Friday, September 25, 2020

बिजली बिन स्कूल, क्योंकि लाइन रही दूर!

 


कोरोना काल में स्कूल बंद हैं। मार्च मध्य से बच्चे घर बैठे हैं। जब यह निश्चित हो गया कि कोरोना से शीघ्र छुटकारा नहीं मिलने वाला है तो ऑनलाइन पढ़ाईपर जोर दिया गया। शहरों-कस्बों के निजी और बड़े स्कूलों के लिए तो शायद बहुत मुश्किल नहीं हुई। बच्चे ऑनलाइन पढ़ने लगे। फिर शिकायतें आने लगीं कि हजारों परिवार ऐसे हैं जिनके पास स्मार्ट फोन हैं ही नहीं। वे ऑनलाइन कैसे पढ़ें। कुछ परिवारों के पास एक स्मार्ट फोन था तो वह बच्चों के लिए घर में छोड़ा जाने लगा।

पिछले हफ्ते एक ऐसी खबर आई जिसने ऑनलाइन पढ़ाई के इस शोर-शराबे की ही नहीं, सरकारी कार्य शैली की असलियत खोल दी। बहुत समय नहीं हुआ जब हमारे प्रदेश में सरकारी स्कूलों की ऑनलाइन निगरानी के लिए प्रेरणा ऐपजारी किया गया था। शुरू में इस ऐप का कई कारणों से विरोध हुआ, जिनमें एक कारण पारदर्शिता होना भी था। प्रेरणा ऐप में मास्टरों की हाजिरी से लेकर स्कूलों के सारे विवरण दर्ज होने थे। इसी विवरण की समीक्षा के दौरान हाल ही में यह चौंकाने वाला तथ्य सामने आया है कि उत्तर प्रदेश के 28,230 सरकारी स्कूलों में बिजली का कनेक्शन ही नहीं है।

यह स्वयं स्कूली शिक्षा के महानिदेशक विजय किरण आनंद ने बताया है। चूंकि इतने सारे स्कूलों में बिजली ही नहीं है तो ऑनलाइन पढ़ाई कैसे हो? अध्यापक अपने घर से पढ़ा रहे हों तो बात अलग है। खैर, बात ऑनलाइन पढ़ाई से आगे जाती है। सन 2020 में जबकि राज्य से लेकर केंद्र तक की सरकारें सभी गांवों तक बिजली पहुंचा देने का दावा कर चुकी हों तो ऐसा कैसे हुआ कि अट्ठाईस हजार से अधिक स्कूल बिना बिजली के रह गए?

आधिकारिक जानकारी में इसका कारण भी बताया गया है। ये स्कूल बिजली की लाइन से चालीस मीटर या उससे भी दूर हैं, इसलिए वे बिजली विभाग ने उन्हें कनेक्शन नहीं दिया। चालीस मीटर दूर स्कूल भवन तक बिजली पहुंचाने के लिए कितने खम्भे लगते होंगे? दो या अधिकतम तीन। बेचारे स्कूलों को दो-तीन बिजली के खम्भे भी क्यों नहीं दिए जा सके, यह स्पष्ट नहीं किया गया है। विद्युतीकरणकी सरकारी परिभाषा और उसके बजट की तकनीकी दिक्कतें रही होंगी शायद। सरकारी विभाग ऐसे ही काम करते हैं।

बिजली-वंचित इन स्कूलों तक दो-तीन खम्भे कैसे पहुंचाए जाएं, इसका रास्ता स्वयं महानिदेशक विजय करण ने बताया है। सन 2019 के लोक सभा चुनाव में निर्वाचन आयोग ने ऐसे स्कूलों के लिए सरकार को कुछ धन आवंटित किया था ताकि उससे स्कूलों को बिजली कनेक्शन दिया जा सके। निर्वाचन आयोग को स्कूलों में मतदान केंद्र बनाने थे और ईवीएम लगाने के लिए बिजली चाहिए थी, इसलिए। अब स्कूलों से कहा गया है कि अगर निर्वाचन आयोग का दिया धन पूरा खर्च न हुआ होगा तो उससे खम्भे लगावाए जा सकते हैं। यह सवाल नहीं पूछा जा रहा कि जब आयोग ने धन दे दिया था तो स्कूलों तक खम्भे क्यों नहीं लगाए गए?

अब ऐसी खबरें चौंकाती नहीं हैं। यह हमारे सरकारी तंत्र के काम करने का आम तरीका है। यह आधिकारिक मानदण्ड है कि यदि किसी गांव के ऊपर से बिजली की लाइन जा रही है तो वह गांव विद्युतीकृतमान लिया जाता है, एक भी घर में कनेक्शन हो या नहीं। इसलिए इस पर आश्चर्य नहीं करना चाहिए कि बड़ी संख्या में स्कूल बिजली के बिना क्यों हैं। वैसे ही जैसे सुबह-सुबह लोटा या बोतल लेकर दिशा मैदान को जाते लोगों को देखकर खुले में शौच से मुक्त भारतके दावे पर शंका नहीं की जा सकती।  

(सिटी तमाशा, 26 सितम्बर, 2020)       

Friday, September 18, 2020

जूते, कपड़े, जीडीपी और कामगार


 एक सुबह अचानक ध्यान गया कि कब से जूता नहीं पहना है। कोरोना-बंदी घोषित होने के बाद से उसकी आवश्यकता ही नहीं रही। उसका हाल देखने गया तो दया आई। रैक में पड़ा-पड़ा वह धूल खा रहा था। उसके अंदर पड़े मुड़े-तुड़े जुराबों के ऊपर मकड़ियों ने जाला बना लिया था। झाड़ना जरूरी नहीं था लेकिन साफ करके डिब्बे में सम्भाल दिए।

जूते पर पसीजे दिल ने कपड़ों की अल्मारी की याद दिला दी। धुले-इस्तरी किए कई जोड़े कपड़े हैंगर में लटक रहे हैं। दो-चार घरेलू कपड़ों के अलावा साढ़े पांच महीने से बाहरी कपड़े पहने ही नहीं। घर में पैण्ट-कमीज पहनकर बैठने की आदत कभी नहीं रही। पास की बाजार से कभी-कभार अत्यावश्यक चीजों की खरीद घरेलू कपड़ों में हो जाती है। कोरोना ने बाहर निकलना तनावपूर्ण बना दिया है। डरे-डरे गए और भागे-भागे लौटे। ऐसे में कौन अल्मारी से कपड़े निकाले! कुछ वेबिनार और लाइवमें हिस्सेदारी करनी पड़ी तो कुर्ते से ही काम चल गया या पाजामे के ऊपर कमीज डाल ली, बस!

हाथों को अगर छोड़ दें तो इन दिनों घर में सबसे अधिक धुलने वाली वस्तु मास्क है। बाहरी कपड़े न धुलते हैं, न इस्तरी होने जाते हैं। स्थितियां शीघ्र बदलने वाली भी नहीं कि किसी पार्टी, बारात या सभा-गोष्ठी में सशरीर जाना होगा। किसी करीबी के शोक में शामिल होना भी सम्भव नहीं हो पा रहा।

कपड़ों का विशेष शौक नहीं, तो भी अल्मारी भरी पड़ी है। आखिर किसलिए? क्यों खरीदे इतने कपड़े? कई पुरुषों‌-महिलाओं को जानता हूं जिन्हें नए-नए काट के अच्छे से अच्छे कपड़े पहनने का शौक है। हर महीने उनकी वार्डरोब में नई आवक होती थी। वे इन दिनों क्या कर रहे होंगे? सजने-संवरने का चाव घर में या ऑनलाइनकितना पूरा होता होगा? साक्षात प्रशंशा का स्थान फेसबुकी लाइकनहीं ले सकते। कामकाजी युवा भी वर्क फ्रॉम होममें कैद हैं। आखिर कितने कपड़े पहनेंगे?

एक इण्टरव्यू देख रहा था। बताया गया कि बड़े नाम वाली एक कम्पनी साल भर में पांच खरब (खरब जानते हैं?) टी-शर्ट बनाती है। जाने कितनी कम्पनियां टी-शर्ट बना रही हैं। और, दूसरे तमाम कपड़े। भारत जैसे गरीब मुल्क के मॉल कपड़ों से भरे पड़े हैं। ये सारे कपड़े कुछ ही अल्मारियों में कैद हैं। करोड़ों के बदन पर मुश्किल से एक कपड़ा है। वह भी आसानी से मिलता नहीं। कोरोना बंदी में कामगारों की पैदल घर-वापसी ने नंगे पैरों में पड़े छालों का दर्द कुछ हद तक दिखाया था। बहुत सारे लोगों को फुटवियर’ (उसे जूते-चप्पल कहना ठीक नहीं) का शौक है। भारत में कितने फुटवियर रोज बनते-बिकते होंगे?

अगर सिर्फ आवश्यकता भर के कपड़े खरीदे जाएं तो वस्त्रों का बाजार बैठ जाएगा। मनुष्यों को उपभोक्ताओं में बदलने और उनसे अधिक से अधिक खरीद करवाने पर टिकी इस अर्थव्यवस्था की नीव बड़ी खोखली है। इसीलिए कोरोना बंदी में वह ढेर है। आर्थिकी यदि जनता की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति पर टिकी होती तो दृश्य दूसरा होता। अस्पताल और आकस्मिक चिकित्सा के लाले न पड़े होते। सालाना इम्तहानों के नम्बरों पर टिकी शिक्षा व्यवस्था इसीलिए परीक्षाएं कराने पर उतारू है। शिक्षा का सम्बंध अगर ज्ञान और समझदारी से होता तो परीक्षाएं नहीं हो पाने का क्या मलाल होता?

कोरोना काल ने हमारी पूरी व्यवस्था को निर्वस्त्र कर दिया है, अन्यथा बहुत सारे मुद्दों पर निगाह नहीं या बहुत काम जाती है। कितनी बड़ी संख्या में कामगार अपने गांवों से दूर-दूर दिहाड़ी पर जीवित रहते हैं, यह इससे पहले कहां किसी को ध्यान था। वे अर्थव्यवस्था के केंद्र में ही नहीं हैं। उनका मरना-जीना सरकारी आंकड़ों में शामिल नहीं होता।

हमारे जूते जीडीपी में गिने जाते हैं। आप भी उनका ख्याल कीजिए।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 19 सितम्बर, 2020)

Friday, September 11, 2020

लापरवाहियों से विस्फोटक रूप ले रहा संक्रमण


कोरोना संक्रमण से शीघ्र मुक्ति जीवन पहले जैसा हो जाएगा
,   जो लोग इस आतुर प्रतीक्षा में हैं, उन्हें पांच महीने बाद तो मान ही लेना चाहिए कि इस महामारी से बचने का एकमात्र रास्ता फिलहाल बचाव के आवश्यक उपायों का पालन करना ही है। जिन टीकों (वैक्सीन) का परीक्षण चल रहा है, वे सफल भी हुए तो तय नहीं कि कितनी लम्बी प्रतिरोधक क्षमता दे पाएंगे। महामारी से बचकर आए मनुष्यों में एण्टी-बॉडी कुछ महीने से अधिक नहीं टिक रही।

दिल्ली के एक चिकित्सक मित्र ने बताया कि उनके सामने कुछ मामले दोबारा संक्रमण होने के आ चुके हैं। चीन समेत दूसरे देशों में भी ऐसा देखा गया रहा है। हमने अभी हमले के पहले चरण का शिखर भी नहीं देखा। दूसरे चरण के संक्रमण की आशंका सामने दिख रही है। बहरहाल, वायरस की प्रकृति का मुद्दा विज्ञानियों पर छोड़कर हमें उस पर ध्यान देना चाहिए जो पिछले कुछ महीनों में देश-दुनिया के हालात ने सिखाया है।

उत्तर प्रदेश में, विशेष रूप से लखनऊ-कानपुर जैसे महानगरों में महामारी विस्फोटक रूप में है। संक्रमण कैसे फैलता है और उससे कैसे बचा जा सकता है, यह अच्छी तरह पता चल चुका है। उसके बावजूद इन महानगरों में बड़ी आबादी भौतिक दूरी और मास्क लगाने की सतर्कता का पालन नहीं कर रही। रोजी-रोटी की जद्दोजहद में दिन भर खटने को विवश जनता को छोड़ दें, पढ़ा-लिखा, वाट्स-ऐप-विद्वान मध्य वर्ग सबसे अधिक लापरवाह है। बाजार में, सड़कों-कार्यालयों और अब सैरगाहों में भी इस वर्ग को लापरवाही से आते-जाते देखा जा सकता है। जो मास्क लगा भी रहे हैं, वे या तो उसके लगाने की विधि से परिचित नहीं हैं या सिर्फ इसलिए लगा ले रहे हैं कि पुलिस जुर्माना न ठोक न दे। वे अपने को बचा पा रहे हैं न दूसरे को।

रोज कमाने-खाने वाला कामगार वर्ग कोई सावधानी नहीं बरत रहा। उसने महामारी को पैसे और कोठियों वालों का रोग बताना शुरू कर दिया है। उनकी सशक्त रोग-प्रतिरोध क्षमता उन्हें भले बचा ले रही हो लेकिन वे दूसरों को रोगी बनाने का माध्यम बन रहे हैं। कई पुलिस वाले स्वयं ही लापरवाह दिखाई देते हैं। उन्हें देखकर दूसरे भी लापरवाही बरतने को प्रवृत्त होते हैं। संक्रमण के विस्फोटक होने के ये बड़े कारण हैं।

यह शुरुआती धारणा ध्वस्त हो चुकी है कि युवा वर्ग को महामारी अधिक हानि नहीं पहुंचाएगी। हाल के दिनों में कई युवाओं की दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु संक्रमण से हुई है। दूसरी तरफ, रोगग्रस्त वृद्ध भी कोरोना को मात दे रहे हैं। यानी किसी को भी यह नहीं मानना है कि वह सुरक्षित है। डरना नहीं है लेकिन लापरवाह भी नहीं रहना है।

एक विशेषज्ञ ने सटीक सलाह दी थी। बाहर निकलने वाला हर व्यक्ति यह मानकर चले कि जो भी उसके सामने पड़ रहा है, वह संक्रमित है। उससे दूरी रखिए, कायदे से मास्क पहनिए और हाथ साफ करते रहिए। यही एक उपाय है स्वयं बचे रहने और दूसरे को बचाए रखने का। दूसरे को बचाना ही संक्रमण को रोकना और अपने को बचाए रखना है। जिन समाजों ने यह सतर्कता बरती वे शीघ्र खतरे से बाहर आ गए।

प्रत्येक लापरवाह व्यक्ति कम से कम बीस व्यक्तियों को रोगी बनाता है। इनमें से प्रत्येक इस सिलसिले को इसी दर से आगे बढ़ाता चलता है। बहुत बड़ी आबादी और अत्यधिक गरीबी के कारण अपने देश में इस सिलसिले को तोड़ना बहुत कठिन है। इसीलिए लम्बे लॉकडाउन के बाद भी संक्रमण अनियंत्रित हो गया। यह दौर काफी लम्बा चलना है। सख्ती से सावधानियों का पालन करना ही एकमात्र रास्ता है। 

(सिटी तमाशा, नभाटा, 05 सितम्बर 2020)

कौन मानेगा कि ऐसे भी विधायक-मंत्री होते थे

 


जमुना प्रसाद बोस के निधन के साथ हमने अगली पीढ़ियों के लिए वह जीवित प्रमाण खो दिया है जो साबित करता था कि राजनीति में ईमानदार, नि:स्वार्थ जन सेवक और नैतिकता एवं मर्यादा का पालन करने वाले लोग भी होते थे। अब शायद ही कोई नेता बचा हो जिसे दिखाकर हम नई पीढ़ी को बता सकें कि राजनीति समाज को तोड़ने, देश को लूटने, अपना घर भरने और जनता को ठगने वालों का क्षेत्र नहीं है। आज की पीढ़ियां राजनीति को इन्हीं चरित्रों से पहचानती हैं।

कुछ वर्ष पहले जसवंत सिंह बिष्ट भी अत्यंत गरीबी और गुमनामी में यह संसार छोड़ गए। उन्हें देखकर कभी नहीं लगता था कि वे विधायक रहे होंगे। सामान्य कुर्ते-पाजामे में वे हवाई चप्पल फटफटाते गांवों से लखनऊ तक दौड़ा करते थे। कई बार चप्पल का फीता टूट जाता या निकल जाता तो उसे हाथ में लिए जोड़ते हुए चलते चले जाते थे। एक विधायक और सामान्य ग्रामीण में फर्क कर पाना कठिन था।

ये नेता उस पीढ़ी की आखिरी निशानी थे, जिसके लिए विधायक या मंत्री होने का एक ही अर्थ था- जनता की सेवा करना, उसके लिए समर्पित रहना। अपने लिए कुछ बटोरने या संततियों को स्थापित करने का सवाल ही नहीं था। जो कुछ था अपने पास, पूरा जीवन ही देश और समाज की सेवा में लगा दिया। उन लोगों के लिए नेताशब्द अब अपमानजनक लगता है। इस शब्द के अर्थ पूरी तरह बदल गए हैं। उसमें सम्मान रहा ही नहीं।

नेतागीरी आज शुद्ध व्यवसाय है, खूम कमाऊ धंधा। व्यवसाय होना बुरा नहीं है। जनता के सेवक को भी घर-परिवार चलाना होता है, बच्चे पालने-पढ़ाने होते हैं। वह जमाना रहा नहीं कि पत्नी के जेवर बेच कर देश सेवा कर रहे हैं। उसकी आवश्यकता भी नहीं। एक विधायक को इतने वेतन-भत्ते और सुविधाएं वैधानिक रूप से मिलते हैं कि वह अच्छी तरह जी सके और जन सेवा कर सके। जन-सेवाविधायक का दायित्व या कर्तव्य रहा नहीं और अच्छी तरह जीने की कोई सीमा बनी नहीं। लूट सके तो लूट वाला हिसाब है। इसमें भी प्रतिद्वद्विता है।

प्रशासनिक सेवाओं की सबसे उच्च श्रेणी का हाल देख लीजिए। एक आईएएस अधिकारी को क्या नहीं मिलता- वेतन-भत्तों का शानदार पैकेज और पूरे कार्यकाल में सत्ता की बागडोर हाथ में। और क्या चाहिए, लेकिन कितने अधिकारी हैं जो वेतन-भत्तों-सुविधाओं से प्रसन्न और संतुष्ट रहते हैं? आला अधिकारियों के भ्रष्टाचार के किस्से माननीयों के किस्सों से कहीं कम नहीं। बल्कि, विधायकों को मलाल रहता है कि हम तो चुनाव जीतने पर ही मेवा पाते हैं, आईएएस अफसरों की पांचों अंगुलियां हमेशा घी में डूबी रहती हैं।

कर्तव्य-परायणता और सेवा-भाव लुप्त-प्राय गुण हैं। इन्हें बचाने का जतन भी कहीं नहीं हो रहा। यह देखकर घनघोर अचम्भा होता है कि इस कोरोना काल में भी नेता और अफसर दवाओं-उपकरणों की खरीद में घोटाला करने में लगे हैं। कल सांस आएगी या नहीं, इसका भरोसा नहीं लेकिन अधिक से अधिक लूटने का कोई अवसर नहीं जाने देना है। साथ कुछ नहीं जाता लेकिन लिप्सा का कोई अंत नहीं।

जमना प्रसाद बोस के पास अपनी कहने को एक छत भी नहीं थी। निधन के बाद उनकी ईमानदारी के अविश्वसनीय किस्से कहे-सुने जा रहे हैं। जिन्होंने जनता की लूट से घर भर लिए और परिवार के परिवार सिहासनों पर बैठा दिए वे भी उनके गुण गा रहे हैं। भला क्यों?

(सिटी तमाशा, नभाटा, 12 सितम्बर, 2020)