Friday, April 16, 2021

याद रखा जाएगा कि इस दौर से हम कैसे निपटे

यूँ तो दैनंदिन काम-काज में सरकारों और प्रशासन की परीक्षा होती रहती है लेकिन कभी-कभी ही ऐसा वक्त आता है जब उनकी दूरदृष्टि, विवेक, जनहित में त्वरित निर्णय करने की कसौटी पर वे कसे जाते हैं। यह ऐसा ही बहुत बुरा वक्त है जब शासन-प्रशासन का असली इम्तहान होना है। कहना नहीं होगा कि पिछले चंद दिनों में ही उसके दावों, प्रचारों और व्यवस्थाओं की पोल खुल चुकी है। अब जाकर सरकार को गम्भीरता का अनुभव हुआ है। अस्थाई अस्पताल बनाने और दूसरी सुविधाएं बढ़ाने के फैसले किए जा रहे हैं। यह पहले क्यों नहीं हो सकता था?

हम चुनाव दर चुनाव सरकारें इसलिए चुनते और उन पर भरोसा भी जताते आए कि वह अपने सामान्य काम-काज में तो स्वभावत: कल्याणकारी रहेंगी ही, आपात समय में जनता के साथ खड़ी रहेंगी। हमने सरकारें इसलिए नहीं चुनीं कि जब सबसे बुरा वक्त आएगा तो आम आदमी ही नहीं, प्रभावशाली तबके वाले भी अपने मरीज को अस्पताल में भर्ती कराने में लाचार हो जाएंगे। घर पर मरीज को प्राणरक्षक ऑक्सीजन का सिलेण्डर लाख कोशिश के बाद भी नहीं मिल पाएगा। डॉक्टर और अस्पताल के कर्मचारी लाचार हो जाएंगे। ऐसी स्थितियां पैदा कर दी जाएंगी कि निजी लैब कोरोना जांच करने को मना करने लगेंगी या उन्हें मना कर दिया जाएगा।

कोरोना का पहला दौर चीन से शुरू होकर बरास्ता यूरोप अपने मुल्क में कुछ देर से हाहाकार मचाने आया था। तब भी हम कमर कस नहीं सके थे। देशबंदी ने हर स्तर पर तबाही ही मचाई थी। स्वास्थ्य सुविधाओं की पोल वैसे भी खुलती रहती थी लेकिन कोरोना के पहले दौर ने साबित कर दिया था कि हमारा तंत्र इससे निपटने में कितना अक्षम है। महामारी का दूसरा दौर भी अपने देश में सबसे बाद में आया। पूरे एक साल बाद। क्या यह पूछना गलत होगा कि हमने दूसरे दौर से निपटने के लिए इस दौरान क्या तैयारियां कीं जबकि भुक्तभोगी देश बता रहे थे कि दूसरा दौर और भी भयावह है एवं वायरस रूप बदल चुका है?

क्या सोचा था कि यह वायरस भारत पर मेहरबान रहेगा, कि यज्ञ-हवन, विशालकाय मूर्तियों, चुनाव रैलियों और कुम्भ में डुबकियों से वह डर जाएगा? अगर एक कैबिनेट मंत्री और सत्तारूढ़ दल के ही कुछ विधायक लाचारी और असंतोष जता रहे हैं तो स्पष्ट है कि दावों के अनुरूप तैयारियां नहीं की गईं। अस्थाई ही सही, कितने अतिरिक्त अस्पताल, कितने बेड, कितने वेण्टीलेटर, कितने ऑक्सीजन प्लाण्ट और सिलेण्डरों की व्यवस्था इस बीच की गई? अगर छोटे घरेलू ऑक्सीजन सिलेण्डर पर्याप्त संख्या में इस समय उपलब्ध होते तो अस्पतालों में भर्ती होने की ऐसी मारामारी नहीं मचती। अगर हर वार्ड में सौ-डेढ़ेक स्वयंसेवकों को भी सामान्य नर्सिंग प्रशिक्षण दे दिया होता और ऑक्सीजन सुलभ होती तो क्या ऐसा चौतरफा रुदन मचा होता?

श्मशान में लकड़ी कम पड़ सकती है लेकिन हमें सैकड़ों शव रोज जलाने-दफनाने की व्यवस्था नहीं चाहिए। हमें ऐसी व्यवस्था चाहिए कि जीवित इंसानों को शव में बदलने से रोका जा सके। जीना-मरना अपने हाथ में नहीं, लेकिन मरीज की जांच तो समय पर हो, उसे बचाने की कोशिश तो हो। इतने इंतजाम हमने समय रहते क्यों नहीं किए? हम टीका बनाने वाले देशों में अग्रणी होने का ढिंढोरा पीट रहे हैं, लेकिन कोविड की जांच करा पाने में फिसड्डी साबित हो रहे हैं। निजी लैब तीन-तीन, चार-चार दिन में नमूना ले पा रहे हैं या साफ मना कर दे रहे हैं। इतने ही दिन रिपोर्ट आने में लग रहे हैं। आखिर क्यों? सरकारी अस्पतालों में जांच के लिए लम्बी कतारें संक्रमण बढ़ाने का काम कर रही हैं। टीकाकरण और कोविड जांच की कतारें अगल-बगल क्यों हैं? इसके लिए कौन सी विशेषज्ञता चाहिए?

देर से ही सही, सरकार में हलचल है। कुछ सकारात्मक कदम उठाए जा रहे हैं। आशा है स्थिति में सुधार दिखाई देगा। जनता से भी अपील है कि वे पूरी गम्भीरता से सभी सुरक्षात्मक कदम उठाएं।

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