Friday, December 31, 2021

तो जनाब, हमारी भूमिका क्या होने वाली है?

नव वर्ष 2022 का आज पहला दिन है। शुभकामनाओं, संकल्पों, उत्सव एवं उल्लास का दिन। बीते हुए को पीछे छोड़ देने का दिन। उससे सीखने का दिन। भविष्य में देखने और उसे सुंदर बनाने की ठानने का दिन। प्रत्येक वर्ष ऐसे ही आता है- आशाओं, उमंगों, सपनों के साथ। यूं तो प्रत्येक सुबह भी ऐसे ही होती है, नए दिन के साथ नए सपनों-संकल्पों की लेकिन नए साल की बात ही कुछ और है!

क्या वर्ष 2021 ने हमें बहुत डराया-सताया है? वह बहुत कड़वी, न भूली जा सकने वाली यादें छोड़ गया है? हम सब कामना कर रहे हैं कि वैसा हाहाकार फिर न मचे। नहीं होगा, इसकी क्या आश्वस्ति है? अब तक की यात्रा में जो-जो भयानक हुआ, विनाशकारी हुआ, महाविपदाएं आईं, उनकी ही आहटें कहां थीं? सन 2020 के अंतिम दिनों से कोविड नामक जिस महामारी ने सारी दुनिया को हलकान कर रखा है, उसकी आशंका भी किसे रही होगी? अच्छे, खूबसूरत दिनों की कामना करते हुई भी भयानक दिन आ जाते हैं। ऐसा होता रहा है लेकिन बुरा समय बीत जाता है। रवि के रथ के साथ मनुष्य आगे बढ़ता रहा है।

पिछले कुछ दिनों से एक तेंदुआ शहर में घुस आया है। अपने तीखे, खूंखार पंजों से उसने कई को घायल किया है। वह पता नहीं कब, कहां घात लगाए बैठा हो। वह बेचारा तो मनुष्य के जंगल में कहीं से भटक कर आ गया है। वह स्वयं ही डरा हुआ और अपनी जान बचाने के लिए ही आक्रामक बना हुआ है। शीघ्र ही वह पकड़ लिया जाएगा लेकिन क्या खूंखार जबड़े वालों से मुक्ति मिल जाने वाली है? कितने भयावह, खूंखार पंजे और जबड़े हमें चारों ओर से घेरे हुए हैं। क्या हम उनकी दिन-दिन तेज होती दहाड़ सुन रहे हैं? उन्हें पहचान रहे हैं? उनसे मुक्ति का कोई जतन कर रहे हैं?

नव वर्ष की समस्त शुभकामनाओं पर महामारी के एक और भयानक दौर की आशंका हावी है। तेंदुए और  महामारी के बढ़ते प्रकोप से डरना और सावधान रहना आवश्यक है। तेंदुआ बहुत दिन शहर में नहीं रह सकता और न ही महामारी लम्बे समय तक आतंक मचाएगी। उसकी रोकथाम की कुछ विधियां आ चुकीं और कुछ अधिक कारगर विधियां आने वाली हैं। मगर जो मानव विरोधी, समाज विभाजक प्रवृत्तियां गहरे पैठ रही हैं, वे भटके तेंदुओं और जानलेवा महामारियों से भी भयानक और मनुष्य-विरोधी हैं।

महामारी से बचाव के लिए लगाए गए रात्रि कर्फ्यूके कारण नव वर्ष के स्वागत का रंगारंग जश्न न मना सकने का मलाल पाले बैठी पीढ़ियों को क्या इसका अनुमान भी है कि भविष्य के लिए कैसे-कैसे जहरीले बीज बोए जा रहे हैं? आने वाला समय कैसी चुनौतियां लाने वाला है? टीके, ‘मास्क और कुछ सावधानियों से महामारी से बचा जा सकता है। बढ़ती नफरत, हिंसा और मनुष्य विरोधी प्रवृत्तियों का नव वर्ष की हमारी शुभाशाओं, सपनों एवं संकल्पों से कोई सबंध है? तो फिर इन प्रवृत्तियों से निपटने के लिए क्या-क्या करना चाहिए?

मनुष्य सर्वदा बेहतरी के सपने देखता है। तमाम टूटे सपनों के बाद भी वह नया, सुंदर सपना देखना जारी रखता है। उसे साकार करने के जतन करता है। वह हार नहीं मानता। यही मनुष्य होना है। केदारनाथ अग्रवाल इसे रवि के रथ का घोड़ाकहते हैं-

जो जीवन की धूल चाटकर बड़ा हुआ है

तूफानों से लड़ा और खड़ा हुआ है

जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है

वह रवि के रथ का घोड़ा है

वह जन मारे नहीं मरेगा, नहीं मरेगा।

मनुष्य मरणशील है लेकिन उसकी यात्रा अजर-अमर है। इस यात्रा को सुंदर और प्रेममय बनाने के लिए हमें अपनी भूमिका तय करनी है। कामना है कि हम सब ऐसा कर सकें!   

(सिटी तमाशा, नभाटा, 01 जनवरी, 2022)   

          

Tuesday, December 28, 2021

कहानी/ तुम तो अच्छे मुसलमान थे, रहमान!

दो-तीन मिनट के अंतराल से वे प्रतिदिन अपने-अपने घर का गेट खोलकर बाहर निकलते हैं। अपवाद स्वरूप ही कभी पांच-दसेक मिनट की देर होती हो। पहले बाहर आने वाला मकानों की कतार के सामने धीरे-धीरे टहलता हुआ या सामने के पार्क में चहलकदमी करते हुए दूसरे की प्रतीक्षा करता है। आज रहमान को निकलने में कुछ देर लग रही थी। सक्सेना अपने घर के सामने वाली सड़क पार करके बाएं मुड़े और थोड़ा आगे चलकर दीवार के बीच बने छोटे गेट से पार्क में दाखिल हो गए। पार्क में सन्नाटा था। चहारदीवारी की झाड़ियां बड़ी होकर बेतरतीब फैल गई थीं। माली को टोकना होगा कि कब से उसने छंटाई नहीं की। फिर याद आया कि माली चार दिन की छुट्टी मांगकर गांव गया था। हफ्ते भर से अधिक हुआ, लौटा नहीं है। दिन में उसे फोन करना होगा। 

गुड मॉर्निंग,’ पीछे से रहमान की ताजगी भरी आवाज़ आई।

मॉर्निंग, रहमान।उन्होंने कहा और लपक कर गर्मजोशी से हाथ मिलाया। दोनों पार्क से बाहर निकल कर तेज कदमों से अपने रोजाना के रास्ते पर चल पड़े। कॉलोनी से बाहर मुख्य सड़क पर दूर तक अशोक, नीम, गुलमोहर और अमलतास के घने पेड़ थे। चिड़ियां चहचहाते हुए झुण्ड में इधर-उधर उड़ रही थीं। वासंती हवा ताजी और स्फूर्तिदायक थी। पत्ते गिरने का मौसम था। पेड़ों के नीचे फुटपाथ ही नहीं, बीच सड़क तक पीले-धानी पत्ते बिछे हुए थे जो हलकी हवा में इधर से उधर उड़ रहे थे। उनके तेज़ कदमों से भी कुछ पत्ते अपनी जगह बदल लेते। कोई गाड़ी गुजरती तो शाखों से बिछड़े पीले-भूरे पत्तों में एकाएक भगदड़ मच जाती। कई पत्ते पहियों तले कुचल जाते। बचे हुए पत्ते झुण्ड बनाकर थोड़ी दूर तक गाड़ी का पीछा करते। जैसे, डपट रहे हों कि इस अंतिम अवस्था में भी चैन से पड़े नहीं रहने दोगे!

डंके की चोट पर सीएए लागू करेंगे, सरकार का ऐलान,’ अखबार का मुख्य शीर्षक जोर से सुनाता हुआ एक हॉकर उनके पास से गुजरा। रहमान ने चौंक कर उसे देखा। एकबारगी उन्हें लगा कि हॉकर वह हेडिंग उन्हीं को सुना रहा है। क्या वह जान रहा है कि वे मुसलमान हैं? क्या उनके कपड़े, उनकी शक्ल और उनकी चाल उनके मजहब की चुगली कर रहे हैं? उन्होंने अनायास सक्सेना की ओर देखा। क्या इसे देखकर उसके धर्म का पता चलता है? अपनी जिज्ञासा पर वे खुद ही मुस्करा दिए।

बड़े मुस्करा रहे हो!सक्सेना ने ताड़ लिया।

ऐसे ही,’ उन्होंने चाल और तेज कर दी। हॉकर अपनी ही मस्ती में चला जा रहा था। उसकी सायकिल में आगे-पीछे अखबारों के बण्डल लदे थे। वह पैडल मारता हुआ कभी अखबार की हेडिंग चीखता और कभी कुछ गुनगुनाता आगे-आगे चला जा रहा था- डंके की चोट पर सीएए...। हवा-हवा, ये हवा, ओ हवा... डंके की चोट पर सीएए...।

कल सुना भाषण आपने?’ सक्सेना ने पूछा।

सुना था,’ रहमान ने धीरे से इतना ही कहा। इंतज़ार करने लगे कि सक्सेना आगे कुछ कहे। कोई टिप्पणी, अपनी सहमति या असहमति, लेकिन वह कुछ नहीं बोले। आठ-दस कदम चुप्पी में चलने के बाद रहमान ने सोचा कि कल से मन में खुदबुदा रही अपनी प्रतिक्रिया खुद ही बता दें कि डंके की चोट वाली भाषा डेमोक्रेसी में कैसी लगती है? डेमोक्रेसी में डायलॉग होता है। आप किसी की सुनोगे ही नहीं? कम से कम लोगों से बात तो करो। कई शहरों-कस्बों में बड़ी संख्या में जनता मुखालफ़त कर रही है, भीषण सर्दी और बारिश में ठिठुरते हुए बेमियादी धरने पर बैठी हैं तो उनका कोई पक्ष होगा न! भारी बहुमत है आपके पास तो क्या हुआ, आखिर डेमोक्रेसी है। या नहीं है? कल टीवी पर ग़ृह मंत्री का भाषण सुनने के बाद से वे मन ही मन ऐसे कई सवाल पूछते रहे हैं। पहले की बात होती तो वे टहलते-टहलते बड़बड़ा रहे होते, गुस्से में बोल रहे होते या कोई तीखा चुटकुला सुना रहे होते, जिस पर उनकी ठहाका टोलीअट्टहास करती। ठहाके लगाने का कोई भी मौका वे छोड़ते न थे। कभी तो बेवजह ही ठहाके लग जाते। अब न वैसे दिन रहे न उनकी टोली उनके साथ है। सो, वे कहते-कहते रुक गए। सक्सेना ने खुद क्यों कुछ नहीं कहा? होम मिनिस्टर की बात का जिक्र करने के बाद चुप क्यों हो गया? क्या वह डंके की चोटवाली भाषा से सहमत है? क्या पता। रहमान का भरोसा हिल चुका है। पता नहीं कौन क्या कह दे, भले ही सक्सेना हो, सबसे पुराना दोस्त।

दोनों चुपचाप चलते रहे। पिछले कुछ वर्षों से उनके बीच चुप्पियां बढ़ती गई हैं। खासकर रहमान का बोलना बहुत कम हो गया है। बात-बात पर मजाकिया टिप्पणी, चुटकुले या मज़ेदार किस्से सुनाने वाले रहमान अब कम बोलने लगे हैं। कभी बोलते-बोलते रह जाते हैं। सक्सेना का मुंह देखने लगते हैं कि वह क्या कहेगा। एक सक्सेना ही तो बचा है जो अब भी साथ है। बाकी लोग धीरे-धीरे उनसे कटने लगे हैं। कॉलोनी से झुण्ड बनाकर सुबह घूमने जाने वाले दसेक लोग थे। खूब हंसी-ठट्ठा होता था। चुटकुले, किस्से और राजनैतिक बहसें। रहमान सबमें आगे। टोली की जान। किसी दिन वे घूमने नहीं आ पाते, तबीयत ठीक नहीं होती, बाहर गए रहते या कोई और व्यस्तता, तो टोली का मॉर्निंग वॉक रसहीन हो  जाता। रहमान की कमी सबको अनुभव होती। अब वह बात नहीं रही। किसी न किसी बहाने एक-एक, दो-दो करके लोग अलग-अलग होते गए। रहमान और सक्सेना को छोड़कर बाकी साथियों की अलग टोली बन गई। पता नहीं कब और किस बात पर सक्सेना भी अलग हो जाए और दूसरी टोली में जा मिले, ऐसी आशंका बनी रहती है। इसलिए रहमान मुंह से निकलती बात रोक लेते हैं। दोनों के बीच चुप्पी पसरती जाती है।

थोड़ा आगे जाकर रहमान रोजाना की तरह सड़क छोड़कर कच्चे रास्ते में उतरने लगे तो सक्सेना ने कहा- आज दूसरी तरफ चलें, उधर?’ उन्होंने सड़क की सीध में इशारा किया।

क्यों? आज उधर क्यों? कोई खास बात?’ रहमान दोस्त का चेहरा देखते हैं।

ऐसे ही, आज दूसरी तरफ चलते हैं,’ सक्सेना सामने देखते रहते हैं।

रहमान के चेहरे पर वक्र हंसी फैल गई। निचला होंठ अनायास बाईं तरफ टेढ़ा हो गया और कुछ देर तक उसी मुद्रा में खिंचा रहा। फिर उसे हंसी में बदलते हुए बोले- अरे सक्सेना, कहां-कहां रास्ता बदलेंगे। रहना तो यहीं है न, इन्हीं लोगों के बीच। जुबान पर तो आया था कि पाकिस्तान तो चले नहीं जाएंगेलेकिन उन्होंने सायास रोक लिया। ऐन मौके पर जुबान सी लेना इधर उनसे खूब सध गया है। सक्सेना की बांह पकड़कर रहमान सड़क से नीचे कच्चे रास्ते पर उतर लिए।

कैसी-कैसी बातें करने लगे हैं लोग!सक्सेना ने अपनी खिसियाहट छुपाने के लिए कहा। 

हॉकर मेरा नाम नहीं जानता होगा। वहां तो सब जानते हैं, मैं रहमान हूं।

सक्सेना ने कोई टिप्पणी नहीं की, हालांकि रहमान उम्मीद कर रहे थे कि शायद कुछ कहें। दोनों के बीच फिर चुप्पी छा गई। कच्चे रास्ते पर उनके जूतों की हलकी धमक के साथ तेज सांसें सुनाई देती रहीं।   

सड़क से उतर कर कच्चा रास्ता रेल पटरी की तरफ जाता है। पटरी पार खूब फैली खाली जगह है। सुबह घूमने वालों की पसंदीदा जगह। खूब खुली जगह और अपेक्षाकृत साफ हवा। झुण्ड के झुण्ड लोग घूमते हुए आते हैं। कुछ कसरत करते हैं, कुछ योगासन लगाते हैं और कुछ गप्पें लगाया करते हैं। एक ठहाका क्लब चलता है। बात-बात पर गगनभेदी ठहाके जो अक्सर योगासन वालों का ध्यान भंग कर खिलखिलाहट में बदल देते हैं। चाय की दो-तीन गुमटियां भी सुबह-सुबह खुल जाती हैं। इतनी सुबह कुछ लोग पर्चे बांटने भी आते हैं। अच्छे तन-मन के टिप्स, योग केंद्रों और वजन घटाने की गारण्टी देने वाले केंद्रों के पते, भारतीय दर्शन, विविध रत्नों, गोमूत्र, यज्ञ-हवन, आदि की उपयोगिता बताने वाले पर्चे। पिछले साल से एक युवक ने अंकुरित चना-मूंग के साथ आंवला, करेला, एलोवेरा, नीम, तुलसी के रस का ठेला लगाना भी शुरू कर दिया है। पांच साल नौकरी की तलाश में गंवा देने के बाद उसने यह उद्यम शुरू किया है। बी टेक पास यह लड़का खूब हंसमुख है। कहता है पिता जी ने खेत बेचकर मुझे इंजीनियरिंग पढ़ाई ताकि में मॉर्निंग वॉकर्स के लिए हेल्दी स्नैक्स बेच सकूं।  

वहीं पीपल के एक विशाल पेड़ के नीचे चबूतरा बना है। अलग-अलग दिशाओं से मॉर्निंग वॉकर्स की टोलियां आ जुटती हैं। देसी-विदेशी नेताओं से लेकर नेता-अभिनेताओं तक पर टिप्पणियां होती हैं। उस चबूतरे की गप्प गोष्ठी के हीरो होते थे रहमान। अब उन्हें आते देखते ही लोग कानाफूसी करने लगते हैं।

आदाब, रहमान साहब। खैरियत?’ कोई यूं ही पूछ लेता है।

आपकी दुआ है,’ वे धीरे से कहते हैं।

बहुत मजे में हैं साहब। खाते यहां का और गाते वहां का,’ चबूतरे के इर्द-गिर्द जुटे लोगों में से कोई जाना-अनजाना स्वर इस तरह कहता है कि रहमान सुन लें लेकिन लगे भी कि उनके लिए नहीं कहा गया।

अरे, इन्हें क्यों सुना रहे हो? ये वैसे मुसलमान नहीं हैं।इतनी सुबह भी माथे पर लम्बा सिंदूरी टीका लगाए हनुमान प्रसाद तिवारी की आवाज रहमान अच्छी तरह पहचानते हैं। उनके घर से चार मकान छोड़कर रहता है। कुछ साल पहले तक ईद-बकरीद में सपरिवार मिलने आता था। नॉनवेज नहीं खाता लेकिन बड़े शौक से वेज बिरयानी के बाद चार किस्म की सेवईं जी भरकर खाता था। पुराने दिन होते तो वे उससे पूछ लेते – अबे तिवारी, सुबह बिना मुंह धोए टीका लगाकर वॉक पर निकलने लगे हो क्या?’ पूरी टोली खूब ठहाका लगाती। अब वे चुपचाप उसके माथे पर त्रिपुण्ड और चोटी की बड़ी गांठ देखते रह जाते हैं जिनका आकार इधर बढ़ गया है। कोई चुटकुला या मज़ेदार किस्सा सूझने पर भी नहीं कहते। याद आ गए किस्से पर हंसी फूटने को होती है तो सांस रोक लेते हैं। वैसे, अब उन्हें किस्से कम ही सूझते हैं और हंसी की बजाय माथे पर पड़ते बल वे खुद भी महसूस करने लगे हैं।  

चलो रहमान, थोड़ा प्राणायाम कर लें,’ अपनी बांह पर सक्सेना का खिंचाव उन्हें सुकून देता है। दोनों चबूतरे से दूर दूब पर पालथी लगाकर अनुलोम-विलोम शुरू करते हैं।

कल तो भैया, पूरा परिवार टेम्पो करके घण्टाघर गया था।

घण्टाघर नहीं, शाहीनबाग कहो!

सुना, कबाब के साथ बिरयानी का बड़ा देगचा लाद कर ले गए थे।

संविधान की प्रतियां और तिरंगा भी ले गए होंगे लहराने के लिए!

कपालभांति के बीच टिप्पणियां कानों के रास्ते सीधे दिमाग पर चोट कर रही हैं। ध्यान उधर चला जा रहा है। सक्सेना को इस समय पूरा प्रसंग ठीक से समझ में आ रहा है। कल शाम पत्नी बता रही थी- आज रहमान भाई का पूरा परिवार टेम्पो में बिरयानी का बड़ा-सा भगोना ले गया था।पत्नी की बात पर वे कुछ नहीं बोले थे। पूरी कॉलोनी में ऐसी खुशुर-पुशुर होती रहती है। इस समय ताने सुनते हुए उन्हें रहमान पर थोड़ा क्रोध आने लगा। ऐसा खिझाने वाला काम करने की क्या जरूरत है! उन्होंने आंख खोलकर उनकी तरफ देखा। वह बहुत जोर लगाकर कपालभांति कर रहे थे लेकिन उलटा! सांस छोड़ने के साथ पेट भीतर जाने की बजाय बाहर आ रहा था। चेहरा भी ऐंठा हुआ दिखा। यह कोई योगासन हुआ! क्या फायदा इसका! उन्हें रहमान पर तरस भी आने लगा। तभी कहा था कि दूसरी तरफ चलते हैं। माने तब न!

एक-एक घुसपैठिया बाहर किया जाएगा, डंके की चोट पर।

यह देश है, कोई धर्मशाला नहीं।पता नहीं, कुछ लोग अखबार पढ़ रहे हैं या कल रात के न्यूज चैनलों की पंचलाइन दोहरा हैं।

वंदे मातरम भी नहीं बोलेंगे। भारत माता की जै कहने में फटती है। दिखाने को लहराएंगे तिरंगा और संविधान की प्रतियां, साजिश करेंगे देश के खिलाफ।

कश्मीर में नहीं देखते, आतंकवादियों को दामाद बनाकर रखते हैं!

ऐसा ही रहा तो यहां भी होगा, देखते जाओ।

अब न होगा, इनके डंडा करने वाली सरकार जो आ गई है।

अरे तिवारी, इन लोगों के लिए प्राणायाम करना हराम नहीं है?’

सक्सेना झुंझलाकर खड़े हो गए। रहमान नाक से जोर-जोर से फूं-फां करने में लगे रहे। जैसे कोई सांड़ डुकारता-फुफकारता हो।

भई दोस्त हो तो सक्सेना जैसा,’ सुरेंद्र सिंह ने मुस्कराकर चबूतरे पर सक्सेना का स्वागत किया।

कायस्थ वैसे भी आधे मुसलमान होते हैं,’ तिवारी ने चोटी की गांठ बांधते हुए कहा, जो कसरत करते हुए ढीली हो गई थी। रहमान भी उठकर वहीं आ गए। उनके चेहरे पर तनाव साफ था।

चलो, मुझे आज ऑफिस जल्दी पहुंचना है,’ सक्सेना ने रहमान की बांह खींची।

घण्टाघर भी जाना होगा,’ पीछे से आवाज आई।

कहा था न कि दूसरी तरफ चलो,’ तेज़-तेज़ चलते सक्सेना ने तनिक गुस्से में कहा।

कहीं भी जाओ, मैं रहमान से घनश्याम तो हो नहीं जाऊंगा। इस देश में अब मुसलमान होना गुनाह हो गया।रहमान के स्वर की पीड़ा सक्सेना से छुपी न रही।

बहुत खराब माहौल हो गया है,’ उन्होंने कहा।

बना दिया गया है, नहीं कहोगे?’ रहमान ने दोस्त के चेहरे पर निगाह गड़ा दी। उसने चुप्पी साध ली थी।    

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मुझे निकलना है इन तंग गलियों से, मुल्ला-मौलवियों के फतवों-तकरीरों से, शरिया की जकड़न से, पर्देदारी और जहालत से। मुझे खुली हवा में सांस लेनी है, बच्चों को अच्छा पढ़ाना-लिखाना है, आगे देखना है।रहमान को अपनी कही बातें साफ-साफ याद हैं। अब तो एक-एक लफ्ज़ अक्सर दिमाग में गूंजता है।

बड़े भाई अल्ताफ ने गरजते हुए कहा था- जाओ, खूब शौक से जाओ लेकिन एक दिन पछताओगे और इन्हीं तंग गलियों की तरफ वापस दौड़े आओगे। किस खुली हवा में जाना चाहते हो, जहां कोई हिंदू मुसलमान को किराए का मकान भी नहीं देता?’ भाई देर तक हंसते रहे थे। वह हंसी नहीं थी। उसमें तकलीफ थी, आशंकाएं थीं, बल्कि डर था और नफरत थी। इसी सब से रहमान निकलना चाहते थे। इन्हें गलत और झूठा साबित करना चाहते थे।

तेरे दादा और अब्बा को कभी जरवत ना पड़ी अपने को अच्छा मुसलमान साबित करने की,’ अम्मी ने अपनी कमजोर आवाज़ में सिर्फ इतना कहा था। अब्बा के इंतकाल और भाइयों में बंटवारे के बाद वे चौक का पुश्तैनी दड़बाछोड़कर बीवी शकीला और तीन बरस की बेटी अमीना के साथ आवास-विकास परिषद की नई आवासीय योजना में रहने चले आए थे। सिर्फ शकीला को पता था कि वेतन की किस्तों से एक एमआईजी मकान बुक कराया हुआ था। तब बसना शुरू हो रही कॉलोनी में सक्सेना अकेला पड़ोसी था।  

रहमान अच्छा मुसलमान है,’ यह प्रमाण पत्र उन्हें शीघ्र ही मिल गया था। बल्कि बहुत अच्छा, जैसा देश के सारे मुसलमानों को होना चाहिए। उनके घर ईद-बकरीद मनती थी। तिवारी जैसे पड़ोसियों के लिए वेज-बिरयानी और छोले पकते थे। शकीला की बनाई बिरयानी बहुत पसंद की जाती और सिल पर पीस कर जो कबाब वे बनातीं उनकी इतनी मांग होती कि अपने चखने को मुश्किल से बचते। शकीला खूब मन से तड़के उठकर तैयारी करती। कई परिवार मांस नहीं खाते थे लेकिन कुछ पूछ लेते थे- भई, बड़े का तो नहीं है?

तुम चिकन खाओ, यह बड़े का नहीं बनता,’ रहमान मनोहर पाण्डे से दिल्लगी करते जो ठीक उनके पड़ोस में रहता था। दो-तीन परिवार ऐसे भी थे जिनका हर ईद-बकरीद पर व्रत रहता था। वे रहमान के यहां आते, बैठते, गप्पें मारते। खाते समय रहमान ही पूछ लेते- कहो मिश्रा जी, आज आपका कौन-सा व्रत है?’ हंसी के ठहाके बाहर तक गूंज जाते।

दीवाली के पांचों दिन रहमान का मकान रोशन रहता। शकीला बुर्का नहीं पहनती थी, बेटी बिना हिजाब मुहल्ले की लड़कियों के साथ उछलती-खेलती थी, बेटा राशिद (जो इस कॉलोनी में आने के बाद पैदा हुआ) जन्माष्टमी में कान्हा का रूप धर कर पार्क में सबको मोहता था और सुरीले स्वर में भजन गाता था। पाकिस्तानी क्रिकेट टीम की जीत पर पटाखे छुड़ाने वाले मुसलमानों को वे गरियाते थे। तीन तलाक जैसी कुप्रथा के खिलाफ बोलते थे। कहते थे कि मुसलमानों को मज़हब के नाम पर धर्म के ठेकेदारों ने ज़ाहिल बना रखा है और राजनैतिक दलों ने वोट बैंक।

जो मुसलमान पाकिस्तान नहीं गए, उन्होंने इस देश को मर्जी से चुना। इस देश के नियम-कानूनों को चुना, संविधान को चुना। उन पर कोई दबाव नहीं था,’ रहमान की स्पष्टोक्ति पर तालियां बजतीं।

पहला मुसलमान देखा जो कॉमन सिविल कोड की वकालत करता है। जियो रहमान!’ तिवारी उनकी पीठ ठोकता और गले लगाता।

मुसलमान हो तो रहमान जैसा,’ उनके पड़ोसी कहते।

बाबरी मस्जिद के ध्वंस के समय रहमान युवा थे, करीब तीस साल के। राजनैतिक संरक्षण में बकायदा अभियान चलाकर जिस तरह भारी अराजकता, हिंसा और घृणा के साथ विवादित ढांचेको गिराया गया, उसे देख रहमान को बुरा लगा था। वे ईद-बकरीद ही नमाज पढ़ने जाते थे। बाबरी मस्जिद से कोई मोह नहीं था मगर तब उन्हें इस देश के लिए चिंता जरूर हुई थी। बाद में हुए दंगों ने उनकी चिंता बढ़ा दी थी। तब उन्हें बहुत गुस्सा आया था कि इसे किस राह धकेला जा रहा है। जो ताकतें इस बहुरंगी देश का धर्मनिरपेक्ष चरित्र यथासम्भव बचाए रखती आई हैं, क्या उन्होंने हथियार डाल दिए हैं या वे भी इसमें शामिल हो गई हैं? बाद में वे मनाते थे कि सुप्रीम कोर्ट ज़ल्दी से ज़ल्दी फैसला दे और यह विवाद सदा के लिए खत्म हो जाए।

आज वे मन ही मन पूछते हैं कि क्या वे गलत सोचते थे। गुजरात दंगों के बाद उनके भरोसे की नींव दरकने लगी थी। उसके बाद तो पूरे देश में गुजरात-प्रयोग होने लगा। आखिर क्या होगा इस देश का, वे अपने से ही सवाल करते हैं। सक्सेना से भी अब अपने मन की बात साझा नहीं करते।

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‘किसी ने उड़ा दी कि अखलाक के घर में गोमांस रखा है और सब उस बेचारे पर टूट पड़े। मार डाला उसे, जान से मार डाला! कोई बचाने नहीं आया! पड़ोसी भी नहीं!’ घर से निकल कर अपनी टोली में शामिल होते ही रहमान चीखे थे। वह सुबह उनके दिमाग में बिल्कुल ताज़ा है। पहली बार साथियों ने रहमान को उत्तेजित देखा था।

‘बहुत बुरा हुआ,’ कोई बोला था।

‘बुरा हुआ?’ रहमान ने कहने वाले को घूरा- ‘एक आदमी की हत्या कर दी घर में घुस कर, उसके ही पड़ोसियों ने और तुम कह रहे हो बुरा हुआ?’ सब चुप हो गए थे।

‘हमारे फ्रिज में मांस नहीं रहता? तिवारी, पाण्डे और मिश्रा को छोड़कर किसने नहीं खाए बड़े के कबाब? गोमांस कह कर वहशी भीड़ मारने आएगी तो तुम लोग बचाने आओगे कि मारने वालों में शामिल हो जाओगे? क्या होता जा रहा है इस देश को?’ उनकी टोली सुन रही थी और वे उत्तेजना में बोले जा रहे थे।

खबर देखने-सुनने के बाद वे रात भर बेचैन रहे थे। ठीक से सो नहीं पाए थे। सुबह टहलते समय उनकी आखें ही नहीं जल रही थीं, दिल-दिमाग भी उबल रहा था। उनके साथी चुप थे। कुछ ने हलके से हां-हू करके, गर्दन हिलाकर या च्च-च्च-च्चकर सहानुभूति जताई। शायद वह पहली बार था कि सुबह घूमते समय हंसने के बहाने ढूँढने वाली उनकी टोली गम्भीर थी। सबसे ज़्यादा हंसोड़ रहमान ही थे और उनके भीतर तूफान मचा हुआ था।

ये तो गलत हुआ, बहुत गलत,’ नारायण सिंह ने कुछ देर बाद कहा था- उसका बेटा फौज में है।

फौज में नहीं होता उसका बेटा तो?’ रहमान ने तीखे स्वर में कहा। नारायण चुप हो गए।

हो सकता है अखलाक ने नहीं काटी हो लेकिन ये लोग गाय को काटते तो हैं ही,’ चोटी वाला तिवारी बोला- हम लोग गाय को पूजते हैं।

ये लोग!तड़प के साथ रहमान चीखना चाहते थे- “अब हम ये लोग हो गए!” लेकिन उनका गला जकड़ गया था। फुसफुसाने की तरह आवाज निकली तो भी साथियों ने सुन लिया। वे चेहरों पर आश्चर्य लिए एक-दूसरे का मुंह देखने लगे कि रहमान की आपत्ति किस बात पर है भला!

रहमान कई दिन तक सदमे में रहे थे। अखलाक और उनके परिवार की चीख उन्होंने नहीं सुनी थी लेकिन एक हृदय विदारक चीख लगातार उनके कानों में गूंजती रही। टीवी चैनलों के एंकर-रिपोर्टर चीख-चीख कर उसे गोमांस साबित करने में लगे थे, हालांकि जांच रिपोर्ट आई नहीं थी। जांच के नाम पर भी राजनीति हो रही थी। अपने ग्रुप के साथ वे मॉर्निंग वाक पर जाते लेकिन सामान्य नहीं हो पाए थे। साथियों की चर्चाएं गाय के महात्म्य, उसके दिन-रात ऑक्सीजन छोड़ने, गोमूत्र के गुणों, पूजा में गाय के गोबर के उपयोग और पंचगव्य के महत्त्व पर होने लगी। मन ही मन भुनभुनाते रहमान चुप ही रहते। भीतर का बवण्डर उनके दिल-दिमाग में घूमता और सिल्ली बनता रहा। सक्सेना ही कभी टोकता- क्या यार रहमान, तुम चुप्पे नहीं अच्छे लगते। कुछ सुनाओ।

हां भाई रहमान, कोई चुटकुला हो जाए।

गाय दिन-रात ऑक्सीजन छोड़ती है, इससे अच्छा चुटकुला क्या होगा,’ उन्होंने पट से कहा और चाल बढ़ाकर थोड़ा आगे चलने लगे थे।

जब से नई सरकार आई है, रहमान की फटी-फटी रहने लगी है,’ तिवारी ने कहा और ठहाका लगाया। हंसी में कुछ और लोग भी शामिल हुए। रहमान ने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन उनका ध्यान इस ओर अवश्य गया कि केंद्र में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद से उनके ग्रुप में कुछ अतिरिक्त उत्साह और खुशी रहने लगी है। वे जोश में बोलने लगे हैं। उनकी बातचीत में पाकिस्तान, हिंदू धर्म, एक देश-एक कानून, कश्मीर, हिंदू-राष्ट्र, नेहरू की ब्लण्डर्स, पटेल की उपेक्षा, कांग्रेस की तुष्टीकरण नीतियां, इत्यादि बार-बार सुनाई देने लगे हैं। पहले उन्होंने इस तरह गौर नहीं किया था। उन्हें राजनीति पर बात करते देख्कर वे कोई किस्सा या चुटकुला सुना देते और माहौल बदल जाता था। उस दिन उन्होंने नोट किया कि इसका सबंध केंद्र की नई सरकार और उसकी नीतियों और कार्यक्रमों से है।

परिवर्तन उनकी कॉलोनी के लोगों में ही नहीं आया, पूरा देश बदल रहा था। या, देश बदल रहा था इसलिए वे लोग भी बदल गए थे। नफरत से भरी भीड़ जगह-जगह दिखाई देने लगी थी। दूध का धंधा करने वाला पहलू खान पशु मेले से गाय खरीदकर घर ले जा रहा था। भीड़ ने उसे गो-तस्कर बताकर पीट-पीट कर मार डाला। वहशी भीड़ कोई भी आरोप लगाकर अखलाक, पहलू खान, खलीक अहमद, अलीमुद्दीन अंसारी और हाफिज जुनैद जैसे नाम वालों को मारने-पीटने या कत्ल करने लगी थी। हमलावर या तो पकड़े नहीं जाते या सबूतों के अभाव में छोड़ दिए जाते। उनकी रिहाई पर मंत्री और नेता उन्हें फूलमालाओं से लादने लगे। इस तरह देश के बदलने का रहमान के मानस पर गहरा असर पड़ा था। वे और भी ज़्यादा चुप रहने लगे। तमाम चुटकुले, किस्से और दिलफेंक ठहाके भूल गए। एक सुबह तिवारी ने उनकी पीठ पर धौल जमाते हुए कहा- यह अच्छा मुसलमान भी अब बिगड़ गया है।सबने ठहाका लगाया। रहमान भी मुस्कराए लेकिन उन्होंने महसूस किया कि यह सिर्फ हंसी में कही गई बात नहीं थी। उनके सम्बंधों में बहुत परिवर्तन आ गया था। तिवारी, मिश्रा, पाण्डे समेत कुछ और पड़ोसियों ने ईद-बकरीद पर घर आना कबके छोड़ दिया था। एक बार शकीला के बनाए लज़ीज़ कबाब, बिरयानी और सिवइयां बड़ी मात्रा में बच गए तो पूरे परिवार ने बहुत असहज महसूस किया। अगले दिन वे सारा खाना यतीमखाने पहुंचा आए। अगली बकरीद पर शकीला ने ही कहा था- सिर्फ एक-डेढ़ किलो मटन और आधा किलो कीमा लाइएगा।उसके स्वर का ठंडापन घर भर में पसर गया था। कॉलोनी के बच्चों ने उनसे होली का चंदा मांगना बंद कर दिया था। वे पहले की तरह पार्क में जाते और अबीर-गुलाल लगाकर सबसे गले मिलते लेकिन जैसे कोई स्पर्श ही नहीं होता था। बीच में मुर्दनी-सी पसरी होती। गुलाल में कोई ऊष्मा और रंग नहीं रह गए थे। दीवाली पर बिजली की लड़ियां सजाते लेकिन पहले जैसी रोशनी दिखती ही नहीं थी।

उन्होंने बेटे को टोका था- कहां से लाए हो, अच्छी रोशनी नहीं हो रही।वह मां और बहन का मुंह देखने लगा था।

जब तक अम्मी ज़िंदा थीं, कभी-कभार मिलने आ जाया करती थीं। वे खुद पुराने मुहल्ले में जाते रहते थे। अम्मी के गुजर जाने के बाद भाभीजान भूले भटके आ जातीं लेकिन अल्ताफ भाई नहीं आते थे। हाल में एक रोज वे अकेले आए। रहमान को बड़ा अचम्भा हुआ लेकिन खुश हुए। अरसे बाद उनके चेहरे पर उन्मुक्त हंसी दिखाई दी थी। भाईजान को पूरा घर दिखाया, छोटा-सा बगीचा और छत।

है न खूब खुला-खुला,’ उन्होंने खुश दिल से रजामंदी चाही।  

पूरी कॉलोनी में तू शायद अकेला मुसलमान हो,’ जाते समय उन्होंने कहा था। भाईजान का चेहरा पत्थर-सा हो रहा था। उस पर शायद डर और नफरत भी थी। रहमान ने कहा कुछ नहीं सिर्फ हंस दिए थे।

अमज़ाद और ताहिर लोग वापस लौट आए, पता है?’ मोटर साइकिल में चाभी लगाते हुए उन्होंने पूछा। रहमान को पता था। दोनों परिवार उन्हीं की तरह कई साल पहले शहर के नए इलाके में रहने चले गए थे। हाल में मकान बेचकर फिर पुराने मुहल्ले में आ गए।

हिंदू अपने मकान बेच-बेचकर जा रहे हैं।रहमान को यह भी पता था कि उस पुराने मुहल्ले को कुछ लोग पाकिस्तान कहने लगे हैं।

चलें।मोटर साइकिल स्टार्ट कर वे चले गए।

भाईजान क्या कहने आए थे?’ उनके जाते ही शकीला ने पूछा।

कहने आए थे कि पाकिस्तान लौट आओ।

क्या!शकीला चौंकी फिर खिसियाई- आप भी!

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कहां रह गई थी, अमीना? फोन भी नहीं लगा तेरा,’ उस शाम देर से घर लौटी अमीना को शकीला ने डपटा था- फोन तो कर देती। फिक्र हो जाती है।

सॉरी अम्मी, घण्टाघर चली गई थी। पता है, कल से यहां भी धरना-प्रदर्शन शुरू हो गया!उसने चहकते हुए बताया- यूनिवर्सिटी से हम कई दोस्त गए थे। हमने वहां नारे लिखे, पोस्टर बनाए, गाने गाए। बहुत लोग जुट रहे हैं, अब्बा।

अच्छा!रहमान भी अमीना के उत्साह में शामिल हो गए थे। दिल्ली के शाहीनबाग में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) विरोधी धरना-प्रदर्शन होते एक महीने से ज़्यादा हो गया था। भीषण शीतलहर और बरसते पानी में भी महिलाएं, बच्चे, विद्यार्थी, युवक-युवतियां और विभिन्न संगठनों के लोग डटे हुए थे। दिन पर दिन समर्थन बढ़ता जा रहा था। किसी खबरिया चैनल पर चल रहे प्रदर्शन के फुटेज में प्यार बांटो, देश नहीं,’ ‘हम कागज नहीं दिखाएंगे,’ ‘संविधान बचाओ, सीएए हटाओजैसे नारे लिखे बैनर-पोस्टर लहराते दिखे तो रहमान को बहुत अच्छा लगा था। जनता में विभेदकारी कानून के खिलाफ आवाज उठाना बहुत जरूरी था। उनका मन होता कि दिल्ली जाकर प्रदर्शन में शामिल हो आएं। लखनऊ में भी प्रदर्शन होने लगा तो उनकी मुराद पूरी हो गई। वे अगली ही शाम दफ्तर से निकलकर घण्टाघर पहुंच गए। बड़ी तादाद में महिलाएं घण्टाघर के सामने बैठी थीं। बड़ी संख्या में पुरुष भी बाहरी घेरे में मौजूद थे। विभिन्न कॉलेजों और यूनिवर्सिटी की लड़कियां बंदोबस्त देख रही थीं। कार्यकर्ताओं की एक टीम निगाह रखे थी कि प्रदर्शन को बदनाम करने की नीयत से कोई उपद्रवी न घुस आएं, जिसका इन दिनों बहुत डर हो गया था। चारों तरफ राष्ट्र ध्वज लहरा रहे थे। एक तरफ कुछ युवतियां संविधान की प्रस्तावना का पाठ कर रही थीं। कुछ लड़के–लड़कियां सफेद कपड़े का लम्बा थान बिछाकर उस पर पेण्टिंग बना रहे थे। एक कोने में नुक्कड़ नाटक की तैयारी हो रही थी। मैं हिंदू हूं और सीएए व एनआरसी का विरोध करती हूं,’ ‘नो डोक्यूमेण्ट्स, रिजेक्ट सीएए’, आदि नारे लिखी तख्तियां हवा में लहरा रही थीं। घण्टाघर के चारों तरफ बड़ी संख्या में पुलिस तैनात थी। रहमान देर तक वहां चहलकदमी करते और लोगों से बतियाते रहे थे।

दफ्तर के बाद शाम को वहां जाना रोज का नियम बन गया था। अमीना अपने दोस्तों के साथ प्रदर्शन में सक्रिय रहती। राशिद ने इंजीनियरिंग कॉलेज के हॉस्टल से उसके लिए शायरी और कविताएं भेजी थीं पोस्टरों के लिए। लड़के-लड़कियों का बड़ा दल सारी व्यवस्थाएं सम्भाल रहा था। अमीना घर से भी पोस्टर, वगैरह बनाकर ले जाती। दो-तीन बार उसे रात को भी वहां रुकना पड़ा। शकीला एतराज करती लेकिन रहमान ने मौन सहमति दे दी थी।

कॉलोनी में खबर फैलते देर न लगी। रहमान को मॉर्निंग वॉक के अलावा और वक्त भी ताने सुनाई देने लगे। वे दूध लेने या सौदा-सुलफ़ के लिए बाजार जाते तो कुछ पड़ोसी घरों से उन्हें लक्ष्य कर सुनाया जाता- ये कागज नहीं दिखाएंगे भैया!दूसरी तरफ से आवाज आती-यहीं रहकर छाती पर मूंग दलेंगे!रहमान चुप रहने के अलावा और क्या कर सकते थे।

पिज्जा-बर्गर-बिरयानी खाकर सरकार के खिलाफ साजिश की जा रही है।

पाकिस्तान से फण्डिंग आ रही है। वर्ना कैसे लगते शामियाने, तम्बू-कनात। कैसे पिकनिक मनाई जाती!

अरे, इसी देश में कम हैं क्या फण्डिंग करने वाले! भरे पड़े हैं अर्बन नक्सल और सिकुलर जमात!’

रहमान को हर जगह ऐसी बातें सुनाई देतीं। अचरज और गुस्से में वे सोचते कि विरोध प्रदर्शन का लोकतांत्रिक अधिकार किस तरह गुनाह में बदला जा रहा है। राहत की बात यह थी कि विरोध व्यापक होता जा रहा था। देश में सैकड़ों जगह शाहीनबागबन गए थे जहां संविधान में आस्था रखने वाली जनता, सेकुलर, प्रगतिशील और सिविल सोसायटी के लोग, महिलाएं, पुरुष, बच्चे, सभी बड़ी संख्या में शामिल और सक्रिय थे। राजनैतिक दलों को इससे दूर रखा जा रहा था। प्रदर्शन को विपक्षी दलों की साजिश और सिर्फ मुसलमानों का विरोध साबित करने की साजिशें कामयाब नहीं हो रही थीं। बहुत समय बाद रहमान को लग रहा था कि इस बहुरंगी देश को एक रंग में रंगने की कोशिश कामयाब न होगी। उनकी चुप्पी को जैसे शब्द मिल रहे थे।

एक शाम अमीना ने कहा- पापा, कुछ रुपए चाहिए। हम कुछ दोस्त वहां कल दोपहर का खाना ले जाना चाहते हैं?’

तो, अम्मी से बिरयानी क्यों नहीं बनवा लेती। क्यों शकीला?’ रहमान तपाक से बोल उठे थे।

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पीपल के नीचे चबूतरे पर हुई अप्रिय छींटाकशी के बाद दोनों दोस्त घर वापस लौट रहे थे। बहुत देर से उनके बीच मौन पसरा था।

तुम्हें क्या जरूरत थी वहां बिरयानी का देगचा भिजवाने की? वह भी खुले आम टेम्पो में लदवा कर जिसमें बड़ा-सा पोस्टर लगा था- हम कागज नहीं दिखाएंगे!सक्सेना ने काफी देर से मुंह में रोकी हुई बात आखिर कह ही डाली- ‘देख तो रहे हो कि माहौल कैसा हो गया है। तुम्हें कौन देश से बाहर निकाल रहा है?’

रहमान तड़प कर अपनी जगह खड़े रह गए। उन्होंने सक्सेना के चेहरे पर नज़रें गड़ा दीं। भीतर एक बवण्डर-सा उठने लगा। मन हुआ कह दें, हां, और हमें चैन और इज्जत से रहने देने के लिए कैसे-कैसे कानून बनाए जा रहे हैं!

वे बोले कुछ नहीं लेकिन चाल बढ़ाकर सक्सेना से काफी आगे निकल आए। पास ही किसी पेड़ की घनी शाखों से कोयल लगातार कूके जा रही थी। 

-नवीन जोशी                 

(परिकथा, जनवरी-फरवरी 2022) 

Friday, December 17, 2021

‘ऑर्गेनिक’ और ‘बायो’ का अजूबा घाल-मेल

बायो’, ‘ऑर्गेनिक’, ‘ग्रीन’- स्वास्थ्य के प्रति सचेत समाज की यह नई शब्दावली भोज्य पदार्थों के लिए है। यह ऑर्गेनिकके-68 गेहूं का आटा है, सर! निश्चिंत होकर ले जाइए।दुकानदार आटे के थैले में लगा बड़ा-सा हरा निशान दिखाता है, जिसमें हरे अक्षरों में ही ‘100% ऑर्गेनिकभी लिखा है। दाम डेढ़ गुना हैं। अनाज और सब्जियां छोड़िए, ‘ऑर्गेनिक चिप्सजैसी चीजें भी हैं। गुड़ भी ऑर्गेनिक हो गया है और जाने क्या-क्या। ग्रीन भी नया फण्डा है- विशुद्ध शाकाहारी। ऐसी सामग्री से बनी भोज्य वस्तुएं जिनमें सिर्फ प्राकृतिक वनस्पतियों से उत्पन्न तेल-मसालों का प्रयोग किया गया है।

हवा-पानी के प्रदूषण ने ही नहीं, अनाज-फल-सब्जी के प्रदूषण ने भी खाते-पीते वर्ग का माथा ठनका दिया है। खाने की चीजों से खतरनाक रासायनिक जहर हमारे शरीर में पहुंच रहा है। बेहिसाब कीटनाशकों और उर्वरकों के उपयोग ने माताओं के दूध को भी प्रदूषित कर दिया है। विज्ञानी चेतावनी दे रहे हैं। दुनिया में प्रकृति की ओर लौटनेकी सतर्कता बढ़ रही है। इसलिए ऑर्गेनिक’, ‘बायोऔर ग्रीनउत्पाद बाजार की शोभा बढ़ा रहे हैं। जो वहन कर सकते हैं, इन महंगी वस्तुओं को उत्साहित होकर खरीद रहे हैं और खुश हो रहे हैं कि इस जहरीली दुनिया में उन्हें अपने लिए एक सुरक्षित कोना मिल गया है।

लेकिन यह सुरक्षित कोना कितना सुरक्षित है? क्या गारण्टी है कि बाजार में जो सामान ऑर्गेनिकऔर ग्रीनकहकर मिल रहा है वह वास्तव में वैसा ही है जैसा कि पैकेट में दावा किया गया है? जो सब्जी आप ऑर्गेनिकसमझ कर महंगे दाम में खरीद लाए हैं, उसके उत्पादन में गोबर, आदि की प्राकृतिक खाद ही इस्तेमाल हुई है, यह कैसे सुनिश्चित हो? ‘ग्रीनलिखे पैकेट के भीतर जो सामान है उसके उत्पादन में पशु-पक्षियों से उत्पादित कोई चीज इस्तेमाल नहीं हुई है, इसकी क्या गारण्टी है? पैकेट पर जो लिखा है, वह कितना खरा और सच्चा है?

तीन दिन पहले इस बारे में दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक फैसला सुनाया है। एक याचिका पर निर्णय करते हुए अदालत ने कहा है कि प्रत्येक व्यक्ति को यह जानने का अधिकार है कि वह क्या खा रहा है। इसलिए खाद्य पदार्थों के कारोबारी यह सुनिश्चित करें कि चीजों के पैकेट पर उसे बनाने में इस्तेमाल वस्तुओं का साफ-साफ विवरण दें। विशेष रूप से यह अवश्य लिखें कि उसे बनाने में प्रयुक्त चीजें वनस्पतियों से प्राप्त की गई हैं या पशु-पक्षियों से। प्रकट रूप में शाकाहारीसामग्री भी अपने घटक तत्वों के कारण मांसाहारीहो सकती है।

वैसे, यह कानून पहले से है कि सभी वस्तुओं के पैकेट पर उसमें प्रयुक्त हर सामग्री और उसकी मात्रा का उल्लेख किया जाए। खाद्य सुरक्षा एवं मानक नियंत्रण (एफएसएसएआई) नियमावली इसीलिए बनी है। सवाल यह है कि उसका सही अर्थों में कितना पालन होता है। कोरोना के इस दौर में शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली सशक्त बनाने के लिए काढ़े से लेकर गिलोय, आँवला, तुलसी, जराकुश, जैसी वनस्पतियों के सेवन की सलाह दी जा रही है। बाजार इन उत्पादों से भर गया है। गिलोय के रस में विशुद्ध गिलोय ही है, कैसे पता चले? कोई देसी आयुर्वेदिक कम्पनी हो, या बहुराष्ट्रीय, उसके दावे पर कैसे भरोसा करें? झूठ और फरेब के इस दौर में सारे भरोसे हिल चुके हैं। विशुद्ध शाकाहार कहकर मांसाहार खिलाया जा रहा हो तो?

जहां जानवरों की चर्बी से विशुद्ध घी बनता हो और एफएसएसएआईका ठप्पा लगवाना बच्चों के खेल सरीखा हो, वहां पैकेट के बाहर दावे के साथ लिखे तथ्योंपर कितना भरोसा किया जा सकता है? राजधानी में एक आयोजन अभी पूरा हुआ है- ईट राइट मेला।यह राइटकैसे तय हो?  

 (सिटी तमाशा, नभाटा, 18 दिसम्बर, 2021)

              


Friday, December 10, 2021

चुनावी राजनीति का नया शब्दकोश जारी

वैसे तो अब सरकारें और राजनैतिक दल हमेशा ही चुनावी भाषा बोलते हैं और प्रत्येक भी निर्णय इसी तराजू में तोला जाता है कि वह वोटों में कितना लाभ देगा, लेकिन चुनाव बिलकुल करीब देख राजनीति की शब्दावली ही पूरी बदल जाती है। इन दिनों हम यही देख-सुन रहे हैं। एक नया शब्दकोश बांचा जा रहा है। टोपियों के रंगों के नए-नए मायने बताए जा रहे हैं। नए मुहावरे, नारे और जुमलेगढ़े जा रहे हैं। इतिहास की कब्र से हतप्रभ करने वाली नित नई खोजें निकाली जा रही हैं। मीडिया का चेहरा नई शब्दावली से दमक रहा है। जुमले गढ़ने में मीडिया भी पीछे नहीं।

चुनाव देहरी पर खड़ा है। जनता की पूछ एकाएक बढ़ गई है। एक साल से अधिक समय तक चला किसान आंदोलन समाप्त हो गया है। उनकी लगभग सभी मांगें मान ली गई हैं। यह जनता का समय है, उसे प्रसन्न करने का। जो मांगें कल तक देश एवं विकास विरोधी थीं, वे सहज ही स्वीकार कर ली जाती हैं। चुनाव के समय आंदोलन यानी जनता का आक्रोश नहीं चाहिए। जय-जय होनी चाहिए। नेताओं के सम्बोधन विपक्षियों के लिए जितने पैने और मारक हैं, जनता के लिए उतने ही मधुर। जनता, तेरा ही सहारा!

समाज के संगठित वर्ग इस मौसम को खूब अच्छी तरह पहचानते हैं। विभिन्न संगठन इस नाजुक अवसर पर अपनी मांगें जोर-शोर से उठाने लगे हैं। किसानों की अप्रत्याशित विजय देख श्रमिक संगठन भी बाहें चढ़ाने लगे हैं। राज्य कर्मचारियों से लेकर बैंक कर्मियों के संगठन तक चेतावनी उछाल रहे हैं। आंदोलन  की रणनीति बना रहे हैं। चुनाव का समय अपनी आवाज सुनवाने का सबसे उपयुक्त समय माना जाता  है। जिन गांवों की पुल, बिजली, सड़क, आदि की मांग कबसे अनसुनी होती आ रही है, वे गांव के बाहर काम नहीं तो वोट नहींके बैनर इसी समय लगाते हैं।

सरकारी दफ्तरों में फाइलें पलटी या तैयार की जा रही हैं कि कहां, कैसी-कैसी घोषणाएं की जा सकती हैं। जनता को क्या-क्या उपलब्धियां बताई जा सकती हैं। यूं, इतनी कवायद की भी आवश्यकता नहीं। मौके पर जो मुफीद लगे, वैसी घोषणा कर दी जाती है। आश्वासन दे दिए जाते हैं। इतनी घोषणाएं, इतने शिलान्यास, उद्घाटन-पुनरुद्घाटन, वादे और दावे गूंजते हैं कि हिसाब रखना सचमुच कठिन हो जाता है। जनता को खुश करने के उद्देश्य से नई-नई बातें, कैसे-कैसे आश्वासन! इन वादों और आश्वासनों का हिसाब रखने की चिंता नहीं जाती। जनता याद रखे तो रखे।   

वैसे, जनता भी खूब समझती है। वह जानती है- अच्छा, चुनाव हैं! लोकतंत्र, जिसमें जनता की सुनी जानी चाहिए, इसी समय जीवित दिखाई देता है। चुनाव समीप देख लोकतंत्र सांसें लेना लगता है। जैसे, उसे ऑक्सीजन लग जाती हो! राजनैतिक दल जैसा विष-वमन कर रहे हैं, उससे भी यही लगता है कि अपना महिमा-मण्डित लोकतंत्र आईसीयू में ही है। मर्यादा और नैतिकता तो चुनावी शब्दकोश से कबके गायब हो चुके शब्द है। अब प्रतिद्वंद्विता इसमें है कि कौन कितना नीचे गिर सकता हैं। नई शब्दावली में इसे ऊपर उठना माना जाता है। कोई बिल्कुल नया जुमला, नई खोज’, नई गाली, नई चुनौती छोटे नेता को बड़ा या स्टार नेता बना देती है।

चुनावों की घोषणा नहीं हुई है लेकिन अखाड़े गरम हो चुके हैं। सभाओं में उछाले जा रहे जुमलों की तत्काल काट करने की होड़ मची है। लाल रंगकी इतनी अद्भुत परिभाषाएं सामने आ चुकी हैं कि भाषा शास्त्री पानी भर रहे हैं। इतिहास शरम के मारे गहरे धंसा जा रहा है। भविष्य की खतरनाक जिह्वा लपलपा रही है। और, अभी तो खेलाहोना बाकी है!

(सिटी तमाशा, नभाटा, 11 दिसम्बर, 2021)    

Wednesday, December 08, 2021

इजा और सीजर

 

कल रात इजा फिर सपने में दिखाई दी। रसोई में मोटी-मोटी रोटी पका रही थी।

इजा, इतनी रात में रोटी क्यों पका रही है?’ मैंने पूछा।

किलै, सीजर खाल (क्यों, सीजर खाएगा)... भूखा मार दोगे उसे?’ रसोई की देहरी पर सीजर पसरा था, वैसे ही जैसे बैठा करता था। अगले पांव के पंजे भर रसोई के भीतर करके।

सुबह नींद खुली तो इतना ही याद रहा। सपने में आगे क्या हुआ, पता नहीं। इजा को इस दुनिया से कूच किए हुए साल भर होने को है। सीजर को गए पांच साल हो गए। इजा की फोटो उसके कमरे में टंगी है। सीजर की फोटो एक छोटे फ्रेम में लॉबी के आले में रखी है। इजा तो कभी-कभार सपने में आती रहती है। सीजर कल पहली बार दिखा। वैसे, फोटो देखकर उसकी अक्सर याद आती है। हम उसकी प्यारी आदतों को याद करते रहते हैं- सीजर ऐसा करता था, सीजर वैसा करता था। बहुत प्यारा था हमारा सीजर।

वर्षों पुरानी बात। बड़े बेटे ने, जब वह करीब आठ-दस साल का था, एक दिन अपनी मां से कहा था- मां, सुकांत के यहां डॉगी ने पिल्ले दिए हैं। एक हम पाल लें?’

आमा नहीं मानेगी, बेटा।

मां, प्लीज! लाने दो न। बहुत प्यारे पिल्ले हैं। प्लीज मां।

तभी अपने कमरे से बाहर आती इजा की नड़क (डांट) सुनाई दी- खबरदार रे, कुकुर झन लाया घर में (कुत्ता मत लाना घर में) 

बेटा सहम गया और बड़ी याचना से अपनी मां को देखने लगा। लता ने मुंह दूसरी तरफ घुमा लिया। बेटे की मनुहार उसका दिन पिघला रही थी लेकिन वह अपनी सास से अच्छी तरह परिचित थी।

आमा, प्लीज! लाने दो न। मेरे दो दोस्त एक-एक पिल्ला ले गए। अब एक ही बचा है।

चुप रौ,’ इजा ने नाती को डपट दिया- कुकुरै छूत हुंछि (कुत्ते की छूत होती है। कौन लाता है उसे घर में)

बेटा रुंआसा होकर एक किनारे बैठ गया। दिन भर उसका मुंह फूला रहा। लता ने मुश्किल से खाने के लिए मनाया। वह डबडबाई आंखों से मां प्लीज-मां प्लीजकरता रहा।

एक दिन स्कूल से आते समय बेटा अपनी गोद में एक प्यारा-सा नन्हा पिल्ला छुपाए हुए ले आया। उसे चुपचाप बेडरूम में बंद कर दिया।

आमा को नहीं बताएंगे। इसी कमरे में रखेंगे,’ शाम को उसने बताया। उसके धीमे स्वर में दृढ़ता थी। वह एक कटोरे में थोड़ा दूध निकाल लाया- ले सीजर, पी!पिल्ला नन्हीं जीभ से दूध चाटने लगा। उसकी नन्हीं दुम लगातार हिल रही थी। दोनों बच्चों के लिए वह खिलौना जैसा हो गया। उससे लाड़ करते न अघाते।

इसका नाम सीजर रखा है मैंने,’ बेटे ने जानकारी दी। हलके भूरे रंग के सीजर के पंजे सफेद थे। नाक के पास काला बूटा। वह बहुत प्यारा लग रहा था। हमें भी उस पर लाड़ आने लगा लेकिन इजा का डर बना रहा। हमें पता था कि वे इसे घर में कतई नहीं रहने देंगी।

इजा बहुत छुआ-छूत मानती थीं। पहाड़ की पुरानी आदत। रसोई में सिर्फ एक धोती पहनकर जाती और अपना खाना खुद बनाती। बाबू के निधन के बाद वह और भी परहेजी हो गई थी। हम लोगों का छुआ पानी भी नहीं पीती थी। सुबह हमारे उठने से पहले उसके बहुत से इंतजाम हो जाते थे। एक जग और एक लोटे में फिल्टर से पानी भर कर रसोई के एक कोने में ढक कर रख देती। वही पानी पीती, उसी से चाय बनाती और खाना भी। लता के हाथ की पकाई पूरी, हलवा, वगैरह खा लेती लेकिन आटा सानते समय ध्यान से देखती कि उसी का पानी इस्तेमाल हो रहा है। स्वयं देखा न हो तो सुनिश्चित कर लेती- तूने आटा किस पानी से साना?’ रोटी पकाने का तवा उसका अलग था। उसमें हमने एक लाल निशान बना रखा था, पहचान के लिए। खाना पकाने वाली सहयोगी कभी भूल से हमारी रोटियां इजा के तवे पर पका लेती तो उस दिन हंगामा मच जाता। इजा गुस्से में वह तवा पटक देती और खूब बड़बड़ाती। उस दिन अपनी कढ़ाई में रोटी पकाती। 

फ्रिज में सबसे ऊपर का खाना उसके नाम आरक्षित था। उसमें उसकी चीजें रखी रहतीं- दूध, दही, सना आटा, खाने की और चीजें। फ्रिज के नीचे के खाने हम लोगों के थे। हम अपना सामान रखते-निकालते लेकिन उसके हिस्से को छूना नहीं होता था। दूध की छूत नहीं मानती थी लेकिन जितनी बार दूध निकालना होता, कोशिश करती कि वह स्वयं निकाल कर दे। बहाना यह होता कि मलाई गजबजी जाती है। मलाई जमा करके घी बनाती थी और यथासम्भव वही इस्तेमाल करती।

हलद्वानी से रेखा-सतीश आते तो उन्हें याद दिलाना पड़ता कि फ्रिज के ऊपर की सेल्फ इजा की है। कोई संबंधी आ आते तो उन्हें सावधान करना पड़ता कि ऊपर रखी चीजें न छुएं। 

हम हंसते- तू ये क्या ड्रामा करती है इजा? हम दस बार फ्रिज खोलते हैं, सामान निकालते-रखते हैं। उसमें नहीं होती छूत?’

चुप रौ,’ वह डपट देती या मुंह बनाकर अपने कमरे में चली जाती। जाड़ों के दिनों में तो अपना दूध, दही, पानी, वगैरह अपने कमरे में रख लेती थी। गर्मियों में फ्रिज में रखना लाचारी होती। खाने में भी कई तरह के नियम थे। टमाटर, गाजर यानी लाल रंग वाली सब्जियां नहीं खाती थी। प्याज-लहसुन भी नहीं। दाल-सब्जी छौंकने के लिए एक गमले में दुनलगा रखा था, वही तोड़ लाती। पहाड़ से धुंगारभी लाती या मंगाती। जम्बू-गंदरैणी भी इस्तेमाल करती। शिकार खाने का तो सवाल ही नहीं उठता था लेकिन हमारे खाने पर आपत्ति नहीं करती थी। बस, इतना ध्यान रखती कि जिन बर्तनों में मांस पकता, उन्हें बिल्कुल अलग रखा जाए।

तो, ऐसी परहेजी हमारी इजा कैसे अनुमति देती कि घर में कुत्ता पाला जाए? बिल्ली होती तो अलग बात थी। वह आराम से रसोई में जा सकती है। कुत्ता रसोई की तरफ कदम भी बढ़ा दे तो इजा मुंह का कौर भी थूक दे!

बड़ी मुश्किल। एक रात किसी तरह नटखट सीजर को कमरे में बंद रखा। दूसरी सुबह बेटे को मनाया- एक दिन रख लिया, बहुत हुआ। आज तू इसे वापस कर आना।

बिल्कुल नहीं,’ बेटा अड़ गया- मैं इसे पालूंगा। देखो तो कित्ता प्यारा है। आमा के पास नहीं जाना, हां सीजर!वह उसे पुचकारने लगा।

लाड़ हमें भी उस पर आ रहा था। था भी बहुत ही मोहिला। रात उसे एक मचिया पर दरी बिछाकर सुलाया। वह गुड़मुड़ी होकर सो गया। बेटा बीच-बीच में उठकर उसे देखता तो सीजर फौरन उठकर पूंछ हिलाने लगता। बेटे के पास पहुंचने के लिए कूं-कूं करने लगता। छोटा इतना था कि बिस्तर पर चढ़ नहीं सकता था। हम कमरे में जाते तो छोटी-सी दुम हिलाते हुए पीछे-पीछे लग जाता, पैरों से उलझ पड़ता। बच्चों से तो वह दूर ही नहीं होना चाहता था। नन्हीं कंजी आंखों से उसे देखता और तेज-तेज पूंछ हिलाता रहता। उनके लिए वह प्यारा खिलौना बन गया था।

घर में तिनका भी हिले तो इजा को पता चल जाता था। यहां तो एक नन्हा प्राणी अपनी मोहिली अदाओं से हम सबको रिझाए हुए था।

बाहर फेंक आ इसको,’ इजा गरजी। सीजर पता नहीं कब कमरे से लॉबी में निकल आया था। लॉबी से ही लगी रसोई थी। इजा की चीख पर सहमा सीजर उन्हें देखे जा रहा था। बेटा बड़ी मुश्किल से इस आश्वासन पर स्कूल गया कि सीजर को बाहर नहीं किया जाएगा।

यहां आएगा तो तेरे खुट (पैर) टोड़ दूंगी,’ इजा ने सीजर को बड़े गुस्से में चिमटा दिखाया। वह पता नहीं क्या समझा, पूंछ हिलाते हुए रसोई की तरफ बढ़ा। तत्काल उसे पकड़ कर कमरे में बंद किया गया।

काफी सोच-विचार के बाद तय हुआ कि सीजर बाहर बरामदे में रहेगा। घर के अंदर उसे नहीं आने देंगे। वहीं उसका बिस्तर, खाने और पानी का बर्तन रख दिया गया। वह वहां रुकता तब न! जैसे ही उसे बरामदे में करके दरवाजा बंद किया, वह जाली के दरवाजे से मुंह लगाकर कूं-कूं-कूं करने लगा। अपने नन्हे पंजे से दरवाजा खुरचने लगा। जोर-जोर से पूंछ हिलाकर मनुहार करने लगा। था भी बहुत छोटा और मां से पहली बार बिछुड़ा था। उस पर ममता आ गई। थोड़ी देर बाद ही उसे भीतर ले आया गया।

उसे कमरे में बंद रखना सम्भव न था। वह घर भर में घूमता। जहां से किसी की आवाज सुनता, पूंछ हिलाते हुए उधर ही भागता। इजा ने एक तरह से समझौता कर लिया था। वे जान गईं थीं कि वह इसी घर में रह जाने वाला है। सीजर और उनके बीच एक तनातनी बनी रहती जिसे दूर करने के लिए सीजर पूंछ हिलाने और उनके पीछे-पीछे दौड़ने में कोई कसर न छोड़ता। वे हड़ि” कहकर उसे घुड़क देतीं। हम यह ध्यान रखते कि जब इजा रसोई में हो तो सीजर उस तरफ न जाने पाए। इजा भी उसे चिमटा दिखाकर डराती- यां मत आना हां, खबरदार!इतने दिनों में सीजर भी समझ गया था कि उसे रसोई में नहीं जाना है। वह ज़ल्दी-ज़ल्दी बड़ा होने लगा था।

सीजर, हट वहां से,’ एक दिन मैंने उसे रसोई के दरवाजे पर खड़े देखा तो डपटा। इजा अपना खाना पका रही थी।

रूंण दे (रहने दे,) नहीं आता रसोई में,’ इजा ने कहा तो सुखद आश्चर्य से मेरे चेहरे पर हंसी खिल गई। एक और सुबह देखा कि इजा रसोई में है और सीजर रसोई के दरवाजे पर बैठा है। दोनों पंजे आगे करके उस पर अपनी थूथन टिकाए वह लगातार इजा को देखे जा रहा था।

बैठे रहना हां, अभी दूंगी!इस बार इजा सीजर से संबोधित थीं और प्यार से। सीजर ने इजा का दिल जीत लिया था। खा चुकने के बाद उन्होंने उसे उसका हिस्सा दिया। फिर यह रोज का नियम बन गया। जब तक इजा रसोई में रहती वह द्वार पर बैठा रहता। कभी अंदर जाने की कोशिश उसने नहीं की। उस समय हमारे बुलाने-पुचकारने पर भी वह न हिलता।

कुछ दिन बाद वह इजा के कमरे की देहरी पर भी ऐसे ही बैठने लगा। कमरे के एक कोने में मंदिर था। इजा सुबह-शाम दिया जलाती, आरती करती और घण्टी बजाती। घण्टी की आवाज सुनते ही सीजर सब कुछ छोड़कर उस कमरे की देहरी पर जा बैठता। अगले दो पैर देहरी से तनिक भीतर और उन पर थूथन टिकाए। पूजा करने के बाद इजा बच्चों को प्रसाद देती थी। चंद इलायची दानों का वह प्रसाद अब सीजर के हिस्से भी आने लगा। बल्कि, सबसे पहले सीजर को देती फिर बच्चों के लिए रखती।

तू तो सबसे पहले सीजर को प्रसाद देती है,’ एक दिन मैने हंसते हुए कहा।

क्या करूं, नहीं दिया तो मुख ही मुख देखे रहता है।इजा मुस्कराई और सीजर को प्यार करने लगी। दोनों में अब सम्वाद भी होने लगा था। दसेक महीने में सीजर अच्छा खासा बड़ा हो गया था।

नवरात्र के दिनों में इजा पास के एक मंदिर में कीर्तन सुनने जाती। लौटते समय उसके हाथ के दोने में प्रसाद होता। पहले उसे बच्चों के लिए रख दिया जाता था। अब सीजर हक जताने लगा। उसे पूरा दोना चाहिए होता। बड़े होते बच्चे यूं भी पंजीरी, बताशा और कटा केला खाने में ना-नुकुर करते थे। सीजर की मौज हो गई। वह इजा के इंतज़ार में फाटक पर बैठा रहता। नवरात्र के बाद इजा खाली हाथ आती तो बेचैन होता। उछलकर अगले दोनों पैर उसके कंधों पर रख देता। तब इजा उसे कुछ न कुछ खाने को दे देती।  

इजा से हमारी कम ही बात होती थी। उसे जो भी कहना होता, हमें सुनाते हुए सीजर से कहती- पेंशन लेने जाना था। कब जाएं, सीजर?’, ‘सीजर, आज हाथ-पैर बहुत चड़क रहे रे। कुछ दवाई होती...।’ ‘त्रिलोचन के यहां मिलने जाना था, तू ले जा देगा सीजर?      

आज क्या साग पकाएं?’ वह सीजर से पूछती- झोली खाएगा, झोली?’ वह पकौड़ी वाली झोली (कढ़ी) का बड़ा खवैया बन गया था। पहले उसे एक ग्रास देने वाली इजा अब उसके कटोरे में ज़्यादा खाना देने लगी थी। डॉक्टर की सलाह के अनुसार हमने उसका दो टाइम का खाना बांध रखा था। इजा भी उसे सुबह शाम खिलाने लगी। जो खाना बचता वह भी उसके कटोरे में डाल देती। आम खाती तो गुठली सीजर के हिस्से। घी बनाती तो बचा मट्ठा और कढ़ाई की खुरचन तक सीजर के पेट में जाने लगे। हम मना करते तो इजा नाराज हो जाती- दो ही रोटी देते हो उसे। भूखा रहता है वह।

नतीजा यह हुआ कि उसका पेट खराब रहने लगा। बीमारी में वह खाना छोड़ देता तो इजा पुचकार-पुचकार कर अपने हाथ से उसे खिलाती। मिठाई का शौकीन हो गया था। सो, मिठाई के साथ रोटी मींज कर खिलाती। सीजर उसके हाथ से खा लेता मगर फिर उलटी कर देता। डॉक्टर के पास ले गए। उन्होंने हिदायत दी कि इसे समय पर ही खाना दें और ज़्यादा बिल्कुल नहीं। इजा मानती तब न! उसने नाराज़ होते हुए कहा- कैसा डॉक्टर है जो कम खिलाओ कहता है। शिबौ, भूखा रह जाता है बिचारा।

हमारे बहुत कहने पर उसने नाराज़ होकर एक-दो दिन सीजर को कुछ नहीं दिया। सीजर उसका मुंह ताकता और पीछे-पीछे लगा रहता। वह गुस्से से हमें सुनाती- कुछ नहीं दूंगी तुझे, मुझे डांट पड़ती है।दो दिन बाद दोनों का लाड़ फिर शुरू हो जाता। घर में जो भी चीज आती उसका एक हिस्सा सीजर के पेट में जाता रहा। पर्व-त्योहारों, बच्चों के जनम बार पर पुए, सिंगल, पूरी, हलवा पकता। खुशबू मिलते ही सीजर बौरा जाता। अपना कटोरा दांतों में दबाए लॉबी में चक्कर लगाता और रसोई की तरफ टकटकी लगाए रहता। वह पुए का बहुत ही शौकीन ठहरा और दरिया दिल इजा। वह सीजर को पिठ्यां लगाती और उसके सिर पर हरेला भी धरती। पकवान उसके इतना मुंह लग गए थे कि एक-दो बार मंदिर में रखा भगवान का हिस्सा चुपके से चट कर आया।

क्यों, मंदिर के पुए कहां गए?’ वह पूछती। बच्चों पर या घर में काम करने वाले लड़के बूबा पर शक करती। वे समझ जाते- सीजर, तूने चुराए ना पुए?’ सीजर आंख नहीं मिलाता और मुंह चुराने लगता लेकिन इजा मानती ही नहीं थी कि सीजर मंदिर में जाकर पुए टपका सकता है।

हम पति-पत्नी दिन भर बाहर रहते। बच्चे स्कूल जाते। घर में अकेली इजा का सीजर पूरा साथ देता। वे उससे बातें करती रहतीं। राम चरित मानस पढ़तीं या भजन गातीं तो सीजर देहरी पर बैठा सुनता रहता। वे सो जातीं तो चौकीदार की तरह सतर्क रहता। फाटक से कोई घण्टी बजाता तो इजा के उठने से पहले सीजर भौंकता हुआ पर्दा हटाकर बैठक की खिड़की से झांक आता। उसके भौंकने के अंदाज और पूंछ के हिलने से इजा समझ जाती कि कोई परिचित आया है या अजनबी खड़ा है।

बूबा सुबह-शाम सीजर को बाहर घुमाने ले जाता। यही उसके निवृत्त होने का समय भी था लेकिन इजा दिन में कई बार बूबा को टोकती- जा, उसे बाहर ले जा। पिशाब लगी है उसे। 

गर्मियों में पहाड़ जाती तो फोन पर सीजर का हाल पूछना नहीं भूलती- उसे ठीक से खाना देना, हां! भूखा मत मार देना।उसे हमेशा यही लगता था कि हम सीजर को कम खिलाते हैं।

जमाना बीत गया। बच्चे बड़े होकर बाहर चले गए। सीजर बूढ़ा हो गया। इजा की भी अच्छी उम्र हो गई थी। हालांकि वह स्वस्थ और सक्रिय थी लेकिन बुढ़ापे के कष्ट घेरे रहते। सीजर की उसे अब और भी चिंता होने लगी थी। अपने हाथ-पैरों में दर्द होता तो सीजर के पैर सहलाती- तेरे भी चड़क हो रही होगी ना?’ सीजर का बुढ़ापा उसके पैरों से आया। चलने में लड़खड़ाने लगा। धक्के जैसे लगते। सीमेण्ट की फर्श पर रहने-चलने से पैर उतने मजबूत नहीं रहे जितने बाहर खुले में दौड़ने से होते। वैसे भी उसे हमारे यहां तेरह बरस हो रहे थे। लगभग पूरी उम्र। कुछ समय बाद सुबह-शाम बाहर ले जाना भी मुश्किल हो गया। उसने खाना भी छोड़ दिया। इजा उसका हाल देखकर शिब-शिबकरती और उदास हो जाती। डॉक्टर ने इंजेक्शन लगाए लेकिन बता दिया कि अब इलाज से कोई लाभ नहीं होगा।

एक सुबह सीजर खड़ा ही नहीं हो सका। ठीक से सांस भी नहीं ले पा रहा था। पुकारने पर धीरे से पलकें उठाता, फिर शिथिल पड़ जाता।

मरता है ये अब,’ इजा रोने लगी।

सीजर का अंत समय जानकर हमने कुत्तों का अंतिम संस्कार कराने वाली एजेंसी को फोन किया। डॉक्टर ने उसका नम्बर दे रखा था। उनके आने तक सीजर शांत हो चुका था। हम सब उदास थे। इजा उसके पास बैठी, उसे प्यार करती और रोती रही। उसकी स्थिर पुतलियां इजा की तरफ ही टिकीं थीं।

वे सीजर को उठा ले गए। हमने नम आंखों से उसे विदा किया। इजा को चुप कराना मुश्किल हो गया था। जिस दिशा में सीजर को ले गए थे, उस तरफ देखते हुए वह विलाप करती रही- जा, सीजर जा, आराम से जाना। तेरे कारण मैंने कितनी डांट खाई, कितनी टुकाई खाई, अब जा।सिसकियां रोकने के लिए उसने आंचल मुंह में ठूंस लिया था।

सीजर की बहुत याद आती। लगता वह अभी पूंछ हिलाता किसी कोने से निकल आएगा। उसकी एक फोटो फ्रेम में लगाकर लॉबी के आले में रख दी। इजा खाना बनाते-खाते, दिन भर में कई बार उसे याद कर रोती। बच्चे छुट्टियों में घर आए तो उनके सामने सीजर को याद कर खूब रोई। छोटे बेटे ने कहा- आमा, रोओ मत. हम एक और सीजर ला देंगे।

इजा भड़क गई। रोना भूल कर गरजी- खबरदार, अब  किसी को मत लाना। कुत्ते का बच्चा हो, चिड़िया का पोथिला हो, प्राणी हुआ। बड़ा मोह हो जाता है। मत लाना, मैंने कह दिया।

भीतर जाकर सीजर की फोटो के पास खड़े होकर वह फिर आंसू बहाती रही थी।

और, कल रात वह सपने में सीजर के लिए रोटी पकाती दिखी। सीजर और इजा के किस्से हम अब भी अक्सर कहते-सुनते हैं।

('पुरवासी'- 2021. अल्मोड़ा)