Friday, August 30, 2019

राजधानी पर बढ़ता दवाब और टेक्नॉलजी




चंद रोज पहले नए बेसिक शिक्षा मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) सतीश द्विवेदी ने अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस में घोषणा कर दी कि बेसिक शिक्षा परिषद का कार्यालय इलाहाबाद से लखनऊ लाया जाएगा. इलाहाबद हाई कोर्ट बार एसोसिएशन आजकल इसलिए आंदोलित है कि शिक्षा सेवा न्यायाधिकरण की स्थापना लखनऊ में की जाने की तैयारी है. कुछ अन्य न्यायाधिकरणों को भी इलाहाबाद से लखनऊ लाने की चर्चा से नाराज़ कम्पनी लॉ ट्रिब्यूनल बार एसोसिएशन ने भी एक दिन की हड़ताल की.

वकीलों के अपने व्यावसायिक हित भी हो सकते हैं लेकिन असल मुद्दा यह है कि पहले से ही विभिन्न सरकारी कार्यालयों, विधान भवन, सचिवालय, और वीवीआईपी जमावड़े के कारण दिन पर दिन अस्त-व्यस्त होते लखनऊ पर इन कार्यालयों का अतिरिक्त बोझ क्यों डाला जाना चाहिए. महालेखाकार का विशाल दफ्तर लखनऊ लाने की कोशिश भी कई बार की जा चुकी है. 

राजधानी के मास्टर प्लान में यह सुझाव शामिल रहता है कि सरकारी कार्यालयों के नए बनने वाले भवन, मंत्री-आवास आदि मुख्य शहर से दूर बनाए जाएं ताकि मुख्य शहर में वीआईपी दवाब कम से कम बढ़े. मास्टर प्लान के कई बेहतर सुझावों-निर्देशों की तरह यह सलाह भी कभी मानी नहीं गई. सारा वीआईपी दवाब दो-चार किमी के दायरे में बढ़ता गया. लोक भवन बनने से पहले विधान सभा मार्ग आम जनता के लिए और अक्सर अपना दुखड़ा लेकर धरने पर बैठने वालों के लिए भी सुलभ था. अब यह सपना जैसा हो गया.

विधान भवन के चारों तरफ अब वीआईपी-अराजकता का राज है. लोक भवन के पड़ोस में भाजपा का प्रदेश मुख्यालय है जिसकी चकाचौंध और व्यस्तता अब अपने चरम पर है. परिणाम यह है कि विधान सभा मार्ग सहित यह पूरा इलाका दिन भर में कई बार देर तक वीआईपी सुरक्षा और माननीयों के वाहन काफिलों के कारण आम जनता के लिए निषिद्ध हो जाता है. सड़कों के दोनों तरफ वीआईपी वाहनों की पार्किंग बन जाने से खूब चौड़ा विधान सभा मार्ग भी दिन में संकरा हो जाता है.

सूचना-क्रांति के इस दौर में कार्यालयों की भौतिक दूरी कोई समस्या नहीं रह गई है. यह देख कर आश्चर्य होता है कि जिले के प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों की बैठकें आए दिन लखनऊ में हुआ करती हैं. सचिवालय भवनों के चारों तरफ उस दिन आम जनता का चलना दूभर हो जाता है. जिले के अधिकारियों के साथ वीडियो-कॉन्फ्रेंस क्यों नहीं की जातीं? दूर के जिलों से अधिकारी गाड़ियां दौड़ाते हुए लखनऊ आते हैं. समय, ईंधन और भत्तों के बोझ से भी इस तरह बचा जा सकता है. जिलों के साथ ही क्यों, लखनऊ स्थित विभिन्न कार्यालयों के बीच भी वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग अत्यंत सुविधाजनक होगी. यातायात का दवाब भी कम होगा.

समस्या यह है कि सरकारी तंत्र के काम-काज में टेक्नॉलजी तो शामिल हो गई लेकिन मानसिकता नहीं बदली. निजी कम्पनियों और सरकारी दफ्तरों के काम-काज में इसीलिए जमीन-आसमान का फर्क है. सरकारी अफसरों को कम्प्यूटर-लैपटॉप मिले हैं लेकिन उसका इस्तेमाल करने के लिए उन्हें एक ऑपरेटर चाहिए होता है. ऑपरेटर जिस दिन नहीं आता उस दिन काम नहीं होता.

आज भी सरकारी कार्यालयों में ई-मेल से स्वीकृतियां नहीं दी जातीं या बहुत ही कम. लाल फीता बंधी फाइलों में नोटिंग करने की लचर व्यवस्था के सामने टेक्नॉलजी फेल है. फाइलें उसी सुस्त रफ्तार से चपरासियों-अर्दलियों के कंधों पर सवार होकर चलती हैं और अक्सर खोजाती हैं. उन्हें ढूंढने का मंत्र बाबू लोग खूब जानते हैं.
बहरहाल, बात राजधानी पर दवाब कम करने की है. वीआईपी को चूंकि कोई दिक्कत्त होती नहीं, इसलिए इस बारे में सोचा भी नहीं जाता. जब किसी बड़े को कष्ट होता है तभी कुछ चीजें हिलती हैं. 

(सिटी तमाशा, नभाटा, 31 अगस्त, 2019)        


Tuesday, August 27, 2019

सुबह की भूली तो भटकी कांग्रेस

हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने चंद रोज पहले बयान दिया कि कांग्रेस अपने रास्ते से भटक गई है. हुड्डा की गिनती ऐसे नेताओं में कतई नहीं होती जो कांग्रेसी विचार में रचे-पगे हों या उसके मूल्यों का बड़ा सम्मान करते हों. वे तो कांग्रेस का निकट भविष्य अनिश्चित देखकर अपने वास्ते नया रास्ता तलाशने का आधार बनांने के लिए यह बात कह गए. किंतु यह बात विचारणीय तो है ही कि कांग्रेस का रास्ता क्या था? अगर वह भटकी है तो क्या वह सायास है? और अंतत: किस रास्ते वह भारतीय राजनीति में पुनर्स्थापित हो सकती है?

कांग्रेस ने अपने इतिहास में कुछ रास्ते बदले हैं. बहुत पीछे न जाएं तो भी कोई नहीं मानेगा कि गांधी और नेहरू की कांग्रेस वही थी जिस कांग्रेस का नेतृत्त्व लम्बे समय तक इंदिरा गांधी ने किया. राजनीति में अचानक आ पड़े राजीव गांधी ने भी इंदिरा की कांग्रेस का रास्ता जाने-अनजाने बदल दिया था. राजीव के बाद हाशिए पर जा पड़ी कांग्रेस को सोनिया गांधी ने पुनर्जीवित तो किया लेकिन उन्होंने जिन समझौतों का रास्ता अपनाया उसने आज कांग्रेस को वहां ला पटका है जहां फिलहाल उसे रास्ता ही नहीं सूझ रहा. राहुल ने जो रास्ता पकड़ा उसमें वह खुद ही भटक गए और फिलहाल मैदान छोड़ बैठे हैं.

तब भी एक कांग्रेस है क्योंकि इस देश की अनेक विविधताएं उस विचार की जड़ों को सींचने का काम करती रहेंगी और विविधताएं इस देश का प्राण हैं. भारतीय जनता पार्टी कितनी ही ताकतवर क्यों न हो जाए और कांग्रेस जैसा आचरण भी करने लगे तब भी अपने मूल चरित्र के कारण वह इस देश की कांग्रेसी विरासत का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती.

अगर आज कई पुराने कांग्रेसी नेता और बड़ी संख्या में कांग्रेसी मतदाता भाजपाई हो गए हैं तो उसका कारण कांग्रेसी विचार का क्षय नहीं है. कारण है इतने सारे लोगों को उस विचार का अप्रासंगिक लगना. इसके लिए जिम्मेदार भाजपा का उत्तरोत्तर उभार नहीं, बल्कि पार्टी के रूप में कांग्रेस की अपनी भटकन है. सच तो यह है कि अपने मूल्यों से कांग्रेस की दिशाहीनता और जनता से क्रमश: बढ़ते अलगाव के कारण ही भाजपा बहुत तेजी से उभरती चली गई.

हिंदू राष्ट्र और कट्टर हिदुत्व का विचार इस देश में आज़ादी मिलने के बहुत पहले से था. 1925 में स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात और भी सक्रिय होता गया. 1980 में जनसंघ के भाजपा बन जाने के बाद संघ का मूल विचार विस्तार पाने लगा. लेकिन इस पूरे दौर में वह कांग्रेसी विचार और उसके संगठन पर हावी नहीं हो सका था. बात सिर्फ इतनी नहीं थी कि कांग्रेस तब तक आज़ादी दिलाने वाली पार्टी के रूप में सम्मानित थी, बल्कि उसके पास अपने विचार को पालने-पोषते रहने वाला संगठन था.

किसी भी प्रांत के किसी भी शहर-कस्बे-गांव चले जाइए, कांग्रेसी कार्यकर्ता ही नहीं कांग्रेसी विचार में आस्था रखने वाले लोग खूब मिल जाते थे. 1980 के दशक से यह दृश्य बदलना शुरू हुआ. उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे बड़े राज्यों सहित लगभग हर राज्य में कांग्रेस का संगठन सिकुड़ना शुरू हुआ और संघ फैलने लगा. आज कांग्रेसी कार्यकर्ता या कांग्रेस समर्थक बहुत ढूंढने पर ही मिलेंगे जबकि संघ के स्वयं सेवक चप्पे-चप्पे पर. यह निर्विवाद है कि आज की भाजपा का देशव्यापी आभामण्डल संघ के परिश्रम की देन है. दूसरी तरफ कांग्रेस सेवा दल का नाम भी नई पीढ़ी नहीं जानती होगी. कांग्रेसी नेतृत्व ने देखते-बूझते यह हो जाने दिया तो खोट कांग्रेसी विचार का नहीं है. कमी पार्टी के भीतर है उस तरफ वह कब देखेगी?

एक उदाहरण से समझें. एक दौर में बहुचर्चित हुए श्याम बेनेगल के टीवी धारावाहिक भारत एक खोजके पहले एपीसोड में एक गांव के दौरे में भारत माता की जयके नारे लगा रहे ग्रामीणों से नेहरू पूछते हैं- ये भारत माता कौन है जिसकी जय आप सब बोल रहे हैं? किसकी जय चाहते हैं आप?’ कोई कहता है यह धरती, कोई कहता है नदी, पर्वत, जंगल सब भारत माता है. नेहरू समझाते हैं- सो तो है ही. लेकिन इससे भी अहम जो चीज है वह है इस सरजमीं पर रहने वाले अवाम. भारत के लोग. हम-आप सब भारत माता हैं.

यह नारा आज और भी जोरों से लगने लगा है लेकिन क्या उसके वही मायने रह गए हैं? अगर वही मायने नहीं रह गए हैं तो पूछना कांग्रेस से ही होगा न, या संघ को दोष देने से मुक्त हो जाएंगे? ‘भारत माता की जयकी नेहरू की व्याख्या आज क्यों बदल गई? इतने वर्षों में नारों के मायने बदले जा रहे थे तब कांग्रेस क्या कर रही थी? गिलहरी ने खेत जोता, बोया, गोड़ा-निराया और फसल पकने पर काट कर घर ले आई. कौआ डाल पर बैठा कांव-कांव करता रह गया!

अब ताज़ा उदाहरण लीजिए. अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने के मोदी सरकार के फैसले पर कांग्रेस के कई नए-पुराने नेता उसके आधिकारिक रुख से सहमत नहीं हैं. कई ने सरकार के फैसले का स्वागत कर दिया. कांग्रेस का क्या रुख होना चाहिए और क्यों, क्या इस पर पार्टी कार्यसमिति या शीर्ष नेताओं ने मंथन किया? पार्टी के भीतर से असहमतियां आने के बाद ही सही, कोई विमर्श हुआ या अब भी हो रहा है?

कांग्रेस के कई नेताओं ने कहा कि वे जनमत के साथ हैं और जनमत सरकार के फैसले के पक्ष में है. यह विचित्र बात है. कांग्रेस जैसी पार्टी जनमत के साथ बहती जाएगी या जनमत बनाने का काम करेगी? अनुच्छेद 370 पर आज जो जनमत है वह आरएसएस-भाजपा ने वर्षों की मेहनत से बनाया है. उस जनमत का साथ देकर तो उनके ही रास्ते पर चलना हुआ. आपका रास्ता क्या था? आपने पार्टी के भीतर ही एक राय कायम नहीं की. जनमत बनाना तो बड़ी बात हो गई. उसके लिए कार्यकर्ताओं की समर्पित फौज़ और मज़बूत संगठन चाहिए. यह पुरानी पूंजी कांग्रेस खोती चली गई और नए सिरे से जमीन पर पैर जमाने के प्रयास हुए नहीं.

जैसा ऊपर कहा, इस देश की विविधता में ही कांग्रेस के पुनर्जीवन के बीज छुपे हैं. भाजपा के उग्र हिंदुत्व की काट के लिए उदार हिंदू चोला धारण करना उन उपजाऊ बीजों की अनदेखी करना है. नकल से असल को कैसे हराएंगे?

पार्टी के रूप में कांग्रेस का ह्रास 2014 में नहीं, उससे बहुत पहले शुरू हो गया था. कांग्रेस को वापसी की शुरुआत अपने पुन: आविष्कार से करनी होगी- अपने मार्ग, मूल विचार और एक ऐसे नेता का लोकतांत्रिक चयन जिसके पीछे वैचारिक आधार पर संगठन खड़ा हो सके.

(प्रभात खबर, 28 अगस्त, 2019)




  
     
        

Sunday, August 25, 2019

सरकारी तंत्र में ज़िम्मेवारी रही न ज़वाबदेही



कोई 38 साल की नौकरी में अधिकांश समय सड़क-निर्माण का काम कराने-देखने वाले एक  बुजुर्ग अभियंता निजी काम से घर आए. कभी उन्होंने हमें पत्र लिखकर समझाया था कि रोड डिवाइडर बहुत कच्चे और सिर्फ सांकेतिक बनाए जाने चाहिए ताकि दुर्घटना होने पर डिवाइडर टूटे, इनसानों के सिर नहीं.  इसी तरह स्पीड-ब्रेकर बनाने के नियम भी तय हैं कि कितने चौड़े और कितने ऊंचे बनने चाहिए ताकि गाड़ी की गति कम हो, गाड़ी और सवार की कमर न टूटे. आज सम्बद्ध विभाग और जिम्मेवार अधिकारी इस सोच और नियम को शायद जानते ही नहीं. इसीलिए स्पीड-ब्रेकर और रोड डिवाइडर जनता की जान लेने का काम ज़्यादा करते हैं.
खैर, जब हम उन्हें विदा करने चौराहे तक गए तो एक फर्लांग की दूरी में तीन जगह सड़क के बीच पानी की तलैया बनी थीं. हमने किनारे की नालियों की मुंडेर पर चढ़कर मकानों की चारदीवार के सहारे सड़क पार की. इस दौरान बुज़ुर्ग अभियंता बहुत अफसोस जताते रहे.

“आप देख रहे हैं, नालियां सूखी हैं और सड़क पर पानी भरा है! नालियां चोक हों तो सड़क पर पानी भरना समझ में आता है. यहां तो नालियां सूखी हैं और सड़कें नालियां बनी हुई हैं. क्यों हुआ ऐसा, जानते हैं? सब आज की हमारी इंजीनियर कौम की लापरवाही और कामचोरी है.”

वे बोलते रहे- “उन्हें पढ़ाया-सिखाया तो अवश्य गया होगा कि सड़कें बीच में ऊंची बननी चाहिए ताकि दोनों तरफ की हलकी ढलान से पानी बहकर नालियों में चला जाए. नालियों में भी पर्याप्त बहाव है, यह भी देखना चाहिए. लेकिन हो क्या रहा है? देखिए, जगह-जगह सड़कें बीच में नीची और किनारों से ऊंची हैं. मिट्टी और गिट्टी भरते समय कोई देखता ही नहीं कि बीच में ऊंचा हो रहा है या नहीं. या, भराव ही ठीक से और पक्का नहीं किया जाता. इसलिए वह बाद में बीच-बीच में धंस जाता है. सबको ठेका पूरा करने और कमीशन लेने की ज़ल्दी रहती है.

“हमारे समय में पहले ओवरसियर, तब जूनियर इंजीनियर को यही कहते थे, साइट पर मुस्तैदी से डटा रहता था. पूरी जांच पड़ताल के बाद ही फाइनल कोटिंग की इजाजत देता था. कभी किसी ने लापरवाही की तो ए ई की जांच में पकड़ा जाता था. अब शायद ही कोई एई-ईई साइट पर जाकर मिट्टी-गिट्टी भराव की जांच करता हो. सबने अपने पद नाम में इंजीनियर जोड़ लिया लेकिन उत्तरदायित्त्व का निर्वाह करना छोड़ दिया.”

बुजुर्ग इंजीनियर भुनभुनाते हुए टेम्पो में बैठकर चले गए. हम सोचते रहे कि बिल्कुल सही जगह उंगली रखी है उन्होंने. जगह-जगह जल भराव के लिए बारिश नहीं, सड़कें-नालियां बनाने वाले जिम्मेदार हैं. परसों रात बारिश हुई थी लेकिन कई सड़कों पर जगह-जगह तीन दिन बाद भी  पानी भरा हुआ है. नालियों की तरफ सड़क की ढाल ही नहीं है. जब तक हवा-धूप से यह सूखेगा नहीं, सड़ता रहेगा. इसी में मच्छर पैदा हो रहे हैं. बदबू आ रही है. पानी तारकोल का दुश्मन है. कल को गड्ढे हो जाएंगे.

सब नगर निगम को कोस रहे हैं कि पानी निकाल नहीं रहे लेकिन कोई यह नहीं देख रहा कि असली गलती किसने की और क्यों? कई स्थानों पर नाले और नालियां उलटी दिशा में बहती हैं क्योंकि उनकी ढाल सही दिशा में बनाई ही नहीं गई. जल-भराव का यह भी एक बड़ा कारण है.

सरकारी काम-काज में न ज़िम्मेदारी रही, न ही जवाबदेही. गलत निर्माण करने-कराने वालों पर कोई नज़र नहीं रखता. कोई जवाब तलब भी नहीं करता. यह सभी सार्वजनिक सेवाओं पर लागू है. हमारे जीवन को नारकीय बनाए रखने में इस मूल्यहीनता और भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा योगदान है.  

(सिटी तमाशा, नभाटा, 26 अगस्त, 2019) 
  
       

Friday, August 16, 2019

पकवानों की तश्तरियां गोलियों में बदल गईं !


इस समाचार से कतई आश्चर्य नहीं हुआ कि इंदिरा नगर में एक व्यक्ति ने अपने पड़ोसी पर सिर्फ इसलिए गोली चला दी कि पड़ोसी के बच्चे ने उसकी कार को छू लिया या हलकी खरोंच लगा दी. गोली से पड़ोसी का घरेलू सेवक घायल होकर अस्पताल पहुँच गया. पड़ोसी पति-पत्नी से गाली-गलौज और अभद्रता की शिकायत भी दर्ज हुई है.

कहने को ये सब पढ़े-लिखे, अच्छी नौकरीपेशा लोग हैं. उनके पास ठीक-ठाक मकान हैं और कार, वगैरह भी. सड़क पर कभी किसी के वाहन से खरोंच लग जाए या सामान्य टक्कर, तब तो हंगामा-फसाद होता ही है. पड़ोसियों में भी कार खड़ी करने या किसी के छूने से खरोंच लग जाने पर मार-पीट और मुकदमे बाजी के किस्से आम हो चले हैं.

जब लोगों के पास बड़े मकान और गाड़ियां नहीं थीं तब वे बेहतर इनसान और अच्छे पड़ोसी थे. आपस में सुख-दुख का नाता था. मिलते-जुलते थे, त्योहार मिलकर मनाते थे. रुमाल से ढकी पकवानों की तस्तरियां बच्चे एक-दूसरे के घर पहुंचाते थे. चाचा-चाची, दादा-दादी के रिश्ते बनते थे और पड़ोसी बच्चों में भाई-बहन का रिश्ता दूर-दूर चले जाने पर भी राखियों से जीवंत रहता था.

जब इंदिरानगर कॉलोनी बस रही थी, जहां पड़ोसियों में नामालूम-सी बात पर गोली चल गई, निर्माणाधीन मकानों के लिए पड़ोसी एक-दूसरे की मदद करते थे. चाय-पानी को पूछना तो आम था, सीमेण्ट और बिजली का सामान सुरक्षित रखने के लिए पड़ोसी अपना एक कमरा भी कुछ दिन को खाली कर देते थे. पड़ोस में मकान बनना और आबाद होना खुशी की बात होती थी.

अब मकान बड़े हो गए. इनसान खो गाया. कारें खड़ी करने की जगह के लिए तू-तू-मैं-मैं होती है. कुछ ही महीने पहले एक परिचित का फोन आया कि उनके पड़ोसी ने हमारी कार का शीशा पत्थर मारकर तोड़ दिया. क्यों? इसलिए कि उनकी कार पड़ोसी के गेट के सामने खड़ी थी. वे पुलिस में रिपोर्ट लिखवाने में मदद चाहते थे. हमने कहा- कहां मुकदमेबाजी करेंगे. बातचीत से सुलटा लीजिए. वे बिदक गए कि ऐसे बेहूदे इनसान का मुंह नहीं देखेंगे, बात करना तो दूर.

बहुत समय नहीं हुआ जब एक अखबार के सम्पादक जी का मामला दूर तक गया था. उनके पड़ोसी ने ट्रक भर मौरंग उनके ठीक गेट के सामने गिरा दी. हटवाने को कहने पर झगड़ा किया. उनके कोई रिश्तेदार पुलिस में थे. सो, डराया-धमकाया भी. यह सोचकर बहुत तकलीफ होती है कि कोई कैसे अपने पड़ोसी का रास्ता बंद करा सकता है और लड़ने पर उतारू भी हो जाता है..

आखिर किस बात का इतना गुमान है? मकान और गाड़ियों दिमाग पर सवार हैं. बुद्धि-विवेक रसातल में. जिसके पास जितनी बड़ी गाड़ी और जितना बड़ा बंगला है, वह उतना ही ज़्यादा नशे में है. रिश्तेदारी किसी नेता या पुलिस अफसर से है तो नशा डबल. घर से बाहर निकलने की उनकी अदा, ड्राइवर और नौकरों पर हुक्म चलाने का उनका अंदाज़ और चेहरे पर दूसरों के प्रति उपेक्षा देखकर लगता है जैसे सारी कायनात उनकी है और उन्हीं के साथ जानी है.

उन्होंने अपनी गाड़ी में ऐसा सायरन लगवा रखा है जो गाड़ी छूते ही बजने लगता है. पड़ोसी के बच्चे के लिए यह आनंददाई खेल है. वह हर बार गाड़ी छू लेता है. मासूम बच्चे के इस खेल पर मोहित होने की बजाय उसे डपटने, उसके माता-पिता से झगड़ा कर गोली चला देने वाले पड़ोसी को क्या कहेंगे? ऐसे लोगों पर गुस्सा नहीं तरस आता है. उनका जीवन मिथ्या अभिमानों, तनावों, कुण्ठाओं और आत्ममुग्धता से भरा है! उनके पास ज़िंदगी है ही नहीं.

सीधा और सरल इनसान बने रहना क्या इतना मुश्किल हो गया है?   
  
(सिटी तमाशा, नभाटा, 17 अगस्त, 2019) 
  

Wednesday, August 14, 2019

लोकतंत्र- गर्व और चेतावनी


ब्रिटिश हुकूमत से आज़ाद होने के हिलोरें मारती भारतीय तमन्ना से उपजे आंदोलन के दवाब में जब भारत को स्वतंत्र करने पर विचार किया जाने लगा था तो अधिकतर ब्रिटिश नेता मानते थे कि उनके चले जाने के बाद यह देश एक नहीं रह पाएगा. विंस्टन चर्चिल तो पहले से ही डंके के चोट पर कहते थे कि स्वतंत्र होते ही भारत के कई टुकड़े हो जाएंगे. अपने शुरुआती साल भारत में गुजारने और बाद में यहां के बारे में बेहतरीन कृतियाँ रचने वाले रुडयार्ड किपलिंग से लेकर अमेरिकी नेताओं-लेखकों तक को पक्का लगता था कि इतनी विविधताओं वाला देश एक रह ही नहीं सकता.

और तो और, 1969 में जबकि हमारे देश को स्वतंत्र होने के बाद अखण्ड रहते हुए 22 वर्ष हो चुके थे, ब्रिटिश पत्रकार डॉन टेलर ने लिखा था कि –सबसे बड़ा सवाल अब भी यही है कि क्या भारत एकताबद्ध रह सकेगा या इसके टुकड़े हो जाएंगे? जब हम इतने बड़े देश को देखते है, इसकी 52 करोड़ 40 लाख की आबादी, उसकी अलग-अलग 15 बड़ी भाषाओं, उसके टकराते धर्मों और कई-कई जातियों के बारे में सोचते हैं तो यह अविश्वसनीय लगता है कि यह एक देश के रूप में कायम रह सकेगा.”  लेकिन उसने यह भी लिखा था कि “फिर भी कोई बात है जो भारत के अस्तित्व के प्रति आश्वस्त करती है. उसे सिर्फ भारतीयता कहा जा सकता है.”

15 अगस्त 1947 से हम 15 अगस्त 2019 तक आ गए हैं. स्वतंत्र भारत की अखण्डता के बारे में ब्रिटेन ही नहीं पूरी दुनिया की आशंकाएं एवं भविषवाणियां कबके निराधार साबित हो गई और इस भारतीयता पर दुनिया हमें हैरत और गर्व से देखती है. यह भारतीयता न केवल कायम है और देश को एक सूत्र में पिरोए हुए है, बल्कि लोकतंत्र की अपनी बगिया भी हरी-भरी और रंगीन बनाए रखे है, जबकि भारतीय आज़ादी के आस-पास स्वतंत्र हुए कई देश अपनी एकता कायम रख सके न लोकतंत्र.

सन 1952 का आम चुनाव देखने के लिए कई विदेशी पर्यवेक्षक और पत्रकार भारत आए थे. हाल ही में सत्रहवीं लोक सभा के लिए सम्पन्न चुनावों की प्रक्रिया का अध्ययन करने के लिए भी कई विदेशी राजनयिक और पत्रकार- दल भारत भर में घूम रहे थे. उनके लिए यह एक आश्चर्यलोक की तरह है कि यहां किसी सुदूर वन में मात्र एक मतदाता के लिए पूरा मतदान केंद्र बनाया जाता है, हिम ढके पर्वत प्रदेशों की स‌ड़क-विहीन ऊंचाइयों में मतदान कराने के लिए चुनाव-दल मीलों पैदल या खच्चरों पर यात्रा करता है और कहीं नावों से अत्याधुनिक इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनें ले जाई जाती हैं ताकि एक भी मतदाता मतदान के अपने दायित्वपूर्ण अधिकार से वंचित न होने पाए.

जिन विकसित और तथाकथित सभ्य देशों ने अपने यहां अश्वेतों, महिलाओं और गैर-स्नातकों को मतदान का अधिकार देने में दशकों लगा दिए, उन्हें यह देखकर अचम्भा होना स्वाभाविक है कि भारत ने कैसे पहले ही दिन से अपने सभी नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के मतदान का अधिकार दे दिया. सीधे-सादे, भोले-भाले अनपढ़ और गरीब ग्रामीण जब अपने सबसे अच्छे वस्त्रों में सज-धज कर मतदान केंद्रों की ओर जाते हैं तो किसी मेले का-सा कौतुकपूर्ण दृश्य भले रचते हों लेकिन लोकतंत्र के इन्हीं रखवालों ने तानाशाही प्रवृत्ति वाले शासकों ही नहीं, बड़ी-बड़ी उपलब्धियों का दावा करने वाले सत्ताधीशों को धूल चटाने में कोई संकोच नहीं किया. सत्ता में बैठाए जाने के बाद नेता चाहे जितना इतराएं, उन पर नकेल कसने की ज़िम्मेवारी भारतीय मतदाता ने खूब निभाई है.

अपने लोकतंत्र पर गर्व से इतना इतरा चुकने के बाद उसकी चुनौतियों, आसन्न खतरों और अब तक अधूरे या भूले-बिसरे वादों-संकल्पों की चर्चा करना आवश्यक है ताकि हमें लोकतंत्र के आसन्न और सम्भावित खतरों का बराबर ध्यान रहे. ताकि हम सजग रहें.

अपनी लोकतांत्रिक शासन व्यव्स्था के संचालन के लिए हमने एक संविधान बनाया और उसे अपनो को ही अर्पित किया है. यानी संविधान के पालन का उत्तरदायित्व हमने अपने पर ही डाला है- “हम भारत के लोग, भारत को एक प्रभुत्व सम्पन्न लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को न्याय, स्वतंत्रता और समानता दिलाने और उनमें बंधुत्व बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प करते हैं.”

पूछना चाहिए कि क्या सही अर्थों में हम ऐसा कर पाए हैं? क्या हर नागरिक को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय मिल रहा है? क्या विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता वास्तव में सबको निर्विघ्न मिली है? सामाजिक प्रतिष्ठा और अवसर की समानता हर नागरिक को उपलब्ध है, क्या इसका दावा किया जा सकता है? संविधान में लिखे उदात्त एवं उच्चतम मूल्य वाले शब्दों को हम व्यवहार में कितना उतार पाए हैं? क्या संविधान प्रदत्त कतिपय स्वतंत्रताओं पर अयाचित पहरे नहीं बैठ गए हैं?

ये महत्त्वपूर्ण प्रश्न हैं. यह भी देखना ज़रूरी है कि इन उच्चतम लोकतांत्रिक मूल्यों को अमल में लाने के मामले में हम प्रगति करते रहे हैं या स्वतंत्रता के बाद कहीं पिछड़े भी हैं? आगे बढ़ रहे हैं तो यात्रा धीमी ही सही अभीष्ट दिशा में है. पिछड़ रहे हैं तो स्थिति चिंताजनक और लोकतंत्र की सेहत के लिए  हनिकारक है.

अगर चुनींदा एक प्रतिशत आबादी देश की कुल सम्पत्ति के 73 फीसदी भाग पर कुण्डली जमाए है और यह अनुपात बढ़ता जा रहा है तो सवाल उठता ही है कि यह कैसी आर्थिक समानता है? अवसर की भी यह कैसी समानता कही जाएगी जब बहुत सारे लोगों के सिर पर छत नहीं है कई लोग दुमहले-चौमहले में रह रहे हैं? गरीबी को रातों-रात उअड़नछू नहीं हो जाता था लेकिन गरीबी-अमीरी की खाई चौड़ी क्यों होती जा रही है?

लोकतंत्र का सिद्धांत यह स्वीकार करता है कि सत्ता और शक्ति के लिए संघर्ष होगा किन्तु यह संघर्ष शांतिपूर्ण और वैचारिक होना चाहिए. सत्ता के लिए हमारी लड़ाई वैचारिक से अधिक जाति, उप-जाति और धर्म के आधार पर क्यों होने लगी? चिंताजनक है कि जैसे-जैसे देश विभिन्न मोर्चों पर प्रगति करता जा रहा है जनता का यह विभाजन भी बढ़ता जा रहा है. क्यों? इस पर विचार अवश्य होना चाहिए.

हमारे प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि हमारे जीवन में विभिन्न तत्वों के कारण विघटनकारी प्रवृत्ति उत्पन्न हो रही है. विभिन्न अंतरों वाले हमारे समाज को दृढ़ चरित्र वाले ऐसे दूरदर्शी नेताओं की आवश्यकता होगी जो छोटे-छोटे समूहों तथा क्षेत्रों के लिए देश के व्यापक हितों का बलिदान न कर दें.”

हम भारत के लोगों को, जिनमें हमारे नेताओं की गिनती भी शामिल है, गम्भीरता से सोचना होगा कि 1949 में दी गई यह चेतावनी क्या हम सुन और समझ रहे हैं?     
   
(प्रभात खबर, 15 अगस्त, 2019)  
      
      

Friday, August 09, 2019

इस व्यवस्था में एक माँ का ‘ज़ल्लाद’ होना


घटना कोई बीसेक दिन पुरानी है लेकिन अक्सर अब भी चर्चा हो जाती है- कैसी माँ होगी वह! कैसा उसका कलेजा होगा! जिगर के टुकुड़े को मार डाला!

केजीएमयू में एक माँ ने अपने तीन मास के बीमार बच्चे को अस्पताल की चौथी मंजिल से फेंक दिया था. गोरखपुर में जन्मे उस शिशु को पीलिया रोग हो गया था. हालत बिगड़ने पर उसे केजीएम यू लाया गया. यहाँ डॉक्टरों ने बताया कि बच्चे का लिवर खराब हो गया है. बचना मुश्किल है. माँ ने रात में चुपके से बच्चे को ऊपर से फेंक कर मार डाला.

पति से लेकर डॉक्टरों-नर्सों, दूसरे तीमारदारों और खबर सुनने वाले सभी ने उस माँ को खूब धिक्कारा. मीडिया में यह एक सनसनी की तरह चली. एक माँ के ज़ल्लाद बन जाने की खूब-लानत-मलामत की गई. बंदरिया तक मरे बच्चे को छाती से चिपकाए रहती है. वह बच्चा तो ज़िंदा था!

असामान्य ही रही होगी वह माँ. या, घर-परिवार के हालात और बच्चे की लाइलाज बीमारी के सदमे ने उसे असामान्य बना दिया होगा. बाद में वह फूट-फूट कर रोई. उस परिवार के हालात और माँ के मनोविज्ञान को समझने की कोशिश शायद ही की गई हो.

क्या इस लोमहर्षक घटना का कोई सम्बंध हमारी चिकित्सा व्यवस्था से है? क्या इसके मूल में गरीबी और असाध्य बीमारियों से न लड़ पाने की विवशता भी कहीं होगी? उस माँ को धिक्कारते हुए क्या हमारे चिंतन में यह मुद्दा भी आता है?  लाइलाज बीमारी से जूझते परिवारों में क्या अक्सर, परम विवशता में यह सुनने को नहीं मिलता कि इससे तो अच्छा था मर ही जाता.यह मृत्यु की कामना नहीं, इलाज न मिल पाने की कराह होती है. यह मूक चीख कौन सुनता है?

यह भयानक घटना 23 जुलाई की है. एक दिन पहले 22 जुलाई को मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने विधान सभा में एक सवाल के जवाब में बताया था कि प्रदेश में अप्रैल 2017 से अब तक यानी करीब सोलह महीने में 400 बच्चे परिवार वालों ने छोड़ दिए. इन परित्यकत बच्चों के भी माँ-बाप या निकट सम्बंधी रहे होंगे. इतने बच्चों का आखिर क्यों परित्याग कर दिया गया होगा?

परित्यकत शिशुओं में कितनी बालिकाएं हैं, यह उस उत्तर में शामिल नहीं है लेकिन तय है कि सब कन्याएं नहीं होंगी. जो होंगी वे सिर्फ कन्या होने के नाते ही छोड़ी नहीं गई होंगी. कितनी विवशताएं उन परिवारों के सामने रही होंगी, इसका हिसाब कौन लगा सकता है?

देश ने बहुत तरक्की की है लेकिन परमाणु बम और चंद्रयान की सच्चाई के बावज़ूद एक बड़ी आबादी किसी तरह जीवित रहने के संग्राम में फँसी है. साढ़े चार सौ रु में दो केले देने वाले होटल भरे हुए हैं. उसके बाहर जूठन बीनने वाली बड़ी भीड़ है. आलीशान अस्पताल में लाखों की लागत से शरीर की चर्बी गलाने का इलाज होता है और पूर्वी उत्तर प्रदेश में दिमागी बुखार से सैकड़ों बच्चे मरते और अपंग होते रहते हैं!

इस सच्चाई के आईने में सोलह महीनों में परित्यक्त 400 बच्चों के चेहरे याद कीजिए. पिछले वर्ष देवरिया के बाल-गृह में लावारिस बच्चों से हुए ज़ुल्म का ध्यान कीजिए और तब उस ज़ल्लादमाँ की विवशता को समझने की कोशिश कीजिए जिसने अपने लाइलाज बच्चे को अस्पताल की चौथी मंजिल से फेंक दिया. उसे हज़ार बार कोसते वक्त यह मत भूलिए कि उसने बच्चे को घर ले जाकर नहीं, अस्पताल से फेंका. अस्पताल, जहाँ अंतिम क्षण तक प्राण बचाने की कोशिश की आशा की जाती है. 
         
(सिटी तमाशा, नभाटा, 10 अगस्त, 2019) 

Sunday, August 04, 2019

कर्नाटक में कैसे लोकतंत्र की’ विजय’ हुई?


तो, कर्नाटक में येदियुरप्पा ने एक बार फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी हथिया ली है और फिलहाल सदन में विश्वास मत भी प्राप्त कर लिया. 2018 के विधान सभा चुनाव परिणाम आने के बाद से ही वे इस कुर्सी के लिए बहुत कसमसा रहे थे क्योंकि तब वे मात्र ढाई दिन के मुख्यमंत्री रह पाए थे. हालांकि कांग्रेस (65 विधायक) ने जद-एस (58 सीटें) के साथ मिलकर सरकार बनाने का ऐलान कर दिया था लेकिन राज्यपाल ने भाजपा को सबसे बड़ा दल (79 सीटें) होने के नाते न केवल सरकार बनाने का न्यौता दिया, बल्कि बहुमत साबित करने के लिए उन्हें 15 दिन का समय भी दे दिया था. इससे पहले कि विधायकों की खरीद-फरोख्त में माहिर येदियुरप्पा अपना खेल शुरू करते, सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें तीसरे ही दिन बहुमत साबित करने को कहा. आखिर विधान सभा में एक भावुक भाषण के बाद येदियुरप्पा ने इस्तीफा दे दिया था.

कुमारस्वामी के नेतृत्व में बनी कांग्रेस-जद(एस) सरकार को गिराने की येदियुरप्पा की कोशिशें उसी समय से शुरू हो गई थीं जो अंतत: बीती 23 जुलाई को सफल हो गई. विधान सभा में कुमारस्वामी सरकार का विश्वास मत गिर जाने के बाद उत्साह से छलकते येदियुरप्पा ने कहा- यह लोकतंत्र की जीत है... कुमारस्वामी सरकार से जनता ऊब चुकी थी.”

येदियुरप्पा इस तरह चौथी बार कर्नाटक के मुख्यमंत्री पद की कुर्सी पर बैठे हैं. पिछले तीन बार उन्हें बीच में ही यह कुर्सी छोड़नी पड़ी थी. पहली बार 2007 में चंद महीने. फिर 2008 से 2011 तक, जब उन्हें भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोपों में लिप्त पाए जाने पर भाजपा ने ही हटा दिया था. और तीसरी बार 2018 में ढाई दिन.

येदियुरप्पा को शायद आशंका होगी कि कहीं इस बार भी उनका कार्यकाल पूरा न हो. इसीलिए उन्होंने न्यूमरोलॉजी का सहारा लिया है और अंग्रेजी में अपने नाम की स्पेलिंग से एक डीहटा दिया है. पहले वे येद्दीथे तो अब सिर्फ येदिरह गए हैं!  

आखिर यह कैसे लोकतंत्र की विजय है जो विपक्षी विधायकों को तरह-तरह के प्रलोभन देकर उनसे इस्तीफा दिलवाने और बंगलूर से दूर मुम्बई के किसी होटल में कैद रख कर हासिल की जाती है?

किसी विधायक का सदन या अपनी पार्टी से इस्तीफा उसका निजी निर्णय हो सकता है लेकिन एक-एक कर करीब डेढ़ दर्ज़न विधायकों का अलग-अलग दलों से इस्तीफा देने का क्या कारण हो सकता है? अगर इतने विधायकों को एक साथ अपने-अपने दलों से मोहभंग भी हो गया तो इस्तीफा देने के बाद उनका अपने राज्य से बाहर जा छुपना किस कारण हुआ होगा? उन्होंने आखिर किस मज़बूरी में अपने इस्तीफे दूर से भिजवाए और विधान सभाध्यक्ष के बुलावे पर भी उनके सामने उपस्थित नहीं हुए? लोकतंत्र तो ऐसी लुका-छिपी, बाध्यता और संवादहीनता का नाम नहीं है.

येदियुरप्पा के शब्दकोश में लोकतंत्र की शायद यही परिभाषा है. उन्हें इसकी आदत हो चुकी है. याद कीजिए 2008 के विधान सभा चुनाव के बाद का घटनाक्रम, जब भाजपा को कर्नाटक में बहुमत से तीन सीटें कम मिली थीं. राज्यपाल ने स्वाभाविक ही उन्हें सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया था. किसी दक्षिणी राज्य में भाजपा की वह पहली सरकार थी और मुख्यमंत्री बने येदियुरप्पा को इसका श्रेय मिला था. वे बहुत उत्साहित थे लेकिन बहुमत के लिए कम से कम तीन और विधायकों के समर्थन की आवश्यकता थी.

तीन विधायकों का समर्थन हासिल करना किसी पार्टी के लिए मुश्किल नहीं होना चाहिए था लेकिन येदिरुप्पा ने दूसरा ही रास्ता निकाला. उन्होंने कांग्रेस के तीन और जद (एस) के चार विधायकों से सौदा कर लिया. ये सातों विधायक भाजपा सरकार को समर्थन देते या उस पार्टी में शामिल हो जाते तो दल-बदल कानून के तहत अयोग्य घोषित होकर उनकी सदस्यता चली जाती. फिर वे उस विधान सभा के कार्यकाल तक न उप-चुनाव लड़ सकते थे और न ही कोई संवैधानिक पद (जैसे मंत्री) पा सकते थे.

दूसरे दलों के विधायकों को तोड़ने और उन्हें  अयोग्यघोषित होने से बचाने के लिए येदियुरप्पा ने नया तरीका निकाला था.  उन सात विधायकों से सदन की सदस्यता से इस्तीफा दिलवा दिया. फिर उन्हें भाजपा में शामिल कर लिया. उनकी खाली हुई सीटों से उन्हें भाजपा के टिकट पर उप-चुनाव लड़वा दिया. सात में से पांच विधायक भाजपा के टिकट पर जीत गए. उन्हें मंत्री बना दिया गया. दल-बदल कानून का यह चोर दरवाजा खोलने का श्रेय येदियुरप्पा को जाता है. तबसे इस फॉर्मूले पर कुछ और राज्यों में अमल हो चुका है. 

2008 में मुख्यमंत्री बने येदियुरप्पा 2011 आते-आते भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोपों में फँस गए, लोकायुक्त ने उन्हें खनन घोटाले में दोषी पाया. तब भाजपा को उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाना पड़ा था. इससे क्षुब्ध येदियुरप्पा ने भाजपा छोड़ दी और अपना अलग दल बना लिया. भाजपा से खफा येदियुरप्पा ने तब  2008 में बहुमत जुटाने के उस खेल की पोल खोलते हुए अफसोस जाहिर किया था कि मुझे वैसा अनैतिक काम नहीं करना चाहिए था. उन्होंने यह भी बताया था कि उस अभियान का नाम ऑपरेशन लोटसरख गया था.

2018 में कुमारस्वामी के नेतृत्व में कांग्रेस-ज (एस) की सरकार बनने के बाद येदियुरप्पा इसी ऑपरेशन लोटसमें लग गए थे. (2014 में वे फिर भाजपा में शामिल हो चुके थे.) कांग्रेस-जद(एस) गठबंधन के तीखे अंतर्विरोधों ने येदियुरप्पा की मदद की. गठबंधन सरकार से अपने-अपने कारणों से असंतुष्ट विधायकों से उनका सौदा पट गया. भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने भी येदियुरप्पा को विधायकों से सौदेबाजी में पूरी मदद की. नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी घोषित रूप से हर बाजी किसी भी प्रकार जीतने की ठाने हुए है. चुनाव में नहीं तो चुनाव के बाद दूसरे तरीकों से. उन्होंने गोवा, मणिपुर और अरुणाचल में यही किया. उत्तराखण्ड में भी ऐसा ही करने की कोशिश की थी लेकिन तब उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से उनकी बाजी उलटी पड़ गई थी.

कर्नाटक में जो हुआ वह लोकतंत्र की जीत किसी भी रूप में नहीं है, बल्कि उससे हमारा संविधान शर्मशार हुआ है. येन-केन-प्रकारेण सत्ता हासिल करने की तिकड़मों से लोकतंत्र का मखौल उड़ा है. दल-बदल विरोधी कानून बन जाने के बावजूद सत्ता और शक्ति की लालच से दल-बदल के चोर दरवाजे खोलना और शीर्ष पदों पर बैठे लोगों का उसे प्रोत्साहित करना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है. और मज़ाक देखिए कि वे इसे लोकतंत्र की रक्षा कहते हैं!

कर्नाटक विधान सभा में पिछले दिनों जो कुछ हुआ उस पर कई तरह के सवाल उठे. विधान सभाध्यक्ष को राज्यपाल के पत्र लिखने पर सवाल उठे तो सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश पर भी प्रश्न उठे कि क्या वह विधान सभाध्यक्ष को विधायकों के इस्तीफे पर निर्देश दे सकता है या पार्टियों को ह्विप जारी करने से रोक सकता है.

विधान सभाध्यक्ष के मंतव्य पर भी अंगुली उठी. इससे खिन्न होकर विधान सभाध्यक्ष ने येदियुरप्पा सरकार के विश्वास मत हासिल करने के साथ ही इस्तीफा दे दिया है. इससे पूर्व उन्होंने इस्तीफा देने वाले विधायकों को अयोग्य घोषित भी किया. अयोग्य घोषित किए गए विधायकों ने सुप्रीम कोर्ट जाने का ऐलान किया है. सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर दी तो वे कहीं के न रहेंगे. जिस लालच में उन्होंने कुमारस्वामी की सरकार गिराने में मदद की वह फिलहाल हासिल नहीं हो पाएगा.  प्रकारांतर से दूसरी मदद मिल जाए तो अलग बात है.  

चिंता की बात यह है कि यह पूरा नाटक लोकतंत्र और संविधान के नाम पर खेला गया. संविधान निर्माताओं ने क्या ऐसे समय और ऐसे नेताओं की कल्पना की होगी?   
     
(सण्डे नवजीवन, 4 अगस्त, 2019)     
      
    

Friday, August 02, 2019

पूछो बिटिया, बिना डरे सवाल पूछो!


यह कितना भयावह समय है और सीधे-सरल लोग कितना डरे हुए हैं, इसकी बानगी है यह. तीन-चार दिन हुए पुलिस का एण्टी-रोमियो दल बाराबंकी के एक कॉलेज में बालिका सुरक्षा जागरूकता अभियान चला रहा था. एक अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक लड़कियों को आश्वस्त कर रहे थे कि कोई दुर्व्यवहार या छेड़छाड़ करे तो विरोध कीजिए और पुलिस के टॉल-फ्री नम्बर पर शिकायत कीजिए. पुलिस आपकी पूरी मदद करेगी.

एक लड़की खड़ी हुई. उसने पूछा- सर, अगर आम इनसान है तो उसके खिलाफ शिकायत कर सकते हैं. लेकिन अगर कोई नेता है, बड़ा इनसान है तो उसके खिलाफ हम कैसे प्रोटेस्ट करेंगे जबकि हम जानते हैं कि उसपे कोई एक्शन नहीं लिया जाएगा? हमने देखा कि उन्नाव की वह लड़की हॉस्पीटल में है... अगर प्रोटेस्ट करते हैं तो क्या गारण्टी है कि हमें इंसाफ मिलेगा? क्या गारण्टी है कि मैं सेफ रहूंगी?’ पुलिस अधिकारी से जवाब देते नहीं बना.

स्वाभाविक ही, उस लड़की के दिमाग में उन्नाव की घटना से खलबली मची हुई होगी. वह दुखी और उत्तेजित होगी. वहाँ उपस्थित बाकी लड़कियाँ के मन में भी यही सब चल रहा होगा. बड़े अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई होगी, इसका उन्हें भरोसा नहीं है, इसलिए उस लड़की ने यह अत्यंत प्रासंगिक सवाल पूछ लिया.

सवाल पूछने के लिए उस लड़की की कॉलेज में बड़ी प्रसंशा हुई. किसी ने उसका वीडियो सोशल मीडिया पर डाल दिया. वह वायरल हुआ तो सब तरफ से उसकी तारीफ होने लगी. हो सकता है कि उसके मां-बाप को भी बेटी की साफगोई और हिम्मत पर गर्व हुआ हो लेकिन वे बहुत डर गए. उन्होंने तबसे उसे स्कूल नहीं भेजा है. वे स्कूल वालों से सवाल कर रहे हैं कि उसका वीडियो क्यों वायरल किया गया? सबसे ज़्यादा उसके पिता चिंतित हैं और सफाई देते घूम रहे हैं कि बच्ची नासमझ है, जो टीवी में देखती-सुनती है, वह बोल दिया होगा. बोलने में अच्छी है.

यह डर बता रहा है कि आम अभिभावकों के मन में अपने बच्चों, विशेष रूप से बालिकाओं के प्रति कितना चिंता है. वे चाहते हैं कि बच्चियां चुपचाप स्कूल जाएं, पढें और सिर झुकाए घर लौट आएं. वे चिन्तित हैं कि बच्ची अपनी टीका-टिप्पणी के कारण किसी की नज़रों में न आ जाए. पता नहीं उसके साथ क्या हो जाए. बिटिया की तारीफ उन्हें बहुत डरा रही है.

घर वालों का डर देखकर अब वह लड़की शायद ऐसे सवाल कभी नहीं करे. उसके मन में सवाल उठेंगे लेकिन वह चुप रह जाएगी. यह चुप्पी ही दबंगों, गुण्डों, आपराधिक नेताओं का मन बढ़ा रही है. कुलदीप सेंगर जैसे विधायकों को पता था कि लड़की और उसके घर वाले मुंह नहीं खोलेंगे. वे जब चाहे जिस लड़की पर हाथ डाल सकते हैं.

उन्नाव की लड़की चुप नहीं रही. उसके माता-पिता-चाचा, सब बोल उठे. विधायक ने उन्हें चुप कराने की साजिशें कीं. पिता जेल में मारे गए. चाची, मौसी दुर्घटना में मारी गईं. वह स्वयं और उसके वकील अस्पताल में गम्भीर हालत में है.     

वे चुप नहीं रहे इसीलिए आज उनकी तरफ से सारा देश बोल रहा है, अनेक लड़कियाँ बोल रही हैं, अभिभावक बोल रहे हैं, सुप्रीम कोर्ट बोल रहा है. उन्नाव की लड़की चुप रह जाती तो सेंगर जेल में नहीं होता. इसलिए बाराबंकी की लड़की के माता-पिता को डरने की आवश्यकता नहीं है. पूरे समाज को जोर-जोर से बोलने की ज़रूरत है.

जिस-जिस स्कूल-कॉलेज में बालिका सुरक्षा जागरूकता अभियान चले, वहाँ की सभी लड़कियों को हिम्मत के साथ सवाल पूछना चाहिए. घर वालों को अपनी बच्चियों की पीठ ठोकनी चाहिए कि सवाल पूछा. तभी वे डरेंगे जिन्हें डरना चाहिए.  

(सिटी तमाशा, नभाटा, 3 अगस्त,2019) , 

Thursday, August 01, 2019

कांग्रेस-पुनर्जीवन के कटु प्रश्न


राज्य सभा में सत्तारूढ़ गठबंधन के अल्पमत में होने के बावज़ूद सूचना का अधिकार कानून में संशोधन और तीन तलाक विरोधी विधेयकों का राज्य सभा में पारित हो जाना,  भाजपा के रणनीतिकारों की विजय बताई जा रही है. इसे गलत नहीं कहा जा सकता लेकिन इसे विपक्ष, विशेष रूप से कांग्रेस की बड़ी पराजय के रूप में क्यों नहीं देखा जाना चाहिए? कांग्रेस के लिए पराजयशब्द अब हलका लगने लगा है. जो हम देख रहे हैं वह उस पार्टी का के लड़ने और खड़े होने की अंतर्निहित क्षमता का पराभव है.

कांग्रेस चुनाव में हार गई. यह कोई बड़ी या नई बात नहीं है. चुनाव में छोटी-बड़ी पराजय लगी रहती है. क्या वह मानसिक रूप से भी पराजित हो गई है? यह सवाल सिर्फ राज्य सभा में विवादास्पद विधेयकों के पारित हो जाने से ही नहीं उठ रहा. कर्नाटक में कांग्रेस-जद (एस) की सरकार गिराने का बड़ा कारण कांग्रेस विधायकों का खुद को निराश्रित अनुभव करना था. भाजपा विधायकों की खरीद-फरोख्त में लगी थी तो कांग्रेस नेतृत्व क्या कर रहा था? अपने विधायकों-कार्यकर्ताओं की बात सुनने-समझने वाला नेतृत्व कहाँ था? केंद्रीय अध्यक्ष नहीं है तो राज्य इकाई के नेता क्या कर रहे थे? उन्होंने अपने निर्वाचित विधायकों को क्यों निकल जाने दिया, जबकि पार्टी वह सरकार में शामिल थी? हालात तो ऐसे थे कि उन्हें विधायकों के चले जाने की आहट तक नहीं सुनाई दी या वे सब जानते-बूझते भी असहाय-से थे.  

सिर्फ कर्नाटक ही क्यों, देश भर में उसके विधायक, सांसद भाजपा की ओर भाग रहे हैं. राहुल की भूतपूर्वअमेठी के जो संजय सिंह परसों ही राज्यसभा से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल हुए हैं, उन्होंने साल-डेढ़ेक पहले भी पाला बदलने के संकेत दिए थे. तब कांग्रेस-नेतृत्व ने उन्हें असम से राज्य सभा में भेजकर  मना लिया था. सही-गलत किसी भी कारण से आज खिन्न कांग्रेसियों की सुनने वाला, उन्हें को मनाने-समझाने वाला है कोई? भाजपा कुछ राज्यों में अल्पमत में होने के बावज़ूद सरकार-बचा ले जा रही है लेकिन कांग्रेस अपनी बनी-बनाई सरकार भी गँवा दे रही है.

कांग्रेस की तुलना ग्रीक पुरा-कथाओं के उस चमत्कारिक पक्षी से की जाती रही है जो कहते हैं कि अपनी राख से पुनर्जीवित हो कर फिर आसमान में ऊंची उड़ान भरने लगता है. ऐसी तुलना करने के कारण हैं. साठ-सत्तर के दशक के बाद जब-जब ऐसा लगा कि कांग्रेस अब समाप्तप्राय है या जब भी उसके अन्त की भविष्यवाणियाँ की गईं, वह सभी को चौंकाते हुए नया जीवन पाकर, और ताकतवर होकर राजनैतिक परिदृश्य पर छा गई.

2014 की सबसे बुरी पराजय के बाद भी कहा जा रहा था कि यह कांग्रेस के एक और पुनर्जीवन का अवसर है. 2018 में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्यों के चुनावों में उसकी विजय के बाद यह सम्भावना बलवती होती दिख रही थी. राहुल में भी नेतृत्व क्षमता की चमक दिखाई दे रही थी किंतु 2019 के चुनाव ने उस सम्भावना को क्रूर ढंग से नकार दिया.

ऐसा नहीं कि चुनावों में विजय से ही किसी पार्टी के पुनर्जीवन की राह खुलती हो. देश के आम जन के सुख-दुख से जुड़कर, उनकी आवाज बनने की कोशिश करते हुए अपने संगठन में प्राण फूंकने से कोई पार्टी अपनी धड़कनें बेहतर लौटा ला सकती है. 2019 की करारी हार के बाद तो कांग्रेस से ऐसी अपेक्षा की ही जानी चाहिए थी. राहुल गांधी स्वयं इस ज़िम्मेदारी से भाग खड़े हुए तो नेतृत्व की नई सम्भावनाएं बननी चाहिए थीं. बल्कि, नेहरू-गांधी वंश के बाहर से नया नेता चुनने का यह स्वर्णिम अवसर कांग्रेस को मिला है. वंशवादके उस दाग को धोने का इससे अच्छा मौका और क्या हो सकता जो कई दशक से विरोधी दलों के पास उसके खिलाफ सबसे बड़ा हथियार रहा है.

कांग्रेस इस अवसर का लाभ उठाने की बजाय हताश-निराश दिखाई दे रही है. अब तक नेता-चयन की कोई प्रक्रिया ही शुरू नहीं हुई है. कांग्रेस कार्यसमिति, जिसे यह दायित्व उठाना है, गुम-सुम पड़ी है. अपने राजनैतिक भविष्य के लिए चिंतित कई कांग्रेसी भाजपा की ओर सहज ही खिंचे चले जा रहे हों तो क्या आश्चर्य? ऐसे में भाजपा पर विधायकों-सांसदों की खरीद-फरोख्त का दोष क्या मँढ़ना?

राहुल ने इस्तीफा वापस लेने से अंतिम रूप से मन करते हुए साफ कह दिया था कि कांग्रेस को नेहरू-गांधी परिवार से बाहर का ही कोई नेता चुनना होगा लेकिन देखिए कि पूर्णकालिक अध्यक्ष के चयन तक के लिए किसे कार्यवाहक अध्यक्ष बनाया गया. कभी रहे होंगे मोतीलाल बोरा जनता से जुड़े तेज-तर्रार नेता, आज तो उनकी उम्र ने ही उन्हें राजनीति के नेपथ्य में धकेल रखा है. नब्बे वर्षीय बोरा को जनता की क्या कहें, कांग्रेस की नई पीढ़ी ही ठीक से जानती नहीं होगी. यदि उनके अंतरिम अध्यक्ष बनने की एकमात्र योग्यता 10-जनपथ के प्रति उनकी असंदिग्ध वफादारी है तो पूछना होगा कि आखिर देश की यह सबसे पुरानी और गहरी जड़ों वाली पार्टी नेहरू-गांधी परिवार के वर्चस्व से मुक्त कैसे हो पाएगी? या कि वह मुक्त होना भी चाहती है?

यह विडम्बना नहीं तो और क्या है कि जब भाजपा 75-पार के अपने दिग्गज नेताओं को भी किनारे कर दे रही है तब कांग्रेस लाचार और बूढ़े नेताओं के सहारे नया अवतार तलाशने की कोशिश में है. अपने युवा, ऊर्जावान और सक्षम नेताओं की ओर वह देख ही नहीं रही. मध्य प्रदेश और राजस्थान में मुख्यमंत्री के चयन के समय भी युवा नेताओं की उपेक्षा की गई, हालांकि उस समय पार्टी का नेतृत्व पूरी तरह युवा राहुल के हाथों में था.  

नेतृत्वहीनता की इस स्थिति में इधर कई कांग्रेसी कोनों से यह सुनाई देने लगा है कि प्रियंका गांधी को पार्टी अध्यक्ष बना दिया जाए, या कम से कम अंतरिम अध्यक्ष का कार्यभार ही उन्हें सौंप दिया जाए. जाहिर है कि पुराने कांग्रेसी नेता हों या बचे-खुचे कार्यकर्ता, वे इस परिवार के मोह या जादू से मुक्त हो नहीं पा रहे. युवा नेतृत्व के नाम पर राहुल के बाद प्रियंका ही याद आ रही हैं. यह आशंका भी पुराने और बूढ़े कांग्रेसी ही जता रहे हैं कि यदि परिवार से बाहर का कोई नेता अध्यक्ष बनता है तो कांग्रेस टूट जाएगी.

इस पार्टी का इतिहास बताता है कि टूटने-फूटने से कांग्रेस खत्म नहीं होगी. वह अपने जन्म से अब तक कई विभाजन देख चुकी है. कांग्रेस का मूल विचार बचा रहेगा और देश की विविधता की रक्षा के लिए लड़ने संकल्प बना रहेगा तो कांग्रेस किसी भी छोटे धड़े से पुनर्जीवित हो उठेगी. पार्टी में टूटन से डरकर ही उस परिवार की छत्र-छाया में पड़े-पड़े तो पार्टी बचने से रही.
                 
(प्रभात खबर, 2 अगस्त, 2019)