Saturday, December 30, 2017

प्रेम और धर्म के शत्रु


प्रेम क्या जाति-धर्म देख कर कियाजाता है? प्रेम कियानहीं जाता, हो जाता है. प्रेम हो जाता है, कहीं भी, किसी से भी. हिंदू-धर्म के कथित रक्षकों, उग्र हिंदूवादी संगठनों और भाजपा के भी बहुत सारे नेताओं को यह समझ में नहीं आता, हालांकि हिंदुओं के प्राचीन आख्यान ऐसी प्रेम कथाओं से भरे पड़े हैं. खुद कई भाजपा नेताओं के परिवारों में जाति-धर्म से बाहर प्रेम विवाह हुए हैं.  

अब वे इसे लव जिहादकहने लगे हैं और इसके विरोध में खून-खराबे तक उतर आये हैं. लव जिहादकी उनकी परिभाषा गजब है. हिंदू लड़का मुस्लिम लड़के से प्रेम विवाह कर ले तो लव जिहादनहीं है. वह स्वीकार्य है. हिंदू लड़की का मुस्लिम लड़के से प्रेम  हो जाए तो वह लव जिहादहै. तब कहा जाता है कि मुस्लिम लड़के ने साजिशन प्रेम का नाटक किया है, लड़की को बरगलाया है, यह दवाब और धर्म परिवर्तन का मामला है. चलो, इसका विरोध करो, हंगामा, मार-पीट करो. हिंदू धर्म की रक्षा करो!

पिछले कुछ समय से हिंदू-धर्म बहुत नाजुक और कमजोर हो गया है. उसे बात-बात में खतरा हो जाता है. हजारों साल से तरह-तरह के आक्रमण झेल कर भी जो धर्म सुरक्षित और व्यापक है, वह मुहब्बत से, ‘बीफवगैरह से खतरे में पड़ जा रहा है. इसलिए हिंदू धर्म के स्वयं रक्षक बड़ी संख्या में पैदा हो गये हैं. गाली-गलौज, लाठी-डण्डे, चाकू-गोली-बम से धर्म-रक्षा हो रही है.

चंद रोज पहले गाजियाबाद में हिंदू लड़की और मुस्लिम लड़के का प्रेम विवाह हुआ. दोनों परिवारों की सहमति से. लड़की डॉक्टर है और लड़का एमबीए. दोनों एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में काम करते हैं. लड़की के पिता बड़े व्यापारी हैं और दादा रिटायर आईएएस. कोर्ट में शादी के बाद लड़की के परिवार ने दावत दी. इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है?

पता चलते ही बजरंग दल और हिंदू जागरण मंच के लोग विरोध करने पहुंच गये. दावत में हंगामा खड़ा कर दिया. भाजपा के गाजियाबाद महानगर अध्यक्ष भी दल-बल पहुंच गये. आरोप लगाया गया कि लड़की पर दवाब डाल कर शादी कराई गयी है. यह लव जिहादहै. गनीमत रही कि पुलिस आ गयी. उसने बलवाइयों को लड़की के परिवार से मिलाया. उन्हें बताया गया कि विवाह सबकी सहमति से हुआ है. लड़का-लड़की एक दूसरे को पांच साल से जानते हैं. मगर वे न माने. भाजपा नेता के आने से बवाल और बढ़ गया. तब पुलिस ने बलवाइयों को खदेड़ा. जाने से पहले वे लड़की के परिवार को धमका गये कि कब तक पुलिस के पीछे बचोगे. पुलिस वालों को भी सरकार की भी धमकी दिखाई.

ऐसे मामले देश भर में हो रहे हैं. कोई इन धर्म-रक्षकोंको रोक-टोक नहीं रहा. राजस्थान में एक निरीह राजमिस्त्री को मार कर जला दिया गया. उसका वीडियो भी जारी हुआ, इस धमकी के साथ कि सभी लव जेहादियोंका यही हाल किया जाएगा. गाजियाबाद में पुलिस फौरन इसलिए आ गयी कि लड़की का परिवार प्रभावशाली था.

प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ने इस वारदात के बाद गाजियाबाद के भाजपा अध्यक्ष को पद से हटाया जरूर लेकिन यह नहीं बताया कि इसका कारण उस घटना में उनकी भूमिका है. कारण बताया ताजा घटनाक्रम’. यानी भाजपा ने अपने एक नेता को किसी ऊपरी दवाब में हटा तो दिया लेकिन यह संदेश वह नहीं देना चाहती कि पार्टी प्रेम को लव जिहादबताने और उसका विरोध करने के खिलाफ है.  मतलब साफ है कि वह इससे सहमत है.  

यह जनता को तय करना है कि यह हिंदू धर्म की रक्षा है या विनाश.     


 (सिटी तमाशा, नभाटा, 29 दिसम्बर 2017)

Wednesday, December 27, 2017

विपक्षी एकता के अंतर्विरोध


बीती 23 दिसम्बर को पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की जयंती के मौके पर जब समाजवादी, वामपंथी और कांग्रेस के नेता एक मंच पर जुटे तो किसानों और जाटों के उस बड़े नेता की प्रशस्ति से ज्यादा विपक्षी दलों के एकजुट होने की जरूरत पर ज्यादा चर्चा हुई. दिल्ली में इस मंच पर चार समाजवादी धड़े थे- समाजवादी पार्टी के रामगोपाल यादव, जनता दल (यू) के विद्रोही शरद यादव, जनता दल (एस) के दानिश अली, राष्ट्रीय जनता दल के अजित सिंह. साथ में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सीताराम येचुरी और कांग्रेस के आनंद शर्मा.
इन नेताओं के भाषणों के स्वर से लेकर आपसी बातचीत तक एक ही मुद्दा केंद्र में रहा कि 2019 के लोक सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का मुकाबला करने के लिए विपक्षी दलों की एकता हो जानी चाहिए. हालांकि यह पहली बार नहीं है. नरेंद्र मोदी की अजेय-सी लगने वाली छवि बनने के बाद से विपक्षी दलों को एकता की जरूरत ज्यादा ही लगने लगी है. यह अलग बात है कि उसे व्यवहार में उतारना उनके लिए मुश्किल बना रहा. विरोधी दलों के अंतर्विरोध, वैचारिक और क्षेत्रीय टकराव कम नहीं.

विपक्षी दलों की एकता की नयी चर्चा गुजरात चुनाव नतीजों के बाद छिड़ी है. इन नतीजों ने साबित किया कि भाजपा अजेय नहीं है. नतीजों के तत्काल बाद विरोधी दलों की प्रतिक्रियाओं से उनकी एकता की चाहत सामने आने लगी है. उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कहा कि 2019 में  भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों का साथ लेना चाहिए. स्पष्ट है कि अखिलेश अब भी कांग्रेस से गठबंधन करने के इच्छुक हैं, यद्यपि उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावों में सपा-कांग्रेस गठबंधन पिट गया था. मुलायम सिंह यादव मानते हैं कि सपा की हार कांग्रेस की वजह से ज्यादा हुई लेकिन अखिलेश भाजपा को बड़ी चुनौती मानते हुए विपक्षी एकता के पक्षधर हैं. यहां तक कि वे धुर विरोधी मायावती से भी हाथ मिलाने के हिमायती हैं.

मायावती उत्तर प्रदेश में आज भी बड़ी राजनैतिक ताकत हैं. भाजपा ने उनके दलित वोट बैंक में सेंध लगाई है. भाजपा के खिलाफ किसी मोर्चे में उनके शामिल होने की सम्भावना तो बनती है और वे असहमत भी नहीं लेकिन जैसी उनकी राजनीति है, उसमें शर्तें और शंकाएं ज्यादा हैं. कुछ समय पहले उन्होंने कहा था कि वे भाजपा के खिलाफ किसी गठबंधन में शामिल हो सकती हैं लेकिन सीटों का बंटवारा पहले हो जाना चाहिए. दिक्कत यह है कि सपा-बसपा का मुख्य आधार उत्तर प्रदेश है. दोनों ही वहां अपनी जमीन दूसरे के लिए आसानी से नहीं छोड़ने वाले.

उत्तर प्रदेश में विपक्षी एकता का एक महत्त्वपूर्ण अवसर आगामी अप्रैल में आने वाला है जब राज्य सभा की 10 सीटों का चुनाव होगा. सपा एक और भाजपा आठ सीटें आसानी से जीत लेंगी. अगर सपा, बसपा और कांग्रेस एक हो जाएं तो वे दसवीं सीट भाजपा को नहीं जीतने देंगे. क्या ऐसा हो पाएगा?  

ममता बनर्जी भी गुजरात नतीजों से बहुत उत्साहित हैं. वे नरेंद्र मोदी की कट्टर विरोधी हैं. भाजपा बंगाल में पैर जमाने में लगी है. उसका वोट वहां लगातार बढ़ रहा है. इसलिए वे भाजपा के खिलाफ एक मोर्चे में आ सकती हैं लेकिन उनकी समस्या यह है कि उन्हें वाम दलों से भी बंगाल में  उतनी ही मजबूती से लड़ना है. भाजपा विरोधी मोर्चे में वाम-दल और तृणमूल कांग्रेस एक साथ कैसे फिट होंगे?

सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल विपक्षी मोर्चे के नेतृत्व का है. क्या कांग्रेस को मोर्चे का नेतृत्त्व सौंपने को सभी दल तैयार हो जाएंगे? यूपीए के दौर में सोनिया को नेता मानने में कोई बड़ी अड़चन नहीं थी. अब कांग्रेस की बागडोर राहुल के हाथ है और कांग्रेस बहुत कमजोर हो चुकी है.  क्या सोनिया की तरह राहुल भी सर्व-स्वीकार्य हो सकते हैं?

राहुल और कांग्रेस के पक्ष में एक बात जरूर है कि लगभग पूरे देश से सफाये के बावजूद वह जनता के बीच सुपरिचित पार्टी है. उसका प्रतिष्ठित इतिहास है. गुजरात के नतीजों ने राहुल और कांग्रेस को कुछ संजीवनी-सी दी है. मगर गुजरात ने एक सवालिया निशान भी खड़ा किया है. कांग्रेस की सेकुलर छवि को दबाते-छुपाते राहुल ने गुजरात में उदार हिंदुत्त्व का जो चोला ओढ़ा है, क्या उस पर समाजवादी और वाम दल सवाल नहीं उठएंगे? कांग्रेस ने यह नया चोला सिर्फ गुजरात के लिए पहना या आगे भी यही बाना धारण करने का उसका इरादा है?

महत्त्वपूर्ण यह भी है कि हमारे यहां विपक्षी एकता के लिए एक बड़े और स्वीकार्य सूत्रधार की जरूरत पड़ती रही है, ऐसा नेता जो तात्कालिक आवश्यकता के लिए विभिन्न दलों के अंतर्विरोधों को एक किनारे रखवा सके. लोहिया, जे पी या हरकिशन सिंह सुरजीत जैसा सूत्रधार अथवा मार्गदर्शक आज कौन है? तुलना की बात नहीं, लेकिन एक लालू यादव हैं जो भाजपा विरोधी विपक्षी मुहिम को साध रहे थे लेकिन वे अपने ही पाप-पंक में पूरी तरह घिरे हैं. नीतीश कुमार इस भूमिका में हो सकते थे लेकिन वे भाजपा के पाले में चले गये. शरद यादव एकता की पहल करते रहे हैं लेकिन आज उनके पीछे कोई पार्टी नहीं है. सीताराम येचुरी भी विपक्षी एकता के वकालती हैं मगर कांग्रेस से रिश्ते बनाने पर उन्हें अपनी ही पार्टी के भीतर मोर्चा लेना पड़ रहा है.

कुल मिलाकर आज जो परिदृश्य है, उसमें विपक्क्षी एकता का दारोमदार  राहुल के नेतृत्त्व में कांग्रेस पर ही आ ठहरता है. कांग्रेस की मुश्किल यह है कि वह ज्यादातर राज्यों में जनाधार खो चुकी है. उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े राज्यों में वह अस्तित्त्व के लिए लिए जूझ रही है. विपक्षी एकता के लिए स्वाभाविक ही उसे बड़ी कीमत चुकानी होगी. क्षेत्रीय दलों को साथ लेने के लिए उसे अधिकसंख्य सीटें उन्हें देनी होंगी. यूपी-बिहार जैसे बड़े राज्यों में उसकी खोई हुई जमीन वापस नहीं आने वाली.  यूपी के विधान सभा चुनाव यह साबित कर चुके हैं.

2019 के लोक सभा चुनाव से पहले आठ राज्यों के चुनाव होने हैं. इनमें कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ इस माने में महत्त्वपूर्ण हैं कि यहां भाजपा और कांग्रेस की सीधी लड़ाई है.  क्या गुजरात की तरह कांग्रेस यहां भी भाजपा को कांटे की टक्कर दे पाएगी? क्या कर्नाटक में अपनी सत्ता बचा पाएगी? इसी पर विपक्षी मोर्चे में कांग्रेसी नेतृत्त्व का फैसला निर्भर है. लेकिन पहले राहुल को तय करना होगा कि वे कांग्रेस को ही सीधे भाजपा के मुकाबले खड़ा करने का कठिन लक्ष्य साधना चाहते हैं या फिलहाल भाजपा को हराने के लिए विपक्षी एकता को महत्त्व देते हैं.
(प्रभात खबर, 28 दिसम्बर 2017) 
  
 




Tuesday, December 26, 2017

आदमियों के जंगल में बंदरों का कब्जा


बीते दिनों एक पड़ोसी एक ज्ञापन पर हस्ताक्षर कराने आये- “बंदरों ने जीना मुश्किल कर दिया है. नगर निगम से शिकायत करनी है.” हमने कहा- “नगर निगम बंदरों का क्या करेगा?” उन्हों
ने कहा- “वन विभाग से कह कर निगम बंदरों को पकड़ने की कुछ व्यवस्था कराता है, सुना.”
नगर निगम अपना काम तो ठीक से कर नहीं पाता, बंदरों का भला वह क्या करेगा. खैर, हमने ज्ञापन पर हस्ताक्षर कर दिये. हम सोचते थे कि बन्दरों से हम ही ज्यादा पीड़ित हैं. छत पर गमलों में सब्जियां उगाने का प्रयोग किया था. एक साल ठीक-ठाक फसल हुई. अगले वर्ष दायरा बढ़ाया ही था कि बंदरों का हमला हो गया. पौधे क्या, गमले भी तोड़ डाले. फिर वे लगातार आने लगे, पूरा दल-बल. पहले चुपचाप आकर नुकसान कर जाते थे, अब छत और बालकनी ही नहीं, पोर्च और गेट पर भी धमाचौकड़ी मचाते हैं. एक दिन सुबह दूध के पैकेट हाथ से छीन ले गये.
ज्ञापन के बहाने अब चर्चा चली तो सबके दर्द खुलने लगे. किसी को फूलों का शौक है, किसी ने थोड़ी सी जगह में आम,अमरूद, पपीते वगैरह के पेड़ लगाये हैं. बन्दर कुछ नहीं रहने देते. फलों के बहाने किसी को काट न लें, इसलिए पेड़ ही काट दिये. फूल उगाने के शौकीन पड़ोसी ने बताया कि गेंदे की कलियां तक तोड़ कर खाते-बिखराते हैं, गमले तोड़ जाते हैं. इसलिए गमले रखना छोड़ दिया.
किसी ने बताया कि एक बार दरवाजा खुला देख कर एक खूंखार-सा बंदर भीतर चला आया. हम  दूसरे कमरे में बंद हो गये और वह आराम से फ्रिज खोल कर फल-सब्जी कुछ खा गया, कुछ उठा ले गया. अब दरवाजे हर समय बंद रखना मजबूरी है. जब वे आपस में लड़ने पर उतारू होते हैं तो पूरी कॉलोनी घर भीतर दुबकने पर मजबूर हो जाती है.
बन्दरों के आतंक के किस्से नये नहीं. पहले हम पुराने लखनऊ के बारे में सुनते थे, अब सारे शहर से शिकायतें आती हैं. शहर में बंदरों की संख्या तेजी से बढ़ी है. उनके काटने की खबरें अक्सर आती हैं. उनके डर से छत से गिर कर जान गवाने के हादसे भी हुए हैं. विशेषज्ञ और पशु-प्रेमी कहते हैं कि मनुष्य ने जानवरों का घर यानी जंगल खत्म कर दिये तो जानवर कहां जाएं. इसलिए वे शहरों की तरफ आ रहे हैं. बाघ-तेंदुए तक.
उनकी बात सही है, लेकिन हमारा जीवन कैसा होता जा रहा है! जंगल से लगे गांव-देहातों में बंदरों, जंगली सुअरों और तेंदुओं ने खेती करना मुश्किल कर दिया है. नील गायों का आतंक पहले से ही था. अनुपयोगी हो चुके गाय-भैंसों की विक्री भी उन्मादियों के डर से अब बंद है. इसलिए उन्हें छुट्टा छोड़ दिया जा रहा है. वे खेती और जान के दुश्मन बन गये हैं. बंदरों की तो हर जगह भरमार हो गयी है.
छुट्टा जानवरों को कभी नगर निगम पकड़ा करता था. अब वह चारा खिलाने की हालत में भी नहीं. इसलिए गायें कचरा खाती रहती है और सांड़ भरे बाजार बुजुर्गों की जान लेते हैं. आवारा कुत्तों की रक्षा के लिए एनजीओ हैं. आदमियों को रैबीज से बचाने के वास्ते अस्पतालों में अक्सर टीके नहीं रहते. बाजार में वैक्सीन काफी महंगी पड़ती है.
पहले हम मदारी के हाथों बंदरों का नाच देख कर खुश होते थे. अब हमें नचाने की बारी बंदरों की है शायद. अगर इसे धर्म-विरुद्ध न माना जाए तो क्या यह निवेदन किया जा सकता है कि बंदरों को नियंत्रित करने के लिए कुछ उपाय जरूर किये जाएं.
  

(सिटी तमाशा, नभाटा, 23 दिसम्बर 2017)

Friday, December 15, 2017

तो फिर कैसे कम हो भ्रष्टाचार ?


गोण्डा जिले के ऐलनपुर प्राथमिक विद्यालय में छात्रवृत्ति में गबन की एक शिकायत 2007 में लोकायुक्त कार्यालय में दर्ज की गयी. विद्यालय के तत्कालीन कार्यवाहक प्रधानाचार्य, एक ग्राम पंचायत अधिकारी और सहायक बेसिक शिक्षाधिकारी पर गबन का आरोप था. प्रदेश के तब के उप-लोकायुक्त ने इस शिकायत की जांच की. 2008 में उन्होंने अपनी जांच रिपोर्ट सरकार को सौंपी जिसमें तीनों को गबन का दोषी करार देते हुए उचित दण्ड देने की सिफारिश की गई थी.
लोकायुक्त या उप-लोकायुक्त जांच कर सकते हैं लेकिन दोषियों पर कार्रवाई का अधिकार उन्हें नहीं दिया गया. यह जिम्मेदारी सरकार ने अपने पास ही रखी. 2010 तक भी जब इस दोषियों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई तो उप-लोकायुक्त ने तत्कालीन सरकार को याद दिलाया कि गबन के दोषियों को दण्ड दिया जाना है. फिर भी फाइल दबी रही.
अब शिकायत के दस साल बाद और जांच रिपोर्ट सौंपे जाने के नौ साल बाद बीते गुरुवार को वर्तमान सरकार के पंचायती राज मंत्री ने विधान सभा को बताया कि फैजाबाद मण्डल के उप-निदेशक से जांच कराई गई तो उस मामले में गबन की शिकायत सही नहीं पाई गयी.
लोकायुक्त या उप-लोकायुक्त की जांच रिपोर्टों का क्या हश्र होता है, यह प्रसंग साफ बता देता है. अव्वल तो सरकारें उनकी रिपोर्ट पर कार्रवाई नहीं करतीं, सिफारिशें धूल खाती रहती हैं. यह मामला तो और भी अद्भुत है. उप-लोकायुक्त की जांच के बाद जिले के एक छोटे अफसर से जांच कराई गयी जिसमें गबन मिला ही नहीं. फिर, उप-लोकायुक्त की जांच का अर्थ ही क्या रहा?  
प्रशासनिक सुधार आयोग (1966-1970) ने सिफारिश की थी कि राजनैतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए केंद्र में एक लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त नियुक्त किये जाने चाहिए जो अधिकारियों से लेकर मंत्रियों तक के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायतों की जांच कर सकें. केंद्र सरकार ने तो लोकायुक्त की तैनाती नहीं की लेकिन 1971 में सबसे पहले महाराष्ट्र सरकार ने अपने यहां लोकायुक्त नियुक्त किया. उसके बाद धीरे-धीरे कई राज्यों ने लोकायुक्त एवं उप-लोकायुक्त की तैनाती की. आज उत्तर-प्रदेश समेत 22 राज्यों में लोकायुक्त एवं उप-लोकायुक्त तैनात हैं. लोकायुक्त से कोई भी शिकायत कर सकता है. वे मंत्रियों से लेकर अधिकारियों तक के खिलाफ शिकायतों की जांच कर सकते हैं.
लोकायुक्तों की जांच में अनेक बार मंत्री तक दोषी पाये गये हैं लेकिन उन पर कार्रवाई नहीं हुई. ताजा गम्भीर मामला पिछली अखिलेश सरकार में मंत्री रहे गायत्री प्रजापति का है. उनके खिलाफ पद के दुरुपयोग और भ्रष्टाचार की कई शिकायतें थीं. कुछ लोकायुक्त तक भी पहुंची. लोकायुक्त की जांच में गायत्री दोषी पाये गये. उनके खिलाफ कार्रवाई करना तो दूर जांच रिपोर्ट तक विधान सभा में पेश नहीं की गयी, जिसका संवैधानिक प्रावधान है. उलटे, गायत्री की हैसियत सरकार में बढ़ती गयी. राज्यमंत्री से कैबिनेट मंत्री बनाये गये. पारिवारिक विवाद के कारण एक बार अखिलेश ने उन्हें हटाया भी तो मुलायम के दवाब में फिर रख लिया था.

जाहिर है, लोकायुक्त की तैनाती सिर्फ दिखावा है. बहुत कम मामलों में छिट-पुट कार्रवाई कभी हो गयी तो अलग बात, वर्ना कोई भी सरकार उनकी जांच रिपोर्टों को गम्भीरता से लेती नहीं. प्रदेश के पूर्व लोकायुक्त एन के मेहरोत्रा ने राज्य के कुछ चर्चित भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ जांच करके कारवाई के लिए सरकार को लिखा. कई बार सख्त चिट्ठियां लिखीं लेकिन सरकार मौन बैठी रही थी.
(सिटी तमाशा, नभाटा, 16 दिसम्बर, 2017) 

Tuesday, December 12, 2017

टुकड़े-टुकड़े हो बिखर चुकी मर्यादा


साल 2014 का आम चुनाव नरेंद्र मोदी ने परिवर्तनसुशासनविकासअच्छे दिन और भ्रष्टाचार के खिलाफ युद्ध के नारे से लड़ा था. यूपीए-2 की विफलताओं और घोटालों से आजिज जनता ने बड़ी आशा से मोदी के नेतृत्त्व में भाजपा को भारी विजय दिलवाई. उसके बाद बिहार और उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनावों में मोदी ने खूब चुनाव-प्रचार किया. जब गिरिराज सिंह तथा संगीत सोम से लेकर अमित शाह तक अनर्गल प्रलाप के अलावा साम्प्रदायिक रंग वाले भाषण दे रहे थे तब मोदी ने चुनाव सभाओं में अपने को काफी संतुलित रखा. कतिपय हिंदूवादी उद्गारों के अलावा अपनी सरकार की उपलब्धियांकड़े फैसले और भ्रष्टाचार पर हमले ही उनके भाषणों के केंद्र में रहे.
लेकिन गुजरात का चुनाव प्रचार समाप्त होते-होते मोदी को क्या हो गया? ‘हूं विकास छूंहूं गुजरात छूं’ से शुरू प्रचार देश के खिलाफ साजिश के अनर्गल आरोपोंगुजरात के चुनाव में पाकिस्तानी साठ-गांठ की कल्पित कथापाकिस्तानियों को अपने सफाये की सुपारी देने के अजब इल्जामनीच जाति के बखानपूजा के लिए नमाज की तरह बैठने के किस्सेनाना-दादी पर लांछनोंआदि-आदि में क्यों बदल गयाक्यों हमारे प्रधानमंत्री अपनी पार्टी के उन अंकुशहीन नेताओं की तरह अमर्यादित भाषा बोलने लगेजिनकी जिह्वा पर कुछ लगाम लगाने की अपील अक्सर उनसे की जाती रही?
शालीन और अक्सर मौन रहने वाले पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अगर अत्यंत आहत होकर कहा कि “मोदी जी हर संवैधानिक पद पर कालिख पोतने की अपनी अदम्य इच्छा से जो नजीर पेश कर रहे हैं वह बहुत खतरनाक है “ और उनसे माफी मांगने की मांग के साथ “जिस पद पर वे बैठे हैं उसके अनुरूप परिपक्वता और गरिमा-प्रदर्शन” की अपील की है तो क्या गलत कियाभाजपा के वरिष्ठ मंत्री अब बचाव की मुद्रा में भांति-भांति के तर्क पेश कर रहे हैं.
जिस निजी भोज-चर्चा में पूर्व प्रधानमंत्रीपूर्व उप-राष्ट्रपतिपूर्व सेनाध्यक्षपूर्व राजनयिक और पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री के साथ चंद वरिष्ठ पत्रकार शामिल रहे होंऔर ऐसी बैठकें मोदी जी की जानकारी में पहली बार नहीं हुई हैंउसे गुजरात चुनावों से जोड़कर पाकिस्तानी दखल और एक मुसलमान (अहमद पटेल) को राज्य का मुख्यमंत्री बनाने की पाकिस्तानी साजिश में कांग्रेस के शामिल होने का आरोप लगाकर प्रधानमंत्री ने निश्चय ही अपने पद की गरिमा गिराई है. उन्होंने अनावश्यक रूप से पाकिस्तान को यह कहने का मौका दे दिया कि “चुनाव अपनी क्षमता से जीतेंअपनी चुनावी बहसों में पाकिस्तान को न घसीटें और भारत के प्रधानमंत्री थोड़ा सयानापन दिखाएं”
निश्चय ही प्रधानमंत्री को ये आपत्तिजनक बातें कहने के लिए वरिष्ठ कांग्रेसी नेता मणिअशंकर अय्यर के अत्यंत निंदनीय बयान ने उकसाया. अय्यर ठीक से हिंदी न जानने के बहाने प्रधानमंत्री को “नीच” कहने की सफाई भले देंइस मुंहफट नेता ने सर्वथा आपत्तिजनक बात कही. किंतु ऊटपटांग बोलने के लिए कुख्यात किसी विरोधी नेता के बयान से प्रधानमंत्री पद पर बैठे नेता का मर्यादा भूल जाना क्या कहलाएगाफिर, “नीच आदमी” को “नीच जाति का आदमी” बना देनाउसे “गुजराती अस्मिता” से जोड़कर “गुजरात और गुजराती का अपमान” बता कर चुनाव-सभाओं में “वोट से बदला लेने” के लिए ललकारना क्या प्रधानमंत्री को शोभा देता है?
पिछले दिनों प्रधानमंत्री हफ्ते में पांच दिन गुजरात में सघन चुनाव-प्रचार में जुटे रहे. जैसे-जैसे प्रचार का समय बीतता गया उनकी वाणी संतुलित होती गयी और उसी तेजी से विकास के दावे और वादे नदारद हो गये. कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट में अपने मुवक्किल की तरफ से रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद मामले की सुनवाई टालने की दलील क्या दीमोदी जी ने उसे भी कांग्रेस के खिलाफ चुनावी मुद्दा बना लिया. राहुल के नाना और दादी के किस्से तो वे सुना ही रहे थे. राहुल की ताजपोशी पर अय्यर ने औरंगजेब का जिक्र क्या कियामोदी उनके बयान का आधा हिस्सा लेकर “कांग्रेस के औरंगजेब राज” तक पहुंच गये.
नोटबंदी से “काले धन और भ्रष्टाचार की कमर तोड़ने” और जीएसटी के “साहसी फैसले” का जिक्र करना वे गुजरात में क्यों भूल गये? अपने तीन साल के शासन की उपलब्धियां गिनाना भी उनसे नहीं हो पाया. वे कांग्रेस पर इस कदर हमलावर हो गये कि राहुल ने तंज कर डाला कि “मोदी जीआप तो कांग्रेस को खत्म करने का दावा करते हैंफिर हर समय कांग्रेस की ही बात क्यों करने लगे?” भाजपाई बागी शत्रुघ्न सिन्हा ने पूछा कि “आदरणीयक्या किसी भी कीमत पर चुनाव जीतने के लिएवह भी प्रचार के अंतिम दौर मेंअपने राजनैतिक विरोधियों के विरुद्ध बिल्कुल नयीअप्रमाणित और अविश्वसनीय कथाएं गढ़ना बहुत जरूरी हो गया है?” मोदी के अविश्वसनीय आरोपों पर  भाजपा के सहयोगी दल जद (यू) के पवन वर्मा को कहना पड़ा कि यह “कुछ ज्यादा ही हो गया”
विपक्षी दलोंविशेष रूप से कांग्रेस की हौसला अफजाई करता हुआ यह तथ्य भी गुजरात के इस चुनाव-प्रचार से निकला है कि राजनीति के लिए अनुपयुक्त ठहराये जा रहे राहुल गांधी कहीं बेहतरजिम्मेदार और शालीन नेता के रूप में उभरे हैंजबकि अजेय-सा माने जा रहे नरेंद्र मोदी की छवि अपने ही कारण धुंधली हुई है. स्वयं उनके कई समर्थकों ने उनके हाल के बयानों पर आश्चर्य प्रकट किया है.
संयोग है कि इसी हफ्ते राहुल कांग्रेस अध्यक्ष भी निर्वाचित घोषित किये गये हैं.  मोदी की तुलना में राहुल ने ज्यादा संयम और जिम्मेदारी वाले बयान दिये. जब मोदी कांग्रेस पर अजब-गजब आरोप लगा रहे थे तब राहुल कह रहे थे कि “हम प्रधानमंत्री पद का सम्मान करते हैंइसलिए प्रधानमंत्री की मर्यादा के विपरीत कुछ नहीं कहेंगे. हम उन्हें प्यार से हराएंगे.” बड़बोले अय्यर को कांग्रेस से निलम्बित करने का राहुल का फैसला भी काफी सराहा गया. इससे भी मोदी पर जवाबी दवाब बनाहालांकि साम्प्रदायिक-घृणा-जनित हत्याओं पर भी प्रधानमंत्री मौन ही रहे.
गुजरात का चुनाव नतीजा चाहे जो होउसने राजनैतिक मतभेदों को निजी वैमनस्यता, अनर्गल-अविश्वसनीय आरोपों तथा संवैधानिक पदों के मर्यादा-भंग के निम्न-स्तर तक पहुंचाया. खेद है कि इस अनैतिक संग्राम में प्रधानमंत्री स्वयं भी शामिल हो गये. यह याद रखा जाना जरूरी है कि राजनैतिक प्रतिद्वंद्वियों में मर्यादा और परस्पर सम्मान हर हाल में बनाये रखने का अलिखित लोकतांत्रिक नियम है. नेताओं को आत्मनिरीक्षण करना चाहिएवर्ना 2019 आते-आते भारत विश्व-गुरु नहींहंसी का ही पात्र बनेगा.
“अंधा युग” में धर्मवीर भारती की पक्तियां स्मरण हो आती हैं- “टुकड़े-टुकड़े हो बिखर चुकी मर्यादाइसको दोनों ही पक्षों ने तोड़ा है. पाण्डव ने कम, कौरव ने कुछ ज्यादायह रक्तपात अब कब समाप्त होना है.”
मर्यादा का यह रक्तपात गुजरात में ही थम जाए तो अच्छा. संविधान हमारे नेताओं को सदबुद्धि दे. 
(प्रभात खबर, 13 दिसम्बर, 2017)  






Friday, December 08, 2017

बाअदब, बामुलाहिजा होशियार!


लखनऊ की ग्राम पंचायत सुबंशीपुर की कभी प्रधान रही अमरकली की हमें बड़ी याद आ रही है. वह 2005 का साल था. प्रदेश में उस समय ग्राम पंचायतों के चुनाव हो रहे थे. उसी सिलसिले में गांवों का दौरा चल रहा था.  अनपढ़ अमरकली दस साल से ग्राम प्रधान थीं. अपने गांवों को उन्होंने सड़कों, नालियों, खड़ंजों, हैण्डपम्पों, स्कूल, आदि से विकसित कर रखा था. 350 से ज्यादा गरीब परिवारों को इंदिरा आवास योजना के अन्तर्गत पक्के कमान दिलवा दिये थे. वे खुद कच्चे मकान में रह रही थीं. अपने लिए पक्का घर बनवाना उनकी प्राथमिकता में था ही नहीं.

सीतापुर के बीहट गौड़ गांव के तब के प्रधान मुन्ना सिंह की भी हमें खूब याद है. उन्होंने अपनी पंचायत के गांवों को इतना विकसित कर दिया था कि 50 किमी दूर तक उसकी चर्चा होती थी. उस समय प्रधानी के उम्मीदवार वादा कर रहे थे कि हम मुन्ना सिंह की तरह ही गांवों का विकास करेंगे. गांव में सब तरफ सड़क थी लेकिन मुन्ना सिंह के घर के सामने कच्चा रास्ता था. पूछने पर उन्होंने बताया था कि मैं अपने घर के सामने की सड़क सबसे बाद में बनवाऊंगा, जब सब तरफ सड़कें बन जाएंगी. श्रद्धा और आदर से हम ऐसे प्रधानों के आगे विनत हो गये थे.

अमरकली और मुन्ना सिंह जैसे प्रधानों की याद हमें उस दिन बहुत ज्यादा आई जब हमने जाना कि संयुक्ता भाटिया के मेयर निर्वाचित होते ही लखनऊ नगर निगम ने उनके घर की तरफ जाने वाली सड़क दुरस्त कर दी. वह सड़क टूटी-फूटी न रही होगी तब भी संयुक्ता जी के मेयर बनते ही नगर निगम ने आनन-फानन उसे ठीक कर दिया. अमरकली और मुन्ना सिंह में कोई मेयर बनता तो कहते- नहीं, पहले सारे शहर की सड़कें ठीक करो, मेरे घर सबसे बाद में आना.

जनता की, उन लोगों की जिनकी सेवा के लिए जन-प्रतिनिधि चुने जाते हैं, अब कोई फिक्र नहीं करता. लखनऊ का वायु प्रदूषण स्तर इन दिनों बहुत ज्यादा बढ़ा हुआ है. प्रदूषण कम करने के लिए पानी छिड़कने की बात आई तो सबसे पहले राजभवन, मुख्यमंत्री निवास, सचिवालय के आस-पास के पेड़ और सड़कें तर की गईं. खानापूरी के लिए शहर के दूसरे इलाकों में भी छिड़काव का रोस्टर बनाया और प्रचारित किया गया लेकिन शायद ही कभी वहां छिड़काव किया गया हो. राजभवन, सचिवालय और कालिदास मार्ग की तरफ रोज शाम को सड़कें धोयी जा रही हैं. अग्निशमन की गाड़ियों से ऊंचे पेड़ों पर पानी फेंका गया. हरियाली होने के कारण इन वीआईपी इलाकों में बाकी शहर की तुलना में वैसे भी प्रदूषण कम होगा.

कोई वीवीआईपी कभी नहीं कहता कि पहले पूरे शहर में छिड़काव करो. पहले पूरे शहर की सड़कें ठीक करो. बिजली जाने से अस्पतालों में ऑपरेशन तक ठप हो जाएंगे लेकिन वीवीआईपी इलाकों का बल्ब कभी नहीं बुझता. कुछ दिन बाद जब शीत लहर चलेगी तो अलाव के लिए लकड़ियां लेकर नगर निगम की गाड़ी सबसे पहले मंत्रियों के बंगलों पर जाएगी. कोई मंत्री नहीं कहता कि हमारे बंगलों में अलाव की जरूरत नहीं. पहले पूरे शहर की गरीब जनता के लिए लकड़ियां पहुंचाओ. उलटे, वीआईपी फोन करके अपने बंगलों पर ज्यादा लकड़ी गिरवाते हैं.


कहने को हम लोकतंत्र हैं लेकिन इसका प्रशासनिक तंत्र वीआईपी की सेवा के लिए बन गया है. जनता की सुविधा-सेवा नहीं देखी जाएगी. वीआईपी काफिला फर्राटा मारते हुए गुजर जाए, इसके लिए जनता को जहां-तहां जाम में ठेल दिया जाएगा. गम्भीर मरीज की एम्बुलेंस के लिए सिर्फ अब्दुल कलाम नाम के राष्ट्रपति ने अपना काफिला रुकवाया था. बस. बाकी सब जन-प्रतिनिधि ठहरे बादशाह!  
(सिटी तमाशा, नभाटा, 09 दिसम्बर, 2017)

Thursday, December 07, 2017

किस्सा पिडी के ट्वीट का


अक्टूबर के अंतिम और नवम्बर के शुरुआती दिनों में राहुल गांधी का पिडीट्विटर पर ट्रेण्ड कर रहा था. पिडी कौन? राहुल का डॉगी. कुत्ता कहने का चलन नहीं रहा. कुत्ते सड़क वाले होते हैं. खैर, पिडी ने ट्विटर पर बताया कि राहुल गांधी के ट्वीट और रिट्वीट के पीछे उसका हाथ है. उस ट्विटर हैण्डल पर पिडी का वीडियो भी अपलोड हुआ था. फिर तो ट्विटराती को मजा आ गया. ट्विटराती नहीं जानते? अरे, वही ट्विटर वाली आबादी. जैसे बारात में शामिल बाराती, वैसे ट्विटर वाले ट्विटराती!
चलिए, मजाक छोड़िए. आखिर पिडी को ट्वीट क्यों करना पड़ा? इसलिए कि जबसे राहुल गांधी ने गुजरात का मोर्चा जोर-शोर से सम्भाला है, तब से सोशल मीडिया पर उनके फॉलोवर एकाएक बहुत बढ़ गये. मुश्किल से देढ़ लाख फॉलोवर थे, जो एकाएक बढ़कर चार लाख से ऊपर हो गये. उनके ट्वीट को रिट्वीट करने वाले भी कई गुणा ज्यादा हो गये. भाजपा वाले चिंतित हो गये. वे राहुल को जोकर बनाए रखने के लिए ऐ‌ड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए हैं. इतनी बड़ी संख्या में फॉलोवर कहां से आ गये?
सो, भाजपा वाली सोशल मीडिया सेना ने पूछ लिया- राहुल के ट्वीट के पीछे है? मतलब भाजपाई कहना चाहते थे कि राहुल बाबा को तो इतनी अक्ल है नहीं. उनकी मदद करने कौन आ गया? जवाब में राहुल के ट्विटर हैण्डल पर पिडी और पिडी का वीडियो दिखाई दिया, यह कहते हुए कि – राहुल के पीछे मैं हूँ. भाजपाई चित्त! हालांकि खिसियाए मुंह इसका मजाक बनाना भी उन्होंने जारी रखा. 
मालूम होता है कि भाजपाई वास्तव में परेशान हैं. सोशल मीडिया तो उनका प्रिय अखाड़ा है, जहां वे अपनी विशाल पेड-अनपेड सेना के जरिए विरोधियों पर सच्चे कम-झूठे ज्यादा हमले करते रहते हैं. नरेंद्र मोदी का उभारऔर भाजपा का ताजा अवतार सोशल मीडिया अभियानों की देन है. अब उसी के अखाड़े में राहुल की चुनौती उन्हें पच नहीं रही.  राहुल हैं कि लगता है ठान बैठे हैं कि मोदी को उनकी ही शैली में जवाब देंगे.
जब राहुल ने जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्सकहा तो उन्हें सोशल मीडिया से लेकर प्रिंट, डिजिटल और इलेक्ट्रानिक मीडिया में खूब चर्चा मिली. वाह, जीएसटी का क्या ही बढ़िया फुल फॉर्म निकाला- गब्बर सिंह टैक्स! “ये टैक्स मुझे दे दे, ठाकुर” वाले अंदाज में. राहुल का यह जुमला भी सोशल साइटों में हिट हो गया. 
अब तक मोदी और उनकी देखा-देखी भाजपा वाले ही चुटीले जुमले निकाला करते थे. मोदी के जुमले हिट होते रहे हैं. भाषणबाजी और जुमले बनाने में अपने प्रधानमंत्री का जवाब नहीं. लेकिन हाल की अपनी अमेरिका यात्रा में राहुल ने जाने कौन सी घुट्टी पी कि जुमलों में मोदी का मुकाबला करने डट गये.
अब देखिए, मोदी की हाल की एक गुजरात यात्रा की सुबह-सुबह राहुल ने क्या मजेदार ट्वीट किया- “आज होगी आसमान से जुमलों की बारिश”. लीजिए, राहुल का यह ट्वीट भी हिट हो गया. ट्रेण्ड करने लगा. राहुल ने कहीं नहीं लिखा था कि यह मोदी के बारे में है. मगर लोगों ने सीधा मोदी से जोड़ लिया. गुजरात में मोदी की सभा होनी थी उस दिन. मानसून विदा हो चुका. घन-घमण्ड नभ हो रहा होता तो भी जुमले बादलों से नहीं बरसते. मतलब मोदी ही करेंगे जुमलों की बारिश. राहुल का ट्वीट बिल्कुल निशाने पर बैठा. इसे रिट्वीट और लाइक करने वालों का आंकड़ा सोशल मीडिया पर मोदी की लोकप्रियता तक पहुंच गया.
जाहिर है कि यह सुनियोजित पलटवार है. नरेंद्र मोदी और अमित शाह समेत तमाम भाजपा नेताओं ने पिछले तीन-चार सालों में बड़े नियोजित ढंग से राहुल गांधी की  पप्पू-छविखूब प्रचारित की. उतने लल्लू तो राहुल नहीं ही हैं जितने बना दिये गये हैं. उन पर मजाकिया किस्से और चुटकुले रचने में बड़े-बड़े दिमाग लगे. पूरी सोशल मीडिया टीम लगी. नतीजा यह कि राहुल अगम्भीर एवं नासमझ राजनैतिक नेता माने जाने लगे. उनकी पप्पू-छवि बन गयी. इसके लिए कुछ जिम्मेदार खुद राहुल भी रहे. न संसद सत्र छोड़ कर चुपचाप विदेश जाते न नानी वाले चुटकुले चलते.  
खैर, किसी को आप कब तक लल्लू या पप्पू बनाए रख सकते हैं. गुजरात चुनाव नजदीक आते ही राहुल गांधी की टीम  सक्रिय हो गयी. अमेरिका के विभिन्न शहरों में हुई उनकी सभाओं और टीवी-वार्ताओं की काफी सराहना हुई. वह  नियोजित अभियान था. मोदी की अपनी सोशल मीडिया टीम है तो अब राहुल ने भी सोशल मीडिया टीम बना ली. उनके ट्वीट और भाषण बाकायदा समय और स्थिति देख कर तैयार किये जा रहे हैं. राहुल की छवि में इधर आया सुधार सभी ने यूं ही नोट नहीं किया.
अभी हाल में अहमदाबाद आईआईटी के छात्रों की सभा में मोदी ने कहा था कि “मैं आईआईटीयन तो नहीं, लेकिन टीयन अवश्य हूं”. उन्होंने चायवालाके लिए टीयन शब्द गढ़ा. “टीयनसमझने में आईआईटी वालों को भी कुछ समय लग गया था लेकिन जब राहुल ने कहा कि मोदी जी ने देश की अर्थव्यवस्था पर दो-दो टॉरपीडो चला दिये- नोटबंदी और जीएसटी, तो टॉरपीडो ने अच्छा धमाका किया.  
अब समझ में आ रहा है कि अमित शाह ने अपनी एक सभा में युवकों से यह अपील क्यों की होगी कि सोशल मीडिया की हर बात पर पूरा भरोसा मत करो, अपना दिमाग लगाओ. सोशल मीडिया को अपना बड़ा हथियार बनाने वाली पार्टी के अध्यक्ष की इस अपील ने उस समय चौंकाया था. अब लगता है कि उन्हें राहुल की ट्विटर और जुमला-तैयारियों का अंदाजा था.
यह तो कोई नहीं मान रहा कि  भाजपा गुजरात में हार जाएगी. राहुल के सोशल मीडिया में छा जाने मात्र से मतदाता कांग्रेस के पाले में नहीं चला जाएगा. भाजपा की चिंता इसलिए है कि राहुल का सोशल मीडिया पर लोकप्रिय होना भी उसे मंजूर नहीं.
राहुल तो राहुल, उनका पिडी भी ट्विटर पर ट्रेण्ड करने लगे तो उधर नींद उड़ने लगती है.    
(स्तम्भ, दस्तक टाइम्स, दिसम्बर, 2017)