Friday, July 26, 2019

एनजीटी : मूदहुँ आँख कतहुँ कछु नाहीं


हिण्डन नदी को प्रदूषण से मुक्त करने के बारे में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) की मॉनीटरिंग कमिटी के मुखिया, हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश एस यू खान ने उत्तर प्रदेश सरकार पर असहयोग का आरोप लगाते हुए पिछले दिनों इस्तीफा दे दिया. यह ताज़ा मामला है लेकिन अकेला नहीं. एनजीटी की विभिन्न अनुश्रवण समितियाँ पहले भी असहयोग और उपेक्षा की शिकायतें करती रही हैं. यमुना और गोमती नदी के लिए गठित एनजीटी की समितियाँ भी ऐसी लिखित शिकायतें कर चुकी हैं. ठोस कचरा प्रबंधन अनुश्रवण समिति के सचिव की तरफ से भी इस तरह का बयान आया है.

यह हाल तब है जबकि उत्तर प्रदेश में नदियों का प्रदूषण अरबों रु के व्यय के बावज़ूद थमा या सुधरा नहीं है. नगरों के ठोस कचरे के प्रबंधन का हाल भी बहुत बुरा है. प्रदेश का एक भी नगर केंद्र सरकार के राष्ट्रीय स्वच्छता सर्वेक्षणों में पहले दस स्थान में नहीं आ सका. लखनऊ समेत कई शहरों का नम्बर तो बहुत नीचे है. हालत यह है कि राजधानी लखनऊ समेत सभी बड़े नगरों में प्रतिदिन जितना ठोस कचरा निकलता है, उसे उठाने की क्षमता भी नगर निगमों के पास नहीं हो सकी है. इसीलिए कूड़ा जमा होता जाता है.

एनजीटी की समिति ने कूड़ा प्रबंधन के मामले में लखनऊ समेत गाज़ियाबाद और वाराणसी का काम अत्यंत असंतोषजनक पाया था.लखनऊ नगर निगम ने समिति की आपत्ति के बाद रिपोर्ट दी थी कि उसने शहर में अनधिकृत जगहों पर कचरा जमा करना बंद कर दिया है लेकिन समिति ने पाया कि यह रिपोर्ट झूठी थी. समिति को गुलाला घाट, फैज़ुल्लागंज और गोमती नगर समेत कुछ जगहों पर ठोस कचरे के ढेर मौज़ूद मिले. निगम को नोटिस भी दी गई थी.

गाज़ियाबाद में बॉटेनिकल पार्क के लिए आरक्षित भूमि पर कचरे का विशाल ढेर पाया गया था, जबकि समिति ने वहाँ कूड़ा डालने से मना किया था. इसलिए गाज़ियाबाद प्रशासन पर दो करोड़ रु का दण्ड लगाने की सिफारिश की गई थी. वाराणसी में वरुणा नदी के किनारे कूड़े का पहाड़ देखकर वहाँ के अधिकारियों को चेतावनी दी गई थी. समिति का यह भी कटु अनुभव रहा कि सरकारी तंत्र उसकी सिफारिशों को गम्भीरता से नहीं लेता. दोषी व्यक्तियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की जाती.

गोमती नदी के बारे में रिपोर्ट देते हुए अनुश्रवण समिति ने उसकी दुर्दशा के लिए राजनैतिक हस्तक्षेप, भ्रष्टाचार और आला अधिकारियों की दायित्वहीनता को सीधे ज़िम्मेदार ठहराया था. अभी तीन दिन पहले समिति के सचिव पूर्व जिला जज राजेंद्र सिंह की एक विज्ञप्ति कुछ समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई तो यह बात और खुली. इस विज्ञप्ति के अनुसार सरकार ने समिति को न ठीक-ठाक दफ्तर दिया और न ही कई माह तक वेतन. कम्प्यूटर, आदि की अनुपलब्धता के कारण काम करने में परिशानियाँ हुईं, हालाँकि एनजीटी ने सरकार को निर्देश दिए थे कि समिति को पर्याप्त सुविधाएँ दी जाएँ.

ऐसा लगता हैकि सरकारी तंत्र स्वतंत्र और निष्पक्ष समितियों की निगरानी और प्रतिकूल रिपोर्ट स्वीकार नहीं करना चाहता. ऐसी भी चर्चा चल रही है कि सरकार नदियों के प्रदूषण और कचरा प्रबंधन की निगरानी अपने हाथ में लेना चाहता है. सरकारी समितियाँ मॉनीटरिंग करेंगी तो उसकी रिपोर्ट सरकार के अनुकूल ही होगी. जमीनी वास्तविकता चाहे जैसी हो. शायद इसीलिए अब ठोस कचरे के निस्तारण के लिए मॉडल एक्शन प्लान बनाने की बातें सुनाई दे रही हैं.

जल-थल-वायु प्रदूषण की स्थिति निरंतर गम्भीर होती जा रही है. एनजीटी की रिपोर्ट और सलाह को सकारात्मक ढंग से नहीं लिया गया तो सुधार मुश्किल है. 

(सिटी तमाशा, नभाटा, 27 जुलाई, 2019) 

Thursday, July 25, 2019

हर बार चोट संविधान पर पड़ती है



कर्नाटक-विजयपर भाजपा में जश्न मनाया जा रहा है. एक बार फिर मुख्यमंत्री बनने को आतुर येदियुरप्पा कह रहे हैं- “यह लोकतंत्र की जीत है. कुमारस्वामी सरकार से जनता ऊब चुकी थी. मैं कर्नाटक की जनता को भरोसा दिलाता हूँ कि विकास का नया युग शुरू हो रहा है.कर्नाटक विधान सभा में कुमारस्वामी सरकार का विश्वास मत गिर जाने के वे बहुत उत्साहित हैं. मुख्यमंत्री की कुर्सी उनके बिल्कुल करीब है. वे इस दिन के लिए कब से बहुत परिश्रम कर रहे थे. दिन का चैन और रातों की नींद इसके पीछे लगा रखी थी. इसलिए उनके लिए लोकतंत्र की विजय हो गई है.

निवर्तमान मुख्यमंत्री कुमारस्वामी के लिए धनबल के आगे लोकतंत्र हार गया है. उनके विधायकों का अपहरण हो गया. उनकी सरकार के खिलाफ बड़ी साजिशकामयाब हो गई.. कांग्रेस के लिए भी लोकतंत्र की हत्याहो गई है. उसने प्रकट रूप में सड़क से संसद तक इस हत्याकी इस साजिश के खिलाफ खूब शोर मचाया. अप्रकट रूप में अपने भगौड़े विधायकों को वापस लाने के लिए बहुत हाथ-पैर मारे. अपनेविधान सभाध्यक्ष के बावज़ूद वह सफल नहीं हुई. इसलिए कांग्रेसी कह रहे हैं कि लोकतंत्र के साथ छल हुआ है.

लेकिन वास्तव में छल किसके साथ हुआ है? कर्नाटक में पिछले बीस दिन में जो हुआ उससे हमारा संविधान ही शर्मशार हुआ है. पराजय तो वास्तव में  संविधान निर्माताओं की मंशा की हुई है. अपने राजनैतिक अभियान में सफल-विफल दोनों पक्षों ने तो लोकतंत्र का मखौल उड़ाया है.

हमारे राजनैतिक दलों के नेताओं को लम्बा अरसा हुआ  लोकतंत्र, संविधान और जनता के निर्णय का  उपहास करते हुए. तुर्रा यह कि हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं. याद करिए 1967 का वह दौर जब हरियाणा के एक विधायक ने एक दिन में तीन बार दल-बदल करके भारतीय राजनीति को आया राम-गया रामका नया मुहावरा दिया था. उसी हरियाणा में पूरी की पूरी सरकार ने दल-बदल करके जनता के निर्णय को पलटने का अद्भुत करिश्मा कर दिखाया था. तब से लेकर आज तक कितने ही राज्यों में कितनी ही तरह से लोकतंत्र और संविधान का मज़ाक बनाया जाता रहा है.

हरियाणा में जब आयाराम-गया रामका तमाशा चलता था तब भारतीय संसद ने दल-बदल विरोधी कानून नहीं बनाया था. आज इस कानून को बने करीब पैंतीस वर्ष हो गए लेकिन विवेक के चोर दरवाजों से दल-बदल का खुला खेल जारी है. विधायकों की मण्डी पहले भी सजती थी और आज भी ऊंची बोलियों से खरीद-फरोख्त जारी है. राजनैतिक दलों द्वारा अपने विधायकों को अपने पाले में बनाए रखने और अपहरण से बचाने के लिए उन्हें सुदूर राज्यों के होटलों-फार्म हाउसों में ऐशो-आराम की कैद में रखने का चलन कितना हास्यास्पद किंतु त्रासद है. और, देखिए कि वे इसे लोकतंत्र की रक्षा कहते हैं!

संवैधानिक व्यवस्था है कि किसी सरकार के बहुमत या अल्पमत में होने का निर्णय सिर्फ और सिर्फ सदन में होना चाहिए. इस बार कर्नाटक में हमने इस पवित्र व्यवस्था का नया और सबसे लम्बा और सतर्क पालन देखा. राज्यपाल और विधान सभा अध्यक्ष की तो इसमें निश्चित भूमिका होती ही है. कर्नाटक के ताज़ा मामले में सुप्रीम कोर्ट को भी कतिपय निर्देश जारी करने पड़े और इन निर्देशों को भी जवाबी संवैधानिक चुनौती मिली.         

आश्चर्य और चिंता की बात यह है कि यह पूरा सियासी नाटक लोकतंत्र और संविधान की रक्षा के नाम ही पर खेला गया. संवैधानिक प्रावधानों की दुहाई दी गई. जिन अपहृतविधायकों के इस्तीफे विधान सभा अध्यक्ष को मिले उनकी इतनी बारीक तकनीकी पड़ताल शायद ही पहले कहीं हुई हो. वे निर्धारित प्रारूप में हैं या नहीं और जैनुइनहैं कि नहीं, इस बारे में स्पीकर ने बहुत माथा-पच्ची की. इतना वक्त लगा कि एक तरफ राज्यपाल ने पत्र दो-दो पत्र लिख कर स्पीकर से कहा कि वे इस्तीफों पर यथाशीघ्र फैसला करें. दूसरी तरफ विधायकों की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने पहले स्पीकर के फैसले के लिए  समय-सीमा तय की और फिर यह कहा कि इस्तीफा देने वाले विधायकों को सदन में आने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता.

राज्यपाल और सुप्रीम कोर्ट दोनों के निर्देशों को स्पीकर की ओर से चुनौती दी गई. सवाल उठाए गए कि क्या राज्यपाल सदन के मामलों में स्पीकर को निर्देश दे सकता है? और, क्या सुप्रीम कोर्ट इस्तीफा देने वाले विधायकों को ह्विप जारी करने से रोक सकता है? अच्छा हुआ कि इन सवालों को लेकर टकराव नहीं हुआ. विश्वास मत में हार जाने से कुमारस्वामी सरकार गिर गई. विधायकों के इस्तीफों पर फैसला अब तक नहीं हुआ है. अंतत: सुप्रीम कोर्ट ने भी माना कि यह अधिकार सिर्फ स्पीकर का है. इस प्रकरण का पटाक्षेप अभी होना है.

संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्याएँ और उन पर बहस संविधान की मूल भावना को और स्पष्ट करने तथा उसके माध्यम से संवैधानिक संस्थाओं, उनके अधिकारों एवं स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए स्वागत योग्य मानी जाती हैं. ऐसी बहसों से ही नई व्यवस्थाओं और संविधान संशोधनों की आवश्यकता उजागर होती है. लेकिन जब संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या और उन पर अमल राजनैतिक मंतव्यों से होता लगता है तो अंतत: चोट संविधान पर ही पड़ती है. जैसे-जैसे राज्यपाल और स्पीकर के पदों का राजनीतीकरण होता गया, वैसे-वैसे संवैधानिक व्यवस्थाओं की व्याख्या राजनैतिक लाभ-हानि की दृष्टि से होती दिखने लगी.

संविधान निर्माताओं ने उसके कई प्रावधानों की व्याख्या और उन पर अमल संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों के विवेक पर छोड़ा है. उनके इसी भरोसे ने हमारे संविधान को पर्याप्त लचीला और विशिष्ट बना रखा है. किसी विधायक का इस्तीफा तत्काल स्वीकार करना है या उसके परीक्षण में लम्बा वक्त लगाना है, विधान सभा अध्यक्ष को इसकी पूरी आज़ादी है. उनके इस विवेक पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता. सुप्रीम कोर्ट ने भी यह बात मानी है.

ऐसा ही विवेकाधिकार राज्यपाल को है. उदाहरण के लिए, त्रिशंकु विधान सभा की स्थिति में कोई आवश्यक नहीं कि राज्यपाल सबसे बड़े दल को ही पहले सरकार बनाने के लिए बुलाएँ, यद्यपि ऐसी परिपाटी रही है. संविधान उन्हें यह सुनिश्चित करने का विवेक और दायित्व देता है कि बहुमत साबित करके स्थिर सरकार दे सकने वाले दल को वे पहले अवसर दें.

अब यह संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों पर निर्भर है कि वे अपने विवेक का उपयोग कैसे करते हैं. क्या वे अपने मूल राजनैतिक दल से इतना निरपेक्ष और तटस्थ होते हैं कि उसके राजनैतिक लाभ-हानि का गणित उनके विवेक को प्रभावित न कर सके? कहीं संविधान के प्रावधानों की आड़ में राजनैतिक हित तो नहीं सध रहे? क्या संविधान के विशिष्ट लचीलेपन से  उसकी मूल भावना पर ही चोट नहीं की जा रही?

संविधान निर्माताओं ने ऐसे समय और ऐसे नेताओं की कल्पना की होगी?  
     
(www.nainitalsamachar.com)     
     
    


Saturday, July 20, 2019

मोबाइल के लती हैं तो अस्पताल हाज़िर!



वो देखो चिड़िया... कैसे उड़ी, फुर्र-फुर्र’-रोते पोते को गोद में लिए बुज़ुर्ग ने उसे पार्क में उड़ती चिड़िया दिखाई. बच्चे ने उस तरफ देखा लेकिन रोता रहा. उसकी एक ही रट थी- घर चलो, घर चलो.

क्यों नाराज़ है?’ हमने पूछा तो गुस्से में बोले- हर समय मोबाइल चाहिए, और क्या!उन्होंने जेब से निकालकर उसके मुंह में टॉफी डाल दी. बच्चा शांत होकर टॉफी चुभलाने लगा.

बड़े-बड़े लोग मोबाइल में डूबे हैं. ये तो बच्चा है.हमने दिलासा दिया.

अजी, माँ-बाप ने बिगाड़ रखा है,’ वे तनाव में बोले- जब रोता है तब मोबाइल पकड़ा देते हैं. दूध पिलाना हो तो मोबाइल. खाना खिलाना हो तो. इसको तो पॉटी में बैठने के लिए भी मोबाइल चाहिएइसका बाप इतना खेलता था, बाहर इतना ऊधम मचाता था कि पकड़कर घर लाना पड़ता था. यह घर से बाहर ही नहीं निकलता. बस, मोबाइल पकड़ा दो....टॉफी खत्म होते ही बच्चा फिर रोने लगा था. वे उसे लेकर घर की तरफ चल दिए- सोचा था, थोड़ी देर पार्क में बहल जाएगा. थोड़ी देर खेलेगा, दौड़ेगा, लेकिन नहीं.बच्चा फिर जोरों से रोने लगा था.

हर घर की यही कहानी है.हमने सांत्वना देनी चाही मगर उनका बड़बड़ाना जारी था- यह मोबाइल नई बीमारी है, बीमारी....

उनकी बात से हमें वह समाचार याद आ गया जो दो दिन पहले एक अखबार में पढ़ा था कि मोबाइल और इण्टरनेट की लत एक बड़ी मानसिक बीमारी के रूप में उभर रही है. इस लत के रोगियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. इसी कारण लखनऊ मेडिकल कॉलेज, वाराणसी में बीएचयू के अस्पताल और इलाहाबाद के मोतीलाल नेहरू अस्पताल में मोबाइल नशा मुक्ति केंद्र खुल गए हैं. मुम्बई-दिल्ली जैसे महानगरों में और भी पहले ऐसे सेण्टर खुल चुके हैं. हर शहर में मनोचिकित्सकों के यहाँ ऐसे रोगियों का आना बढ़ गया है.

सबसे ज़्यादा दुष्प्रभाव किशोर-किशोरियों और नन्हे बच्चों पर पड़ रहा है. उनका व्यवहार असामान्य हो रहा है, पढ़ाई और खेलों में उनका ध्यान नहीं लग रहा, वे चिढचिढ़े, गुस्सैल और चुप्पा बन रहे हैं. मोबाइल से थोड़ी देर की भी दूरी उन्हें बर्दाश्त नहीं हो रही. हाल के वर्षों में ऐसे कई मामले हुए हैं जिनमें स्मार्ट फोन खरीद कर न देने पर बच्चों ने घर छोड़ दिया या चोरी की या अपनी जान लेने तक की कोशिश की.

एक मनोचिकित्सक मित्र बता रहे थे कि नशे की लत और मोबाइल की लत में बहुत फर्क नहीं रहा. इसे छुड़ाने के लिए भी उसी तरह की काउंसिलिंग और थेरेपी की आवश्यकता होती है. वे माता-पिताओं को सलाह देते हैं कि बच्चों को मोबाइल फोन खिलौने की तरह न दें. उन्हें उनके लायक खिलौने दें, रोचक कहानियाँ सुनाएँ, बाहर ले जाएँ और उनके साथ पार्क में दौड़ने-छुपने के खेल खेलें. जब बच्चों के साथ हों तब स्वयं भी बेवजह मोबाइल इस्तेमाल न करें. बच्चे उन्हीं से ही सीखते हैं.

क्या नई पीढ़ी के व्यस्तमाता-पिता इन बातों पर ध्यान देते हैं? ऊपर वाले बुज़ुर्ग का उदाहरण कुछ और ही बताता है.

मनोविज्ञान के चार हज़ार विद्यार्थियों के बीच किया गया एक ताज़ा सर्वेक्षण कहता है कि सोशल मीडिया न केवल व्यवहार, बल्कि लोगों की राय भी बदल रहा है. नब्बे फीसदी से ज़्यादा विद्यार्थी मानते हैं कि सोशल मीडिया में अवांछित और नकारात्मक सामग्री भरी पड़ी है. इसका असर भी वैसा ही हो रहा है. वे यह भी मानते हैं कि यदि सकारात्मक सामग्री की भरमार हो तो सोशल मीडिया का रचनात्मक इस्तेमाल हो सकता है.

फिलहाल तो हम अपने चारों अच्छे लक्षण नहीं देख रहे. टेक्नॉलजी बुरी नहीं होती. सवाल यह है कि उसका प्रयोग हम कैसे कर रहे हैं.

(सिटी तमाशा, 20 जुलाई, 2019) 






Friday, July 12, 2019

ग्रीन गैस के 'गड्ढे'



हमने मई में उन्हें चेता दिया था कि खुदी जगहों पर बरसात में मिट्टी धँसेगी और बड़े-बड़े गड्ढे हो जाएँगे. घर-घर पीएनजी (रसोई गैस)  पहुँचाने वाली ग्रीन गैस लिमिटेड या उनके लिए ठेके पर काम करने वाली कम्पनी के सुपरवाइजर ने आश्वस्त किया था कि गड्ढों में पानी भरकर मिट्टी से अच्छी तरह समतल कर दिया जाएगा.  बातें ही रहीं, काम नहीं हुआ. पिछले दिनों की बारिश से उन इलाकों में घरों के सामने बड़े-बड़े गड्ढे हो गए हैं जहाँ-जहाँ उन्होंने खुदाई की थी. कारों के पहिए उनमें धँस कर फँस रहे हैं और स्कूटी-बाइक वाले लुढ़क रहे हैं.

सरकारी दफ्तर कामचोरी और लापरवाहियों के लिए कुख्यात हैं लेकिन अपने देश में बड़ी एवं प्रतिष्ठित निजी कम्पनियाँ भी इस मामले में कम नहीं हैं. निजी टेलीकॉम कम्पनियाँ बहुत लापरवाह साबित हो रहीं हैं. ब्रॉडबैण्ड कनेक्शन के तार बड़ी बेतरतीबी से दूसरे घरों की छतों, बालकनियों से होते हुए बिजली के खम्भों में जैसे-तैसे  बांधे गए कहीं भी देखे जा सकते हैं.

ओएफसी डालने के लिए वे बेरहमी से खुदाई कराते हैं. कभी पानी की पाइपलाइन फटती है, कभी टेलीफोन केबल. चंद महीने पहले गोमती नगर के एक हिस्से में पानी देने वाली मुख्य पाइप लाइन खुदाई में कट गई. चौबीस घण्टे से ज़्यादा पानी आपूर्ति ठप रही. खुदाई कराने वालों ने जल संस्थान को यह सूचना देना भी उचित नहीं समझा कि नुकसान किस जगह हुआ है. इसलिए मरम्मत में भी देर हुई.

जहाँ मर्जी आए खोदो और अपना काम करवा कर चलते बनो. निजी कम्पनियों का यही रवैया बन गया है. ये कम्पनियाँ नगर निगम, जल संस्थान, बीएसएनएल, आदि से खुदाई की अनुमति लेती हैं या नहीं, खुदाई की मरम्मत का धन जमा कराती हैं या नहीं, स्पष्ट नहीं होता. कुछ औपचारिकता भले होती हो, बाकी काम अण्डर द टेबलहोता है. अपना काम निकालने के लिए निजि कम्पनियाँ सरकारी अमले को की जेब गरम करने में सबसे आगे हैं. इसीलिए खुदे फुटपाथों एवं सड़कों की मरम्मत नहीं होती. बड़े-बड़े गड्ढे जानलेवा हो गए हैं. बरसात में उनकी मिट्टी धँसने से और भी खतरनाक.

प्रतिष्ठित निजी कम्पनियों में पहले एक घोषित नियम था. वे अपने कार्यालय नियमानुसार कमर्सियल भवनों में ही खोलते थे. हाल के वर्षों में नियम के विपरीत निजी भवनों में खुलेआम कॉर्पोरेट दफ्तर खोले गए हैं. बैंक भी यही कर रहे हैं. शहर के हर इलाके में आवासीय कॉलोनियों में निजी कम्पनियों के बड़े-बड़े दफ्तर और बैंक खुले हुए हैं. इनमें स्टाफ के लिए भी पार्किंग की जगह नहीं होती, ग्राहकों की चिंता कौन करे. जाम लगना आम बात है.

लखनऊ मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन की अवश्य प्रसंशा करनी होगी. मेट्रो ट्रेक निर्माण के दौरान उन्होंने न केवल सुरक्षा  मानकों का पूरा ध्यान रखा बल्कि खुदाई और तोड़फोड़ समबद्ध विभागों से अनुमति लेने और शुल्क जमा करने के बाद की. काम हो जाने के बाद  ज़ल्दी ही सड़कें ठीक कीं. इस पूरे दौरान यातायात संचालन के लिए उसने कर्मचारी भी तैनात किए. उनके ही कारण मेट्रो निर्माण के दौरान यातायत बाकी दिनों की तुलना में बहुत सुचारू रूप से चला.

कभी निजी कम्पनियों की कार्य-संस्कृति की तारीफ होती थी. अब उन्होंने सरकारी ढर्रा अपना लिया है. सरकारी अमले की आदतें बिगाड़ने में उनका खास योगदान है. सरकारी तंत्र में आसानी से काम करवाने के लिए उन्होंने बकायदा एजेण्ट रखे हैं जो लेन-देन और राजनैतिक प्रभाव से कम्पनी के काम करवाते हैं.

बेईमानी, लापरवाही, टालमटोल और कामचलाऊ उपाय करना हमारी चारित्रिक विशेषता है. सरकारी तंत्र में हम हैं और निजी कम्पनियों में भी हम ही हैं. फिर भला निजी क्षेत्र में  उजली कार्य-संस्कृति के उदाहरण कैसे दिए जा सकते हैं!
 
(सिटी तमाशा, नभाटा, 13 जुलाई, 2019) 



Wednesday, July 10, 2019

कांग्रेस, कर्नाटक और कर्मफल



नेतृत्वविहीनकांग्रेस के संकट बढ़ते जा रहे हैं. इससे कुछ दूसरे संकट पैदा हो रहे हैं. राहुल गांधी के अध्यक्ष पद छोड़ने के फैसले पर अडिग रहने के बाद पार्टी नेताओं-कार्यकर्ताओं के लिए नया नेता चुनना बहुत मुश्किल काम होगा. विशेषकर तब, जब नेहरू-गांधी परिवार का कोई सदस्य इस चुनाव में प्रकट या अप्रकट रूप में कोई सहायता न कर रहा हो. एक युग हुआ, कांग्रेसियों को इस परिवार के नेतृत्व की आदत हो गई है.

दूसरी समस्या कांग्रेस के भीतर नए और पुराने नेताओं के आसन्न टकराव का है. इसका हालिया और तीव्र टकराव हमने राजस्थान और मध्य प्रदेश में देखा. दोनों राज्यों में कांग्रेस की विजय के बाद मुख्यमंत्री चुनने में राहुल गांधी को भी पसीने आ गए थे क्योंकि नई पीढ़ी पुराने कांग्रेसियों को खुली चुनौती दे रही थी. सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस की नई पीढ़ी के ऐसे प्रभावशाली प्रतिनिधि हैं जो पुराने नेतृत्व से कांग्रेस को मुक्त करना चाहते हैं.

राहुल गांधी की ताज़पोशी के बाद इस नई पीढ़ी को ताकत भी मिली थी किंतु स्वयं राहुल युवा नेतृत्व को नव-विजित राज्यों की कमान देने का साहस नहीं दिखा पाए. उनके अध्यक्ष रहते भी युवा कांग्रेसी नेताओं को दूसरे पायदान पर ही संतोष करना पड़ा. अब जबकि राहुल गांधी ने अपने को नए नेता के चयन से पूरी तरह अलग रखने का फैसला किया है, कांग्रेस के भीतर नए और पुराने का यह टकराव जोरों से सिर उठाएगा.

कांग्रेस कार्यसमिति पार्टी के नए अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया कब तय करेगी, अभी यही निश्चित नहीं है. इस बीच कांग्रेसियों में बेचैनी बढ़ रही है. कांग्रेस विरोधी ताकतें, विशेष रूप से भाजपा इस कमजोरी का लाभ उठाने से नहीं चूक रहीं. कांग्रेस में नेतृत्व-संकट न होता और पार्टी की कमान मजबूत हाथों में होती तो कांग्रेसी विधायकों को तोड़नाइतना आसान नहीं होता. भाजपा नेतृत्व लाख इनकार करे लेकिन कर्नाटक में कांग्रेस-जद (एस) के विधायकों की खरीद-फ़रोख्तकरके गठबन्धन सरकार को अस्थिर करने के आरोप लगाकर कांग्रेस के लोक सभा में हंगामा करने को अकारण नहीं माना जा सकता.

लोक सभा चुनावों में भाजपा की प्रचण्ड जीत के साथ ही यह आशंका व्यक्त की जाने लगी थी कि शीघ्र ही कर्नाटक, राजस्थान और मध्य प्रदेश सरकारों को अस्थिर करने का राजनैतिक खेल शुरू होगा. इस आशंका के कारण थे. भाजपा शासन के पहले दौर में अरुणाचल से लेकर उत्तराखण्ड तक इस तरह के खेल किए जा चुके थे. उत्तराखण्ड में तो हाई कोर्ट के फैसले के बाद वहां कांग्रेस की सरकार सदन में अपना बहुमत साबित कर बहाल हो पाई थी. एनडीए की अटल बिहारी सरकार के दौर में भी बिहार में बहुमत वाली राबड़ी सरकार को अपदस्थ कर दिया गया था.

राज्यों में विरोधी दलों की कमजोर सरकारों को किसी न किसी बहाने अस्थिर करके गिराने का यह राजनैतिक खेल नया नहीं है कि लोकतंत्र की हत्याके लिए सिर्फ भाजपा को दोषी ठहराया जाए. इंदिरा गांधी के समय से कांग्रेस ने अपने वर्चस्व के दौर में ऐसे खूब खेल खेले. दल-बदल, तोड़फोड़, राज्यपालों और विधान सभाध्यक्षों के विवेकपूर्णफैसलों  की आड़ में बहुमत की सरकारों को गिराया गया. इसी कारण संविधान के अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग हमारे देश में एक बड़ा विवाद बनता रहा और कई बार सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँचा.

विरोधी दलों की राज्य सरकारों को अस्थिर करने या बहाने गिराने के ये राजनैतिक खेल लोकतंत्र के लिए तो अशुभहैं ही, महत्वपूर्ण संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों के फैसलों को प्रभावित करके संविधान के प्रावधानों की मनमानी व्याख्या करने का रास्ता भी खोलते हैं. राज्यपाल और विधान सभाध्यक्ष के पदों को गैर-राजनैतिक, पार्टी-निरपेक्ष और स्वतंत्र रखने का उद्देश्य यह नहीं था कि उनके फैसले परिस्थिति-विशेष में पार्टी-विशेष को लाभ पहुँचाने वाले हों, जैसा कि पिछले कई दशकों से दिखाई देने लगा है.

कर्नाटक विधान सभा अध्यक्ष ने कहा है कि जिन विधायकों ने अपने इस्तीफे भेजे हैं, उनमें से कुछ निर्धारित प्रारूप में नहीं हैं. जिन्हें भी इस्तीफा देना हो वे मुझसे मिलकर निर्धारित प्रारूप में त्यागपत्र दें. यह फैसला देते हुए विधानसभाध्यक्ष ने कहा है कि मुझे अत्यंत विवेकपूर्ण निर्णय देना है ताकि आने वाली पीढ़ियाँ मुझ पर किसी तरह का आरोप न लगा सकें.

हमारा संविधान इन मामलों में बहुत उदार और उदात्त है. वह राज्यपालों या विधान सभा अध्यक्षों को विशेष परिस्थितियों के लिए विशेष निर्देश नहीं देता. वह लोकतंत्र और संविधान की मूल भावना के अनुरूप विवेकपूर्ण निर्णय लिए जाने की रास्ता छोड़ता है. यही विवेक कभी विधायकों के इस्तीफे को तुरंत स्वीकार कराता है और कभी उनके प्रारूप-परीक्षण में समय लगाने की गुंजाइश देता है. यह इस पर निर्भर करता है कि विधान सभाध्यक्ष का पद किस पार्टी के हिस्से आया. इसीलिए गठबंधन सरकार बनने की स्थिति में मुख्यमंत्री पद की दावेदारी से कम महत्त्व विधानसभाध्यक्ष पद की दावेदारी को नहीं दिया जाता.

राज्यपालों का पद भी इसीलिए बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है. अस्थिर एवं गठबंधन सरकारों के दौर में यह राज्यपाल के विवेक पर निर्भर है कि वह सम्बद्ध मुख्यमंत्री को सदन में बहुमत साबित करने के लिए सिर्फ दो दिन देता है या पूरा एक पखवाड़ा. विधायकों के सदन से इस्तीफे के मामलों में राज्यपाल सीधे हस्तक्षेप नहीं कर सकते लेकिन विधान सभाध्यक्ष को सलाह देने का ]विवेक तो उनका भी है ही. सो, कर्नाटक के राज्यपाल ने विधान सभा के अध्यक्ष को पत्र लिखा है कि वे विधायकों के त्यागपत्रों पर शीघातिशीघ्रनिर्णय लें. राज्यपाल का विवेक शीघ्रातिशीघ्रकहता है जबकि विधान सभा अध्यक्ष का विवेक फूक-फूक कर कदम रखने को कहता है ताकि कोई उन पर अंगुली न उठाए.   

विवेकका यह विरोधाभास एक दल के लिए संवैधानिकहै तो दूसरे दल के लिए लोकतंत्र का गला घोटना.संविधान निर्माताओं ने यह नहीं ही सोचा होगा कि विवेकके कई कोण हो सकते हैं. यह संविधान के छिद्रनहीं हैं, जैसा कि कुछ लोग कह देते हैं. यह आम्बेडकर की वह भविष्यद्रष्टा चेतावनी है जो उन्होंने संविधान सभा की  अंतिम बैठक में इस तरह दी थी- संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, यदि वे लोग, जिन्हें संविधान को अमल  में लाने का काम सौंपा जाए, अच्छे नहीं निकलें तो निश्चित रूप से संविधान भी खराब सिद्ध होगा.

राजनैतिक दलों के कमजोर नेतृत्व, राजनीति की मूल्यहीनता, अल्पमत या अस्थिर सरकारों के दौर और संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों का विवेक हमारे लोकतंत्र और संविधान की बार-बार परीक्षा लेता है. इसीलिए सशक्त विपक्ष लोकतंत्र की सेहत के लिए अनिवार्य कहा गया है.

कांग्रेस का यथाशीघ्र नया अवतार इस कारण भी आवश्यक है.      


(प्रभात खबर, 11 जुलाई, 2019)

Saturday, July 06, 2019

ज़ायरा और नुसरत यानी चुनौती और उम्मीद



ज़ायरा वसीम और नुसरत ज़हाँ, ये दो नाम पिछले कुछ दिन से हर तरह के मीडिया में छाए हुए हैं. टीवी और सोशल मीडिया में सबसे ज़्यादा. इन्हें खूब ट्रोल किया जा रहा है. गालियाँ पड़ रही हैं तो समर्थन करने वाले भी हैं. नुसरत ज़हाँ के खिलाफ दार-उल-उलूम, देवबन्द से फतवा भी ज़ारी हुआ है कि उसने बहुत इस्लाम विरोधी काम किया है.

ज़ायरा वसीम को आमिर खान की मशहूर फिल्म दंगलसे ख्याति मिली थी. अपने शानदार अभिनय के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. एक और फिल्मक्रिकेट सुपरस्टारमें उन्होंने बुर्का पहनकर गाना गाने वाली लड़की की भूमिका निभाई. शीघ्र ही उनकी एक और फिल्म स्काई इज पिंकआने वाली है.
नुसरत जहाँ बंगाली फिल्मों का पहले से सुपरिचित नाम है. राष्ट्रीय स्तर पर वे हाल ही में बंगाल से तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर लोक सभा चुनाव जीतने के बाद चर्चा में आई. कुछ वर्ष पहले एक आपराधिक वारदात के सिलसिले में भी उनका नाम आया था, हालांकि ज़ल्दी ही उससे मुक्त हो गई थीं.

मीडिया में दोनों के सुर्खियाँ बनने के कारण लेकिन दूसरे ही हैं. ज़ायरा वसीम इसलिए कि पिछले दिनों बिल्कुल अचानक ही उन्होंने फिल्मों में अब काम नहीं करने की घोषणा कर दी, क्योंकि “इसने मुझे अज्ञानता के रास्ते पर धकेल दिया. मैं ईमान के रास्ते से भटक गई थी. चूँकि मैं अपने ईमान के खिलाफ़ काम कर रही थी इसलिए अपने धर्म के साथ मेरा रिश्ता ख़तरे में पड़ गया था. मैं ऐसा नहीं करना चाहती थी.’’ हालांकि इस पोस्ट में वे यह भी स्वीकार करती हैं कि फिल्मों ने मुझे लोकप्रियता दी, सम्मान व प्यार दिया. नई लड़कियों के लिए मैं सफलता का रोल मॉडल बन गई.
उधर, नुसरत जहाँ को लेकर विवाद कारण यह है कि उन्होंने एक गैर-मुसलमान, जैन व्यवसायी से शादी की है और 25 जून को लोक सभा की सदस्यता की शपथ ग्रहण करने गले में मंगलसूत्र पहने और बिंदी व सिंदूर लगाए पहुँच गईं. कट्टरपंथियों ने इसे इस्लाम-विरुद्ध ठहरा दिया. इस्लाम का एक बड़ा और महत्त्वपूर्ण स्कूल माने जाने वाले दार-उल-उलूम के एक मौलाना ने फतवा दे दिया कि इस्लाम के मुताबिक मुसलमान सिर्फ मुसलमान से शादी कर सकता है. नुसरत ने धर्म-विरुद्ध काम किया है.हिंदू महिला की तरह उनके शृंगार करने को घोर गैर-इस्लामी ठहराया जा रहा है. सोशल मीडिया पर उनके खिलाफ खूब ज़हर उगला जा रहा है.
ज़ायरा की फेसबुक पोस्ट ने सोशल मीडिया और टीवी के पर्दे पर भूचाल-सा ला दिया. तीन तरह की प्रतिक्रियाएँ हुईं. मुस्लिम मौलानाओं और कट्टरपंथियों ने उनके फिल्में छोड़ने का स्वागत किया, वहीं स्वतंत्रचेता समाज ने उनके इस बयान की निंदा की या मखौल उड़ाया. कुछ राजनेताओं समेत कई लोगों की राय यह भी है कि यह उनका निजी फैसला  है जिस पर टीका-टिप्पणी करना गलत होगा.
सबसे ज़्यादा बवाल ज़ायरा की इस टिप्पणी पर मचा हुआ है कि वे फिल्मों में काम करने को अब अचानक इस्लाम विरोधी बता रही हैं जबकि मुस्लिम समुदाय के बहुत सारे लोगों ने फिल्मी दुनिया में काम किया और खूब नाम कमाया. आज भी मुस्लिम समुदाय के लोकप्रिय अभिनेता-अभिनेत्रियों, गायकों, नर्तक-नर्तकियों, निर्माता-निर्देशकों, आदि की लम्बी सूची है जो भारतीय फिल्मों को हर तरह से समृद्ध कर रहे हैं. पूछ जा रहा है कि क्या ज़ायरा के मुताबिक उन सबने इस्लाम-विरोधी काम किया?
आशंका यह भी व्यक्त की जा रही है कि कहीं ज़ायरा ने कट्टरपंथियों के भय से तो यह कदम नहीं उठाया. दंगलफिल्म में बाल कटवाने, छोटे कपड़े पहनने और लड़कों से कुश्ती लड़ने के लिए उन्हें धमकी भी मिली थी. कुछ समय पहले जम्मू-कश्मीर की तत्कालीन मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती से मिलने पर भी उन्हें कट्टरपंथियों ने धमाकया था. तब उन्होंने माफी माँग ली थी. क्या यही सब उनके फैसले का कारण है? कुछ कोनों से यह सुर भी सुना गया है कि ज़ायरा का निर्णय अपनी आने आली फिल्म स्काई इज पिंकके लिए एक पब्लिसिटी स्टंट है.
सच क्या है, पता नहीं. ज़ायरा अपना फैसला सुनाने के बाद मौन हैं लेकिन नुसरत ज़हाँ अपने खिलाफ फतवे और सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग से कतई परेशान नहीं हैं. बल्कि, वे बड़े साहस से अपने फैसले को सही ठहराते हुए कुछ तार्किक बातें कह रही हैं.
नुसरत का यह कहना महत्त्वपूर्ण है कि मैं समावेशी भारत की प्रतिनिधि हूं, ऐसे भारत की जो जाति-धर्म-नस्ल की बेड़ियों से परे है. मैं सभी धर्मों की इज़्ज़त करती हूँ और अब भी मुसलमान हूँ. किसी को भी इस पर टिप्पणी नहीं करनी चाहिए कि मैं क्या पहनती हूँ. आस्था, पहनावे से परे है. एक ट्वीट में नुसरत ने यह भी लिखा कि मैं कट्टरपंथियों की टिप्पणियों या फतवे पर कतई ध्यान नहीं दूँगी क्योंकि उससे सिर्फ नफरत और हिंसा ही फैलती है.
ज़ायरा वसीम और नुसरत जहाँ के प्रकरण बताते हैं कि भारत जैसा बहु-धार्मिक, बहु-सांस्कृतिक समाज आज बढ़ती धार्मिक कट्टरता के कारण कहाँ पहुँच गया है. हमारी साझी विरासत को किस तरह चुनौती मिल रही है. बीते हजारों वर्षों में हमारे देश में कई धार्मिकताओं और संस्कृतियों ने परस्पर घुल-मिलकर जो  मिश्रित संस्कृति रची वह इंद्रधनुषी रंगत वाली है. आज के हमारे रीति-रिवाजों, पहनावों, खान-पान और गीत-संगीत-कला में यह तलाशना मुश्किल काम है कि किस समाज ने क्या-कैसे प्रभाव दूसरों से ग्रहण किए और अपने बना लिए.
मंगलसूत्र-बिंदी-सिंदूर तो बहुत सामान्य बात है, कई मुस्लिम परिवारों में नए शिशु के आगमन की प्रतीक्षा में गाए जाने वाले इस सोहर को क्या कहेंगे- अल्लाह मियाँ, हमरे भैया को दीयो नंदलाल’? और, राम- कृष्ण, आदि अवतारों की शान में मुस्लिम शायरों ने जो अद्वितीय रचनाएँ कीं, सिंदूर लगाने भर से भड़क जाने वाले कट्टरपंथी उनको क्या कहेंगे?
ज़ायरा वसीम जैसी प्रतिभाशाली अदाकारा का धर्म और ईमान की रक्षा के नाम पर फिल्मों को अलविदा कहना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है, भले ही यह निजी फैसला लेने के लिए वे स्वतंत्र हैं. कट्ट्रपंथियों के दवाब में यह फैसला लिया गया है तो घोर चिंताजनक है.
ज़ायरा का फैसला मुस्लिम समाज की उन तमाम प्रतिभाशाली लड़कियों की निराशा का कारण भी बनेगा जो धर्म के नाम पर कट्टरपंथ की जकड़न से मुक्त होकर विभिन्न कला-क्षेत्रों में कदम रखने की कोशिश कर रही हैं. इसीलिए प्रसिद्ध लेखिका तस्लीमा नसरीन ने ट्वीट किया कि 'बॉलीवुड की प्रतिभाशाली अभिनेत्री ज़ायरा वसीम अब एक्टिंग करियर छोड़ना चाहती हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उनके करियर ने अल्लाह में उनके विश्वास को ख़त्म कर दिया है. क्या अजीब फ़ैसला है. मुस्लिम समुदाय की कई प्रतिभाएँ इसी तरह बुर्के के अंधेरे में जीने को मजबूर हैं.' हालांकि तस्लीमा के विपरीत प्रगतिशील कहलाने वाले कई मुस्लिम बुद्धिजीवियों, अदाकारों ने इस पर आश्चर्यजनक रूप से चुप्पी साधे रखी है.
फिल्मों में काम करना बंद करने के ज़ायरा के ऐलान की हताशा के विपरीत नुसरत का कट्टरपंथियों को दो-टूक ज़वाब देना यह आश्वस्ति देता है कि हम अँधेरे की ओर लौटने से इनकार करते हैं. 
(नभाटा, मुम्बई, 07 जुलाई, 2019)


  


  

Friday, July 05, 2019

पानी के आपातकाल का दौर सामने है



सोशल साइटों पर इन दिनों वाइरल एक वीडियो दिखाता है कि नदियों की प्रतीक एक महिला बगल में घड़ा दबाए घूम रही है. वह आम जनता से लेकर दफ्तरों में बैठे अफसरों पर गंदला, कीचड़युक्त पानी उड़ेल रही है. यह नदियों के उस आक्रोश की अभिव्यक्ति है जो हमारे उनके साथ किए व्यवहार से उपजा है.

नदियों, झीलों, तालाबों और भू-जल समेत सभी प्राकृतिक जल-स्रोतों का हमने जो हाल विकास के नाम पर करना जारी रखा है, उसी का नतीज़ा है कि हम जल-संकट के सबसे भीषण दौर से गुज़र रहे हैं. कुछ शहरों का यह हाल हो गया है कि कई बड़ी कम्पनियों ने अपने कर्मचारियों को घर से काम करने को कह दिया है क्योंकि वे दफ्तरों में पानी उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं.

कोई राज्य, कोई शहर-कस्बा ऐसा नहीं है जहाँ पानी का भारी संकट न हो. भू-जल का इतना अधिक दोहन कर लिया गया है कि उसका स्तर खतरनाक सीमा तक नीचे चला गया है. इसके बावज़ूद घर-घर सबमर्सिबल पम्प लगाना जारी है. जल संकट के प्रति न जनता जागरूक है न सरकारें. वर्षा-जल संचयन और भू-जल रिचार्जिंग के सरकारी शोर के बावज़ूद धरती की कोख सूखती जा रही है.

नीति आयोग ने पिछले वर्ष चेतावनी दी थी कि देश भीषण जल-संकट के मुहाने पर खड़ा है. सन 2030 तक करीब 40 फीसदी आबादी पीने के पानी से वंचित हो जाएगी. एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले दस साल में करीब 30 प्रतिशत नदियाँ सूख गई हैं. अकेले उत्तर प्रदेश में सरकारी आंकड़े ही कहते हैं कि पिछले पाँच साल में 77 हज़ार कुंए और 1045 तालाब कम हो गये हैं. कम हुए माने पाट दिए गए.

आंकड़े और हालात की भयावहता सबको पता है, ज़िम्मेदार लोगों को अवश्य ही लेकिन जो किया जा रहा है वह कागज़ों पर. कई वर्ष से रेनवाटर हार्वेस्टिंगहो रही है लेकिन नीति आयोग ही का मानना है कि इसके वास्तविक परिणाम निराशाजनक हैं. पानी ज़मीन के नीचे जा नहीं रहा, बजट अवश्य कहीं भर रहा है.

मोदी सरकार ने अपनी दूसरी पारी शुरू होते ही एक नया जल शक्ति मंत्रालय बनाया है और घर-घर नल से जल कार्यक्रम घोषित किया है. पहल सामयिक है लेकिन कड़वी सच्चाई यह है कि नल से सभी घरों तक जल तब पहुँचेगा जब धरती में पानी बचेगा. पहले पानी बचाने के लिए आपातकालीन उपाय होने चाहिए. उसके लिए क्या किया जा रहा है?

यही देख लीजिए कि धरती से पानी के दोहन पर कोई रोक-टोक नहीं है. जिसके पास थोड़ा भी पैसा है वह बोरिंग करवा ले रहा है. घर-घर सब-मर्सिबल पम्प हैं. सभी धरती के भीतर से मुफ्त पानी खींच रहे हैं. बिजली का स्विच दबाया और खूब पानी बहाया. शहरों में बोरिंग करवा कर पानी बेचने का बड़ा धन्धा फल-फूल रहा है. गरीबों की ही मरन है. वे जहाँ-तहाँ से गंदा पानी बटोर कर काम चला रहे हैं. गंदे पानी से होने वाली बीमारियों की लम्बी शृंखला है.

निजी बोरिंग पर तत्काल प्रभाव से रोक लग जानी चाहिए. घर-घर लगे सब-मर्सिबल बंद कराइए या उन पर भारी जल-दोहन कर लगाया जाना चाहिए. साथ ही उनके लिए वाटर-रिचार्जिंग संयंत्र लगाना अनिवार्य हो. जहाँ जल-संस्थानों के पानी की आपूर्ति नहीं हैवहीं सरकारी देख-रेख में पम्प लगाए जा सकते हैं. जल-संस्थान आज तक पानी के मीटर ही नहीं लगा सका. पानी सबसे महंगी वस्तु बने क्योंकि अब वह दुर्लभ है. उसका मुफ्तिया इस्तेमाल आपराधिक और दण्डनीय बनाना होगा.


अगर ऐसे कदम नहीं उठाए जाते तो सिर्फ नया मंत्रालय बनाने और नारों से काम नहीं चलने वाला.    
     

(सिटी तमाशा, नभाटा, 06 जुलाई, 2019)