ शरमा गया। सड़कों पर बेशुमार और एक-से-एक गाडियाँ देखीं, जाम में रेलम-पेल देखी, कॉरपोरेट दफ्तर, ब्राण्डेड शो रूम, फास्ट फूड चेन देखे, फर्राटा मार एसयूवी में झक-झकास बिचौलिए देखे, टुई-टुई लाल बत्ती में पराए हुए नेता देखे, काले चश्मे में मैले चहरे देखे...और देखते ही रहे.... क्या राजधानी है! संपादक ज्यू आप गवाह ठैरे, नौ नवंबर सन 2000 को आपके साथ हम भी खुशी-खुशी घूम रहे थे देहरादून की सड़कों में, जब राज्य जन्म ले रहा था और हम उम्मीदों से भरे-पूरे थे। तब क्या सोच रहे थे हम राज्य और राजधानी के बारे में! वैसा कैसे सोच देने वाले ठहरे हम! किस बिना पर, किस बूते पर? बेवकूफ नहीं ठैरे हम? राज्य और राजधानियाँ तो वैसे बनने वाले हुए जैसे इस देश में पहले भी बनते रहे हैं। हमने कैसे सोच लिया था कि एक हमारे ही लगे हैं सुरखाब के पर, जो न्यारा ही बनेगा उत्तराखण्ड!

कभी-कभी मैं सोचता हूँ संपादक ज्यू, कि जनता अपने अलग राज्य की मांग क्यों करती होगी? 
क्या सोचती होगी कि उसे क्या मिल जाएगा? अभी देखो, आंध्र प्रदेश के दो टुकड़े करके तेलंगाना राज्य बना दिया गया है। बहुत पुरानी थी तेलंगाना की मांग और वहाँ की जनता ने कोई कम संघर्ष नहीं किए ठहरे, कम बलिदान नहीं दिए ठहरे। अब राज्य बन गया है तो नई राजधानी, नई विधान सभा, नई सरकार, नया तंत्र, नए दफ्तर-इमारतें, आदि सभी कुछ बन रहे हैं। यही उत्तराखण्ड में हुआ। दूर की सरकार जनता के थोड़ा पास आ गई, मंत्री-अफसर पड़ोस में हो गए, विधायक बढ़ गए, गली-मुहल्ले के दबंग सभासद बन गए। काम करने-कराने वाले बढ़ गए। जिस काम के लिए रिश्वत देने लखनऊ के शाब जी के पास दौड़ना पड़ता था, उसके लिए अब देहरादून में ही दाज्यू-भैजी आसानी से मिलने लगे। बस! और तो कुछ नहीं बदला न, संपादक ज्यू! चुनाव वैसे ही होते हैं, धन-बल और बाहुबल के सहारे। जनता भी वैसे ही वोट देती है। फिर सरकारों का चरित्र, मंत्रियों-अफसरों का चाल-चलन कैसे बदले! बल्कि उनका मन और बढ़ जाता है, वे और आज़ादी से मनमानी करने लगते हैं।

पिछले साल आई आपदा को ही ले लो। क्या भयानक त्रासदी थी और कितना अकूत नुकसान कर गई! साल-दर-साल हिमालय की चेतावनियों की अनदेखी कराते हुए कैसा विकास किया उत्तराखण्ड का! बड़े बांधों और सड़कों के लिए बेहिसाब विस्फोटक दागे गए और जुलुम देखो कि नदियों के किनारे और कहीं-कहीं तो धारा के बीच में भी पिलर बनाकर भव्य रिवर व्यू होटल और गेस्ट हाउस बनाए जाते रहे। यू पी से भी माफिया और ठेकेदार वहाँ जाकर दोनों हाथों से नए राज्य के संसाधनों को लूटते रहे। प्रकृति कब तक सहती! और जब वह विद्रोह पर उतारू हुई तो अब तक मौन बैठे सत्ताधारी नेता कहने लगे कि दैवी आपादा है यह तो। असली पीड़ितों को राहत पहुंचाने जैसे ज़रूरी काम में जुटने की बजाय यही बहस करने में लग गए कि यह प्राकृतिक नहीं, दैवी आपदा है। बरसों से इस आपदा की पृष्ठभूमि तैयार हो रही थे, तब खुद भी उसमें शामिल थे! ... एक साल से ज़्यादा हो गया, आज भी असली पीड़ित बेघर-बार हैं, गाँव के गाँव उजड़ गए, अब तक लाशें मिलना जारी है लेकिन सारी चिंता इसी बात की थी कि किसी तरह चार धाम यात्रा फिर शुरू कर दी जाए। लोग कह रहे थे कि केदारनाथ यात्रा शुरू होने में तो कई साल लग जाएंगे लेकिन देखो तो सरकार की सक्रियता और क्षमता, क़ैसे फटाफट इसी बरस समय पर यात्रा शुरू कर दी! ऐसा होता है सरकारों का काम! चमोली, उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग, बागेश्वर और पिथौरागढ़ जिलों में जन-धन की अपार हानि हुई लेकिन सबसे ज़्यादा राहत राशि हरद्वार जिले में बंट गई! यह कागज-पत्तर का काम है और सरकार जमीनी सच्चाई से नहीं, कागजी सच्चाई से चलती है, इतना तो आप जानने वाले ही हुए संपादक जी। उधर विशेषज्ञ कह रहे हैं कि सरकार, प्रशासन और विकास के कॉरपोरेट-एजेण्टों ने इतने बड़े हादसे के बाद भी सबक नहीं लिया और पहले जैसी गलतियाँ किए जा रहे हैं। कच्चे हिमालय की भू-पारिस्थितिकी और पर्यावरण-संतुलन का कोई ध्यान नहीं रखा जा रहा है, वगैरह। संपादक ज्यू, जब आपदा दैवी प्रकोप से आई थी तो कैसा सबक! ईश्वर के कोप पर किसका बस चलता है! सरकार और उद्यमी मानव का तो काम यह है कि जो उजड़ गया, नष्ट हो गया, उसे पहले से भी भव्य और विशाल बनाने के लिए कमर कस कर जुट जाओ। जहां तक पर्यावण का सवाल है, वह एनजीओ बनाने-चलाने और पद्मश्री, वगैरह पाने के काम आता है। लौटती डाक से लिखना कि बीते साल कुल कितने पद्म-हद्म, कितने अंतराष्ट्रीय पुरस्कार अपने उत्तराखण्ड के हिस्से आए? उन सबको भी दैल-फैल की आशिष देना हरेले वाली।    

उत्तराखण्ड जैसे प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर हिमालयी राज्य को कैसा बनना चाहिए? उसके संदर्भ में विकास के क्या मायने होने चाहिए? उसके पानी का, वन और खन का, उसके पर्यटन स्थलों का बेहतर  इस्तेमाल किस तरह होना चाहिए... इस तरह के तमाम सवाल, संपादक ज्यू, राज्य आंदोलन के नारों में तो थे लेकिन राज्य की सत्ता जिन हाथों में जानी थी और गई, उनके लिए भी इनके कोई मायने थे?  राज्य बन जाने के बाद जनता अपने-अपने घर वापस लौट गई और नेता-अफसर-दलाल सत्ता पाकर मगन हो गए। नदियां और पानी बिक गए, वन-खन लुट गए, पर्यटन स्थल नर्क बन गए, गाँव उजड़ रहे थे, उजड़ते रहे, अनियोजित-अराजक निर्माण चौतरफा विध्वंस लाते रहे, नव उदार आर्थिक नीतियों के सहारे कॉरपोरेट तंत्र और माफिया का जाल बिछता रहा और बेचारा उत्तराखण्डी अगास तकता रहा। इससे अलग और कोई कहानी है संपादक ज्यू, पछले 14 वर्षों के इस उत्तराखण्ड की? हाँ, इसमें इतना और जोड़ लो कि कुछ ताक़तें हैं जो अब भी यहाँ-वहाँ बेहतरी की लड़ाई लड़ रही हैं। कभी-कभी वे गा लेते हैं, एक दूसरे की तरफ पीठ कर के, कि “जैंता, एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में... बुरा झन मानना हो संपादक ज्यू, उत्तराखण्ड को लूटने वाले सब एक हो गए, उसकी बेहतरी के लिए लड़ने वाले टुकड़ों में बंट गए। चलिए, इनके सिर में भी रख दीजिए हरेला, आशिष भी दीजिए कि लड़ने का जज़्बा तो कायम है!

संपादक ज्यू, उत्तराखण्ड ने पांचों लोक सभा सीटें मोदी ज्यू की झोली में डाल दीं, सो तो अपनी समझ से ठीक ही किया होगा, हम क्या कहें, लेकिन अब विधान सभा के तीन उपचुनावों में क्या होगा? मुख्यमंत्री हरदा (हम लखनऊ विश्वविद्यालय के जमाने से उन्हें ऐसा कहने वाले हुए) को आगे सरकार चलाने की मोहलत मिल पाएगी या घर-बाहर के विरोधियों के मन में लड्डू फूटेंगे? राजनीतिक दलों की अंदरूनी खींच-तान भी गजब होने वाली हुई। हरदा के हिस्से कुर्सी आई भी तब जब उसके पाए हिलने लगे। जैसे कुछ बरस पहले भाजपा नेतृत्व ने खण्डूड़ी जी को मुख्यमंत्री की कुर्सी तब थमाई जब निशंक के निरंकुश राज के बाद उनके पास कुछ करने का समय ही नहीं बचा था। वैसे ही, बहुगुणा सरकार की निष्क्रियता और भितरघात से खोखली हुई पार्टी के इस दौर में हरीश रावत को सरकार की कमान सौंपी गई। काम करते या नहीं कर पाते, यह तो बाद में देखा जाता लेकिन कुर्सी में बैठते ही उनको सरकार बचाने की जोड़-तोड़ में लगना पड़ा है। कई लोग यह मानते हैं कि कांग्रेस ने काफी पहले हरीश रावत को मुख्यमंत्री बना देना चाहिए था, एक बार तो वे खुद बगावत भी कर चुके थे। जैसे खण्डूड़ी जी ने बेहतर नेता और प्रशासक का उदाहरण पेश किया था, क्या पता हरदा भी अपने को साबित कर पाते। इतने से भी फर्क पड़ जाता है। खैर, सम्पादक जी, आप एक तिनड़ा हरेला हमारे हरदा के शीघ्र स्वस्थ होने के लिए एम्स ज़रूर भिजवा देना। राजधानी को तीन दिन के लिए गैरसैण क्या ले गए, बेचारे हेलीकॉप्टर से चोट खा बैठे।

उत्तराखण्ड की क्षेत्रीय राजनीतिक ताकतों को भी इस हरेले पर याद करने का मन हो रहा है संपादक ज्यू। कुछ खोज-खबर है आपको उनकी? कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं? क्रान्ति दल जैसा कुछ नाम था एक पार्टी का, शायद उत्तराखण्ड क्रान्ति दल, जनता के सपने बेच कर अब वह किस उड्यार में है? उत्तराखण्ड लोक वाहिनी और उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी जिस वैकल्पिक राजनीति की बात करते हैं वह जमीन पर कैसे उतरेगी? उत्तराखण्ड की जनता उन्हें दिल से कैसे स्वीकारेगी और और अपने टूटे सपनों में प्राण फूंकने के लिए उन पर कैसे भरोसा करेगी? खबर है कि उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी सोमेश्वर का उपचुनाव लड़ रही है, अच्छी बात है लेकिन धन-बल, बाहु-बल और जातीय जोड़-तोड़ के मुक़ाबले सिर्फ सिद्धांतों से ही वह कैसे खड़ी रह पाएगी? ऐसी ताक़तें निरंतर अकेली होती जा रही हैं और एक संयुक्त मोर्चा जैसा बनाने की भी रणनीति भी बन नहीं पाती। आम आदमी पार्टी को भी आप आज़मा ही चुके हो। सारे देश में परिवर्तनकामी ताकतों का यही दुर्भाग्यपूर्ण हाल है, आप जानने ही वाले हुए, ज़्यादा क्या कहना।

यहाँ लखनऊ का हाल वैसा ही ठहरा। मोदी लहर के मारे हुए पिता-पुत्र की सरकार टिकी हुई है लेकिन दिन अच्छे नहीं चल रहे उनके। अपने ही नेता और कार्यकर्ता सरकार की दुर्गति बनाए हुए हैं। यू पी और उत्तराखण्ड के विकास पुरुष की आवभगत में लेकिन दोनों ने कोई कसर नहीं छोड़ रखी है। क्या ही मौज है अपने तिवारी जी की! आजकल तो वैसे भी उनका हनीमून जैसा चल रहा ठैरा! इस बार उनके नए परिवार के लिए भी हरेला भेज देना, साथ में थोड़ा पिठ्या भी। इन दिनों तिवारी जी को देख कर मैं अक्सर सोचता हूँ, संपादक ज्यू, कि इतिहास उन्हें किस रूप में याद रखेगा? उनकी राजनैतिक-आर्थिक समझ और प्रशासनिक क्षमता की चर्चा पुराने लोग अब भी करते हैं। यू पी में उन्होंने कुछ काम किए भी ठहरे लेकिन जब नए बने राज्य उत्तराखण्ड की बागडोर उनके हाथ आई तो क्या किया उन्होंने? इसे एक महत्वपूर्ण अवसर मानने की बजाय वे विलाप ही क्यों करते रहे कि हाय-हाय, मुझे तो प्रधानमंत्री बनना था, देहरादून में कहाँ पटक दिया गया! कम से कम वे कुछ ऐसे बुनियादी काम तो करा ही सकते थे जिनके लिए हिमाचल प्रदेश में यशवंत सिंह परमार को लोग आज भी याद करते हैं। सोशल साइटों के चुटकलो के अलावा उत्तराखण्ड तिवारी जी को किस रूप में याद करता है, बताना तो संपादक ज्यू?

मैदानों में बारिश नहीं हो रही। मानसून रूठा हुआ है। पहाड़ का क्या हाल है? बारिश से तो अब पहाड़ में डर ही ज़्यादा लगा रहने वाला हुआ। पता नहीं कब, कहाँ, क्या टूट-बग जाए। इस हरेले में कामना है कि पहाड़ की हड्डी-कणकी अपनी जगह बची रहे।

पहाड़ की जनता को हरेले की भौत-भौत शुभकामनाएँ। यह हरेला उन्हें अपने शोषण के प्रति सचेत करे, उनके सपनों को ज़िंदा रखे और बेहतर उत्तराखण्ड की उम्मीदें कायम रहें। उनके मस्तिष्क में यह सवाल भी उठते रहें कि आखिर अपने अलग राज्य का सुंदर सपना इतनी जल्दी क्यों टूट गया? क्या इसके कारण रहे और जिन सरकारों व नेताओं को हम उत्तराखण्ड की वर्तमान बदहाली के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं वे आखिर चुने तो हमने ही। तो क्या हमें किसी वैकल्पिक राजनीति की ज़रूरत नहीं है? है तो वह कैसे उभरेगी? क्षेत्रीय ताक़तें क्यों प्रभावशाली नहीं बन पाईं? जनता के बीच ही इन सवालों पर बात होनी होगी क्योंकि रास्ता भी वहीं से निकलेगा। हरेले के ये तिनड़े सिर में धरने के मायने भी यही होने चाहिए कि हमारी बुद्धि जागे, हम चतुर-सुजान बनें, धरती का धैर्य और आकाश की ऊंचाई हमें मिले ताकि हम लड़ें और आने वाली दुनिया खूबसूरत बने।

अस्कोट-आराकोट यात्रा का पांचवां चरण अभी-अभी पूरा करके लौटे पदयात्रियों को हरेला विशेष रूप से  दे देना। उत्तराखण्ड के गाँवों के अध्ययन का पचास साला दस्तावेज़ महत्वपूर्ण तो होगा ही, यह देखना भी रोचक होगा कि अपना राज्य बनने के पिछले 14 वर्षों में दूर-दराज़ तक क्या-कैसे बदलाव आए, कितनी आस निरास भई और वर्तमान हालात में जनता सोच क्या रही है।    

संपादक ज्यू हो, यह हरेला आपको भी बहुत-बहुत शुभ हो क्योंकि जिस धैर्य से आप पिछले 37 वर्ष से नैनीताल समाचार को प्रकाशित करते आ रहे हो, हिम्मत और नई चेतना के साथ, वह कोई मामूली बात नहीं। कितने मौकों पर आप निराश भी हुए और इसे बंद करने का ऐलान तक कर बैठे, मगर एक उम्मीद ही तो है जो बार-बार इसे ज़िला देती है। इस अखबार के ये पन्ने पहाड़ से बाहर भी हम जैसे कितने ही लोगों में प्राण फूंकते हैं। यह लौ, यह ऊर्जा और ये आखर जीवित रहें। समाचार की पूरी टीम के सिर पर प्यार से हरेला रखना कि वह बिखरती रही, बनती रही लेकिन कायम रही और रहे। और हाँ, हमारे समाचार के पाठको, हरेले के तिनड़े और आशिष के पहले हकदार तो आप ठैरे कि आप हुए तो अखबार हुआ। आपको हमारा हरियाला सलाम।

अंत में संपादक ज्यू, कलम की भूल-चूक माफ करना। क्या-क्या जो लिख गया ठहरा! मन की गिरहें खुलती हैं तो फिर क्या-क्या फूट कर बाहर आने लगता है! रोकना मुश्किल हो जाता है। नी थामीनो मन!

हाँ, अपने तन-मन का जतन ज़रूर से करना।

आपका
नवीन जोशी, लखनऊ। 
जुलाई, 12, 2014

   

     
        




 

Saturday, August 09, 2014

तमाशा मेरे आगे-3/ जाम में लाल-नीली बत्ती और बिन बत्ती



(नभाटा, लखनऊ में 10 अगस्त को प्रकाशित)

उस दिन शाम को बहुत ज़ोर की बारिश हुई। मेह थमा तो यहाँ-वहाँ रुके-थमे लोग एक साथ सड़कों पर निकल आए। साइकिल, दो पहिया, रिक्शे और भांति-भांति के छोटे-बड़े चौपहिया वाहन सड़कों पर महाभारत लड़ने लगे। कैसरबाग चौराहे पर हम ऐसे फंसे कि क्या कहें! सब एक दूसरे को ठेल कर निकलना चाह रहे थे और इस युद्ध में कोई इंच भर भी सरक नहीं पा रहा था। तीखे हॉर्न, चीखें और वाक-युद्ध। ट्रैफिक सिपाही अगर कहीं रहे होंगे तो वे तटस्थ रहने की प्रतिज्ञा के साथ अन्तर्धान हो गए थे।

तभी कंधे पर रायफल लटकाए दो सिपाही अवतरित हुए और करिश्माई ढंग से रास्ता बनाने लगे। हमने राहत की सांस ली और खाकी वर्दी को दुआ देने लगे। कौन कहता है कि हमारी पुलिस जनता का दुख-दर्द नहीं देखती। ये दो जवान, जिन पर ट्रैफिक की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है, जाम में फंसे लोगों की परेशानी देखकर पिघल गए और रास्ता बनाने में लग गए। यह हुई कर्तव्य परायणता। शाबाश! हमारा मन जाम की घुटन से उबर कर मुदित हो आया।

मन की मुदित अवस्था ज़रा भी कहां टिक पाती है! काले बादलों से घिरे आसमान की तरह वह भी तत्काल अवसाद से घिर गया जब हमने देखा कि वे दोनों सिपाही दरअसल एक लाल बत्ती कार के लिए रास्ता बना रहे थे जो जाने कैसे उस जाम में फंस गई थी। लाल-नीली बत्तियाँ जाम कहाँ बर्दाश्त कर पाती हैं! जाम तो उनके गुज़र जाने पर ही लगा करता है। खैर, उस भीषण जाम में अत्यंत कौशल के साथ उस मात्र एक लाल बत्ती कार के लिए रास्ता बनवा कर वे “कर्तव्य परायण” सिपाही कार के साथ ही नज़रों से ओझल हो गए।

उस वीआईपी कार के पीछे-पीछे लग कर जाम से मुक्त होने की जद्दोजहद में शायद एक-दो चतुर-सुजान चालक सफल हुए हों, हम तो निरीह जनता की भांति चक्रव्यूह में फंसे ही रहे। कैसरबाग से परिवर्तन चौक पहुँचने में दो घण्टे लगे। बाकी और क्या-क्या लगा, उसका क्या हिसाब! जैसे, यह सोच-सोच कर हमने अपने को कितना सताया कि उस कार में कोई बड़ा और जिम्मेदार अफसर रहा होगा और माना कि उसका थोड़ी देर भी जाम में फंसा रहना देश-प्रदेश के लिए बहुत नुकसानदायक होता होगा लेकिन क्या उसने एक पल को भी यह नहीं सोचा होगा कि इतने सारे लोग कितनी देर से जाम में बिलबिला रहे हैं, उनके लिए भी कुछ किया जाए? वे अपने सिपाहियों को थोड़ी देर रुक कर जाम खुलवाने को कह सकते थे, वे डीएम, एसएसपी या थाने को फोन करके जाम खुलवाने को कह सकते थे, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं किया। लाल-नीली बत्तियाँ ऐसे में सामान्य जन के लिए कुछ क्यों नहीं करतीं होंगी? वे जनता को जानवरों की तरह हँकवा कर सिर्फ अपने लिए रास्ता बनवा कर क्यों गर्व से भर उठती हैं?

कुछ वर्ष पहले लखनऊ में एक डीएम ऐसे हुए जो सड़क पर जाम देख कर खुद कार से उतर कर ट्रैफिक दुरुस्त करने लगते थे। सुबह टहलते हुए वे पार्क में पड़ी बीयर की बोतलें और पॉलीथिन, आदि भी उठाया करते थे। अफसर बिरादरी से लेकर कर्मचारी तक इसके लिए उनका मज़ाक उड़ाते थे। यही शासक-शासित व्यवस्था की त्रासदी है। यहाँ जनता से दूर रह कर उसे टाइटरखने वाला अफसर कड़क और जनता के साथ घुल-मिल कर उसकी सहायता करने वाला बेचारा कहलाता है। बेचारा होने लिए हमारी प्रतिभाएँ शासक वर्ग का हिस्सा नहीं बनतीं। लखनऊ के एक एसएसपी एक शाम चारबाग के जाम में कुछ देर को फंसे रह गए थे। घंटे भर में सारा इलाका अतिक्रमण और ऑटो-टेम्पो वालों की अराजकता से मुक्त करा दिया गया था। उनकी शान को ठेस जो पहुंची थी।  

लाल-नीली बत्तियों वाली सभी गाड़ियों में अवैध कानफाडू प्रेशर हॉर्न लगे हैं जो राह चलते लोगों को चौंकाते-डराते-बहरा बनाते हैं। कितने साहेब अपने ड्राइवरों को ये खतरनाक हॉर्न बजाने से रोकते हैं? वीआईपी गाड़ियाँ सबसे आगे निकलने के लिए गलत मुड़ने, विपरीत दिशा चलने और राहगीरों को ठोकर मारने में संकोच नहीं करतीं। कितने साहेब ड्राइवर को टोकते हैं कि यह गलत है। कितने अफसरों की कारें सही जगह पार्क होती हैं? इसमें आप नेताओं को भी शामिल कर सकते हैं, यदि उनसे अब भी ऐसी अपेक्षा बची हो तो।

फिर बताइए कि हर किसी में वीआईपी दिखने की, लाल-नीली बत्ती लगा कर चलने की ललक क्यों न उपजे? सुप्रीम कोर्ट कुछ भी निर्देश देता रहे, वह चौराहे पर खड़ा होकर देखने आ रहा है क्या!। वीआईपी बन कर चलने में बड़ी सुविधाएं हैं। बाकी सारी दिक्कतें झेलने को हम-आप तो हैं ही।