Tuesday, April 23, 2024

कविता में कमाल कलाकार!

महीना भर पहले 'तद्भव' का नया अंक (48, जनवरी 2024) हाथ में आते ही पलटना शुरू किया था तो आलोक पराड़कर की कविताओं पर नज़र गई और वहीं रुककर पढ़ने लगा था। गिरिजा देवी, सितारा देवी, किशन महाराज और छन्नू लाल मिश्र जैसे सिद्ध, ख्यातिलब्ध कलाकारों पर लिखी गई ये कविताएं उनके कलापक्ष तथा व्यक्तित्व की विशिष्ट पहचानों का आत्मीय स्पर्श तो कराती ही हैं, कविताई की दृष्टि से भी शानदार हैं। मैं कविताएं बहुत कम पढ़ पाता हूं और उनमें भी बहुत कम देर तक स्मृति में गूंजती रह जाती हैं। आलोक की लिखी सांस्कृतिक प्रदर्शनों की समीक्षाओं और लेखों का पाठक, प्रशंसक और सम्पादक भी रहा हूं लेकिन उसके कवि से यह पहला ही परिचय हुआ और क्या खूब हुआ! 

सोचा था इन पर कुछ लिखूंगा लेकिन तब आलोक को फोन करके ही रह गया था। आज 'तद्भव' का वह अंक फिर उठाया तो था विश्वनाथ त्रिपाठी जी के संस्मरणों की अगली किस्त पढ़ने के लिए लेकिन एक बार फिर अटक गया आलोक की कविताओं पर।

"तुमने कहा/ रस के भरे तोरे नैन.../ तो सारा रस आंखों में उतर आया/ पिया के मिलने की आस/ भीतर तक भिगोने लगी.." (गिरिजा देवी)

"तुम तूफान थी/ तुम्हारी बोटी-बोटी/ तुम्हारा अंग-अंग थिरकता था/ तुम तांडव पर अचम्भित कर देती थी/ गुरुदेव ने पुकारा था तुम्हें नृत्य सम्राज्ञी..." (सितारा देवी)

"कायदा कुछ इस धज से आता/ जैसे चले आ रहे हों/ रामनगर महाराज/ हाथी पर सवार/ हर बार कुछ और चमक उठता/ लाल कुमकुम..." (किशन महाराज)

"सुनो, ध्यान से सुनो/ उनका गाना/ देखो किस प्रकार/ घराने भी करने लगे हैं जुगलबंदी/ लोक की चाशनी में पगने लगा है शास्त्र..." (छन्नूलाल मिश्र) 

बहुत पहले पढ़ी हुई बिस्मिल्लाह खान पर मंगलेश डबराल की कविता स्मृति में गूंजने लगी- "क्या दशाश्वमेध घाट की सीढ़ी पर मेरे संगीत का कोई टुकड़ा अब भी गिरा हुआ होगा? क्या बनारस की गलियों में बह रही होगी मेरी कजरी?" कलाकारों, विशेषकर संगीतकारों पर मंगलेश जी की कुछ और भी कविताएं हैं। 'ढोल सागर' के जानकार और गजब के गायक केशव अनुरागी पर उनकी एक मार्मिक कविता है जिसमें कभी ढोलक की थाप पर बादल गरजने लगते हैं तो कभी पहाड़ी नदी पूरी उन्मुक्तता से बहने लगती है। गढ़वाल के लोक गायक गुणानंद पथिक पर भी एक यादगार कविता उन्होंने लिखी, जो गले में हारमोनियम लटकाए, गीत रचते-गाते-घूमते हुए जनजागरण किया करते थे। अपने पिता पर लिखी गई कविता में भी उनका पुराना हारमोनियम मद्धिम सुर में बजता रहता है। 

वीरेन डंगवाल की भी कविताओं की पृष्ठभूमि में संगीत की अनुगूंज और गुनगुन-सी लय बराबर बनी रहती है। वीरेनदा की एक कविता का शीर्षक ही है- 'जहीरुद्दीन डागर का ध्रुपद सुनकर', जिसमें बहुत खूबसूरत बिम्ब हैं- "बहुत पके फूल की पंखुड़ी/ बैठी जो तितली तो डंवाडोल!/ हवा की एक लहर तन्वंगी/ डग धरकर बढ़े समुद्र की छाती पर हौले-हौले..."। 

और, हमारे गौरव, नरेश सक्सेना जी की कविताओं में तो जैसे उनकी बांसुरी भी बजती रहती है, कि उसकी स्वर लहरियां मन को दूर-दूर ही नहीं उड़ा ले जातीं, प्रतिरोधी चेतना से भी भर देती हैं।

एक अंतर्निहित लय के बिना कविता कहां है! उपर्युक्त कवि तो उस्ताद ही ठहरे।

यहां कोई तुलना नहीं हो रही। संदर्भ मात्र इसलिए  कि आलोक पराड़कर की इन चारों कविताओं में सम्बद्ध कलाकारों का गायन, नर्तन, वादन और लयकारी इस खूबी से गुंथी हुई है अपने दिग्गज कवियों की सहज ही याद आ गई। 

-न जो, 23 अप्रैल, 2024

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