Friday, November 27, 2020

उत्साह-उमंगों के बीच कोरोना का भय गायब

 


कोरोना के दूसरे दौर के बढ़ने के बावज़ूद ज़िंदगी अपनी रफ्तार पकड़ चुकी है। विवाह समारोहों के कुछ निमंत्रण आ गए हैं। कुछ शादियां जो मार्च-अप्रैल में होनी थीं, लॉकडाउन के कारण आगे के लिए टाल दी गई थीं, नई तिथियों में अब हो रही हैं। पुराने निमंत्रण पत्र तारीख बदल कर बांटे गए हैं। कुछ इस बीच तय हुई हैं। सतर्कता की सरकारी हिदायतों के बावज़ूद धूम-धाम की तैयारी है।

लॉकडाउन के दौरान कुछ जोड़े बिना धूम-धाम और अतिथियों के विवाह-बंधन में बंधे थे। एक तो कोरोना का नया-नया आतंक था, दूसरे पूर्ण देशबंदी थी। वह सादगी और मितव्ययिता मजबूरन थी। अब एक तो कोरोना पुराना हो गया और उसका भय भी सीमित, दूसरे किसी तरह की बंदी नहीं रही। इसलिए होटलों से लेकर लॉन तक बुक हैं। बैंड-बाजा और आतिशबाजी सब उपलब्ध है। जो शर्तें थीं वह भी मुख्यमंत्री ने हटा दी हैं। सबको अपना रोजगार भी चलाना है। इसलिए रुकेगा कुछ नहीं। सरकारी नियम या निर्धारित सीमाएं अपनी जगह हैं, खुशियां मनाने के हौसले अपनी जगह। जो कर सकते हैं, बड़ी मेहमानवाजी दो-तीन अलग-अलग आयोजनों में कर रहे हैं।

मैचिंग मास्क पुरानी बात हो गए और फैशन में शुमार होने लगे हैं लेकिन शादी के जोड़े में न दूल्हा-दुल्हन पहने दिख रहे हैं, न घर वाले। सेहरा स्वीकार है, मास्क नहीं। मेहमानों में कुछ अवश्य सतर्क हैं लेकिन असावधान अतिथियों की संख्या अधिक है। इन समारोहों का एक बड़ा आकर्षण फोटो-वीडियोग्राफी होता है। उसमें कोई मास्क में दिखाई देना नहीं चाहता। खुशियों और उत्साह-उमंगों के अवसर पर कोरोना का भय नहीं टिक रहा।

जीवन बचेगा और खूब चलेगा, सत्य है लेकिन महामारी के इस अद्वितीय दौर में लापरवाहियां खतरनाक साबित हो रही हैं। दीपावली और छठ पर्व अभी अभी बीते हैं। उस दौरान बाजारों-घाटों में जो भीड़ उमड़ी उसमें बहुत कम मास्क दिखे और शारीरिक दूरी तो क्या पूछना। नतीज़ा सामने है। दिल्ली में संक्रमण अनियंत्रित हो गया और अब हम आस-पास के अपने शहरों में मामले बढ़ते देख रहे हैं। रोजी-रोटी के लिए रोज जूझने वाली बड़ी आबादी तो पहले से ही कोई सतर्कता नहीं बरत रही। उसके लिए कोरोना संक्रमण से बड़ी बीमारी भूख है।

मीडिया में आए दिन वैक्सीन बनने और उसकी सफलता के प्रतिशत छाए हैं। कम्पनियां बढ़-चढ़कर दावे कर रही हैं। मध्य वर्ग में कोरोना सतर्कताओं से कहीं अधिक वैक्सीन (टीका) की चर्चा है। वैक्सीन का सफल परीक्षण ही जैसे कोरोना पर विजय हो गई! टीका बचाव करेगा लेकिन अभी भी बहुत कुछ अंधेरे में है। टीका बनने और सब तक पहुंचने में अभी बहुत लम्बा समय लगना है। उसके बाद भी सब कुछ सामान्य नहीं हो जाना है। टीके की इस ज़ल्दबाजी के पीछे दवा कम्पनियों के भारी मुनाफे और बाजार का गणित अधिक है।  

वैसे भी टीका कुछ समय के लिए बचाव कर सकता है, कोरोना को खत्म नहीं कर सकता। उसके साथ रहना है तो उसके चरित्र को समझते हुए जीवन में कुछ सावधानियां हमेशा बरतनी होंगी। अब तक जो समझ बनी है उसमें हाथों की ठीक से सफाई, मास्क और शारीरिक दूरी बरतना बचाव के लिए आवश्यक हैं। इन्हें अपनी जीवन शैली में शामिल करना होगा।

कोरोना का असली सबक लेकिन कुछ और ही है जिसके बारे में दुनिया के नियंता सोच ही नहीं रहे। प्रकृति-विरोधी जो जीवन चर्या और विकास का स्वरूप बना दिया गया है, वह मनुष्य के जीवन को कोरोना या उससे भी भयानक आपदाओं में डालता रहेगा। कोरोना के बिना भी हवा जहरीली है। महानगरों में जीवन व्याधिग्रस्त होता रहेगा। प्रकृति की इस चेतावनी को समझने के संकेत कहीं से नहीं मिल रहे।   

(सिटी तमाशा, नभाटा, 28 नवम्बर, 2020)              

     

Friday, November 20, 2020

जीवन की नींव में जिसने कुछ खास ईंट-गारा भर दिया

 


लखनऊ विश्वविद्यालय अपनी स्थापना का शताब्दी वर्ष मना रहा है। एक सौ साल का दौर किसी भी संस्थान के लिए ऐतिहासिक एवं गौरवपूर्ण होता है। विश्वविद्यालय तो पूरी एक सदी के इतिहास के साक्षी ही नहीं, उस उथल-पुथल भरे काल में अपना विविध योगदान भी देते हैं। लखनऊ विश्वविद्यालय से किसी भी रूप में सम्बद्ध व्यक्तियों के लिए यह निजी रूप में भी ऐतिहासिक और गौरवपूर्ण अवसर है। चंद दिनों से शोसल साइटों पर विश्वविद्यालय से जुड़ी स्मृतियों का अम्बार इसीलिए लगा हुआ है। 

युवावस्था का वह दौर प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में सबसे खूबसूरत समय होता है। सपनों, उम्मीदों, उमंगों और कुछ कर गुजरने की तमन्ना से भरा हुआ। 1973 में जयनारायण इण्टर कॉलेज से बारहवीं पास करने के बाद हमारे झिझके कदम भी इस विश्वविद्यालय परिसर में पड़े थे। विश्वविद्यालय में पढ़ने की ललक थी, रोमांच था लेकिन बहुत सारे संकोच भी थे। आस-पास के शहरों और कस्बों से पढ़कर आए मध्य-निम्न मध्य वर्ग के लड़के-लड़कियों की बड़ी संख्या थी जो पहली बार छात्र-छात्राओं के अलग-अलग कॉलेजों के सीमित दायरे से निकलकर विश्वविद्यालय पहुंचे थे, संकोच से भरे लेकिन चमत्कृत भी, लेकिन जिनके समूचे व्यक्तित्व को बहुत शीघ्र खिल और खुल जाना था।

पहली सनसनी एक ही कक्षा में लड़कियों के साथ बैठना था! वे सकुचाई हुई किनारे की कुछ बेंचों पर समूह में बैठी होतीं और लगभग सभी लड़कों की नज़रें सामने प्रोफेसर साहब की बजाय उसी कोने पर लगी होतीं। किसी सहपाठिनी से किसी साहसीलड़के का पहला सम्वाद होने में महीनों लग जाते और वह सबसे बड़ी उपलब्धि की तरह चाय-समोसे के साथ मनाया जाता। जो लड़के ऐसी हिम्मत नहीं कर पाते वे कागज के गोले बनाकर चुपके से उस कोने की ओर उछालने या घर जाकर डायरी में उसांसें भरते।

विश्वविद्यालय ने पढ़ाई से इतर बहुत कुछ सिखाया और जीवन में वही अधिक काम आया। टैगोर लाइब्रेरी के सामने वाले लॉन में दोपहर बाद स्टडी सर्किलकी बैठकें होतीं जहां साहित्य-संगीत-रंगमच से लेकर राजनीति और समाज पर दुनिया भर की चर्चाएं होतीं। पढ़ना, बोलना और बहस करना। छात्र संघ के चुनावों को जो लोग गंदी राजनीति मानकर बिदकते रहे हैं, वे शायद नहीं जानते या जानना नहीं चाहते कि विश्वविद्यालयों की छात्र राजनीति ने युवा पीढ़ी और देश की राजनीति को कैसे स्पंदित किया है। आज छात्र संघ चुनावों से वंचित विश्वविद्यालय समाज और देश के हालत में क्या कोई सार्थक और जरूरी हस्तक्षेप कर पा रहे हैं? आज की तुलना साठ-सत्तर-अस्सी के दशकों हालात से करिए तो!

वह 1974 के अंतिम या 1975 के शुरुआती महीने थे जब कला संकाय के सामने वाले मैदान में जे पी यानी जयप्रकाश नारायण की सभा हुई थी। गुजरात और बिहार में छात्र-आंदोलन उग्र हो रहा था। ठसाठस भरे मैदान में उमड़ते युवाओं के सैलाब को देखकर जे पी ने कहा था- यह अधजल गगरी है जो छलक रही है या पूरी भर गई है?’ सभा से हजारों हाथ उठे थे इस उद्घोष के साथ कि पूरी भर चुकी है!उस सभा का रोमांच आज भी अनुभव होता है। कैण्टीन और मिल्क बार में कई दिनों तक उस सभा की चर्चा होती रही थी और कई लड़के जेपी की छात्र संघर्ष वाहिनी से जुड़ने बिहार भी गए थे।

विश्वविद्यालय अपने छात्रों को और उनके माध्यम से देश को क्या-क्या देते हैं, इसका हिसाब लगाना आसान नहीं है। वह समाज के भविष्य की नींव भरने का काम करते हैं। किताबी पढ़ाई उस नींव में एक छोटी-सी ईंट भर है। लखनऊ विश्वविद्यालय के इस शताब्दी वर्ष में पूर्व छात्र और अध्यापक भी अनुभव कर रहे होंगे कि उनके जीवन की मजबूत नींव में उस दौर ने कैसा-कैसा गारा भरा था।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 21 नवम्बर, 2020)              

Saturday, November 14, 2020

हवा-पानी की चिंता, पटाखे, व्यवसाई और सरकार


नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के निर्देशों के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने उन बारह जिलों में पटाखे बनाने
, बेचने और चलाने पर रोक लगा दी है, जहां वायु प्रदूषण खतरनाक स्थिति में पहुंच गया है। यह प्रतिबंध ऐन दीवाली के पहले लगा है। पटाखे ध्वनि और वायु प्रदूषण बढ़ाते हैं, यह स्थापित सत्य है। हर साल दीवाली के बाद हवा इतनी खराब हो जाती है कि सांस लेना मुश्किल हो जाता है। सांस सम्बंधी रोग वालों के लिए भारी समस्या खड़ी हो जाती है।

पहले से ही आर्थिक बदहाली से त्रस्त छोटे-मंझोले व्यापारियों के लिए यह प्रतिबंध जले में नमक की तरह है। अकेले लखनऊ में 20 करोड़ रु का नुकसान होने की बात कही जा रही है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि कितने पटाखे फोड़े जाते हैं और कितना बड़ा उसका धंधा है। साल-दर-साल यह धंधा बढ़ता गया है। वर्षों हो गए पटाखों के खिलाफ जनमत बनाने के अभियानों को लेकिन कमाऊ-खाऊ-उड़ाऊ मध्य वर्ग का बड़ा हिस्सा है जो प्रदूषण के खतरे की अनदेखी करते हुए मौज-मस्ती में मगन रहता है। उसी के दम पर पटाखों का धंधा फलता-फूलता आया है।

जिन व्यापारियों और छोटे-दुकानदारों ने पटाखों में अपनी रकम फंसा रखी है और अब बड़े नुकसान से हताश हैं, उनका तर्क उचित ही है कि प्रतिबंध लगाना ही था तो पहले क्यों नहीं लगाया गया? कम से कम वे अपनी पूंजी इसमें नहीं फंसाते। उस रकम से दूसरा कोई व्यवसाय बढ़ाते। छोटे-छोटे दुकानदार भी पटाखे बेचकर कमाई किया करते हैं। इन सबकी चिंता करना सरकार का ही काम है।

अधिकारी कह रहे हैं कि उन्होंने तो नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की सिफारिश मानी है। बड़ा भोला तर्क है। सरकार और प्रशासन दूरदर्शी होते, जैसा कि उन्हें होना ही चाहिए, तो उन्हें बताने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए थी कि कई साल से इस मौसम में प्रमुख शहरों में हवा की गुणवत्ता बहुत खराब हो जाती है और पटाखे कम से कम जलाने की अपील करनी पड़ाती है। ग्रीन ट्रिब्युनल और सुप्रीम कोर्ट बराबर निर्देश जारी करते रहते हैं। दिल्ली-एनसीआर में पिछले कुछ साल से पटाखों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना पड़ रहा है। यह सब देखते हुए उन्हें पहले ही सलाह या निर्देश जारी कर देने चाहिए थे। एयर क्वालिटी इण्डेक्सके अति-हानिकारक होने का इंतजार क्यों करना था?

अब वह समय आ गया है कि हवा-पानी या इस धरती के लिए नुकसानदायक व्यवसायों को क्रमश: बंद करते हुए छोटे व्यापारियों-दुकानदारों के लिए वैकल्पिक व्यवसाय खोजे-बताए जाने चाहिए। पटाखे ही क्यों, पॉलिथीन पर प्रतिबंध भी इसीलिए नहीं कारगर हो पाता कि उससे कई परिवारों का पेट जुड़ा है। और भी व्यवसाय हैं, जिन्हें अब इस धरती के हालात देखते हुए, बदल दिया जाना चाहिए। दूरदर्शी सरकार और प्रशासन का दायित्व है कि वह ग्रीन ट्रिब्युनल का मुंह देखे बिना, वैकल्पिक और पर्यावरण के लिए हितकर या न्यूनतम हानिकारक व्यवसाय विकसित करे और समय रहते व्यापारियों को सचेत करे। समस्या यह है कि सरकारों में ऐसी चिंता सिरे से नदारद है।

जिन लोगों ने पटाखों में रकम फंसा रखी है वे उसे निकालने के जतन करेंगे। चोरी-छुपे बेचेंगे या उन जिलों का रुख करेंगे जहां प्रतिबंध नहीं लगा है। लखनऊ में पटाखे नहीं दगेंगे लेकिन सीतापुर में बेहिसाब बजेंगे तो प्रतिबंध का लाभ क्या है? ग्रीन ट्रिब्युनल के निर्देश मानने की औपचारिकता निभानी है या हवा-पानी की सेहत की वास्तव में चिंता करनी है? यह चिंता भी छोटे-मंझोले व्यवसाइयों का हित देखे बिना नहीं की जानी चाहिए।

दीपावली की शुभकामनाओं के साथ क्या उम्मीद करें कि सरकार इस दिशा में सचेत और सक्रिय होगी?

(सिटी तमाशा, नभाटा, 14 नवम्बर, 2020)

      

 

 

Friday, November 06, 2020

साझा विरासत के तार उधेड़ती नई समझ


एक वायरल वीडियो देखा। पटाखों की दुकान में कुछ युवा हंगामा कर रहे हैं। दुकानदार से
, जो कुर्ता-पाजामा-गोल टोपी पहने है, बहस कर रहे हैं कि वह ऐसे पटाखे क्यों बेच रहा है जिनमें लक्ष्मी जी और दूसरे देवी-देवताओं के फोटो चिपके हैं? ‘पटाखे फटने के बाद ये तस्वीरें सड़कों पर पड़ी रहती हैं और पैरों के नीचे आती हैं। लक्ष्मी का अपमान होता है,’ वे तर्क दे रहे हैं। दुकानदार हतप्रभ है और बड़ी मुश्किल से कह पाता है कि यह बात आपको आज पता चली?’ उसकी कोई नहीं सुनता।

यह नए भारत की तस्वीरें हैं और नित नए-नए रूप में सामने आ रही हैं। देखते-देखते दिल-दिमाग सुन्न होने लगा है। पता नहीं कब से पटाखों पर ऐसी तस्वीरें छपती रही हैं। इन पर हंगामा-मारपीट करना चाहिए, यह समझदारी नए भारत में बन रही है। सम्मान-अपमान और राष्ट्रप्रेम की नई परिभाषा गढ़ी जा रही है।

बढ़ते प्रदूषण के कारण पिछले कई वर्षों से पटाखों के विरुद्ध जनमत बनाया जा रहा है। पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली में पटाखे बेचने पर रोक लगा दी थी। तब कई हिंदू-संगठनों को यह निर्णय धर्म-विरुद्ध लगा था। उसका उल्लंघन करते हुए पटाखे फोड़े गए थे। उनकी निगाह पटाखों पर छपी तस्वीरों पर नहीं गई होगी या गई भी होगी तो समझदारी इतनी विकसित नहीं हुई होगी। अब अक्ल थोड़ी और आगे बढ़ी है।

कुछ दिन पहले का यह समाचार भी इसी नई समझदारी का हिस्सा है कि एक मंदिर में नमाज़ पढ़ने वाले कुछ युवकों को आपत्ति के बाद गिरफ्तार कर लिया गया। जवाब में वहीं एक ईदगाह में गायत्री मंत्र और हनुमान चालीसा पढ़ी गई। उस मामले में भी कुछ युवक पकड़े गए। पहले यह सामाजिक सदभाव के रूप में अक्सर होता था। बारिश में या और किसी संकट के समय मंदिर या गुरद्वारा परिसर नमाजियों के लिए और मस्जिदें दूसरे धर्मावलम्बियों के लिए खोली जाती रही हैं। इसे हिंदुस्तान की खूबसूरत साझा पहचान के रूप में पेश किया जाता था।

देश, धर्म और संस्कृतियों की पहचान बदल गई है। धार्मिक सद्भाव और सह-अस्तित्व के ये उदाहरण अब चुनौती और जवाबी चुनौतियां हैं, अखाड़ेबाजी और विवाद का मुद्दा हैं। क्या कभी कोई यह सोच सकता है कि किसी दिन लखनऊ में अलीगंज के पुराने हनुमान मंदिर के शिखर पर लगे चांद-तारे पर बवाल मच जाएगा? यहां तो पड़ाइन की मस्जिदभी है। नई अक्ल वालों को यह कैसे समझ में आए कि किसी पण्डिताइन का मस्जिद से भी एक आत्मीय रिश्ता हुआ करता है और हनुमान जी को अपने मंदिर के चांद-तारे पर अनोखा गर्व होता है।

एक प्राचीन उदार समाज के उदात्त मूल्य चौराहों पर कुचले जा रहे हैं। बहुलतावादी समाज का बहुलमिटाकर एकलबनाया जा रहा है। नाम बदलो, पहचान बदलो, तस्वीरें और मूर्तियां ध्वस्त करो, पुराने पाठ फाड़ो और मनचाहे पाठ लिखो, ज्ञात इतिहास को दफ्न करो और हवाई महानताओं को विज्ञान बनाकर किताबों में दर्ज़ करो। कहां-कहां क्या-क्या मिटाया जाएगा? किसी कम्पनी के विज्ञापन में एक मुस्लिम परिवार की हिंदू बहू को लव-जिहादका नाम देकर हंगामा किया जा सकता है लेकिन साझी विरासत में क्या-क्या बंद कराया जा सकता है? यहां राम की पूजा होती है तो रावण का मंदिर भी बना है। शक्ति की प्रतीक दुर्गा की आराधना के साथ-साथ कहीं महिषासुर की पूजा भी होती है। जो समझ यह स्वीकार नहीं करती वह इस देश को क्या समझे, क्या बनाए!

हजारों साल में बनी इस साझा विरासत के तार उधेड़ते-उधेड़ते महाबलियों का बाहुबल भी चुक ही जाना है लेकिन इसकी जो कीमत चुकाई जानी है, उसका भुगतान आने वाली पीढ़ियां कैसे करेंगी, सोचकर मन कांपता है।

(सिटी तमाशा, 07 नवम्बर, 2020)