Tuesday, August 14, 2012

देवियों और देवताओं में ठन गई है--4


     लेकिन क्‍या यह सब अलकनंदा ने किया था?
          अलकनंदा - पहाड़ों की देवी जैसी बेटी, सबकी लाड़ली, भला ऐसा विनाश कैसे मचा सकती है!
          तो फिर?
          इस सवाल के जवाब में पुष्‍कर को सामने खुली फाइलों में एक और किस्सा मिलता है। हां, किस्सा ही तो!
          चमोली-बदरीनाथ मोटर मार्ग पर, जिसके बीच बेलाकूची पड़ता था, करीब 22 किमी. दूर बाईं तरफ साढ़े छह हजार फुट की ऊंचाई पर था गौना ताल - एक मील चौड़ी, पांच मील लंबी और तीन सौ फुट गहरी झील।
          ताल के एक छोर पर था गौना गांव और दूसरे छोर पर दुरमी। आस-पास ग्यारह और गांवों की बसासत। सन्‍साठ के आस-पास, हरिद्वार-बदरीनाथ मोटरमार्ग बना तो ताल सड़क से 22 किमी. दूर रह गया। पर्यटक बढऩे लगे। अंग्रेजों के जमाने से जो नावें चलती थीं उनके बीच मोटर बोट की संख्या बढ़ती गई। इतनी ऊंचाई पर पहाड़ों की गोद में बसा विशाल गौना ताल बहुत खूबसूरत लगता था। पर्यटक खिंचे आते थे मगर उसके लिए पहाड़ों की कष्टदायी पैदल यात्रा करनी पड़ती थी। सो, बदरीनाथ मार्ग से ताल तक सड़क बनने लगी ताकि सिर्फ साहसी ही नहीं, बल्कि आरामतलब पर्यटक भी वहां पहुंच सकें।
          भयानक विस्‍फोटों से चट्टानों को तोड़-तोड़ कर जल्दी-जल्दी गौना ताल तक सड़क बनाने की कोशिश के बावजूद जुलाई 1970 में सड़क काम अधूरा था। 20 जुलाई 1970 के बाद इस सड़क को पूरा करने की जरूरत ही नही रह गई। सड़क पर्यटकों के लिए बन रही थी, ताल के आस-पास रहने  वाले निरीह-गरीब पहाड़ियों के लिए नहीं।
          -‘महाराज, तीन दिन से लगातार पानी बरस रहा था।दुरमी गांव के बुजुर्ग प्रधान रामेश्वर, जो गौना ताल को अपने गांव के नाम पर दुरमी ताल कहते थे, यह किस्सा कई बार कई-कई लोगों को सुना चुके हैं- अब बरसात में पानी तो बरसने ही वाला हुआ मगर उस दिन की हवा ही कुछ ऐसी-वैसी थी। अब आप जानो कि ताल को भरने वाली एक तो बड़ी बिरही नदी हुई। तीन और हुई छोटी नदियां। तो महाराज, उस बरस छोटी नदियां भी बड़ी नदियों से ज्‍यादा विकराल हो गई ठहरीं। जब तीन दिन से पानी नहीं थमा तो हमने देखा महाराज कि चारों नदियों में पानी के साथ बड़े-बड़े पेड़ भी बहकर आ रहे ठहरे...। हां, ये बड़े-बड़े पेड़...।प्रधान जी को पेड़ की ऊंचाई बताने के लिए पूरा हाथ उठाने के बावजूद खड़े होकर ऊपर की ओर देखना पड़ा-ये जंगी पेड़।
          -‘तो महाराज, ठीक-ठीक याद है मेरे को। जुलाई की बीस तारीख थी। शाम के बखत हमने क्‍या  देखा कि दुरमी ताल खूब ही भर गया ठहरा। बड़े-बड़े पेड़ उसमें तिनकों की तरह नाचने वाले हुए। ऊपर से नदियां और भी पेड़, पत्‍थर और मिट्टी लाकर ताल में डालते जाने वाली हुईं। बहुत ही भर गया वो ताल पेड़, पत्‍थर, मिट्टी और पानी से...। फटने को हो गया ताल का पेट। डर गए ठहरे हम महाराज, बहुत डर गए। खबर भी करते तो किसको, कैसे! कोई हुआ ही नहीं आस-पास।
          -‘रक्षा करना हो बदरीनाथ... कहते-पुकारते हम लोग रों में जा छुपे। और क्‍या करते महाराज। शाम हो गई ठहरी। थोड़ा-थोड़ा अंधेरा भी। खाना-पानी भूलकर जै बदरी विशाल-जै बदरी विशाल करते रहे...। मगर क्‍या  होना था हमारी पुकार से...। पता नहीं महाराज क्‍या टैम हुआ होगा। ड़ी कहां हुई हमारे पास। दिन में तो ाम से टैम का पता चल जाने वाला हुआ...। तो महाराज, क्‍या  हुआ कि...अब कैसे बताऊं...।रामेश्वर जी थोड़ी देर को चुप हो जाते हैं जैसे उस ड़ी के आतंक को दबा कर ठीक-ठीक वर्णन कर सकें।
          -‘तो गजब की गडग़ड़ाहट हुई महाराज, बिल्कुल एकाएक। हमने कभी नहीं सुनी ऐसी गडग़ड़ाहट। सुननी भी न पड़े कभी! जैसे तीनों लोक ही फट पड़े हों उस रात...बाबा हो...। कांपने लगे हम। बच्‍चों का टिटाट पड़ गया। जानवर रोने लगे। पंछी भी विलाप करने लगे...। और फिर एकाएक सब शांत पड़ गया महाराज, बिल्कुल शांत।
          -‘सबेरे देखा हमने। अनहोनी का तो डर था ही मगर ऐसा नहीं सोचा था। क्‍या देखा महाराज, कि हमारा दुरमी ताल साफ, बिल्कुल ही गायब! सिर्फ टूटे-उखड़े पेड़ों और चट्ïटानों का रौखड़ ठहरा वहां...। कौन कहे कि ताल होगा कभी यहां...। ताल की जगह पर पत्‍थरों के बीच से चुपचाप बिरही बह रही ठहरी, बस!प्रधान जी इतना बताकर शांत हो जाते हैं। एकदम चुप।
          तो 20 जुलाई की रात बेलाकूची का नामोनिशान मिटा देने वाली अलकनंदा की वह विनाश लीला वास्तव में गौना ताल के टूटने से मची थी! गौना ताल को भरने के बाद उसका अतिरिक्त पानी लेकर बिरही नदी अठारह किमी. आगे जाकर अलकनंदा में मिल जाती थी। तीन सौ फुट गहरे गौना ताल का पानी एकाएक फूट कर अलकनंदा को इतना विकराल बना गया कि 300 किमी नीचे हरिद्वार तक भारी तबाही मची थी। पुरानी रिपोर्ट बता रही हैं पुष्‍कर को कि कुल बारह किमी मोटर सड़क, तीस बसें, ट्रक व कारें, इक्कीस छोटे-बड़े पुल और अलकनंदा के किनारे बसे गांव उस प्रलय की भेंट चढ़ गए।
          और मनुष्य?
          -‘अरे छोड़ो महाराज, मनखियों के मरने-जीने का भी कोई हिसाब होता है!दुरमी के प्रधान रामेश्वर जी से पूछ पाता पुष्‍कर तो उनका यही जवाब होता।


         
गौना ताल का भी क्‍या दोष!
          वह बोल पाता तो कहता- भई, मैं तो जैसे बना था, वैसे ही टूट पड़ा। विनाश के इस भयानक खेल में मैं कहीं नहीं। बिरही नदी से पूछ कर देखो।
          हां, बिरही को सब कुछ पता है। वह आदमी की भाषा में बोल नहीं पाती तो क्‍या । कुंआरी पर्वत से निकलने वाली इस नदी ने देखे हैं ने जंगलों से समृद्ध ाटियों में निश्चिंत बहने के सुख भरे दिन। उसने वे दिन भी देखे हैं जब जंगल धीरे-धीरे गायब होने शुरू हुए तो उसके अपने अस्तित्व पर ही जैसे खतरा मंडराने लगा। फिर एक दिन वह अपने ही नाम की विशाल ाटी में कैद हो गई। उसका रूप बदल गया और फिर सतहत्‍तर वर्ष बाद एक शाम अचानक वह पुराने रूप में वापस आ गई! नहीं, पुराने रूप में नहीं। पहले जैसे कहां कुछ लौटता है!
          पुष्‍कर पढ़ रहा है बिरही नदी की बिरह-कथा। सन् 1893 का जमाना था। अंग्रेजों का राज। अंग्रेजों की व्यापारिक नजर तराई के जंगलों को चाटते हुए सुदूर व दुर्गम जंगलों तक पहुंच चुकी थी। कहां-कहां नहीं पहुंचा अंग्रेज!
          तो, साढ़े छह हजार फुट की ऊंचाई पर तीन तरफ ऊंचे पहाड़ों से घिरी इस विशाल ाटी को लोग बिरही ाटी के नाम से ही जानते रहे हैं। कुंआरी पर्वत से निकल कर, बीच-बीच में कुछ और गाड़-गधेरों (नदी-नालों) का पानी समेटते हुए बिरही नदी इस लम्बी-चौड़ी ाटी में पहुंचती है और बीचों बीच बहते हुए एक संकरे मुंह से नीचे चली जाती है। सन् 1893 में एक दिन अगल-बगल के किसी पहाड़ से एक विशाल चट्टान गिरी और ाटी के मुंह पर जा अटकी, जहां से बिरही का पानी नीचे बहता था। बिरही का बहना थम गया!
          बिरही और उसकी सहायक नदियां ऊपर से पानी लाती रहीं और ाटी को भरती रहीं। धीरे-धीरे ाटी के बीच एक झील उभरने लगी। कहते हैं कि पूरे एक साल तक नदियां इस तालाब को भरती रहीं। जितनी लम्बी-चौड़ी ाटी थी उतना बड़ा ताल बनता गया।
          सन् 1893 की जगह 1894 आ गया था। तब होशियार अंग्रेज ने जाने कैसे नापा पर उसने कागज पर दर्ज किया कि बिरही ाटी में एक मील चौड़ी, पांच मील लंबी और चार सौ फुट गहरी झील बन गई है। झील के ऊपरी तरफ गौना गांव था। नीचे की तरफ दुरमी। गौना वालों ने कहा गौना ताल। दुरमी गांव वालों ने कहा यह दुरमी ताल है।
          मगर अंग्रेज ने कहा कि ताल का नाम जो भी हो, खतरा बहुत बड़ा है। झील कभी भी फट सकती है। समझदार अंग्रेज ने ताल के पास के एक गांव में तार र बनवा दिया ताकि झील फटे तो नीचे खबर दी जाए। ताल पर नजर रखी जाने लगी।
          एक दिन तार र के बटन जल्दी-जल्दी टप-टप-टप करने लगे। बिरही और अलकनंदा ाटी में खतरे की ंटी बजती चली गई। बिरही ने उस दिन बंधन मुक्त होने के लिए पूरा जोर लगाया। ताल टूट पड़ा मगर बिरही पूरी तरह आजाद नहीं हो पाई। पानी हरहरा कर नीचे बहा मगर सिर्फ एक सौ फुट। चार सौ फुट गहरी झील तीन सौ फुट की रह गई। ताल बना रहा और बिरही को भी रास्ता मिल गया।
          अंग्रेज ने फिर बुद्धि लगाई। उसने कहा अब तो यह पक्का ताल बन गया है। उसने उसमें नौका विहार का आनन्द लिया और उत्साहित होकर कहा-ओह, गौना लेक, वण्डरफुल!
          सचमुच, वह ताल वण्डरफुल था और अंग्रेजों के जाने के बाद भी बना रहा- 20 जुलाई 1970 की देर शाम तक।
          अंग्रेज बहुत अक्लमंद थे मगर देसी अंग्रेजों के सामने बेवकूफ साबित हुए। वे यह कतई नहीं जान पाए कि 1947 के बाद उनके देसी उत्‍तराधिकारी बिरही व अलकनंदा के जलागम क्षेत्रों का वह हाल कर देंगे कि तीन सौ फुट गहरा वंडरफुलगौना ताल पहाड़ों से गिरते पेड़, पत्‍थर और मलबे से पूरा पट कर एक रोज हरहरा कर टूट पड़ेगा और तब हरिद्वार तक मचने वाली भयानक विनाश लीला की चेतावनी देने के लिए न तार र होगा न घण्टी बजाने का इंतजाम!

         

          देवियों और देवताओं में ठन गई थी!
          पहाड़ों में हर नदी देवी है और हर पर्वत शिखर देवता। यहां हर नदी पवित्र है। हर पहाड़ी चोटी आशिष देती है।
          पहाड़ी चोटियां भरभरा कर ढहने लगीं थीं। हर बरसात में भूस्खलन होने लगे थे। पेड़, पत्‍थर और मिट्टी लिए पहाड़ टूट कर नदियों में गिरने लगे। नदियां उफन-उफन कर पहाड़ की छाती पर हमला कर उन्‍हें तोडऩे-बहाने लगी। नदियों के किनारे बने शिव मंदिर भी बाढ़ में बहने लगे।
          लोगों ने कहा- देवियों और देवताओं में संग्राम छिड़ गया है। आक्रण और प्रत्याक्रमण हो रहे हैं। लोग डर गए। पता नहीं क्‍या  होने वाला है। देवभूमि देवियों-देवताओं का अखाड़ा बन गई है!
          लेकिन धीरे-धीरे इस अगोचर युद्ध में बहुत कुछ गोचर होने लगा। कुछ लोग दिखाई देने लगे जो कम से कम देवी-देवताओं में नहीं थे। वे जीते-जागते मनुष्य थे जो गैंग बनाकर ने जंगलों में डेरा डाले थे। जो आरे-कुल्हाड़े लेकर पेड़ों का सफाया कर रहे थे। पहाड़ के सीधे-सादे लोग वर्षों से देख रहे थे कि उनके जंगल धीरे-धीरे साफ हो रहे हैं। पेड़ों को ढहा कर कुन्‍दों में बदला जा रहा है। कुन्दे चीरकर स्लीपर बनाए जा रहे हैं और ये बड़े-बड़े स्लीपर कभी तेज बहाव वाली नदियों में बहाकर, कभी गरारी के सहारे ूमते मजबूत तारों में लटका कर और फिर ट्रकों में लादकर कहीं दूर ले जाए जा रहे थे। धीरे-धीरे लोगों ने देखा खल्वाट पहाड़ों पर मिट्टी कटती-बहती जा रही है। पत्‍थर और चट्टानें मिट्टी से आजाद होकर लुढ़क रहे हैं।  मिट्टी और पत्‍थरों को अपनी जगह बांधे रखने वाली पेड़ों की जड़ें मुर्दा हो गई हैं। नदियां और ताल ढहते पहाड़ों के मलबे से पटते जा रहे हैं और चढ़ता पानी साल-दर-साल तबाही मचा रहा है।
          लोगों की आंखें खुलने लगीं। नहीं, यह देवियों-देवताओं का युद्ध नहीं है। यह आदमी की करामात है। आदमी की हवश ने वर्षों से पहाड़ों को बेतरह लूटा है और अब पहाड़ों और नदियों ने अपने इस शोषण के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया है।
          गौना ताल टूटा, बेलाकूची बही और हरिद्वार तक विनाश लीला मची। होश आने पर लोगों ने देखा कुंवारी पर्वत, हेलंग, बिरही, पाताल गंगा और गरुड़ गंगा के जंगल सफाचट थे। थराली में पहाड़ टूटा, तबाही मची। लोगों ने पाया कि थराली का हरा-भरा जंगल लापता है। गेंवला व मातली में भारी भूस्खलन हुआ। तबाह लागों ने लाचारी में ऊपर निगाहें डालीं। पहाड़ नंगे थे। पिलखी, नंद गांव, अगस्त्य मुनि व पोखरी में जंगल सफाचट होने के बाद मूसलाधार बारिश विनाश लेकर आई। रांईआगर में मलबे से दबे रों के लोगों ने गौर किया कि धारमन्या का उनका लहलहाता बांज वन लुट चुका था और यह त्रासद सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता था।
          दिमाग के कपाट खुल रहे थे। लोग जो देख रहे थे और जो भोग रहे थे अब उसका रिश्ता भी जोडऩे लगे थे।
          1977 में तवाघाट में भारी तबाही हुई। 1978 में भागीरथी ने उत्‍तरकाशी जिले में प्रलय ढाया। 1979 में तवाघाट के कमजोर पहाड़ों ने पहले से तबाह गांवों पर फिर कहर बरपाया। 1980 में ज्ञानसू में भारी भूस्खलन से बहुत विनाश हुआ। ये बड़ी-बड़ी दुर्घटनाएं थीं और हर बरसात में दोहराई जा रही थीं, जिनमें अकूत नुकसान और बेहिसाब मौतें हुईं। लगभग साल भर होते रहने वाले वाले छोटे भूस्खलनों और जान-माल के नुकसान की कोई गिनती नहीं थी।
          दिमाग के कपाट पूरी तरह खुल चुके थे। देवियों-देवताओं के युद्ध की बात अब कोई नहीं करता था। लोग अच्‍छी तरह जान गए थे कि पहाड़ों से जंगलों का सफाया किया जा रहा है और चट्टानों में सुरंग बनाकर भयानक विस्‍फोट किए जा रहे हैं। कमजोर पहाड़ वनों के अवैज्ञानिक, अंधाधुंध व्यापारिक दोहन और विस्‍फोटकों के धमाकों को अब और सह पाने की स्थिति में नहीं रह गए हैं। सदियों से पहाड़ों पर प्रकृति के साथ तादात्म्य बनाकर रहते आए पहाडिय़ों के अस्तित्व पर ही खतरा मँडराने लगा था। हिमालय की यह पूरी पट्टी कई बार चेतावनी दे चुकने के बाद अब पूरी तरह विद्रोह पर उतारू हो गई थी।

देवियों और देवताओं में ठन गई है--3


बेलाकूची, 1970
          पुरानी फाइलों के पन्‍ने पलट रहा है पुष्‍कर और समाचारके लिए लिख रहा है हिमालय की बगावत की कहानी।
          तो, हिमालय अचानक बगावत पर नहीं उतरा। वह काफी पहले से मानव जाति को चेतावनी दे-दे कर आगाह करता रहा है! मनुष्य की अतियों के खिलाफ बेलाकूची शायद बीसवीं सदी में हिमालय की पहली बड़ी बगावत थी। चेतावनी वह पहले भी देता रहा था मगर 1970 की बरसात में उसने ऐलानिया तौर पर बता दिया था कि उसके साथ अनियंत्रित छेड़-छाड़ बन्‍द नहीं हुई तो वह विनाश का कितना बड़ा कारण बन सकती है।
          लेकिन मनुष्य ने उसकी चेतावनी के शिला लेख नहीं पढ़े। क्‍या अब भी वह विध्‍वंस की निशानियों पर दर्ज प्रकृति की चेतावनी देख व समझ पा रहा है?
          बहुत वेदना के साथ लिख रहा है पुष्‍कर और कागजों में गंगनाणी के साथ-साथ बेलाकूची की त्रासदी भी जिंदा हो रही है।


         
- ‘एइ, देखो ना कितनी सुन्‍दर कण्डी है, ये वाली!
          - ‘अरे, छोड़ो डियर। तुम पहले कचौड़ी खाकर देखो। वाह! एक और देना भाई।
          माला ने राजेन्द्र की ओर प्यार से देखा। वह बिल्कुल बच्‍चों की तरह चटखारे लेकर गर्मागर्म कचौड़ी का स्वाद ले रहा था। जबसे बेलाकूची में बस रुकी है, राजेन्द्र का उत्साह देखते ही बनता है। बदरीनाथ से सुबह चले थे तो मौसम सुहावना था। बारिश कभी तेज हो जाती कभी हलकी। रुई जैसे बादलों के झुण्ड के झुण्ड पहाड़ी ाटियों से उठते और सड़क पर आकर बस की खिड़कियों से भीतर चले आते। कभी दो पहाडिय़ों के बीच सफेद बादलों का पुल तन जाता और कभी गहरी ाटी में बादल ऐसे ठहर जाते गोया फाहे जैसे सफेद पानी का तालाब सो रहा हो। राजेन्द्र कैमरा क्लिक करते न थकता। बार बार कहता- 'काश, कुछ देर को यहां बस रुक जाती!'
          दोपहर में जोशीमठ से नीचे बेलाकूची कस्बे में बस रुकी तो फिर रुकी ही रही। पहले से कई बसें, ट्रक व कारें लाइन से खड़े थे। पता चला आगे रास्ता बन्‍द है। बाकी यात्रियों में बेचैनी छा गई मगर राजेन्‍द्र के मन की मुराद पूरी हो गई। वह माला का हाथ पकड़ कर नीचे उतर गया। तब से कई ण्टे गुजर गए थे। कभी वह चाय के साथ पकौड़ी खाता और फिर फोटो खींचने चला जाता। लौटकर कचौड़ी की दुकान में खड़ा हो जाता। माला की नजर बार-बार कण्डियों की दुकानों पर अटक जाती। चार कण्डियां वह खरीद चुकी थी और पांचवीं पर फिर मन आ गया था।  हाथ की बुनी विविध आकार वाली रिंगाल की खूबसूरत टोकरियां!
          - ‘ये वाली भी ले लूं? एई, देखो ना।उसने फिर पुकारा।
          राजेन्‍द्र कचौड़ी वाले दुकानदार के चेहरे की गाढ़ी झुर्रियों पर कैमरा फोकस कर रहा था। उसने हलके से इशारा भर कर दिया।
          बीस जुलाई 1970 की उस शाम बेलाकूची के बाजार में खूब चहल-पहल थी। पर्यटकों-तीर्थयात्रियों का सीजन जोरों पर था। छोटा-सा बाजार अपनी पूरी रौनक में था। बदरीनाथ से सुबह के गेटसे पहुंची गाडिय़ां आज यहीं फंसी हैं। दोपहर के गेट का काफिला पहुंचने वाला था। चूल्हों पर नए सिरे से चाय की केतलियां और कढ़ाहियां चढ़ाई जा रही थीं। सीजन की कमाई पर दुकानदारों की नजर रहती है और आज अच्‍छी बिक्री हो रही थी।
 बेलाकूची बाजार से थोड़ा-सा नीचे की तरफ एक विशाल चट्टान ऊपर से गिरकर बीच सड़क में अड़ गई थी। उसे खिसका पाना मजदूरों की पूरी गैंग के बस की भी बात न थी। इसलिए उसे विस्‍फोट से उड़ाने का फैसला करना पड़ा था। इसी में बहुत वक्त लग रहा था। चमोली से इंजीनियर बुलाए गए थे। यात्रियों से भरी जो सात बसें बदरीनाथ से दोपहर को यहां पहुंची थीं वे बेलाकूची बाजार में खड़ी थीं। अब जो वाहन ऊपर से आ रहे थे उन्‍हें अलकनंदा पर बने पुल के उस पार ही रोका जा रहा था। चमोली से ऊपर बदरीनाथ को जाने वाली गाडिय़ां सड़क पर गिरी चटट्टान से काफी दूर उधर ही रोक दी गई थीं। ज्‍यादा वक्त लगता देखकर इन गाडिय़ों के यात्री बाजार और सड़क में चहलकदमी कर रहे थे। कुछ पेरशान थे कि कहां बीच रास्ते में फंस गए। कुछ बसों में बैठे-बैठे ऊंघ रहे थे। कुछ चट्टान की खबर लेने के लिए बार-बार ऊपर-नीचे आ-जा रहे थे और कुछ थे जो राजेन्‍द्र व माला की तरह मौसम और पहाड़ का लुत्फ उठा रहे थे। हलकी बूंदाबादी में शाम और भी खुशनुमा हो गई थी।
सड़क से कोई सौ फुट नीचे अलकनंदा रोज की तरह अपने रास्ते बही जा रही थी। उसकी ओर कम ही लोगों का ध्‍यान था। बरसात का मौसम था और कुछ दिनों से अच्‍छी वर्षा हो रही थी। सो, अलकनंदा का पानी मटमैला और चढ़ा हुआ था। उसकी लहरों का उछाल सामान्‍य दिनों से काफी तेज था और आवाज भी डरावनी। मगर यह तो बेलाफूची के रोजमर्रा जीवन का हिस्सा था। लोग अलकनंदा के मिजाज से अच्‍छी तरह परिचित थे। बरसातों में जब चढ़ती है तो खतरनाक हो ही जाती है। इसीलिए बेलाकूची के लोगों के पुश्तैनी र अलकनंदा की धारा से काफी ऊपर बने थे- सड़क से और भी सौ फुट ऊपर। अलकनंदा कितनी ही चढ़ जाए, बेलाफूची उसकी उफनती लहरों से बहुत ऊपर और सुरक्षित थी।
          कचौड़ियां तलते बूढ़े हाथ अचानक ठहर गए। उनके कानों ने कुछ विचित्र और डरावनी आवाजें सुनीं, जैसी पहले कभी नहीं सुनाई दी थीं। बेलाकूची का पूरा बाजार अजीब सनसनी से भर गया।
-‘नीचे देख तो रे, पानी बहुत चढ़ गया क्‍या ?’ उन्‍होंने अपने बेटे से कहा, जो दुकान में उनका हाथ बंटाता था।
          एक वही नहीं, बेलाफूची के सारे निवासी, दुकानों और रों से उठकर नीचे अलकनंदा की तरफ झांकने लगे थे।
          - ‘बाबा हो!
          - ‘इतना पानी कहां से आ गया आज!
          अलकनंदा का पानी एकाएक बहुत ही बढ़ गया था। उसकी लहरें सत्‍तर-अस्सी फुट तक उछाल मार रहीं थीं और भयानक शोर उठ रहा था।
          - ‘और उधर बिरही की तरफ तो देखो!
          नजर ुमाते ही लोगों की सांसें अटक गईं। बेलाकूची के पुल के पास ही बिरही अलकनंदा में मिलती है। वह और भी रौद्र रूप में दिखी। बड़ी-बड़ी चट्टानों, पेड़ों और मिट्टी-बजरी को उछालती-गिराती उसकी लहरों को देख लोग आतंकित हो गए। पानी था कि बढ़ता आ रहा था।
          - ‘भागो-भागो। बचो।
          - ‘ऊपर चढ़ो, ऊपर।
          बाजार में चीख पुकार मच गई। जो जिस हाल में था, वैसे ही ऊपर पहाड़ी की ओर भागा। चाय की केतलियां, कचौड़ी-पकौड़ी की उबलती कढ़ाइयां सब वैसी ही पड़ी रहीं। स्थानीय लोगों में मची भगदड़ देखकर तीर्थयात्री और भी आतंकित होकर सड़क पर ही इधर-उधर भागने लगे। भागते ड्राइवरों-कण्डक्टरों ने चीखकर उन्‍हें ऊपर चढऩे को कहा। उन्‍होंने उफनाई पहाड़ी नदियों की विकरालता देखी न थी और आज तो स्थानीय लोग भी डरकर भाग रहे थे। रोते-चिल्लाते, अपने-अपनों को संभालते, गिरते-पड़ते वे ऊपर चढऩे लगे।
          बाजार से कोई सौ फुट ऊपर बेलाकूची गांव के लोग अपने आंगनों में खड़े होकर यह कोहराम देख रहे थे। बिरही और अलकनंदा की विकराल होती लहरों ने उन्‍हें भी डरा दिया था मगर वे उस ऊंचाई पर खुद को सुरक्षित महसूस करते हुए, नीचे से ऊपर चढ़ रहे लोगों को जल्दी करने के लिए पुकार रहे थे।
          दुकानदार और तीर्थयात्री जब तक हांफते-कांपते ऊपर गांव तक पहुंच पाते, अलकनंदा की पागल, बौखलाई लहरें लोहे के विशाल पुल को छूने लगीं। पलक झपकते पानी पुल के ऊपर आ गया। पानी का एक और रेला आया और पुल के एक सिरे में खड़ी यात्री बस कागज की नाव की तरह ऊपर उछली और फिर लपलपाती लहरों ने उसे निगल लिया।
          लोगों के मुंह से चीख निकल गई!
          तभी अलकनंदा की चढ़ती-उछलती लहरें लोहे का भारी पुल समूचा ही उठाए चल पड़ीं। पानी की वेगवती लहरों पर सवार लोहे का विशाल पुल! और देखते-देखते वह पुल भी ताश के पत्‍तों जैसा बिखर कर पानी के पेट में समा गया।
          लोग चीखना भी भूल गए। आतंक से फटी आंखें और अचम्भे से खुले मुंह लिए बेलाकूची के लोगों और डर से संज्ञाशून्‍य हो गए तीर्थयात्रियों ने बेलाकूची बाजार की तरफ गरदन ुमाई तो रगों में बहता लहू जैसे जम गया।
          बाजार की एकमंजिला-दोमंजिला दुकानें पूरी की पूरी ढह कर पानी में समाती जा रही थीं। जैसे धरती के नीचे खड़ा कोई भयानक राक्षस इमारतों को समूचा उखाड़कर फेंक रहा हो। पानी की विकराल लहरें उन्‍हें पलक झपकते लील जातीं। सड़क कट-कट कर मिट्टी की मेड़ की तरह पानी में गलती जा रही थी। सड़क पर खड़ी बसों, ट्रकों, कारों को पानी फूल की तरह बहा ले गया। देखते-देखते बेलाकूची बाजार टुकड़े-टुकड़े होकर प्रलयंकारी लहरों में गायब हो गया।
          और पानी भयानक गर्जना करते हुए, दोनों तरफ के पहाड़ों पर प्रहार करते हुए अब भी तेजी से चढ़ा आ रहा था।
          ऊपर गांव में बेआवाज खड़े लोगों को अचानक लगा कि बाजार, सड़क, पुल और गाडिय़ों को लील चुका पानी का विकराल दानव अब उनकी ओर बढ़ा आ रहा है। बेलाकूची गांव भी सुरक्षित नहीं!
          - ‘भागो..! बचो!
          - ‘ऊपर भागो...। जितना ऊपर चढ़ सको, चढ़ते जाओ।
          गांव में कोहराम मच गया। बूढ़े, जवान, औरतें, बच्‍चे चीखते-रोते ऊपर की तरफ भागे। शाम बीत रही थी और चारों तरफ से अंधेरा घिरने लगा था।
          जिसमें जितनी ताकत थी, जो जितना ऊपर जा सकता था, चढ़ गया। कुछ लोग पहाड़ की चोटी पर बसे गांव टंगनी तक सुरक्षित पहुंच गए। बाकी पहाड़ी ढलान में, गुफाओं या चट्टानों के ऊपर निढाल पड़ गए।
          तभी भयानक गडग़ड़ाहट हुई, जैसे आकाश टूट रहा हो या धरती फट रही हो। पूरा पहाड़ कांपने लगा।
          राजेन्द्र माला के साथ एक बड़ी चट्टान पर बैठ गया। वे दोनों बुरी तरह हांफ रहे थे। अब और ऊपर चढऩा उनके बस की बात नहीं रह गई थी। कई तीर्थयात्री, खासकर बूढ़े और औरतें तो उनसे भी नीचे पस्त होकर गिर पड़े थे।
          - ‘कहां... कहां जा रही हो?’ राजेन्द्र को एकाएक लगा जैसे माला चट्टान पर आगे को खिसक रही है। उसने माला का हाथ पकड़ना चाहा मगर तब तक वह दूर खिसक चुकी थी।
          - ‘राजेन्द्र...!माला चीखी और चीख समेत गहरी खाई में समा गई। राजेन्द्र ने उसे बचाने को आगे बढऩा चाहा मगर खड़े होते ही उसके पैर ठिठक गए। ठीक उसके पैरों के पास से वह विशाल चट्टान दो भागों में टूट चुकी थी। अगला हिस्सा माला को लिए-लिए गहरी खाई में खो चुका था। चट्टान ही नहीं, पहाड़ी का एक बड़ा हिस्सा टूटकर अलकनंदा की गोद में बिला गया था।
          - ‘माला... मा-ला ऽ ऽ!,’ राजेन्द्र कई बार चीखा। फिर उसे होश नहीं रहा।
          सुबह धीरे-धीरे फूटती रोशनी में पहाड़ की चोटी पर जहां-तहां जिन्‍दा बच रहे लोगों ने नीचे देखा तो वे अवाक्‍ रह गए।
          पूरी बेलाकूची गायब थी। गांव, खेत, बाजार, सड़क, पुल, कुछ भी नहीं। कोई निशानी नहीं जिसे देखकर कह सकें कि यहां कभी बेलाकूची थी। उसकी जगह विशाल खाई बन गई थी।
          उस तबाही और मुर्दनी के बीच एक युवक लगातार इधर-उधर चक्कर लगा रहा था। वह एक ही रट लगाए जा रहा था- माला कण्डी खरीदेगी, कचौड़ी खाएगी। कण्डी खरीदेगी, कचौड़ी खाएगी...।
          उस पागल के गले में कैमरा लटक रहा था।
          और बहुत नीचे अलकनंदा शांत होकर ऐसे बह रही थी जैसे उसने कुछ किया ही न हो! (जारी)

देवियों और देवताओं में ठन गई है--2


चन्द्र सिंह अब कभी रेडियो नहीं सुनते!
          रेडियो सब कुछ सच नहीं बताता, वे जानते थे लेकिन इतना झूठ भी बोल सकता है, उन्‍हें नहीं पता था। रेडियो के एक सफेद झूठ ने उनका सब कुछ छीन लिया। उनकी पूरी गंगनाणी और गंगनाणी वालों का सारा कुछ।
          ग्राम प्रधान थे तब चन्द्र सिंह। छोटा-सा दो बैण्ड का ट्रांजिस्टर लेकर दस अगस्त की शाम अपने आंगन में बैठे थे। प्रधान जी के पास गांव-कस्बे के कुछ और लोग भी आ जुटे। शाम सात बजकर बीस मिनट पर आकाशवाणी लखनऊ से समाचार बुलेटिन प्रसारित होता था। सबको उसी का इंतजार था।
          - ‘यह आकाशवाणी लखनऊ है। अब आप...।
          आकाशवाणी का समाचार वाचक बड़ी गंभीरता से प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई और उप प्रधानमंत्री चरण सिंह के राजनीतिक युद्ध की खबरों का खण्डन करने लगा। फिर उसने विस्तार से शाह कमीशन की खबरें बताई कि इंदिरा गांधी के किन-किन कारनामों की जांच हो रही है। लोगों की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। वे भागीरथी में बनी झील की खबर जानना चाहते थे।
          - ‘हट स्साला..., अरे ये बता कि झील का क्‍या हाल है, ...किसी ने भड़ास निकाली।
          - ‘चुप रहो यार...।बेचैन चन्द्र सिंह ने उसे बरजा और ट्रांजिस्टर हाथ में उठाकर कान के पास कर लिया। वे सांस रोक कर खबरें सुन रहे थे। दरअसल, छह अगस्त को जब उफनाई भागीरथी किसी विकराल दैत्य की तरह उछालें और दहाड़ें मार रही थी तो गंगनाणी के लोग भी रों से निकलकर ऊपर सुरक्षित पहाड़ी पर चढ़ गए थे। अगले दिन आकाशवाणी ने जब खबर दी कि भागीरथी पर बनी झील से अब कोई खतरा नहीं है तो वे सब नीचे लौट आए थे। लेकिन बाढ़ का खतरा बना हुआ है, यह वे अपनी व्यावहारिक बुद्धि और अनुभव से जानते थे। इसीलिए ट्रांजिस्टर को घेरकर बैठे थे, जो आजकल उनके लिए खबरों का एकमात्र जरिया था।
          - ‘उत्‍तर प्रदेश के उत्‍तरकाशी जिले में चट्टान गिरने से भागीरथी में बनी झील से तबाही का खतरा अब टल गया है।तभी आकाशवाणी ने जिलाधिकारी का हवाला देकर बताया तो सबने राहत की सांस ली।
          समाचार खत्म भी नहीं हुए थे कि पूरी गंगनाणी कांपने लगी। लोगों ने पहले समझा कि भूकंप आ गया है मगर वह भागीरथी की प्रचण्ड लहरों की चोट थी जो झील के टूट जाने से प्रलय साथ लिए आई थी।
          चन्द्र सिंह हाथ में ट्रांजिस्टर लिए-लिए बेतहाशा भागे। जान बचाने के लिए वे पूरी ताकत से ऊपर को दौड़ रहे थे। उन्‍हें नहीं पता कि बाकी लोग कहां गए। उनके र वालों का क्‍या  हुआ। उन्‍हें कुछ होश नहीं रहा। वे सिर्फ ऊपर, और ऊपर दौड़ते जा रहे थे। ट्रांजिस्टर अब भी उनके हाथ में था जो बुलेटिन के अंत में प्रमुख समाचार दोहराते हुए बता रहा था कि भागीरथी में बनी झील से बाढ़ का खतरा अब टल गया है।
          बदहवाशी में चन्द्र सिंह कुछ नहीं सुन पा रहे थे। सुनते तो ट्रांजिस्टर साबुत नहीं बचता।
          दूसरी सुबह जब चन्द्र सिंह को होश आया तो उन्‍होंने अपने को एक उड्यार (गुफा) में पड़ा पाया। पास में ही उनका ट्रांजिस्टर पड़ा था। उसकी तरफ से नजरें फेरकर उन्‍होंने नीचे देखा।
          उनकी गंगनाणी लापता थी। कल शाम तक गंगनाणी, उनके पुरखों की धरती, जीता-जागता, जीवन की हलचल भरा कस्बा थी। पलक झपकते ही जैसे कोई उसे समूचा निगल गया था। अब वहां जिन्‍दगी का नामोनिशान नहीं था। , बाजार, खेत, सड़क, पगडण्डी, खम्भे-तार कुछ भी नहीं‌... और आदमी, औरतें, बच्‍चे? ... उनका दिल जोर-जोर से उछलने लगा। हाथ-पैर कांपने लगे। अपने लोगों की तलाश में उन्‍होंने नजरें ुमाईं। रेत, बजरी, पत्‍थर और बड़ी-बड़ी  चट्टानों से पटे ऊबड़-खाबड़ से टकरा कर उनकी नजरें भी पथरा गईं।
          पथराई नजरों से ही उन्‍होंने देखा कि उनकी गंगनाणी को लील चुकी भागीरथी जैसे किसी अपराध बोध में अपना रास्ता बदल कर बह रही है।
          चन्द्र सिंह को जोर का चक्कर आया और वे खामोश पड़े ट्रांजिस्टर के पास ही गिर पड़े।


          भटवाड़ी भी कांपने लगी थी।
          लिण्टर वाले एक मकान की छत पर खड़े पुष्‍कर को लगा कि पूरी धरती हिल रही है और चारों तरफ के पहाड़ थरथरा रहे हैं। मगर वह जान रहा था कि यह भूचाल नहीं है। जैसी कि आशंका थी, भागीरथी में बनी झील दोबारा टूट गई थी और इतने समय से रुका पानी भयानक वेग से, ऊंची-ऊंची छलांगें मारता पहाड़ों की छाती पर वार कर रहा था। धरती कांप रही थी।
          पुष्‍कर की ड़ी में रात के आठ बज रहे थे। अंधेरा गहरा हो गया था। कुछ दिखाई नहीं देता था कि भागीरथी का ताण्डव अंधेरे में क्‍या -क्‍या  विध्‍वंस कर रहा है। सिर्फ भयानक आवाजें थीं जो दहशत फैला रही थीं।
          - ‘भागो, ऊपर पहाड़ पर चढ़ो।पुष्‍कर चीखा मगर उसकी पुकार भयानक शोर में खो गई। लोग पहले से ही कुप्पी, लालटेन, मशाल और गैस बत्तियां लिए पहाड़ पर चढ़ने लगे थे। वे जानते थे कि किसी को पुकारने का कोई मतलब नहीं है। इसलिए कुछ लोग मुंह से तरह-तरह की सीटियां बजाते हुए दूसरों को सतर्क कर रहे थे। ज्‍यादातर लोग बदहवास थे। वे देखने-सुनने-बोलने की क्षमता ही जैसे खो चुके थे। देखते-देखते पहाड़ पर टिमटिमाती रोशनियों की बस्ती आबाद हो गई।
          शीशराम का पक्का मकान नदी से काफी ऊपर और दूर था, जिसकी छत पर पुष्‍कर खड़ा था।
          - ‘पुष्‍कर महाराज, यहां से भी भागना ही ठीक रहेगा। जल्दी चलिए।शीशराम ने हांफते हुए छत पर आकर कहा। हाथ में एक पोटली थी और कम्बल कंधे पर पड़ा था।
          - ‘क्‍या पानी यहां तक आ जाएगा?’ पुष्‍कर ने हैरत से पूछा।
          - ‘लक्षण अच्छे नहीं दिखते... चलिए।उन्‍होंने पुष्‍कर को खींचा।
          आंगन में आकर वे एकाएक ठिठक गए। फिर पोटली और कम्बल पुष्‍कर को पकड़ाकर र के अन्दर चले गए। लौटे तो उनके हाथ में जलता हुआ लैम्प था। उसे उन्‍होंने आंगन की दीवार पर एक ऊंची जगह रख दिया और तेज कदमों से पहाड़ की तरफ चल दिए। परिवार को उन्‍होंने पहले ही रवाना कर दिया था।
          - ‘ये लैम्प वहां क्यों रख छोड़ा?’ पुष्‍कर ने पूछा।
          - ‘ऐसा है महाराज, कि बाढ़ यहां तक आई तो यह लैम्प जाता रहेगा।उन्‍होंने उदासी से कहा।
          - ‘तो?’ पुष्‍कर समझा नहीं।
          - ‘तो क्‍या महाराज, ऊपर पहाड़ से हम लैम्प को देखते रहेंगे। ये गया तो समझ लेंगे कि...।उन्‍होंने वाक्य पूरा नहीं किया।
          पुष्‍कर की समझ में नहीं आया कि क्‍या  कहे। उसने उनका हाथ पकड़कर दबा दिया और उनके साथ तेजी से ऊपर चढऩे लगा।
          एक घण्टे बाद रात करीब नौ बजे नदी से उठती भयानक आवाजें कम हो गईं। लगा भागीरथी कुछ शांत हो गई है। लोग धीरे-धीरे अपने रों को लौटने लगे। शीशराम के र की दीवार पर रखा लैम्प सही सलामत जल रहा था। पुष्‍कर भी उनके साथ लौटा और बिस्तर में दुबक गया।
          रात करीब दो बजे फिर पूरी भटवाड़ी में कोहराम मच गया। भागीरथी पहले से भी ज्‍यादा जोर से हुंकारने लगी और धरती का कांपना बढ़ गया। मशालें, लैम्प, टार्च, गैसबत्तियां लिए लोग फिर हड़बड़ी में पहाड़ पर ऊपर चढऩे लगे, जैसे कि सब इसके लिए तैयार बैठे थे। दरअसल, उस रात भटवाड़ी में कोई सो नहीं पाया। भटवाड़ी क्‍या, भागीरथी के तटवर्ती कस्बों में शायद ही किसी की आंख लगी हो।
          ऊपर पहाड़ी पर शीशराम के परिवार के साथ एक सुरक्षित ठौर में कम्बल बिछाकर बैठने के बाद पुष्‍कर ने नीचे देखा- अंधेरे में एक नन्हीं लौ टिमटिमाती दिख रही थी। वह शीशराम के आंगन की दीवार पर जल रहा लैम्प था। शीशराम एकटक उसे देखे जा रहे थे।
          करीब तीन बजे वह चिराग एकाएक गायब हो गया। शीशराम के साथ-साथ पुष्‍कर भी अपनी जगह खड़ा हो गया। दोनों ने थोड़ा आगे-पीछे, दाएं-बाएं खिसक कर, गरदन उचका कर लैम्प की लौ खोजनी चाही मगर नघोर अंधेरे के सिवा कुछ नहीं दिखा।
          शीशराम धम्म से बैठ गए- नौना की ब्वै (मां) मकान गया!
          पुष्‍कर के ऐन बगल से एक महिला का क्रंदन उठा जो भागीरथी के भयानक शोर में वहीं दफन भी हो गया। पुष्‍कर ने सोचा कि कहे कि लैम्प हवा से या तेल खत्म होने से बुझ गया होगा।
          लेकिन वह यह झूठा दिलासा भी नहीं दे पाया।
          सुबह के फूटते उजाले में लोगों ने पहाड़ी से नीचे उतरते हुए देखा- जहां मकान थे वहां वीरानी के बीच बड़ी-बड़ी खाइयां बन गई थीं और जहां मैदान था वहां बड़ी-बड़ी चट्टानों, पेड़ों और पुलों के गर्डर आड़े-तिरछे पड़े थे। कुछ मकान आधे-अधूरे और कुछ खाइयों के किनारे हवा में लटके नजर आ रहे थे।
          गंगनाणी की तरह भटवाड़ी पूरी तरह लापता नहीं हुई। उसकी कुछ निशानियां बची रह गईं!
यह तो बाद में पता चला था कि छह अगस्त को भागीरथी में बनी झील पहली बार टूटी थी मगर पूरी नहीं। पूरी वह टूटी दस अगस्त की शाम, जब कई दिन से प्रवाह रुक जाने के कारण बौखलाए, दहाड़ मारते पानी ने अपने रास्ते की रुकावट एक झटके से ढहा दी। फिर तो बाढ़ नहीं प्रलय आई!
          लेकिन एक और खतरनाक झील बनी थी जिसे कोई नहीं देख सका था। भागीरथी में मिलने वाली कनौडिय़ागाड़ का प्रवाह भी उसी दौरान बाधित हो गया था। भारी वर्षा से उफनाई कनौडिय़ागाड़ में भी अगल-बगल के पहाड़ भराभरा कर टूट पड़े थे और तीखे ढलान पर एक विशाल झील-बनती चली गई जो दस तारीख की देर रात हरहरा कर टूट पड़ी थी।
          जब आकाशवाणी बार-बार ोषणा कर रही थी कि अब सभी खतरे पार हो चुके हैं और जब राज्‍य सरकार और केन्‍द्रीय अध्‍ययन दल के हेलीकाप्टर भागीरथी के ऊपर चक्कर काट रहे थे, तब कनौडिय़ागाड़ में खतरनाक होती जा रही झील भागीरथी के मार्ग में रहा-बचा भी लील लेने के लिए अपनी भयावह जीभें लपलपा रही थी।
          जब हेलीकाप्टर लौट गए तो यह झील रात के अंधेरे में एकाएक फट पड़ी थी, हेलीकॉप्‍टरों के दौरों और सर्वेक्षणों पर भयानक अट्टहास करते हुए।
          भागीरथी के प्रलय-क्षेत्र से बहुत क्षुब्‍घ होकर लौटते पुष्‍कर ने रास्ते में लोगों को बाढ़ व भूस्खलन से हुई तबाही का हाल बताते हुए जब अफसोस के साथ कहा - मगर गंगनाणी तो पूरी की पूरी बह गई। उसका नामोनिशान नहीं बचा हैतो कुछ लोगों ने और भी उदासी से कहा - हां, जैसे 1970 में बेलाकूची का नामोनिशान नहीं बचा था।’ (जारी)