Thursday, December 31, 2015

सिटी तमाशा /वर्ना कैसे कहूं अगली पीढ़ी से नया साल मुबारक!


नए साल में नया क्या होता है? जैसे हर नया दिन, हर नया महीना, वैसे ही नया साल, जैसा पिछले साल और उससे भी पिछले साल शुरू हुआ था! लेकिन देखो, कितने उत्साह से मनाया जा रहा है. आधी रात से चला बधाइयों और शुभकामनाओं का सिलसिला सुबह से और तेज हो चला है. गज़ब है मनुष्य की यह उत्सवधर्मिता लेकिन सुंदर है.
खुशी और उत्साह से लबरेज नई शुरुआत करने का दिन. कितने संकल्प, कितनी प्रतिज्ञाएं, कितने वादे. 365 पृष्ठ की डायरी का पहला पन्ना. बिल्कुल कोरा, शफ्फाक. एक नई इबारत के लिए तैयार. क्या हो पहला वाक्य? शुभकामनाएं अनंत लेकिन शुभ की शुरुआत कैसे हो? इसमें सुख लिखूं. सुख क्या है? दुख का न होना. दुख क्या है? सुख-दुख की पहचान ही खो रही है शायद. पहचान भी पा रहा हूं सुख-दुख? जो करता आया हूं अपने सुख के लिए वह ला क्या रहा है? डर दिखता है न आगे! चलिए, आज हम सब अपने आप से पूछते हैं कि कामना ही करता हूं या जीवन को सुन्दर बनाने के लिए कुछ यत्न भी कर रहा हूं ?
तो, नए साल के इस पहले पन्ने पर कुछ जतन लिखूं? तन-मन का जतन, अपने समाज, देश और दुनिया का जतन. इसमें लिखूं शहर में थोड़ा कम धुंआ छोड़ने की कोशिश. गाड़ी कम चले, थोड़ी-थोड़ी दूर के लिए तो कतई नहीं. कभी पैदल, कुछ साइकिल. सड़कों-चौराहों पर थोड़ी अराजकता तो मैं कम कर ही सकता हूं. लिखूं ? कुछ पानी का जतन भी लिखूं, जो धरती के नीचे तेजी से खत्म हो रहा है और मेरा बेहिसाब उलीचना जारी है? जरा-सा सोचूं उसके बारे में? वह पॉलीथीन, रैपर, पैकेट, वगैरह जो मैं सुबह से शाम तक लाता-फैंकता रहता हूँ, कैसे चोक कर रहे हैं नाले-नालियों को, बेजुबान जानवरों की आंतों को और बंजर बना रहे हैं धरती की कोख को. जिसे प्रकृति ने नहीं बनाया लेकिन जिसे मैं प्रकृति के गले में ठूंसे जा रहा हूँ. लिखूं कि उसे इस्तेमाल करते, इधर-उधर फैंकते मेरे हाथ कांपें?
लिखूं चिड़िया का चहकना-फुदकना भी कि वह मेरे आस-पास बची रहे. सिर्फ कविता में नहीं, साक्षात जीवन में वह बची रहे, इसलिए लिखूं कुछ उपाय जो मैं करूं, जिनका ध्यान रखूं. बचाऊं मिट्टी और घास, पेड़-पौधे, जितनी बच सके मुझसे हरियाली. बारिश पड़े तो उठ सके सौंधी महक. लिखूं कि कुम्हार की तरक्की हो और चाक की भी लेकिन बचे रहें सुराही और सकोरा. दूब की जड़ों से एक कीड़ा चोंच में दबा लाए कोई गौरैया, घोंसले में खाप खोले अपने बच्चे के लिए. कब से नहीं देखी तितली. लिखूं कि वह लौट सके मेरे बच्चों और उनके बच्चों के खेल में. लिखूं कि मैं ऐसा सोच सकूं, याद रखूं और कुछ करूं भी जरूर.
सोचना और बरतना चाहिए मुझे कि खेत बचें, फसलें उगें और किसान राज करे. अगर यह दुनिया मेरे साथ खत्म नहीं हो जानी है तो मुझे नए साल के पहले दिन से ही ऐसा मानस बनाना होगा कि नहीं? अब नहीं तो कब मैं सोचूंगा कि यह दुनिया मुझे कैसी मिली थी और मैंने इसे कैसा बना दिया? मुझे तो इसे संवार कर जाना था. बर्बाद तो न कर जाऊं. कम से कम वैसी तो इसे छोड़‌ ही सकूं जैसी मेरे पुरखों ने मुझे दी थी. कुछ कर्ज मुझ पर है कि नहीं इस धरती का?
पूछा आपने अपने आप से? तो क्या कहते हो, आज से ही यह कर्ज उतारने की सोचूं? वर्ना कैसे कहूं अपनी अगली पीढ़ी से नया साल मुबारक? बोलो तो!
(-नवीन जोशी, नभाटा, लखनऊ में, 01 जनवरी 2016)



Thursday, December 24, 2015

सिटी तमाशा/ और जाम में फंसे हम एम्बुलेंस की लाचारी देखा किए


बीते सोमवार को सूबे के मंत्री जनाब शिवपाल यादव थोड़ी देर जाम में फंसे थे. फंसे हम भी वहीं थे लेकिन हमें कौन पूछता! सो, हम कुंठा के मारे मंत्री जी को जाम से निकलवाने की पुलिस की कवायद का मुजाहिरा किया किए. सिपाही, इंसपेक्टर, बड़े अफसर सब दौड़े आए. हथियारबंद अंगरक्षक तो थे ही. सबने मिल कर आगे की गाड़ियों को फटकारा, दाएं वाले को बाएं धकेला, बाएं जाने वाले को सीधा चलता किया, किसी गाड़ी पर डण्डा मारा, किसी पर गालियां. चंद मिनट लगे मगर शाबाश! उन्होंने सारे आसन आजमा कर मंत्री जी को जाम से निकाल लिया. मंत्री मुक्त, सिपाही फुर्र!
हम और भी जटिल जाम में उलझ गए. उलझा हमारा दिमाग भी रहा जो बड़ी देर से एक एम्बुलेंस का सायरन सुन-सुन कर हैरान-परेशान हुआ जा रहा था. उसमें मरीज जाने किस हाल में रहा होगा, कितना गम्भीर, इलाज की कितनी जल्द जरूरत. उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं था. हमारी पुलिस मंत्रियों की गाड़ियों हूटर बड़ी तत्परता से पहचानती है, एम्बुलेंस का नहीं. जनता को नेताओं के हूटर और एम्बुलेंस के सायरन में कोई फर्क नहीं मालूम होता. इसलिए वह हाँके जाने तक टस से मस नहीं होती.
उस दिन एक घण्टा से ज्यादा फंसे-रेंगते रहे. दुआ काम आई होगी तो एम्बुलेंस का मरीज बच गया होगा. फंसी एम्बुलेंस में मरीजों की मौत की दर्दनाक खबरें छपती रहती हैं. विधान भवन, बापू भवन और हज़रतगंज के इर्द-गिर्द सड़कों पर वीआईपी गाड़ियों की दो-दो कतारें खड़ी रहती हैं. ज्यादातर सरकारी गाड़ियां या फिर नेताओं की एसयूवी. इस ठसके से कि उन्ही के नाम सड़कों का पट्टा हो. जाम लगे, उनकी बला से. उनके लिए रास्ता बनाने को पुलिस तो है ही. याद आया कि बसपा सरकार में विधान भवन के बाहर सड़क पर एक भी गाड़ी खड़ी नहीं होती थी.
सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था ध्वस्त है. इसलिए निजी गाड़ियों की संख्या बढ़ती जा रही है. सड़कों की अपनी सीमा है. अतिक्रमण भी हमारे दबंगों ने करना ही हुआ. ऑटो-टेम्पो किसी नियम-कानून में नहीं आते. पहले फुटपाथ थे, वे खत्म कर दिए. पेड़ थे, काट दिए ताकि सड़कें और चौड़ी हों. सड़कों को कितना भी चौड़ा कर दीजिए जब तक यातायात की तमीज़ नहीं आएगी, आसमान में भी जाम लगेगा ही. रही-सही कसर वीवीआईपी कल्चर ने खत्म कर दी. ट्रैफिक और पुलिस महकमा सिर्फ वीआईपी फ्लीट या लाल-नीली बत्ती गाड़ियों का ध्यान रखता है. सारी मुस्तैदी, पूरी नौकरी उसी के लिए है.
ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि आम जनता के लिए सड़कें खुली रखी जाएं. जाम लगने ही न दिया जाए. तब वीवीआईपी भी आराम से निकलेनेग और किसी को दिक्कत नही होगी. जाम क्यों लग रहा है, कुछ खास जगहों पर ही जाम क्यों लगता है, इस पर चौकसी क्यों नहीं रखते? पब्लिक जाम में फंसी है तो फंसे रहने दो और सिर्फ वीआईपी के लिए रास्ता बनाने की कवायद करो, ऐसा क्यों? मकसद यह क्यों नहीं कि कोई भी फंसे क्यों? एम्बुलेंस तो कतई नहीं. हुज़ूर, कुछ दिन के लिए पब्लिक को वीआईपी मान कर देखिए तो सही!
और, उन इंतजामों के लिए क्यों नहीं सोचा जाता जो इस बीमारी का बेहतर इलाज हैं. अच्छी और ज्यादा बसें नियमित चलाइए. ऐसे कि लोग खुशी-खुशी उनमें सफर करें और अपनी गाड़ियां कम ही निकालें. कोई अतिक्रमण मत बख्शिए. बिन पार्किंग अवैध इमारतें गिराइए. हाईकोर्ट का आदेश है तो. नियम सबके लिए बराबर लागू करिए. आज नहीं तो कल यह करना मजबूरी हो जाएगा, दिल्ली का हाल सुना है न! तो, अभी से क्यों नहीं!

(सिटी तमाशा, नभाटा, लखनऊ, 25 दिसम्बर, 2015)

Wednesday, December 23, 2015

तालाब बचाने का कानून ही खत्म कर दिया यूपी ने


उत्तर प्रदेश सरकार ने बीते मंगलवार को राजस्व कानूनों में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव किए. अंग्रेजों के जमाने से चले आ रहे कई अव्यावहारिक प्रावधानों को खत्म कर दिया गया. लेकिन इसी के साथ एक ऐसा कानून भी उलट दिया जिस पर और भी सख्ती से अमल करना बेहिसाब शहरीकरण के इस अराजक दौर में बहुत ज़रूरी था.
अभी तक तालाब, चारागाह और खलिहान जैसे सार्वजनिक उपयोग की जमीन का स्वरूप बदला नहीं जा सकता था. यानी तालाब को पाट कर और चरागाह में किसी तरह का निर्माण गैर कानूनी था. इसका उल्लंघन तो हो ही रहा है, अब इसे कानूनी जामा पहना कर वैध बना दिया गया है. किसी भी योजना के तहत ली गई जमीन पर अगर तालाब, चरागाह या खलिहान है तो उसका स्वरूप बदला जा सकेगा. उसकी खरीद-फरोख्त की जा सकेगी. तेजी से गायब किए जाते तालाबों के इस समय में इस कानून का बदला जाना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है. कुछ जागरूक नागरिक और संगठन अब तक के कानून की सहायता से कुछ तालाब बचाए रखने में कामयाब रहे. नया कानून अब उनकी कोई मदद नहीं कर पाएगा.
तालाब हमारे ग्रामीण ही नहीं शहरी जीवन का भी महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं. नदियों के किनारे शहरों का बसना मनुष्य की विकास यात्रा का स्वाभाविक क्रम था तो तालाब खोदना प्रकृति के साथ उसके सह-अस्तित्व का बेहतरीन उदाहरण. आबादी के बीच और दूर भी मनुष्य ने काफी तादाद में तालाब बनाए. बारिश का अतिरिक्त जल इन तालाबों में जमा होकर कुछ वाष्पन से और कुछ धरती में रिस कर भूजल को समृद्ध करता रहा. यह प्रकृति से लिया हुआ उसे ही साभार लौटाना था. अतिवृष्टि में ये तालाब मानव बस्तियों को जलभराव से बचाते रहे तो उफनाई नदियों का जल रोक कर बाढ़ की विभीषिका कम करने में सहायक हुए. मत्स्य पालन से लेकर सिंघाड़ा और मखाना जैसे पौष्टिक उत्पाद तक वे हमारी आर्थिकी मजबूत करते रहे तो और जीव-जन्तुओं के लिए जीवन दायिनी बने रहे. एक जीवंत तालाब की बहुविध उपयोगिता इस देश में कहीं भी उसके मानव पड़ोसियों से पूछ देखिए.
पिछले 25-30 सालों में शहरीकरण की रफ्तार ने कुछ ऐसा जोर पकड़ा कि मनुष्य और उसकी व्यवस्था प्रकृति से अपना तादात्म्य ही भूलती चली गई. रिहायशी, सरकारी, व्यावसायिक और तरह-तरह के निर्माण विकास की सबसे बड़ी जरूरत बनते गए. जंगल, मैदान, खेत और तालाब तक पाट कर बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी की जाने लगीं. थोड़ी जहमत उठाइए और अपने शहर का 20-30 साल पुराना नक्शा तलाश कर देखिए. कहां गए मैदान, बगीचे और तालाब? गूगल मैप आज उनकी जगह क्या दिखा रहा है? इनकी रक्षा का कानून मौजूद होने के बावजूद निजी बिल्डर ही नहीं सरकार और उसके विकास प्राधिकरण भी इस विनाश में बराबर शामिल हैं.
आंखें और दिमाग बंद रखने के खतरनाक परिणाम भी हम भोग रहे हैं. आज कोई भी शहर सामान्य बारिश में भी जलभराव से त्रस्त हो जाता है. मकानों में पानी भर जाना आम रोना है. जितने बड़े शहर उतनी बड़ी समस्या. बारिश पहले कम नहीं होती थी और पानी बहने के लिए ढाल ढूंढेगा ही. अब वहां तालाब की जगह इमारत खड़ी मिले तो उसका क्या दोष. पानी के ठहरने की जगह नहीं, जमीन में उसके रिसने का रास्ता नहीं. नदी-नालों की क्षमता बहुत सीमित. हमने क्या सोचा था कि क्या होगा?
और, अब भी क्या सोच रहे हैं? तालाबों, चरागाहों की जमीन का स्वरूप बदल सकने का कानून बनाने के पीछे उत्तर प्रदेश सरकार का यही सोच है कि विकास योजनाओं के लिए अधिग्रहीत जमीन पर इनके होने से निर्माण में अड़चन न आने पाए. महत्वपूर्ण प्रश्न यह कि विकास योजनाओं के लिए तालाबों और मैदानों को खत्म करना ही क्यों जरूरी है? एक बड़ी योजना के दायरे में एक-दो तालाब और एक-दो खुले मैदान क्यों नहीं बचाए जा सकते? सारी जमीन को कंक्रीट से पाटना क्यों जरूरी है जबकि हरियाली, पानी और सुरक्षित हवा के बिना अब सांस लेना भी जानलेवा होता जा रहा है? धरती के नीचे का सारा पानी उलीच कर भी उसकी थोड़ी भरपाई जरूरी क्यों नहीं लग रहा?
आबादी और योजनाओं के बीच तालाबों, मैदानों को हर हाल में बचाए रखने का कानून खत्म किए जाने की बजाय, और सख्त क्यों नहीं बनाया जाना चाहिए था?
(अमर उजाला, 24 दिस्मबर 2015 में प्रकाशित)



Thursday, December 17, 2015

सिटी तमाशा / सॉरी, समय बहुत कम है, कृपया संक्षेप में कहें!


मुख्य अतिथि, अति विशिष्ट अतिथि, दो-एक विशिष्ट अतिथि भी. अध्यक्ष महोदय तो हैं ही. फूलों से सजा मंच और बढ़िया कुर्सियां. मंच के पीछे सुंदर छपाई में संस्था व अतिथियों के नाम के साथ चर्चा का विषय. कार्यक्रम समय से शुरू होगा इसकी किसी को उम्मीद नहीं रहती. अतिथि यह निश्चित जानकर देर से आते हैं. जो दुर्घटनावश समय पर आ गए वे आयोजक को चकित करते हैं, कभी खुद को, कभी मंजर को हेरते हैं.

संचालक चंद शेर और मुक्तक दोहराने में लगे हैं, जो अतिथियों की नज़र करने हैं. माइक टेस्ट हो रहा है. आधा-पौन घंटा भी कोई देर है! संचालक ने उदार कंठ से विशेषणों की बौछार करके कार्यक्रम शुरू करने की घोषणा कर दी है. संस्था के अध्यक्ष को आमंत्रित किया गया है कि वे आज के आयोजन पर प्रकाश डालें. प्रकाश यह है कि आप जैसे अतिथियों के पधारने से संस्था कितनी धन्य हुई. परम व्यस्ततता के बावजूद समय निकाल कर यहां आए, इसका किन शब्दों में आभार व्यक्त किया जाए. हमारे शब्द सीमित हैं और वाणी मूक हुई जा रही है.

प्रार्थना है कि दीप प्रज्जवलन करके कार्यक्रम का विधिवत शुभारम्भ करें. तेल भीगी बाती लौ पकड़ने में देर लगा रही है. अनुभवी मुख्य अतिथि आयोजक के कानों में फुसफुसा रहे हैं कि बत्ती के सिरे पर थोड़ा सा कपूर रख देने से बड़ी सुविधा हो जाती है. आयोजक दोहरे होकर भविष्य में ध्यान रखने का वादा करते हैं. अतिथियों का बारी-बारी से प्रशस्ति वाचन शुरू हो चुका है. आप कितने महान, विद्वान और विनम्र हैं. शब्द पिघले जा रहे हैं. आपके जन्म लेने से किस सन में यह धरा धन्य हुई और कितने सम्मानों-पुरस्कारों को आपने गौरवान्वित किया हैं. आपके पिताश्री का स्मरण भी उचित ही होगा कि उन्होंने आप जैसी हस्ती को इस संसार में लाने का महान कार्य किया. सजी-धजी सुंदरियां थाल में खूबसूरत पुष्पगुच्छ या बड़ी सी माला लेकर मुस्करा रही हैं और उसे अतिथियों को अर्पण करते, शॉल ओढ़ाते हुए आयोजक गदगद हैं. एक-एक कर अतिथि आशीर्वाद के दो शब्द कहने के लिए आमंत्रित किए जा रहे हैं. अतिथि आशीर्वाद देने में कभी संकोच नहीं करते. मुक्त कंठ से स्नेह बरस रहा है और श्रोता सुन रहे हैं प्रेरक आत्मकथा.

कितना समय निकल गया? कोई बात नहीं. आज का विषय आपको मालूम ही है. विषय प्रवर्तन के लिए आए वक्ता के साथ ही पहले वाले संचालक विदा लेते हैं. संचालन का जिम्मा अब अपेक्षाकृत गम्भीर जी ने ले लिया है. विषय पर बात शुरू होती है. मुख्य अतिथि ने घड़ी देखनी शुरू कर दी है. आयोजक उनकी व्यग्रता समझ रहे हैं. विषय प्रवर्तन पूरा होते ही संचालक अत्यंत विनम्रता से घोषणा करते हैं कि मुख्य अतिथि को एक अन्य कार्यक्रम में पहुंचना है. वे समय निकाल कर हमारे बीच आए, इसके लिए हम उनके अत्यंत आभारी हैं. एक स्मृति चिह्न तो उन्हें लेना ही होगा. आयोजक मण्डली मुख्य अतिथि को विदा करने गई. विशिष्ट अतिथि को भी अचानक कोई व्यस्तता याद आ गई है. पहले से तैयार प्रेस-नोट लेकर रिपोर्टर जा चुके हैं. फोटो ई-मेल किया जा रहा है.

वक्ता अपनी बात कहने आते हैं तो संचालक को समय की याद हो आई है. बार-बार पर्ची भेज रहे हैं कि कृपया अत्यंत संक्षेप में अपनी बात कहें. अगले वक्ता को पहले ही ताकीद कर दी जाती है कि सिर्फ पांच मिनट में अपनी बात कह दें. क्षमा करेंगे, समय की सीमा है. गोष्ठी में अचानक समय कीमती हो गया है.

सचमुच, समय का महत्व समझना और सम्मान करना कोई हमसे सीखे.

 (नभाटा, लखनऊ, 18 दिसम्बर, 2015)

Wednesday, December 16, 2015

झुग्गी बस्तियों के पुनर्वास का रास्ता क्या हो


दिल्ली की शकूरबस्ती झोपड़पट्टी हटाने में एक बच्चे की दर्दनाक मौत ने हमारे महानगरों की इस विकराल समस्या की ओर एक बार फिर देश का ध्यान खींचा है. दिल्ली उच्च न्यायालय ने कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा कि जब तक इनके लिए कोई संतोषजनक पुनर्वास कार्यक्रम न बन जाए तब तक झुग्गियों को हटाया नहीं जाए. यही मानवीय और तार्किक बात लगती है और  जिस भी शहर में भी बड़े पैमाने पर झुग्गियां हटाई जाती हैं, समाधान के रूप में यही दोहराया जाता है. विचारणीय यहां यह है कि दिल्ली ही नहीं देश के हर महानगर/शहर की विशाल झुग्गी-आबादी के लिए कैसा पुनर्वास कार्यक्रम व्यावहारिक और संतोषजनक होगा.
समस्या के दो पहलू: अवैध झोपड़पट्टियों से हमारे सभी शहर पटे पड़े हैं. इनकी सबसे बड़ी बसासत रेल पटरियों के दोनों तरफ और कहीं-कहीं बीच में भी खाली पड़ी रेलवे की जमीन पर है. इसके बाद उनकी दूसरी बड़ी बसासत शहरों से बहने वाली नदियों और गंदे नालों के किनारे हैं. बरसात में जब कभी ये नदी-नाले उफनाते हैं तब झुग्गियों में मची भगदड़ से इसके अपार विस्तार का अंदाजा मिलता है. अभी चैन्ने की भयानक बाढ़ के कारणों की पड़ताल में एक तथ्य यह भी सामने आया कि नदियों और तालाबों के किनारे बसे बेशुमार झुग्गीवासियों ने खुद बाढ़ से बचने के लिए तटबंध काट दिए जिससे उनका पानी भरभरा कर शहर की नियोजित कॉलोनियों में पैठ गया था.
हर शहर में गगनचुम्बी इमारतों के महंगे फ्लैटोके पीछे भी बेहिसाब शहरीकरण का क्रूर सच झुग्गियों की कतारों के रूप में मौजूद है. शहरों की हर वह खाली जगह जो मनुष्य के रहने के लिए सर्वथा अनुपयुक्त है, एक विशाल आबादी की शरणगाह है. दिहाड़ी मजदूर हैं जो दो जून की रोटी कमाने शहर आए हैं. ठेला-रिक्शा खींचने, कबाड़ बीनने, भीख मांगने और फेरी लगाने वाले हैं. इनमें शहरों में अपना भाग्य आजमाने आए गरीब ग्रामीण हैं. टूटे सपनों के पंख लिए छटपटाते लोग हैं. कोठियों के फर्श और बर्तन चमकाती लड़कियों से लेकर शारीरिक धंधा करने को अभिशप्त स्त्रियां यहां हैं तो हर तरह के फर्जी, काले और अनैतिक धंधे में आकंठ डूबे युवा भी. ये सब भी “हम भारत के लोग” में शामिल हैं जिन्होंनेसामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय... तथा प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए 65 वर्ष पूर्व अपना संविधान आत्मार्पित किया था लेकिन यह सब न्याय और अवसर उन तक आने से पहले कहीं भटक गए. वे विकास की इसी भटकन की उपज हैं.
समस्या का दूसरा पहलू भी शकूरबस्ती हादसे से सामने आ जाता है. हादसे के बाद सामने आई एक रिपोर्ट के मुताबिक अकेले दिल्ली में रेलवे की जमीन पर 47 हजार झुग्गियों का कब्जा है और अपनी जमीन खाली नहीं करा पाने के कारण रेलवे की दो अरब साठ करोड़ रुपए की परियोजनाएं लटकी हैं. सन 2003 और 2005 में रेलवे ने दिल्ली सरकार को सवा ग्यारह करोड़ रुपए सिर्फ इसलिए दिए कि वह राजधानी में रेलवे की जमीनों पर अवैध रूप से बसी 4410 झुग्गियों को हटा दे. आज तक सिर्फ 297 झुग्गियां हटाई जा सकी हैं. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह कितनी विकराल और जटिल समस्या है.
बेहिसाब और अराजक शहरीकरण: बहुत बड़ी संख्या में ये लोग देश के विभिन्न ग्रामीण अंचलों से बड़े शहरों की ओर इसलिए चले आए और आते जा रहे हैं कि इनके लिए अपने घर-गांव के पास दो रोटी का जुगाड़ नहीं बन पा रहा. आजाद भारत की सरकारों ने गांवों की विशाल आबादी को वहीं सम्मान से जीवन यापन कर पाने लायक स्थितियां मुहैय्या नहीं कराईं. कृषि प्रधान कहलाने वाले भारत की सरकारें खेती-किसानी और गांव को सम्मान और प्रतिष्ठा नहीं ही दिला सकीं. विकास के नाम पर जो भी होता आया वह बड़े शहरों तक केंद्रित रहा. बहुराष्ट्रीय कम्पनी में बड़ी नौकरी करने वाले युवा हों या सुबह-सुबह नालियों से पॉलिथीन बीनने वाली किशोरियां, सबके लिए शहर ही अनिवार्य बनते गए. गांव खाली-उजाड़ होते रहे और बेशुमार भीड़ शहरों में समाती गई.
नतीजा यह कि आज हमारे शहर अपनी क्षमता से ज्यादा लोगों से ठुंसे हुए हैं. केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट कहती है कि शहरीकरण की रफ्तार इतनी तेज है कि सन 2031 में हमारी कुल आबादी का 40 फीसदी महानगरों में रह रहा होगा. 2051 में यह आंकड़ा 51 फीसदी हो जाएगा और हम गांवों का देश नहीं रह जाएंगे.
समाधान: “सम्मान से” का जुमला हटा दें तो भी हर एक को जिंदा रहने का हक है. हमारे विकास को मुंह चिढ़ाती झुग्गी-बस्तियों में बहुत बड़ी आबादी इसी जद्दोजहद में लगी हुई है. इनकी बसासत पूरी तरह अवैध है लेकिन बहुत मानवीय प्रश्न है कि ये लोग जाएं कहां? दो-चार या दस-बीस अवैध बस्तियां हों तो उन्हें नियोजित ढंग से अन्यत्र बसाया जा सकता है. कुछ राज्य सरकारों ने ऐसा किया भी लेकिन एक बस्ती हटी तो दूसरी बस गई क्योंकि इनके बसते जाने के मूल कारणों का कुछ किया ही नहीं गया.  
चूंकि समस्या की जड़ में हमारा शहर केंद्रित विकास मॉडल है इसलिए उसे बदले बिना इस समस्या के समाधान का रास्ता नजर नहीं आता. दो जून की रोटी के लिए भी गांवों से शहरों की तरफ कूच करना पड़े तो झुग्गियों को हटाना तो दूर, उन्हें और भी बढ़ते-फैलते जाने से कैसे रोका जा सकता है? रोजगार के छोट-बड़े उपक्रमों को शहरों से दूर कस्बों-गांवों की तरफ विकसित करने के बारे में क्यों नहीं सोचा जाना चाहिए. सरकारी दफ्तरों, बड़े संस्थानों, नए उद्योगों-उद्यमों, बड़ी आवासीय योजनाओं, आदि को दूर-दराज के इलाकों में ले जाया जाए. पास-पड़ोस के गांवों को शहरों में मिलाते जाने की बजाय दूरस्थ गांवों को छोटे-छोटे शहरों के रूप में विकसित किया जाए. सौ नए स्मार्ट शहर बसाने की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शुरुआती योजना काबिले तारीफ थी लेकिन पता नहीं क्यों वह भी एक सौ बड़े शहरों ही को स्मार्ट बनाने की योजना में तब्दील कर दी गई.
मनरेगा का उदाहरण मौंजू होगा जब गांवों में रोजगार की गारण्टी वाले इस कार्यक्रम से शहरों में मजदूरों की कमी पड़ने लगी थी. भ्रष्टाचार की शिकायतों के बावजूद गांवों में न्यूनतम निर्धारित मजदूरी पर रोजगार मिल रहा था. यह कार्यक्रम यूपीए को 2009 के चुनाव में दोबारा केंद्र की सत्ता तक पहुंचाने में सबसे बड़ा सहायक भी माना गया था. बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पिछले दो कार्यकालों में गांवों में इतने आर्थिक कार्यक्रम चलाए कि ग्रामीणों का दूसरे राज्यों को मौसमी पलायन ही नहीं थमा बल्कि राज्य के बड़े जमीदारों को भी श्रमिक संकट झेलना पड़ा. ये तात्कालिक और लोकप्रिय कार्यक्रम भर थे, स्थाई उपाय नहीं. इनसे यह संकेत ज़रूर मिलता है कि ग्राम केंद्रित विकास योजनाएं और दीर्घकालीन रोजगार कार्यक्रम शहरों की ओर बेवजह और अंधाधुंध पलायन को बहुत हद तक रोक सकते हैं.
विकास की गाड़ी को सही अर्थों में छोटे शहरों, कस्बों-गांवों की तरफ मोड़ना आसान काम नहीं. सड़क-बिजली-पानी से लेकर शिक्षा-स्वास्थ्य और सरकारी तंत्र का जो भी बुनियादी ढांचा हम इतने वर्षों में बना पाए वह शहरों तक सीमित है. उसके अभाव में नई पहल दुष्कर लगेगी लेकिन शुरुआत तो करनी ही होगी. पहले ही कफी देर हो चुकी है.
(नभाटा, सम्पादकीय पेज, 17 दिसम्बर, 2015)

Thursday, December 10, 2015

सिटी तमाशा/ मैं तुम्हारी गोमती, तुम से कुछ कहती हूँ आज

, लखनऊ के आधुनिक बाशिंदो, मैं गोमती हूँ. तुम्हारी नदी. लाड़ से तुम मुझे गोमा भी कह देते हो. आज थोड़ी देर ठहर कर अपनी गोमा की बात सुन लोगे? बहुत दिनों से कहना चाहती रही हूं पर यहां किसी के पास मेरी बात सुनने की फुर्सत ही नहीं.

शहर के एक हिस्से में आजकल मुझे सुंदर बनाने का काम जोर-शोर से चल रहा है. तभी से मेरी आत्मा में हाला-डोला मचा है. आज का मनुष्य जब किसी नदी या जंगल को सुंदर बनाने चलता है तो उसकी जान ही निकाल लेता है. सरकार उसमें शामिल हो जाए तो फांसी का फंदा बहुत खूबसूरत बनाया जाता है. मेरी रूह कांप रही है.

देखो, मेरे पाटों को बड़ी-बड़ी मशीनें रौंद रही हैं. गहरी खुदाई करके मोटी-मोटी सरिया और सीमेंट-कंक्रीट भर कर मेरा श्रृंगार किया जा रहा है. उफ, नदी का इन बेजान चीजों से भला क्या वास्ता! मजबूत दीवारें खड़ी करके मुझे बांधा जाएगा ताकि मैं सीधी राह चलूं! यह दीवार मुझे मेरी हर धमनी से काट रही है. सरकारी भाषा में इसे रिवर फ्रण्ट डेवपमेण्ट कहते हैं. मेरी तलहटी से जो गाद निकाली जा रही है उसे किनारे बिछा कर समतल किया जा रहा है. यहरिक्लेम्ड लैण्ड (गजब, तुम नई जमीन भी पैदा कर लेते हो!) व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए बेची जाएगी ताकि मेरे सुंदरीकरण का खर्चा निकल सके. इस पर निजी बिल्डर और भी कंक्रीट से भव्य निर्माण कराएंगे. झुग्गी-झोपड़ियों को हटा कर यहां रिवर व्यू होटल-ढाबे-आरामगाह खुलेंगे. दोनों किनारों पर बढ़िया सड़कें होंगी, बेंच होंगी. सुनते हैं कुछ हरियाली भी होगी लेकिन मेरा उससे क्या रिश्ता बचेगा! तुम्हारी शामें यहां पुरलुफ्त होंगी. कभी सोचा है, तब मैं, तुम्हारी गोमा, कहां हूँगी?

भारी मशीनों से जो लोहा-सीमेण्ट मुझे जबरन पिलाया जा रहा है, उससे मेरे रहे-बचे सोते सूख रहे हैं, जिनसे मैं सांस लेती हूँ. मेरी जल वाहिनियां, मुझमें प्राण भरने वाले भीतरी कुएं, मेरी मिट्टी, मेरे पेड़-पौधे, मेरे जीव-जंतु सब मर रहे हैं. एक रात जब मशीनों का शोर बंद हो गया तो मेरे किनारों की मिट्टी रोने लगी कि गोमा, सीमेण्ट की यह मजबूत दीवार हमारा रिश्ता खत्म कर रही है. भारी-भारी पत्थर बिछाए जाने वाले हैं अब मैं बारिश का पानी कैसे सोखुंगी और कैसे तुझे दूंगी? घास और जड़ें भी फूट पड़े- गोमा, अलविदा. हमारे लिए तो कोई जगह ही नहीं बची. तभी केंचुए निकल आए. उनके साथ छिपकली, बिच्छू, सांप, अजगर, गोह, जाने कितने पुराने दोस्त आ गए. उन सबका दम घुट रहा था और सबने रो-रो कर मुझसे विदा ले ली. वे अब रहें भी कहां? मेरी सुंदरता की राह में वे दुश्मन हो गए. ऐ नए जमाने के बाशिंदो, जब ये सब मेरे अजीज, जो मुझे नदी बनाते आए हैं, नहीं रह जाएंगे तो मैं ही कैसे बचूंगी?

जैसी भी थी, मैं आज तक इन सब ही की वजह से नदी थी. तुमने मुझ पर कम अत्याचार नहीं किए. मुझमें अपने गंदे नाले डाले, मिलों का खतरनाक कचरा डाला, मेरी जीवनी शक्ति पर कितने तो हमले किए. अत्याचार सह कर भी मैं खुश थी कि आदमजात को मैं अपने किनारे बसेरा देती हूँ तो कभी वह मेरी पीड़ा भी समझेगा ही. लेकिन अब तुम बहुत विकसित हो गए हो. तुम्हें अब नदी की नहीं रिवर फ्रंट की जरूरत है. अब तुम्हें नदी के किनारे भी कंक्रीट के चाहिए लेकिन उसके बीच जो बहेगी वह तुम्हारी गोमा नहीं होगी. नालों का पानी रिसाइकिल करोगे और कभी नहर का पानी उसमें छोड़ोगे. नदी कह पाओगे उसे?
किसी नदी का श्रंगार अब तुम क्या जानो! सो, अलविदा! – तुम्हारी गोमा.
(नभाटा, लखनऊ में 11 दिसम्बर को प्रकाशित)


Sunday, December 06, 2015

उत्तराखण्ड: परिवर्तन के लिए जरूरी सम्वाद


प्रसिद्ध इतिहासकार और राजनीतिक विश्लेषक राम चंद्र गुहा का लेख पढ़ रहा था- उत्तराखण्ड क्यों नहीं बना हिमाचल. अमर उजाला के 22 नवम्बर के अंक में प्रकाशित इस लेख में श्री गुहा बड़ी साफगोई से लिखते हैं- “हिमाचल प्रदेश ने समझदारी के साथ राज्य के मध्य में स्थित एक पहाड़ी शहर को अपनी राजधानी चुना. उसे सौभाग्य से वाई एस परमार जैसे दूरदृष्टा मुख्यमंत्री भी मिले, जिन्होंने अपने लम्बे कार्यकाल (1963-77) के दौरान नौकरशाही को अच्छे स्कूल और अस्पताल बनाने के लिए प्रेरित किया (मानव विकास के मामले में हिमाचल का रिकॉर्ड केरल की तरह शानदार है) दूसरी ओर उत्तराखण्ड के सात मुख्यमंत्रियों मे से कुछ नाकाबिल तो कुछ औसत दर्जे के थे. इस बीच देहरादून को राजधानी बनाए जाने के बाद से राजनीति में भ्रष्टाचार और अपराध-प्रवृत्ति भी बढ़ी है. यहां भू-माफिया सक्रिय हैं जिनकी विधायकों और मंत्रियों से सहभागिता रही है. प्रदेश के कीमती जंगल और जल संसाधन निजी कम्पनियों को बेचने के लिए सौदे किए गए हैं. उत्तराखण्ड में कई बड़े बांध बनाए गए हैं जिनकी वजह से हजारों लोगों को बेघर होना पड़ा है और यहां के पर्यावरण को भी भारी नुकसान पहुंचा है... कुछ अपवाद तो सभी जगह होते हैं लेकिन कुल मिलाकर हिमाचल की नौकरशाही अपने काम पर अधिक केन्द्रित और मेहनती है जबकि उत्तराखण्ड में उदासीन और सुस्त....उत्तराखण्ड में राजनीतिक नेतृत्व ने नौकरशाही के नकारात्मक रूप को बढ़ावा दिया है. ऐसी उम्मीद की गई थी कि उत्तराखण्ड एक और हिमाचल प्रदेश बनेगा लेकिन इसके बजाय वह झारखण्ड बनता दिख रहा है जहां की राजनीतिक व्यवस्था प्राकृतिक संसाधन की लूट पर टिकी है.”

उत्तराखण्ड का व्यापक दौरा और यहां शोध भी कर चुके श्री गुहा ने आज के उत्तराखण्ड की नब्ज पर हाथ रखी है. वैसे उन्होंने कोई नई बात नहीं कही है. उत्तराखण्ड के विभिन्न सामाजिक और राज्य आंदोलनों से जुड़े तमाम कार्यकर्ता और विश्लेषक भी ऐसी ही बात कहते रहे हैं. मगर वर्तमान समय में प्रभावशाली बौद्धिक स्वर माने जाने वाले श्री गुहा की यह बात और दूर तक सुनी जानी चाहिए. राजनीतिक नेतृत्व ने तो लगता है कि कान पूरी तरह बंद कर लिए हैं लेकिन गुहा की यह टिप्पणी उत्तराखण्ड के सक्रिय-समर्पित सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं, नए-पुराने आंदोलनकारियों और सचेत युवा वर्ग के लिए नए सिरे से मंथन और सक्रियता का प्रस्थान बिंदु तो बन ही सकती है.

श्री गुहा हिमाचल की आज की बेहतरी का मुख्य कारण वाई एस परमार जैसे मुख्यमंत्री की दूरदृष्टि और अफसरों का अपने काम पर ध्यान और मेहनत मानते हैं, जिनकी वजह से “उसने पर्यटन और बागवानी के जरिए मजबूत आर्थिक आधार बनाया और शिक्षा, स्वास्थ्य और महिलाओं के सबलीकरण के मामले भी शानदार रिकॉर्ड बनाया.” जाहिर है यह काम सत्ता में बैठे नेताओं की सोच और अफसरों को वहां से मिली दिशा के कारण सम्भव हो पाया. हिमाचल की जनता को कोई बड़ा आंदोलन नहीं करना पड़ा. दूसरी तरफ, उत्तराखण्ड की जनता ने न केवल पृथक राज्य के लिए बड़ा आंदोलन किया, बलिदान दिए और बेइंतिहा दमन झेला, बल्कि राज्य बन जाने के बीते पंद्रह वर्षों में वह और भी ज्यादा शोषित-उत्पीड़ित-ठगी महसूस करते हुए विभिन्न स्तरों पर आंदोलित है. जनता से उसके जल-जंगल-जमीन छिन गए, पानी लुट गया, गांवों का उजड़ना तेज हो गया, तमाम संसाधनों पर मंत्रियों-विधायकों-माफिया-नौकरशाही के कुटिल गठजोड़ का कब्जा हो गया और जहां कहीं उसके खिलाफ जनता आंदोलन करती है तो उसे दमन का शिकार होना पड़ा रहा है. इसके कई उदाहरण हैं जिनमें नानीसार बिल्कुल ताजा है. जनता की भावनाएं समझने की बजाय सरकार अपनी मनमानी पर उतारू है और बेशर्मी के साथ कहती है कि अभी तो ऐसी और भी योजनाएं लागू की जाएंगी. संसाधनों की लूट के मामले में हरीश रावत की सरकार अब तक सबसे निकृष्ट सरकार साबित हो रही है, जबकि हम जैसे लोग नारायण दत्त तिवारी की तुलना में उनसे ज्यादा उम्मीदें लगाए बैठे थे.

मतलब यह कि उत्तराखण्ड की सरकार जनता की सुनने वाली नहीं है और आंदोलन हुआ तो उसे कुचलने के लिए वह तैयार है. उधर, जन आंदोलन से किसी बड़े सार्थक बदलाव की उम्मीद जल्दी नहीं की जा सकती. अब तक का अनुभव कहता है कि जन आंदोलन का भी अंतत: लाभ राजनीतिक दलों ने उठया. इसलिए अब शीघ्र प्रभावकारी हस्तक्षेप जरूरी हो गया है क्योंकि उत्तराखण्ड के जन और प्राकृतिक संसाधनों की लूट बहुत तेज हो गई है.

तो, रास्ता क्या है? उत्तराखण्ड की जनता को हिमाचल जैसा सौभाग्य वाला मुख्यमंत्री पाने के लिए अनंत काल तक इंतज़ार करते रहना चाहिए या कोई राह तलाशनी चाहिए? जैसे कि क्या जनता के बीच की परिवर्तनकामी ताकतों को अब राज्य की सत्ता अपने हाथ में लेने की तैयारी नहीं करनी चाहिए? क्या उन्हें ऐसा विचार कर इस दिशा में पहल नहीं करनी चाहिए? राम चंद्र गुहा की टिप्पणी से क्या यह साफ नहीं है कि राज्य के विकास की दिशा दुरुस्त करने के लिए राजनीतिक सत्ता पर बेहतर और दूरगामी सोच के लोगों को आना चाहिए? इससे जनता के सपनों का आदर्श राज्य भले न बन पाए, जन संसाधनों की लूट और माफिया राज से बचाकर कम से कम हिमाचल जैसा राज्य तो बनाया ही जा सकता है. राजनीतिक भ्रष्टाचार के कीर्तिमानों के बावजूद हिमाचल में कुछ बेहतर कायम है. उत्तराखण्ड को और ज्यादा विनाश से यथाशीघ्र बचाने के लिए क्या आज यह अनिवार्य प्रतीत नहीं होता?

वह समय गया जब परिवर्तनकामी ताकतें या पार्टियां सता की राजनीति से परहेज करती थीं. धुर वामपंथी दल भी, जो मानते थे कि सत्ता बंदूक की नली से बहती है’, काफी पहले संसदीय राजनीति में कूद पड़े थे और परिवर्तन के लिए राजनीतिक सता पाने को अनिवार्य मानते आए हैं. एक दौर था जब उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी में भी चुनाव लड़ने-न लड़ने पर घमासान वैचारिक संग्राम मचा था. लेकिन अब तो उस वाहिनी से निकले सभी संगठन और राजनीतिक दल चुनाव लड़ चुके हैं अथवा इसके समर्थक हैं. दिक्कत भारी यह है कि वे सारी ताकतें आज बिखरी हुई हैं, छोटी-छोटी वैचारिक असहमतियों और उससे भी छोटे निजी मतभेदों-मनमुटावों ने उन्हें दूर और अकेला कर दिया है. अपने-अपने मोर्चे पर वे सभी सक्रिय है और यत्र-तत्र लड़ाइयां लड़ रहे हैं लेकिन साथ आना तो दूर, जरूरी मुद्दों पर भी एक दूसरे का समर्थन करने की जरूरत वे नहीं समझते. इससे राजनीतिक सत्ता के लिए उनका दमन करना और भी आसान हुआ जा रहा है.

हिमाचल की तरह उत्तराखण्ड की जनता भी अदल-बदल कर कांग्रेस और भाजपा को सत्ता सौंपती आई है. किसी तीसरी राजनीतिक ताकत पर उसे भरोसा हो नहीं पाया है. राज्य निर्माण के व्यापक आंदोलन में गांधीवादियों से लेकर वामपंथी तक सभी शामिल थे और चूंकि राज्य की मांग ही सर्वोपरि थी इसलिए सभी साथ लड़ रहे थे. राज्य बन जाने के बाद वे सभी मिल कर एक राजनीतिक इकाई कतई नहीं बन सकते थे. मगर उत्तराखण्ड क्रांति दल भी जनता का विश्वास जीतने लायक कार्यक्रम और नेतृत्व विकसित नहीं कर सका जबकि उसका जन्म ही पृथक राज्य के वास्ते लड़ने के लिए हुआ था और उसने उम्मीदें भी जगाई थीं. उलटे, इस पार्टी ने उत्तराखण्ड की जनता को सबसे बड़ा धोखा दिया. उसके चंद नेताओं की सत्ता की भूख और अवसरवादिता ने राज्य में बेहतर वैकल्पिक राजनीति की भ्रूण हत्या ही कर दी.

परिवर्तन की बड़ी आकांक्षा से उपजे जन आंदोलनों से जन्मी उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी बिखरती चली गई. उस समय के कुछ जुझारू-समर्पित युवा कार्यकर्ता कांग्रेस या भाजपा या दूसरे दलों में चले गए और क्या त्रासदी है कि उनमें से कुछ आज हरीश रावत जैसे मुख्यमंत्री का समर्थन कर रहे हैं. वहीं से निकली उत्तराखण्ड लोक वाहिनी और उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी ने मंजिल एक होने के बावजूद अपने अलग रास्ते बना लिए. संघर्षशील महिलाओं का मोर्चा अलग सक्रिय हो गया. तराई से लेकर मध्य हिमालय के विभिन्न इलाकों में कई राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन जनता के हक-हकूक के लिए लड़ रहे हैं. साहित्य और पत्रकारिता की जनमुखी धाराएं भी पर्याप्त सचेत-सक्रिय हैं. शुभ संकेत यह कि अलग-अलग होने के बावजूद सभी मोर्चों पर कम या ज्यादा सक्रियता मौजूद है.
कहना यह चाहता हूँ कि वर्तमान स्थितियों के प्रति बड़े प्रतिरोध की जमीन तैयार लगती है. वैचारिक स्तर पर तथा उद्देश्यों के प्रति काफी हद तक समानता भी है. इसे एक राजनीतिक शक्ति बनाने की जरूरत है, एक अखिल उत्तराखण्डी राजनीतिक संगठन. यह समय की मांग है. इस पर कभी- कभार यहां-वहां चर्चा भी होती है लेकिन कहीं से कोई पहल भी होती नहीं दिखाई देती. अफसोस की बात है कि पिछले मास नानीसार जा रहे उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी के अध्यक्ष पी सी तिवारी समेत कई सामाजिक कार्यकर्ताओं और ग्रामीणों की गिरफ्तारी का विरोध भी चंद फेसबुकी प्रतिक्रियाओं तक सीमित रह गया, जबकि वे लोग गुपचुप और अवैध तरीके से गांव की जमीन एक बड़े कारोबारी ग्रुप को देने की सरकारी साजिश का विरोध करने वहां जा रहे थे. वर्तमान सरकार की ऐसी जनविरोधी नीतियों से सभी त्रस्त हैं और उसके खिलाफ मुखर भी. फिर भी ऐसी चुप्पी बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है. सबसे पहले इस संकोच या परहेज से निजात पानी होगी.

एक सर्वमान्य राजनीतिक संगठन बनाना निश्चय ही बड़ी चुनौती है. जनता का विश्वास जीतना उससे भी कठिन. वन आंदोलन से लेकर राज्य की लड़ाई के प्रतिफलन तक जनता ठगी सी महसूस करती आई है. इसी कारण कांग्रेस और भाजपा उसकी मजबूरी बन गई हैं. मगर अब तक जनता यह स्पष्ट समझ चुकी है कि दोनों ही दलों की सरकारों ने उसे ठगने और उत्तराखण्ड को लूटने के सिवा कुछ नहीं किया. नया और विश्वसनीय विकल्प मिलने पर वह साथ आ सकती है. बस, विकल्प, नेतृत्व, संगठन और कार्यक्रम इस तरह बनाने होंगे कि जनता उस पर भरोसा कर सके. हाल का दिल्ली का राजनीतिक प्रयोग अपनी विसंगतियों के बावजूद एक राह दिखाता है. आम आदमी पार्टी ने दिल्ली की जनता को विश्वास दिलाने में सफलता पाई कि वह कांग्रेस और भाजपा से कहीं बेहतर विकल्प बन सकती है. अरविंद केजरीवाल की तानाशाही प्रवृत्तियों को छोड़ दें और आम आदमी पार्टी की टूटन से निकले स्वराज अभियान से कुछ सीख लें तो उससे बेहतर राजनीतिक विकल्प की सम्भावना बनती है. उत्तराखण्ड के कुछ सामाजिक कार्यकर्ता आप और अब स्वराज अभियान के साथ हैं भी.

उत्तराखण्ड इस देश के अत्यंत सचेत-सक्रिय-आंदोलित समाजों में गिना जाता है. इसकी वैचारिक प्रखरता और आंदोलनों की त्वरा राष्ट्रीय मुख्यधारा में बराबर प्रवाहित रही है. आज जब खुद उत्तराखण्ड को इसकी बहुत जरूरत है, क्या इस दिशा में कुछ चिंतन होगा? चंद लोग ही सही, आगे आकर ऐसा सम्वाद शुरू करेंगे?
आमीन.