Friday, May 09, 2025

फेक न्यूज के मुकाबिल मीडिया साक्षरता- एक जरूरी किताब

इस समय जब भारत-पाकिस्तान सीमा के दोनों ओर युद्धोन्माद छाया हुआ है, सोशल मीडिया ही नहीं, टीवी चैनलों और अखबारों में भी फेक न्यूज का बोलबाला है। कोई इस्लामाबाद पर भारतीय कब्जे की खबर पूरे भरोसे के साथ दे रहा है तो कोई पकिस्तानी सेना का आत्मसमर्पण करा चुका है। किसी की फेक न्यूज ने कराची बंदरगाह तबाह करा दिया है तो कहीं पाकिस्तान के तीन-चार टुकड़े हो जाने का जश्न मनाया जा रहा है। कोई हद ही नहीं। हम समझते थे कि चुनावों के समय ही फेक न्यूज अपने चरम पर होती है लेकिन युद्धोन्माद के इस दौर ने तो फेक न्यूज के जरिए मीडिया-सोशल मीडिया के पतन के नए पाताल दिखा दिए हैं। 

यह संयोग ही है कि अभी-अभी अखिल रंजन की सद्य: प्रकाशित पुस्तक 'फेक न्यूज, मीडिया और लोकतंत्र' पढ़कर पूरी की है। अखिल रंजन  प्रखर पत्रकार हैं और लम्बे समय से फेक न्यूज की गहन पड़ताल एवं उसका पर्दाफाश करने का जिम्मेदारी भरा काम करते आए हैं। इसी कारण उनकी यह किताब जहां एक ओर फेक न्यूज की जड़ों तक जाकर उसकी मॉडस ऑपरेण्डी समझने-समझाने का काम करती है, वहीं दूसरी ओर फेक न्यूज को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किए जाने के तौर-तरीकों, उसके दीर्घकालीन नुकसान, मीडिया की खत्म होती विश्वसनीयता, आदि पर विस्तार से बात करती है। अखिल यहीं तक सीमित नहीं रहते। वे  यह भी विस्तार से बताते हैं कि सामान्य जन भी थोड़ी सी समझदारी के साथ फेक न्यूज को कैसे पकड़ सकते हैं, कि सामान्य सा एक स्मार्ट फोन भी फेक न्यूज, छेड़छाड़ किए गए वीडियो और फोटो की पड़ताल करने में सक्षम होता है। 

अखिल लिखते हैं कि महाभारत के युद्ध में जब अजेय द्रोणाचार्य को मारने के लिए पाण्डवों ने रणनीतिपूर्वक युधिष्ठिर से 'अश्वत्थामा हतो नरो कुंजरो वा' कहलवाया और उनके 'अश्वत्थामा हतो' कहते ही कृष्ण ने शंख फूक दिया तो वह भी फेक न्यूज को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाना था। तब से लेकर आज तक देश-विदेश के कई युद्धों, सामाजिक-आर्थिक उठापटकों, व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विताओं और राजनीतिक तिकड़मों में फेक न्यूज को शस्त्र की तरह प्रयोग किया जाता रहा है। आधुनिक युग में जब से मास मीडिया का स्वरूप बदला, सत्ता और मीडिया के बीच साठगांठ सघन हुई, मीडिया पर कुछ खास घरानों का कब्जा होता गया और नित नई टेक्नॉलॉजी के आविष्कार ने हर व्यक्ति को 'समाचार' (कॉन्टेंट) का जनक और प्रसारक बना दिया, तब से तो फेक न्यूज अनियंत्रित बाढ़ की तरह समाज में उथल-पुथल मचा रहा है। 

विशेष रूप से जब से मास मीडिया का जनसरोकार खत्म हुआ,  हर हाल में ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफा कमाना उसका एकमात्र ध्येय बना और डिजिटल दौर में 'व्यूज' एवं 'लाइक्स' ने मुनाफे तक पहुंचने के द्वार खोले, फेक न्यूज का विस्तार असीमित हो चला है। 

सबसे खतरनाक बात यह है कि फेक न्यूज बनाने और पहली बार प्रसारित करने वाला तो जानता है कि यह फेक न्यूज (या वीडियो या फोटो) है लेकिन फिर उसे निरंतर आगे बढ़ाते रहने वाले असंख्य लोग न यह जानते हैं कि यह फेक है, न जानना चाहते हैं, और न ही यह समझने की कोशिश करते हैं कि इसके पीछे क्या नापाक इरादे हो सकते हैं। हजारों-लाखों में फॉर्वर्ड होने वाली फेक न्यूज इस तरह विश्वनीयता हासिल करती जाती है। 

अच्छे-अच्छे, समझदार कहे जाने वाले लोग भी उस पर भरोसा कर जाते हैं। जब मैं यह लिख रहा हूं तो फेसबुक की एक पोस्ट बता रही है कि प्रसिद्ध पत्रकार राजदीप सरदेसाई यह स्वीकार कर रहे हैं कि दो दिन पहले 'इण्डिया टुडे टीवी' पर अपने सहयोगी गौरव सावंत की बताई हुई एक फेक न्यूज को वे सही मान बैठे थे। 

अखिल रंजन अपनी इस किताब में दुनिया भर के विशेषज्ञों के हवाले से कई नई, बल्कि चौंकाने वाली जानकारियां देते हैं। कनाडाई दार्शनिक और मीडिया सिद्धांतकार मार्शल मैक्लुहन के हवाले से वे बताते हैं कि सोशल मीडिया के वर्चस्व के इस दौर में हम सब 'नार्सिस नॉर्कोसिस' यानी एक प्रकार के आत्म सम्मोहन के शिकार हैं, उसके कैदी हैं और हमें पता ही नहीं कि यह मीडिया हमारे साथ क्या-क्या कर रहा है। जो चतुर और समझदार इनसान यह मानते हैं कि उन पर सोशल मीडिया या फेक न्यूज का प्रभाव नहीं हो सकता, दरअसल वे भी उसके अनजाने ही शिकार हैं। 

इसे 'थर्ड पार्टी इफेक्ट' कहा जाता है। हम सब अपने-अपने 'फिल्टर बबल' के भीतर हैं और हमारा अपना 'ईको चैम्बर' बन गया है, जहां हमें वही दिखाई देता है, जो हम देखना चाहते हैं, उसी पर भरोसा करते हैं और किसी दूसरी राय, दूसरे पक्ष या असहमति तक हमारी पहुंच नहीं रह जाती। उस पर सोचना, विचार करना तो दूर की बात रही। वे लिखते हैं- "अपनी सोच-समझ पर हमारा अति-आत्मविश्वास ही हमें सोशल मीडिया के सबसे खतरनाक बाईप्रॉडक्ट 'फेक न्यूज' का शिकार बनाता है।"

इसीलिए 'फेक न्यूज' को 'इण्टरनेट युग का भस्मासुर' घोषित करते हुए अखिल सोदाहरण बताते हैं कि दुनिया के कई दलों के कई नेता सोशल मीडिया की सहज विश्वासी जनता को विशुद्ध झूठ परोसते रहे हैं, जिनमें अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और अपने प्रधानमंत्री मोदी जी बहुत आगे हैं, हालांकि उनके विरुद्ध भी विपक्षी पार्टियां और नेता इस खेल में लगे रहते हैं।  

लेखक फेक न्यूज के विविध प्रकारों का विश्लेषण करते हैं और यह भी स्पष्ट करते हैं कि फेक न्यूज की भाषा, विषय और मुद्दे इस तरह रचे जाते हैं कि वे सीधे हमारी भावनाओं को कुरेदने या आहत करने वाले होते हैं ताकि हम तत्काल उस पर भरोसा कर लें। हम भारतीय दुनिया भर में फेक न्यूज के सबसे बड़े और आसान शिकार बने हुए हैं। अखिल ने इसे साबित करने के लिए 2024 के वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम, 2019 के माइक्रॉसॉफ्ट और 2018 के बीबीसी के शोधों-सर्वक्षणों को उद्धृत किया है। 

फेक न्यूज को समझने और उसके चक्कर में न आने का एक ही तरीका अखिल बताते हैं - मीडिया लिटरेसी, जो दुर्भाग्य से हमारे देश में सबसे कम है जबकि सबसे ज्यादा यहां जरूरत इसलिए है कि 'अपने देश में अधिकतर लोग पहली, दूसरी या तीसरी पीढ़ी के साक्षर हैं, जो लिखे हुए शब्दों और देखी-सुनी बातों पर सहज यकीन कर लेते हैं।' अब इसकी जरूरत दुनिया भर में महसूस की जा रही है। अमेरिका के कई राज्यों ने स्कूली पाठ्यक्रम में मीडिया लिटरेसी को गणित और विज्ञान की तरह एक विषय के रूप में शामिल किया है।

 'मीडिया लिटरेसी (या साक्षरता)' हमें इस बात के लिए तैयार करती है कि कोई संदिग्ध या भ्रामक सूचना मिलने पर हमारी प्रतिक्रिया कैसी होनी चाहिए। कि किस तरह की सूचनाओं पर शक करना चाहिए और कोई संदेहास्पद सूचना मिलने पर कैसे उसकी विश्वसनीयता परखने एवं तथ्यों की पड़ताल की कोशिश करनी चाहिए।' जैसे एक सूत्र यह है कि 'बिना स्रोत या तारीख वाली सूचना पर सहज विश्वास करने से बचना चाहिए।'

अंत में अखिल विस्तार से और बिंदुवार यह समझाते हैं कि संदिग्ध सूचना, वीडियो या फोटो को किस प्रकार अपने फोन से ही जांचा जा सकता है। एक सामान्य व्यक्ति भी अपने फोन के गूगल लेंस से किसी फोटो की सच्चाई जांच सकते हैं। अखिल ने बहुत से सामान्य और तनिक जटिल तकनीकी तरीके भी समझा कर बताए हैं जिनसे कोई व्यक्ति, खासकर पत्रकार और तनिक डिजिटल शिक्षित व्यक्ति फॉर्वर्डेड झूठ की पोल खोल सकते हैं और उसके फंदे में फंसने से बच सकते हैं, बचा सकते हैं।

इस मायने में यह किताब बड़ी मूल्यवान है क्योंकि यह फेक न्यूज को समझाने के साथ ही उसे जांचने-पकड़ने के तरीके भी समझाकर बताती है अर्थात इसमें मीडिया लिटरेसी के भी जरूरी पाठ शामिल हैं।

यह किताब आज हर व्यक्ति के हाथ में होनी चाहिए- पढ़कर मीडिया साक्षर बनने के लिए। 'नवारुण प्रकाशन' को यह पुस्तक प्रकाशित करने के लिए साधुवाद। पिछले वर्ष नवारुण से ही प्रकाशित पत्रकार हरजिंदर की पुस्तक 'चुनाव के छल-प्रपंच' भी ऐसी ही महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। 

- न जो, शनिवार, 10 मई, 2025



 

No comments: