एक बार पीएलओ (इण्डिया) ऑफिस को पत्र लिखकर कुछ फिलिस्तीनी कविताएं भेजने का आग्रह किया था। वहां की कुछ कविताएं 'दिनमान' में पढ़ने के बाद और पढ़ने की जिज्ञासा हुई थी। जवाब में 'फॉरएवर पैलस्टाइन' नाम का अंग्रेजी में एक कविता संकलन मेरे नाम आया। उसमें ग्यारह फिलिस्तीनी कवियों की 'प्रतिरोधी कविताएं' थीं। संकलन का सम्पादन किन्हीं पी एस शर्मा ने किया था, जिसमें अली सरदार जाफरी, भीष्म साहनी, गुलाम रब्बानी, कमलेश्वर, कैफी आज़मी और अमृता प्रीतम की सम्मतियां भी शामिल थीं।
महमूद दरवेश का नाम मैंने उसी संकलन में पढ़ा था। अंग्रेजी में 'दरवेश' की स्पेलिंग 'डीएआरडब्ल्यूआईएसएच' लिखी होने से मैंने उसे दारविश पढ़ा था। सभी कविताओं में फिलिस्तीन के लिए प्रेम, उसके संघर्ष का समर्थन और विस्थापन का दर्द छाया हुआ था, जिसने भीतर तक भिगो दिया था। तब मैंने कुछ कविताओं का हिंदी में अनुवाद करके 'नैनीताल समाचार' को भेजा था। उनमें 'महमूद दारविश' की भी दो-एक छोटी कविताओं का अनुवाद था।
दफ्तर में साथियों से उन कविताओं की चर्चा करते हुए पता चला था कि वह 'महमूद दरवेश' हैं। 'नैनीताल समाचार' को तुरंत एक पोस्टकार्ड डाला था कि नाम सुधार लेंगे।
आज यह सब याद आया चहेते लेखक-अनुवादक मित्र अशोक पांडे के अनुवाद में महमूद दरवेश की कविताओं का संकलन 'लौटूंगा उसी गुलाब तक' को हाथ में लेते हुए, जिसे हाल ही में सम्भावना प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। इस संग्रह ने मुझे मजबूर किया कि मैं कागजों-किताबों के ढेर में 'फॉरएवर पैलस्टाइन' नाम का वह संकलन तलाश करूं, जो 1977 में पढ़ा था और याद था कि सम्भाल लिया था। वह मिल भी गया। खुशी हुई कि उसमें दरवेश की 'इनवेस्टीगेशन' शीर्षक वह कविता भी शामिल है, जिसे अशोक ने 'पहचान-पत्र' नाम से अपने संकलन में रखा है।
1977 में, जब मैंने दरवेश का नाम सुना था, वे 36 साल के युवा और चर्चित कवि थे। 1970 में उन्हें दिल्ली में एफ्रो-एशियाई लेखक सम्मेलन का 'लोटस पुरस्कार' मिल चुका था। 1976 में प्रकाशित संग्रह 'फॉरएवर पैलेस्टाइन' में दरवेश सबसे अंत में, ग्यारहवें नम्बर पर शामिल थे, हालांकि सम्पादकीय टिप्पणी में उन्हें फिलिस्तीनी प्रतिरोधी साहित्य का प्रमुख स्वर बताया गया था।
कालांतर में दरवेश के कवि-कद, संघर्ष के उनके संकल्प और उनकी भूमिकाओं ने नई ऊंचाइयां छुईं। उन्हें फिलिस्तीन के राष्ट्रकवि जैसा दर्ज़ा मिला। पीएलओ यानी फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन के महत्त्वपूर्ण पदों पर वे रहे। कई देशों में निर्वासित जीवन बिताते हुए फिलिस्तीनी संघर्ष को तेज करने में जुटे रहे।
इस्राइल के खिलाफ उनके तेवर हमेशा बहुत तीखे रहे। यहां तक कि 1994 में अरब-इस्राइल संधि के कारण वे यासिर अराफात के भी विरुद्ध हो गए थे। रोमांचक किस्सा यह भी है कि 1998 में उन्हें डॉक्टरों ने मृत घोषित कर दिया था लेकिन वे किसी चमत्कार की तरह जीवित हो गए थे। इसके दस वर्ष बाद 2008 में अमेरिका के एक अस्पताल में दिल के ऑपरेशन के बाद उनका देहांत हुआ।
महमूद दरवेश के परिवार को 1948 के अरब-इसराइल युद्ध के समय ही विस्थापित हो जाना पड़ा था। उन्होंने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा निर्वासन में बिताया। इसीलिए उनकी कविताओं में फिलिस्तीन प्रेम, विस्थापन की पीड़ा और अपनी मिट्टी के लिए निरंतर संघर्ष के स्वर बहुत मुखर हैं। प्रेम भी एक प्रमुख स्वर है और अक्सर प्रेमिका के प्रति प्यार मातृभूमि के लिए प्यार में प्रकट होता है।
'लौटूंगा उसी गुलाब तक' संग्रह की 'फिलिस्तीन की एक प्रेमिका' शीर्षक यह कविता देखिए- "
फिलिस्तीन हैं उसकी आंखें
फिलिस्तीन है उसका नाम
फिलिस्तीन है उसकी पोशाक और उसका दुख
उसकी रूमाल, उसके पैर और उसकी देह फिलिस्तीन
फिलिस्तीन है उसकी आवाज
उसका जन्म और उसकी मृत्यु फिलिस्तीन
प्रेम के अलावा उनकी कविताओं में स्वाभाविक ही धरती, युद्ध, घाव, रक्त, मृत्यु, पत्थर, तोपें, बम, मां और फूल व तितलियां भी खूब मिलती हैं-
मैं कामना करता हूं कि हम गेहूं होते
ताकि हम मरते और दोबारा जीवित हो जाते
मैं कामना करता हूं कि धरती हमारी मां होती
ताकि हम पर रहम करती (धरती नजदीक आ रही है हमारे)
दरवेश की कविताओं में पराजय और हताशा नहीं, उम्मीद, संघर्ष, संकल्प, स्मृति और फसलों, रोटी की खुशबू मिलते हैं-
इस धरती पर वह सब है
जो जीवन को जीने लायक बनाता है-
अप्रैल की झिझक, अलस्सुबह रोटी की खुशबू
पुरुषों के बारे में औरतों का नजरिया
ऐस्किलस का लेखन, मोहब्बत की शुरुआत
एक पत्थर पर घास
बांसुरी की फूक पर अटकी हुई माँएँ
आक्रान्ताओं के भीतर स्मृति का भय (फिलिस्तीनी शिअली में थैंक्सगिविंग)
इस संग्रह में अशोक ने 96 कविताओं का अनुवाद शामिल किया है। इनमें कुछ लम्बी और कुछ बहुत छोटी कविताएं हैं। इन्हें पढ़ना फिलिस्तीनी जनता के संघर्ष, सपनों, संकल्पों एवं जिजीविषा से रूबरू होना है।
ऐसे समय में आज जबकि इस्राइल ने फिलिस्तीन में भीषण तबाही और नरसंहार मचा रखा है, 60 हजार से अधिक फिलिस्तीनी मारे जा चुके है, जिनमें अबोध शिशुओं की संख्या पंद्रह हजार से अधिक है, अधिकसंख्य इमारतें जमीदोज़ कर दी गई हैं, अस्पताल-स्कूल-राहत शिविर तक रॉकेट बमों से उड़ा दिए जा रहे हैं, अमेरिका उसका साथ दे रहा है और विश्व भर में प्रतिरोध के स्वर लगभग नदारद हैं, दरवेश की कविताओं का यह संग्रह सशक्त प्रतिरोधी गूंज-अनुगूंज जैसा है।
काश, इस दुनिया में कविताएं मिसायलों पर भारी पड़ रही होतीं!
संग्रह के अंत में परिशिष्ट में डालिया कार्पेल (इस्राइली पत्रकार-लेखिका) से महमूद दरवेश की बातचीत (सन नहीं दिया गया है लेकिन सम्भवत: 2006 में यह इण्टरव्यू हुआ, जब उन्हें दो दिन के वीजा पर इस्राइल आने की अनुमति दी गई थी और वे हाइफा व रामल्ला गए थे) शामिल की गई है। यह बातचीत फिलिस्तीनी संघर्ष, प्रतिरोधी साहित्य और महमूद दरवेश की साहित्यिक-वैचारिक दृष्टि को समझने में सहायक है।
एक सवाल के जवाब में वे कहते हैं- "मैं कविता को एक आध्यात्मिक औषधि की तरह देखता हूं। मैं शब्दों से वह रच सकता हूं जो मुझे वास्तविकता में नज़र नहीं आता। यह एक विराट भ्रम होती है लेकिन एक पॉजिटिव भ्रम। मेरे पास अपनी या अपने मुल्क की ज़िंदगी के अर्थ खोजने के लिए और कोई उपकरण नहीं। यह मेरी क्षमता के भीतर होता है कि मैं शब्दों के माध्यम से उन्हें सुंदरता प्रदान कर सकूं और एक सुंदर संसार का चित्र खींचूं और उसकी परिस्थिति को भी अभिव्यक्त कर सकूं। मैंने एक बार कहा था कि मैंने शब्दों की मदद से अपने देश और अपने लिए एक मातृभूमि का निर्माण किया था।"
उनसे पूछा गया था- "क्या आप अपने जीवन में दोनों देशों के बीच किसी तरह का समझौता देख सकेंगे?"
दरवेश का उत्तर था- "मैं उदास नहीं होता। मैं धैर्यवान हूं और इजरायलियों की चेतना में एक सघन क्रांति का इंतज़ार कर रहा हूं।"
दरवेश आज नहीं हैं लेकिन उनका इंतज़ार चला आ रहा है।
(इस किताब के लिए सम्भावना प्रकाशन से 7017437410 पर सम्पर्क किया जा सकता है)
- न जो, लखनऊ, 03 नवम्बर 2025

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