ताले में चाभी थोड़ी मुश्किल से घूमी। करीब दस महीने बाद मैं ‘अपने घर’ का ताला खोल रहा हूं। 2023 की तीस जून को यहां आकर दो जुलाई को वापस गया था। आज दस मई 2024 है। हमें देखकर लंगूरों का यूथ अचम्भे में है। वे घर के सामने के पेड़ों पर उछल-कूद करना छोड़कर हमें घूरने लगे हैं। ‘घर’ के रास्ते में घुरड़ (घूरल) का जोड़ा भी हमें देखकर बिदका था और कुलांचें भरते हुए ऊपर चट्टानों में ओझल हो गया था। बाईं ओर जहां हमारे खेत हुआ करते थे, बड़ी-घनी झाड़ियों के भीतर से सुअरों की डुकार सुनाई दे रही है। उनमें शायद झगड़ा मचा है। अचानक एक मोटा-काला सुअर या सुअरिया चीखते हुए झाड़ियों से निकल कर भागी है। उसके पीछे नन्हे सुअरों की कतार की कतार भी भागी जा रही है। मैं उनकी गिनती नहीं कर पाता। तीसेक से कम क्या होंगे। क्या पता गुलदार (तेंदुआ) ने घात लगाकर उन पर हमला किया हो और ये जान बचाकर भागे हों। अपना निवाला गुलदार ले ही गया होगा।
इसे मैं ‘अपना गांव’ (रैंतोली, गणाई-गंगोली, जिला पिथौरागढ़) कह रहा हूं लेकिन यहां मैं परदेसी अजनबी की तरह आया हूं। यहां बंदरों-लंगूरों, घुरड़-काकड़, सुअरों, मुर्गियों, सेही, खरगोश, तेंदुओं, आदि-आदि का कब्जा है। वे पूरी स्वच्छंदता से भरी दोपहर यहां विचरण करते हैं। गांव में सन्नाटा है। अधिकतर मकानों में ताले लगे हैं। उनके बीच कुछ खंडहर भी हैं। कहीं-कहीं टिन की नई छतें गवाही दे रही हैं कि मकानों को खंडहर होने से बचाने के जतन भी हो रहे हैं। हमने भी ‘अपने मकान’ की छत ठीक करवाई है। सामने की पहाड़ी पर सीढ़ीदार खेतों में भी ऊंची कंटीली झाडियां भरी पड़ी हैं। गांव के आबाद रहते बांज का जो जंगल दूर-दूर खिसकता जा रहा था, बिल्कुल पास आ गया है। कभी इन बांज के पत्तों और घास-लकड़ी के लिए झगड़ा-फसाद होता था। आज सब इफरात में है। उपयोग करने वाले ही चले गए। गांव में मनुष्यों की बजाय पशु-पक्षियों की आवाजें ही सुनाई दे रही हैं। मनुष्य की अनुपस्थिति में प्रकृति अपनी खोई जमीन पर तेजी से वापस कब्जा करती जा रही है।
हम ‘घर’ की साफ-सफाई में जुट गए हैं ताकि दो-चार दिन यहां रह सकें। हाथ की लाठी टेकते-टेकते जीवानंद कका, जिन्हें हम जिब्बुका कहते हैं, आ गए हैं। उनके दूसरे हाथ में रस्सी का गुच्छा है। उन्हें नीचे सड़क पर खड़ी गाड़ी देखकर पता चल गया होगा कि हम आए हैं। हम प्रणाम करते है तो वे रस्सी वाला हाथ उठाकर आशीर्वाद देते हैं।
“ठीक हो? अच्छा किया जो आ गए।” आंगन के चौड़े पाथर पर घुटने मोड़कर वे बैठ गए हैं और परिवार में सबकी कुशल पूछने लगे हैं। हमारे खानदान के दर्जनों लोग लखनऊ जा बसे हैं। एक-एक की, उनके बच्चों की और उनके भी बच्चों की कुशल-बात पूछने में उन्हें वक्त लग गया। फिर वे अपनी लट्ठी और रस्सी पकड़कर उठ गए हैं- “थोड़े हरे-पत्ते काट लाऊं भैंस के लिए। दो-चार दिन तो रहोगे?”
जिब्बुका थोड़ी झुकी कमर लिए हुए लट्ठी के सहारे जंगल की चढ़ाई चढ़ने लगे हैं। हमने 94-95 का हिसाब लगा रखा था लेकिन स्वयं उन्होंने बताया कि 98 वर्ष हो गए हैं। सुबह-शाम दोनों वक्त जंगल जाते हैं, पीठ पर लादकर घास-लकड़ी का गट्ठर लाते हैं। गाय पिछले दिनों बेच दी थी, अब सिर्फ एक भैंस पाल रखी है। यहां अब खेती नहीं होती लेकिन पहाड़ के इस दुर्गम गांव में टिके रहने के लिए बूढ़े काका-काकी के पास दिन भर काम होता है। बेटियां ससुराल में हैं और बेटा देहरादून में। जिब्बुका और काकी के अलावा गांव में हमारी दो भाभियां और एक बहन हैं। अस्सी-नब्बे वर्ष के बीच की भाभियां यहां अकेली रहती है क्योंकि पति रहे नहीं और बच्चे शहरों में बस गए हैं और कभी-कभार ही आते हैं। पैंसठ के आसपास की बहन बिल्कुल अकेली है। कुल मिलाकर हमारे हिस्से का गांव इतना ही बचा है। दो हिस्सों में बंटे गांव के दूसरे छोर में कुल छह और लोग रह रहे हैं। कभी दोनों छोरों के बीच खेतों का विस्तार था, अब घनी-ऊंची कंटीली झाड़ियां और पेड़ हैं। आर-पार जाने वाली पगडंडी खो गई है। आने-जाने में सुअरों का डर हर समय बना रहता है। हाल ही में पड़ोस के गांव माणा में किसी युवक ने सुअरों को भगाने की कोशिश की थी तो उन्होंने हमला कर दिया और पेट फाड़कर उसे मार डाला था। तब से आतंक गहरा हो गया है। कुछ सुअर तो इतने विशाल और आक्रामक हैं कि तेंदुए भी उन पर हमला नहीं करते। आतंक तेंदुओं का भी कम नहीं है। वे जब-तब आसपास दिखते रहते हैं लेकिन हमारे गांव में मनुष्यों पर हमले की घटना नहीं हुई है। जंगल में उनके लिए खूब शिकार हैं। वैसे, तेंदुए का कोई भरोसा नहीं। आए दिन गांवों में महिलाओं-बच्चों-पालतू पशुओं पर उनके जानलेवा हमले की खबरें आती-रहती हैं। हमारे गांव के सभी कुत्ते कबके उनके पेट में समा चुके। उन्हीं के डर से बचे-खुचे लोगों ने बकरियां पालना छोड़ दिया है। गाय-भैंस को गोठ (गौशाला) में बांधे रखना पड़ता है।रोजी-रोटी और शिक्षा के लिए गांव से पलायन पहले भी होता था। मुझे 1962 में सात वर्ष की उम्र में पढ़ने के लिए लखनऊ भेज दिया गया था। गांव से स्कूल तब बहुत दूर था और बाबू लखनऊ में नौकरी करते थे। गांव के लगभग हर परिवार का कम से कम एक सदस्य नौकरी के लिए बाहर जाता था क्योंकि सीमित और असिंचित खेती की उपज साल भर के लिए पूरी नहीं पड़ती थी। दूसरी भी कई जरूरतें होती थीं। जिन परिवारों का कोई बाहर नौकरी पर नहीं था, उनकी स्थिति दयनीय थी। तब गांव आबाद था। वर्षा पर निर्भर होने के बावजूद लोग खेतों में बहुत मेहनत करते थे। गेहूं, धान, मडुवा, बाजरा, कौणी, मांदिर, मसूर, उड़द, गहत, रैंस, सरसों, तिल, चुवा, मिर्च, भांग, वगैरह बोए जाते थे। साग-सब्जी-फल-फूल-कंद से बाड़े भरे रहते थे। गाय, बैल, भैंस और बकरियां पाली जाती थीं। दूध-दही-छांस-घी सबको उपलब्ध था। मधुमक्खियों के एक-दो छत्ते हर घर में होते थे। साझेदारी का जीवन था और वह सबसे बड़ा सहारा हुआ करता था। सबसे बड़ा दुख बीमारों को इलाज न मिलना था। यही आज भी सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है।
सन 1980 की गर्मियों में मैंने अपने गांव का मोटा-मोटा सर्वेक्षण-सा किया था। उसके आधार पर ‘नैनीताल समाचार’ में तीन किस्तों में गांव का जो हाल लिखा था, उसका एक अंश देखिए- “34 मवासों के मेरे गांव के 23 लड़कों ने हाईस्कूल से लेकर एमए तक की शैक्षिक सीढ़ी चढ़ी है लेकिन इनमें से एक भी गांव में नहीं है। कक्षा पांच से कक्षा दस के बीच पास या फेल 17 लड़के भी ‘नौकरी’ पर हैं। गांव में 40-50 के करीब 10 से कम आयु के बच्चे हैं जिनमें से कई अगले साल और कई उससे अगले साल तक शहरों को चले जाने का सपना संजोए हैं। 13 परिवारों के मुखिया शहरों में नौकरी (सेना में सिपाही से लेकर सरकारी दफ्तरों की चतुर्थ श्रेणी सेवा तक) पर हैं। 13 परिवारों के मुखिया अवकाश प्राप्त कर घर आ चुके हैं। नौ परिवार ऐसे हैं जिनका कोई भी सदस्य बाहर नहीं है और इसका कारण यह है कि उनका कोई बाहर जाने लायक अभी नहीं है। अत: खेती के अलावा उनका कोई आर्थिक आधार नहीं है। 15 परिवार ऐसे हैं जिनमें अकेली स्त्री ही (साथ में छोटे बच्चे भी) घर पर हैं। 10 परिवार ऐसे हैं जिनमें अब 50-60 से ऊपर के बूढ़े-बुढ़िया रह गए हैं, क्योंकि बाकी लोग शहर वाले हो गए हैं। हाल के वर्षों में जिन 10 युवकों की शादी हुई है उनमें से छह की पत्नियां पति के साथ शहरवासी हो गई हैं। बाकी इसका सपना देख रही हैं। यह प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है, जबकि शादी के पीछे मुख्य भाव परिवार में एक काम-काजी लड़की जोड़ना होता है। 34 में से 3-4 परिवार ही ऐसे हैं जिन्हें अनाज खरीदना नहीं पड़ता। अन्य परिवारों में बाजार से नमक, तेल, गुड़, साबुन, कपड़ा, आदि के साथ-साथ गेहूं-चावल खरीदने का क्रम भी साल भर चलता रहता है। परिवार में लोग कम होते गए तो गोठ में जानवर भी घटते गए। एक-एक गोठ में दर्जनों बकरियां पालने वाले इस गांव में अब कुल मिलाकर एक दर्जन बकरियां भी नहीं हैं। दो भैंसे पालने वाले मुश्किल से तीन परिवार हैं और पूरे गांव में सिर्फ एक परिवार के पास दो बैल हैं। कुछ ने एक-एक बैल का साझा कर रखा है, बाकी मांगकर काम चलाते हैं। गांव में नल नहीं हैं। धारा या नौला 2-3 फर्लांग दूर है। मामूली अस्पताल और अच्छा श्मशान बराबर दूरी (पैदल 5-6 किमी) पर हैं। सड़क पांच किमी दूर है, डाकखाना चार किमी दूर है। पोस्टमैन 15 दिन से लेकर डेढ़ महीने के अंतराल में कभी भी आ सकता है। लखनऊ से चिट्ठी पहुंचने में 15 दिन से लेकर दो माह तक लग जाते हैं। चिट्ठी और तार में यहां कोई अंतर नहीं है। गांव से ब्याह कर गई किसी भी लड़की की शैक्षिक योग्यता पांच पास से ज्यादा नहीं है, पर गांव में ब्याह कर आई लड़कियां इण्टर व बीटीसी भी हैं। यह दीगर है कि वे गांव में टिकी नहीं। चिट्ठियां लिख-पढ़ सकने वाली औरतों की संख्या इधर बढ़ी है पर अंग्रेजी लिख-पढ़-समझ सकने वाला कोई नहीं है। चार-पांच साल पहले पूना में कार्यरत एक ताऊ जी के निधन के बाद उनकी पेंशन-ग्रेच्युटी आदि के अंग्रेजी में आए कागजात पढ़वाने और उत्तर लिखवाने के लिए ताई जी को एक आदमी को मजूरी देकर नौ मील दूर कांडा इण्टर कालेज भेजना पड़ा था। .... अगले पांच-दस सालों में जब गांव में बुजुर्ग पीढ़ी नहीं रह जाएगी, तब के अपने गांव की उजाड़, डरावनी शक्ल की कल्पना से मैं कांप उठता हूं।”
आज से 44 वर्ष पहले लिखी गई रिपोर्ट का यह अंश गवाह है कि आज जो मैं देख रहा हूं, उसके लक्षण बहुत पहले से गांव में साफ दिखाई दे रहे थे। यह कमोबेस पहाड़ के सभी गांवों का हाल था। हमारे बाबू की पीढ़ी तक नौकरी के लिए बाहर गए लोग रिटायर होकर गांव लौट आते थे। हमारी पीढ़ी, जो पढ़ने के लिए शहरों की ओर गई या पहाड़ में ही कहीं पढ़ने के बाद मैदानी शहरों में नौकरी करने लगी, अनेक कारणों से गांव से विमुख होती गई। 1990 के दशक से शहरों का जीवन खूब चकाचौंध भरा हो गया था जबकि गांव वैसे ही कष्टसाध्य और आवश्यक सुविधाओं से वंचित बने हुए थे। 1976 तक हमारे गांव से मोटर सड़क नौ मील दूर (कांडा में) थी और प्राइमरी स्कूल तीन-चार मील धारी गांव में। उसके बाद मोटर सड़क पांच किमी करीब (बांस-पटाण वाया सेराघाट) आ गई थी और 1977-78 के आसपास गांव में ही प्राइमरी स्कूल भी खुल गया था। अब साल भर पहले (2023) कच्ची सड़क गांव तक पहुंच गई है जबकि गांव में चंद बूढ़े ही बचे हैं और प्राइमरी स्कूल के भवन का खण्डहर ही शेष है। इस पूरे दौर में नौकरी के लिए बाहर गए गांव वालों में बच्चों की अच्छी शिक्षा, उनके करिअर के अवसरों और चिकित्सा समेत अन्य सुख-सुविधाओं ने शहरों में ही बसने की स्वाभाविक चाह पैदा कर दी थी। जो युवक दूर शहरों में रोजगार न पा सके उन्हें हल्द्वानी, रामनगर, रुद्रपुर जैसे तराई-भाभर के शहरों ने आकर्षित कर लिया। 2000 में उत्तराखंड राज्य बनने के बाद राजधानी देहरादून के अलावा पहाड़ के दूसरे शहर भी आश्रयदाता बन गए। अब तक कुछ बूढ़े-बुढ़िया भी मजबूरी में बच्चों के साथ शहर चले गए थे तो कुछ अलग तरह की मजबूरी के कारण गांव में बने रहे। आज जो चंद मानुख हमारे गांव को ज़िंदा रखे हैं, उनके पीछे कुछ न कुछ मजबूरियां ही हैं।
1980 के दशक से एक और बड़ा बदलाव विशेष रूप से ब्राह्मणों के गांवों में दिखने लगा था। हमारा गांव पूरी तरह ब्राह्मणों का गांव है या था। हलवाहों (शिल्पकार) के दो परिवार गांव के बाहर कभी बसाए गए थे जो पचास-साठ से लेकर सौ रुपए तक के कर्ज के ब्याज के ऐवज में ताउम्र हमारे के खेतों में हल चलाया करते थे। इस आशय का लिखित इकरारनामा उनके साथ किया गया था। हमारे स्कूली दिनों में ही उनमें से एक परिवार तराई की ओर चला गया था। बचा एक ही परिवार जिसके बूढ़े मुखिया और पांच बेटों पर पूरे गांव की हलवाही का जिम्मा था। शिक्षा और सामाजिक चेतना की एक किरण ने उस परिवार को भी हलके से छुआ। सो, उस परिवार से भी दो-तीन युवक रोजगार की तलाश में बाहर निकले तो ब्राह्मणों को हलवाहे का संकट सताने लगा। पड़ोसी गांवों के शिल्पकारों ने हल चलाने के ऐवज में पूरी मजदूरी मांगनी शुरू की। हल की मूंठ छूने पर ब्राह्मणों को नरक में भी ठौर न मिलनी थी। सो, पहले खेती विलम्बित होने लगी, फिर बुवाई का रकबा कम हुआ और बाद में खेती ही छूटने ही लगी। खेती छूटी तो गांव में टिके रहने अथवा परदेस से वापस लौटने का मुख्य आधार समाप्त होता गया। बाजार से मोल लेकर ही खाना है तो पहाड़ के गांवों की दुष्कर ज़िंदगी क्यों झेली जाए! पलायन पहाड़ के सभी गांवों से हुआ और अब भी हो रहा है लेकिन जो गांव पूरी तरह खाली हो गए या जहां चंद परिवार मजबूरी में टिके हुए हैं, उनमें अधिकांश ब्राह्मण-गांव हैं। स्वयं हल नहीं चलाने के कारण ही सबसे अधिक पलायन उन्हीं गांवों से हुआ है। हमारे गांव से लगे हुए ठाकुरों और शिल्पकारों के गांव आज भी आबाद हैं। वे अपने हाथों हल चलाते हैं और जानवरों से होने वाले नुकसान के बावजूद खेती कर रहे हैं। उन गांवों में चहल-पहल होने से जानवर भी कुछ दूर-दूर रहते हैं। हमारे गांव में जो चार-पांच परिवार हैं वे चार मील दूर राशन की दुकान से अनाज ढोकर चूल्हा जला रहे हैं। जानवर इतने करीब अड्डा जमाए हुए हैं कि साग-पात, फल-फूल भी नहीं होने देते।
मेरे बाबू दिल की गम्भीर बीमारी हो जाने के कारण रिटायरमेण्ट के बाद चाहकर भी गांव नहीं लौट पाए थे। इजा भी फिर लखनऊ आ गई थी। 1988 से 2017 के बीच मैंने गांव की कोई सुध नहीं ली थी। 2015 में नौकरी से रिटायर होने के बाद गांव का स्वच्छ-शीतल हवा-पानी इसलिए बहुत याद आने लगा कि प्रदूषण के कारण शहरों का जीवन खतरनाक होता गया था। छोटे भाई सतीश के सहयोग से 29 साल बाद गांव आना हो पाया। ढहते मकान को तनिक रहने लायक बनाया गया। हमारी ही तरह कुछ और परदेसी बूढ़े बिरादरों को भी गांव याद आया। उन्होंने भी खंडहर होते मकानों की मरम्मत की। आज गांव में दस-बारह मकानों की छतों में लाल-सिलेटी टिन की चादरें चमकने लगी हैं। कभी दो-चार दिन को वे गांव आने लगे हैं। देवताओं पर आस्था या उनका भय भी कुछ लोगों को दो-चार दिन के लिए खींच लाता है। विधायक जी पर दबाव डालकर कामचलाऊ कच्ची सड़क खुदवा दी गई है यद्यपि उन्होंने मदद करने में बड़ी आनाकानी की थी कि आपके गांव में तो वोटर ही नहीं हैं। एनडीए सरकार की ‘शौच मुक्त गांव’ योजना से काफी पहले यूपीए सरकार की ‘निर्मल ग्राम योजना’ में आबाद घरों के सामने शौचालय बनवाए गए थे। पेयजल योजना में घरों के आगे नल भी लगाए गए थे। पिछले दिनों ’जल जीवन मिशन’ के अंतर्गत गांव का पुराना धारा (जल स्रोत) सीमेंट और लोहे का पाइप लगाकर ‘ठीक’ करने की औपचारिकता भी पूरी की गई है। हाल ही में ‘हर घर नल’ योजना में आबाद घरों के सामने एक और पाइपलाइन बिछा दी गई है, हालांकि अभी नल में जल नहीं है। गांव में बिजली आए हुए भी कई साल हो गए। यह सारा ‘विकास’ तब आया जब अधिकांश मकानों में ताले लटक गए थे। उत्तर प्रदेश में रहते हुए पर्वतीय जिलों की उपेक्षा का खूब रोना रोया जाता था। नवम्बर 2000 में पृथक उत्तराखंड राज्य बन जाने के बाद गांवों का उजड़ना और तेज हुआ है।
लखनऊ का तापमान 42 डिग़्री सेंटीग्रेड चल रहा है लेकिन गांव में सुबह-शाम मोटा स्वेटर भी कम मालूम देता है। नहाने का पानी गरम करना पड़ रहा है। घने बांज-वन की निर्मल-शीतल हवा तन-मन स्वस्थ बना दे रही है। फेफड़े इतनी ऑक्सीजन पाकर चकित हैं। भांति-भांति की चिड़ियों का संगीत और पश्चिमी नभ पर संध्या रानी की चित्रकारी मुग्ध करती है। हिमालय का विस्तृत दृश्य सम्मोहित करता है। यहीं रह जाने की उमंग उठती है लेकिन एक भय इस चाह पर पानी फेर देता है। बुढ़ापे के तन पर कई रोगों की नज़र है। निकटतम डॉक्टर या स्वास्थ्य केंद्र सड़क मार्ग से 14-15 किमी (गणाई-गंगोली) और 22 किमी (बेड़ीनाग) दूर हैं। वहां भी समुचित आकस्मिक चिकित्सा मिल जाएगी, इसमें संदेह है। इसलिए मन चाहे जो कहे, तन को लखनऊ ही लौटना होगा। यह द्वंद्व भी हमारी ही पीढ़ी का है। हमारे बच्चों के लिए गांव के वीडियो ‘वाऊ फैक्टर’ हैं लेकिन उनके सपनों में जुकरबर्ग और एलन मस्क की दुनिया है।
हमारे जैसे परदेसियों के कभी-कभार दो-चार दिन के लिए ‘घर’ आने और ढहती छतों पर टिन की चादरें छवा देने से गांव कब तक बचेगा? कच्ची सड़क कभी पक्की हो गई तो भू-माफिया और पर्यटन का धंधा करने वालों की नजर यहां की जमीन भी लील लेगी। रानीखेत और रामगढ़ जैसे कई इलाके इसकी गवाही दे रहे हैं। पर्यटन विकास के नाम पर केदारनाथ में भी पिकनिक और कैम्प फायर जैसे दृश्य ही उत्तराखंड की नियति बना दिए गए हैं।
-न जो
(समयांतर, जून 2024. नैनीताल समाचार में भी प्रकाशित)