Sunday, June 19, 2022

अपने समाज, इतिहास और राजनीति के बारे में जो पढ़ना मना है-2

Indian Express की खोजी रिपोर्ट के अनुसार NCERT ने कक्षा छह से बारह तक की इतिहास, समाजशास्त्र और राजनीति शास्त्र की पाठ्यपुस्तकों से भारतीय समाज में दलितों से होने वाले भेदभाव, अल्पसंख्यकों पर दबाव और मध्ययुगीन इतिहास के कई महत्त्वपूर्ण प्रसंग हटा दिए हैं। ऐसा पाठ्यक्रम को युक्तिसंगत बनाने और बच्चों पर पढ़ाई का दबाव कम करने के नाम पर किया जा रहा है।

समाज की वर्णाश्रम व्यवस्था में 'अस्पर्श्य' वर्णों के साथ भेदभाव के प्रसंग कई जगह पाठों से हटा दिए गए हैं। वर्ण के अनुसार सर्वोच्चता और वर्णाश्रम व्यवस्था का नकार भी अब छात्रों को पढ़ने को नहीं मिलेगा। छात्र यह भी नहीं पढ़ेंगे कि इस हिंदू वर्ण व्यवस्था में शूद्रों और महिलाओं को वेद पढ़ने से वंचित रखा जाता था। कक्षा छह की राजनीतिशास्त्र की पुस्तक के अध्याय 'विविधता और भेदभाव' को काफी काट दिया गया है। निकाला गया एक हिस्सा बताता था कि "जातियों के नियम ऐसे बनाए गए थे कि 'अस्पर्श्य' माने जाने वाले लोग अपने लिए नियत काम के अलावा दूसरा काम नहीं कर सकते थे। जैसे कि कुछ जातियों को कचरा उठाने, मरे जानवरों को ढोने जैसे काम करने होते थे। उन्हें उच्च जातियों के घरों में प्रवेश की अनुमति नहीं थी और वे गांव के कुएं से पानी भी नहीं ले सकते थे, न ही मंदिरों में प्रवेश पा सकते थे। उनके बच्चे स्कूल में दूसरी जातियों के बच्चों के साथ नहीं बैठ सकते थे।" इस पाठ से यह अंश भी निकाल दिया गया है कि "जाति आधारित भेदभाव दलितों को कई काम करने से ही नहीं रोकता था बल्कि उन्हें सामान्य सम्मान और गरिमा से भी वंचित करता था, जो कि दूसरी जातियों के लोगों को सहज ही प्राप्त थे।"

मानव मल बटोरने और उठाने जैसे घृणित काम के लिए विवश दलितों के बारे में हर्ष मंदर का लेख, जो पाठ्यक्रम का हिस्सा था, हटा दिया गया है। दलित महिलाओं की और भी दुर्दशा होती रही है,  यह कटु सत्य छात्रों को बताने वाला सतीश देशपाण्डे का लेख पाठ्यक्रम का हिस्सा अब नहीं होगा। 

इसी तरह अल्पसंख्यकों से होने वाले भेदभाव और उत्पीड़न की जानकारी देने वाले पाठों में भी बहुत कतरब्योंत की गई है। हिंदू साम्प्रदायिक ताकतों की नव-सृजित शक्ति और उसके कारण अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के सरकारी कदमों का पूरा प्रभाव न होने के प्रसंग भी अब पाठ्यक्रम में नहीं होंगे। बहुसंख्यक आबादी का राजनीतिक शक्ति पाने और उसके प्रभाव में अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक एवं धार्मिक संस्थानों पर दबाव पड़ने की बात भी निकाल दी गई है। 

मध्यकालीन इतिहास: वर्तमान सत्तारूढ़ दल की यह बहु-प्रचारित धारणा कि 'वामपंथी' झुकाव के कारण  हमलावरों और मुगल शासकों की तारीफें करके इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा गया है, जबकि देसी हिंदू राजाओं के योगदान की अनदेखी की गई है, अब स्कूली पाठ्यक्रम में अपनी रंगत दिखा रही है। मुस्लिम शासकों से सम्बंधित पाठों में बहुत काट-छांट और बदलाव किए जा रहे हैं। दिल्ली सल्तनत यानी मामलुक, तुगलक, खलजी और लोदी वंश के शासन काल के इतिहास में सबसे अधिक बदलाव किए जा रहे हैं। अभी हाल में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा भी था कि देश का गलत इतिहास लिखा गया है और पांंड्य, चोल, मौर्य, गुप्त और अहोम शासकों की उपेक्षा करके मुगलों को महत्व दिया गया है। अब हमें इसे नए सिरे से लिखने से कोई नहीं रोक सकता। पाठ्यपुस्तकों में हो रहे बदलाव में यही किया जा रहा है। अब अकबर के बारे में छात्र यह नहीं पढ़ सकेंगे कि वह किस तरह सभी धर्मों काआदर करता था और उसने कई संस्कृत ग्रंथों का फारसी में अनुवाद कराया था। 

अन्य बदलाव: लोकतंत्र और भारतीय लोकतंत्र के निर्माण के बारे में चार अध्याय इस तर्क के आधार पर हटा दिए गए हैं कि 'ऐसे विषय अन्य दर्ज़ों में पढ़ाए जा चुके हैं। उदाहरण के लिए, कक्षा छह की राजनीति शास्त्र की किताब से 'लोकतांत्रिक सरकार के मुख्य अवयव' नामक पाठ निकाल दिया गया है। मिडिल स्तर की पढ़ाई में यह पहला विस्तृत अध्याय था जिसमें बच्चों को लोकतांत्रिक सरकार की कार्यप्रणाली को प्रभावित करने वाले महत्त्वपूर्ण तत्व,  जैसे जन-भागीदारी, विवाद समाधान, समानता और न्याय, पढ़ाए जाते थे।  इसी तर्क के आधार पर कक्षा आठ की इतिहास पुस्तक 'हमारा इतिहास-3' से  'स्वतंत्रता के पश्चात भारत' अध्याय निकाल दिया गया है जिसमें बताया गया था कि कैसे हमारा संविधान बनाया गया और भाषा के आधार पर राज्यों का गठन कैसे हुआ, आदि।

कक्षा दस की राजनीति शास्त्र की पाठ्य पुस्तक से 'लोकतंत्र और विविधता' एवं 'लोकतंत्र की चुनौतियां' शीर्षक अध्याय निकाल दिए गए हैं। 'लोकतंत्र और विविधता' पाठ में छात्रों को दुनिया भर में जाति, धर्म, नस्ल के आधार पर सामाजिक विभाजन और असमानता के बारे में बताया जाता था वहीं दूसरे पाठ में लोकतांत्रिक राजनीति में सुधार की आवश्यकताओं पर चर्चा थी। पहले इन्हें CBSE के पाठ्यक्रम से हटाया गया था, अब NCERT की पुस्तकों से ही निकाल दिया गया है।

जवाहरलाल नेहरू : भाखड़ा और नांंगल बांध के बारे में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के विचार  कक्षा बारह के पाठ 'भारत मेंं सामाजिक बदलाव और विकास' से निकाल दिए गए हैं। नेहरू ने कहा था- "हमारे इंजीनियर बताते हैं कि सम्भवत: दुनिया मेंं इस बांध के बराबर ऊंचा कोई बांध नहीं है। यह काम बहुत कठिनाइयों और चुनौतियां वाला है। जब मैं बांध के आस-पास चक्कर लगा रहा था तो सोच रहा था कि आजकल सबसे बड़े मंदिर, मस्जिद और गुरद्वारा वे हैं जहां लोग मानव जाति की भलाई के लिए काम करते हैं। इस भाखड़ा-नांंगल बांध से बड़ी जगह और कौन होगी जहां हजारों-लाखों लोगों ने काम किया, अपना खून-पसीना बहाया और जान तक दी।" सम्राट अशोक के बारे में नेहरू का यह उद्धरण भी कक्षा छह के अशोक-सबंधी पाठ से निकाल दिया गया है -"अशोक के उपदेश आज भी उस भाषा में बोलते हैं जिसे हम समझ सकते हैं और अब भी उनसे सीख सकते हैं।"   

कक्षा छह से बारह तक के राष्ट्रीय पाठ्यक्रम में हो रहे या हो चुके बदलाओं की जो जानकारी अखबार में  विस्तार से प्रकाशित की जा रही है, उसका यहां संक्षिप्त ब्योरा दिया गया है। विस्तृत जानकारी के लिए Indian Express के 18 जून से 21 जून तक के अंक देखें। 

अपने समाज, इतिहास और राजनीति के बारे में जो पढ़ना मना है- 1

'इंडियन एक्सप्रेस' दायित्वपूर्ण पत्रकारिता की भूमिका निभाता रहा है। गहन शोध के बाद दूरगामी प्रभाव वाली खबरें लाने का काम जिस दौर में  हमारे पत्रकार भूलते जा रहे हैंं, उस समय 'इण्डियन एक्सप्रेस' कई खोजपूर्ण खबरें देता है। रविवार, 18 जून के अंक से उसने यह खोजपूर्ण शृंखला शुरू की है कि 2014 में केंद्र में सत्तारूढ़ होने के बाद से एनडीए सरकार ने स्कूली पाठ्यक्रम में  क्या-क्या और कैसे बदलाव किए हैं। अब तक तीन बार स्कूलों का पाठ्यक्रम बदला या संशोधित किया गया है। ताजा बदलाव 2019 में किए गए। कक्षा छह से बारह तक पढ़ाई जाने वाली इतिहास, समाजशास्त्र और अन्य कुछ विषयों की किताबों के पाठों में जगह-जगह कुछ विषय हटा दिए गए हैं। ये परिवर्तन NCERT ने 'पाठ्यक्रम को युक्तिसंगत बनाने के लिए' किए हैं। बिल्कुल ताज़ा बदलाव 'कोविड काल के बाद छात्रों को पढ़ाई पूरी करने के भारी दबाव से राहत देने के लिए' भी किए जा रहे हैं। 

'छात्रों पर पढ़ाई' का बोझ कम करने के नाम पर जो संशोधन किए गए हैं उनमें पिछले कुछ दशकों की महत्त्वपूर्ण सामाजिक-राजनैतिक घटनाओं/संदर्भों को हटा दिया गया है। छात्रों को अब 2002 में गुजरात के दंगों, 1975-77 के क्रूर आपातकाल, नर्मदा बचाओ आंदोलन, चिपको आंदोलन, दलित पैंथर्स और भारतीय किसान यूनियन के आंदोलन समेत विभिन्न सामाजिक प्रतिरोधी आंदोलनों, आदि अनेक महत्वपूर्ण मुद्दों, उनके कारणों, समाज पर उनके पड़े प्रभाव और लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए उनसे निकली सीखों के बारे में नहीं पढ़ाया जाएगा। यह भी नहीं पढ़ाया जाएगा कि भारतीय समाज में दलितों और अल्पसंख्यकों की स्थिति कैसी है। पुस्तकों के विभिन्न पाठों से ऐसे प्रसंग हटा दिए गए हैं जिनमें यह बताया गया था कि दलितों और स्त्रियों को वेद पढ़ने की मनाही रही है, कि बहुसंख्यक समाज द्वारा राजनैतिक ताकत हासिल करके शासकीय तंत्र के इस्तेमाल से अल्पसंख्यकों के धार्मिक और सांस्कृतिक संस्थानों को दबाए जाने का खतरा बना रहता है, आदि-आदि। 

'इण्डियन एक्सप्रेस' में प्रकाशित हो रही इस खोजपूर्ण समाचार शृंखला के महत्त्वपूर्ण हिस्सों का सार मैं यहां प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूं ताकि वह हिंदी के व्यापक पाठक समुदाय तक भी पहुंच सके और वे इस पर अपनी राय बना सकें। इस जिम्मेदार अखबार ने कक्षा छह से बारह तक की इतिहास, समाजशास्त्र और राजनीति विज्ञान की 21 पाठ्य पुस्तकों में किए जा चुके या किए जा रहे परिवर्तनों का अध्ययन किया है।

कक्षा बारह की पाठ्य पुस्तक 'स्वतंत्रता के पश्चात भारत में राजनीति' में 2002 के गुजरात दंगों के घटनाक्रम के बारे में बताया गया था कि किस तरह कारसेवकों से भरी ट्रेन में आग लगाई गई, जिसके बाद मुसलमानों के खिलाफ व्यापक हिंसा हुई और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने हिंसा रोकने में विफलता के लिए कैसे तत्कालीन गुजरात सरकार की आलोचना की। हटाए गए अंश में यह भी लिखा था कि  "गुजरात का उदाहरण हमें बताता है कि राजनीतिक उद्देश्य के लिए धार्मिक भावनाओं के उपयोग के क्या खतरे हैं। यह लोकतांत्रिक राजनीति के लिए भी खतरा प्रस्तुत करता है।" तत्कालीन प्रधानमंंत्री अटल बिहारी बाजपेई ने  गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को 'राजधर्म निभाने' की जो सलाह दी थी, वह प्रसंग भी पाठ से हटा दिया गया है। अटल जी ने मार्च 2002 में अहमदाबाद की प्रेस कांफ्रेंस में कहा था - "मुख्यमंत्री को मेरी एक ही सलाह है कि वे राजधर्म निभाएं। एक शासक को धर्म, जाति, नस्ल के आधार पर अपनी जनता में भेदभाव नहीं करना चाहिए।" उस प्रेस कांफ्रेंस में नरेंद्र मोदी अटल जी की बगल में बैठे हुए थे। 

कक्षा बारह की समाज शास्त्र की पुस्तक में 'साम्प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्र-राज्य' नामक पाठ से भी गुजरात दंगों का संदर्भ हटा दिया गया है। हटाए गए अंश में बताया गया था कि "साम्प्रदायिकता एक समुदाय के लोगों को अपना गौरव और ग़ृह क्षेत्र बचाने के नाम पर दूसरे समुदाय के लोगों से बलात्कार, हत्या और लूट के लिए उकसाती है।... किसी दूसरी जगह या भूतकाल में अपने धर्म के लोगों की हत्या या अपमान का बदला लेने के नाम पर इसका औचित्य ठहराया जाता है। कोई भी धर्म किसी न किसी प्रकार की साम्प्रदायिक हिंसा से पूरी तरह मुक्त नहीं है। हर धर्म ने कम या अधिक ऐसी हिंसा झेली है, यद्यपि तुलनात्मक रूप से अल्पसंख्यल्क समुदायों पर अत्याचार अधिक होता है। यहां तक कि साम्प्रदायिक हिंसा के लिए सरकारों को भी दोषी ठहराया जा सकता है। कोई भी पार्टी या सत्तारूढ़ दल इस मामले में दोषमुक्त नहीं है। बल्कि, हाल के वर्षों में साम्प्रदायिक हिंसा की दो बड़ी घटनाएं दो बड़े राजनैतिक दलों की सरकारों के अधीन हुईं। 1984 के सिख विरोधी दंगे कांग्रेस सरकार में हुए। 2002 में मुसलमानों के विरुद्ध अभूतपूर्व हिंसा भाजपा सरकार के दौरान हुई।" 

आपातकाल-प्रसंग

कक्षा बारह की राजनीति शास्त्र की किताब 'स्वतंत्रता के पश्चात भारत में राजनीति'  के अध्याय छह में पांच पेज कम कर दिए गए हैं। 'लोकतांंत्रिक व्यवस्था के संकट' नामक अध्याय में देश में 1975 में आपातकाल लगाने के विवादित निर्णय और उस दौरान इंदिरा गांधी की तत्कालीन सरकार द्वारा सत्ता के दुरुपयोग और भ्रष्टाचारों का उल्लेख हटा दिया गया है। इसमें राजनीतिक नेताओं की गिरफ्तारियों, प्रेस पर अंकुश, हिरासत में अत्याचार और मौतें, जबरन नसबंदी और बड़े पौमाने पर गरीब बस्तियों को उजाड़ने का जिक्र था। हटाए गए हिस्सों में जनता पार्टी की सरकार द्वारा इंदिरा सरकार की अनियमितताओं की जांच के लिए मई 1977 में गठित शाह आयोग का उल्लेख भी था।

कक्षा बारह की समाज शास्त्र की पाठ्यपुस्तक 'भारतीय समाज' के अध्याय छह (सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियां) से भी क्रूर आपातकाल के संदर्भ हटा दिए गए हैं। इसमें पढ़ाया जाता था कि "जून 1975 से  जनवरी 1977 तक भारतीय जनता को अधिनायकवादी शासन के संक्षिप्त दौर से गुजरना पड़ा। संसद स्थगित कर दी गई थी और सरकार ने सीधे नए कानून बनाए। नागरिक अधिकार स्थगित कर दिए गए और राजनीतिक रूप से सक्रिय लोगों को गिरफ्तार करके बिना मुकदमा  चलाए जेलों में बंद कर दिया गया। प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई और सरकारी अधिकारियों को बिना उचित प्रक्रिया अपनाए बर्खास्त किया जा सकता था। सरकारी कर्मचारियों पर दबाव था कि वे सरकार के कार्यक्रम लागू करें और तत्काल परिणाम दें। सबसे कुख्यात था पुरुषों की जबरन नसबंदी जिसमें ऑपरेशन की गड़बड़ियों के कारण बड़ी संख्या में मौतें भी हुईं। जब 1977 की शुरुआत में चुनाव कराए गए तो जनता ने एकजुट होकर कांग्रेस सरकार के खिलाफ मतदान किया।" यह जरूरी इतिहास और सबक अब विद्यार्थियों को नहीं पढ़ाया जाएगा। 

कक्षा आठ की पाठ्यपुस्तक 'भारत में सामाजिक परिवर्तन  और विकास' के अध्याय आठ (सामाजिक आंदोलन) से भी आपातकाल में ट्रेड यूनियन गतिविधियों पर लगाए गए प्रतिबंधों का जिक्र हटा दिया गया है। 

प्रतिरोध और सामाजिक आंदोलन

कक्षा छह से बारह तक की राजनीति शास्त्र की पाठ्यपुस्तकों से वे तीन अध्याय हटा दिए गए हैं जो समसामयिक भारत में जन प्रतिरोधों से उपजे सामाजिक आंदोलनों का विवरण देते थे।  जैसे, कक्षा बारह की पुस्तक 'स्वतंत्रता के बाद भारत में राजनीति' से 'लोकप्रिय आंदोलनों का जन्म' नामक अध्याय हटा दिया गया है। इस अध्याय में 1970 के दशक में उत्तराखण्ड में हुए 'चिपको आंदोलन', महाराष्ट्र में 1970 के दशक के दलित पैंथर आंदोलन, अस्सी के दशक के किसान आंदोलन, विशेष रूप से भारतीय किसान यूनियन की अगुवाई में हुए आंदोलन की जानकारी छात्रों को दी गई थी। इसी अध्याय में शामिल रहे आंध्र प्रदेश के नशा विरोधी आंदोलन, विश्व प्रसिद्ध नर्मदा बचाओ आंदोलन, जिसने नर्मदा और उसकी सहायक नदियों पर सरदार सरोवर बांध के निर्माण का जबर्दस्त विरोध किया, और सूचना के अधिकार के लिए हुए आंदोलन के बारे में भी अब विद्यार्थियों को नहीं पढ़ाया जाएगा। 

NCERT ने कक्षा सात की राजनीति शास्त्र की पाठ्यपुस्तक से 'समानता के लिए संघर्ष' नामक अध्याय हटा दिया है जिसमें बताया गया था कि किस तरह तावा मत्स्य संघ ने  मध्य प्रदेश के सतपुड़ा जंगल के विस्थापित वनवासियों  के अधिकारों के लिए आंदोलन किया। कक्षा दस की राजनीति शास्त्र की किताब 'लोकतांत्रिक राजनीति-2' से उन लोकप्रिय आंदोलनोंं का संदर्भ हटा दिया गया है जो दबाव समूहों और आंदोलनों के माध्यम से राजनीति को प्रभावित करने के बारे में थे। इस अध्याय में नेपाल में लोकतंत्र के लिए आंदोलन, बोलीविया में पानी के निजीकरण के विरुद्ध हुए आंंदोलन केअलावा नर्मदा बचाओ आंदोलन, कर्नाटक के अहिंसक 'किट्टिको-हच्चिको' आंदोलन, कांशीराम के  'बामसेफ' अभियान और जन-आंदोलनों के राष्ट्रीय मोर्चे , जिसकी संस्थापक के रूप में मेधा पाटकर का नाम दिया गया था, के बारे में जानकारी थी। यह सब अब छात्र नहीं पढ़ेंगे। 

कक्षा 11 और 12 की समाज शास्त्र की पाठ्यपुस्तक में सामाजिक आंंदोलनोंं के बारे में जो एकमात्र अध्याय था, उसे काफी छांट दिया गया है। उसमें छात्रों के लिए एक अभ्यास था कि "हाल ही में तीन कृषि कानूनों के विरुद्ध हुए किसानों के विरोध प्रदर्शन की चर्चा कीजिए", इसे भी हटा दिया गया है। (जारी)

 -नवीन जोशी, 19 जून, 2022 

Wednesday, June 15, 2022

एक शताब्दी बाद बी डी उनियाल और ‘पर्वतीय’ की जरूरी याद

सन् 1977 में पत्रकारिता का पेशा अपना लेने के बाद नैनीताल जाने पर माल रोड के तनिक ऊपर दैनिक पर्वतीयका बोर्ड स्वाभाविक ही ध्यान खींचता था। वहीं कहीं पत्रकार हॉस्टलभी लिखा दिखाई देता था। तभी विष्णुदत्त उनियाल जी के बारे में सुना। दो-एक बार उनसे संक्षिप्त मुलाकातें भी हुई थीं। यह जानना सुखद था कि 1953 से वे पर्वतीयको साप्ताहिक रूप से निकाल रहे थे और 1972 से उसे दैनिक बना दिया था। 1964 में वे सीमांचल नाम से दैनिक समाचार पत्र कुछ समय के लिए निकाल चुके थे, जिसे उत्तराखण्ड का पहला दैनिक होने का श्रेय मिला। इससे भी अच्छी और सराहनीय बात यह थी कि वे किसी सांस्थानिक पृष्ठभूमि, पूंजी और बड़ी टीम के बिना यह सब कर रहे थे। और, सबसे बड़ी बात यह थी और जिसने हमें उनियाल जी के प्रति प्रशंसा भाव से भर दिया था, कि वे अपने दम पर अखबार निकालते हुए शासन-प्रशासन से टकराते रहते थे, स्वतंत्र चेता पत्रकार-सम्पादक थे, निडरता से अपनी राय रखते थे, कभी समझौता नहीं करते थे और पर्वतीय क्षेत्रों यानी उत्तराखण्ड की उपेक्षा और पिछड़ेपन पर बराबर आक्रामक कलम चलाते थे।

सन 1988 में उनके निधन के साथ स्वतंत्र एवं साहसिक पत्रकारिता का यह एकल अभियान थम गया। हम भी धीरे-धीरे उनियाल जी और पर्वतीयको भूलते गए। साल-डेढ़ साल पहले प्रेरणा अंशुने उत्तराखण्ड की पत्रकारिता पर लिखने को कहा तो उनकी याद आई थी। उनियाल जी की जन्म शताब्दी (1921) पर प्रकाशित दो वृहद ग्रंथ पिछले दिनों मिले तो सुखद आश्चर्य की तरह पर्वतीयऔर उनियाल जी की पूरी संघर्ष गाथा सामने खुल पड़ी। उनियाल जी की पुत्री सीमा उनियाल मिश्रा की देखरेख में बी  डी उनियाल (पर्वतीय) चैरिटेबल ट्रस्टने यह बड़ा काम किया है। इसके माध्यम से उनियाल जी और  पर्वतीयकी ही नहीं, बल्कि उत्तराखण्ड की संघर्षशील पत्रकारिता का भी चेहरा हमारे सामने आता है। एक ग्रंथपर्वतीय- स्मृतियों के प्रांगण से- एक संकलननाम से है जिसमें उनियाल जी के बारे में स्मृति लेख, ‘पर्वतीयमें प्रकाशित चुनींदा लेख-सम्पादकीय, आदि के अलावा उनियाल जी की संक्षिप्त आत्मकथा और उनके साथ काम कर चुके लोगों की उस दौर की यादें संकलित हैं।

प्रो शेखर पाठक का लेख हलवाहे ब्राह्मण से प्रखर सम्पादक तक की कामयाब यात्राअनूठी शैली में उनियाल जी के जीवन, संघर्ष, वैचारिक यात्रा और उनकी पत्रकारिता पर चौतरफा रोशनी डालता है। गंगा प्रसाद विमल का भी एक छोटा-सा संस्मरण है। इस ग्रंथ का बड़ा हिस्सा पर्वतीयके आलेखों-सम्पादकीयों के चयन का है जो विभिन्न मुद्दों पर उनियाल जी की लेखनी और दृष्टि को स्पष्ट करते हैं। उत्तर प्रदेश के अंतर्गत पर्वतीय जिलों की उपेक्षा पर उनकी खूब कलम चली। इसे लेकर सरकार की कटु आलोचना वे करते रहे और विविध रास्ते भी सुझाते रहे थे। यह उनकी दूरदृष्टि ही थी कि 1960 के दशक में पर्वतीयने विकास विशेषांकऔर लेखमालाओं के रूप में उत्तराखण्ड राज्य विशेषांक प्रकाशित किए थे। पुस्तक के अंत में उनियाल जी की कलम से निकली उनकी अपनी कहानी है, जो वास्तव में उनकी पुस्तक सर्ववादीकी भूमिका है। वे अपने को सर्ववादीकहते थे। अपने बारे में उन्होंने खुलकर लिखा है और अपने प्रेम प्रसंगों को भी खोला है। पर्वतीयपरिवार का सदस्य रहे लोगों की यादें भी यहां दर्ज की गई हैं, जिनमें देवेंद्र मेवाड़ी, बटरोही, विनोद तिवारी, कैलाश शाह, देवेंद्र सनवाल समेत और भी कई नाम शामिल हैं। प्रेस के कुछ सहयोगियों की स्मृतियां भी शामिल की गई हैं। पर्वतीयके कई लेखकों ने भी अपनी यादें लिखी हैं।           

इस क्रम में दूसरा ग्रंथ वास्तव में डॉ नीरज शाह का पीएच-डी का शोध ग्रंथ तनिक सम्पादित रूप में है। पर्वतीयकी पत्रकारीय सोच, उनियाल जी समेत उसके अन्य सम्पादकों के योगदान और उत्तराखण्ड की स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता इसके केंद्र में हैं। इससे गुजरना पर्वतीयऔर उनियाल जी को और विस्तार से जानना-समझना है। उत्तराखण्ड की उपेक्षा और पृथक राज्य की आवश्यकता पर तो वे निरंतर लिखते ही थे, शराब विरोधी आंदोलन, टिहरी बांध विरोधी आंदोलन और चिपको आंदोलन जैसे ज्वलंत मुद्दों पर भी उनकी कलम चली। वे जनता के पक्ष में खड़े रहते थे। सरकार की कटु आलोचना के कारण एक समय उनको सरकारी विज्ञापन देना बंद कर दिया गया था। साहित्यिक-सांस्कृतिक मुद्दों के लिए भी पर्वतीय में काफी जगह होती थी। उस समय के स्थापित और उदीयमान साहित्यकारों की कहानियां, कविताएं, वगैरह भी पर्वतीयमें बराबर प्रकाशित होते थे।                    

यहां उनियाल जी की जीवन यात्रा पर एक नज़र डालना सर्वथा उचित होगा। नई पीढ़ी को, विशेष रूप से पत्रकारों को उनके बारे में अवश्य जानना चाहिए, हालांकि ऐसी प्रवृत्ति अब कम दिखाई देती है। बारह साल के थे जब गांव में उन पर हल चलाने की जिम्मेदारी आ गई थी क्योंकि पिता का देहांत हो गया था। आम बड़ा पहाड़ी परिवार था और गरीबी स्वाभाविक ही उसके हिस्से में थी। बालक विष्णु स्कूल से लौटकर हल चलाता। एक दिन हल का फाल घनी दूब वाली गीली जमीन में गहरा धंस गया जिसे विष्णु बाहर खींच न सका। वह बैलों को संटी मारता रहा कि वे ताकत लगाकर आगे बढ़ें लेकिन वे भी हल को खींच न सके। थक-हारकर बालक रोता रहा और रोते-रोते खेत पर सो गया। बाद में मां उसका पसंदीदा दूध-भात लेकर आई तो उसने समझाया-पुचकारा कि रोता क्यों है, मैं तो हूं न! हल का फाल जमीन में धंसने से भी बड़ी दुश्वारियां बाद में उसके जीवन में आईं लेकिन वह फिर न रोया।

30 मई 1921 को गढ़वाल की उदयापुर पट्टी के आवई गांव में भोलादत्त और भागीरथी के घर जन्मे विष्णु ने मिडिल पहली श्रेणी में पास किया। आगे की पढ़ाई के लिए देहरादून भेजने लायक हैसियत मां की थी नहीं। वह परिवार का घराट चलाता, खेती-बाड़ी में मां-बहनों का हाथ बंटाता, एक घोड़ा था, उसे चराता और नदी में मछली मारता। घराट में अक्सर आने वाली एक कन्या से मुहब्बत भी इस बीच अंकुरा रही थी। इश्क में मुब्तिला वह एक दिन मछली मारता रह गया और घोड़े को बाघ खा गया। मां नाराज हुई। वह उसे जिम्मेदार बनाने के लिए उसकी शादी कर देना चाहती थी लेकिन विष्णु बचता रहा। अगले दिन खिन्न विष्णु किसी काम से लैंस डाउन आया और वहीं से आगे निकलता गया। जेब के मात्र पांच रुपयों में कुछ टिकट, कुछ बिना टिकट यात्रा करके भूखा पेट लिए वह लाहौर पहुंचा।

लाहौर में एक घर में चौका-बर्तन और झाड़ू-पोछे का काम किया। पढ़ने की ललक मन में बनी हुई थी। सो, खाली समय में कॉपी-किताब साथ रहती। घर के वृद्ध दम्पति ने विष्णु में पढ़ने की ललक देखी तो उसकी मदद की। वहीं उसने अच्छे नम्बरों से मैट्रिक पास किया। फिर एक डॉक्टर के यहां नौकरी करते हुए पंजाब यूनिवर्सिटी से प्रभाकरएवं इण्टर किया और टाइप-शॉर्टहैण्ड भी सीखी। उसके बाद एक बेकरी में मैनेजर बना। यह सब विष्णु की मेहनत, लगन और ईमानदारी का परिणाम था। जब लाहौर में उसके पैर जमने लगे थे और अच्छे कुछ रिश्ते भी बन गए थे, तभी वह लाहौर छोड़कर देहरादून पहुंच गया। कुछ दिन ऑर्डिनेंस फैक्ट्री और फिर मिलिट्री एकाउंट्स में नौकरी की। दूसरा विश्व युद्ध समाप्त हो रहा था। मिलिट्री सेवाओं में छंटनी का शिकार विष्णु भी हो गया लेकिन एक शुभचिंतक के माध्यम से अल्मोड़ा के वोकेशनल ट्रेनिंग सेण्टर में स्टेनोग्राफी इंस्ट्रक्टर हो गया। यहां उसे पता चला कि उस पर दुर्दम्य टीबी रोग का बड़ा हमला हो चुका है। उसका अगला ठिकाना भवाली सेनेटोरियम बना।

जीवन के संघर्षों और अल्मोड़ा में वाम विचार के प्रभाव ने युवक विष्णु को जुझारू बना दिया था। भवाली सेनेटोरियम में वह क्षय रोगियों के लिए बेहतर सुविधाओं के वास्ते आवाज उठाने लगा। इस कारण उसे वहां से बाहर कर दिया गया। इस अन्याय से क्षुब्ध और आक्रोशित विष्णु सीधा लखनऊ पहुंचा और विधान सभा के सामने धरने  पर बैठ गया। यह 1950-51 की बात है। तब ऐसे प्रतिरोधों की तत्काल सुनवाई होती थी। स्वास्थ्य मंत्री चंद्रभानु गुप्त के निर्देश पर उसे दोबारा भवाली सेनेटोरियम में भर्ती किया गया। सेनेटोरियम में रहते हुए उसने स्वास्थ्य लाभ तो किया ही, ‘साहित्यरत्न और बीए की परीक्षाएं भी पास कीं। वहीं उसने कहानी एवं लेख लिखे और पत्रकारिता करने का संकल्प भी ठाना। सेनेटोरियम से बाहर आकर कुछ समय अल्मोड़ा में रामजे इण्टर कॉलेज में नौकरी की और वहीं आगे से नौकरी न करने की कसम खाई। पत्रकारिता का जुनून बम्बई ले गया, जहां कुछ बात न बनी। वहीं अपने दो परिचितों से क्रमश: चार सौ और ढाई सौ यानी कुल साढ़े छह सौ रुपए उधार लेकर अलमोड़ा वापसी की। इस तरह 1953 में साप्ताहिक पर्वतीयकी शुरुआत हुई।

यह एक लम्बे संघर्ष और जुनूनी पत्रकारिता की शुरुआत थी। जीवन की ठोकरों और ठोस यथार्थ ने भीतर ताकत, भरोसा और जूझने की क्षमता भर दी थी। इसलिए पर्वतीयकी धार पैनी रही और वह चल निकला। स्वयं उनियाल जी के शब्दों में – “जहां अल्मोड़ा का शक्तिऔर हलद्वानी का जाग्रत जनताकांग्रेसी पिट्ठू अखबार माने जाते थे और कुमाऊं राजपूतएक जाति विशेष का अखबार जाना जाता था, वहां पर्वतीयआम जनता का निष्पक्ष और निडर अखबार कहा जाता था।” इस निष्पक्षता और निडरता ने पाठकों का स्नेह कमाया, राजनैतिक शुभचिंतक बने तो शत्रु भी बनने ही थे। बहरहाल, यात्रा जारी रही। कुछ समय बाद छपाई के लिए अपनी प्रेस ही नहीं जुटी, 1955 से नैनीताल में एक ठिकाना भी मिल गया। यह ठिकाना पत्रकारों, विधायकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं का अड्डा भी बनता गया। कालांतर में यहीं पत्रकार हॉस्टलखोला गया। पर्वतीयक्रमश: स्थापित होता गया। चालीस पार होने पर शादी की लेकिन उनियाल जी की बेचैनी जारी रही जिसने पर्वतीयके नए-नए संस्करण खुलवाए और अपने लिए संकट आमंत्रित किए। 1964 में सीमांचलदैनिक अखबार शुरू किया जिसे एक साल तक चलाया भी। फिर 1972 में पर्वतीयको ही दैनिक रूप में शुरू किया। साप्ताहिक भी स्वतंत्र रूप में निकलता रहा।

अपनी लम्बी यात्रा में पर्वतीयने जुझारू पत्रकारिता की, अनेक पत्रकारों-लेखकों को मंच दिया और तराशा भी, शासन-प्रशासन से जनता के मुद्दों पर मोर्चे लिए, उत्तराखण्ड की बेहतरी के सपने देखे और उस तरफ चलने-चलाने की पहल की। 1985 तक पर्वतीयपहाड़ के ज्वलंत मुद्दों और जनता के आंदोलनों को उठाता रहा। गंगा प्रसाद विमल ने उनकी पत्रकारिता को याद करते हुए लिखा है कि “... पर्वतीय अखबार का ढांचा तो पर्वत से ही आता है लेकिन... पर्वतों का देश के प्रति क्या रुख होना चाहिए और देश का पर्वतों के प्रति का रुख होना चाहिए, और जब भी वह लिखते थे, अपनी आवाज पूरे देश तक पहुंचाना चाहते थे, क्षेत्र तक सीमित नहीं रखना चाहते थे।”

टीबी जैसे तब के कठिन रोग को पराजित करके उन्होंने 38 वर्ष खूब सक्रिय जीवन जिया और उसमें से  33 साल पत्रकारिता को दिए। फिर रोग अपनी कीमत वसूलने लगा। दिल का रोग भी लगा तो डॉक्टरों ने नैनीताल जैसी ठंडी जगह में नहीं रहने की सलाह दी। नैनीताल का पत्रकार हॉस्टलबेचकर वे कोटद्वार चले गए। उस पैसे से वहां पहाड़ के गरीब विद्यार्थियों की सहायतार्थ हिमालय अध्ययन कुंजकी स्थापना की। पर्वतीय चैरिटेबल ट्रस्टवे पहले ही बना चुके थे। 1988 में कोटद्वार में ही उनका निधन हो गया।

शताब्दी वर्ष में अपने पिता को ही नहीं, बल्कि एक समर्पित और जुझारू पत्रकार-सम्पादक को सम्मान से याद करने के लिए सीमा उनियाल मिश्रा ने जिस मेहनत, लगन तथा व्यापक दृष्टि के साथ इन ग्रंथों का खूबसूरत प्रकाशन और जिम्मेदार सम्पादन किया है, वह प्रशंसनीय है। शेखर पाठक के लेख से पता चलता है कि सीमा जी ने देवेंद्र मेवाड़ी के सहयोग से द जर्नी ऑफ बिष्णुदत्त उनियालनामक फिल्म भी बनाई है और जैसा कि पाठक जी ने लिखा है “इससे कम में उन्हें शताब्दी पर सलाम किया भी नहीं जा सकता था।”  

हम अपने पुरखों के योगदान को बराबर याद करके ही आगे की राह, रोशनी और ताकत पाते हैं। 30 मई उनियाल जी का जन्म दिन होता है और हिंदी पत्रकारिता दिवस भी। अपने इस पत्रकार-पुरखे को बड़ा-सा सलाम।  

- नवीन जोशी, 30 मई, 2022                                                

Saturday, June 04, 2022

‘बड़ा मंगल’ हमारी खूबसूरत विरासत का हिस्सा है

कोविड महामारी के दो साल के डरावने दौर के बाद इस जेठ में मंगलवारों को भण्डारों की धूम मची है। मंगलवार कम पड़ जा रहे तो शनिवार को भण्डारे हो रहे हैं। लखनऊ की अनोखी इस पुरानी परम्परा में जेठ के मंगलवार बड़े मंगलकहलाते हैं। पहले जेठ का पहला मंगल ही बड़ा मंगल कहलाता था। किंवदंती है कि इसी दिन अलीगंज में हनुमान जी ने एक साधु को दर्शन दिए थे। बचपन में हम बच्चों-बड़ों को लाल लंगोटी पहने नंगे बदन घर से अलीगंज तक का रास्ता लेटकर नापते जाते देखते थे।  अब उनकी संख्या बहुत कम हो गई है। जगह-जगह लगने वाले प्याऊ का स्थान भण्डारों ने ले लिया है। पूड़ी-सब्जी ही नहीं, कुल्फी, आइसक्रीम तक का प्रसाद बंटने लगा है। तरक्की हर क्षेत्र में दिखनी चाहिए। श्रद्धा के मानक भी बदलते हैं।  

लखनऊ के हनुमान जी की बड़ी शान है। अलीगंज में दो पुराने हनुमान मंदिर हैं। एक मंदिर लाला जाटमल ने 1783 में बनवाया, ऐसा जिक्र मिलता है। बड़े मंगल की प्रथा इसी मंदिर से शुरू हुई। अवध के नवाबों की भी हनुमान जी में आस्था थी। अलीगंज का दूसरा हनुमान मंदिर नवाब सआदत अली खां की मां जनाब आलिया ने बनवाया। इस मंदिर के शिखर पर आज भी दूज का चांद टंगा देखा जा सकता है जो नवाबी सल्तनत की निशानी है। यह मंदिर अवध की गंगा-जमुनी संस्कृति का सुंदर उदाहरण है। नवाब वाजिद अली शाह बड़े मंगल पर हर साल भण्डारा आयोजित करते थे। यह हनुमान जी के प्रति श्रद्धा का ही प्रतीक था कि नवाबी काल में यहां बंदरों को पकड़ने या मारने पर रोक थी। बेगमें उनके लिए बुर्जियों पर चने रखवाया करती थीं।

बड़े मंगल की रवायत, हनुमान मंदिर के शिखर पर दूज का चांद, रमजान में हिंदुओं का भी रोजे रखना और भोर में सहरी के लिए पुकार लगाना हमारी खूबसूरत व कीमती साझा विरासत है। इसी गंगा-जमुनी विरासत का हिस्सा पड़ाइन की मस्जिदभी है। आज के माहौल में यह याद दिलाना जरूरी है कि अवध के सूबेदार सफदरजंग की बेगम खदीज़ा खानम की मुंहबोली बहन रानी जयकुंवर पड़ायनकहलाती थीं। उस रानी का बाग पड़ायन का बागहुआ और उसमें बेगम की बनवाई मस्जिद पड़ायनके नाम से जानी गई। एक नवाब हुए गाज़ीउद्दीन हैदर जिन्होंने गंगा का पानी लखनऊ की गोमती तक लाने के वास्ते नहर बनवाई (जो हैदर कैनाल कही गई लेकिन अब गंदा नालाहै।)

बड़े मंगल की धूम-धाम और हनुमान जी के जयकारों के बीच इस खूबसूरत विरासत की याद आज इसलिए कर लेनी चाहिए कि मंदिर-मस्जिद विवाद पैदा करके कैसा तो माहौल बना दिया गया है। सारी बहसें, चिंताएं, योजनाएं और विकास कार्य मंदिर-मस्जिद केंद्रित हो गए हैं। इतिहास को दुरस्त करने की जो हवा चली है उसमें कानपुर से आई खबर चौंकाने से अधिक चिंता जगाती है। कानपुर की मेयर ने अचानक मुस्लिम इलाकोंमें गली-गली घूमकर मंदिरों पर कब्जे करके बिरयानी की दुकानेंखोले जाने का रहस्योद्घाटनकरना शुरू कर दिया है। यह सिलसिला कहां तक जाएगा?

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने दो दिन पहले ही कहा है कि हर मस्जिद में शिवलिंग ढूंढना गलत है। मगर बहुसंख्यक आबादी का मानस ही ऐसा बना दिया गया है कि गली-गली विवाद खोजे-खोदे जा रहे हैं। इतिहास को पलटा नहीं जा सकता। जो हमलावर की तरह आए उन्होंने उसी तरह व्यवहार किया। उसे याद रखना चाहिए ताकि फिर कोई हमलावर न आने पाए। इतिहास में मंदिर तोड़े गए तो बनाए भी गए। सवाल है कि आप क्या याद रखना चाहते हो और क्यों? सदियों में जो मिश्रित जीवन-पद्धति बनी उसकी खूबी देखिए। बड़े मंगलकी परम्परा क्या इसी का हिस्सा नहीं हैं?      

(सिटी तमाशा, नभाटा, 04 जून, 2022)