Friday, October 21, 2022

"उत्तराखण्ड सरकार से मेरी यह अपेक्षा है"

 

प्रख्यात कथाकार शेखर जोशी ने अपने नब्बे वें जन्म दिन से करीब दो-ढाई महीने पहले अपनी वसीयत लिखी थी- मन की बात शीर्षक से। मई-जून में वे बेटी कृष्णा के पास पुणे में थे। कोविड का हलका झटका लगा था लेकिन उबर आए थे। तभी यह मन की बातलिखी थी। आंखों की बीमारी के कारण लिखना आसान नहीं था। तीस जून से लिखना शुरू किया और थोड़ा-थोड़ा करके छह जुलाई तक पूरा किया। बाद में भी कुछ जोड़ा। स्वस्थ होकर वे छोटे बेटे संजय के पास  गाजियाबाद आ गए थे। 10 सितंबर, 2022 को परिवारीजनों के बीच बड़े उत्साह से उनके नब्बे वर्ष पूरे करने का आननद-उत्सव मनाया गया। उन्होंने बहुत खुश होकर फोन पर मुझे बताया था – "तुम्हारा भेंट किया कुर्ता पहनकर जन्मदिन मनाया। बच्चों ने खूब धूमधाम कर दी।" चंद रोज बाद वे बीमार पड़े। अस्पताल ले जाए गए और चार अक्टूबर को अनन्त यात्रा पर चले गए।

मन की बातमें उन्होंने अपने बीते दिनों की चर्चा करने के बाद कहा है कि –“मैं एक सुखी और संतुष्ट व्यक्ति की तरह दुनिया को प्रसन्नतापूर्वक अलविदा कहूंगा।” इसी तरह वे गए भी। उनकी इच्छानुसार मेडिकल कॉलेज को देहदान करते हुए शेखर जोशी- लाल सलामके नारे लगाए गए और उनकी कविता का पाठ किया गया। दुख स्वाभाविक था लेकिन कोई रोया नहीं। यह एक प्रतिबद्ध और विनम्र जन कथाकार की शानदार विदाई थी, जैसा वे चाहते थे।

उनके जाने के बाद उनकी मन की बातपढ़ी गई। अपनी किताबों और बैंक में जमा छोटी-सी पूंजी का बच्चों में रचनात्मक उत्तरदायित्व के साथ बंटवारा करने के बाद उन्होंने अपने ओलिया गांवऔर आस-पास के इलाके के बारे में अपने कुछ स्वप्न भी साझा किए हैं और उत्तराखण्ड की सरकार से कुछ अपेक्षाएं की हैं। उनका उअह स्वप्न और अपेक्षाएं बताती हैं कि वे पहाड़ और अपने इलाके के बारे में कितना कुछ सोचते थे और उसमें कैसा ऐतिहासिक, सांस्कृतिक चिंतन और विकास दृष्टि शामिल थे।

वे लिखते हैं – “मैंने कभी सम्पत्ति जोड़ने की कोशिश नहीं की। मेरी प्रकाशित और अप्रकाशित पुस्तकें ही मेरी स्मपत्ति हैं। गांव की पैतृक सम्पत्ति जो अभी ताऊ जी और बाबू के नाम पर है, उसका उपयोग उनके वारिस जिस तरह चाहेंगे करेंगे। मेरी एक इच्छा है कि गुसांई सिंह के परिवार को जिस प्रकार बाबू ने अपने घर में आश्रय दिया था, उसे बेदखल न किया जाए। उनके कारण हमारा प्यारा घर आज भी पूरी शान से खड़ा है। मैं अगर स्वस्थ होता और यदि मेरे आंख-कान सही-सलामत होते तो मैं उत्तराखण्ड सरकार से अपनी तीन मांगों के लिए आग्रह करता। मेरी इच्छा है कि सुनाड़ी दड़मिया से लेकर विनायक थल तक (गणनाथ) की जंगलात की सड़क का नामकरण पं हरिकृष्ण पाण्डे मार्ग किया जाए। पाण्डे जी ने स्वतंत्रता संघर्ष काल में इस क्षेत्र में जो जागृति प्रदान की और कई बार जेल गए, विद्यापीठ की स्थापना कर इलाके के बच्चों की स्कूली शिक्षा की व्यवस्था की, उन्हें यह सम्मान दिया जाना चाहिए। दूसरी इच्छा है कि सरकार हमारे ओलिया गांव को हर्बल विलेज बना दे। इस गांव की जलवायु औषधि पादपों के उत्पादन के लिए बहुत अनुकूल है। वहां आज भी ममीरा (जोके जड़ि), शंखमूसली, ब्राह्मी, बनप्शा, दालचीनी, तिमूर, औषधीय गुणों वाले किरमोला की झाड़ियां प्रचुर मात्रा में पाई जाती हैं। औषधीय पादपों के अलावा ओलिया गांव की जलवायु कुछ विशेष प्रकार की साग-सब्जियों के लिए भी बहुत उपयुक्त है। गडेरी, शिमला मिर्च, कैरुवा (एस्परेगस), मशरूम और लिंगुण भी यहां प्राकृतिक रूप से उग जाते हैं। उगल और चुवा (कोटू और रामदाना) तो भोजन की अनिवार्य सामग्री है। अब तो सिसूण (बिच्छू घास) भी प्रचलन में आया है। बंदरों द्वारा नष्ट न किए जाने वाले उत्तम फलों- अखरोट, दाड़िम, जामिर, नारंगी, माल्टा, पोदीना और पिपरमेण्ट तो यहां सामान्य बात है। अखरोट का काष्ठ खेलों के उपकरण और इमारती लकड़ी के रूप में बहुत कीमती होता है। तिमूर दंत मंजन के रूप में भी बहुत उपयोगी है।

मेरी तीसरी इच्छा है कि पूर्व दिशा में बमणतोई से सुपकोट जाने वाले मार्ग एक दीवार उठाकर एक विस्तृत जलाशय का निर्माण कर दिया जाए। यह बहुत सुंदर पर्यटन स्थल बन सकता है। चातुरमस में इस गांव की नदी में इतना अधिक पानी आता है कि कई बार बड़ी-बड़ी शिलाएं बहकर नई जगहों में बैठ जाती हैं। ऊपर का सदानीरा झरना भी खूब जल प्रवाहित करता है। चारों ओर के ऊंचे पहाड़ों से बारिश का पानी आकर नदी में गिरता है। एक-दो वर्षों की बारिश के बाद जलाशय लबालब भर जाएगा। विनायक थल पर एक हैलीपैड बन जाए तो पर्यटक ट्रैकिंग करते हुए माई का थान से हिमालय के दर्शन कर सकते हैं। पर्यटन स्थल बन जाने से इस क्षेत्र में रोजगार की अपार सम्भावनाएं बढ़ेंगी और इस क्षेत्र से मैदानी शहरों के लिए जनता का पलायन रुकेगा। मैं अपने प्रवासी बिरादरों से भी आग्रह करता हूं कि अपने पूर्वजों के गांव की उन्नति के लिए सरकार पर जोर डालें और सहयोग करें।”         

शेखर जी बचपन में ही इजा की मृत्यु के बाद अपने मामा के पास केकड़ी (राजस्था) चले गए थे। फिर दिल्ली चार साल के प्रशिक्षण के बाद इलाहाबाद में नौकरी की और वहीं रहे। उसके बाद उनका ठिकाना लखनऊ, पुणे और गाजियाबाद रहा। लेकिन अपने ओलिया गांव से उनका सम्पर्क हमेशा बना रहा। उत्तराखण्ड उनके लेखन और चिंतन में बराबर शामिल था। 'मन की बात' में अपने गांव और क्षेत्र के बारे में जितनी आत्मीयता और विकास दर्शन के साथ वे जो लिख गए हैं, उससे उनके पहाड़ से गहन जुड़ाव का पता चलता है। चंद वर्ष पूर्व उन्होंने 'मेरा ओलिया गांव' नाम से एक किताब ही लिख दी थी, जो स्वयं में एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है।

अलग उत्तराखण्ड राज्य बन जाने के बाद उसका शोषण दोहन ही अधिक हुआ है। जो विकास हुआ, उसके केंद्र में न प्रकृति है, न जन। राज्य से जनता का मोहभंग ही हुआ है। ऐसे में सरकार पहाड़ के एक विख्यात लेखक के मन की बात सुनेगी और उस पर ध्यान देगी, इस पर सहसा विश्वास नहीं होता। सरकार में बैठे लोगों को शायद ही शेखर जोशी जी के बारे में ठीक से मालूमात हो। तो भी इस आशा के साथ कि आज या कल सत्ता में बैठने वाले किसी संवेदनशील आंख-कान तक उनका व्यावहारिक सपना पहुंचेगा और उस ओर कुछ काम होगा, यह उम्मीद करना बिल्कुल बेमानी भी नहीं। - न जो, 21 अक्टूबर 2022          

Monday, October 17, 2022

'कारखाने की नौकरी ने मुझे बड़ी रचनात्मकता दी"- शेखर जोशी

(शेखर जोशी से बातचीत का अगला भाग)

 [] आपकी पहली कहानी कौन सी थी और कब लिखी गई? और, आखिरी कहानी कब और कौन सी लिखी थी? अब कहानियां लिखने का मन नहीं करता? हाल के वर्षों में कविताएं ही लिखने का क्या कारण है?

-         मेरी पहली कहानी राजे खत्म हो गए’ 1952 या 53 में लिखी गई जो समासपत्रिका में दिल्ली से प्रकाशित हुई थी, 1955 में। दूसरे विश्व युद्ध में हमारे पहाड़ों से हजारों युवा फौज में चले गए थे। एक बार जब मेरी उम्र ज़्यादा से ज़्यादा दस साल रही होगी, हमको अल्मोड़ा जाना था। अल्मोड़ा पैदल रास्ते से सोलह मील होता था और हवलबाग तक मोटर रोड से ही जाना होता था। तो हम चले पैदल। जहां-जहां बस्ती थी, देखा कि फौजी जवान अपनी चुस्त वर्दी में खड़े हुए हैं, गाड़ी की प्रतीक्षा में। और, उनको विदा देने के लिए उनके परिवार की बहुत सी महिलाएं भी वहां थीं। उनमें माएं होंगी, बहनें होंगी, भाभियां होंगी, किसी-किसी की पत्नी भी होगी। जैसे ही गाड़ी आती, फौजी चट से गाड़ी के अंदर बैठ जाता और जैसे ही गाड़ी चलती थी, जो रुलाई फूटती थी, इतनी दर्दनाक कि मेरे बाल मन में वह अमिट रह गई। और, ये एक जगह नहीं हुआ। हवलबाग तक कई जगह इस तरह के दृश्य देखे। तो, उस कहानी में मैंने एक चरित्र बुढ़िया का लिया था जो अपने बेटे का इंतजार कर रही है। वह इस भ्रम में है कि बेटा ज़िंदा है और आएगा लेकिन बेटा पता नहीं कब शहीद हो चुका है। गांव में एक मंत्री जी आए हुए हैं। उन्होंने दही खाने की इच्छा व्यक्त की। लोग दही लेने के लिए बुढ़िया के पास पहुंचे। बुढ़िया ने बड़ी खुशी से दही की हाँडी उनको पकड़ाई और कहा- मंत्री आए हैं ना, कभी राजे भी आएंगे। और हां, मेरा राजा भी आएगा। जो नैरेटर है उसमें वो कहता है कि मैंने (बुढ़िया से) कहा नहीं लेकिन राजे खत्म हो गए हैं। एक तरह से यह कहानी मेरी प्रसिद्ध कहानी कोसी का घटवार का बीज है।

 

और, अंतिम मेरी कहानी जो है, मुझे जहां तक ख्याल है वागर्थमें प्रकशित हुई थी, वो थी छोटे शहर के बड़े लोग। ये छोटा शहर मेरे दिमाग में भवाली था। वह विनोदपूर्ण ढंग से कही हुई कहानी है, जिसमें एक मछली वाला है, एक मूंगफली वाला है। मछली वाले के टाट से पानी बहकर मूंगफली वाले के बोरे में जाता है। एक दिन मूंगफली वाला मछली वाले की सीट को तोड़-फोड़ देता है। अब बड़ी सनसनी हो जाती है, क्योंकि मछली वाला बड़े नशेड़ी किस्म का आदमी और मुसलमान है। और, ये हिंदू है। एक महिला है जो मंथरा की तरह से सब घरों में जाकर कहती है- हो गया, वहां भी हो गया, अयोध्या हो गया वहां! मुसलमानों ने रामपुर फोन कर दिया है। वहां से गुंडे आ रहे हैं। किस सन में लिखी थी याद नहीं। तो, तनाव हो गया है कस्बे में। मुसलमान हाजी की दुकान में जमा हो जाते हैं। वह (मछली वाला) जब आता है तो देखता है और समझ जाता है कि किसकी कारस्तानी है। तभी हाजी जी जोर से कहते हैं- अरे किसी ने गाड़ी का नम्बर नोट किया या नहीं किया? ये साले टिंचरी पीकर गाड़ी चलाते हैं और बैक करने में तोड़ दिया इसका...।' सुनकर लोग मुस्करा रहे हैं और वह समझ रहा है कि यह सब मनगढ़ंत है, मामला दूसरा है लेकिन वह कुछ कर नहीं पाता। तो, ये थे उस छोटे कस्बे के बड़े लोग!

अब कहानियां लिखने में दिक्कत ये है न, कि वाक्य विन्यास लम्बा होता है और आपको दोबारा उसको देखना पड़ता है। दिमाग में आती तो हैं कहानियां लेकिन उसको सहज ढंग से लिख नहीं पाता हूं। कविता में ऐसा है कि छोटे-छोटे वाक्य होते हैं और एक लय होती है। और, अभ्यास है थोड़ा-बहुत।

[] साठ-पैंसठ साल बाद भी आपकी कहानियां खूब पढ़ी और याद की जाती हैं। दाज्यू’, ‘कोसी का घटवार, बदबू, जैसी कहानियां बार-बार उद्धृत होती हैं। कम लिखने के बावजूद यह विरल उपलब्धि है। इसकी क्या वजह आपको लगती है?

-          वजह, तो ये हो सकता है कि मैंने बहुत ध्यान से साहित्यिक कृतियों का अध्ययन किया है, देसी-विदेशी रचनाकारों के शिल्प के बारे में और कथ्य के बारे में। दूसरी सबसे बड़ी बात कि मेरा एक वैचारिक आधार रहा है। कॉमर्शियल राइटिंग करके पैसा कमाने की प्रवृत्ति मेरी नहीं रही। मैं लघु पत्रिकाओं का लेखक रहा हूं। और, एक चीज है कि परकाया प्रवेश में कुछ दक्षता मुझमें रही है। दूसरे के मन को पढ़ने में मैं समझता हूं कि कुछ योग्यता है। और, बचपन से ही बहुत दुखी परिवेश में जीवन बीता, कम उम्र में मातृविहीन हो गया, अपने आत्मीय परिवेश से विस्थापन करने को विवश हुआ। इससे संवेदनशीलता गहरी हुई।... जो भी मैंने लिखा है वह किसी उद्देश्य को लेकर लिखा है। मन में ये भी था कि समाज में किस तरीके से परिवर्तन हो। और तो मैं कुछ नहीं कर सकता, लिख कर ही सामाजिक स्थितियों की विवेचना कर सकता हूं। लोगों को मेरी कहानियां सार्थक लगी हैं तो ये मेरे लिए सौभाग्य की बात है।

[] कभी राजेंद्र यादव ने कहा था कि शेखर जोशी की कहानियों का उचित से अधिक मूल्यांकन हुआ है’- आप क्या कहना चाहेंगे?

-          जिस तरह की कहानियां हम लोग लिख रहे थे, उसको नई कहानी का दौर कहा गया और जब चर्चा होती थी तो अमरकांत, शेखर जोशी और मार्कण्डेय ...। तो, एक प्रोफेशनल राइवलरी भी इसमें कहीं थी। दूसरा, राजेंद्र यादव शुरू से बहुत महत्वाकांक्षी लेखक थे। जैसे, शुरुआत में ही वे अज्ञेय के नाम खुलापत्र जैसा लिखते थे, लोगों की नज़र में आने के लिए और अपने लेखन में भी बहुत कुछ पच्चीकारी करते थे। राजेंद्र यादव और कमलेश्वर नई कहानी आंदोलन के स्वयं-भू नेता बने हुए थे। मोहन राकेश को भी वे अपने साथ लेते थे लेकिन मोहन राकेश उतने मुखर नहीं थे। ये लोग आत्म प्रचार और अपने को स्थापित करने के लिए बहुत कुछ करने की कोशिश करते थे। हमारे पास कोई साधन भी नहीं थे, इन लोगों के पास प्रचार-साधन थे। वैसे, परस्पर मैत्री हम लोगों की रही और राजेंद्र यादव जब भी दिल्ली से या आगरा से कलकत्ता जाते थे तो रास्ते में इलाहाबाद में रुकते थे। तब मैं बैचलर था और उनका अड्डा मेरा ही कमरा होता था। उनकी बड़ी मजेदार चिट्ठियां आती थीं। जब उन्होंने हंस शुरू किया तो मैंने कोई ताजी कहानी नहीं लिखी थी, कैथरीन मैंसफील्ड की एक बहुत अच्छी कहानी अनुवाद करके उनको भेजी थी। उन्होंने लिखा कि हंसमें दूसरी तरह की कहानियां देना चाहता हूं, इसलिए इस कहानी को नहीं छाप रहा हूं। बाद में ये सोचकर कि कहीं वो ये यह न सोचे मैं उनसे नाराज़ हो गया हूं, मैंने आशीर्वचनकहानी, जो मेरी प्रिय कहानी है औद्योगिक जीवन की, उनको भेजी और वो उन्होंने प्रकाशित की और अगले अंक में उस पर एक बहुत सकारात्मक टिप्पणी रमेश उपाध्याय से लिखाई। तो, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ... बड़े-बड़े लेखक भी एक-दूसरे के बारे में ऐसी बातें कर जाते हैं।    

[] नए कहानीकारों को पढ़ पाते हैं आप? भाषा-शैली ही नहीं, शिल्प भी अब बहुत बदल गया है। नए-नए प्रयोग हो रहे हैं

-          मेरे पास बहुत सी पत्रिकाएं कम्पलीमेट्री रूप में आती थीं। बाकी को मैं खरीदकर पढ़ता था। मुझे हमेशा नए से नए लेखक के बारे में जानने की बहुत उत्सुकता रहती थी। एक दौर तो ऐसा था जब लखनऊ से शिव वर्मा जी के सम्पादन में नया पथ प्रकाशित होता था, तब उनके आदेश पर मैं गत मास का साहित्यनाम से कॉलम लिखा करता था। उसके लिए भी मैं बहुत सी कहानियों, पत्रिकाओं को पढ़के उनकी अच्छी रचनाओं की चर्चा करता था। कभी-कभी मैं उसमें अपनी भी तारीफ कर लेता हूँगा। मैंने शिवदा से कहा था कि ये किसी को मालूम नहीं होना चाहिए कि मैं ये कॉलम लिखता हूं। उसे मैं सौम्य दृष्टिनाम से लिखता था। मुझे लगता है, शिवदा ने यशपाल जी को बता रखा होगा क्योंकि एक बार यशपाल जी ने एक स्थानीय लेखक की किताबकी मुझसे बार-बार प्रशंसा की। मैं समझ गया कि यशपाल जी मुझसे उस कहानी का उल्लेख करवा चाहते हैं। अब एक तो पत्रिकाएं कम उपलब्ध होती हैं, दूसरा मेरी आंखों की रोशनी बहुत साथ नहीं देती। मैग्नीफाइंग लेंस से जिनको जरूरी समझता हूं, पढ़ लेता हूं। तो, उत्सुकता बनी रहती है कि आखिर क्या नया लिखा जा रहा है। अकेलापन भी हो गया है। ऐसे साथी भी नहीं हैं कि जिनसे नए साहित्य के बारे में चर्चा की जा सके।          

 [] आपकी पीढ़ी के, बल्कि आपके साथ के बहुत ही कम रचनाकार अब सक्रिय हैं। किनसे बातचीत हो जाती है? इलाहाबाद कितना याद आता है और पुराने साथी?

-          दुर्भाग्य से मेरी उम्र के अधिकांश लोग अब इस दुनिया में नहीं हैं। जो बहुत थोड़े-से लोग बचे हैं, जैसे डॉ विश्वनाथ त्रिपाठी। बहुत कम साथी ऐसे हैं जिनसे मैं बात कर सकूं। ये भी है कि बात करने के लिए समकालीन साहित्य के सम्बंध में उसका अध्ययन पूरी तरह से हो जो कि अब नेत्र विकार के कारण सम्भव नहीं है। जो लोग बाद की पीढ़ी के हैं, जैसे कवि हरिश्चंद्र पाण्डे, संतोष चतुर्वेदी, आप हैं, तो उनसे कुछ साहित्यिक चर्चाएं हो जाती हैं। मैं जानने की कोशिश करता हूं कि क्या नया लिखा जा रहा है, क्या पढ़ा जा रहा है। अब ये है कि हम अपनी पारी खेल चुके। कोई अफसोस नहीं। जो कुछ भी हमने किया, ईमानदारी से किया। किसी तरह की महत्वाकांक्षा नहीं रखी, बल्कि एक मिशन के रूप में उस काम को अंजाम दिया।

बहुत याद आते हैं कुछ लोग। मार्कण्डेय का एक चुम्बकीय व्यक्तित्व था। वो मुझ पर बहुत भरोसा करते थे। सपने में वो बहुत आते हैं। अमरकांत के साथ बिल्कुल पारिवारिक सम्बंध थे। इलाहाबाद शहर, जहां मैं पचास साल रहा हूं, वो सपनों में बहुत आता है। खास तौर से 100- लूकर गंज, जो टंडन का हाता कहलाता था। उस हाते के बीच में एक पुराना बंगला था। उसके आधे हिस्से में मकान मालिक रहते थे और आधे में मैं रहता था। और, तीन तरफ छोटे-छोटे क्वार्टर बने हुए थे, निम्न मध्यम वर्गीय लोगों के लिए। वहां बड़ी पारिवारिकता थी। सब याद आता है। इधर मैंने एक लम्बी कविता लिखी है 100-लूकरगंज की स्मृति में। प्रतीक रूप में मैंने पहाड़ी गांवों की बाखई’ (मकानों की लम्बी कतार) को लिया है। बाखईमें इतना खुलापन, इतनी सहकारिता, सहभागिता, सुख-दुख का साझापन रहता है। बाखई वाला गांवकविता वास्तव में 100-लूकर गंज की ही प्रतीक है।        

[] आप सुबह से शाम तक की कारखाने की नौकरी को लेखन के लिए बाधा मानते थे लेकिन क्या वही आपकी एक बड़ी रचनात्मक पूंजी नहीं बनी?

-          हां, इस नौकरी में मुझे बहुत रचनात्मकता मिली। हर दिन नया कुछ सृजित करना। जो हम लोगों ने दक्षता हासिल की थी ऑटोमोबाइल इंजीनियरिंग की, उसका अध्याय सन 62 की लड़ाई के बाद खत्म हो गया था। चीन के साथ मुठभेड़ में हमारे जो रिवर्सेज हुए, उसकी जब इंक्वायरी हुई, तो पाया गया कि हमारी विदेशी गाड़ियों की फ्लीट, जिनके कल-पुर्जे अब दुर्लभ थे, की कमजोरी भी इसकी वजह थी। तो, रातों-रात तय हुआ कि अब व्हैकिल रिपेयर नहीं होंगे। स्वदेशी गाड़ियां खरीदी जाएंगी और उस पर अपनी सेना की रिक्वायरमेंट के हिसाब से बॉडी बिल्ड की जाएगी। तो, रिपेयर वर्कशॉप को हम लोगों ने प्रॉडक्शन यूनिट में बदला और वो इतना प्रेरक था...। नई मशीनें मंगाई गईं, लगाई गईं और वर्कर्स, जवानों को एक प्राइवेट कम्पनी में ट्रेनिंग के लिए भेजा गया। वो वहां से सीख के आए, बड़ी-बड़ी मशीनें, जिनमें 8x10 की बड़ी-बड़ी चादरें, दस गेज की, बारह गेज की, चौदह गेज की, कटती हैं, उनको कैसे ऑपरेट करना है, ब्रेक प्रेस है, पावर प्रेस है, बेंडिंग कैसे करनी है। ये कमाल लोगों का था कि जो लोग बढ़ई थे, इलेक्ट्रीशियन थे, फिटर थे, वो लोग भी इन मशीनों पर काम करने लगे और एक भी एक्सीडेंट नहीं हुआ। अलग-अलग गाड़ियों की चेसिस बनती थी, बॉडी बनती थी, ऐसे कि आप उनको खोल के फिर जोड़ सकें, फोल्डिंग करके। तो, इतना सृजनात्मक था, हर चीज, कि देख के तबीयत प्रसन्न हो जाती थी। ये जरूर है कि पढ़ने-लिखने के लिए समय नहीं मिला लेकिन काम में ताजगी रही। ट्रेनिंग के दौरान प्राप्त मिकैनिकल ड्रॉइंग की शिक्षा अब काम आई। ऊपर से प्राप्त ड्रॉइंग का खुलासा करके मैं प्रोटोटाइप बनवाता था। तब प्रॉडक्शन शुरू होता था। दूसरी बात मैंने जिन लोगों के साथ मैकेनिक के रूप में काम किया था, उस पीढ़ी से आत्मीय सम्बंध थे। उसके बाद जो नई पीढ़ी आई, अपने बच्चों की तरह से हमने उनकी रुचियों के हिसाब से, उनके मित्रों के ग्रुप के हिसाब से उनकी प्लेसिंग की। तो, वो बहुत आदर देते थे। ऐसे-ऐसे काम किए गए और ऐसी उपलब्धियां रहीं कि बयान नहीं किया जा सकता। ये बड़ा सृजनात्मक सुख था मेरी एक कहानी है 'गलता लोहा', कुछ लोग इसे डी-क्लास होने की कहानी समझते हैं लेकिन मेरी दृष्टि में यह कहानी उस सृजन सुख की है जो एक चित्रकार को अपनी कलाकृति की पूर्णता पर और एक शिल्पकार को अपने शिल्प की पूर्णता पर मिलता है। वो ब्राह्मण पुत्र जो है, वो अपने रिश्तेदार के साथ पढ़ाई करने के लिए गया था लेकिन रिश्तेदरों ने उसे आईटीआई में काम सीखने भेज दिया। तो, उसने लोहारी काम भी सीखा। जब वो गांव आया तो उसके पिता ने कुछ औजार उसे लोहार के यहां तेज करवाने के लिए दिए। तो, वो लोहार को काम करते हुए देखता रहा। लोहार एक सरिया को मोड़कर गोल छल्ले का रूप देने की कोशिश कर रहा था लेकिन वो सफल नहीं हो रहा था। इसने उसको हटा के अपने हाथ में औजार लेकर उसको कर दिया। ये लोहार के लिए बड़ी एम्बेरेसिंग पोजीशन थी कि एक ब्राह्मण उसके साथ काम कर रहा है लेकिन ब्राह्मण को जातिवाद की चिंता की बजाय एक सृजनात्मक सुख मिल रहा था। खैर, अंतत: मैंने समय से आठ साल पहले लिखने-पढ़ने के लिए ही रिटायरमेंट लिया लेकिन मैं उस वर्कशॉप के वातावरण को, उसकी आत्मीयता को कभी नहीं भूल पाया। नॉर्मल होने में मुझे समय लगा। लेकिन मुझे आराम मिला और जो लिखना-पढ़ना छूट गया था, वह हुआ। संगठन (जनवादी लेखक संघ) में पदाधिकारी होने के कारण मुझे घूमने को भी मिला। दूसरे लेखकों से भी सम्पर्क साधने का मौका मिला, लिखने के लिए प्रेरणा मिली और बहुत कुछ लिखा भी।  

[] अतीत और वर्तमान के प्रसंगों को लेकर तो कहानियां लिखी जाती हैं। क्या भविष्य की सम्भावित सामाजिक स्थितियों के बारे में भी कहानियां लिखी गईं?

-          कई लेखकों ने काल्पनिक पात्रों और उपकरणों को लेकर भविष्य के बारे में रोचक फैंटेसी लिखी हैं। यदि लेखक की दृष्टि समाज-सापेक्ष हो तो कभी अनायास ही उनकी रचना में भविष्यवाणी-सी हो जाती है। जैसे, सन 1925 में मतवालापत्रिका में प्रकाशित प्रेमचंद की कहानी गमीको लें। उस जमाने में लोगों के भरे-पूरे परिवार होते थे लेकिन प्रेमचंद की कहानी का नायक अपने परिवार में तीसरे बच्चे के आगमन पर मित्रों को पत्र द्वारा सूचित करता है कि मेरे घर में गमी हो गई है। प्रकारांतर से प्रेमचंद परिवार नियोजन की आवश्यकता पर उस कालखण्ड में संकेत करते हैं। आलोचक डॉ सत्य प्रकाश मिश्र ने कहीं लिखा था कि बंगाल में टाटा द्वारा नैनो मोटर कारखाने के लिए अधिगृहीत की गई जमीन को लेकर किसानों की पीड़ा को लेखक ने आखिरी टुकड़ा’ (यह शेखर जी की कहानी है- सम्पादक) में 35 वर्ष पूर्व व्यक्त कर दिया था।           

[] आखिरी सवाल। गीतांजलि श्री के उपन्यास रेत समाधिको अन्तर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिला है। आपकी प्रतिक्रिया?

-          हिंदी की एक लेखिका को एक अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिला, इस बात का बहुत संतोष है। उस भारी भरकम उपन्यास को, मैंने उसका अंग्रेजी संस्करण देखा है, मेरी पोती ले आई थी, नेत्र विकार के कारण पढ़ने की हिम्मत नहीं हुई। मैंने उसका कथा सार और लेखिका और अनुवादिका के बारे में जानने की कोशिश की। बहुत अच्छा लगा कि अनुवादिका डेजी रॉकवेल पहले भी कई हिंदी उपन्यासों के अनुवाद कर चुकी हैं और स्वयं चित्रकार हैं, लेखिका हैं। अश्क जी की गिरती दीवारें’, भीष्म साहनी का तमसका उन्होंने अनुवाद किया है। जहां तक पुरस्कार की चयन समिति की रुचि का प्रश्न है, क्या तमस जैसे उपन्यास को अपने समय में ये पुरस्कार नहीं मिलना चाहिए था, जिस कोटि का वह है? पश्चिमी जगत में तो लोलिताजैसे  उपन्यास को भी उछाला जाता है। मैं ये नहीं कह रहा हूं कि गीतांजलि श्री के उपन्यास में कुछ असामाजिक बात होगी। उसमें एक अस्सी साल की बुढ़िया है, उसके पति की मृत्यु हो जाती है तो वह डिप्रेशन में चली जाती है। फिर उसकी मित्रता एक ट्रांसजेण्डर व्यक्ति से हो जाती है। फिर वो पाकिस्तान जाती है। पठनीयता की दृष्टि से बहुत रोचक होगी पुस्तक लेकिन जिन  मूल्यों के लिए हम साहित्य को देखते हैं, उसमें वह कहां तक खरी उतरती है, ये मैं कमेण्ट नहीं कर सकता, चूंकि मैंने पढ़ा नहीं उपन्यास। मैं चाहता हूं कि पुस्तक और सामाजिक स्वीकृति पाए।      

(इस बातचीत को और विस्तार से करने की योजना थी। तब 'आजकल' पत्रिका में स्थान की सीमा थी। कई सवाल छोड़ दिए थे, जिन्हें बाद में प्रस्तुत करूंगा। सोचा था कि जब वे लखनऊ आएंगे तो और भी सवालोंं पर बात की जाएगी और एक विस्तृत इण्टरव्यू हो जाएगा। उनके दिमाग में भी कई योजनाएं थीं लेकिन समय किसी को समय नहीं देता। उनका लखनऊ आना हो ही नहीं पाया। पुणे में कुछ ठीक हुए तो गाजियाबाद गए और वहां अचानक ही बीमार पड़ गए। फिर लखनऊ की बजाय यात्रा अनन्त की ओर चली गई। अब यादें ही बाकी हैं।)   

- नवीन जोशी  

Sunday, October 16, 2022

"हमने अपनी पारी पूरी ईमानदारी से खेली, कोई अफसोस न रहा"- शेखर जोशी

10 सितम्बर,1932 को ओलिया गांव (अल्मोड़ा, उत्तराखण्ड) में जन्मे शेखर जोशी को छोटी उम्र में ही मां के निधन के बाद सुदूर कीकर (राजस्थान) में मामा के पास जाना पड़ा था। पहाड़ों की सुरम्य गोद से सीधे मरुभूमि में जा पहुंचे बालक शेखर के भीतर पहाड़, प्रकृति और वहां के लोग अपनी सुंदर, मधुर लेकिन कठोर यथार्थ के साथ रचे-बसे रहे। कालांतर में वे आजीविका के क्रम में दिल्ली होते हुए इलाहाबाद पहुंचे। साहित्यिक संस्कार उन्हें बचपन में ही ननिहाल से मिल गए थे जो दिल्ली में न केवल विकसित हुए, बल्कि वहां होटल कर्मचारियों के संगठन के सम्पर्क में आने के बाद जीवन के यथार्थ और निम्न एवं मध्य वर्ग की जद्दोजहद से उनका सीधा साक्षात्कार हुआ। 1955 में जब वे इलाहाबाद के ईएमई कारखाने में तैनात हुए तो तब हिंदी साहित्य के सबसे सक्रिय, सचेत और समृद्ध इस शहर ने उनके भीतर के कहानीकार को पूरी तरह उत्प्रेरित कर दिया। उधर, कारखाने में दिन भर की कठिन नौकरी ने उन्हें श्रमिकों और कल-कारखानों की उस दुनिया से गहन रूप से जोड़ दिया जिसका कोई आत्मीय स्पर्श हिंदी कहानी को तब तक हुआ न था।

इस तरह पहाड़ और कारखाने, श्रमिक और निम्न-मध्य वर्ग का आत्मीय किंतु संघर्ष एवं अंतर्विरोधों से भरा संसार उनकी रचना-भूमि बना। पहाड़ के विविध पक्षों पर लिखने वाले उनसे पहले और बाद में भी कई साहित्यकार हुए, हालांकि उनका जैसा पहाड़ अन्य लेखकों की रचनाओं से अछूता ही रहा, लेकिन श्रमिकों और कारखानों के यथार्थ पर यादगार कहानियां लिखने वाले हिंदी में वे अकेले ही हुए। इन विषयों पर आज भी नहीं लिखा जा रहा या उल्लेखनीय कहानियां सामने नहीं आ रहीं। उस्ताद,’ ‘बदबू,’ ‘सीढ़ियांऔर मेण्टल जैसी कहानियां वे 1960 तक लिख चुके थे। आज छह दशकों से भी अधिक समय बीत जाने पर भी ये कथाएं न केवल याद की जाती हैं, बल्कि अक्सर उद्धृत की जाती हैं।

शेखर जोशी जी ने अपेक्षाकृत कम कहानियां लिखीं लेकिन सीधी-सरल भाषा, चमत्कारविहीन मौन-सी शैली और दमदार कथ्य ने उन्हें हिंदी कहानी के शिखर पर पहुंचाया। उपन्यास उन्होंने एक भी नहीं  लिखा। यदा-कदा कविताएं और संस्मरण अवश्य वे लिखते रहे। नब्बे वर्ष की उम्र में भी उनकी रचनात्मक सक्रियता जारी है। आंखों की असाध्य बीमारी के कारण पढ़ना अत्यंत कठिन हो गया है और लिखना कागज पर अंगुलियों के सहारे कलम घसीट कर ही हो पाता है। हाल में उनकी दो पुस्तकें, ‘मेरा ओलिया गांव’ (पहाड़ में बिताए बचपन की स्मृतियां) और पार्वती’ (कविता संग्रह) प्रकाशित हुए हैं। अपने वरिष्ठ साथी लेखकों के बारे में उनके संस्मरणों की एक किताब प्रकाशनाधीन है। स्मृति उनकी बहुत अच्छी है। विभिन्न जीवन प्रसंग ही नहीं, अपनी तथा प्रिय कवियों की कविताएं वे बिना अटके सुना जाते हैं।

यह बातचीत लखनऊ में जून-मध्य में होनी तय थी लेकिन कुछ स्वास्थ्य समस्या के कारण उन्हें पुणे में बेटी के पास ही रुक जाना पड़ा। फोन पर सुनने की समस्या थी इसलिए सवाल उन्हें लिखकर भेजे गए जिनके जवाब उनकी बेटी कृष्णा पंत ने फोन पर रिकॉर्ड करके लौटाए। इस प्रस्तुति में बराबर का श्रेय कृष्णा का भी है।  

[] कारखानों और श्रमिक वर्ग के जीवन के बारे में कहानियां लिखने की तरफ ध्यान कैसे गया?

-          जब मैं अक्टूबर 1955 में इलाहाबाद में पहली बार कहानी पत्रिका के सम्पादक श्री भैरव प्रसाद गुप्त से मिला, तब कहानीका वार्षिकांक प्रकाशित हो चुका था। कहानीके वार्षिकांक इतने महत्त्वपूर्ण होते थे कि इन विशेषांकों के लिए लेखक अपनी श्रेष्ठ कहानी रखे रहते थे। इन विशेषांकों के कारण कहानी विधा केंद्र में आ गई थी। तो, भैरव जी ने मुझसे कहा कि नया विशेषांक देख लिया हो तो अपनी पाठकीय प्रतिक्रिया भेजना। मैंने विस्तृत पत्र लिखा, अलग-अलग कहानियों पर, जो मुझे अच्छी लगी थीं, अपनी राय दी। फिर मैंने एक टिप्पणी ये की कि इस विशेषांक में जो कमी खलती है, वह ये कि लेखक जहां उच्च वर्ग के ड्राइंग रूम, मध्यम वर्ग की गृहस्थी, खेती-किसानी और निम्न वर्ग की झोपड़ियों तक पहुंच जाता है और वेश्याओं के कोठों में जाने में भी नहीं हिचकता, वहां एक वर्ग को वह छोड़ देता है। ये केवल इस विशेषांक की बात नहीं, हिंदी कथा साहित्य में इस वर्ग की अंतरंग कहानियां बिल्कुल नहीं। वह वर्ग है औद्योगिक क्षेत्रों में काम करने वाले कामगारों का, उस परिवेश का, उनकी बोली-बानी का और उनके आपसी व्यवहार का। भैरव जी बहुत स्पष्ट वक्ता थे। उन्होंने थोड़े ऊंचे स्वर में कहा- तुम दूसरों को बहुत नसीहत दे रहे हो। तुमने बताया कि चार साल तक हर तरह के कारीगर के साथ में तुमने ट्रेनिंग पीरियड में काम सीखा है। अब भी तुम दिन के आठ घण्टे उनके सम्पर्क में रहते हो। तो, तुम खुद क्यों नहीं लिखते इस बारे में? मुझे लगा कि भैरव जी बहुत सही बात कह रहे हैं। तब मैंने औद्योगिक जीवन की जो पहली कहानी लिखी उसका शीर्षक था- उस्ताद। तब तक जो स्थानीय मित्र हो गए थे, उन लोगों को सुनाई, दुष्यंत, मार्कण्डेय, कमलेश्वर, अमरकांत, वगैरह। उन लोगों को बहुत अच्छी लगी कहानी क्योंकि एक बिल्कुल नई दुनिया थी, नया परिवेश था, नई भाषा थी।

 

 

उसी बीच में उपेंद्रनाथ अश्क द्वारा सम्पादित साहित्य संकलन संकेतमें मेरी दाज्यूकहानी छपी थी। अमृत राय जी ने वह कहानी पढ़ी होगी। उन्होंने भी बाल्कृष्ण राव जी के साथ मिलकर हंसका एक साहित्य संकलन निकालने की योजना बनाई थी। उनके आग्रह पर मैंने उत्साह में अपनी उस्तादकहानी उनको भेज दी। फिर मैं गांव चला गया। कुछ दिन बाद गांव में ही मुझे अमृत राय जी का पत्र मिला। आप दाद देंगे अमृत राय जी के साहित्य विवेक की और उनकी सम्पादकीय पारखी दृष्टि की कि, उन्होंने मुझे लिखा था कि शेखर, तुम्हारी कहानी पढ़ी, अच्छी है लेकिन मैं तुमसे उससे भी अच्छी कहानी की अपेक्षा करता हूं। मुझे बुरा नहीं लगा, बल्कि मुझमें एक प्रेरणा जैसी जगी कि देखो कोई सम्पादक मुझसे और अच्छी कहानी की अपेक्षा कर रहा है। मैंने गांव में ही बैठकर एक कहानी पूरी की जिसका शीर्षक बदबूथा और अमृत राय जी को भेज दी। हफ्ते भर के अंदर अमृत राय जी का छोटा-सा पत्र आया कि शेखर अच्छी कहानी के लिए बधाई। इसे प्रेस में दे दिया है। तो, इस तरह से इस क्षेत्र की कहानियों को लिखने की मेरी शुरुआत हुई।

[] वह आक्रामक ट्रेड यूनियन और श्रम नीतियों के विरुद्ध असंतोष का दौर भी था। यह पक्ष कहानीकारों  से क्यों छूटा, जबकि किसानों और गांवों के बारे में काफी लिखा जा रहा था?

-          जहां तक मैं समझता हूं, इसका कारण यह था कि जो वर्ग लेखन की ओर प्रवृत्त हो रहा था उसका कल-कारखानों के लोगों से आपसी सम्पर्क बिल्कुल नहीं था। अगर वो किसानों के बारे में, गांव के बारे में, खेती के बारे में लिख रहे थे तो वह भी शहर में रहने के बाद उस नॉस्टेल्जिया को रिपीट कर रहे थे जो उन्होंने अपने गांवों में रहते हुए देखा था। दूसरा, ऐसा नहीं है कि हड़ताल, वगैरह के बारे में लिखा नहीं जा रहा था लेकिन एक सतही तौर पर लाल झण्डा दिखा के, इंकलाब जिंदाबाद करते हुए। आपको याद होगा कि भीष्म (साहनी) जी की कहानी भाग्य रेखामें ज्योतिषी को हाथ दिखा रहा है कोई आदमी और ज्योतिषी उसके बारे में काफी नकारात्मक बातें बता रहा है। तभी सामने से एक जुलूस निकल रहा है श्रमिकों का और नारेबाजी हो रही है। तो, जो आदमी हाथ दिखवा रहा है, वह ज्योतिषी से कहता है, जरा फिर से देखो। तो, सांकेतिक रूप में लेखक की श्रमिकों के प्रति पक्षधरता दिखती है लेकिन जो मैं कहना चाह रहा था वो ये कि फैक्ट्री के अंदर का माहौल, वहां की बोली-बानी, काम करने के तौर-तरीके, ईर्ष्या-द्वेष, ये चीजें नहीं आ रही थीं, चूंकि सम्पर्क नहीं था कोई। मेरा सौभाग्य यह था कि मैं परिस्थितियोंवश उस तरह की जिंदगी में शामिल हो गया था।     

[] कुछ आलोचकों ने लिखा कि आपकी कहानियों के श्रमिक आंदोलन नहीं करते, हड़ताल नहीं करते, ट्रेड यूनियन का जिक्र बहुत कम होता है, मालिकों और पूंजीपतियों से टकराव के प्रसंग नहीं आते। आप क्या कहेंगे?

-          दो तरह के समीक्षक होते हैं। एक, जो लाउड कथन के पक्षधर होते हैं और उनको ऐसा लगता है कि पाठक इतना जागरूक नहीं है कि अंडरटोन में लिखी गई कहानियों को समझ सके। और, मेरा मानना ये था कि बिना बहुत लाउड हुए जो शोषण हो रहा है, जो संघर्ष हो रहा है, जो जय-पराजय हो रही है, उसको मैं चित्रित कर सकूं। तो, हो सकता है कि कुछ लोगों का ऐसा सोचना हो कि मैं बहुत वोकल नहीं हूं। और, मैं होना भी नहीं चाहता था क्योंकि मैं बहुत ही अण्डरटोन में बात करके अपने कथ्य को सम्प्रेषित करना चाहता था।

[] आपके बाद भी इस तरह की कहानियां नहीं या बहुत कम लिखी गईं। आज तो श्रमिकों का हाल किसानों से भी बुरा है, फिर भी कथाकार उस बारे में लगभग नहीं लिख पा रहे। आपको क्या कारण लगते हैं?

-          मेरे बाद (श्रम जगत के बारे में) लिखने वालों में दो प्रमुख नाम हैं, एक इजराइल और दूसरे सतीश जमाली। इन दोनों का सम्पर्क औद्योगिक परिवेश से रहा या वे वहां के कारीगरों के सम्पर्क में रहे। इजराइल तो पार्टी वर्कर थे और ट्रेड यूनियनों से भी जुड़े रहते थे। उन्होंने इस परिवेश की कहानियां लिखीं। सतीश जमाली खुद फैक्ट्री में काम करते थे। वैसे अनुभव थे उनके तो उन्होंने वैसी कहानियां लिखीं। शायद जयनंदन ने भी ऐसी कुछ कहानियां लिखीं। शकील सिद्दीकी एचएएल फैक्ट्री में काम करते थे। उनकी रचनाओं में भी यह परिवेश अंकित है। मूल कारण यही है कि लेखकों का इस क्षेत्र से सीधा सम्पर्क नहीं रहा या बहुत कम रहा।

[] आपकी कहानियों का जो क्राफ्ट है, सीधा, सरल, बहुत कम कहने और अधिक असर डालने वाला, व्यंग्य का पुट लिए हुए, वह आपने सायास अपनाया या आपके व्यक्तित्व और स्वभाव से वह निकला?

-          आप भी अनुभव करते होंगे कि हमारे पहाड़ी ग्रामीण जीवन में जो आपसी वार्तालाप होते हैं, उसकी एक अपनी तरह की शैली होती है। उसमें व्यंग्य भी होता है, मितकथन भी होता है और कहावतों के माध्यम से बात कही जाती है। आपने पढ़ी होगी मेरी किस्सागोकहानी, उसमें इस तरह का वातावरण है। तो, यह मुझे अपने संस्कारों से मिला है। दूसरा यह है कि मैंने बहुत अकादमिक पढ़ाई नहीं की है लेकिन स्वाध्याय से मैंने बहुत अच्छा साहित्य, देसी-विदेशी, पढ़ने का और समझने का और उसके क्राफ्ट को जानने का प्रयत्न किया है। तो, जो ये मेरा विवेक है वह बहुत कुछ मेरे अपने अध्ययन से और मेरे जीवन के अनुभवों से आया है।   

[] आप कैसे लिखते हैं यानी कई ड्राफ्ट बनाते हैं या मन ही मन लिखकर फाइनल करते हैं? एक कहानी आम तौर पर कितनी बैठकों में पूरी होती थी?

-          जब मैं किसी विषय पर लिखना चाहता हूं तो मानसिक रूप से मैं उसको गूंथता हूं और उसमें क्या बढ़ाना है, क्या घटाना है, यह सब मैं अपनी कल्पना में सोचे रहता हूं। तो, प्राय: मैंने अपनी कहानियां एक ही सिटिंग में पूरी की हैं क्योंकि बहुत लम्बी कहानियां नहीं हैं मेरी। जो सबसे अधिक समय लेने वाली कहानी थी, वह 'कोसी का घटवार' थी जो मैंने दो या ढाई दिन की बैठक के बाद पूरी की थी। मेरा लिखने का एक और तरीका था, कहानी लिखने से पहले बहुत सारे कविता संकलन पास में रखता था और उन कविता संकलनों को, अपने प्रिय कवियों को पढ़ता था। उसके बाद मैं गद्य की ओर अग्रसर होता था। तो, इससे पता नहीं कैसे मेरे दिमाग में एक ऊर्जा होती थी।  

[] आप दिल्ली में कुछ वर्ष रहकर इलाहाबाद आए। उस दौर में दोनों शहरों के साहित्यिक माहौल में क्या फर्क था? इलाहाबाद के माहौल के बारे में बताइए, जो तब हिंदी साहित्य का सबसे बड़ा केंद्र था।

-          मेरा दिल्ली का पहला प्रवास सन 1951 से लेकर 55 तक रहा। तब वहां की जो साहित्यिक गतिविधियां थीं, बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं थीं। जो बड़े लेखक थे, जैसे जैनेंद्र जी, मैथिलीशरण गुप्त थे, रामधारी सिंह दिनकर थे, ये लोग ज्यादा मिक्स-अप नहीं होते थे। जैनेंद्र जी के घर में शनिवार समाजकी साहित्यिक मीटिंगें होती जरूर थीं। बाद में दिल्ली जो साहित्य का केंद्र बनी वह अज्ञेय जी, श्री नरेश मेहता, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा जैसे कवियों और निर्मल वर्मा, रामकुमार, भीष्म साहनी जैसे कहानीकारों के कारण बनी। गीतकार कवियों का वर्चस्व था जो कि कवि सम्मेलनों में, कवि गोष्ठियों में सस्वर पाठ करते थे। गोपाल प्रसाद व्यास जैसे हास्य-कवि थे और लोगों को काफी हंसने-हंसाने का मौका मिलता था। उन लोगों की संगत के कारण मैंने भी कुछ कविताएं लिखी थीं लेकिन मेरी कविताएं कुछ भिन्न होती थीं। उसमें एक कथातत्व रहता था जैसे- मैं मंदिर में जाता हूं/ उस ईश्वर को शीश नवाने जो पत्थर का गुमसुम बुत है/ कृपण कृपा से धनवानों की/ धाम बना जिसका अद्भुत है/ मैं जाता हूं याचक बनकर/ वैभव पूर्ण जीवन पाने / मैं जाता सौदागर बनकर/ चांदी के सिक्कों के बदले अपने पापों का भुगतान चुकाने...। तो, गीतकारों की प्रेम कविताओं से हटके इन कविताओं को लोग खूब पसंद करते थे और तालियां देते थे। अगर मैं दिल्ली में ही रह जाता तो तालियां ही बटोरता रह जाता।

 

मेरा सौभाग्य था कि जब हमारी ट्रेनिंग खत्म हुई तो पता चला कि मेरे ट्रेड के चार लोगों के लिए इलाहाबाद में वेकेंसी है। मेरा मुख्य उद्देश्य था कि इस साहित्यिक शहर में पहुंचकर कुछ सीखना, कुछ पढ़ना। राजनीतिक रूप से भी वह जागृत शहर था। इलाहाबाद आना इतना शुभ हुआ...। पर्वतीय जन विकास समिति नाम की हमारी सांस्कृतिक संस्था दिल्ली में थी, उसके बुलेटिन के वार्षिकांक के लिए नंद किशोर नौटियाल ने, जो सम्पादक मण्डल में प्रमुख थे, कहा था- शेखर तुम कहानियां लिखते हो, तो ऐसी कहानी लिखो जिसमें नायक होटल में काम करता हो। तो, मैंने दाज्यूकहानी लिखी थी। जब मैं इलाहाबाद पहुंचा तो एक दिन भैरव जी के कमरे में अचानक कमलेश्वर भी आ गए, जो साहित्यिकीका संयोजन करते थे, जो प्रगतिशील साहित्यकारों की गोष्ठी होती थी। भैरव जी ने उनसे कहा कि ये भी कहानीकार हैं, इनकी कहानी भी तुम एजेण्डे में रखो। तो, अगले महीने कमलेश्वर ने मेरी का कहानी का पाठ रखा। श्रीपत जी के घर पर, ड्रमंड रोड में, बहुत बड़ी मीटिंग थी, हिंदी और उर्दू के लोगों की सम्मिलित रूप से। वहां मैंने डरते-डरते दाज्यूकहानी का पाठ किया। और, ‘दाज्यू कहानी को लोगों ने इतना सराहा कि अश्क जी ने कमलेश्वर से कहा कि ले लो। मैं समझा नहीं और कमलेश्वर ने पाण्डुलिपि मेरे हाथ से ले ली। बाद में पता चला कि अश्क जी एक साहित्यिक संकलन संकेतनिकाल रहे हैं, उसमें वह कहानी देंगे। तो, संकेत में भी 'दाज्यू' कहानी छपी और खूब चर्चित हुई। उसके बाद फिर अमृत राय जी और बाल कृष्ण राव, जो सी वाई चिंतामणि जी के सुपुत्र और आईसीएस अधिकारी थे, इस्तीफा देकर स्वतंत्र लेखन के लिए इलाहाबाद में बस गए थे, उनके संयुक्त सम्पादन में हंसका भी एक साहित्यिक संकलन निकलने वाला था। जैसा कि पहले बता चुका हूं, उसके लिए बदबू लिखी। उसके बाद तो सिलसिला चल निकला। कहानीपत्रिका के माध्यम से भैरव जी ने मुझसे तगादा कर-कर के कहानियां लिखवाईं। अगले विशेषांक में उस्तादछपी। उसके अगले विशेषांक में कोसी का घटवारछपी। तो, इस तरह से मुझे ऐसी जगह मिली जहां अपने अग्रजों से और फिर अपने समकालीनों से बहुत कुछ सीखने का मौका मिला।

 

एक बहुत अच्छा संयोग यह हुआ कि व्हीलर बुक स्टाल के मालिक, सम्भवत: अनुकूल बनर्जी,  ने, स्टाल में रखे-रखे जो किताबें खराब हो जाती थीं, पुरानी पड़ जाती थीं, उनका एक विक्रय केंद्र सिविल लाइंस में रखा। महीने में एक बार स्टॉक आता था। जैसे ही स्टॉक आता था, साहित्यिक रुचि के विद्यार्थी, प्रोफेसरान, लेखक टूट पड़ते थे। मैंने सस्ते दामों पर जॉन स्टेनबैक की पूरी श्रृंखला, काफ्का की 'द कैसल', और भी बहुत सी किताबें वहीं से लेकर पढ़ीं। उन दिनों मास्को से जो साहित्य आता था, अनूदित साहित्य, मुख्य रूप से सोवियत यूनियन की भाषाओं का, बहुत सस्ते में वो किताबें मिलती थीं। उसके दो सेण्टर थे- एक, यूनिवर्सिटी रोड पर और एक जॉनस्टनगंज में। मास्को से प्रकाशित पुस्तकों में चेखव, तुर्गनेव, मैक्सिम गोर्की, आस्त्रोवस्की, चंगेज आइत्मातोव के उपन्यास, माइकोवस्की, नाजिम हिकमत और निकोला वाप्सरोव की कविताएं पढ़ने का सुयोग मिला। इससे कुछ वर्ष पहले नेमिचंद्र जैन ने सिविल लाइन्स में  आधुनिक पुस्तक भण्डारखोलकर लोगों में अच्छी, सार्थक साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने की नींव डाली थी। हम लोग आपस में बातें करते थे, जो अग्रज लोग हैं उनकी बातें सुनते थे, इससे अच्छी समझ बनती थी। तो, इस तरह इलाहाबाद का माहौल था। निराला जी हालांकि बहुत स्वस्थ नहीं थे, लेकिन वहां थे। महादेवी जी थीं, पंत जी थे, फिराक साब थे और अमृत राय, भैरव प्रसाद गुप्त, उपेंद्र नाथ अश्क, शमशेर बहादुर सिंह और परिमल ग्रुप में जगदीश गुप, जयदेव नारायण साही, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लक्ष्मीकांत वर्मा। नए लेखकों में दुष्यंत, मार्कण्डेय, कमलेश्वर, अमरकांत भी आ गए थे, ज्ञान प्रकाश, उमाकांत मालवीय... तो, ऐसा गहमागहमी का माहौल रहता था। शनीचरी ग्रुपकहलाता था हमारा, शनिवार को नियमित रूप से मिलते थे। परिमल ग्रुप के लोग भी अक्सर, और शनिवार को तो जरूर ही कॉफी हाउस आते थे। अलग-अलग टेबल्स में बैठते थे। तो, पूरा शहर साहित्यिक माहौल में रंगा हुआ था। बहुत अच्छी फिल्में पैलेसथिएटर में, जो फीरोज गांधी के चाचा जी का था, इतवार को दिखाई जाती थीं। हमने बहुत सी बांग्ला पिक्चरें, अंग्रेजी पिक्चरें, और हिंदी की भी क्लासिक पिक्चरें पैलेसथिएटर में ही देखीं। नाटक भी अक्सर होते रहते थे। फिर, काम करते हुए ट्रेड यूनियन में सम्पर्क हुआ और मैं अपनी ब्रांच का सेक्रेट्री बना। तो, सारे शहर की ट्रेड यूनियनों से सम्पर्क होने लगा। उसका भी बहुत कुछ असर रहा। तो, ये सब प्रेरक चीजें थीं इलाहाबाद में। और, जो साहित्यिक लोगों के आपसी सम्बंध होते थे वो इतने मधुर होते थे, इतने आत्मीय कि मुझे याद है कि सन साठ (1960) में हमारी शादी हुई थी और उसी वर्ष संस्कृत के विद्वान कमलेश दत्त त्रिपाठी जी की भी शादी हुई और एक और सज्जन की भी, जो कि श्रीकृष्ण दास जी की बहन के पुत्र थे। श्रीकृष्ण दास जी बहुत बड़े साहित्यिक पत्रकार थे। तो, उनके घर में तीनों जोड़ों को बुलाया गया और कल्पना कीजिए कि कोई रिश्तेदारी नहीं, कोई कुछ नहीं, लेकिन निस्संतान श्रीकृष्णदास जी ने और सरोज भाभी ने तीनों बहुओं की गोद भरी, अक्षत और हल्दी से और सबको एक-एक साड़ी दी। तो, ये कहां मिलता! प्रकाश चंद्र गुप्त जी, जो कि बहुत बड़े आलोचक थे, प्रोफेसर थे अंग्रेजी के, हेड ऑफ डिपार्ट्मनेट थे। उनकी पत्नी बहुत ही स्नेहिल थीं। उन्होंने हम पति-पत्नी को खाने के लिए बुलाया। मेरी पत्नी बिंदास किस्म की थीं। जो चीज अच्छी लगी, खूब मन से खा रही थीं, तो मैंने इशारे से उनको टोका। मिसेज गुप्ता ने डांटकर कहा- शेखर, मैं देख रही हूं, बहू को खाने दो ढंग से। तो, अब सोचिए कि ये माहौल, ये आत्मीयता कैसे संस्कार दे गई हम लोगों को! अश्क जी के घर में हम लोगों की बैठकी होती थी और अश्क जी हर नए लेखक से उसकी रचना सुनके सोचते थे कि वो भी उस तरह की चीज लिखें। बहुत ज़िंदादिल आदमी थे। ... ऐसा वातावरण था...। मासिक गोष्ठियां होती थीं और उनमें ऐसी खिंचाई होती थी कि रचना के रेशे-रेशे को तार-तार किया जाता था। लेकिन कोई दुर्भावना नहीं होती थी। साहित्यिक विवेक उससे जागता था। तो, वह स्वर्ण युग था इलाहाबाद का।                     

[] परिमल और प्रगतिशील खेमों के रिश्तों पर कुछ बताइए।

-          प्रगतिशील और परिमल खेमों में जो प्रमुख विभाजन था, वो वैचारिक था। प्रगतिशील खेमे वाले मार्क्सवादी दृष्टिकोण के होते थे और परिमल वाले प्राय: या प्रच्छन्न रूप से मार्क्सवाद के विरोध में। अधिकांश लोग उसमें से लोहियावादी थे। और, दूसरा फर्क शिल्प के बारे में था कि उनका रुझान कलावादी होता था। प्रगतिशील लोग सामान्य जन से जुड़ने के लिए एक तरह की आमफहम भाषा और सीधे-सरल कथ्य को प्रीफरेंस देते थे। कुछ ऐसी संस्थाएं थीं जो कि परिमल वालों को बहुत प्रश्रय देती थीं। जैसे, शीतयुद्ध के जमाने में अमेरिका की मॉरल रिआर्मामेंट नाम की संस्था थी, उसका वरदहस्त इनके ऊपर रहता था। प्रगतिशीलों के बारे में लोगों को एक भ्रम था कि इनको रूस जो है, वो प्रश्रय देता है, और आर्थिक रूप से भी। जो कृतियां साहित्यिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होती थीं उसको दोनों पक्ष आदर की दृष्टि से देखते थे।

 

'परिमलमें नए लेखकों को अपनी ओर आकर्षित करने का बड़ा आग्रह रहता था। जब मैंने 'दाज्यू' कहानी पढ़ी और उसकी चर्चा हुई तो 'परिमल' की ओर से मुझे अपनी ओर खींचने की कोशिश हुई। जगदीश गुप्त, जो 'नई कवितानिकालते थे, उसमें लक्ष्मीकांत जी ने मुझसे कविताएं लेकर छापीं। धर्मवीर भारती ने अपनी पत्रिका निकषमें मेरी कहानी नरु का निर्णयप्रकाशित की। लेकिन हमारा दिल्ली से रंग कुछ दूसरा बदल गया था, इसलिए 'परिमल' की ओर उतना आकर्षित नहीं हुए। कोशिश ये रहती थी मेरी कि चाहे वो प्रगतिशील खेमे का हो, चाहे परिमल खेमे का, अगर कोई रचना अच्छी है तो उसे बिना किसी पूर्वग्रह के पढ़ा जाय और मैंने एक मीटिंग में हिंदी साहित्य सम्मेलन में ये बात कही थी कि हम बहुत सी चीजों को पढ़ने से वंचित रह गए पूर्वग्रह के कारण और दूसरे खेमे के लोग भी वंचित रह गए होंगे।     

[] इलाहाबाद में 1957 में हुए लेखक सम्मेलन के बारे में बताइए कि क्या उद्देश्य था, कितनी भागीदारी थी, उसका क्या प्रभाव पड़ा?

-          दिसम्बर 1957 में तीन दिन का एक अखिल भारतीय अभूतपूर्व सम्मेलन हुआ था। इसका आयोजन इलाहाबाद के प्रगतिशील लेखकों ने किया और बनारस से आयोजन समिति में जुड़े डॉ नामवर सिंह और केदारनाथ सिंह। आमंत्रित लेखकों को सूचित कर दिया गया था कि हम आपके आवास की व्यवस्था नहीं कर पाएंगे। भोजन की व्यवस्था अवश्य हम करेंगे। बहुत बड़ी संख्या में लोग अपने खर्चे पर अपने आवास की व्यवस्था करके, मित्रों के यहां, इधर-उधर, सम्मिलित हुए थे। तब नए कवि के रूप में श्रीकांत वर्मा, मुक्तिबोध जी के साथ आए थे। मोहन राकेश, राजेंद्र यादव, कमलेश्वर, मार्कण्डेय, शिवप्रसाद सिंह और बनारस से बहुत से नए विद्यार्थी और साहित्य में रुचि रखने वाले शामिल थे। सम्मेलन का उद्घाटन एनी बेसेण्ट हाल में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने किया था। उसके बाद संगीत समिति के विभिन्न कक्षों में विभिन्न विधाओं के रचनाकारों की बैठकें हुई थीं। जैसे, कहानी विधा पर गोष्ठी की सदारत यशपाल जी ने की थी। कवियों की गोष्ठी अलग हुई थी। नाटक वालों की गोष्ठी अलग हुई, आलोचना वालों की अलग। इसके प्रमुख सूत्रधार अमृत राय थे। उनमें बड़ी संगठन क्षमता थी और उनका साहित्यकारों के बीच में सम्मान था.. उन्होंने ही तय किया कि किस-किस को आलेख भेजने के लिए लिखना है, निमंत्रण तो सभी को भेजा गया था। गोष्ठी का विषय था स्वाधीन भारत और साहित्यकार। उसका परिपत्र भी अमृत जी ने ही ड्राफ्ट किया था। आयोजन समिति में बारह लेखकों का उल्लेख था जिनमें प्रकाश चंद्र गुप्त, भैरव प्रसाद गुप्त, अमृत राय, बनारस से नामवर जी, केदारनाथ सिंह, मार्कण्डेय, अमरकांत, कमलेश्वर, शेखर जोशीएक-दो नाम भूल रहा हूं। अश्क जी तब वहां नहीं थे, इतना मुझे याद है। हो सकता है कि शमशेर जी का नाम रहा हो, श्रीकृष्ण दास जी और श्रीपत राय जी का नाम रहा हो। इतना बढ़िया सम्मेलन हुआ था कि कोई चण्डीगढ़ से आ रहा है, कोई कहीं से, अपनी व्यवस्था करके। कुछ उसमें विनोद पक्ष भी रहा। जैसे, बाहर बातचीत के दौरान विद्यासागर नौटियाल ने कहा कि मैं यशपाल जी से पूंछुंगा कि आपने पर्वतीय नारी को लेकर इस तरह की (खराब धारणा वाली) कहानियां क्यों लिखीं लेकिन गोष्ठी में वे चुप रहे। उधर, संस्कृत के विद्वान वाचस्पति गैरोला जी, जिनका हिंदी साहित्य से कोई लेन-देन नहीं था, अचानक उठ खड़े हुए और उन्होंने कहा कि अध्यक्ष महोदय, आपने पर्वतीय नारी की मान-मर्यादा के विरोध में कहानियां क्यों लिखीं? यशपाल जी भौंचक्के रह गए। सवाल उठाने के बाद गैरोला जी वहां से गायब हो गए थे। तो, अध्यक्षीय भाषण में यशपाल जी ने कहा कि एक सज्जन ने अभी मुझसे कुछ प्रश्न पूछा था, तो कुछ चीजें ऐसी हैं जो मैंने प्रत्यक्ष देखीं हैं और मैंने उनका वर्णन कर दिया, वगैरह। एक चुटकुलेबाजी रही ग्राम-कथा को लेकर। शिवप्रसाद सिंह और मार्कण्डेय ग्राम-कथा वाले लोग थे। कुछ शहरी कथा वाले लोग हो गए। तो, ग्राम कथा बनाम शहरी कथा की बात हो गई। तब कमलेश्वर ने कहा कि कस्बे की कथा भी है। वो मैनपुरी कस्बे के थे। तो, ये विनोद पक्ष रहा।

 

हमारी बड़ी उपलब्धि ये रही कि मुक्तिबोध जो शमशेर जी के यहां टिके हुए थे, हम सब नए लेखक रात में उनके पास पहुंचे और उनसे कविताएं सुनाने के लिए कहा। तब उनकी अंधेरे मेंकविता नहीं लिखी गई थी, शायद ब्रह्मराक्षससुनाई थी। उनका जो चित्र बीड़ी फूंकते हुए बहुत प्रकाशित होता है, वह प्रत्यक्ष देखा हमने। उनका कविता पाठ अपने-आप में इतना स्पष्ट था कि कहीं कोई समझने में अड़चन नहीं आई। नहीं तो पढ़ते हुए मुक्तिबोध को थोड़ी कठिनाई होती थी। अद्भुत था वो...। मुझे जिम्मेदारी दी गई थी कि मैं कवि गोष्ठी का संचालन करूं। मेरे लिए यह बड़ी समस्या थी, नया-नया साहित्य के क्षेत्र में आया था। तो, मैंने नागार्जुन जी, जो पटना में थे, उनको पत्र  लिखा। नागार्जुन जी का तत्काल उत्तर आया कि अभी रात के बारह बजे हैं, मैं विद्यापति  समारोह से लौटा हूं। मैं आऊंगा, जरूर आऊंगा। वो आए और मैंने कवि गोष्ठी के संचालन का भार जो है उनको सम्भला दिया। दुष्यंत मुरादाबाद में थे, नहीं आ पाए। उन्होंने कहा था कि प्रयोगवादियों और गीतकारों को एक साथ मत मिलाना। तो, इस तरह से हम लोगों की भागीदारी रही और खूब आनन्द आया। जो बनारस से ग्रुप आया था, विश्वनाथ त्रिपाठी, अक्षोभ्येश्वरी प्रताप, विजय मोहन, विद्यासागर नौटियाल, ये सब हम लोगों के समकालीन थे, तो खूब हंसी-मजाक, साहित्यिक चर्चा होती थी। कोशिश ये रही कि जो आलेख आए हैं उनका भी प्रकाशन किया जाए लेकिन फिर सम्भव नहीं हुआ। नंद दुलारे बाजपेई जी सागर यूनिवर्सिटी में हेड ऑफ डिपार्टमेण्ट थे। वे आ नहीं पाए लेकिन सागर से यूनिवर्सिटी के छात्र और समवेतपत्रिका के युवा सम्पादक अशोक बाजपेई आए थे। वे बहुत प्रसन्न हुए थे कि उनको बुलाया गया। तो, वह एक ऐतिहासिक सम्मेलन था। प्रगतिशीलों के इस आयोजन में परिमल वालों ने भी पूरी तरह से सहयोग दिया और भाग लिया था।

(शेखर जी से यह बातचीत 'आजकल' पत्रिका के सितम्बर अंक के लिए की गई थी, जो उन्हीं पर केंद्रित था। 10 सितम्बर को उन्होंने 90 वर्ष पूरे करके 91 वें प्रवेश किया लेकिन फिर वे अचानक बीमार पड़े और चार अक्टूबर को गाजियाबाद में उनका देहंत हो गया। इस बातचीत का एक भाग 'आजकल' के अक्टूबर अंक में और बाकी बाह नवम्बर अंक में प्रकाशित हुआ। यहां भी इसे दो किस्तों में दिया जा रहा है। बाकी कल)

-नवीन जोशी

Friday, October 14, 2022

मण्डल-पश्चात राजनीति के प्रमुख नायक मुलायम सिंह यादव

 

राममनोहर लोहिया के सहयोगी और 1962 में जसवंतनगर सीट से विधान सभा का चुनाव लड़ चुके नत्थू सिंह ने एक बार मैनपुरी के एक दंगल में मुलायम सिंह यादव को कुश्ती लड़ते देखा। कुश्ती वे अच्छी लड़ते थे और इलाके के चैम्पियन थे। पता नहीं नत्थू सिंह ने मुलायम के कुश्ती के दांव-पेंचों में क्या देखा, लेकिन लोहिया से कहकर उन्हें 1967 में इटावा की जसवंतनगर सीट से प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का टिकट दिलवा दिया। उस चुनाव में मुलायम जीते और विधान सभा में सबसे कम उम्र के विधायक (28 साल) बने। यहां से मुलायम सिंह यादव ने लोहिया के नेतृत्व में समाजवाद की राह पकड़ी। गैर-कांग्रेसवाद का नारा देने वाले लोहिया से वे पहले से प्रभावित थे। 1967 का साल चुनाव कुछ राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनने का साल था। उत्तर प्रदेश में संविद’ (संयुक्त विधायक दल) की जो सरकार बनी उसमें भारतीय जनसंघ (आज की भाजपा का पूर्व अवतार) भी था और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी। लोहिया की प्रसपा और अन्य दल तो थे ही। गैर-कांग्रेसवाद के जोश में जनसंघ का साथ लेने की यह रणनीति लोहिया का प्रयोग ही नहीं, मुलायम सिंह की राजनीतिक पाठशाला का भी प्रस्थान बिंदु भी बनी।1975 के क्रूर आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी यानी कांग्रेस (इं) को हराने के लिए बनी रणनीति में यही विरोधाभासों से भरी रणनीति जयप्रकाश नारायण ने अपनाई। मुलायम तब भी उस जनता पार्टी के साथ थे जिसमें जनसंघ भी बराबर की हिस्सेदार थी। 1967 और 1977 के गैर-कांग्रेसी राजनीति के प्रयोग जनसंघ के कारण ही बहुत शीघ्र विफल हुए और कांग्रेस सत्ता में वापस लौटी थी।

लोहिया के निधन के बाद मुलायम ने किसानों के पक्षधर बड़े नेता चरण सिंह को अपना गुरु बनाया लेकिन वह रास्ता दूर तक नहीं जा सका। जनता पार्टी की टूट के दौरान और उसके कुछ समय बाद तक वे चंद्रशेखर (सजपा) के साथ रहे। इस बीच उत्तर प्रदेश की राजनीति में वे अपना दम-खम दिखा चुके थे। 1989-91 के 'जनमोर्चा' और 'जनता दल' जैसे प्रयोगों तथा उनकी अस्थिर सरकारों के पतन के बाद जब अंतत: जनता पार्टी टूटी। उसके बाद 1992 में मुलायम सिंह यादव ने अपनी 'समाजवादी पार्टी' का गठन किया, जिसने कालांतर में उत्तर प्रदेश की राजनीति में काफी उथल-पुथल मचाई। यह पिछड़ी जातियों को 27 फीसदी आरक्षण देने वाली मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद समाज और राजनीति के पूरी तरह बदलने का दौर था। कांशीराम के अथक प्रयासों से 1984 से राजनीतिक पार्टी के रूप में उभर रही बहुजन समाज पार्टी के भी ताकतवर होने का यही समय था। जेपी आंदोलन से चमके लालू यादव और नितीश कुमार बिहार की राजनीति में छाने लगे थे। कांग्रेस की जमीन दरकने लगी थी। हिंदूवादी राजनीति को चमकाने की कोशिश में, 'जनसंघ' का नया अवतार 'भाजपा' अपने लिए जमीन तलाश कर रही थी। 'मंडल' से परेशान कांग्रेस को नया आधार देने की कोशिश या गफलत में राजीव गांधी ने अयोध्या से 'मंदिर तुरुप' क्या खेला, भाजपा के हाथ में वह इक्का आ पड़ा जिसने राजनैतिक-सामाजिक समीकरणों की बाजी ही पलट दी और इस देश के ताने-बाने को बहुत गहराई तक तार-तार करना शुरू कर दिया था। यह कांग्रेस के पटरी से उतरते जाने की शुरुआत भी थी।1989 के बाद से आज तक वह यूपी की सत्ता के बाहर बनी हुई है।

जिस गैर-कांग्रेसवाद के सिद्धांत से मुलायम की राजनीति शुरू हुई थी, उसकी धीरे-धीरे जरूरत ही खत्म होती गई। उनके सामने प्रदेश में बसपा के अलावा भाजपा भी खड़ी हो गई थी। बसपा से वे हाथ मिला  सकते थे, मिलाया भी और लड़े भी, लेकिन भाजपा-विरोध उनकी राजनीति का मुख्य केंद्र बिंदु बनता गया। 1992 के बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद कांग्रेस से पूरी तरह दूर चले गए मुसलमानों को अपनी पार्टी का पूरा संरक्षण देने में मुलायम ने देर नहीं की। यादव-मुस्लिम वोट बैंक उनकी ताकत बना। उत्तर-प्रदेश के 18-19 प्रतिशत मुसलमानों को अपना वोट बैंक बनाए रखने के लिए मुलायम ने हर पैंतरा चला और कई बार सीमाएं भी पार कीं। 'मौलाना मुलायम' का तमगा पाकर वे प्रसन्न ही हुए। यह अलग बात है कि इस प्रयास में वे भाजपा को फलने-फूलने के लिए पूरा खाद-पानी देते रहे। वे जितना ही मुसलमानों के सरपरस्त होते गए, भाजपा को 'तुष्टीकरण' के बहाने हिंदू-ध्रुवीकरण का पूरा अवसर मिलता गया। इसी कारण एक दशक का दौर यूपी में ऐसा रहा जब भाजपा और सपा में शी-शॉ जैसा खेल चला रहा। दोनों एक-दूसरे को पछाड़ने के नाम पर उभरने का अवसर ही दे रहे थे। बीच-बीच में बसपा दोनों का खेल बिगाड़ती या बनाती रही। लालू यादव भी बिहार में ऐसी ही यादव-मुस्लिम राजनीति करते रहे। वहां बसपा जैसी तीसरी ताकत न होने से दलितों के वोट बैंक पर भी उनका एकाधिकार बना रहा।

लालू और मुलायम दोनों भाजपा विरोधी राजनीति के केंद्र में बने रहे। भाजपा का उभार उत्तर भारत से हो रहा था और पिछड़ी जातियों एवं अल्पसंख्यकों के सरपरस्त बने ये दोनों क्षत्रप उसका मुकाबला करने को डटे थे। कांग्रेस उत्तर प्रदेश और बिहार में लगातार कमजोर होती गई। इस तरह भाजपा-विरोधी जो राजनैतिक स्पेश बन गया था, उस पर काबिज होने के लिए दोनों में प्रतिद्वंद्विता भी चलती थी। लालू ने तब बाजी मार ली थी जब आडवाणी का राम-रथ बिहार में रोककर उन्होंने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। मुलायम की पूरी राजनीति को ध्यान में रखते हुए आज यह कहना कठिन है कि लालू तब आडवाणी को बिहार में गिरफ्तार न करते तो मुलायम यूपी में आने पर उनके साथ क्या सलूक करते, हालांकि मुलायम लगातार यही कहते रहे थे कि 'अयोध्या में परिंदा भी पर नहीं मार सकता।' उनका ही राज था जब 1990 में पहली बार उपद्रवी भीड़ बाबरी मस्जिद के गुम्बदों पर चढ़कर प्रतीकात्मक तोड़-फोड़ कर आई थी।

बहरहाल, 1990 का दशक भारतीय राजनीति, अन्तरराष्ट्रीय राजनय और अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के लिए भी बहुत महत्त्वपूर्ण रहा। नरसिंह राव की अलप्संख्यक सरकार के पांच साल चलने के अलावा बाकी दशक राजनैतिक उठापटक और अस्थिर सरकारों का रहा। मुलायम और लालू दोनों ने केंद्र सरकारों में अंदर या बाहर से अपनी-अपनी भूमिकाएं निभाईं। इसी दौर में मुलायम का डोलायमान रुख और लालू की एकनिष्ठता भी सामने आने लगी। मुलायम कभी केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ खड़े हुए तो कभी उसे समर्थन भी देते रहे। कभी अपने रुख में वे पलटी मार जाते। अटल बिहारी बाजपेई की सरकार गिरने के बाद 1999 में जब सोनिया ने केंद्र में सरकार बनाने का दावा राष्ट्रपति के समक्ष पेश किया तो मुलायम पलटी मार गए। सोनिया का उन्होंने विदेशी कहकर भारी विरोध किया, जबकि सोनिया उनसे समर्थन मांग रही थीं। अमेरिका से परमाणू समझौते और अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बनाने के मामले में भी उन्होंने पहले किए वादे से पलटी मार दी थी। कभी यूपीए के साथ गए तो कभी अचानक एनडीए के साथ खड़े हो गए। वाम मोर्चे के साथ भी वे खड़े दिखना चाहते रहे। बीच-बीच में प्रधानमंत्री बनने का उनका सपना भी जोर मारता। इसके उलट लालू यादव ने न केवल सोनिया गांधी का पूरा साथ दिया बल्कि, विपरीत परिस्थितियों में भी बिहार में कांग्रेस को अपने गठबंधन में साथ बनाए रखा। मुलायम की तरह उन्होंने पलटी नहीं मारी। बल्कि, कई बार लगता है कि लालू को अपनी धुर-भाजपा विरोध की राजनीति की भारी कीमत चुकानी पड़ी है।                

भ्रष्टाचार और राजनीति में अपराधियों को बढ़ावा देने के लिए भी मुलायम खूब चर्चा में रहे। उनके खिलाफ, बल्कि उनके पूरे परिवार के खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति के मामले सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे। नौबत यहां तक आ गई थी कि शायद उनके खिलाफ भी लालू यादव की तरह सख्त कार्रवाई हो लेकिन वे अपनी डोलायमान राजनीति का लाभ लेकर आधी-अधूरी क्लीन चिट हासिल कर ले गए। प्रारम्भ में समाजवादी राजनीति के मूल्यों से बंधे मुलायम अपने परिवार को राजनीति में लाने के विरुद्ध थे। अखिलेश यादव को उन्होंने अपनी राजनैतिक छाया से दूर ही रखा था लेकिन बाद में वे पुत्र-मोह में इतना फंसे कि सदा सहायक भ्राता शिवपाल को नाराज कर अखिलेश को मुख्यमंत्री बनवा दिया। उनका पूरा कुनबा राजनीति में है। अपराधियों को राजनीति में लाने का श्रेय अकेले मुलायम को नहीं दिया जा सकता लेकिन वे सदा संगीन अपराधों से घिरे बाहुबलियों का बचाव कर उन्हें महत्त्व देते और मंच पर अपने साथ बैठाते रहे। उनके शासनकाल में अपराध बहुत बढ़ जाते हैं, यह आरोप उनके साथ ही नहीं, आज अखिलेश यादव की छवि के साथ भी चिपका हुआ है, जिसका लाभ भाजपा ने खूब उठाया।

अपने राजनैतिक जीवन की संध्या में उन्होंने एक और चौंकाने वाला कारनामा किया। सोलहवीं लोक सभा की विदाई वेला में उन्होंने सदन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करने में शब्दों की कोई कंजूसी नहीं की। यहां तक कह दिया कि मैं कामना करता हूं कि वे जीतकर फिर प्रधानमंत्री बनें। उनकी पलटी मारने की राजनीति के बावजूद यह बहुत आश्चर्यजनक बयान था जिसकी लानत-मलामत होनी ही थी। एक बार वे लखनऊ में मोदी के सार्वजनिक मंच पर उपस्थित होकर उनके कान में कुछ फुसफुसाकर भी हास्यास्पद रूप से चर्चित हो चुके थे।

कुश्ती के अखाड़े से राजनीति के मैदान में उतरे मुलायम सिंह यादव ने अपने विरोधियों पर खूब चरखा दांव लगाए और कभी अपने दांवों से चित भी हुए। जो भी हो, मंडल-पश्चात तीन दशकों की उत्तर भारतीय राजनीति को गहरे प्रभावित करने वाले नेताओं में वे बराबर याद किए जाएंगे। पिछड़ी जातियों के राजनैतिक उभार और उत्तर भारत की राजनीति का चेहरा पूरी तरह बदल देने वाले नेताओं में भी उनका शुमार होता रहेगा।              

- न जो, 9 अक्टूबर, 2022         

           

 

Monday, October 03, 2022

धुंध को चीरकर क़ायम उम्मीदों के नाम- 'देवभूमि डेवलपर्स’

हां कविता, उत्तराखण्ड एक दिन अवश्य बनेगा। जब लोग बलिदानों को याद करेंगे तो स्त्रियों का ज़िक्र सबसे पहले आएगा।’ पुष्कर भावुक हो गया।

कविता ने तड़पकर पुष्कर को देखा‘ ‘नहीं, तुम पुरुषों के लिए बलात्कार को भी बलिदान बना देना कितना आसान है! स्त्री ही बची ऐसा बलिदान देने के लिए? यह बलिदान नहीं, बर्बर पुरुष - समाज और शासन - व्यवस्था का पाशविक व्यवहार है। स़्त्री उत्तराखण्ड राज्य में भी ठगी और लूटी जाएगी। यह भविष्यवाणी नहीं है। इतिहास साक्षी है।’ (पृष्ठ, 152)
उपन्यास के पात्र पुष्कर के पास कविता को सांत्वना देने के लिए शब्द नहीं थे। आज हम-आप जो असल जिन्दगी में हैं के पास भी तो अपनी उत्तराखण्डी बेटी अंकिता की आत्मा के समक्ष सिवाय शर्मिन्दा होने के और कुछ भी नहीं है।
क्योंकि, आज उत्तराखण्ड में राजनैतिक लम्पटता सरकारी निरंकुशता में तब्दील होकर सत्ता का स्थाई भाव बन चुकी है।
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‘अच्छा प्रकाश, राज्य बन गया तो तुम्हें क्या फ़ायदा होगा?’ कविता ने पूछा। प्रकाश चुप हो गया, जैसे जवाब सोच रहा हो।
‘चलानी तो मैडम, हमने टैक्सी ही हुई। बच्चे अच्छा पढ़-लिख जाएंगे तो वही बहुत ठेरा।’ शायद इस बारे में उसने कभी ध्यान नहीं दिया था।
‘बच्चे पढ़-लिखकर क्या करेंगे?’
‘नौकरी।’ उसने तुरंत कहा।
‘शुरू से हम पहाड़ियों की एक ही तमन्ना हुई, नौकरी। इसीलिए आधी आबादी बाहर चली गई। पुष्कर के स्वर में लाचारी-सी थी। - ‘कभी राज्य बना तो भी लोग नौकरी ही ढूंढ़ेंगे।’
‘नये राज्य में नौकरी तो मिलेगी न, सर!’ प्रकाश ने पूछा।
पुष्कर ने कोई जवाब नहीं दिया।..... (पृष्ठ, 171)
पुष्कर को जवाब मालूम था। पर, वो प्रकाश को आने वाले नये राज्य बनने की उम्मीद से उपजे उत्साह के आनंद को कम नहीं करना चाहता था।
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'सुनना ओ बिरादरों, ये नंदाबल्लभ ज्यू का लड़का मेरा कुछ नहीं लगता।....उसके निशाने पर कविता थी- 'इस लड़की ने किया इसका दिमाग़ खराब।' फिर उसने गांव के बुजुर्ग रामदत्त जी की तरफ़ हाथ जोड़े- 'मुझे दोष नहीं लगेगा, ना? हमारा तो परिवार अलग - अलग हुआ' काकी को बिरादरी से बाहर किए जाने का सबसे अधिक भय लग रहा था।' (पृष्ठ, 260)
बड़ी धोती (बड़े पंडित) वाले पुष्कर के अपने खेत में हल चलाने भर से उसे बिरादरी से अलग कर देना आज भी पहाड़ी ग्रामीण जीवन की कटु सच्चाई है। साथ ही, हर दोषारोपण परिस्थिति के लिए महिला को जिम्मेवार ठहराना समाज का स्वभाव बन गया है। उत्तराखण्ड में जातीय अहंकार के तहत विगत 1 सितम्बर को अल्मोड़ा के शिल्पकार युवा जगदीश का कत्ल किया जाना इसका ज्वलंत प्रमाण है।
अज़ीब बिडम्बना है कि नवीन जोशी के उपन्यास ‘देवभूमि डेवलपर्स’ के उक्त तीनों प्रसंग उत्तराखण्ड राज्य की नियति बन चुके हैं।
‘दावानल’ के बाद अगली कड़ी के रूप में ‘देवभूमि डेवलपर्स’ प्रतिष्ठित लेखक और पत्रकार नवीन जोशी का नया उपन्यास है। ‘दावानल’ उपन्यास के विराम से आगे बढ़ता ‘देवभूमि डेवलपर्स’ के पात्र वही हैं। बस, वे इस नवीन उपन्यास में अधिक परिपक्व और बदले मिज़ाज में हैं। ‘दावानल’ उपन्यास का केन्द्र बिंदु उत्तराखण्ड में उपजा ‘चिपको आन्दोलन’ है। ‘देवभूमि डेवलपर्स’ में उसके बाद के ‘नशा नहीं रोजगार दो’, ‘उमेश डोभाल हत्याकांड’, ‘तराई में भू हक-हकूक’, ‘टिहरी बांध’, ‘पृथक राज्य’, ‘मुजफ्फरनगर काण्ड’, ‘बाबा मोहन उत्तराखण्डी की शहादत’, ‘फलिण्डा’, ‘नानीसार’ आदि आन्दोलनों के उभार और अवसान के पड़ाव दर पड़ाव हैं।
कह सकते हैं कि यह किताब विगत 40 वर्षों में बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के लिए उत्तराखण्डी जन-मानस के जन-संघर्षों का 9 शीर्षकों में 310 पृष्ठों का एक प्रामाणिक दस्तावेज है। हिंद युग्म, नोएडा से इसी वर्ष-2022 में प्रकाशित ‘देवभूमि डेवलपर्स’ किताब का आकर्षक आवरण चित्र अशोक पाण्डे ने बनाया है।
नवीन जोशी ने ‘देवभूमि डेवलपर्स’ को ‘उत्तराखण्ड के जन आंदोलनों, पृथक राज्य के स्वप्न-ध्वंस, प्राकृतिक संसाधनों की लूट, भुतहा होते गांव और बड़े बांधों में डूबते समाज की औपन्यासिक गाथा कहा है।’ उनके अनुसार ‘बीसवीं सदी के अंतिम दो और इक्कीसवीं सदी के प्रारंभिक दो दशकों के उत्तराखण्ड का समाज, जनांदोलन, ‘विकास’ का वर्तमान ढांचा और राजनीति के विद्रूप इस उपन्यास की पृष्ठभूमि हैं। इस कथा में उस काल के हमारे इतिहास की परछाई भी साथ-साथ चलती है।’ वे इस उपन्यास को ‘बेहतरी के लिए संघर्षरत शक्तियों को और निराशाजनक परिदृश्य के बावजूद धुंध को चीरकर निर्मल धूप खिलने की क़ायम उम्मीदों के नाम!’ समर्पित करते हैं।
वास्तव में, ‘देवभूमि डेवलपर्स’ उत्तराखण्ड राज्य निर्माण यात्रा, उसके उदित होने के जन-उत्साह और अब जन-उदासी की कथा-व्यथा है। उपन्यास के पात्र कविता की तरह आज भी आम उत्तराखण्डी आदमी अपने पहाड़ी गांवों की नैसर्गिक सुन्दरता से मंत्र-मुग्ध तो है पर फिर पुष्कर की तरह यह भी सोचने के लिए विवश हैं कि ‘काश, जीवन भी सुंदर होता’।
तभी तो, पुष्कर की तरह हर उत्तराखण्डी भी ऐसे ही बैचैन हैं- ‘रात में करवटें बदलते हुए वह सोचता रहा था कि अपने होशियार बेटे को अच्छा पढ़ा-लिखाकर ऊंची नौकरी में देखने के बाबू के एकमात्र सपने को निर्ममता से तोड़कर वह उत्तराखण्ड को बेहतर बनाने के जिस संघर्ष में शामिल होने किसी दीवाने की तरह चला आया, वह संघर्ष ही आधे रास्ते में नहीं भटका, बल्कि उत्तराखण्ड ही बेतरह उजाड़ा जा रहा है। उसके भूगोल, समाज, संस्कृति, इतिहास, याने पूरे अस्तित्व पर हमला हुआ जा रहा है। संघर्ष के नाम पर कुछ नेता अपनी-अपनी व्यक्तिगत छवियां चमकाने में लगे हैं। जनता का सामर्थ्यवान धड़ा बहती गंगा में हाथ धोने में लगा है। जो लाचार हैं वे सारे दुःख-दर्दों के साथ उजड़ते पहाड़ों के मलबे में दबने को अभिशप्त हैं।’ (पृष्ठ, 98)
उपन्यास मार्च, 1984 में जब ‘नशा नहीं - रोज़गार दो’ आन्दोलन अपने चरम पर था से प्रारम्भ होता है। उस दौर में उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी, महिला मोर्चा, छात्र संगठन, जागर, नवयुवक संगठन और नागरिक मंच के जन-आन्दोलन ने पहाड़ में शराब की नाकेबंदी कर दी थी। नतीजन, सरकार को मजबूरन पहाड़ी क्षेत्र में शराबबंदी की नीति को लागू करना पड़ा।
परन्तु, यह हमें समझना होगा कि सत्ता के मूलभूत चरित्र को बदलना आसान नहीं होता है। आंदोलनों के जन-दबाव से कुछ समय के लिए परिस्थितियों में सुधार आ सकता है। लेकिन, सच ये भी है कि सत्ता के लिए जन-विरोधी नीतियों को जनता पर थोपने की स्थितियां हमेशा बनी रहती है। उत्तराखण्ड में तब यही तो हुआ-
ए पुष्कर।’ मुंह तनिक उठाकर वे बोलीं- ‘सरकार से न जीत सके पब्लिक। कित्ता अंदोलन किए तू सब...’
‘आपने कम आंदोलन किया चाची? मार खाई, गिरफ़्तार हुई।’
‘का मिला? सब बेकार... पहले से ज़्यादा हालत ख़राब भई कि ना। शाम ढले बाद द्याखो अल्मोड़ा। पूरा पहाड़ बरबाद है रै!’ (पृष्ठ, 84)
आज, पुष्कर ही नहीं हम-सबके मन-मस्तिष्क में ‘अल्मोड़ा की हमीदा चाची’ की उक्त बात बराबर कौंध रही है।
असल सच तो यह है कि, सर्वागींण विकास के लिए राजनैतिक-आर्थिक नीतियों की स्पष्टता के अभाव और अपने संगठनात्मक कमजोरियों के कारण उत्तराखण्ड के विगत के तमाम आन्दोलन बिफल साबित हुए। गम्भीर चिन्तनीय बात है कि, यह परिपाटी आज भी यहां जारी है। पृथक राज्य आन्दोलन इसका जीता-जागता उदाहरण है।
वैसे, नए राज्य बनने की प्रबल संभावना के ठीक पहले ही उसके लक्षण दिखने लगे थे-
......सब कह रहे, ‘उत्तराखण्ड बनने से विकास होगा। हमारी सरकार होगी। क्या-क्या जो बता रहे थे।’ दीपा ने अपनी इजा को टोका।
‘हां, फिर।’ गीता ने छोटी बहन का समर्थन किया।
अचानक दूर कहीं सियारों का रोना सुनाई दिया। एक साथ कई अप्रिय, अपशकुनी आवाज़ें आने लगीं।
दीदी, गीता और दीपा बाहर की तरफ़ मुंह करके थू-थू, थू-थू, थू-थू करने लगे। थू-थू, थू-थू करते रहने से सियार चुप हो जाते हैं। अपशकुन दूर हो जाता है।’ (पृष्ठ, 178)
लेकिन, नए उत्तराखण्ड राज्य का अपशकुन उसके साथ ही चिपक कर राजनैतिक अराजकता के रूप में सामने आया।
राज्य बनने के दिन आंदोलनकारियों की 'खबरदार रैली' में जुटे पुष्कर को पत्रकार शैली वास्तविकता बताता है कि ‘...नए राज्य में खाने-कमाने के स्वर्णिम अवसर...कंस्ट्रक्शन, पर्चेजिंग, कॉन्ट्रेक्ट्स। पता है दून एक्सप्रेस में भर-भर कर कौन लोग पहुंचे हैं देहरादून? बिल्डर, ठेकेदार, भू माफिया, सत्ता के गलियारों में चक्कर लगाने वाले दलाल, फिक्सर...किसको खबरदार कर रहे हो, पुषी डियर?’ (पृष्ठ, 183)
राज्य की पहली अंतरिम सरकार के शपथ ग्रहण के दिन ही पता चल गया था उत्तराखण्ड राज्य किस दिशा में जाएगा?
पत्रकार से उत्तराखण्ड आन्दोलनकारी बनी कविता पहले से ही यही तो कहती है-‘और मान लो, कल ही अचानक उत्तराखंड राज्य मिल जाए तो क्या होगा? ये लोग कुर्सी के लिए वैसे ही लड़ेंगे जैसे माइक छीनने के लिए लड़े। वह कैसा राज्य होगा? कौन उसे जनता के सपनों के अनुरूप बनाएगा? इस बारे में सोच रहा है कोई?...... ‘एंड, आई एम कन्फ्यूज़्ड टू, पुष्कर! यह आंदोलन है या एक ज्वालामुखी?...ज्वालामुखी को कोई नियंत्रित नहीं कर सकता। उसका लावा जहां राह मिले बहता जाता है। यहां भी जनता के वर्षों से जमा क्रोध का लावा ही बह रहा शायद। धीरे-धीरे यह ठंडा पड़ जाएगा।....आज संघर्ष वाहिनी इस जनाक्रोश को दिशा देने वाली नेतृत्वकारी भूमिका में क्यों नहीं है? तीस साल से आप क्या कर रहे थे? क्रांति दल भी इस भूमिका में हो सकता था। क्यों नहीं हुआ? कविता ने पुष्कर की दुखती नस दबा दी...’ (पृष्ठ, 158)
पुष्कर की दुखती नस आज हम सब उत्तराखण्डियों की भी है। जिसमें दुःख और आक्रोश तो उभरता है, पर सही दिशा के अभाव में उसकी और भी दुर्दशा होती जा रही है।
...जन-संगठनों के लोग शुरू से दलीय राजनीति का घिनौना चेहरा देखते आए हैं, उसी कारण चुनावी राजनीति को अस्पृश्य मानने लगे। इसीलिए उसमें शामिल होने का न सोच-विचार बना, न अनुभव और न संगठन ही। वे उस मानसिकता में ढले नहीं होते या ढलना ही नहीं चाहते।’
‘तो ठीक है, राजनीति को दलदल बताकर उसे स्वार्थी, भ्रष्ट और लम्पट तत्वों के लिए छोड़ दो। फिर लड़ते रहना कि राज्य जनता के सपनों के अनुरूप नहीं बना।’ (पृष्ठ, 185)
पुष्कर और कविता का उक्त वार्तालाप जैसा ही आज हम सब उत्तराखण्डियों के जेहन में हर समय घुटता रहता है। हमें आगे की राह दिखती नहीं है।
उपन्यास में ‘टिहरी बांध आन्दोलन’, ‘फलिण्डा आन्दोलन’ और ‘नानीसार आन्दोलन’ के कई अनुछुये पक्ष सामने आये हैं। टिहरी से पुष्कर को विक्रम की चिठ्ठी वो हकीकत है, जिसे हम सब भोग रहे हैं। ‘अब तो पूरी टीरी पर दया आती है। ग़ुस्सा आना बंद हो गया भैजी। सिर्फ़ करुणा बची है। कभी आकर टीरी का विलाप सुन जाओ, भैजी।’(पृष्ठ, 199)
चेतना आन्दोलन के अग्रणी मित्र त्रेपन सिंह चौहान के नेतृत्व में चला 'फलिण्डा आन्दोलन' को पढ़ते हुए आंखें नम होती रही। भीमकाय परियोजनायें किस तरह ग्राम स्तर की योजनाओं को निगल जाती है, यह इस किताब में 'फलिण्डा आन्दोलन' के दर्द और मर्म से समझा जा सकता है।
‘देवभूमि डेवलपर्स’ उपन्यास की शक्ल में उत्तराखण्ड के विगत राजनैतिक - सामाजिक आन्दोलनों की पड़ताल है। स्वाभाविक तौर पर इसमें यहां के सामाजिक - सांस्कृतिक जीवन के विविध रूप भी हैं। व्याधियों और विसंगतियों से भरा उत्तराखण्डी समाज बाहर से भले ही सरल दिखता हो परन्तु उसके अन्तविरोध और जातीय विभेद बेहद कठोर और निर्दयी हैं।
हम उनका और उनकी कला का सम्मान करने के बजाय अपमान करते रहे। उन्हें अछूत, लाचार, ग़रीब और ग़ुलाम बनाए रखा। क्यों सीखती उनकी अगली पीढ़ी यह हुनर?’ (पृष्ठ, 262) स्वयं शिल्पकार बनने की असली लड़ाई तो किसी ने लड़ी ही नहीं।
उच्च ब्राह्मणीय पुष्कर के मात्र अपने खेत में हल चलाने भर से ही उसे जाति से बेदखल कर दिया जाता है। अपने पैतृक गांव सुमकोट में रहते हुए पुष्कर और उसकी पत्नी कविता के कटु अनुभव बताते हैं कि सुविधाओं के अभाव से ज्यादा सामाजिक कूप-मण्डूकता से जूझना कठिन है।
'पुष्कर को मेरी मिट्टी छूने नहीं देना।’ काकी का यह कथन पहाड़ी गांवों में जातीय अहंकार की समाज के मन-मस्तिष्क में विराजमान वो लकीरें हैं जिसे अभी तक नहीं मिटाया जा सका है। सार्वजनिक तौर पर सुधार की बातें चाहे कितनी कर लो?
वास्तव में, जातीय विषमता और वर्ग विभेद पुष्कर के गांव सुमकोट की नहीं सारे उत्तराखंड के गांवों की कहानी है। और, स्थानीय समाज के निठ्ठले लेकिन चतुर-चालाक लोगों के माध्यम से बेईमान-भ्रष्ट राजनेताओं ने इन कुरीतियों का सबसे ज्यादा फायदा उठाया है। कुंदन, माधव, कमलेश, राधा, महेश जैसे ग्रामीण पात्र आज जगह-जगह मौजूद हैं। जिनके माध्यम से शराब, खनन और रियल स्टेट के दलालों ने ‘देवभूमि डेवलपर्स’ बनकर गांवों में अपसंस्कृति को पनपाना शुरू कर दिया है। सत्ता का वरदहस्त उनके पास वैधानिक लाइसेंस के रूप में मौजूद जो है।
‘देवभूमि डेवलपर्स’ उपन्यास के कथानक में नवीन जोशी ने उत्तराखण्ड की बीती आधी सदी में दर्ज़ इतिहास, जन-आन्दोलनों, राजनैतिक हलचलों, सामाजिक - सांस्कृतिक परिवर्तनों, आर्थिक विकास की दशा और दिशा के खुले और अनखुले पन्नों को सार्वजनिक किया है।
अतः यह किताब उपन्यास के दायरे में न सिमटकर एक अध्येयता के शोध-अध्ययन, एक सामाजिक कार्यकर्ता के व्यवहारिक अनुभवों, एक पत्रकार की सामाजिक - राजनैतिक घटनाओं की पड़ताल और एक उत्तराखण्डी के मन-मस्तिष्क की भावपूर्ण अभिव्यक्ति है।
नवीन जोशी स्मृति लेखन में पारंगत हैं। आंचलिक शब्दों, भावों और मिज़ाजों को सहेजने की बखूबी समझ रखते हैं। ‘दावानल’, ‘टिकटशुदा रुक्का’ (उपन्यास) और ‘ये चिराग़ जल रहे हैं’ (संस्मरण) उनके स्मृति लेखन की चर्चित कृतियां हैं। तरोताजा किताब ‘देवभूमि डेवलपर्स’ भी इसी क्रम में पाठकों के मध्य लोकप्रिय हो रही है।
आत्मीय
बधाई
के साथ यह सफ़र जारी रहे।
'देवभूमि डेवलपर्स' हिंद युग्म ( फोन- 0120-4374046 ) और अमेजॉन पर उपलब्ध है।
-डॉ. अरुण कुकसाल
ग्राम-चामी, पोस्ट- सीरौं-246163
पट्टी- असवालस्यूं, जनपद- पौड़ी (गढ़वाल), उत्तराखण्ड