Monday, November 03, 2025

मंगलेश डबराल पर 'उद्भावना' का बेहतरीन विशेषांक

अजेय कुमार 38 वर्षों से, 'उद्भावना' पत्रिका का सम्पादन करते आए हैं। बीच-बीच में वे रचनाकर-विशेष या विषय केंद्रित विशेषांक भी निकालते रहे हैं। ताज़ा विशेषांक (सितम्बर 2025, अंक 159-60) मंगलेश डबराल पर केंद्रित है। 384 पृष्ठों का यह विशेषांक आकार में ही नहीं, अपनी सामग्री और स्तर के लिहाज से भी वृहद है। इसमें मंगलेश जी के व्यक्तित्व व कृतित्व के सभी पक्षों पर उनके करीबी रहे और उनके रचना संसार को बेहतर जानने वालों ने लिखा है।

विशेषांक को "मंगलेश : मनुष्यता पर इसरार" कहा गया है।  

मंगलेश डबराल निस्संदेह हमारे समय के बड़े कवि हैं। अजेय कुमार के शब्दों में "मंगलेश डबराल बड़े कवि इसलिए हैं कि उनकी निगाह उस यथार्थ को देख लेती है जिसमें मनुष्यता का मर्म भी शामिल है और उस पर हो रहे हमले भी, उनका पश्चाताप भी शामिल है और बहुत मद्धिम लय में वह सांस्कृतिक प्रतिरोध भी जो अपने मामूलीपन में ही भव्य हो उठता है।" 

और यह भी कि "राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता, उर्दू, नस्ल-भेद, अल्पसंख्यकों के अधिकार और साम्राज्यवाद के बारे में उनके दृष्टिकोण को देखते हुए यह अंक निकालने का फैसला लिया गया। मैं समझता हूं कि फासीवाद से लड़ने के लिए मंगलेश की रचनाएं हमारी मदद करती हैं।" 

दिसम्बर 2020 में कोरोना ने उन्हें हमसे छीन लिया। पांच साल हो गए। मंगलेश पर यत्र-तत्र छिट-पुट लिखा जाता रहा लेकिन हिंदी की अनेकानेक पत्रिकाओं  ने उन पर "विशेषांक निकालना तो दूर, शायद एक खण्ड देना भी जरूरी नहीं समझा।" इस पीड़ा और आश्चर्य के साथ अजेय जी ने यह विशेषांक निकाला है जो मंगलेश जी और उनकी रचनाओं को समग्रता में देखने-समझने की सटीक खिड़की है।

'मंगलेश की याद', 'संस्मरण', 'मंगलेश की कविता', 'चयनित कविताएं', 'कवि का गद्य', 'अनुवाद' तथा 'संगीत, सिनेमा और कथेतर गद्य' शीर्षक खण्डों में समायोजित यह अंक संग्रहणीय है। पहले खण्ड में मंगलेश जी के निधन के बाद उनकी स्मृति में लिखी गई कविताएं हैं। दूसरे में रविभूषण, मनोहर नायक, आनंद स्वरूप वर्मा, इब्बार रब्बी, नरेश सक्सेना,  अजय सिंह, विनोद भारद्वाज, प्रमोद कौंसवाल और उनकी बेटी अलमा डबराल के संस्मरण हैं। तीसरे खण्ड में अशोक वाजपेयी से लेकर शंकरानंद तक, पुरानी-नई पीढ़ी के बीस रचनाकारों ने मंगलेश जी की कविता पर टिप्पणियां की हैं। चौथा चयनित कविताओं का खण्ड है। 

पांचवें खण्ड में मंगलेश जी के कुछ महत्वपूर्ण लेख एवं गद्यांश हैं। उनका गद्य उनकी कविताओं से कम महत्वपूर्ण नहीं है। बल्कि, कवि का गद्य एक अलग ही चमक और गहराई लिए हुए है। इस खण्ड के प्रारम्भ में दिया गया चंद्रभूषण का लेख ठीक ही मंगलेश के गद्य  को 'सोचता हुआ और जिसमें मंगलेशियत बसी है' बताते हैं। मैंने 'अमृत प्रभात' लखनऊ में मंगलेश के कार्यकाल में उन्हें बड़े ध्यान से खबरों-लेखों को सम्पादित करते देखा है। उनके सम्पादन का लोहा सभी मानते थे। इसकी चर्चा भी यहां हुई है। 

अनुवादक के रूप में भी उनकी ख्याति रही है। विश्व के अनेक प्रसिद्ध कवियों की कविताओं के उन्होंने जो अनुवाद किए वे खूब चर्चित रहे। उनमें से कुछ अनुवाद खण्ड में संकलित हैं। उन्होंने चंद उपन्यासों का भी अनुवाद हिंदी में किया था। हरमेन हेस का उपन्यास 'सिद्धार्थ' मैंने उनके अनुवाद में ही पढ़ा है। 

अंतिम खण्ड सिनेमा और संगीत पर है।  दोनों विधाओं की उन्हें अच्छी समझ थी। संगीत उन्हें अपने पिता से विरासत में मिला था और खूब गाने के शौकीन थे, यद्यपि कभी बेसुरे भी हो जाते थे। इस खण्ड की शुरूआत में संजय जोशी का लेख उनके सिनेमा सरोकारों की चर्चा करता है।

इस तरह 'उद्भावना' का यह विशेषांक मंगलेश जी के निजी जीवन और रचना जगत का सही प्रतिनिधित्व करता है। इसीलिए पठनीय और संग्रहणीय है। वर्तमान दौर में जब देश की साझा विरासत को फासीवादी प्रवृत्तियां तार-तार करने पर उतारू हैं, मंगलेश जी पर, जो इन प्रवृत्तियों का सदैव विरोध करते रहे थे,  ऐसा अंक निकालना बहुत महत्वपूर्ण है। अजेय कुमार को साधुवाद। 

-न जो, 04 नवम्बर 2025   

Sunday, November 02, 2025

कविता से अपने मुल्क की ज़िंदगी के अर्थ खोजने वाले महमूद दरवेश

1977 में 'स्वतंत्र भारत' के सम्पादकीय विभाग में आ जाने पर मैं देखता था कि कई देशों के दूतावासों से तरह-तरह के प्रेस नोट डाक से आया करते थे। कभी-कभार कुछ किताबें या छोटी-छोटी पुस्तिकाएं भी आती थीं। पी एल ओ (इण्डिया) ऑफिस से भी सामग्री आया करती थी। फिलिस्तीन में चल रहे संघर्ष के प्रति स्वाभाविक ही अपना रुझान हुआ। यासिर अराफात हमारे हीरो बने हुए थे। 

एक बार पीएलओ (इण्डिया) ऑफिस को पत्र लिखकर कुछ फिलिस्तीनी कविताएं भेजने का आग्रह किया था। वहां की कुछ कविताएं 'दिनमान' में पढ़ने के बाद और पढ़ने की जिज्ञासा हुई थी। जवाब में 'फॉरएवर पैलस्टाइन' नाम का अंग्रेजी में एक कविता संकलन मेरे नाम आया। उसमें ग्यारह फिलिस्तीनी कवियों की 'प्रतिरोधी कविताएं' थीं। संकलन का सम्पादन किन्हीं पी एस शर्मा ने किया था, जिसमें अली सरदार जाफरी, भीष्म साहनी, गुलाम रब्बानी, कमलेश्वर, कैफी आज़मी और अमृता प्रीतम की सम्मतियां भी शामिल थीं। 

महमूद दरवेश का नाम मैंने उसी संकलन में पढ़ा था। अंग्रेजी में 'दरवेश' की स्पेलिंग 'डीएआरडब्ल्यूआईएसएच' लिखी होने से मैंने उसे दारविश पढ़ा था। सभी कविताओं में फिलिस्तीन के लिए प्रेम, उसके संघर्ष का समर्थन और विस्थापन का दर्द छाया हुआ था, जिसने भीतर तक भिगो दिया था। तब मैंने कुछ कविताओं का हिंदी में अनुवाद करके 'नैनीताल समाचार' को भेजा था। उनमें 'महमूद दारविश' की भी दो-एक छोटी कविताओं का अनुवाद था। 

दफ्तर में साथियों से उन कविताओं की चर्चा करते हुए पता चला था कि वह 'महमूद दरवेश' हैं। 'नैनीताल समाचार' को तुरंत एक पोस्टकार्ड डाला था कि नाम सुधार लेंगे।

आज यह सब याद आया चहेते लेखक-अनुवादक मित्र अशोक पांडे के अनुवाद में महमूद दरवेश की कविताओं का संकलन 'लौटूंगा उसी गुलाब तक' को हाथ में लेते हुए, जिसे हाल ही में सम्भावना प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। इस संग्रह ने मुझे मजबूर किया कि मैं कागजों-किताबों के ढेर में 'फॉरएवर पैलस्टाइन' नाम का वह संकलन तलाश करूं, जो 1977 में पढ़ा था और याद था कि सम्भाल लिया था। वह मिल भी गया। खुशी हुई कि उसमें दरवेश की 'इनवेस्टीगेशन' शीर्षक वह कविता भी शामिल है, जिसे अशोक ने 'पहचान-पत्र' नाम से अपने संकलन में रखा है। 

1977 में, जब मैंने दरवेश का नाम सुना था,  वे 36 साल के युवा और चर्चित कवि थे। 1970 में उन्हें दिल्ली में एफ्रो-एशियाई लेखक सम्मेलन का 'लोटस पुरस्कार' मिल चुका था। 1976 में प्रकाशित संग्रह 'फॉरएवर पैलेस्टाइन'  में दरवेश सबसे अंत में, ग्यारहवें नम्बर पर शामिल थे, हालांकि सम्पादकीय टिप्पणी में उन्हें फिलिस्तीनी प्रतिरोधी साहित्य का प्रमुख स्वर बताया गया था। 

कालांतर में दरवेश के कवि-कद, संघर्ष के उनके संकल्प और उनकी भूमिकाओं  ने नई ऊंचाइयां छुईं। उन्हें फिलिस्तीन के राष्ट्रकवि जैसा दर्ज़ा मिला। पीएलओ यानी फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन के महत्त्वपूर्ण पदों पर वे रहे। कई देशों में निर्वासित जीवन बिताते हुए फिलिस्तीनी संघर्ष को तेज करने में जुटे रहे। 

इस्राइल के खिलाफ उनके तेवर हमेशा बहुत तीखे रहे। यहां तक कि 1994 में अरब-इस्राइल संधि के कारण वे यासिर अराफात के भी विरुद्ध हो गए थे। रोमांचक किस्सा यह भी है कि 1998 में उन्हें डॉक्टरों ने मृत घोषित कर दिया था लेकिन वे किसी चमत्कार की तरह जीवित हो गए थे। इसके दस वर्ष बाद 2008 में अमेरिका के एक अस्पताल में दिल के ऑपरेशन के बाद उनका देहांत हुआ।  

महमूद दरवेश के परिवार को 1948 के अरब-इसराइल युद्ध के समय ही विस्थापित हो जाना पड़ा था। उन्होंने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा निर्वासन में बिताया। इसीलिए उनकी कविताओं में फिलिस्तीन प्रेम, विस्थापन की पीड़ा और अपनी मिट्टी के लिए निरंतर संघर्ष के स्वर बहुत मुखर हैं। प्रेम भी एक प्रमुख स्वर है और अक्सर प्रेमिका के प्रति प्यार मातृभूमि के लिए प्यार में प्रकट होता है। 

'लौटूंगा उसी गुलाब तक' संग्रह की 'फिलिस्तीन की एक प्रेमिका' शीर्षक यह कविता देखिए- "

फिलिस्तीन हैं उसकी आंखें

फिलिस्तीन है उसका नाम  

फिलिस्तीन है उसकी पोशाक और उसका दुख

उसकी रूमाल, उसके पैर और उसकी देह फिलिस्तीन

फिलिस्तीन है उसकी आवाज

उसका जन्म और उसकी मृत्यु फिलिस्तीन  

प्रेम के अलावा उनकी कविताओं में स्वाभाविक ही धरती, युद्ध, घाव, रक्त, मृत्यु, पत्थर, तोपें, बम, मां और फूल व तितलियां भी खूब मिलती हैं-

मैं कामना करता हूं कि हम गेहूं होते

ताकि हम मरते और दोबारा जीवित हो जाते

मैं कामना करता हूं कि धरती हमारी मां होती

ताकि हम पर रहम करती (धरती नजदीक आ रही है हमारे)

दरवेश की कविताओं में पराजय और हताशा नहीं, उम्मीद, संघर्ष, संकल्प, स्मृति और फसलों, रोटी की खुशबू मिलते हैं-

इस धरती पर वह सब है

जो जीवन को जीने लायक बनाता है-

अप्रैल की झिझक, अलस्सुबह रोटी की खुशबू

पुरुषों के बारे में औरतों का नजरिया

ऐस्किलस का लेखन, मोहब्बत की शुरुआत

एक पत्थर पर घास

बांसुरी की फूक पर अटकी हुई माँएँ

आक्रान्ताओं के भीतर स्मृति का भय  (फिलिस्तीनी शिअली में थैंक्सगिविंग)  

इस संग्रह में अशोक ने 96 कविताओं का अनुवाद शामिल किया है। इनमें कुछ लम्बी और कुछ बहुत छोटी कविताएं हैं। इन्हें पढ़ना फिलिस्तीनी जनता के संघर्ष, सपनों, संकल्पों एवं जिजीविषा से रूबरू होना है। 

ऐसे समय में आज जबकि इस्राइल ने फिलिस्तीन में भीषण तबाही और नरसंहार मचा रखा है, 60 हजार से अधिक फिलिस्तीनी मारे जा चुके है, जिनमें अबोध शिशुओं की संख्या पंद्रह हजार से अधिक है, अधिकसंख्य इमारतें जमीदोज़ कर दी गई हैं, अस्पताल-स्कूल-राहत शिविर तक रॉकेट बमों से उड़ा दिए जा रहे हैं, अमेरिका उसका साथ दे रहा है और विश्व भर में प्रतिरोध के स्वर लगभग नदारद हैं,  दरवेश की कविताओं का यह संग्रह सशक्त प्रतिरोधी गूंज-अनुगूंज  जैसा है। 

काश, इस दुनिया में कविताएं मिसायलों पर भारी पड़ रही होतीं!

संग्रह के अंत में परिशिष्ट में डालिया कार्पेल (इस्राइली पत्रकार-लेखिका) से महमूद दरवेश की बातचीत  (सन नहीं दिया गया है लेकिन सम्भवत: 2006 में  यह इण्टरव्यू हुआ, जब उन्हें दो दिन के वीजा पर इस्राइल आने की अनुमति दी गई थी और वे हाइफा व रामल्ला गए थे)  शामिल की गई है। यह बातचीत फिलिस्तीनी संघर्ष, प्रतिरोधी साहित्य और महमूद दरवेश की साहित्यिक-वैचारिक दृष्टि को समझने में सहायक है। 

एक सवाल के जवाब में वे कहते हैं- "मैं कविता को एक आध्यात्मिक औषधि की तरह देखता हूं। मैं शब्दों से वह रच सकता हूं जो मुझे वास्तविकता में नज़र नहीं आता। यह एक विराट भ्रम होती है लेकिन एक पॉजिटिव भ्रम। मेरे पास अपनी या अपने मुल्क की ज़िंदगी के अर्थ खोजने के लिए और कोई उपकरण नहीं। यह मेरी क्षमता के भीतर होता है कि मैं शब्दों के माध्यम से उन्हें सुंदरता प्रदान कर सकूं और एक सुंदर संसार का चित्र खींचूं और उसकी परिस्थिति को भी अभिव्यक्त कर सकूं। मैंने एक बार कहा था कि मैंने शब्दों की मदद से अपने देश और अपने लिए एक मातृभूमि का निर्माण किया था।"   

उनसे पूछा गया था- "क्या आप अपने जीवन में दोनों देशों के बीच किसी तरह का समझौता देख सकेंगे?"

दरवेश का उत्तर था- "मैं उदास नहीं होता। मैं धैर्यवान हूं और इजरायलियों की चेतना में एक सघन क्रांति का इंतज़ार कर रहा हूं।"

दरवेश आज नहीं हैं लेकिन उनका इंतज़ार चला आ रहा है। 

(इस किताब के लिए सम्भावना प्रकाशन से 7017437410 पर सम्पर्क किया जा सकता है) 

- न जो, लखनऊ, 03 नवम्बर 2025  

Thursday, October 30, 2025

ऐसे ही लड़े और जीते जाएंगे समर

समकालीन जनमत के पोर्टल पर 2020-21 में मीना राय की जीवन-संघर्ष कथा- 'समर न जीते कोय'- के कई हिस्से पढ़ते हुए उनके लेखन की सादगी, निर्लिप्तता, जीवन-दृष्टि और अत्यंत सरल लेकिन प्रभावशाली गद्य ने ध्यान खींचा था। इस वर्ष इसे 'नवारुण प्रकाशन' ने इसी शीर्षक से पुस्तक रूप में प्रकाशित किया है। एक शिक्षक व बाद में प्राचार्य के रूप में उनके अनुभवों की कुछ किस्तें भी इसमें शामिल हैं। नवम्बर 2023 में उनके देहांत के कारण दोनों ही गहन जीवनानुभवों का सिलसिला अधूरा रह गया। तो भी वह जितना लिखा जा सका, उसमें वाम विचार को समर्पित, आम जन के सुख-दुख में भागीदार, बिना शिकायती, बेहतर जीवन के सपनों से सजी एक ईमानदार आपबीती है। इसीलिए वह बार-बार पढ़ने पर भी ताज़ी लगती है और पाठक के भीतर श्रद्धा व गर्व भरती है।  

यह किसी चर्चित महिला या लेखक की जीवनी नहीं है। मीना राय कोई लेखिका नहीं थीं। एक सामान्य स्त्री थीं जिन्होंने अपने जीवन में बड़े मानी भर दिए थे। उन्होंने एक कम्युनिस्ट होल टाइमर, रामजी राय से ब्याह करके गरीबी और वंचनाओं का जीवन खुशी-खुशी अपनाया, जिसमें किराए के एक कमरे, दो जून की सूखी रोटी, दवा और बच्चों की जरूरतों के लिए भी खूब संघर्ष शामिल रहा। यह जीवन रोते-बिसूरते नहीं काटा गया, बल्कि पार्टी के कामों के  लिए रामजी राय को पूरा समर्थन व सहयोग देते हुए, एक स्त्री की भीतरी जीवनी शक्ति से तमाम अभावों में भी आलोकित किया गया। उसमें बहुत सारे और परिवारों के सुख-दुख-संघर्ष भी शामिल हैं, जो इस यात्रा पथ के साझीदार बने-बनाए गए।

इस प्रकार का दुष्कर जीवन जीते हुए, संघर्ष में सपनों को जीवित रखते हुए, दूसरों के जीवन में मकसद भरते हुए जो समाज, गांव, कस्बे, पर्व-त्योहार,जातिगत भेदभाव, महिलाओं का दमन, दुर्व्यवहार, स्वार्थी व आत्मलिप्त लोग, वगैरह-वगैरह से सामना हुआ, वह अत्यंत सहज-सरल गद्य में लिखा गया है। यहां कोई लेखन का अतिरिक्त साहित्यिक प्रयास नहीं है। वह इतना सहज है जैसे कि सामने जिया जा रहा, लड़ा जा रहा जीवन देखा जा रहा हो। वह पाठक को इसमें अपने आप शामिल कर लेता है। वह मात्र आपबीती नहीं रह जाता। आम ग्रामीण-कस्बाई जीवन का साझा बन जाता है। भोजपुरी लटक के साथ होना अलग ही भाषा-सौंदर्य रचता है।

मीना राय ने जूझते हुए केवल अपने पारिवारिक दायित्व ही नहीं निभाए, उन्होंने पार्टी व संगठन के लिए भी बहुत कुछ किया। किताब की भूमिका में प्रणय कृष्ण ने लिखा है- "मीना भाभी एक साथ कितने परिवारों की सदस्यता निभाती थीं-- एक वो संयुक्त परिवार जहां से ब्याह कर वे आई थीं, एक वह परिवार जिसमें वे ब्याह कर गईं, एक वह जो उन्होंने अपने पति व बच्चों का खुद बनाया, एक प्रगतिशील छात्र संगठन का परिवार, एक पार्टी (सीपीआई-एमएल) परिवार, एक उस स्कूल की शिक्षिकाओं और विद्यार्थियों से मिल्कर बना परिवार जहां व पढ़ाने गईं, एक अपने मोहल्ले और पड़ोसियों का परिवार, एक 'समकालीन जनमत' का परिवार-- ये परिवार कई-कई अंशों में मीना राय के व्यक्तित्व के सूत्र से एक दूसरे में घुलते-से जाते थे।"

इस आपबीती की एक बड़ी खूबी इसकी निस्संगता-निर्लिप्तता है, जो चौंकाती भी है। एक स्त्री, जिसने कितना कुछ झेला और लड़ा, लिखते समय जैसे अपने से बाहर जाकर कहीं दूर खड़ी होकर देखती हो। यह विरल है।

'नवारुण' प्रकाशन (सम्पर्क- 9811577426) ने 'समर न जीते कोय' का प्रकाशन जिस लगाव, नए डिजायन-आकार और कलात्मकता के साथ किया है, वह उल्लेखनीय है और इस पुस्तक को मानीखेज बनाने में सहायक हुआ है।   

-न जो, 31 अक्टूबर 2025  

        

Wednesday, October 08, 2025

कर्बला दर कर्बला - ताकि अंतत: मुहब्बत लिखी जाए

गौरीनाथ का उपन्यास 'कर्बला दर कर्बला' (अंतिका प्रकाशन, 2022) पूरा करते-करते पाठक गहरे सदमे और आक्रोश से भर उठता है। कबूतर के बच्चों को बिल्ली ने मुंह में नहीं दबोचा, पाठक की गर्दन ही नफरतियों ने चबा डाली! 

वह नरसंहार का साक्षी बनकर जड़-सा रह जाता है। यह लेखक की कल्पना नहीं है। यहां भागलपुर दंगों के काले इतिहास को कथा में पिरोया हुआ है। 1980 के दशक के सच्चे किस्से। 1989 का नरसंहार।    

उपन्यास की कथा 1980 के दशक के बिहार से शुरू होती है। भागलपुर इसके केंद्र में है। 1980 का कुख्यात अंखफोड़वा कांड हो चुका है। पुलिस किस सीमा तक बर्बर हो सकती है, देश जान चुका है। फिर शुरू होती हैं राजनीतिक प्रतिद्वन्द्विता की साजिशें। उसका चारा बनाई जाती भोली-भाली जनता। इसी बीच अयोध्या से उठा 'मंदिर वहीं बनाएंगे' का नारा। नगर-नगर राम शिला पूजन से उठता हुआ नफरती गुबार। पुलिस का साम्प्रदायीकरण। 

1989 में भागलपुर के भीषण साम्प्रदायिक दंगे इसी बिसात पर कराए गए। कांग्रेस का राज था। दक्षिणपंथी ताकतें सिर उठाने लगी थीं। पर्दे के पीछे दोनों की मिलीभगत भी रही। इस षडयंत्र को पूरी तरह खोलकर रख देने के लिए लेखक ने बहुत सारे तथ्यों, जांच रिपोर्टों, प्रत्यक्षदर्शियों के बयानों एवं अन्य दस्तावेजों का सहारा लिया है। उस सबको कुशलता से कथा में गूंथा है। भागलपुरी सिल्क और बुनकरों की व्यथा-कथा सुनाना भी वह नहीं भूला है।  

इस उपन्यास को पढ़ना एक कथानक के सुख-दुख से गुजरना ही नहीं है। भागलपुर दंगों के कई गोपनीय रखे गए दस्तावेजों से गुजरने की मर्मांतक पीड़ा से भी दो-चार होना है।  इन दस्तावेजों को हासिल करने के लिए बहुत श्रम और शोध किया गया दिखाई देता है। हिंदी उपन्यासों में ऐसा कम ही दिखता है।

कहानी 1978 में बिहार के एक गांव से शुरू होती है। तब तक 'ताजिए को देखने के लिए अलग-अलग रंग के चश्मे नहीं आए थे'। गांव के प्रभावशाली एक परिवार का युवक मुदित जब नजरुल बुढ़वा की नातिन को ब्याह लाता है तो  नज़र बदलने का खेला शुरू हो जाता है। उसी रात नव-दम्पति की कोठरी को घेरकर आग के हवाले कर दिया जाता है। 

उस जोड़ी का क्या हुआ कोई नहीं जानता (पाठक आगे जान जाएगा)  मगर इसी किस्से से  उपन्यास के नायक शिव की गढ़न शुरू होती है। वह मेधावी होने के बावजूद सबकी तरह इंजीनियर बनने की राह नहीं पकड़ता। खूब पढ़-लिखकर, समाज व इतिहास दृष्टि से सम्पन्न होना चाहता है। प्रोफेसरी की कठिन राह चुनकर उच्च शिक्षा के लिए भागलपुर पहुंचता है। 

भागलपुर में एक नई और बड़ी दुनिया है। वहां कॉलेज है। सतवीर, रितेश, मधु, प्रीति, सरफराज, सुशील, जरीना, जैसे कई दोस्त हैं। एक समृद्ध पुस्तकालय है। प्रो कर्ण और प्रो मित्रा जैसे शिक्षक हैं। पठन-पाठन से विकसित होती हुई इनसानी समझ है। नफरत से लड़ने का विवेक जाग्रत होता है। 

उसी के समानांतर भागलपुर का काला इतिहास और विद्रूप वर्तमान शिव और साथियों के सामने आता है। दिन दहाड़े हत्या, भरी अदालत में हत्या, लड़कियों का अपहरण, वगैरह-वगैरह। राजनैतिक शरण में पनप रहे बाहुबली। अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री को पटकनी देने के लिए रचे जाते षड्यंत्र। 

अपराधियों के राज और बढ़ती साम्प्रदायिक नफरत  के बीच मुहब्बतों के अंकुर भी फूटते हैं। शिव की जरीना से और सतवीर की मधु से मुहब्बत इस नफरत को सीधे चुनौती है। वह युवाओं की ताकत  है। इस मुहब्बत को वे समाज में फैलाना चाहते हैं। जूझते हैं, पिटते हैं लेकिन हार नहीं मानते। उनका जीतना अभी होना बाकी है। 

धीरे-धीरे भागलपुर नफरत और हिंसा की आग में झोंका जाता है। एक के बाद एक भयावह कांड। कांड नहीं, नरसंहार। पुलिस के संरक्षण में। घरों में लाशें पड़ी हैं। गलियों में लाशें पड़ी हैं। लड़कियों के चीत्कार उठ रहे हैं। आग की लपटें हैं। खेतों में लाशें दफनाकर बोई गोभियां हैं। हालात से लाभ उठाते नेता और प्रोन्नतियां पाते दोषी पुलिस अफसर हैं। कल्पना नहीं, यथार्थ से सदमे में जाता पाठक है। 

गौरीनाथ ने बहुत विचलित होकर यह उपन्यास लिखा होगा पर भाषा में उनका संयम और संतुलन दिखाई देता है। अंतिम अध्याय 'नरसंहार- खेल या कारोबार' को छोड़कर बाकी जगह वे तथ्यों को अखबारी विवरण बना देने से बचे रह सके हैं। 

ये तथ्य अत्यंत विचलित करने वाले हैं लेकिन गौरीनाथ का उद्देश्य पाठक को दहशत से नहीं, मुहब्बत से भर देने का है। उन्होंने कहा भी है- "यह अफसाना उस भीषण नरसंहार की वीभत्सता के ऊपर मुहब्बत लिखने की छोटी सी कोशिश है।" 

यह मुहब्बत का लिखा जाना जारी रहना चाहिए। कामयाब होना चाहिए। 2014 के बाद का समय 1980 के दशक की तुलना में और भी भयानक है। नफरत का गुबार कहीं ज़्यादा जोरों से उठाया जा रहा है। 'कर्बला दर कर्बला' का सिलसिला रुकना चाहिए। मगर कैसे? 

इसी बेचैनी में इस उपन्यास की सार्थकता है। 

- न जो, 09 अक्टूबर 2025    

         

 

 

 

 

 

Tuesday, September 30, 2025

सघन जन सम्पर्क और सड़कों पर उतरे बिना रास्ता नहीं

खैर, उत्तराखण्ड में आज भी सार्थक परिवर्तन की दिशा में काम करने वाली ताकतें सक्रिय हैं। कम और बिखरी-बिखरी ही सही, लेकिन हैं। वे भी सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं। सड़क से ज़्यादा सोशल मीडिया पर। नए जमाने में यह स्वाभाविक भी है।

लेकिन जरा यह बताइए कि उत्तराखण्ड लोकवाहिनी के वाट्सऐप ग्रुप में कितने सदस्य हैं- 134। परिवर्तन पार्टी के कितने सदस्य सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं- 224 । हेलंग आंदोलन के समय भी एक ग्रुप बना था। उसमें 108 सदस्य हैं। जन हस्तक्षेप ग्रुप में 17 सदस्य है। नैनीताल समाचार के तीन ग्रुपों में करीब ढाई- तीन सौ लोग हैं। वाम दलों के भी कुछ ग्रुप हैं। सब मिलाकर हजार-डेढ़ हजार से अधिक सदस्य होंगे क्या? बहुत सारे लोग तो सभी ग्रुपों में कॉमन हैं। चलिए, सब मिलाकर पांच हजार मान लेते हैं। तो?

तो साथियो, अब बताइए, क्या इससे अंकिता भण्डारी या जगदीश की हत्या, अवैध खनन, जन संसाधनों की लूट, नफरती एजेंडे, आदि-आदि के विरुद्ध हम जनता को जाग्रत कर सकते हैं? अगर हम यह सोचते हैं कि हम भी अपने फेसबुक और वाट्सऐप ग्रुप बनाकर प्रभावशाली प्रतिरोध का झण्डा उठाए हुए हैं तो यह बच्चे को बहलाने के झुनझुने से अधिक नहीं है। 

यह नहीं कह रहा हूं कि यह निरर्थक है और नहीं करना चाहिए। जरूर करना चाहिए। एक छोटा सा दिया ही सही, अवश्य जलाते रहना चाहिए लेकिन जितना अंधकार है, जैसा तूफान है, जो झंझावात है, उसकी विध्वंसक ताकत को अच्छी तरह पहचानना और उससे भिड़ने के रास्ते तलाशते रहना होगा।

दोस्तो, शमशेर के समय में और उससे पहले यह हाहाकारी संकट नहीं था। तब सूचनाएं पाना कठिन था लेकिन झूठी-नफरती सूचनाओं की बमबर्षा नहीं होती थी। यथासम्भव तथ्यपरक सूचनाओं के स्रोत थे। अखबार थे और दबावों के बावजूद सच भी लिख ही देते थे। टी वी इतना एकतरफा नहीं था। सरकार को आईना दिखाने वाले पत्रकार काफी संख्या में मौजूद थे।

शमशेर नियमित रूप से बीबीसी सुनते थे। दिनमान पढ़ते थे। जो भी अखबार उपलब्ध होते थे, पढ़ते थे। किताबें पढ़ते थे। बाद में लिखने भी लगे। पहाड़ की पूरी और सच्ची तस्वीर नहीं छपती थी तो प्रतिकार करते हुए लिखते थे। जगह-जगह दौरा करके, पीड़ित जनता से मिलकर, प्रशासन से सवाल पूछकर असली तस्वीर सामने लाते थे।

मुझे याद है, आप में से बहुतों को याद होगा, कई पुराने साथी यहां बैठे हैं, 1977 में जब तवाघाट में भारी वर्षा और भूस्खलन से खेला, पलपला, कौलिया, वगैरह गांव में जबर्दस्त तबाही मची थी तो शमशेर और उनके कई साथियों की टीम तत्काल वहां गई और कई दिन तक डटी रही थी। पीड़ित परिवारों के पुनर्वास के लिए कई दिन आंदोलन चला था। 1978 में उत्तरकाशी में भागीरथी की भयावह बाढ़ के समय गिर्दा और शमशेर अपनी जान पर खेलकर वहां पहुंचे थे जहां तक सरकार और प्रशासन भी नहीं पहुंच सके। नए शोधार्थी और पत्रकार नैनीताल समाचार की फाइलों को वह सब देख-पढ़ और सीख सकते हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं।

कहना मैं यह चाहता हूं कि यदि आज हमारी पत्रकारिता जिम्मेदार होती, उतनी न सही, कुछ कम भी जिम्मेदार होती, पूरी तरह चारण और बिकी हुई नहीं होती, तो भी शायद जनता, युवा पीढ़ी सोशल मीडिया के झूठ, एकतरफा और नफरती एजेण्डे की कैद से कुछ बची रह सकती थी। कहीं से तो उसे थोड़ी रोशनी मिल रही होती। पत्रकारिता में कुछ तो होता जो युवा वर्ग का विवेक जगाता, उसकी संवेदना को झिंझोड़ता, कुछ आक्रोश भरता। तो भी शायद हम इतने बुरे दौर से, इतनी चुप्पी से नहीं गुजर रहे होते।

पत्रकारिता की क्या तस्वीर आपके सामने पेश करूं! मैंने 38 वर्षों तक प्रांतीय और राष्ट्रीय अखबारों में नौकरी की और यथासम्भव पत्रकारिता की। आज मैं अपना परिचय पत्रकार के रूप में नहीं देता। शर्म आती है। पत्रकारों की ऐसी छवि बन गई है।

कुछ दिन पहले विख्यात पत्रकार पी सांईनाथ का एक व्याख्यान सुना। उनकी स्थापना है कि मीडिया और पत्रकारिता अब बिल्कुल अलग-अलग चीजें हैं। मीडिया कॉरपोरेट धंधा है जो शुद्ध मुनाफे के लिए चलाया जाता है। पत्रकारिता वह है जो हम अपनी रोजी-रोटी के लिए कुछ जिम्मेदारी के साथ करते हैं।

सांईनाथ एक और सत्य कहते हैं- फ्रीडम ऑफ प्रेसजैसी कोई चीज नहीं रही। जो है, वह फ्रीडम ऑफ पर्सहै। बटुए से सब कुछ खरीदा जा रहा है- मीडिया भी और पत्रकारिता भी। पत्रकारिता की शुरूआत में हमें एक कहावत बताई जाती थी- सत्य का मुंह स्वर्णपात्र से ढका है।अब स्वर्ण पात्र इतना विशाल है कि सत्य पता नहीं किस कोने में है!

दोस्तो, मैंने दो साल पहले नैनीताल में पर्वतीयअखबार के सम्पादक विश्वम्भर दत्त उनियाल जी की स्मृति में हुए समारोह में मीडिया की कमाई का एक फॉर्मूला बताया था। नम्बर एक अखबार या चैनल को कुल विज्ञापनों का 60 फीसदी मिलता है। नम्बर दो को बीस फीसदी और बाकी बीस फीसदी में बाकी सब निपटते थे। अब यह फॉर्मूला फेल हो गया है।

अब कोई गणित नहीं है। अब बकौल पी सांईनाथ फ्रीडम ऑफ पर्स है। कोई कितना बिक सकता है, कोई कितना लेट सकता है, कोई कितना बड़ा झूठा अभियान चला सकता है, कोई कितना बड़ा मुंह खोल सकता है। यही फॉर्मूला चल रहा है।

इसी खुले मुंह में रोज प्रधानमंत्री कार्यालय से और मुख्यमंत्री कार्यालयों से एक सूची ठूंसी जाती है। उस सूची में होता है कि क्या-क्या छापना-दिखाना है, पहले पेज पर क्या होगा, प्राइम टाइम पर क्या होगा? कितना बड़ा छापना-दिखाना है, क्या नहीं छापना-दिखाना है। मुंह में इतना माल ठूंसा जाता है कि कोई इनकार नहीं कर सकता। इनकार करने वाले के लिए ईडी है, सीबीआई है। लोकल पुलिस भी काफी है।

अभी कुछ दिन पहले द वायरके सम्पादक सिद्धार्थ वर्दराजन और करण थापर पर सुदूर असम में दर्जनों एफआईआर दर्ज़ की गई हैं। पुण्य प्रसून बाजपेई, अभिसार शर्मा और रवीश कुमार को नौकरी से निकाला गया या उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। वरिष्ठ पत्रकार परंजय गुहा ठाकुरता गौतम अडानी समूह की वित्तीय अनियमिततओं पर लिखते-बोलते रहे हैं। उनके खिलाफ मुकदमों की सुनवाई एकतरफा ही हो रही हैं। कई और उदाहरण मिल जाएंगे। 

अखबार और टीवी चैनलों का मुंह सरकार किस तरह भरती है, सुनिए। संसद में खुद सरकार ने एक सवाल के जवाब में बताया है कि 2017 से 2022 के बीच सरकार ने मीडिया को कुल 33 करोड़ पांच लाख रु के विज्ञापन दिए। इनमें 17 करोड़ 36 लाख प्रिंट को और 15 करोड़ 69 लाख टीवी चैनलों को मिले। 

आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि तीन साल पहले तक देश में पंजीकृत पत्र-पत्रिकाओं की संख्या डेढ़ लाख थी। प्राइवेट चैनलों की संख्या 900 थी। दूरदर्शन स्वयं 36 सैटेलाइट चैनल और 100 फ्री टु एयर डी टी एच चैनल चलाता है।

फ्रीडम ऑफ पर्सके अलावा एक और बड़ा खतरा पत्रकारिता के लिए पिछले दस-पंद्रह वर्षों में खड़ा हो गया है।

वह है मीडिया संकेंद्रण’- मीडिया पर चंद हाथों का कब्जा। सुनिए-

भारत में पहला प्राइवेट टीवी चैनल शुरू करने वाले जीटीवी के सुभाष चंद्रा 2024 में आठ भाषाओं में 15 चैनल चला रहे थे।

सन टीवी वाले कलानिधि मारन, करुणाकरण के पोते, दस से ज़्यादा चैनल चलाते हैं।

मुकेश अम्बानी का नेटवर्क-18 26 राज्यों में 20 से ज़्यादा समाचार चैनल चलाता है।

तो, अकेले 60 फीसदी से अधिक मीडिया पर मुकेश अम्बानी का कब्जा है।

अखबारों का हाल सुनिए।

टाइम्स ऑफ इण्डिया ग्रुप, हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप और द हिंदू ग्रुप के अखबार 75 फीसदी पाठक पढ़ते हैं।

दैनिक जागरण, अमर उजाला, दैनिक भास्कर और हिंदुस्तान अखबारों को 76 फीसदी पाठक पढ़ते हैं। कुल हिंदी पाठकों के 25 फीसदी तक अकेले दैनिक जागरण की पहुंच है।

दक्षिण भारत में ईनाडु और साक्षी अखबारों को 71 फीसदी तेलुगु पाठक पढ़ते हैं।

एक और बात। ये सभी मीडिया कम्पनियां सिर्फ चैनल और अखबार ही नहीं चला रहीं, वे डिजिटल संस्करण, एफ एम चैनल, ऑनलाइन न्यूज पोर्टल, वीडियो न्यूज, फैशन चैनल और ओटीटी वगैरह पर भी काबिज हैं। इसी अनुपात में मुनाफे पर भी उनका कब्जा है।

यही मीडिया संकेंद्रण है। यह बहुत खतरनाक है। लगभग एक ही तरह के विचार-समाचार हममें से अधिकतर पाठकों-श्रोताओं के दिमाग में भरे जा रहे हैं। दूसरा पक्ष, वैकल्पिक विचार, अन्य विविध समाचार, उन पर अलग-अलग राय अधिकसंख्य लोगों तक नहीं पहुंच पाती।

ब्रिटेन में एक कानून है- कोई बड़ा अखबार टी वी न्यूज चैनल नहीं चला सकता। अमेरिका में कानून था कि एक व्यक्ति या कम्पनी एक क्षेत्र विशेष में अखबार, टीवी या रेडियो में से किसी एक ही माध्यम का संचालन कर सकता है। ट्रम्प ने इसे बहुत लचीला बना दिया है। वहां भी अब मीडिया चंद बड़े घरानों के हाथ में है। कुछ अन्य देशों में भी ऐसे नियम हैं। भारत में मीडिया मालिक पूरी तरह निरंकुश हैं।

पत्रकारिता को पहले ओपीनियन मेकर कहा जाता था। सारे पक्ष जनता के सामने रख दिए जाते थे ताकि वह अपनी राय बना सके। अब मीडिया ओपीनियन थोपरहै, एक ही राय थोपता है। राय बनाने का विकल्प नहीं देता।

एक ही बात, एक ही तरह के विचार सुनते-सुनते हम उसे ही मानने लग जाते हैं। उसका परीक्षण करने का, उस पर सोचने का हमारा विवेक छिन जाता है।

मार्शल मैक्लुहन नाम के एक विख्यात मीडिया अध्येता हैं। उन्होंने इस प्रवृत्ति के खतरों का गहन अध्ययन किया है। उनकी एक किताब है- “मीडियम इज द मैसेज। उन्होंने इस प्रवृत्ति को नार्सिस नार्कोसिस नाम दिया है। यानी मीडिया, विशेष रूप से सोशल मीडिया हमारी चेतना को सम्मोहित कर लेता है। सुन्न कर देता है। देश दुनिया में क्या-क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है, क्या गलत हो रहा है, यह सब हमें पता ही नहीं चल पाता। या, देख-सुनकर भी वह हमारे दिल-दिमाग को स्पर्श नहीं करता।

इंटरनेट एक्टिविस्ट एली पेरियर इसे फिल्टर बबलकहते हैं। इसी नाम से उनकी किताब भी है। यानी हम सोशल मीडिया के बनाए हुए एक अदृश्य गुब्बारे के भीतर कैद रहते हैं। अपना ही मनचाहा देखते-सोचते हैं। सोशल मीडिया का एल्गोरिदम यानी बुनावट ऐसी है कि हम जो पसंद करते हैं, वही वह बार-बार दिखाता-सुनाता है। इस तरह हम समाज हो रहे परिवर्तनों, दूसरी हलचलों, आदि से लगभग अछूते रह जाते हैं। इसे ईको चैम्बर भी कहा गया है। एक ऐसा कमरा जहां एक जैसी अनुगूंज हमेशा बनी रहती है। 

ऐसे में हमें न अंकिता भण्डारी की हत्या परेशान करती है, न झूठ और नफरत का खेल, न अन्याय-उत्पीड़न, न विकास योजनाओं के पीछे छुपा विनाश। और, अगर कहीं थोड़ा-बहुत प्रभावित करता भी है तो हम सोशल मीडिया पर ही एक पोस्ट, या कोई इमोजी, वगैरह लगाकर सोचते हैं कि हमने अपनी जिम्मेदारी निभा दी।

जैसे किसी की मृत्यु की सूचना पर लिख देते हैं रिप’- आर आई पी!

तो साथियो, जब 60-70 प्रतिशत आबादी, विशेष रूप से युवा वर्ग अपने-अपने फिल्टर बबल और ईको चैम्बर में कैद है तो हम कैसे उम्मीद करें कि हमारे छोटे-छोटे प्रतिरोधी ग्रुपों की राय कोई सुन रहा होगा। जमीनी पत्रकारिता कर रहे कुछ युवाओं की निष्पक्ष और जनपक्षीय रिपोर्टिंग देख-सुनकर लोग प्रभावित होंगे और जागेंगे? कैसे आशा करें कि हमारी प्रेस विज्ञप्तियां अखबारों के किसी कोने में छप भी गईं तो उन्हें कोई पढ़ेगा और सक्रिय होगा?

अभी थराली हादसे के समय जब राहुल कोठियाल, हृदयेश जोशी जैसे पत्रकार जोखिम उठाकर सच देखने-दिखाने गए तो उनके वीडियो को एकतरफा, सरकार विरोधी, आदि-आदि ठहराने वाले कई वीडियो सामने आ गए। उनके हिट्स की संख्या देख लीजिए, उन पर कमेण्ट पढ़ लीजिए, सोशल मीडिया की ताकत का पता चल जाएगा। अखबारों का भी कमोबेश वैसा ही स्वर है।

तो दोस्तो, इस निराशाजनक हालात में स्वाभाविक सवाल है कि क्या करें। रास्ता नहीं सूझता। निराशा घर कर रही है। पुराने एक्टिविस्ट साथी हताश और अकेले होते जा रहे हैं। कुछ साथी लगातार सक्रिय भी हैं। सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक जूझ भी रहे हैं।

देश-प्रदेश के कई कोनों में प्रतिरोध की लौ जली हुई है। हाल के वर्षों में शाहीनबाग आंदोलन और किसानों की दिल्ली-घेराबंदी सबसे बड़े प्रतिरोधी जनांदोलन हुए। मीडिया ने उनकी भी उपेक्षा ही की। सोशल मीडिया में उनके खिलाफ कैसा-कैसा घिनौना दुष्प्रचार हुआ, आप जानते हैं।

पिछले ही सप्ताह आपने नैनीताल में अंकिता भण्डारी के मामले में एक प्रदर्शन किया। भागीदारी कम है, लेकिन है। इससे उम्मीद बनी रहती है। ये प्रतिरोध और यत्र-तत्र विरोध-प्रदर्शन हमारी रोशनी हैं।  

एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि जो सोशल मीडिया आज व्यापक स्तर पर उस ओर झुका हुआ है, जब कभी हवा बदलेगी तो वह उतनी ही ताकत से इस ओर झुक आएगा। तब परिवर्तन की लहर इतनी तेज होगी कि आज कल्पना करना मुश्किल है।

तो, छिट-पुट ही सही, प्रतिरोध की लौ जलाए रखनी होगी। लेकिन इतने से ही काम नहीं चलने वाला।

शमशेर के समय को याद कीजिए। वह सघन जन-सम्पर्क का दौर था। गांवों-कस्बों की यात्राओं, सभाओं का दौर था। जनता से सीधे बात होती थी। उसका असर होता था।

नैनीताल में दर्जन भर युवाओं का जुलूस शहर भर को जगाकर वनों की नीलामी रुकवा देता था। बसभीड़ा की छोटी सी सभा तत्काल नशा नहीं रोजगार दोआंदोलन में बदल जाती थी। कई उदाहरण हैं। सब जन सम्पर्क से होता था।

आज यह आसान नहीं रहा। कारण गिना चुका हूं। हमारी बात सुनने वाले कान और दिमाग अपने-अपने फिल्टर बबल और ईको चैम्बर में हैं। वे सम्मोहित हैं। इस सम्मोहन को तोड़ना बिना सघन और निरंतर जन सम्पर्क के नहीं होगा। 

सोशल मीडिया विशेषज्ञ मीडिया साक्षरताका रास्ता सुझाते हैं। सोशल मीडिया में ही उसका कच्चा चिट्ठा खोल डालने के उपकरण छुपे हैं। उस अदृश्य गुब्बारे को फोड़ने का तरीका भी उसी सोशल मीडिया में है, जो इसे फुलाता है।

तो, आज की चंद मुख्य चुनौतियों को संक्षेप में गिनाता हूं- 

1.   जो सबसे जरूरी मुझे लगता है, वह है जनता से, ग्रामीणों से निरंतर सम्पर्क। सघन और निरंतर सम्पर्क। परिवर्तनकामी ताकतों की आज की सबसे बड़ी कमजोरी जनता से कट जाना है। वाम दलों से लेकर जन संगठनों तक का जनाधार सिकुड़ता गया है। तो, जनता से निकट और लगातार सघन सम्पर्क बनाना होगा।

2.   मीडिया साक्षरता को बड़ा अभियान बनाना होगा। यह लम्बी और कठिन लड़ाई है। सम्मोहन का गुब्बारा फूटेगा भी बहुत जल्दी। बस, उसे समझ की सुई चुभाने की जरूरत है। 

3.   शमशेर की पीढ़ी ने, उनके पीछे और बाद की पीढ़ियों ने भी ज्वलंत मुद्दों पर आंदोलन तो किए लेकिन जनता में राजनैतिक चेतना पैदा नहीं कर सके। यानी यह समझ कि हमारे दीर्घकालीन हित में क्या अच्छा है क्या बुरा।

4.   राजनैतिक और वैज्ञानिक चेतना ज़िंदा कौमों के लिए बहुत जरूरी है। यह समझ बनानी और फैलानी बहुत जरूरी है कि मुफ्त का राशन लेना ठीक है या रोजी-रोटी कमाने का पक्का जरिया मांगना। भीख चाहिए या अधिकार?

5.   हमारे संविधान की खूब तारीफ होती है। आज भी हो रही है। सब कहते हैं कि संविधान को बचाना है, लेकिन वास्तव में क्या बचाना है, यह समझ जन-जन तक नहीं पहुंचाई जा सकी। संविधान के मूल्य जीवन में नहीं उतारे जा सके।

6.   और, लोकतंत्र की भी समझ विकसित की जानी है। वास्तव में यह है क्या? यह समझ कि बदलाव लाने की असली ताकत जनता के ही हाथ में है। उसका उपयोग कैसी समझ से किया जाना चाहिए।

7.   और अंतिम बात वह जो मैं वर्षों से कह रहा हूं कि उत्तराखण्ड की परिवर्तनकामी संगठनों, दलों, आदि को एक मंच पर आना ही होगा। आखिर, उत्तराखण्ड लोक वाहिनी और उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी को अलग-अलग चलाए रखने का क्या अर्थ है, इस घोर संकट के समय में।

तो दोस्तो, धन्यवाद। 

आज मैंने बहुत निराशाजनक बातें की हैं। उदासियों और हताशाओं का जिक्र शुरूआत में ही कर दिया था। समापन निराशा से नहीं होना चाहिए। इसलिए एक कविता सुनाना चाहता हूं। गिर्दा का गीत हम सब जगह-जगह गाते हैं- जैंता, एक दिन त आलो उ दिन यो दुनी में। वैसी ही उम्मीद भरी कविता। वीरेनदा यानी वीरेंद्र डंगवाल की।

उजले दिन जरूर

आएंगे, उजले दिन जरूर आएंगे

आतंक सरीखी बिछी हुई हर ओर बर्फ

है हवा कठिन, हड्डी-हड्डी को ठिठुराती

आकाश उगलता अंधकार फिर एक बार

संशय विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती

होगा वह समर, अभी होगा कुछ और बार

तब कहीं मेघ ये छिन्न-भिन्न हो पाएंगे।

तहखानों से निकले मोटे-मोटे चूहे

जो लाशों की बदबू फैलाते घूम रहे

हैं कुतर रहे पुरखों की सारी तस्वीरें

चीं-ची, चिक-चिक की धूम मचाते घूम रहे

पर डरो नहीं चूहे आखिर चूहे ही हैं

जीवन की महिमा नष्ट नहीं कर पाएंगे

यह रक्तपात, यह मारकाट जो मची हुई

लोगों के दिल भरमा देने का जरिया है

जो अड़ा हुआ है हमें डराता रस्ते में

लपटें लेता घनघोर आग का दरिया है

सूखे चेहरे बच्चों के उनकी तरल हंसी

हम याद रखेंगे, पार उसे कर जाएंगे

मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूं

हर सपने के पीछे सच्चाई होती है

हर दौर कभी तो खत्म हुआ ही करता है

हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है।

आए हैं जब हम चलकर इतने लाख वर्ष

इसके आगे भी चलकर ही जाएंगे

आएंगे, उजले दिन जरूर आएंगे।

...

 (शमशेर स्मृति व्याख्यान का अंतिम अंश)

(इस वक्तव्य को तैयार करने में मैंने कुछ वेबसाइटों, कुछ शोध-अध्ययनों और कुछ किताबों से संदर्भ और आंकड़े लिए हैं। उन सबका आभार। दो किताबों का उल्लेख विशेष रूप से करूंगा। पहली है पत्रकार और मीडिया शोधार्थी अखिल रंजन की पुस्तक- फेक न्यूज, मीडिया और लोकतंत्र। इसी साल आई है। दूसरी किताब है पत्रकार साथी हरजिंदर की- चुनाव के छल-प्रपंच- मतदाताओं की सोच बदलने का कारोबार। दोनों नवारुण प्रकाशन से आई हैं। मैं चाहूंगा कि आप इन किताबों को अवश्य पढ़ें। मीडिया साक्षरता की दिशा में पहला कदम बन सकती हैं।)

-अल्मोड़ा, 22 सितम्बर, 202