Friday, March 03, 2023

'बढ़ते जंगल' और घटती ऑक्सीजन का क्रूर सत्य


पिछले दस सालों में देश के 1,611 वर्ग किमी जंंगल ढांचागत विकास और औद्योगिक परियोजनाओं के हवाले कर दिए गए- यह नई दिल्ली के कुल क्षेत्र से कुछ बड़ा ही इलाका होगा और हमारे देश के कुल वन क्षेत्र (7.75 लाख वर्ग किमी) का 0.21 फीसदी है। और, विकास योजनाओं के लिए सौंपे गए जंगलों के बदले 'जंगल लगाने' का सच यह है कि निजी जमीनों एवं औद्योगिक प्रतिष्ठानों की हरियाली तथा सड़क के किनारे किए गए वृक्षारोपण, वगैरह को भी इसमें शामिल कर लिया जाता है। अर्थात, कहानी यह है कि देश में जितना वन क्षेत्र बताया जाता है, उतना असल में है नहीं। सरकारी आंकड़े जिसे वन क्षेत्र या  'वनावरण' (फॉरेस्ट कवर) कहते हैं उसमें मंत्रियों के बंगलों की हरियाली, चाय बागान, आदि के साथ वह आंकड़े भी शामिल हैं जिनमें बताया जाता है कि हर साल कितना वृक्षारोपण किया जाता है।

प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक Indian Express आजकल एक खोज समाचार शृंखला प्रकाशित कर रहा है जो खोजी पत्रकारों के अंतर्राष्ट्रीय समूह के साथ मिलकर तैयार की गई है। इसमें भारतीय वनक्षेत्र और अवैध एवं फर्जी तरीकों से हो रही वन-तस्करी के जो विवरण सामने आए हैं, वे आंखें खोलने वाले हैं। हर साल वृक्षारोपण के कीर्तिमान बनाने और 'बढ़ते वनक्षेत्र' का दावा करने वाली हमारी सरकारों ने 1980 के बाद से वनक्षेत्र के आधिकारिक आंकड़े मीडिया को बताना बंद कर रखा है। Indian Express ने इस समाचार शृंखला के लिए पहली बार वह आंकड़े प्राप्त कर लिए जिसे सरकार 'वन क्षेत्र' कहती है। उसी से पता चला है कि जिस जंगल में अवैध कब्जे कर लिए गए, जहां जंगल साफ कर दिए गए, जहां वाणिज्यिक उपयोग के लिए पेड़ लगाए गए, सड़कों के किनारे जो पेड़ हैं, चाय के बागान, सुपारी के पेड़ों का झुरमुट, शहरी कॉलोनियों की हरियाली, गांवों के बगीचे, वीवीआईपी बंगलों के पेड़, आदि को भी 'वनक्षेत्र' में शामिल कर लिया जाता है।

इस खोजी रपट में पाया गया है कि औद्योगिक परियोजनाओं के लिए दिए गए जंगल जहां बहुत पुराने, महत्त्वपूर्ण और बहुमूल्य वन-सम्पदा होते हैं वहीं उसके 'ऐवज' में तैयार क्या जाने वाला 'वन' कागजी अधिक होता है। जिस वैकल्पिक भूमि पर यह वन लगाया जाता है वह इस लायक होती ही नहीं कि वहां वास्तव में वन विकसित हो सके। इसलिए हाल के वर्षों में वन क्षेत्र में हुई 'वृद्धि' वास्तविक वृद्धि नहीं कही जा सकती। सरकार के अनुसार 1980 के दशक में जो भारतीय वन क्षेत्र 19.53 प्रतिशत था वह 2021 में 21.71 प्रतिशत हो गया था और आज 24.62 प्रतिशत हो गया है- कागज में! वास्तव में हो यह रहा है कि बहुमूल्य प्राकृतिक जंगल नष्ट हो रहे हैं या किए जा रहे हैं और उनकी जगह कागल पर जंगल की खेती की जा रही है। जिसे वास्तविक वन-सम्पदा और जैव विविधता कहा जाता है, उसे भारी नुकसान हो रहा है।

भारत ने अंतराष्ट्रीय 'क्लाइमेट चेंज' सम्मीलनों के तहत यह वादा किया हुआ है कि वह 2030 तक ढाई से तीन अरब टन कार्बनडाइऑक्साइड और सोखने की क्षमता बढ़ाएगा। इस्का सीधा अर्थ यह हुआ कि जंगल बढ़ाने होंगे। इसीलिए वृक्षारोपण के कई कार्याक्रम चलाए जा रहे हैं। जिन औद्योगिक परियोजनाओं के लिए जंगल दिए जाते हैं उनसे  प्रति हेक्टेयर की  दर से, जो जंगल के महत्त्व के हिसाब से 9.5 लाख से 16 लाख रु प्रति हेक्टेयर तक तय होती है, वैकल्पिक वन विकसित करने के लिए रकम वसूली जाती है। यह रकम केंद्रीय खाते से फिर सम्बद्ध राज्यों के खाते में भेजी जाती है। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्टों के अनुसार 2016 से अब तक करीब 66 हजार करोड़ रु केंद्रीय खातेमें जमा हुए थे जिनमें से 55 हजार करोड़ रु राज्यों के को दिए जा चुके हैं। राज्यों को इस रकम से वैकल्पिक वन विकसित करने के लिए योजनाएं बनाकर केंद्र को भेजनी होती हैं। रिपोर्ट के अनुसार यह रकम पूरी तरह खर्च नहीं की जा सकी है।   

वायुमण्डल में लगातार कम होती ऑक्सीजन एवं बढ़ती कार्बन डाइऑक्साइड तथा दूसरे प्रदूषक तत्वों के पीछे भी लगातार नष्ट होते प्राकृतिक वन हैं। जहां पुराने प्राकृतिक वन खूब ऑक्सीजन देते और कार्बनडाइआक्साइड सोखते हैं, वही वैकल्पिक,सतही और कागजी वन न ऑक्सीजन ठीक से दे पाते हैं और न ही प्रदूषण सोख पाते हैं। फिर भला हमें 'ग्लोबल वार्मिग' पर क्यों आश्चर्य करना चाहिए और क्यों पूछना चाहिए कि आम में बौर जनवरी में ही क्यों आ गया या गर्मी इतनी जल्दी कैसे आ गई या अतिवृष्टि एवं बादल फटने की घटनाएं इतनी क्यों होने लगी हैं? 

'Indian Express' की यह समाचार शृंखला सिर्फ वनों को होने वाले नुकसान और कागजी जंगलों के बारे में नहीं है, बल्कि इसमें यह भी सामने आ रहा है कि किस तरह वन-तस्कर दुनिया भर में सक्रिय हैं। जबसे यूरोप तथा अमेरिकी देशों ने वनोपज से बना सामान तब तक खरीदने पर रोक लगा दी है जब तक कि उसे यह प्रमाणपत्र हासिल न हो कि यह सामान वनों के अवैज्ञानिक दोहन से नहीं बना है (बल्कि यह  वनों के संरक्षण की नीतियों को ध्यान में रखते हुए तैयार किया गया है) तबसे भारत ऐसा फर्जी प्रमाणपत्र जारी करने वाली एजेंसियों का बड़ा केंद्र बन गया है। म्यामार (पूर्व में बर्मा) में सैन्य तानाशाही द्वारा लोकतांत्रिक आंदोलनों को कुचलने के विरोध में जबसे वहां के विश्वविख्यात सागौन (बर्मा टीक) को खरीदने पर अमेरिका समेत कई देशों ने रोक लगा दी है, तबसे 'बर्मा टीक' भारत के जरिए विदेशों में इसी संदिग्ध प्रमाणपत्रों की आड़ में बेचा जा रहा है। 'बर्मा टीक' पूरे विश्व में आलीशान फर्नीचर और ऐशगाह नौकाओं के निर्माण के लिए ख्यात है और उसकी बड़ी मांग है। 

दो मार्च से प्रकाशित हो रही 'Indian Express' की यह शृंखला अवश्य पढ़नी चाहिए।

- न. जो, 04 मार्च, 2023




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