वर्तमान मोदी सरकार की आलोचना का एक बड़ा कारण देश में बढ़ती बेरोजगारी है। इस पर पर्दा डालने की लगातार कोशिशें होती रहती हैं। कभी प्रधानमंत्री स्वयं तो कभी विभिन्न प्रदेशों के मुख्यमंत्री बेरोजगारों को नियुक्ति पत्र बांटने के लिए समारोह कराते हैं और उनका खूब प्रचार भी किया जाता है। ऐसा पहले कभी देखने में नहीं आया कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री नियुक्ति पत्र बांटते हों।
अभी दो रोज पहले केंद्रीय श्रम मंत्री मनसुख माण्डवीय ने दावा किया कि देश में रोजगार में लगे कुल लोगों की संख्या बढ़कर 2023-24 में 64 करोड़ हो गई है जो कि 2014-15 में 47 करोड़ थी। यानी बारोजगार जनता की संख्या में एक दशक में 17 करोड़ की वृद्धि हुई है, जबकि इससे पहले के दशक (2004-14) में यूपीए सरकार के कार्यकाल में मात्र 2.9 करोड़ लोगों को रोजगार मिला था। उन्होंने यह भी दावा किया 2017-18 के बाद से बेरोजगारी दर में गिरावट आई है और रोजगार दर (कुल जनसंख्या और रोजगारयुक्त लोगों का अनुपात) के साथ-साथ श्रमिकों की भागीदारी में भी लगातार वृद्धि हुई है।
केंद्रीय श्रम मंत्री के दावे की पड़ताल करते हुए Indian Express अखबार ने 06 जनवरी 2025 के अपने सम्पादकीय में लिखा है कि केंद्रीय श्रम मंत्री ने आंकड़े देकर चौतरफा सुधार की बात कही है लेकिन इस पर शंका करने के पर्याप्त आधार हैं। यह सही है कि 2004-14 के दशक की तुलना में 2014-24 के दशक में रोजगार वाले लोगों की संख्या अधिक है लेकिन इन आंकड़ों को कुल जनसंख्या से तुलना करते हुए देखना चाहिए। सबसे अच्छा तरीका यह है कि रोजगार दर की तुलना की जाए। यानी यह देखा जाए कि कुल जनसंख्या की तुलना में कितने प्रतिशत लोग रोजगार में लगे हैं।
अखबार के अनुसार पिछले दो दशकों में भारत की रोजगार दर में आए परिवर्तन के आंकड़े इस प्रकार हैं- 2004-05 में, जो कि यूपीए सरकार का पहला साल था, रोजगार दर 62.2 प्रतिशत थी। उसके बाद सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में तो अभूतपूर्व वृद्धि हुई लेकिन रोजगार दर 2009-10 में घटकर 55.9 प्रतिशत रह गई और 2011-12 में और गिरकर 54.7 फीसदी रह गई। 2014 के बाद एनडीए सरकार के पहले चार सालों में रोजगार दर लगातार गिरते हुए 2017-18 में मात्र 46.8 रह गई थी। रोजगार का यह सबसे कम स्तर था। इसके बाद अवश्य रोजगार दर बढ़ना शुरू हुई और 2023-24 के अंत तक 58.2 फीसदी हो गई। तब भी यह यूपीए सरकार के समय की रोजगार दर से कम ही है। इसी तरह श्रमिक वर्ग की भागीदारी (काम मिलने की स्थितियां) दर भी लगातार गिरती आई है। 2004-05 में यह 63.7 % से गिरकर 2017-18 में 49.8 % हो गई। अगर बेरोजगारी दर (कुल रोजगार लायक जनसंख्या की तुलना में बेरोजगार आबादी का प्रतिशत) को देखें तो वह 2004-05 और 2011-12 में गिरी और फिर 2017-18 में बढ़कर 45 पहुंची।
अखबार यह भी लिखता है कि हाल के वर्षों रोजगार के जो आंकड़े कुछ बढ़े भी हैं वे 'निम्न श्रेणी के रोजगार' हैं। यानी देश में जो रोजगार बढ़े भी हैं उनका स्तर अच्छा नहीं है। उदाहरण के लिए, केंद्रीय श्रम मंत्री ने बताया कि 2004-14 में यूपीए के शासनकाल में कृषि क्षेत्र में रोजगार 16 फीसदी गिरा जबकि मोदी के शासन काल में 2014-2023 के बीच इसमें 19 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई। कृषि क्षेत्र में रोजगार बढ़ना पिछड़ने की निशानी है क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था औद्योगिक प्रगति की ओर बढ़ने का प्रयास कर रही है। औद्योगिक क्षेत्र में रोजगार घटने से ही श्रमिक कृषि क्षेत्र की ओर गए। यही नहीं, जो रोजगार इस बीच बढ़े हैं, उनमें 'स्व रोजगार' श्रेणी की बहुतायत है, विशेष रूप से 'घरेलू इकाइयों में बिना वेतन के लगे सहायक।'
अखबार लिखता है कि यह बढ़ते गम्भीर आर्थिक संकट की निशानी है।