10 सितम्बर,
1932 को ओलिया गांव
(अल्मोड़ा, उत्तराखण्ड) में जन्मे शेखर जोशी को छोटी उम्र में ही मां के
निधन के बाद सुदूर कीकर (राजस्थान) में मामा के पास जाना पड़ा था। पहाड़ों की सुरम्य
गोद से सीधे मरुभूमि में जा पहुंचे बालक शेखर के भीतर पहाड़,
प्रकृति और वहां के लोग अपनी सुंदर, मधुर लेकिन कठोर यथार्थ
के साथ रचे-बसे रहे। कालांतर में वे आजीविका के क्रम में दिल्ली होते हुए इलाहाबाद
पहुंचे। साहित्यिक संस्कार उन्हें बचपन में ही ननिहाल से मिल गए थे जो दिल्ली में
न केवल विकसित हुए, बल्कि वहां होटल कर्मचारियों के संगठन के
सम्पर्क में आने के बाद जीवन के यथार्थ और निम्न एवं मध्य वर्ग की जद्दोजहद से
उनका सीधा साक्षात्कार हुआ। 1955 में जब वे इलाहाबाद के ईएमई कारखाने में तैनात
हुए तो तब हिंदी साहित्य के सबसे सक्रिय, सचेत और समृद्ध इस
शहर ने उनके भीतर के कहानीकार को पूरी तरह उत्प्रेरित कर दिया। उधर, कारखाने में दिन भर की कठिन नौकरी ने उन्हें श्रमिकों और कल-कारखानों की
उस दुनिया से गहन रूप से जोड़ दिया जिसका कोई आत्मीय स्पर्श हिंदी कहानी को तब तक हुआ
न था।
इस तरह पहाड़ और कारखाने, श्रमिक और निम्न-मध्य
वर्ग का आत्मीय किंतु संघर्ष एवं अंतर्विरोधों से भरा संसार उनकी रचना-भूमि बना।
पहाड़ के विविध पक्षों पर लिखने वाले उनसे पहले और बाद में भी कई साहित्यकार हुए,
हालांकि उनका जैसा पहाड़ अन्य लेखकों की रचनाओं से अछूता ही रहा,
लेकिन श्रमिकों और कारखानों के यथार्थ पर यादगार कहानियां लिखने
वाले हिंदी में वे अकेले ही हुए। इन विषयों पर आज भी नहीं लिखा जा रहा या
उल्लेखनीय कहानियां सामने नहीं आ रहीं। ‘उस्ताद,’ ‘बदबू,’ ‘सीढ़ियां’ और ‘मेण्टल’ जैसी कहानियां वे 1960 तक लिख चुके थे। आज
छह दशकों से भी अधिक समय बीत जाने पर भी ये कथाएं न केवल याद की जाती हैं, बल्कि अक्सर उद्धृत की जाती हैं।
शेखर जोशी जी ने अपेक्षाकृत कम कहानियां लिखीं लेकिन
सीधी-सरल भाषा, चमत्कारविहीन मौन-सी शैली और दमदार कथ्य ने उन्हें हिंदी
कहानी के शिखर पर पहुंचाया। उपन्यास उन्होंने एक भी नहीं लिखा। यदा-कदा कविताएं और संस्मरण अवश्य वे
लिखते रहे। नब्बे वर्ष की उम्र में भी उनकी रचनात्मक सक्रियता जारी है। आंखों की
असाध्य बीमारी के कारण पढ़ना अत्यंत कठिन हो गया है और लिखना कागज पर अंगुलियों के
सहारे कलम घसीट कर ही हो पाता है। हाल में उनकी दो पुस्तकें, ‘मेरा ओलिया गांव’ (पहाड़ में बिताए बचपन की
स्मृतियां) और ‘पार्वती’ (कविता
संग्रह) प्रकाशित हुए हैं। अपने वरिष्ठ साथी लेखकों के बारे में उनके संस्मरणों की
एक किताब प्रकाशनाधीन है। स्मृति उनकी बहुत अच्छी है। विभिन्न जीवन प्रसंग ही नहीं, अपनी तथा प्रिय कवियों की कविताएं वे बिना अटके सुना जाते हैं।
यह बातचीत लखनऊ में जून-मध्य में होनी तय थी लेकिन कुछ
स्वास्थ्य समस्या के कारण उन्हें पुणे में बेटी के पास ही रुक जाना पड़ा। फोन पर
सुनने की समस्या थी इसलिए सवाल उन्हें लिखकर भेजे गए जिनके जवाब उनकी बेटी कृष्णा
पंत ने फोन पर रिकॉर्ड करके लौटाए। इस प्रस्तुति में बराबर का श्रेय कृष्णा का भी
है।
[] कारखानों और श्रमिक वर्ग के
जीवन के बारे में कहानियां लिखने की तरफ ध्यान कैसे गया?
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जब मैं अक्टूबर 1955 में
इलाहाबाद में पहली बार ‘कहानी’ पत्रिका के सम्पादक श्री भैरव प्रसाद गुप्त से मिला, तब ‘कहानी’ का वार्षिकांक प्रकाशित हो चुका था। ‘कहानी’ के वार्षिकांक इतने महत्त्वपूर्ण होते थे कि
इन विशेषांकों के लिए लेखक अपनी श्रेष्ठ कहानी रखे रहते थे। इन विशेषांकों के कारण
कहानी विधा केंद्र में आ गई थी। तो, भैरव जी ने मुझसे कहा कि
नया विशेषांक देख लिया हो तो अपनी पाठकीय प्रतिक्रिया भेजना। मैंने विस्तृत पत्र
लिखा, अलग-अलग कहानियों पर, जो मुझे
अच्छी लगी थीं, अपनी राय दी। फिर मैंने एक टिप्पणी ये की कि
इस विशेषांक में जो कमी खलती है, वह ये कि लेखक जहां उच्च
वर्ग के ड्राइंग रूम, मध्यम वर्ग की गृहस्थी, खेती-किसानी और निम्न वर्ग की झोपड़ियों तक पहुंच जाता है और वेश्याओं के
कोठों में जाने में भी नहीं हिचकता, वहां एक वर्ग को वह छोड़
देता है। ये केवल इस विशेषांक की बात नहीं, हिंदी कथा
साहित्य में इस वर्ग की अंतरंग कहानियां बिल्कुल नहीं। वह वर्ग है औद्योगिक
क्षेत्रों में काम करने वाले कामगारों का, उस परिवेश का,
उनकी बोली-बानी का और उनके आपसी व्यवहार का। भैरव जी बहुत स्पष्ट
वक्ता थे। उन्होंने थोड़े ऊंचे स्वर में कहा- तुम दूसरों को बहुत नसीहत दे रहे हो।
तुमने बताया कि चार साल तक हर तरह के कारीगर के साथ में तुमने ट्रेनिंग पीरियड में
काम सीखा है। अब भी तुम दिन के आठ घण्टे उनके सम्पर्क में रहते हो। तो, तुम खुद क्यों नहीं लिखते इस बारे में? मुझे लगा कि
भैरव जी बहुत सही बात कह रहे हैं। तब मैंने औद्योगिक जीवन की जो पहली कहानी लिखी
उसका शीर्षक था- ‘उस्ताद’। तब तक जो
स्थानीय मित्र हो गए थे, उन लोगों को सुनाई, दुष्यंत, मार्कण्डेय, कमलेश्वर,
अमरकांत, वगैरह। उन लोगों को बहुत अच्छी लगी
कहानी क्योंकि एक बिल्कुल नई दुनिया थी, नया परिवेश था,
नई भाषा थी।
उसी बीच में उपेंद्रनाथ अश्क द्वारा सम्पादित साहित्य संकलन
‘संकेत’ में मेरी ‘दाज्यू’
कहानी छपी थी। अमृत राय जी ने वह कहानी पढ़ी होगी। उन्होंने भी
बाल्कृष्ण राव जी के साथ मिलकर ‘हंस’ का
एक साहित्य संकलन निकालने की योजना बनाई थी। उनके आग्रह पर मैंने उत्साह में अपनी ‘उस्ताद’ कहानी उनको भेज दी। फिर मैं गांव चला गया।
कुछ दिन बाद गांव में ही मुझे अमृत राय जी का पत्र मिला। आप दाद देंगे अमृत राय जी
के साहित्य विवेक की और उनकी सम्पादकीय पारखी दृष्टि की कि, उन्होंने
मुझे लिखा था कि शेखर, तुम्हारी कहानी पढ़ी, अच्छी है लेकिन मैं तुमसे उससे भी अच्छी कहानी की अपेक्षा करता हूं। मुझे
बुरा नहीं लगा, बल्कि मुझमें एक प्रेरणा जैसी जगी कि देखो
कोई सम्पादक मुझसे और अच्छी कहानी की अपेक्षा कर रहा है। मैंने गांव में ही बैठकर
एक कहानी पूरी की जिसका शीर्षक ‘बदबू’ था
और अमृत राय जी को भेज दी। हफ्ते भर के अंदर अमृत राय जी का छोटा-सा पत्र आया कि
शेखर अच्छी कहानी के लिए बधाई। इसे प्रेस में दे दिया है। तो, इस तरह से इस क्षेत्र की कहानियों को लिखने की मेरी शुरुआत हुई।
[] वह आक्रामक ट्रेड
यूनियन और श्रम नीतियों के विरुद्ध असंतोष का दौर भी था। यह पक्ष कहानीकारों से क्यों छूटा, जबकि किसानों और गांवों
के बारे में काफी लिखा जा रहा था?
-
जहां तक मैं समझता हूं, इसका कारण यह था कि जो
वर्ग लेखन की ओर प्रवृत्त हो रहा था उसका कल-कारखानों के लोगों से आपसी सम्पर्क
बिल्कुल नहीं था। अगर वो किसानों के बारे में, गांव के बारे
में, खेती के बारे में लिख रहे थे तो वह भी शहर में रहने के
बाद उस नॉस्टेल्जिया को रिपीट कर रहे थे जो उन्होंने अपने गांवों में रहते हुए
देखा था। दूसरा, ऐसा नहीं है कि हड़ताल, वगैरह के बारे में लिखा नहीं जा रहा था लेकिन एक सतही तौर पर लाल झण्डा
दिखा के, इंकलाब जिंदाबाद करते हुए। आपको याद होगा कि भीष्म
(साहनी) जी की कहानी ‘भाग्य रेखा’ में
ज्योतिषी को हाथ दिखा रहा है कोई आदमी और ज्योतिषी उसके बारे में काफी नकारात्मक
बातें बता रहा है। तभी सामने से एक जुलूस निकल रहा है श्रमिकों का और नारेबाजी हो
रही है। तो, जो आदमी हाथ दिखवा रहा है,
वह ज्योतिषी से कहता है, जरा फिर से देखो। तो, सांकेतिक रूप में लेखक की श्रमिकों के प्रति पक्षधरता दिखती है लेकिन जो
मैं कहना चाह रहा था वो ये कि फैक्ट्री के अंदर का माहौल, वहां
की बोली-बानी, काम करने के तौर-तरीके, ईर्ष्या-द्वेष,
ये चीजें नहीं आ रही थीं, चूंकि सम्पर्क नहीं
था कोई। मेरा सौभाग्य यह था कि मैं परिस्थितियोंवश उस तरह की जिंदगी में शामिल हो
गया था।
[] कुछ आलोचकों ने लिखा कि आपकी कहानियों के श्रमिक आंदोलन
नहीं करते, हड़ताल नहीं करते, ट्रेड यूनियन का जिक्र
बहुत कम होता है, मालिकों और पूंजीपतियों से टकराव के प्रसंग
नहीं आते। आप क्या कहेंगे?
-
दो तरह के समीक्षक होते हैं। एक, जो
लाउड कथन के पक्षधर होते हैं और उनको ऐसा लगता है कि पाठक इतना जागरूक नहीं है कि
अंडरटोन में लिखी गई कहानियों को समझ सके। और, मेरा मानना ये
था कि बिना बहुत लाउड हुए जो शोषण हो रहा है, जो संघर्ष हो
रहा है, जो जय-पराजय हो रही है, उसको
मैं चित्रित कर सकूं। तो, हो सकता है कि कुछ लोगों का ऐसा
सोचना हो कि मैं बहुत वोकल नहीं हूं। और, मैं होना भी नहीं
चाहता था क्योंकि मैं बहुत ही अण्डरटोन में बात करके अपने कथ्य को सम्प्रेषित करना
चाहता था।
[] आपके बाद भी इस तरह की कहानियां नहीं या बहुत कम लिखी
गईं। आज तो श्रमिकों का हाल किसानों से भी बुरा है, फिर भी कथाकार उस बारे
में लगभग नहीं लिख पा रहे। आपको क्या कारण लगते हैं?
-
मेरे बाद (श्रम जगत के बारे में) लिखने वालों में दो प्रमुख
नाम हैं,
एक इजराइल और दूसरे सतीश जमाली। इन दोनों का सम्पर्क औद्योगिक
परिवेश से रहा या वे वहां के कारीगरों के सम्पर्क में रहे। इजराइल तो पार्टी वर्कर
थे और ट्रेड यूनियनों से भी जुड़े रहते थे। उन्होंने इस परिवेश की कहानियां लिखीं।
सतीश जमाली खुद फैक्ट्री में काम करते थे। वैसे अनुभव थे उनके तो उन्होंने वैसी
कहानियां लिखीं। शायद जयनंदन ने भी ऐसी कुछ कहानियां लिखीं। शकील सिद्दीकी एचएएल
फैक्ट्री में काम करते थे। उनकी रचनाओं में भी यह परिवेश अंकित है। मूल कारण यही
है कि लेखकों का इस क्षेत्र से सीधा सम्पर्क नहीं रहा या बहुत कम रहा।
[] आपकी कहानियों का जो क्राफ्ट है, सीधा,
सरल, बहुत कम कहने और अधिक असर डालने वाला,
व्यंग्य का पुट लिए हुए, वह आपने सायास अपनाया
या आपके व्यक्तित्व और स्वभाव से वह निकला?
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आप भी अनुभव करते होंगे कि हमारे पहाड़ी ग्रामीण जीवन में जो
आपसी वार्तालाप होते हैं, उसकी एक अपनी तरह की शैली होती है। उसमें
व्यंग्य भी होता है, मितकथन भी होता है और कहावतों के माध्यम
से बात कही जाती है। आपने पढ़ी होगी मेरी ‘किस्सागो’ कहानी, उसमें इस तरह का वातावरण है। तो, यह मुझे अपने संस्कारों से मिला है। दूसरा यह है कि मैंने बहुत अकादमिक
पढ़ाई नहीं की है लेकिन स्वाध्याय से मैंने बहुत अच्छा साहित्य, देसी-विदेशी, पढ़ने का और समझने का और उसके क्राफ्ट
को जानने का प्रयत्न किया है। तो, जो ये मेरा विवेक है वह
बहुत कुछ मेरे अपने अध्ययन से और मेरे जीवन के अनुभवों से आया है।
[] आप कैसे लिखते हैं यानी कई ड्राफ्ट बनाते हैं या मन ही
मन लिखकर फाइनल करते हैं? एक कहानी आम तौर पर कितनी बैठकों में पूरी
होती थी?
-
जब मैं किसी विषय पर लिखना चाहता हूं तो मानसिक रूप से मैं
उसको गूंथता हूं और उसमें क्या बढ़ाना है, क्या घटाना है, यह सब
मैं अपनी कल्पना में सोचे रहता हूं। तो, प्राय: मैंने अपनी
कहानियां एक ही सिटिंग में पूरी की हैं क्योंकि बहुत लम्बी कहानियां नहीं हैं
मेरी। जो सबसे अधिक समय लेने वाली कहानी थी, वह 'कोसी का घटवार' थी जो मैंने दो या ढाई दिन की बैठक
के बाद पूरी की थी। मेरा लिखने का एक और तरीका था, कहानी
लिखने से पहले बहुत सारे कविता संकलन पास में रखता था और उन कविता संकलनों को,
अपने प्रिय कवियों को पढ़ता था। उसके बाद मैं गद्य की ओर अग्रसर होता
था। तो, इससे पता नहीं कैसे मेरे दिमाग में एक ऊर्जा होती
थी।
[] आप दिल्ली में कुछ वर्ष रहकर इलाहाबाद आए। उस दौर में
दोनों शहरों के साहित्यिक माहौल में क्या फर्क था? इलाहाबाद के माहौल के
बारे में बताइए, जो तब हिंदी साहित्य का सबसे बड़ा केंद्र था।
-
मेरा दिल्ली का पहला प्रवास सन 1951 से लेकर 55 तक रहा। तब
वहां की जो साहित्यिक गतिविधियां थीं, बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं थीं। जो बड़े लेखक
थे, जैसे जैनेंद्र जी, मैथिलीशरण गुप्त
थे, रामधारी सिंह दिनकर थे, ये लोग
ज्यादा मिक्स-अप नहीं होते थे। जैनेंद्र जी के घर में ‘शनिवार
समाज’ की साहित्यिक मीटिंगें होती जरूर थीं। बाद में दिल्ली
जो साहित्य का केंद्र बनी वह अज्ञेय जी, श्री नरेश मेहता,
रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा जैसे कवियों और निर्मल वर्मा, रामकुमार,
भीष्म साहनी जैसे कहानीकारों के कारण बनी। गीतकार कवियों का वर्चस्व
था जो कि कवि सम्मेलनों में, कवि गोष्ठियों में सस्वर पाठ
करते थे। गोपाल प्रसाद व्यास जैसे हास्य-कवि थे और लोगों को काफी हंसने-हंसाने का
मौका मिलता था। उन लोगों की संगत के कारण मैंने भी कुछ कविताएं लिखी थीं लेकिन
मेरी कविताएं कुछ भिन्न होती थीं। उसमें एक कथातत्व रहता था जैसे- ‘मैं मंदिर में जाता हूं/ उस ईश्वर को शीश नवाने जो पत्थर का गुमसुम बुत है/
कृपण कृपा से धनवानों की/ धाम बना जिसका अद्भुत है/ मैं जाता हूं
याचक बनकर/ वैभव पूर्ण जीवन पाने / मैं जाता सौदागर बनकर/ चांदी के सिक्कों के
बदले अपने पापों का भुगतान चुकाने...।’ तो, गीतकारों की प्रेम कविताओं से हटके इन कविताओं को लोग खूब पसंद करते थे
और तालियां देते थे। अगर मैं दिल्ली में ही रह जाता तो तालियां ही बटोरता रह जाता।
मेरा सौभाग्य था कि जब हमारी ट्रेनिंग खत्म हुई तो पता चला
कि मेरे ट्रेड के चार लोगों के लिए इलाहाबाद में वेकेंसी है। मेरा मुख्य उद्देश्य
था कि इस साहित्यिक शहर में पहुंचकर कुछ सीखना, कुछ पढ़ना। राजनीतिक रूप
से भी वह जागृत शहर था। इलाहाबाद आना इतना शुभ हुआ...। ‘पर्वतीय
जन विकास समिति’ नाम की हमारी सांस्कृतिक संस्था दिल्ली में
थी, उसके बुलेटिन के वार्षिकांक के लिए नंद किशोर नौटियाल ने,
जो सम्पादक मण्डल में प्रमुख थे, कहा था- शेखर तुम कहानियां लिखते हो, तो ऐसी कहानी लिखो
जिसमें नायक होटल में काम करता हो। तो, मैंने ‘दाज्यू’ कहानी लिखी थी। जब मैं इलाहाबाद पहुंचा तो
एक दिन भैरव जी के कमरे में अचानक कमलेश्वर भी आ गए, जो ‘साहित्यिकी’ का संयोजन करते थे, जो प्रगतिशील साहित्यकारों की गोष्ठी होती थी। भैरव जी ने उनसे कहा कि ये
भी कहानीकार हैं, इनकी कहानी भी तुम एजेण्डे में रखो। तो,
अगले महीने कमलेश्वर ने मेरी का कहानी का पाठ रखा। श्रीपत जी के घर
पर, ड्रमंड रोड में, बहुत बड़ी मीटिंग
थी, हिंदी और उर्दू के लोगों की सम्मिलित रूप से। वहां मैंने
डरते-डरते ‘दाज्यू’ कहानी का पाठ किया।
और, ‘दाज्यू’ कहानी को लोगों ने इतना
सराहा कि अश्क जी ने कमलेश्वर से कहा कि ‘ले लो’। मैं समझा नहीं और कमलेश्वर ने पाण्डुलिपि मेरे हाथ से ले ली। बाद में
पता चला कि अश्क जी एक साहित्यिक संकलन ‘संकेत’ निकाल रहे हैं, उसमें वह कहानी देंगे। तो, संकेत में भी 'दाज्यू' कहानी
छपी और खूब चर्चित हुई। उसके बाद फिर अमृत राय जी और बाल कृष्ण राव, जो सी वाई चिंतामणि जी के सुपुत्र और आईसीएस अधिकारी थे, इस्तीफा देकर स्वतंत्र लेखन के लिए इलाहाबाद में बस गए थे, उनके संयुक्त सम्पादन में ‘हंस’ का भी एक साहित्यिक संकलन निकलने वाला था। जैसा कि पहले बता चुका हूं,
उसके लिए ‘बदबू’ लिखी।
उसके बाद तो सिलसिला चल निकला। ‘कहानी’ पत्रिका के माध्यम से भैरव जी ने मुझसे तगादा कर-कर के कहानियां लिखवाईं।
अगले विशेषांक में ‘उस्ताद’ छपी। उसके
अगले विशेषांक में ‘कोसी का घटवार’ छपी।
तो, इस तरह से मुझे ऐसी जगह मिली जहां अपने अग्रजों से और
फिर अपने समकालीनों से बहुत कुछ सीखने का मौका मिला।
एक बहुत अच्छा संयोग यह हुआ कि व्हीलर बुक स्टाल के मालिक, सम्भवत:
अनुकूल बनर्जी, ने,
स्टाल में रखे-रखे जो किताबें खराब हो जाती थीं, पुरानी पड़ जाती थीं, उनका एक विक्रय केंद्र सिविल
लाइंस में रखा। महीने में एक बार स्टॉक आता था। जैसे ही स्टॉक आता था, साहित्यिक रुचि के विद्यार्थी, प्रोफेसरान, लेखक टूट पड़ते थे। मैंने सस्ते दामों पर जॉन स्टेनबैक की पूरी श्रृंखला,
काफ्का की 'द कैसल', और
भी बहुत सी किताबें वहीं से लेकर पढ़ीं। उन दिनों मास्को से जो साहित्य आता था,
अनूदित साहित्य, मुख्य रूप से सोवियत यूनियन
की भाषाओं का, बहुत सस्ते में वो किताबें मिलती थीं। उसके दो
सेण्टर थे- एक, यूनिवर्सिटी रोड पर और एक जॉनस्टनगंज में। मास्को
से प्रकाशित पुस्तकों में चेखव, तुर्गनेव, मैक्सिम गोर्की, आस्त्रोवस्की, चंगेज आइत्मातोव के उपन्यास, माइकोवस्की, नाजिम हिकमत और निकोला वाप्सरोव की कविताएं पढ़ने का सुयोग मिला। इससे कुछ
वर्ष पहले नेमिचंद्र जैन ने सिविल लाइन्स में ‘आधुनिक पुस्तक भण्डार’
खोलकर लोगों में अच्छी, सार्थक साहित्यिक
पुस्तकें पढ़ने की नींव डाली थी। हम लोग आपस में बातें करते थे, जो अग्रज लोग हैं उनकी बातें सुनते थे, इससे अच्छी
समझ बनती थी। तो, इस तरह इलाहाबाद का माहौल था। निराला जी
हालांकि बहुत स्वस्थ नहीं थे, लेकिन वहां थे। महादेवी जी थीं,
पंत जी थे, फिराक साब थे और अमृत राय, भैरव प्रसाद गुप्त, उपेंद्र नाथ अश्क, शमशेर बहादुर सिंह और परिमल ग्रुप में जगदीश गुप, जयदेव
नारायण साही, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लक्ष्मीकांत
वर्मा। नए लेखकों में दुष्यंत, मार्कण्डेय, कमलेश्वर, अमरकांत भी आ गए थे, ज्ञान प्रकाश, उमाकांत मालवीय... तो, ऐसा गहमागहमी का माहौल रहता था। ‘शनीचरी ग्रुप’
कहलाता था हमारा, शनिवार को नियमित रूप से
मिलते थे। परिमल ग्रुप के लोग भी अक्सर, और शनिवार को तो
जरूर ही कॉफी हाउस आते थे। अलग-अलग टेबल्स में बैठते थे। तो, पूरा शहर साहित्यिक माहौल में रंगा हुआ था। बहुत अच्छी फिल्में ‘पैलेस’ थिएटर में, जो फीरोज
गांधी के चाचा जी का था, इतवार को दिखाई जाती थीं। हमने बहुत
सी बांग्ला पिक्चरें, अंग्रेजी पिक्चरें, और हिंदी की भी क्लासिक पिक्चरें ‘पैलेस’ थिएटर में ही देखीं। नाटक भी अक्सर होते रहते थे। फिर, काम करते हुए ट्रेड यूनियन में सम्पर्क हुआ और मैं अपनी ब्रांच का
सेक्रेट्री बना। तो, सारे शहर की ट्रेड यूनियनों से सम्पर्क
होने लगा। उसका भी बहुत कुछ असर रहा। तो, ये सब प्रेरक चीजें
थीं इलाहाबाद में। और, जो साहित्यिक लोगों के आपसी सम्बंध
होते थे वो इतने मधुर होते थे, इतने आत्मीय कि मुझे याद है
कि सन साठ (1960) में हमारी शादी हुई थी और उसी वर्ष संस्कृत के विद्वान कमलेश
दत्त त्रिपाठी जी की भी शादी हुई और एक और सज्जन की भी, जो
कि श्रीकृष्ण दास जी की बहन के पुत्र थे। श्रीकृष्ण दास जी बहुत बड़े साहित्यिक
पत्रकार थे। तो, उनके घर में तीनों जोड़ों को बुलाया गया और
कल्पना कीजिए कि कोई रिश्तेदारी नहीं, कोई कुछ नहीं, लेकिन निस्संतान श्रीकृष्णदास जी ने और सरोज भाभी ने तीनों बहुओं की गोद
भरी, अक्षत और हल्दी से और सबको एक-एक साड़ी दी। तो, ये कहां मिलता! प्रकाश चंद्र गुप्त जी, जो कि बहुत
बड़े आलोचक थे, प्रोफेसर थे अंग्रेजी के, हेड ऑफ डिपार्ट्मनेट थे। उनकी पत्नी बहुत ही स्नेहिल थीं। उन्होंने हम
पति-पत्नी को खाने के लिए बुलाया। मेरी पत्नी बिंदास किस्म की थीं। जो चीज अच्छी
लगी, खूब मन से खा रही थीं, तो मैंने
इशारे से उनको टोका। मिसेज गुप्ता ने डांटकर कहा- शेखर, मैं
देख रही हूं, बहू को खाने दो ढंग से। तो, अब सोचिए कि ये माहौल, ये आत्मीयता कैसे संस्कार दे
गई हम लोगों को! अश्क जी के घर में हम लोगों की बैठकी होती थी और अश्क जी हर नए
लेखक से उसकी रचना सुनके सोचते थे कि वो भी उस तरह की चीज लिखें। बहुत ज़िंदादिल
आदमी थे। ... ऐसा वातावरण था...। मासिक गोष्ठियां होती थीं और उनमें ऐसी खिंचाई
होती थी कि रचना के रेशे-रेशे को तार-तार किया जाता था। लेकिन कोई दुर्भावना नहीं
होती थी। साहित्यिक विवेक उससे जागता था। तो, वह स्वर्ण युग
था इलाहाबाद का।
[] परिमल और प्रगतिशील खेमों के रिश्तों पर कुछ बताइए।
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प्रगतिशील और परिमल खेमों में जो प्रमुख विभाजन था, वो
वैचारिक था। प्रगतिशील खेमे वाले मार्क्सवादी दृष्टिकोण के होते थे और परिमल वाले
प्राय: या प्रच्छन्न रूप से मार्क्सवाद के विरोध में। अधिकांश लोग उसमें से
लोहियावादी थे। और, दूसरा फर्क शिल्प के बारे में था कि उनका
रुझान कलावादी होता था। प्रगतिशील लोग सामान्य जन से जुड़ने के लिए एक तरह की आमफहम
भाषा और सीधे-सरल कथ्य को प्रीफरेंस देते थे। कुछ ऐसी संस्थाएं थीं जो कि परिमल
वालों को बहुत प्रश्रय देती थीं। जैसे, शीतयुद्ध के जमाने
में अमेरिका की ‘मॉरल रिआर्मामेंट’ नाम
की संस्था थी, उसका वरदहस्त इनके ऊपर रहता था। प्रगतिशीलों
के बारे में लोगों को एक भ्रम था कि इनको रूस जो है, वो
प्रश्रय देता है, और आर्थिक रूप से भी। जो कृतियां साहित्यिक
दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होती थीं उसको दोनों पक्ष आदर की दृष्टि से देखते थे।
'परिमल’ में नए लेखकों
को अपनी ओर आकर्षित करने का बड़ा आग्रह रहता था। जब मैंने 'दाज्यू' कहानी पढ़ी और उसकी चर्चा हुई तो 'परिमल' की ओर से मुझे अपनी ओर खींचने की कोशिश हुई। जगदीश गुप्त, जो 'नई कविता’ निकालते थे,
उसमें लक्ष्मीकांत जी ने मुझसे कविताएं लेकर छापीं। धर्मवीर भारती
ने अपनी पत्रिका ‘निकष’ में मेरी कहानी
‘नरु का निर्णय’ प्रकाशित की। लेकिन
हमारा दिल्ली से रंग कुछ दूसरा बदल गया था, इसलिए 'परिमल' की ओर उतना आकर्षित नहीं हुए। कोशिश ये रहती
थी मेरी कि चाहे वो प्रगतिशील खेमे का हो, चाहे परिमल खेमे
का, अगर कोई रचना अच्छी है तो उसे बिना किसी पूर्वग्रह के
पढ़ा जाय और मैंने एक मीटिंग में हिंदी साहित्य सम्मेलन में ये बात कही थी कि हम
बहुत सी चीजों को पढ़ने से वंचित रह गए पूर्वग्रह के कारण और दूसरे खेमे के लोग भी
वंचित रह गए होंगे।
[] इलाहाबाद में 1957 में हुए लेखक सम्मेलन के बारे में
बताइए कि क्या उद्देश्य था, कितनी भागीदारी थी, उसका
क्या प्रभाव पड़ा?
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दिसम्बर 1957 में तीन दिन का एक अखिल भारतीय अभूतपूर्व
सम्मेलन हुआ था। इसका आयोजन इलाहाबाद के प्रगतिशील लेखकों ने किया और बनारस से
आयोजन समिति में जुड़े डॉ नामवर सिंह और केदारनाथ सिंह। आमंत्रित लेखकों को सूचित
कर दिया गया था कि हम आपके आवास की व्यवस्था नहीं कर पाएंगे। भोजन की व्यवस्था
अवश्य हम करेंगे। बहुत बड़ी संख्या में लोग अपने खर्चे पर अपने आवास की व्यवस्था
करके, मित्रों के यहां, इधर-उधर, सम्मिलित
हुए थे। तब नए कवि के रूप में श्रीकांत वर्मा, मुक्तिबोध जी
के साथ आए थे। मोहन राकेश, राजेंद्र यादव, कमलेश्वर, मार्कण्डेय, शिवप्रसाद
सिंह और बनारस से बहुत से नए विद्यार्थी और साहित्य में रुचि रखने वाले शामिल थे।
सम्मेलन का उद्घाटन एनी बेसेण्ट हाल में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने किया
था। उसके बाद संगीत समिति के विभिन्न कक्षों में विभिन्न विधाओं के रचनाकारों की
बैठकें हुई थीं। जैसे, कहानी विधा पर गोष्ठी की सदारत यशपाल
जी ने की थी। कवियों की गोष्ठी अलग हुई थी। नाटक वालों की गोष्ठी अलग हुई, आलोचना वालों की अलग। इसके प्रमुख सूत्रधार अमृत राय थे। उनमें बड़ी संगठन
क्षमता थी और उनका साहित्यकारों के बीच में सम्मान था.. उन्होंने ही तय किया कि
किस-किस को आलेख भेजने के लिए लिखना है, निमंत्रण तो सभी को
भेजा गया था। गोष्ठी का विषय था ‘स्वाधीन भारत और साहित्यकार’। उसका परिपत्र भी अमृत जी ने ही ड्राफ्ट किया था। आयोजन समिति में बारह
लेखकों का उल्लेख था जिनमें प्रकाश चंद्र गुप्त, भैरव प्रसाद
गुप्त, अमृत राय, बनारस से नामवर जी,
केदारनाथ सिंह, मार्कण्डेय, अमरकांत, कमलेश्वर, शेखर जोशी…
एक-दो नाम भूल रहा हूं। अश्क जी तब वहां नहीं थे, इतना मुझे याद है। हो सकता है कि शमशेर जी का नाम रहा हो, श्रीकृष्ण दास जी और श्रीपत राय जी का नाम रहा हो। इतना बढ़िया सम्मेलन हुआ
था कि कोई चण्डीगढ़ से आ रहा है, कोई कहीं से, अपनी व्यवस्था करके। कुछ उसमें विनोद पक्ष भी रहा। जैसे, बाहर बातचीत के दौरान विद्यासागर नौटियाल ने कहा कि मैं यशपाल जी से
पूंछुंगा कि आपने पर्वतीय नारी को लेकर इस तरह की (खराब धारणा वाली) कहानियां
क्यों लिखीं लेकिन गोष्ठी में वे चुप रहे। उधर, संस्कृत के
विद्वान वाचस्पति गैरोला जी, जिनका हिंदी साहित्य से कोई
लेन-देन नहीं था, अचानक उठ खड़े हुए और उन्होंने कहा कि
अध्यक्ष महोदय, आपने पर्वतीय नारी की मान-मर्यादा के विरोध
में कहानियां क्यों लिखीं? यशपाल जी भौंचक्के रह गए। सवाल
उठाने के बाद गैरोला जी वहां से गायब हो गए थे। तो, अध्यक्षीय
भाषण में यशपाल जी ने कहा कि एक सज्जन ने अभी मुझसे कुछ प्रश्न पूछा था, तो कुछ चीजें ऐसी हैं जो मैंने प्रत्यक्ष देखीं हैं और मैंने उनका वर्णन
कर दिया, वगैरह। एक चुटकुलेबाजी रही ग्राम-कथा को लेकर।
शिवप्रसाद सिंह और मार्कण्डेय ग्राम-कथा वाले लोग थे। कुछ शहरी कथा वाले लोग हो
गए। तो, ग्राम कथा बनाम शहरी कथा की बात हो गई। तब कमलेश्वर
ने कहा कि कस्बे की कथा भी है। वो मैनपुरी कस्बे के थे। तो,
ये विनोद पक्ष रहा।
हमारी बड़ी उपलब्धि ये रही कि मुक्तिबोध जो शमशेर जी के यहां
टिके हुए थे, हम सब नए लेखक रात में उनके पास पहुंचे और उनसे कविताएं
सुनाने के लिए कहा। तब उनकी ‘अंधेरे में’ कविता नहीं लिखी गई थी, शायद ‘ब्रह्मराक्षस’
सुनाई थी। उनका जो चित्र बीड़ी फूंकते हुए बहुत प्रकाशित होता है,
वह प्रत्यक्ष देखा हमने। उनका कविता पाठ अपने-आप में इतना स्पष्ट था
कि कहीं कोई समझने में अड़चन नहीं आई। नहीं तो पढ़ते हुए मुक्तिबोध को थोड़ी कठिनाई
होती थी। अद्भुत था वो...। मुझे जिम्मेदारी दी गई थी कि मैं कवि गोष्ठी का संचालन
करूं। मेरे लिए यह बड़ी समस्या थी, नया-नया साहित्य के
क्षेत्र में आया था। तो, मैंने नागार्जुन जी, जो पटना में थे, उनको पत्र लिखा। नागार्जुन जी का तत्काल उत्तर आया कि अभी
रात के बारह बजे हैं, मैं विद्यापति समारोह से लौटा हूं। मैं आऊंगा, जरूर आऊंगा। वो आए और मैंने कवि गोष्ठी के संचालन का भार जो है उनको
सम्भला दिया। दुष्यंत मुरादाबाद में थे, नहीं आ पाए।
उन्होंने कहा था कि प्रयोगवादियों और गीतकारों को एक साथ मत मिलाना। तो, इस तरह से हम लोगों की भागीदारी रही और खूब आनन्द आया। जो बनारस से ग्रुप
आया था, विश्वनाथ त्रिपाठी, अक्षोभ्येश्वरी
प्रताप, विजय मोहन, विद्यासागर नौटियाल,
ये सब हम लोगों के समकालीन थे, तो खूब
हंसी-मजाक, साहित्यिक चर्चा होती थी। कोशिश ये रही कि जो
आलेख आए हैं उनका भी प्रकाशन किया जाए लेकिन फिर सम्भव नहीं हुआ। नंद दुलारे
बाजपेई जी सागर यूनिवर्सिटी में हेड ऑफ डिपार्टमेण्ट थे। वे आ नहीं पाए लेकिन सागर
से यूनिवर्सिटी के छात्र और ‘समवेत’ पत्रिका
के युवा सम्पादक अशोक बाजपेई आए थे। वे बहुत प्रसन्न हुए थे कि उनको बुलाया गया।
तो, वह एक ऐतिहासिक सम्मेलन था। प्रगतिशीलों के इस आयोजन में
परिमल वालों ने भी पूरी तरह से सहयोग दिया और भाग लिया था।
(शेखर जी से यह बातचीत 'आजकल' पत्रिका के सितम्बर अंक के लिए की गई थी, जो उन्हीं पर केंद्रित था। 10 सितम्बर को उन्होंने 90 वर्ष पूरे करके 91 वें प्रवेश किया लेकिन फिर वे अचानक बीमार पड़े और चार अक्टूबर को गाजियाबाद में उनका देहंत हो गया। इस बातचीत का एक भाग 'आजकल' के अक्टूबर अंक में और बाकी बाह नवम्बर अंक में प्रकाशित हुआ। यहां भी इसे दो किस्तों में दिया जा रहा है। बाकी कल)
-नवीन जोशी