Friday, August 27, 2021

पर्यटकों की मौज-मस्ती ठीक लेकिन वन्य जीवों की चिंता?

रेलवे ने दुधवा राष्ट्रीय उद्यान में पर्यटकों के आनंद के लिए पारदर्शी डिब्बों (विस्टाडोम कोच) वाली ट्रेन चलाने का निर्णय तो कर लिया है लेकिन वहां के वन्य जीवों के जीवन में न्यूनतम व्यवधान डालने की नीति पर उसने या वन विभाग ने विचार किया है अथवा नहीं, इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। इस मस्ती ट्रेनके लिए दो पारदर्शी डिब्बे मैलानी पहुंच भी गए हैं। अगले माह किसी समय ट्रेन चलाने की योजना है।

भारतीय रेलवे के विस्टाडोम कोचपर्यटकों की मौज-मस्ती के लिए बनाए गए हैं। इनमें बड़ी-बड़ी पारदर्शी खिड़कियां तो होती ही हैं, छत के भी आर-पार देखा जा सकता है। चलती ट्रेन से बाहर दोनों तरफ और ऊपर के दृश्यों में पर्यटक जैसे तैरते हों! डिब्बे के भीतर उनके आनंद और आराम के लिए सारी व्यवस्थाएं होती हैं। सामन्य ट्रेनों के यात्रियों को भले ही कई दिक्कतों का सामना करना पड़ता हो, पर्यटकों को आकर्षित करने वाले डिब्बों, यात्रा-पैकेज और सुख-सुविधाओं का अच्छा ध्यान रखा जाने लगा है। विस्टाडोमकोच भारतीय रेलवे के विकास के प्रतीक भी हैं ही।

सवाल यह है कि दुधवा राष्ट्रीय उद्यान या किसी भी ऐसे उद्यान में जहां वन्य-जीवों का स्वतंत्र विचरण एवं संरक्षण मुख्य ध्येय है, क्या ट्रेन परिचालन को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, वह भी सिर्फ पर्यटन के उद्देश्य से? हमारे यहां कई कारणों से राष्ट्रीय वन्य जीव अभयारण्यों (जहां उन्हें कोई भय न हो) के इर्द-गिर्द की मानव आबादी की सुविधाओं के लिए उनके बीच से सड़क और रेलवे लाइन भी चालू रखी गई हैं। इसकी कुछ कीमत इनसान चुकाते हैं लेकिन सबसे बड़ी कीमत वनचरों को चुकानी पड़ती है। अभी चंद दिन पहले ही तराई क्षेत्र से एक हथिनी और उसके छोटे बच्चे के ट्रेन से कटकर मरने की खबर आई थी। प्रथम दृष्टया उसमें मानवीय चूक ही पाई गई।

जंगल के बीच या आस-पास से गुजरती ट्रेनों या गाड़ियों से हाथियों एवं अन्य जानवरों के कुचले जाने की खबरें अक्सर आती हैं। इन हादसों को रोकने के लिए कोई कारगर व्यवस्था रेलवे तलाश पाया है न वन विभाग। दुधवा ही नहीं, जिम कॉर्बेट पार्क के भीतर और परिधि से भी आम यातायात वाली सड़कें गुजरती हैं जिनमें ट्रकों, यात्री बसों और टेम्पो को धड़धड़ाते जाते देखा जा सकता है। सड़कें भी तारकोल से पक्की बनाई गई हैं। जानवरों के अभय और शांतिमय जीवन के लिए जहां पयटकों को भी जोर से बोलना मना होना चाहिए

, वहां यातायात की चिल्लपों मची रहती है। वन्य जीवों का संरक्षण हमारी राष्ट्रीय नीति है लेकिन उसकी वैज्ञानिक समझ न सरकारों में है न जनता में। वन विभाग में भी वह समझदारी कितनी है, इस पर अक्सर सवालिया निशान लगते रहते हैं।

राष्ट्रीय वन्य जीव उद्यानों में पर्यटकों का स्वागत होना चाहिए। पर्यटन को बढ़ावा देने के अलावा वन्य जीवों तथा प्रकृति के प्रति प्रेम एवं समझदारी बढ़ाने के लिए भी यह आवश्यक है। इसके लिए विस्टाडोम ट्रेन' चलाना रेलवे और पर्यटकों दोनों के लिए लाभकारी हो सकता है लेकिन उससे पहले यह सुनिश्चित किया जाना जरूरी है कि उससे वन्य जीवों को कतई कोई असुविधा न हो। पर्यटकों की मस्ती का ही नहीं, अपने घर में पशुओं के सुख-चैन का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। इसके लिए ट्रेन के संचालन से जुड़े कर्मचारियों के साथ ही पर्यटकों को भी संवेदनशील बनाया जाना चाहिए। पर्यटकों की संवेदनहीनता के अनेक किस्से हम नाजुक हिमालय से लेकर राष्ट्रीय उद्यानों तक खूब देखते-सुनते हैं।

पर्यटन मात्र मौज-मस्ती नहीं है। वह सम्पूर्ण प्रकृति के आदर और उसकी सराहना का अत्यंत संवेदनशील विषय है।          

(सिटी तमाशा, नभाटा, 28 अगस्त, 2021) 

       

Wednesday, August 25, 2021

'विलम्ब' -चंद्र प्रकाश देवल की कविता

 

अब तो हम सभी ने देख लिया
राजधानी की परिक्रमा में
फलदार पेड़ आए हैं
फूलों वाले गाछ आए हैं  अपना हरा बागा पहने
जैसे आई हो ऋतुराज की ऋतु

खेत पीले होने से इनकार कर गए लगते हैं
राई सरसूं का क्या होगा, छोड़कर
इस देश की फिक्र से दूर
वसंत इतना बदरंग कभी न था
और गाछ बिरछों को कभी बोलते सुना नहीं था

सभी कान सुन रहे हैं साफ-साफ उनकी फरियाद
साफ-साफ नज़र आ रहा है उनका हरियल रंग
सत्ता के ऊंचे तख्त पर बैठा आदमी ऊंचा सुनता है
क्या करेंं?
सत्ता की आंखों में जाला है
क्या करें?

बाजरा अपने ऊंचे सिट्टे के साथ आया है
सत्ता उसे पगड़ी वाला सिक्ख गिनती है
क्या करें?
गेहूँ अपनी बालियों के साथ आए हैं
सत्ता उसे जाट गिनती है
क्या करें?

राजधानी की परिक्रमा में
जो कभी नहीं आई
वे फसलें आई हैं
वे फसलें धरती की बेटियाँ हैं
और अपनी माँ धरती से अलग होने से इनकार करती हैं
ये फसलें इतिहास की साक्षी बनने को
भाग रही हैं नंगे पाँव
इनकी गति अब रुकने वाली नहीं

इन फसलों के हाथ भी हैं
पर इनकी आत्मा पर जनतंत्र की रस्सी है
उसे तुम जनेऊ बताकर जनता को गुमराह मत करो
जाओ जाओ चलकर सामने जाओ
इनका स्वागत करो
कुछ भी करो उन्हें मनाओ

कल कपास ने मना कर दिया धागा बनने से
कल अनाज ने मना कर दिया खाना बनने से
कल दूध ने मना कर दिया दही बनने से
फिर जगत का क्या होगा?

ये फसलें जो आई हैं
आवारा मवेशी नहीं हैं
जिन्हें तुम कांजी हाउस में रोक दोगे
ये फसलें हैं जो उमड़ पड़ीं
तो तुम्हारा देश जितना वेयरहाउस छोटा पड़ जाएगा
इनके लिए खाली स्थान मत ढूंढो
इन्हें खुशी-खुशी खलिहान में जाने दो
आग और पानी की तरह तुमसे नहीं रुकेंगी
मालदारों के कोठार फाड़कर निकल आएंगी
इन्हें सीलन भरे अंंधेरे कोठारों से घृणा है

फसलों वाले हाथ खेत में बीज बोते हैं
तुम फसलों के गिर्द कीलें मत बोओ
अगर एक भी फसल रोती हुई चीखी
तो सारी वनस्पति में कोहराम मच जाएगा
जिसे सुन पूरा जंगल दौड़ा चला आएगा
तब राजधानी से उसका बोझ नहीं सहा जाएगा
फिर सत्ता को हजार आंखों जितना नजर आएगा
पर अफसोस कि विलम्ब हो जाएगा

('अकार-57' से साभार। राज्स्थानी से स्वयं  कवि चंद्र प्रकाश देवल  द्वारा अनूदित)

पहाड़ ने भी खूब संवारा लखनऊ का चेहरा

 

किसी भी नगर की सबसे पहली पहचान उसकी नागरिक सुविधाओं से बनती है। लखनऊ अब एक बड़ा महानगर है। सन 1947 में यह छोटा-सा नगर था। इसका प्रबंध नगर पालिका करती थी जिसकी आर्थिक हालत बड़ी खस्ता थी। कुछ इस कारण से और कुछ अधिकारियों-कर्मचारियों की लापरवाही से भी यहां की सड़कें बुरी हालत में थीं। 1900 में बना लखनऊ का जल-कल ध्वस्त हो चुका था। नागरिक पानी के लिए परेशान रहते थे। मुश्किल से एक-दो घण्टे पानी मिलता था। नालियों की सफाई वर्षों से नहीं हुई थी। गंदगी उठाई नहीं जाती थी। कचरा उठाने वाले ट्रक टूटे पड़े थे। कर्मचारियों को वेतन के लाले थे। चुंगी वसूली की कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं थी। यह बदहाली देखते हुए मुख्यमंत्री गोविंदबल्लभ पंत ने 1948 में लखनऊ नगर पालिका को भंग करके बी डी सनवाल को वहां प्रशासक बनाकर बैठा दिया। ये वही आईसीएस बी डी (भैरव दत्त) सनवाल थे जो 1943 में लखनऊ के सिटी मजिस्ट्रेट बने थे और कालांतर में प्रदेश के मुख्य सचिव बने। मुख्य सचिव पद पर तैनात होने वाले वे अंतिम आईसीएस अफसर थे। उनके बाद आईएसएस अधिकारी मुख्य सचिव बने।

खैर, श्री सनवाल ने चार साल में न केवल लखनऊ की नागरिक सुविधाओं का चेहरा बदल दिया, बल्कि इसके नक्शे में यादगार संस्थान, इमारतें और महानगर जैसी विशाल आवास-कालोनी जोड़े। उन्होंने नगर पालिका प्रशासक का दायित्व सम्भालते ही अधिकारियों-कर्मचारियों की चूड़ियां कसीं, सबको जवाबदेह बनाया, स्वयं चुंगी नाकों का दौरा किया और जैसा कि उन्होंने अपने संस्मरणों में लिखा है- 1949-50 में नगर पालिका की आय दुगुनी हो गयी और अगले अप्रैल से 150 प्रतिशल बढ़ गयी।” ध्वस्त जल-कल व्यवस्था को पालिका के अभियंता ठीक नहीं कर सके तो श्री सनवाल ने एक रिटायर लेकिन काबिल अभियंता दस्तूर साहब को अपने से भी अधिक वेतन देकर नियुक्त किया जिन्होंने लखनऊ में पानी आपूर्ति व्यवस्था में चमत्कारिक सुधार कर दिए। दस्तूर साहब काम के धुनी थे और सख्त प्रशासक भी थे। वे शहर में जल आपूर्ति का खुद निरीक्षण करते थे और जहां भी खुले नलों से पानी बहता देखते वहां की सप्लाई एक हफ्ते के लिए काट देते थे। इससे पानी बर्बाद करने की प्रवृत्ति रुक गई। आज सन 2021 में, जबकि पानी का भीषण संकट सिर पर खड़ा है, शहर में कितना पानी बर्बाद किया जाता है! अब कोई दस्तूर साहब नहीं हैं। होंगे भी तो उनकी पूछ नहीं होती। खैर, सनवाल साहब ने पालिका की बढ़ी आमदनी से छह रोड रोलर खरीदे, मालगाड़ी बुक करके बांदा से रोड़ी मंगवाई और राजधानी की सड़कें दुरस्त कीं।

गोमती पार महानगर आवासीय कॉलोनी, लालबाग का भोपाल हाउस और माल एवन्यू का प्रतिष्ठित म्युनिसिपल नर्सरी स्कूल भी लखनऊ को सनवाल जी की देन हैं। महानगर कॉलोनी का डिजायन उन्होंने प्रसिद्ध अमेरिकी वास्तुशिल्पी ट्रेजर से बनवाया जो उन दिनों प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के आग्रह पर उत्तर प्रदेश आए हुए थे। अब तो महानगर कॉलोनी काफी बदल गई है, इसलिए कम नज़र आएगा लेकिन उस समय यहां की सड़कें सीधी की बजाय अर्धवृत्ताकार (सर्कुलर) बनवाई गई थीं। आज यह जानकर ताज़्ज़ुब होगा कि सन 1950-52 में महानगर में छह-सात आने प्रति वर्ग फुट की दर से भूखण्ड बेचे गए थे। लालबाग का प्रसिद्ध भोपाल हाउस भी नगर पालिका ने श्री सनवाल की देख-रेख में बनवाया था। इस भवन को बनाने में लोहे के गर्डर प्रयुक्त हुए हैं जिनके लिए तब रेलवे से एक जीर्ण-शीर्ण पुल खरीदा गया था।

श्री सनवाल ने ही आज भी प्रतिष्ठित म्युनिसिपल नर्सरी स्कूल की स्थापना कराई थी। प्रसिद्ध वकील, समाजसेवी और राजनेता तेज बहादुर सप्रू के आईसीएस पुत्र एसएनसप्रू उस समय शिक्षा सचिव थे। उनका मन एक अच्छा नर्सरी स्कूल खोलने का था लेकिन सरकार के पास बजट नहीं था। नव स्वाधीन देश में अर्थिक संकट बना रहता था। चूंकि तब तक श्री सनवाल की प्रशासनिक सूझ-बूझ से नगर पालिका का खजाना भर गया था, इसलिए सप्रू जी की सलाह पर श्री सनवाल नर्सरी स्कूल खोलने के लिए तत्पर हो गए। माल एवन्यू में, जहां आज भी यह स्कूल है, कांग्रेसी महिलाओं का क्लब चलता था। वह ज़्यादातर समय खाली पड़ा रहता था। लेडी वजीर हसन इस क्लब की अध्यक्ष थीं। श्री सनवाल ने वह क्लब भवन किराए पर लिया और वहां म्युनिसिपल नर्सरी स्कूल की स्थापना कर दी। बच्चों को कथक सिखाने के लिए तब दो सौ रु मासिक पारिश्रमिक पर लच्छू महाराज की सेवाएं भी ली गई थीं। ये प्रसंग श्री सनवाल ने स्वयं अपनी अत्मकथा में दर्ज़ किए हैं। उन्होंने नगर पालिका भवन में एक पुस्तकालय और एक आर्ट गैलरी भी बनवाई थी। आर्ट गैलरी के लिए लखनऊ के नामी कलाकारों के चित्र दो-दो सौ रु में खरीदे गए थे। एक-एक चित्र कलाकारों ने अपनी तरफ से नि:शुल्क दिया था। श्री सनवाल ने लिखा है- “कालांतर में पुस्तकालय की आधी पुस्तकें और आर्ट गैलरी के अनेक चित्र म्युनिसिपल अधिकारियों और सभासदों के घर पहुंच गए।” आज और भी बड़े पैमाने पर जारी अफसरों व राजनेताओं की यह लूट-वृत्ति आज़ादी के बाद ही पनप गई थी।

लखनऊ में रेलवे का जो विख्यात अनुसंधान, अभिकल्प एवं मानक संगठन (आरडीएसओ) है उसकी स्थापना में एक उत्तराखण्डी अभियंता का योगदान है। पद्म विभूषण से अलंकृत, रेलवे बोर्ड के तत्कालीन चेयरमैन घनानंद पाण्डे के समक्ष जब आरडीएसओ की स्थापना का प्रस्ताव आया तो उन्होंने इसके लिए लखनऊ को चुना। वे लखनऊ के ही निवासी थे। तब से लेकर आज तक आरडीएससो भारतीय रेलवे के लिए महत्वपूर्ण शोध और डिजायन तैयार करता रहा है। लखनऊ के गौरव-संस्थानों में यह भी प्रमुख रूप से शामिल है। राजधानी का एक और महत्त्वपूर्ण संस्थान, गिरि विकास अध्ययन संस्थान, प्रख्यात अर्थशास्त्री डॉ टी एस पपोला का स्थापित किया हुआ है। आर्थिक योजनाओं और विकास कार्यक्रमों के अध्ययन, शोध एवं सुझावों के लिए कभी इस संस्थान की बड़ी मान्यता थी।  

लखनऊ मेडिकल कॉलेज (अब छत्रपति साहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय) में 1972 में मॉलीक्युलर बायोलॉजी प्रयोगशाला खोलने का श्रेय प्रसिद्ध विज्ञानी प्रो सुरेंद्र सिंह परमार को जाता है। जवाहरलाल नेहरू के नाम पर स्थापित यह देश और दक्षिण एशिया की पहली मॉलीक्युलर लेबोरेटरी थी। उल्लेखनीय यह भी है कि इस प्रयोगशाला की स्थापना के लिए प्रो परमार ने अकेले अभियान चलाया और उन्हीं के आग्रह पर सरकार ने इसके लिए विशेष अनुदान दिया था। स्वयं प्रो परमार ने कई महत्त्वपूर्ण शोध किए और सम्मान-पुरस्कार पाए। बाद में वे अमेरिका चले गए और वहां के कई प्रसिद्ध विश्वविद्याल्यों से सम्बद्ध रहे। वहां भी उन्होंने अपने शोध कार्यों से काफी नाम कमाया।

1949 से 1952 तक लोक निर्माण विभाग के मुख्य अभियंता रहे एम एस बिष्ट की देख-रेख में लखनऊ में कई निर्माण कार्य हुए। वह विभिन्न कार्यालय और संस्थानों के भवनों के निर्माण का दौर था। प्रदेश में वायरलेस नेटवर्क के विकास और विस्तार में छत्रपति जोशी के योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता। संचार का तब यही सबसे विश्वसनीय माध्यम था, जिसकी आज कल्पना करना भी कठिन है। उन्होंने 1962 में चीन से युद्ध के बाद दुर्गम पहाड़ों में वायरेस संचार का विस्तृत जाल बिछाया। बांग्लादेश मुक्ति युद्ध में तुरत-फुरत वायरलेस नेटवर्क स्थापित करके मुक्ति वाहिनी को सफलता दिलाने में श्री जोशी ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई थी। पीएसी में वायरलेस अधिकारी के रूप में सेवा शुरू करने वाले श्री जोशी को बाद में सरकार ने पद्मश्री से नवाजा और आईपीएस संवर्ग दिया था।

साहित्य, पत्रकारिता, कला, संगीत-नृत्य, रंगमंच, आदि सांस्कृतिक क्षेत्रों में उत्तराखण्डियों ने लखनऊ ही नहीं देश-प्रदेश को भी समृद्ध किया। अंतराष्ट्रीय ख्याति वाले प्रसिद्ध चितेरे रणवीर सिंह बिष्ट और मूर्तिकार अवतार सिंह पंवार के योगदान को किसी परिचय की अवश्यकता नहीं है। लोक-संस्कृति के क्षेत्र में भी उत्तराखण्डियों की धमक स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले और बाद में यहां खूब महसूस की गई। 1948 में स्थापित कुमाऊं परिषदलखनऊ के उत्तराखण्डियों की प्रतिनिधि संस्था कई दशक तक बनी रही। शास्त्रीय अवें लोक धुनों पर आधारित कुमाऊं परिषदकी गेय रामलीला की याद आज भी पुराने लोग करते हैं। 1955 में गणेशगंज में स्थापित गढ़वाल संस्थाने भी गढ़वाल के लोक नृत्य-गीतों की यादगार प्रस्तुतियां दीं। उसके बाद तो इस शहर में उत्तराखण्डी मूल के निवासियों की दर्जनों संस्थाएं सांस्कृतिक मंच पर धमाल मचाती आ रही हैं। आकाशवाणी, लखनऊ से अक्टूबर 1962 में शुरु हुआ उत्तरायण कार्यक्रम’ 2016 तक उत्तराखण्डी बोलियों के साहित्य और लोक कलाओं के प्रसारण का सबसे बड़ा मंच बना रहा। लोक संस्कृतियों के लिए पूरे देश में एक घण्टे का कोई भी दूसरा कार्यक्रम नहीं था। उत्तर प्रदेश की लुप्त प्राय नौटंकी विधा को पुनर्स्थापित करने और उसका नागर रूप विकसित करने के लिए पिछले मास ही दिवंगत उर्मिल कुमार थपलियाल को भूला नहीं जा सकेगा।

साठ के दशक में नगर नियोजन के विद्वान द्वारिका नाथ साह को नैनीताल नगर पालिका से बुलाकर लखनऊ नगर महापालिका में विशेष रूप से तैनात किया गया था। नगर नियोजन पर उनका काम कोलम्बी प्लानके तहत सम्मानित हुआ था। शहर को हाथी पार्क और नीबू पार्क श्री साह की योजनकारी की ही देन हैं।     

पृथक राज्य तो उत्तराखंड सन 2000 में बना। यह पर्वतीय क्षेत्र पहले संयुक्त प्रांत और बाद में उत्तर प्रदेश का महत्त्व भू-भाग रहा। वहां की नदियों और जंगलोने मैदानों को जल एवं वन-सम्पदा ही नहीं दिए, वरन विविध प्रतिभाओं से सम्पन्न भी बनाया। उत्तराखण्ड से प्रवास का लम्बा इतिहास है। आज़ादी मिलने के बहुत पहले से लखनऊ उत्तराखण्ड के प्रवासियों का एक मुख्य ठिकाना बनता गया। विविध क्षेत्रों में उनके योगदान का इतिहास भी पुराना है। उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशकों में अल्मोड़ा से लखनऊ आकर बसे डॉक्टर हरदत्त पंत का बड़ा नाम था। महाराजा बलरामपुर ने उन्हें अपना निजी चिकित्सक नियुक्त किया था। डॉ पंत ने अपने प्रभाव का उपयोग करके महाराजा बलरामपुर से उनका एक भवन अस्पताल खोलने के लिए मांगा। इस तरह उन्होंने हिल रेजीडेंसीनाम से जिस अस्पताल की शुरुआत की थी, वही आज का बलरामपुर अस्पताल है जो यहां का प्रमुख सरकारी चिकित्सालय है। आज अमीनाबाद में जो प्रसिद्ध महिला महाविद्यालय है, उसकी स्थापना में भी डॉ पंत का हाथ रहा। किस्सा यह है कि एक बार लखनऊ के रईस पुत्तू लाल बहुत बीमार पड़ गए। काफी इलाज के बाद भी वे ठीक न हुए तो महाराजा बलरामपुर ने अपने चिकित्सक डॉ पंत को उनके पास भेजा। डॉ पंत के इलाज से वे ठीक हो गए। प्रसन्न पुत्तू लाल ने डॉ पंत को इनाम में अशर्फियां देनीं चाहीं। डॉ पंत ने अशर्फियां नहीं लीं लेकिन कहा कि अगर कुछ देना ही है तो अपनी एक धर्मशाला में कन्याओं का स्कूल शुरू करने के वास्ते कुछ कमरे दे दीजिए। तब लखनऊ में बालिकाओं के लिए कोई स्कूल न था और डॉ पंत अपनी बेटी को पढ़ाने के लिए चिंतित थे। पुत्तू लाल ने सहर्ष मंजूरी दे दी। इस तरह छह बालिकाओं के साथ जिस स्कूल की स्थापना हुई वही बाद में महिला विद्यालय बना। यह जानना शायद रोचक होगा कि डॉ पंत की बेटी प्रसिद्ध साहित्यकार शिवानी की मां थीं। यानी डॉ पंत शिवानी के नाना होते थे। यह पूरा प्रसंग स्वयं शिवानी ने अपने संस्मरणों में दर्ज़ किया है।

1903 में अमीनाबाद में स्थापित परसी साह स्टूडियो आज़ादी से पहले और बाद में भी कई दशक तक अपनी फोटोग्राफी के लिए प्रसिद्ध था। सभी महत्वपूर्ण सरकारी और सामाजिक कार्यक्रमों के फोटो परसी साह खींचते थे। जिस गली में उनका स्टूडियो था वह आज भी अमीनाबाद में परसी साह लेन कहलाती है। अच्छे कलाकार बुद्धि बल्लभ पंत ने भी लाटूश रोड में एक स्टूडियो खोला था जो साठ के दशक तक कलात्मक फोटोग्राफी के अलावा विदेशी कैमरों और फिल्मों की उपलब्धता के लिए जाना जाता था।         

गोविंद बल्लभ पंतहरगोविंद पंतहेमवतीनंदन बहुगुणा, नारायण दत्त तिवारीबल्देव सिंह आर्यआदि सुपरिचित स्वतंत्रता सेनानियों और आजाद देश में बड़ी राजनैतिक भूमिका निभाने वालों की चर्चा यहां जानबूझकर नहीं की जा रही है। देवकी नंदन पाण्डेविचित्र नारायण शर्माभक्त दर्शन और बैरिस्टर मुकुंदी लाल जैसे स्वतंत्रता संग्रामियों एवं सामाजिक नेताओं ने आज़ादी से पूर्व और पश्चात राजनीति को ही प्रभावित नहीं किया बल्किप्रदेश और राजधानी को अपनी बहुमूल्य सेवाएं दीं। वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियोंअभियंताओंविज्ञानियोंलेखकोंसंस्कृतिकर्मियोंकलाकारोंइत्यादि के उल्लेख से यह सूची काफी लम्बी हो जाएगी।

(नव भारत टाइम्स, लखनऊ, 26 अगस्त, 2021)   

         

Tuesday, August 24, 2021

यात्राएं बताती हैं उत्तराखण्ड का हाल

कभी लखनऊ के गिरि विकास अध्ययन संस्थान की शोध परियोजनाओं के लिए उत्तराखंड के दूरस्थ क्षेत्रों  की यात्रा पर गए अरुण कुकसाल अब पक्के पहाड़ी घुमक्कड़ हैं। पहाड़ के गांवों से उन्हें बहुत प्यार है। इसीलिए पौड़ी गढ़वाल के अपने गांव चामी में रहने लगे हैं। वहां एक पुस्तकालय और कम्प्यूटर केंद्र बनाकर बच्चों को भावी जीवन संग्राम के लिए तैयार कर रहे हैं। सुदूर गांवों और दुर्गम शिखरों की यात्रा करने का कोई अवसर वे छोड़ते नहीं।

चले साथ पहाड़’ (सम्भावना प्रकाशन) अरुण की दस यात्राओं का वृतांत है। ये यात्राएं 1990 से 2020 के बीच की अवधि में की गई हैं। तीस साल के लम्बे अंतराल में उत्तराखण्ड में आए बदलाव और कहीं-कहीं लगभग यथास्थिति को भी दर्ज़ किया गया है। अरुण जिज्ञासु यात्री हैं और अपने संस्मरणों में इतिहास से लेकर दंत कथाओं और धार्मिक मान्यताओं को भी पिरोते चलते हैं। कुछ यात्राएं तीर्थ स्थलों की है लेकिन उनके वृतांतों में भी अपने समाज को जानने की उत्कंठा ही दिखती है।

अरुण मानते हैं कि “इस दुनिया को बेहतर और जीवंत बनाने की पहली पहल करने वाला निश्चित ही एक घुमक्कड़ रहा होगा।” घुमक्कड़ी हमें अपने समाज को भीतर तक देखना सिखाती है। यह देखा हुआ यथार्थ बदलाव की ललक पैदा करता है। 2018 में मध्य महेश्वर की यात्रा में वे पाते हैं कि “रांसी गांव में सड़क तो आ गई पर रोजगार कुछ बढ़ा नहीं। नतीजन, इसी सड़क से लोग देहरादून और अन्य मैदानी शहरों की ओर सरकने लगे हैं। उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद से इन 18 सालों में 28 परिवार यहां से पूरी तरह पलायन करके जा चुके हैं।” पलायन की बढ़ती प्रवृत्ति का कारण सिर्फ बेरोजगारी नहीं है। एक यात्रा में वे पाते हैं कि “30 किमी तक तो प्राथमिक उपचार भी सम्भव नहीं है। अव्यवस्थाओं का चरम देखना है तो उत्तराखण्ड आइए। प्रकृति ने जितनी खूबसूरत जगहें यहां दी हैं, उतना ही कुरूप व्यवस्थाओं के लिए जिम्मेदार यहां का शासन-प्रशासन है।”

पलायन करने और न कर पाने की मजबूरियां इन यात्राओं में बार-बार सामने आती हैं। रुद्रनाथ जाते हुए “एक खण्डहर हवेली दिखी तो खेत में काम कर रही एक बुजुर्ग महिला ने बताया- ये खूब पैसे वाले लोग थे तो उनको यहां रहकर क्या करना था। बाहर देश चले गए। अब उनका कोई नहीं आता यहां। पहाड़ में रहना तो हम गरीब गुरबों के लिए है। कहां जाना हमने।” जहां सड़क नहीं पहुंची है, हर उस जगह उसकी मांग है लेकिन अरुण चौंकते हैं जब सरनौल में ग्रामीणों की सबसे पहली मांग मोबाइल टावर लगाने की होती है, सड़क की मांग दूसरे नम्बर पर। स्वाभाविक ही “संचार और यातायात आज की दुनिया में समुदायों की जरूरतों में पहले नम्बर पर हैं।” रंवाई इलाके के एक ग्राम प्रधान का दर्द देखिए- “एक जूनियर स्कूल है पर उसमें अध्यापक नहीं है। मोटर सड़क और बिजली कभी यहां आएगी, ऐसी कोई उम्मीद नहीं है। मोबाइल टावर इधर हो जाता तो हम जीने-मरने की खबर तो दे पाते सरकार को।” यह वह रंवाई है जहां “साठ के दशक तक बाहर से बिल्कुल भी अन्न नहीं आता था।” तब का पूरी तरह आत्मनिर्भर इलाका अब विकासके लिए सरकार का मुंह जोहता है। और, सरकार है कहां, ये देखिए-

आधा-अधूरा पड़ा स्कूल भवन देखकर “प्रदीप (राज्य सभा सदस्य प्रदीप टम्टा) पूछते हैं- कभी कोई जिला शिक्षा अधिकारी आए हैं इस इलाके में?

“जानकारी नहीं है सर, मैं भी पहली बार आ रहा हूं- खण्ड शिक्षा अधिकारी चौहान उत्तर देते हैं।” और, जब प्रदीप महिलाओं से मुखातिब होते हैं कि उनकी समस्याएं जान सकें तो पता चलता है कि “वे नहीं जानती कि महिलाओं के इलाज के लिए महिला डाक्टर भी होती हैं। उनके लिए फार्मासिस्ट ही सब कुछ है। महिला मंगल दल, आंगनवाड़ी, आशा कार्यकर्ती, आदि के बारे में उन्हें जानकारी नहीं है।”

बहुत पुरानी नहीं, यह 2016 की बात है जब उत्तराखण्डराज्य को अस्तित्व में आए सोलह साल हो चुके थे। बड़ी उम्मीद से अपने लिए अलग राज्य मांगा था उत्तराखण्डी जनता ने लेकिन 2017 की रुद्रनाथ यात्रा में लेखक और उसके साथी सुनते हैं कि “अच्छे खासे थे उत्तर प्रदेश में। कहने को अपना राज्य है पर जब जनता के पास खाणे-कमाणे के लिए कुछ होगा नहीं तो क्या करना ऐसे राज का?”

1990 में की गई सुंदरढूंगा यात्रा के समय अपना राज्य नहीं बना था। उस समय का यात्रा विवरण बताता है कि “जातोली गांव की सरकारी राशन की दुकान आठ किमी दूर खाती गांव में है। वहां से एक खच्चर सामान की ढुलान 60 रु है। गांव में सरकारी गल्ले की दुकान की मांग लोग सालों से कर रहे हैं। सारी सरकारी सुविधाएं खाती गांव से आगे ही नहीं बढ़ पाती हैं...।” राज्य बनने के 21 वर्ष बाद पुस्तक की भूमिका में लेखक उस यात्रा का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि “तब से बहुत समय बदल गया है परंतु विडम्बना यह है कि सुंदरढूंगा ग्लेशियर जाने के रास्ते में आखिरी आबादी वाले जातोली गांव के लोग जीवन की मूलभूत सुविधाओं से अभी भी वंचित हैं।”  

सरकारों का दावा है पर्यटन प्रदेश बनाने का लेकिन 2017 में यात्री पाते हैं कि “सरकार का पर्यटन-तीर्थाटन विकास सिर्फ विज्ञापनों में ही दीखता है। यहां तो सरकार लापता है। जो कुछ है बस स्थानीय लोगों का किया हुआ कमाल है।” स्थानीय जनता है भी कमाल की मोहिली और भोली- “पास ही चाय की दुकान है। दुकानदार जी अपने जानवरों की खोज में सामने की धार में खड़े हैं। वहीं से ऊंची आवाज में कहते हैं- मुझे देर लगेगी, आप चाहें तो अपने आप चाय बना लीजिए। चाय के पैसे वहीं रख जाना।”              

ऐसी भोली जनता में सरकार के प्रति घोर अविश्वास है। उसके कारण हैं- “घिमतोली के सरकारी उद्यान फार्म के बारे में दुकानदार से पूछा- वह कहां पर है? तुनक कर वह कहता है- किसका फार्म साब! वह तो कब का सरकार ने किसी प्राइवेट को बेच दिया। वर्षों से सुन रहे हैं कि वो लोग जड़ी-बूटी उगाएंगे पर तब से उसे बंजर होते ही देख रहे हैं। सरकार को जो करना चाहिए वह तो उससे होता नहीं। हां, हम पहाड़ियों के पैतृक व्यवसाय जरूर हडप रही है।” यह अकेला किस्सा नहीं है। भराणीसैण में, जहां उत्तराखण्ड की राजधानी गैरसैण में बनाने के लिए आंदोलित जनता को ग्रीष्मकालीन राजधानीका झुनझुना दिया गया है, “राज्य बनने से पहले एशिया का प्रसिद्ध गोवंशीय संकर प्रजनन केंद्र था, जो अब वीराने के हवाले है। रास्ते में करोड़ों की लागत से बनी विदेश से आयातित भीमकाय मशीन को दिखाते हुए इंद्रेश कहते हैं, वर्षों पहले यह मशीन आई और बिना उपयोग में आए यहीं पड़े-पड़े खराब हो गई।” और, उखीमठ में “गढ़वाल मंडल विकास निगम के शुरुआती हिस्से में तीन भारी-भरकम भवनों के आधे-अधूरे अवशेष चुपचाप निरीह अवस्था में खड़े हैं। उनके चारों ओर बड़ी-बड़ी झाड़ियां उग आई हैं। साफ बात है कि वर्षों से इनकी सुधि नहीं ली गई है।” एक स्थानीय व्यक्ति से इसका कारण पूछा गया तो बोला –“अजी बताना क्या, सरकार की नालायकी के नमूने हैं ये।” अरुण की यात्राएं पाठकों को उत्तराखण्ड के ऐसे दर्दनाक एवं क्रूर हालात से परिचित कराती चलती हैं।

भारी गड़बड़ियों और उपेक्षाओं वाले उत्तराखण्ड में अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है, अरुण यह नोट करना भी नहीं भूलते। कहो, कैसे हो रानीखेतवृत्तांत में वे उम्मीद की रोशनी भी देखते हैं- “पौड़ी से तकरीबन 90 किमी की यात्रा हो गई है और हमें न तो कोई टूटा/खण्डहर घर/इमारत मिली और न ही कहीं बंजर जमीन या छूटे हुए खेत दिखाई दिए हैं।” वैसे, यह चलती कार से देखा हुआ सच है। तो भी कैन्यूर गांव का यह दृश्य उम्मीद जगाता है –“जंगल और लोगों के रिश्ते यहां अभी भी जीवंत हैं...। जंगलों की भरपूर उपलब्धता ने यहां के लोगों के पुश्तैनी कार्यों को कमजोर नहीं होने दिया है। जंगलों में जंगली जानवरों का आधिपत्य है तो खेत-खलिहानों में मानवों का।” यह संतुलन अब दुर्लभ ही कहा जाएगा। “कुमाऊं के सल्ट इलाके की देश-दुनिया में मशहूर मिर्च का लाखों का कारोबार” करने वाले आढ़तियों का होना भी आशा एवं सम्भावनाएं बनाए रखता है।

तमाम निराशाजनक दृश्यों के बीच अरुण पाठकों को जनता की मेहनत और अपने पहाड़ों से प्यार का दर्शन करा कर निराश नहीं होने देते- “ये है भाई लोगो, ग्राम सभा डख्याट.... गांव के ऊपरी भाग में घना बेमिसाल जंगल। विजय बताते हैं कि यह सब गांव के लोगों की मेहनत का फल है। इस पूरे पहाड़ पर ग्रामीणों ने वर्षों से देखभाल करके जंगल पैदा किया, उसे पाला-पोसा और आज उसका लाभ ले रहे हैं।” यहां हमारी भेंट अच्छी नौकरियां छोड़कर अपने-अपने गांव लौटे और कुछ न कुछ उद्यम कर रहे लोगों से भी होती है।

2013 के जल-प्रलय से तबाह हुए केदारनाथ और आसपास के इलाके के सरकारी सौंदर्यीकरण को तनिक आशा से देखते हुए भी लेखक यह चेतावनी देता है कि “बढ़ते मानवीय हस्तक्षेप के कारण पहाड़ों का पारिस्थितिकीय तंत्र गड़बड़ाने लगा है।” उधर, तीर्थाटन और पर्यटन के नाम पर “बिना साइलेंसर की बाइकें, बिना हेल्मेट और अंधाधुंध रफ्तार के साथ हवा में नशे की गंध छोड़ते दंभी युवकों की भीड़” हैरान-परेशान करती है।

कुल मिलाकर ये यात्रा वृत्तांत आज के उत्तराखण्ड का आईना हैं। प्रकाशित चित्रों में परिचय की कमी खलती है। कुछ अशुद्धियां भी हैं, विशेष रूप से पितृको को बार-बार पित्रपढ़ना सुस्वादु भोजन के बीच कंकड़ आ जाने की तरह किरकिराता है।

    -चले साथ पहाड़, लेखक- अरुण कुकसाल, प्रकाशक- सम्भावना प्रकाशन, हापुड़ (7017437410) पृष्ठ 208, मूल्य 250/-

Friday, August 20, 2021

महामारी, बच्चे, स्कूल, आशंकाएं एवं प्रश्न

छोटे बच्चों के स्कूल भी अब खोले जा रहे हैं। डेढ़ साल बाद प्राथमिक स्कूलों के खुलने से कुछ खुशी, कुछ सनसनी और बहुत सारी आशंकाएं हैं। अभिभावक सबसे अधिक चिंतित हैं, हालांकि उनमें एक वर्ग ऐसा भी है जो चाहता है कि स्कूल खुलें और बच्चे स्वाभाविक जीवन जीएं। कोविड महामारी ने मानवजाति का बहुत बड़ा नुकसान किया है। बेहिसाब मौतें हुई हैं लेकिन बच्चों से इसने सहज और उन्मुक्त विकास छीना है। यह दौर उनकी स्मृति में एक आतंक की तरह मौजूद रहेगा।

घरों में कैद रहकर ऑनलाइन पढ़ाई का एक विकल्प था किंतु बहुत बड़ी संख्या में सुविधा विहीन बच्चे ऑनलाइन कक्षाओं से वंचित रहे। माता-पिता की रोजी छिन जाने से भूख, बीमारियों एवं मनोविकारों का भी वे शिकार हुए। ऑनलाइन पढ़ाई स्कूल जाने का विकल्प कतई नहीं हो सकती। अपने देश में इसकी कोई विशेष चिंता नहीं की गई। विकसित देशों में बंद स्कूलों से उपजी समस्याओं पर खूब मंथन हुआ है तथा इससे निपटने के उपाय निकाले जा रहे हैं।

कई देशों में कोविड के कारण बंद स्कूलों को शैक्षिक आपातकालकी तरह देखा गया है। यूनेस्कोएवं युनिसेफजैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं ने देशों से अपील की है कि कोविड से बचाव के समस्त उपाय करते हुए स्कूलों को खोलने और खोले रखने का जतन करें। ऐसा आग्रह करने के कारण हैं। नन्हे बच्चों के लिए स्कूल सिर्फ किताबी पढ़ाई के लिए नहीं होते। उन्हें, ‘सीखने के केंद्रके रूप में देखा जाता है। इस  सीखने में गणित या भूगोल, वगैरह के पाठ उतना शामिल नहीं हैं, जितना कि जीवन का प्रत्यक्ष ज्ञान, जिसमें खेल, शैतानियां, दोस्तियां, टीचर से सम्वाद और अनेक तरह की गतिविधियां होती हैं। जो पढ़ सकते थे, उन बच्चों ने ऑनलाइन कक्षाओं में विषय तो पढ़ लिए लेकिन उनका मानसिक-शारीरिक विकास अवरुद्ध होने लगा।

स्कूलों की बंदी ने बच्चों के बीच की सामाजिक-शैक्षिक खाई को और भी बढ़ा दिया। आर्थिक खाई तो थी ही, उन प्रतिभावान बच्चों को भी पीछे धकेल दिया है जो गरीबी के बावजूद अपनी मेधा से स्कूल और समाज में महत्व पाते थे। युनिसेफने सभी देशों से अपील की है कि ऑनलाइन दौर में पिछड़ गए बच्चों को स्कूल खुलने पर बराबरी में आने का विशेष अवसर दें। हमारे यहां स्कूल खुल तो रहे हैं लेकिन क्या इस पक्ष पर स्कूल-प्रबंधन ध्यान देंगे? सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। उनमें अध्यापक ही नहीं हैं या बहुत कम हैं, वे कैसे इस पर अमल करेंगे? निजी स्कूलों क ध्यान अपनी कमाई पर अधिक है।

कोविड के तीसरे दौर के आने की चेतावनी बनी हुई है। स्कूल कब तक खुले रहेंगे, इस पर संशय है। पश्चिमी देशों में कई विशेषज्ञ यह मान रहे हैं कि यह वायरस बच्चों के लिए खतरनाक नहीं होगा, बशर्ते कि सभी टीचर और कर्मचारियों को दोनों टीके लग चुके हों। हालांकि इस राय पर भी सवाल उठ रहे हैं लेकिन वहां टीकाकरण सुनिश्चित करके स्कूल खोले जा रहे हैं। अपने यहां टीकाकरण की दर काफी सुस्त है।

करीब आधे अभिभावक इस पक्ष में नहीं हैं कि प्राथमिक स्कूल अभी खोल दिए जाएं। अभिभावकों की राय पूछी भी जा रही है। वे नहीं चाहेंगे तो बच्चों के स्कूल आने की बाध्यता नहीं होगी। यह अपने आप में एक नई विसंगति पैदा करेगा। दो पालियों में स्कूल चलाने से ही विसंगति पैदा हो गई है। दूसरी पाली में बहुत कम बच्चे आ रहे हैं।

महामारी अभी गई नहीं है। संक्रमण फैलने के खतरे के अलावा यह नई पीढ़ी के स्वाभाविक विकास का बड़ा सवाल भी है। इस पर बहुत गम्भीरता से विचार होना चाहिए। 

(सिटी तमाशा, नभाटा, 21 अगस्त, 2021)      

 

 

Wednesday, August 18, 2021

मज़बूत होते पंखों की मनचाही उड़ान

हाल ही में प्रकाशित अपनी किताब
ये मन बंजारा रे’ (सम्भावना प्रकाशन, हापुड़) में गीता गैरोला ने एकाधिक बार लिखा है कि पहाड़ों से ऊर्जा लेने और रूटीन ज़िंदगी की ऊब खत्म करने के लिएवे अक्सर आवारागर्दीकरने निकल पड़ती हैं। सच यह है कि इन यात्रा संस्मरणों को पढ़ते हुए उत्तराखण्डी समाज, पितृसत्तात्मक व्यवस्था में महिलाओं की स्थितियों, धर्म एवं आस्था की मजबूत जकड़नों, उजड़ते गांवों, विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों के अनियमित दोहन, सड़क के साथ पहुंचती अपसंस्कृति, नशे के फैलते तंत्र और इस सब के बावजूद बचे रह गए पहाड़ी भोलेपन का गहरा अध्ययन और स्मृति में देर तक बने रह जाने वाले शब्द-चित्र सामने आते रहते हैं। उनकी आवारागर्दी वास्तव में अपने समाज का संवेदनशील अध्ययन साबित होती है।

गीता गैरोला आज स्त्रियों के लिए स्वतंत्रता, बराबरी, अधिकार और परम्परा की जकड़ से मुक्ति की पैरोकारी और उसके लिए संघर्ष करने वाला नाम है। उनके बचपन के संस्मरणों (मल्यों की डार) और कविताओं (नूपिलान की मायरा पायबी) में भी यह स्वर बराबर उपस्थित रहा है। उल्लेखनीय बात यह है कि उनके ये तेवर स्त्री-विमर्श के बौद्धिक फैशन, सेमिनारी बहसों या नारों से नहीं आए हैं। इन्हें उन्होंने कुछ अपने पारिवारिक जीवन और बाकी सुदूर गांवों में भटकते हुए अनेक ज़िंदगियों का साक्षी बनकर अर्जित किए हैं।

घुमक्कड़ी उनका प्रिय शौक है। अधिकतर यात्राएं बिल्कुल अचानक और जहां रात हो जाए वहीं डेरा डाल देनेके निश्चिंत भाव से की गई हैं। इस आवारागर्दी में अक्सर ही कमल जोशी (उसके नाम से पहले स्व लिखने का मन नहीं करता) जैसा खिलंदड़ा लेकिन संवेदनशील यायावर और छायाकार उनके साथ होता है। सड़क मार्ग से दूर दुर्गम क्षेत्रों की यात्राएं पैदल हुई हैं। खाना मांग कर खाया है। रातें ग्रामीणों के घरों, मंदिरों, बाबाओं-संन्यासिनियों के मठों और कहीं-कहीं कामचलाऊ टेंटों में बिताई गई हैं। चलते-रुकते और ठहरते हुए ग्रामीण स्त्री-पुरुषों से सुख-दुख लगाया गया है। हर यात्रा और प्रत्येक पड़ाव में गीता स्त्रियों से मिलना-बतियाना कतई नहीं भूलती हैं, वह उत्तराखण्ड के दुर्गम गांव हों, श्रीनगर (कश्मीर) की डल झील का बोट हाउस हो, केरल के गांव हों, छत्तीसगढ़ में बस्तर के इलाके या फिर रत्नागिरि (हाराष्ट्र) के गांव। अधिकतर यात्राएं उत्तराखण्ड के विभिन्न क्षेत्रों में हुई हैं।  

1987 में जब गीता ने गोपेश्वर के कॉलेज से चंद साथियों के साथ तुंगनाथ की पैदल यात्रा की थी, उससे पहले वे सामान्य अर्ध ग्रामीण-अर्ध शहरी मध्यवर्गीय लड़की थीं। विवाह से पहले तथा बाद में युवतियों के हिस्से आने वाली वर्जनाएं, उपेक्षाएं, ताने, गुलामियां, वगैरह उनके भी हिस्से में रहीं। बस, दादा जी एक सीख बचपन से साथ चली आई थी कि न खुद गलत करना है और न गलत सहना है। इस एक सीख ने गीता गैरोला को आम युवतियों से क्रमश: कुछ अलग बनाना शुरू किया। मायका हो या ससुराल, दफ्तर या बाजार या सड़क या कोई गांव और अनजाना परिवार, वे अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने लगीं। वे लिखती हैं कि “सन 1987 से मेरे पंख उगने शुरू हुए।” उसके बाद का उनका जीवन इन्हीं उगते एवं मजबूत होते पंखों की मनचाही उड़ान है। उड़ान दर उड़ान गीता की दृष्टि पैनी होती रही और वे नदी-जंगल-पहाड़-आदमी-औरत-पशु-पक्षी और मिट्टी-पत्थर के भीतर भी देखना सीखती रहीं। ये मन बंजारा रेकी यात्राएं इन्हीं उन्मुक्त उड़ानों में गहरे तक देखे हुए का आख्यान हैं।

इसी दृष्टि का कमाल है कि प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर क्षेत्रों में की गई हैं यात्राओं में भी प्रकृति वर्णन नहीं मिलता। गीता की नज़र घाम तापते हिम शिखरों पर पड़ती तो है लेकिन अधिक देर तक वहां टिकी नहीं रहती। होता यह है कि “परिवार, समाज, धर्म के साथ संतान पैदा न कर सकने की शारीरिक कमी की सताई गईऔर “गोठ में रम्भाती गाय, दूध के लिए रम्भाता बछड़ा, घास बांधने का इंतज़ार करती रस्सी, घर के अनगिनत कामों की याद से दौड़ती-भागती” महिलाएं उनके दिमाग में खदबद करने लगती हैं। उन्हें सौंदर्य दिखता है वहां जहां छांछ के बर्तन में मुंह डाल चुकी बकरी को वे उस परिवार के बच्चे की तरह पाती हैं और उसकी जूठी की गई छांछ मजे से पी जाती हैं, इस दुर्लभ आनंद का अनुभव करते हुए कि “पहाड़ी लोग अपने खेत, पशु, पेड़-पौधों से ऐसा ही तादात्म्य बनाकर अपने कठोर जीवन में रस घोलते हैं।” वे रास्ते चलते पेड़ों को कौली (आलिंगन) भरती  हैं, उनसे बात करती हैं और कभी कल-कल-छल-छल बहती नदी को पतली धार बनी देखकर विकास के विद्रूपों पर दुखी होती है।

गीता बहादुर महिला हैं। रूढ़ियों से भिड़ती और उन्हें तोड़ती हैं। प्रत्येक बारह साल बाद होने वाली नंदा राजजात यात्रा’ (मायके आई बेटी नंदा को कैलाश ससुराल भेजने का महत्त्वपूर्ण धार्मिक पर्व) में एक सीमा के बाद स्त्रियों का जाना वर्जित था। सन 2000 में गीता कुछ अन्य युवतियों के साथ यात्रा में अंत तक शामिल होकर महिलाओं के लिए वर्जित वह द्वार तोड़ आईं, विरोध को इस तर्क से ध्वस्त करते हुए कि “नंदा भी तो औरत है माई जी, औरत होने के नाते उसको भी जरूर माहवारी होती होगी। एक औरत (देवी) का इतना सम्मान और दूसरी तरफ जीती जागती औरतों के लिए यात्रा को वर्जित करना कहां का न्याय है।” इससे पहले हनोल के महासू मंदिर में प्रवेश करने का उनका प्रयास सफल नहीं हो पाया था। हर असफलता के बाद गीता और ताकतवर होती रहीं।

एक बार नन्हीं गीता ने अपनी दादी के सामने दादा का दिया ज्ञान बघारा था- “दादा जी कहते हैं, फूलों के रंग और पत्तों का हरापन सूरज उन्हें अपने इंद्रधनुष से देता है।” दादी गहराई से मुस्कराई थी- लाटी छोरी, तेरे बाबा को क्या पता रंग और हरापन सूरज देता है, पर चमक और खुशबू जनानियों के गीतों से आती है।” इन यात्राओं में गीता बार-बार देखती है कि इस सृष्टि में चमक और खुशबू भरने वाली जनानियों का जीवन खुद बहुत बदरंग और फीका है। उनका साक्षात्कार पंद्रह वर्ष में दूसरे बच्चे की मां बनने वाली औरतसे होता है, अपने पति को खाचुकी बाईस साल की माई (जोगन) से होता है, बाप द्वारा चार सौ रु में बेच (ब्याह) दी गई लड़की से होता है, पति द्वारा अलकनंदा में धकेल दे गई लेकिन जीवित रह गई गर्भवती से होता है, जीप में चुपचाप आंसू बहाती उस युवती से होता है जो सहानुभूति का स्पर्श पाते ही फूट-फूट कर रोने लगती है और ऐसी अनेक महिलाओं से जब वे उनकी दुख भरी कहानियां सुनती हैं तो सभी एक जैसी लगती हैं। तभी कहती हैं कि “औरतों की कहानियां कभी पुरानी होती ही नहीं।”

संयोग ही है कि ये मन बंजारा रेपढ़ने से ठीक पहले मैने उत्तराखण्ड की महिलाएं‌-स्थिति और संघर्ष’ (नवारुण प्रकाशन) नामक किताब पढ़ी थी। उसमें महिलाओं की जिन-जिन स्थितियों का उल्लेख हुआ है, गीता अपनी यात्राओं में उन स्थितियों को जीती हुई स्त्रियों से मुलाकात कराती हैं। इन पन्नों से गुजरना साबित करता है कि इस देवभूमि में आज भी महिलाओं की जगह नहीं बन पाई है।” 

यात्रा-वृतांतों का मुख्य स्वर महिला सम्मान और अधिकार है लेकिन उनकी नज़र से विकास की विसंगतियां, तबाह पर्यावरण, प्रकृति और इनसान के टूटते रिश्ते, मानवीय संबंधों का विघटन और उजड़ते गांवों की पीड़ा को भी गम्भीरता से देखती है। बर्षों बाद जब वे पिता और बहनों के साथ अपने छूटे हुए गांव की यात्रा करती हैं तो एक वीरान, खल्वाट, खण्डहर पहाड़ उनके सामने आता है- “आखिर में हम अपने घर गए.... वहां तो एक खण्डहर खड़ा था जिसके दरवाजे की कुण्डियों में ताले लगे थे पर छत टूट गई थी। दीवारें ढह गई थीं।” यह आज के पहाड़ की निर्मम सच्चाई है। वे उस सवर्ण मानसिकता की पर्तें भी उघाड़ती हैं जो “पहाड़ों से समुद्र के किनारों तक बिना एक दूसरे की भाषा समझे बिना बिल्कुल एक जैसी है।”

अनेक बार उदास कर देने वाले ये संस्मरण कोरी भावुकता से भरे नहीं हैं। गीता बदलाव के लिए लड़ने की जरूरत को रेखांकित करना नहीं भूलतीं। यह जानते हुए भी कि वर्षों से होते आ रहे आंदोलनों से इच्छित परिवर्तन नहीं हुआ है, वे नोट करती हैं कि “लोगों के प्रयासों से समाज के अंदर कोई परिवर्तन हुआ या नहीं, यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, पर प्रयास और जुनून हमेशा जारी रहने चाहिए जो आज भी मौजूद है और जुनून भी बना हुआ है।”

पिछले कई साल से कैंसर से लड़ने के साथ-साथ आंदोलनों में बराबर भागीदारी और यात्राओं का जुनून बचाए हुए बहादुर गीता को सलाम। सलाम कमल की यादों को भी जो इन संस्मरणों में खूब बोलता रहता है, जिसके खींचे फोटो आवरण से लेकर भीतर के पन्नों तक फैले हैं। भीतर के फोटो और बेहतर छपाई की मांग करते हैं, और कमल का नामोल्लेख भी। आवरण खूबसूरत बना है।

-    ये मन बंजरा रे- गीता गैरोला। प्रकाशक- सम्भावना प्रकाशन (7017437410) पृष्ठ-232, मूल्य- 300 

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Tuesday, August 17, 2021

लोग जानते ही नहीं कि यहूदी कौन हैं- शीला रोहेकर

शीला रोहेकर वर्तमान में हिंदी की एकमात्र यहूदी लेखिका हैं। उनका उपन्यास ‘मिस सैम्युएल:एक यहूदी गाथाभारत के यहूदियों की मार्मिक कथा है। यहूदी भारत में बहुत ही कम संख्या में है, इस समय मुश्किल से पांच-छह हजार। भारतीय समाज-संस्कृति में पूरी तरह घुल मिल जाने के बावजूद उनकी पहचान एवं उपेक्षा के बहुस्तरीय संकट हैं। अधिकतर जनता तो यह भी नहीं जानती कि यहूदी कौन होते हैं।

अक्टूबर 1942 में जन्मी शीला रोहेकर (कोंकण, महाराष्ट्र के रोहा नामक जगह में बसे होने से रोहेकर कहलाए) ने 1960 के दशक से लिखना शुरू किया। पहले गुजराती में कहानी-कविताएं और फिर हिंदी में। मिस सैम्युएल: एक यहूदी गाथा’ (2013) से पहले उनके दो उपन्यास, ‘दिनांतऔर ताबीज़प्रकाशित हैं। एक कथा संकलन गुजराती में लाइफ लाइन नी बहारऔर एक हिंदी में चौथी दीवारभी प्रकाशित हुए। ताबीज़ उपन्यास बाबरी मस्ज़िद ध्वंस के बाद के भारतीय समाज में बढ़ती साम्प्रदायिकता से मुठभेड़ करता है। भारतीय समाज में अल्पसंख्यकों का निरंतर हाशिए पर धकेला जाना उनकी रचनाओं का एक केंद्रीय तत्व रहा है। 

शीला जी को उपन्यास दिनांतके लिए यशपाल पुरस्कार और यहूदी गाथाके लिए उ प्र हिंदी संस्थान का प्रेमचंद पुरस्कार, एवं हिंद्स्तान टाइम्स का पेन ऑफ द इयरसम्मान प्राप्त है। उनकी कुछ कहानियां देसी-विदेशी भाषाओं में अनूदित हैं। यहूदी गाथाउपन्यास शीघ्र ही अंग्रेजी में प्रकाशित हो रहा है। वे अपने पति रवींद्र वर्मा (हिंदी के प्रसिद्ध उपन्यासकार और छोटी कहानियां लिखने के लिए चर्चित) के साथ लखनऊ में रहती हैं। प्रस्तुत है उनसे संक्षिप्त बातचीत-

* शीला जी अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में कुछ बताइए।

- मेरे पिता आइजेक जेकब रोहेकर गुजरात में प्रशासनिक सेवा में थे। उन्हें अपनी यहूदी जड़ों से बहुत प्यार था। मां, एलिजाबेथ गृहिणी थीं। हम दो बहनें और दो भाई हैं। मैं सबसे बड़ी हूं। छोटी बहन बाद में इसराइल जाकर बस गई। एक भाई भी वहां गया लेकिन एडजस्ट नहीं कर पाया तो लौट आया।

* साहित्य की ओर रुझान कैसे हुआ?

- स्कूली दिनों से ही मैं बहुत पढ़ाकू थी। लाइब्रेरी बंद होने तक बैठी पढ़ती रहती थी। गुजराती, हिंदी अंग्रेजी की साहित्यिक पुस्तकें, पत्रिकाएं, सब। कुछ-कुछ विद्रोही-सा स्वभाव भी था। चीजों को अलग नजरिए से देखने वाला। इसी से पहले गुजराती में लिखना शुरू किया। बीएससी करने के समय से हिंदी में भी लिखने लगी। पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगी तो हौसला बढ़ता गया।

* रवींद्र जी से कैसे मुलाकात हुई?

- धर्मयुगमें मेरी कहानी छपी थी- चौथी दीवार। उस पर बहुत से पत्र आए थे। रवींद्र जी ने भी प्रशंसा में पत्र लिखा। तब वे मुम्बई में थे। पत्र-व्यवहार शुरू हुआ। काम के सिलसिले में अमदाबाद आए तो मिलने आए। बस, ऐसे ही...। फिर हमने विवाह कर लिया, दिसम्बर 1969 में।

* यहूदी गाथालिखने के पीछे क्या विचार था? इसमें आपकी अपनी कहानी कितनी है?

- असल में भारत में इतने कम यहूदी हैं कि लोग जानते ही नहीं कि वे कौन हैं, क्या हैं। उन्हें कभी मुसलमान समझ लिया जाता है, कभी ईसाई। उनके लिए किराए का मकान ढूंढना भी मुश्किल होता है। हमारे सेनेगॉग’ (पूजा स्थल) को भी रहस्य की तरह देखते हैं। यहूदियों में अपने मूल स्थान से  स्वाभाविक ही बड़ा लगाव होता है लेकिन वे लम्बे समय से यहां रहते-रहते भारतीय समाज-संस्कृति में पूरी तरह रच-बस गए हैं। भारतीय हैं मगर बहुत उपेक्षित। यह सब हमने बचपन से देखा-भोगा। अपने अनुभव तो रचनाओं में आते ही हैं।

* यहूदी भारत में कैसे पहुंचे?

- करीब दो हजार साल पहले यहूदियों का एक जहाज कोंकण तट पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। उसमें चंद ही यहूदी बच पाए जो महाराष्ट्र, गुजरात, गोवा में बस गए। दूसरे विश्व युद्ध के समय, हिटलर के आतंक से भाग कर भी कुछ यहूदी यहां आए। कुछ लोग बाद में वतन लौटे भी लेकिन बाकी यहीं के होकर रहे।

* यहूदी होने के नाते कभी आपको उपेक्षा या डर जैसा अनुभव हुआ?

- हां। कैसा लगता है और कब, इसे वही महसूस कर सकते हैं जो इस स्थिति में होते हैं। समझा पाना मुश्किल है। 

* हिंदी साहित्य में और कोई यहूदी लेखक हुआ?

-जी, मीरा महादेवन ने मुझसे पहले भारतीय यहूदियों पर हिंदी में एक उपन्यास लिखा था- अपना घर’, जो 1961 में अक्षर प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था। मीरा का मूल नाम मरियम जेकब मेंड्रेकर था। शादी के बाद उन्होंने नाम बदला। उनका कम उम्र में देहांत हो गया था। उसके बाद मैंने ही लिखा। अंग्रेजी में एस्थर डेविड खूब लिखते हैं। एक और हैं कोलकाता में, नाम अभी याद नहीं आ रहा।

* आप कभी इसराइल गईं?

- हां, तीन-चार वर्ष पहले। वहां की साहित्य अकादमी के निमंत्रण पर भारत से लेखकों का एक प्रतिनिधिमण्डल गया था। यहूदी गाथाके कारण मुझे भी उसमें शामिल किया गया।

* कैसी अनुभूति हुई थी वहां, अपने मूल वतन आने जैसा कुछ?

-नहीं, ऐसा तो कुछ नहीं लगा। वहां इतने धार्मिक टकराव हैं, दमन हैं और लड़ाइयां हैं कि उनकी ओर अधिक ध्यान गया। वंचित समुदायों की तरफ मेरा ध्यान ज़्यादा जाता है।  

* इन दिनों आप क्या लिख रही हैं?

- अभी एक उपन्यास पूरा किया है, पल्ली पारनाम से। सेतु प्रकाशन को दिया है। भारतीय समाज के गरीब, पिछड़ी और दलित जातियां, अल्पसंख्यक, वगैरह, जो पल्ली पार यानी हाशिए पर धकेले जाते समाज हैं, राजनीति और रिश्तों का क्षरण, इसके विषय हैं।

(samalochan.com dated Aug 16, 2021)

   

    

  

Monday, August 16, 2021

यहूदियोंं की व्यथा-कथा के बहाने हिंदुस्तानियत की चुनौतियां

 

हिंदी साहित्य की आलोचना-दरिद्रता या सेलेक्टिव-चर्चाऔर विचारधारा के नाम पर खेमेबाजी का परिणाम है कि कई अच्छी रचनाएं अलक्षित या अल्प-चर्चित रह जाती हैंया कर दी जाती हैं। यह अलग बात है कि सशक्त रचना देर सबेर अपनी जगह बना ही लेती है। अपने समय में ही उसकी खूबियों की चर्चा न हो, विश्लेषण और कमियों की चीर-फाड़ न हो तो समकालीन लेखन और लेखकों के लिए वह नई और आगे ले जाने वाली रचनात्मक लहरें कैसे पैदा करे? उसके रचनाकार को और बेहतर लेखन के लिए उत्प्रेरित कैसे करे?    

मेरे पठन-पाठन की एक सीमा है तो भी सन 2013 में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित शीला रोहेकर का उपन्यास मिस सैम्युएल : एक यहूदी गाथा2021 में पढ़ते हुए ये सवाल बार-बार मन में उठते रहे। यह सिर्फ एक यहूदी गाथा नहीं है, जैसा कि इसके नाम से आभास होता है।

प्रमुखत: अत्यंत अल्पसंख्यक एवं उपेक्षित भारतीय यहूदियों की मार्मिक गाथा होने के बावजूद यह उपन्यास हमारे समकाल की चुनौतियों से रचनात्मक मुठभेड़ करता है। वह एक साथ कई धरातलों पर कई कथा-व्यथाओं को साथ लिए चलता है और अत्यंत संवेदनशीलता, गहन पीड़ा और आवेशित अंतरंगता के साथ लिखा गया है। उसमें विभिन्न धार्मिक समाजों और भिन्न-भिन्न आर्थिक पृष्ठभूमि वाली स्त्रियों के गहन जीवनानुभव हैं, उनके पारिवारिक ही नहीं, भीषण आंतरिक संघर्ष भी हैं और समाज में बढ़ते साम्प्रदायिक अलगाव एवं नफरत की उघड़ती हुई परतें हैं।    

शीला रोहेकर वर्तमान में हिंदी की अकेली लेखिका हैं जो यहूदी हैं। भारत में निरंतर हाशिए पर धकेले जाते और सीमित संख्या में बचे यहूदियों की दिल को मथने देने वाली गाथा के साथ-साथ इस उपन्यास में गुजरात के दंगे हैं, वली दकनी की मज़ार का मिटाया जाना है तथा उससे उपजी पीड़ा और क्षोभ है, ‘गुजराती बेन छे कहकर अमीना का बचना है जबकि उसके सामने उसका पूरा परिवार मार दिया गया।

पगलाई साम्प्रदायिक भीड़ ने उस बॉबी को भी मार दिया जो मैं यहूदी हूं कहता रहा लेकिन किसने सुना! उसकी पैंट उतारी गई थी (यहूदी मुसलमानों की तरह लड़कों का खतना करते हैं, हालांकि उनका धर्म ग्रंथ बाइबिल है) जबकि उसका मुस्लिम साथी हिंदू छू, पटेलकहकर बच निकला। लेकिन कितने दिन? एक दिन वह भी रेल पटरी पर मरा पाया गया। बॉबी की मां अपनी मृत्यु के दिन तक कलपती रही कि लेकिन मेरा बॉबी तो इस्राइल था न!

एक सैम्युएल डेविड है, अंडर सेक्रेट्री, बेटी की सहेलियों को गुदगुदी करने वाला’, अपने बाप डीविड रूबेन से बहुत भिन्न नहीं, जो बेटी समान विधवा लक्ष्मीसे रातों को दरवाजा खुलवाता था, यहूदी गौरव-बोध  से भरा लेकिन इस देश में अत्यंत उपेक्षित अल्पसंख्यक होने की निरुपायता से लाचार। उनकी दो ही तमन्नाएं हैं कि वंश को आगे बढ़ाने वाला एक बेटा पैदा हो परिवार में, और लौट सकें उस पवित्र धरती पर जिसे उनके पुरखों ने दो हजार साल पहले छोड़ा था।

वह अपनी बेटियों के गैर यहूदी से प्रेम करने का सख्त विरोधी है, अपने पिता डेविड रूबेन की तरह जिसने अपनी बेटी लिली को दूध में जहर पिला दिया था क्योंकि कि वह किसी गैर यहूदी से गर्भवती हो गई थी। सैम्युएल डेविड ने अपनी बेटी रेचल के गर्भवती हो जाने पर उसे किसी वहशी यहूदी से ब्याह दिया जो प्रसव में मर गई, एक मंदबुद्धि राफू को जन्म देकर।

इस राफू को मां की तरह पालती रेचल की बड़ी बहन, सीमा उर्फ मिस सेम्युएल, नायिका है उपन्यास की जो 63 साल की उम्र में वृद्धाश्रम में पड़े-पड़े चार पीढ़ियों में फैली इस यहूदी गाथा को पल-पल जीती है, परदादा के समय से अपने वर्तमान तक झूले की पेंगों की तरह डोलती हुई। कहानी सीमा की यादों में किसी मोंताज़ की तरह चलती है, अतीत और वर्तमान के बीच बराबर अवाजाही करती हुई, कभी एक प्रलाप की तरह और कभी दिमाग में गूंजते संवादों के रूप में।

वृद्धाश्रम की रहवासियों के बहाने इसमें स्त्रियों के जीवन, दमन, उपेक्षा और परिवार-समर की बहुरेखीय कथाएं हैं, उनके प्रेम की और सपनों के कत्ल होने की, रिश्तों के मायाजाल और उसके विध्वंस की, स्त्री के विश्वासों के उजालों और धोखों के अंधेरों की।

‘‘स्त्रियां अपनी भरी-पूरी गृहस्थी, कुशलता, बुद्धिमत्ता और समर्पण भूल जाने का ढोंग करती, स्वजनों द्वारा छोड़े जाने के अपमान को मन ही मन जायज ठहराती रमा आज्जी, सुधा आक्का, या आशालता घोरपड़े हो जाती हैं। कुछ मिसेज चिटनीस या मैडम मैरी बनी रहती हैं जो न बीते दिनों को भूल पाती हैं न अपने बिखरे मान-सम्मान को,  और जो टूट जाती हैं वे विमला शिंदे बन जाती हैं।’’

 ये कहानियां दहलाती हैं और बताती हैं कि यहूदी हो या इसाई, पारसी या मुसलमान, इस पुरुष-शासित समाज में स्त्री तरह-तरह से छली जाती है, प्रताड़ित होती रहती है। वृद्धाश्रम में रमा आज्जी साथी रहवासियों से कहती है-

‘‘मनुष्य योनि छोड़ दो, संसार की कौन-सी मादा याद रखती है ताउम्र अपने जायों को और झूरती है? फिर अपनों ने याद रखा या भुला दिया, इसे लेकर ऐसा बावेला क्यों? संताप किसलिए?’’ लेकिन वहां सब जानती हैं कि उनके कमरे में ‘‘छूटे हुओं की जतन से सम्भाली गई तस्वीरें हैंयह मेरा बड़ा बेटा है और उसका यह बेटा विकास.... विसू तो मेरे बिना खाना तक नहीं खाता और... निपट खालीपन...।’’

यह रमा आज्जी एक रात इस दुनिया-ए-फानी से कूच कर जाती हैं। उनकी कोठरी में जो अमीना आती है, वह कभी स्कूल में सीमा की चुलबुली और जीवन से लबालब दोस्त रही थी लेकिन अब डरावनी चुप्पी से इस कदर घिरी थी कि पहचानी नहीं गई। जब पहचानी गई तो अपना अकथ दुख साझा करती है –

‘‘पता है सीमा, सो नहीं पाती हूं। अब्बा, इकबाल, दोनों जवान बेटे, बहू, बेटी गजल और पोती सना... किसी को नहीं बचा पाई। बस, अपने खुद को बचते हुए देखती रही...। तुम या मैं, क्या कभी लगे हैं यहूदी या मुसलमान?.... पॉलिटिकल साइंस की लेक्चरर मैं कहां बता पाई उनको कि इस देश में कोई भी संस्कृति साबुत नहीं बची है, कि कोई भी चेहरा व धर्म खालिस नहीं रह गया है। पांच हजार साल पुरानी हमारी धरोहर साझी है। हम मात्र प्रवाह के बुलबुले हैं, धारा नहीं... कहां बता पाई सीमा? पांच हजार साल पुरानी इस धारा को उन्होंने पचास मिनट में मटियामेट कर दिया। सना, गजल और आयशा के नग्न, उघड़े जिस्म व मर्दों के कटे टुकड़े ही पड़े थे वहां..... गुजराती साड़ी पहने हुए थी मैं.. और गुजराती जुबान बोलती यह अमीना गुजराती बेन छे...एमने जवादोकहते उस भीड़ के सिरों से बाहर कर दी गई थी... बचे रह जाने के लिए....।’’

अमीना की यह पीड़ा उसकी अकेली नहीं है। यह नफरत की वह बारूद है जिसके धमाकों में समय-समय पर परिवार के परिवार उड़ा दिए गए। नफरत की यह राजनैतिक फसल इन दिनों और भी बोई-काटी जा रही है। शीला जी के उपन्यास में सन 2002 के गुजरात की काली छायाएं बार-बार उमड़-घुमड़ आती हैं। वह मार-काट अमीना की डरावनी चुप्पी और अनुत्तरित सवाल बनकर यहूदी गाथा में चीखती है-

‘‘अमीना की चुप्पी, उसका एकालाप, उसका अजीब असंतुलन मुझे आशंकित करता है। वह बाहर की खुली हवा में आने से डरती है। वह चाहती है कि सब कुछ भ्रम बना रहे किंतु ऐसा होता नहीं.... वली दकनी की कब्र का ढांचा ढाई सौ वर्ष तक भ्रम में रहता है। गंगा जमनी संस्कृति....। औलिया होने का फक्र...  और फिर भ्रम रात के घटाटोप अंधेरे में डामर की सड़क बन चलने लगता है। पतझड़ की पीली, मुरझाई पत्तियां पक्की सड़क पर खड़खड़ बजती उड़ती हैं...।’’

इस यहूदी परिवार के भ्रम भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी तरह-तरह से टूटते रहे और सीमा की छाती में अमीना की चुप्पी की तरह गड़ते रहे। सैम्युएल डेविड को अमदाबाद में किसी सस्ती लेकिन स्थाई जगह की तलाश थी लेकिन किसी मुसलमान को किराए पर मकान देने से भी इनकार करने वाले लोग एक यहूदी को अपने बीच बसने देते? बड़ा-सा सवाल मुंह बाए खड़ा हो जाता- ‘‘जैन, ब्राह्मण, बनियों, पटेलों, इसाइयों, शाहों के बीच वे ठौर पाएंगे?’’ हालांकि यहूदी के माने भी लोगों को ठीक से पता नहीं होता।

फिर एक दिन शहर में दंगा भड़क गया। परिवार का मंझला बेटा, इतिहास का अध्येता और नई दृष्टि वाला मेखाएल सैम्युएल उर्फ बॉबी अपने दोस्त जावेद कुरैशी के साथ घर लौट रहा होता है कि दंगाई घेर लेते हैं। ‘‘हिंदू छुं भाई.. विजय नाम छे मारू, विजय पटेल...” कहकर जावेद बच निकलता है लेकिन बॉबी की पैण्ट उतरवा ली जाती है। बॉबी फिर कभी घर नहीं लौटता। टूटते भ्रम के साथ मां जीवन भर यही पूछते रह गई कि मेरा बॉबी तो इस्राइल था न! आठवें दिन बच्चे की सुन्नत करने वाले लेकिन बाइबिल को धर्मग्रंथ मानने वाले यहूदी किस-किस से और कहां-कहां चीखते फिरें कि हम यहूदी है, इस्राइल हैं, बिल्कुल अलग पहचान है हमारी। और, यहां सुनने वाला कौन है?  

सैम्युएल डेविड के दादा रुबेन ने एक दिन अपने बेटे डेविड रुबेन को समझाया था- ‘’..और डेविड, तुम सुनो, धर्म का मतलब कट्टरता बिल्कुल नहीं होता बेटे। बड़े होने पर इस बात का फर्क समझोगे या हो सकता है कि न समझते इसमें बह जाओगे.... मेरी यह बात याद रखना कि इन दोनों के बीच पड़ा पर्दा बहुत झीना है, इसलिए इस फर्क को देखने के लिए भीतरी सजगता और धैर्य की जरूरत रहती है।’’  यहां किसके पास बचा रहने दिया गया है धैर्य? भीतरी सजगता?              

किंवदंती है कि करीब दो हाजार वर्ष पूर्व सुदूर इसराइल से चलकर कुछ यहूदियों का एक जहाज कोंकण के तट पर पहुंचकर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। जो बच रहे थे चंद स्त्री-पुरूष वे भारतीय यहूदियों के पुरखे बने। इस विशाल देश की आबादी में अपनी जगह बनाते और अपनी विशिष्ट पहचान बचाए रखने का जतन करते ये यहूदी अपना इतिहास, संघर्ष और भटकन कभी नहीं भूल पाते। वापसी का स्वप्न पीढ़ी दर पीढ़ी उनकी आंखों में दिपदिपाता रहता है-

“बॉम्बे आर्मी के रिटायर सूबेदार ईसाजी एलोजी ने अपने कुछ ख्वाब पोते डेविड रूबेन की आंखों में आंज दिए थे- बेटे डेविड, इच्छा ही रही कि अपनी मातृभूमि में हमारी देह दफन हो.. कि उस सुदूर देश कभी लौट सकें... लेकिन तुम और तुम्हारी पीढ़ी जरूर लौटना ताकि दो हजार सालों के विस्थापन का दंश कुछ कम हो। हम इस्राइल हैं... बेने इस्राइल यानी कि जैकब जिसे ईश्वर ने ‘इस्राइल’ नाम से नवाजा था... उसकी संतानें पता नहीं कितने छिन्न रूपों के साथ... कितनी ही तकलीफों और अवहेलनाओं के साथ इस धरती के भिन्न-भिन्न कोनों में दफन हैं।”

सपना आंखों में ही अंजा रह जाता है। बाद की पीढ़ियों को यह सच भी स्वीकार करना पड़ता है कि अब वहां लौटना शायद कभी नहीं होने वाला है।

ईसाजी एलोजी के वंशजों के यहीं मर-खप जाने और अन्य समाजों में विलीन होकर खोते जाने की  मार्मिक कहानी कहता यह उपन्यास मौजूदा भारतीय समाज के बहुस्तरीय संकटों को भी उतनी ही संवदेनशीलता से मुख्य कथानक में समेटता-उकेरता चलता है। विभिन्न समाजों से आने वाले इसके महिला पात्र अपनी-अपनी कहानियों से गम्भीर स्त्री विमर्श रचते हैं।  

यहूदी पहचान बचाए रखने और कभी अपने देश लौट जाने के लिए व्याकुल रहे ईसा जी की नई पीढ़ी का यह सोचना साझी धरोहर वाली हिंदुस्तानियत की जबर्दस्त पैरवी करना है-

“प्रकृति की पूरी छह ऋतुओं वाला, हरा-भरा, स्नेह का स्पर्श करवाता, विविध त्योहारों, उत्सवों, बोलियों, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, साधु-संतों, बाबाओं, गुरुओं को सिमटाता, काली विद्या से अध्यात्म को छूता, अनेक संस्कृतियों के रस में दूबा यही देश उनकी मायभूमि (मातृभूमि) है। सदियों से साथ-साथ चलते इसी देश से उनकी पहचान जुड़ी है।”

लेकिन यह इतनी सरल रेखीय बात नहीं है। होता यह है कि सीमा यानी मिस सैम्युएल तो एक दिन पहुंच गई वृद्धाश्रम और गीतांजलि सोसायटी के उनके घर में शुक्रवार शाम को की जाने वाली शब्बाथ की प्रार्थना के लिए मुकर्रर दीपों की जगह संतोषी माता की तस्वीर रख दी गई। घर के दरवाजे पर जय माता दीके लाल अक्षर उकेर दिए गए। तब कीर्तन के लिए आई महिलाओं ने खुशी जताई-

“हवे लागे छे के आ आपणा हिंदुओंनु घर छे। आ मिया भाई कोण जाणे क्यांथी आवी गया हतां (अब यह हिंदुओं का घर लग रहा है। पता नहीं ये मियां भाई कैसे आ गए थे)”

यह गोधरा, गुजरात के नरसंहार के कुछ ही पहले की कहानी थी। अब गुजरात का प्रयोग पूरे देश में दोहराने का अभियान चल रहा है। शीला रोहेकर ने इस यहूदी कथा में हमारे आज की गम्भीर चुनौतियों को बड़ी सम्वेदनशीलता के साथ गूंथा है।       

यहूदी गाथासाफ चेतावनी है कि वास्तव में, जिसके खत्म हो जाने का खतरा है वह यहूदी पहचान नहीं, बल्कि हिंदुस्तानियत है, इस देश की सदियों पुरानी पहचान, जिस पर आज सबसे बड़ा खतरा मंडरा रहा है।

अच्छी खबर यह है कि इस उपन्यास का अंग्रेजी अनुवाद शीघ्र ही स्पीकिंग टाइगर पब्लिकेशंस से प्रकाशित होने वाला है। तब शायद इसकी व्यापक चर्चा हो।  शीला जी बताती हैं कि ज्ञानरंजन जी ने अवश्य पहलमें इसकी विस्तार से समीक्षा करवाई थी।  

samalochan.com   dated Aug 16, 2021