वह नरसंहार का साक्षी बनकर जड़-सा रह जाता है। यह लेखक की कल्पना नहीं है। यहां भागलपुर दंगों के काले इतिहास को कथा में पिरोया हुआ है। 1980 के दशक के सच्चे किस्से। 1989 का नरसंहार।
उपन्यास की कथा 1980 के दशक के बिहार से शुरू होती है। भागलपुर इसके केंद्र में है। 1980 का कुख्यात अंखफोड़वा कांड हो चुका है। पुलिस किस सीमा तक बर्बर हो सकती है, देश जान चुका है। फिर शुरू होती हैं राजनीतिक प्रतिद्वन्द्विता की साजिशें। उसका चारा बनाई जाती भोली-भाली जनता। इसी बीच अयोध्या से उठा 'मंदिर वहीं बनाएंगे' का नारा। नगर-नगर राम शिला पूजन से उठता हुआ नफरती गुबार। पुलिस का साम्प्रदायीकरण।
1989 में भागलपुर के भीषण साम्प्रदायिक दंगे इसी बिसात पर कराए गए। कांग्रेस का राज था। दक्षिणपंथी ताकतें सिर उठाने लगी थीं। पर्दे के पीछे दोनों की मिलीभगत भी रही। इस षडयंत्र को पूरी तरह खोलकर रख देने के लिए लेखक ने बहुत सारे तथ्यों, जांच रिपोर्टों, प्रत्यक्षदर्शियों के बयानों एवं अन्य दस्तावेजों का सहारा लिया है। उस सबको कुशलता से कथा में गूंथा है। भागलपुरी सिल्क और बुनकरों की व्यथा-कथा सुनाना भी वह नहीं भूला है।
इस उपन्यास को पढ़ना एक कथानक के सुख-दुख से गुजरना ही नहीं है। भागलपुर दंगों के कई गोपनीय रखे गए दस्तावेजों से गुजरने की मर्मांतक पीड़ा से भी दो-चार होना है। इन दस्तावेजों को हासिल करने के लिए बहुत श्रम और शोध किया गया दिखाई देता है। हिंदी उपन्यासों में ऐसा कम ही दिखता है।
कहानी 1978 में बिहार के एक गांव से शुरू होती है। तब तक 'ताजिए को देखने के लिए अलग-अलग रंग के चश्मे नहीं आए थे'। गांव के प्रभावशाली एक परिवार का युवक मुदित जब नजरुल बुढ़वा की नातिन को ब्याह लाता है तो नज़र बदलने का खेला शुरू हो जाता है। उसी रात नव-दम्पति की कोठरी को घेरकर आग के हवाले कर दिया जाता है।
उस जोड़ी का क्या हुआ कोई नहीं जानता (पाठक आगे जान जाएगा) मगर इसी किस्से से उपन्यास के नायक शिव की गढ़न शुरू होती है। वह मेधावी होने के बावजूद सबकी तरह इंजीनियर बनने की राह नहीं पकड़ता। खूब पढ़-लिखकर, समाज व इतिहास दृष्टि से सम्पन्न होना चाहता है। प्रोफेसरी की कठिन राह चुनकर उच्च शिक्षा के लिए भागलपुर पहुंचता है।
भागलपुर में एक नई और बड़ी दुनिया है। वहां कॉलेज है। सतवीर, रितेश, मधु, प्रीति, सरफराज, सुशील, जरीना, जैसे कई दोस्त हैं। एक समृद्ध पुस्तकालय है। प्रो कर्ण और प्रो मित्रा जैसे शिक्षक हैं। पठन-पाठन से विकसित होती हुई इनसानी समझ है। नफरत से लड़ने का विवेक जाग्रत होता है।
उसी के समानांतर भागलपुर का काला इतिहास और विद्रूप वर्तमान शिव और साथियों के सामने आता है। दिन दहाड़े हत्या, भरी अदालत में हत्या, लड़कियों का अपहरण, वगैरह-वगैरह। राजनैतिक शरण में पनप रहे बाहुबली। अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री को पटकनी देने के लिए रचे जाते षड्यंत्र।
अपराधियों के राज और बढ़ती साम्प्रदायिक नफरत के बीच मुहब्बतों के अंकुर भी फूटते हैं। शिव की जरीना से और सतवीर की मधु से मुहब्बत इस नफरत को सीधे चुनौती है। वह युवाओं की ताकत है। इस मुहब्बत को वे समाज में फैलाना चाहते हैं। जूझते हैं, पिटते हैं लेकिन हार नहीं मानते। उनका जीतना अभी होना बाकी है।
धीरे-धीरे भागलपुर नफरत और हिंसा की आग में झोंका जाता है। एक के बाद एक भयावह कांड। कांड नहीं, नरसंहार। पुलिस के संरक्षण में। घरों में लाशें पड़ी हैं। गलियों में लाशें पड़ी हैं। लड़कियों के चीत्कार उठ रहे हैं। आग की लपटें हैं। खेतों में लाशें दफनाकर बोई गोभियां हैं। हालात से लाभ उठाते नेता और प्रोन्नतियां पाते दोषी पुलिस अफसर हैं। कल्पना नहीं, यथार्थ से सदमे में जाता पाठक है।
गौरीनाथ ने बहुत विचलित होकर यह उपन्यास लिखा होगा पर भाषा में उनका संयम और संतुलन दिखाई देता है। अंतिम अध्याय 'नरसंहार- खेल या कारोबार' को छोड़कर बाकी जगह वे तथ्यों को अखबारी विवरण बना देने से बचे रह सके हैं।
ये तथ्य अत्यंत विचलित करने वाले हैं लेकिन गौरीनाथ का उद्देश्य पाठक को दहशत से नहीं, मुहब्बत से भर देने का है। उन्होंने कहा भी है- "यह अफसाना उस भीषण नरसंहार की वीभत्सता के ऊपर मुहब्बत लिखने की छोटी सी कोशिश है।"
यह मुहब्बत का लिखा जाना जारी रहना चाहिए। कामयाब होना चाहिए। 2014 के बाद का समय 1980 के दशक की तुलना में और भी भयानक है। नफरत का गुबार कहीं ज़्यादा जोरों से उठाया जा रहा है। 'कर्बला दर कर्बला' का सिलसिला रुकना चाहिए। मगर कैसे?
इसी बेचैनी में इस उपन्यास की सार्थकता है।
- न जो, 09 अक्टूबर 2025