Tuesday, September 02, 2025

देवभूमि में यह कैसा विकास

 नवीन जोशी बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक में उत्तराखंड में हुए ‘चिपको आंदोलन’ के मूल विचार के साथ ही उसके आंतरिक संघर्ष और विचलन, वनवासियों के बढ़ते संकट और लगातार अपनी भूमि से पलायन को लेखन का विषय बनाते रहे हैं। इस संदर्भ में उनका उपन्यास ‘दावानल’ बेहद चर्चित रहा। दूसरे उपन्यास ‘टिकटशुदा रुक्का’ में वे एक ओर कॉर्पोरेट जगत में उत्पादन और व्यापार केंद्रित दर्शन और कार्यप्रणाली की विस्तार से चर्चा करते हैं, वहीं उत्तराखंड में दलित समाज के जीवन और सवर्ण मालिकों द्वारा उनके शोषण को कथावस्तु बनाते हैं। बेहद विचलित करने वाले इस उपन्यास में पीढ़ी दर पीढ़ी शोषित दलित समाज की तरह प्रेमचंद और उनके परवर्ती अन्य अनेक लेखकों ने भी इसे लेखन का विषय बनाया है लेकिन नवीन जोशी अपनी कुछ कहानियों और इन उपन्यासों में इस पर्वतीय क्षेत्र का चित्रण बहुत कम सामने आया है।

प्रस्तुत उपन्यास ‘देवभूमि डेवलपर्स’ व्यवस्थाजनित पर्वतीय क्षेत्र की विकास अवधारणा पर अनेक गंभीर सवाल खड़े करता है। ‘दावानल’ में पुष्कर का बचपन और शिक्षा लखनऊ में हुई, जहां रोजी-रोटी की तलाश में उसके ब्राह्मण पिता आये और सरकारी दफ़्तर में चपरासी बने। साहब के सर्वेंट क्वार्टर में रहते हुए पुष्कर ने पर्वतीय अंचल के ठेकेदारों और व्यापारी तथा सरकारी तंत्र के गठजोड़ से निर्मित शोषण के ख़िलाफ़ आंदोलनों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। अल्मोड़ा के कफल्टा गांव में एक दलित की बारात को लेकर कांड हुआ जिसमें 14 दलित ज़िंदा जलाकर मार दिये गये, जिससे वह बेहद विचलित था।पुष्कर की मित्र और हितैषी कविता इस उपन्यास में भी उसके साथ है और जीवनसंगिनी भी बनती है। वह हर क़दम पर सबके साथ है। देवभूमि उत्तराखंड में विकास के नाम पर जिस तरह पर्यावरण नष्ट हो रहा है, शराब माफ़िया राजनीति के गलियारों तक फैला है तथा आम लोगों के घरों को व समाज को तबाह कर रहा है, लेखक उसकी ओर भी इंगित करता है। इसके विरुद्ध आंदोलनकारियों का नारा है- ‘नशा नहीं रोज़गार दो’ तथा ‘मां बहनों की यही पुकार-दारू बंद करे सरकार’। दरअसल यह समस्या सभी क्षेत्रों की है। यहां लक्ष्मी, डॉ. ज्योति, खष्टी, हमीदा चाची, मुन्नी, भाभी, इकराम, शंभू आदि ढेर सारे लोग शामिल हैं और अंत में आंदोलन सफल होता है।

कविता टिहरी हाइड्रो डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन पर गहन खोजबीन के साथ रिपोर्ट तैयार कर रही है। डूब चुकी टिहरी के बाद होने वाले कथित विकास की तस्वीरें गांव वालों के लिए भयावह सपने जैसी हैं। अपनी भूमि से विस्थापन का दर्द चारों ओर है। उपन्यास का फ़लक बहुत विस्तृत है। राष्ट्रीय स्तर से लेकर अंचल और सुदूर गांवों तक के अनगिनत पात्रों से पाठक रूबरू होता है। यहां टूटते बिखरते पहाड़ हैं, सूखती नदियां और नाले हैं। दूसरी ओर, सड़कों में खड़ंजे बिछाये जाने और घरों में पानी के पाइप जोड़े जाने से शहर के लोग प्रसन्न भी हैं। एक ओर, पार्टीबंद राजनीति की शतरंजी चालें हैं तो दूसरी ओर सरकारी विकास के नाम पर पहाड़ों के विनाश और पलायन को मजबूर क्षुब्ध नौजवान हैं जिनमें कुछ माओवादी दर्शन से भी प्रभावित हैं। इनमें सलीम अहमद, रामचंदर, गोकुल और गोवर्धन हैं जो अंतत: पुलिस की गिरफ़्त में आ जाते हैं।

उपन्यास में उत्तराखंड की पूरी राजनीति के अलावा वहां के समृद्ध सांस्कृतिक परिवेश, सामाजिक सद्भाव और परंपरागत पहाड़ी जीवन की बहुरंगी झलकियां भी दिखायी देती हैं। एक बात और — इस पर्वतीय अंचल में आज़ादी के पहले से, आंदोलनों में महिलाओं की अग्रणी भूमिका रही है और परंपरा आज भी विद्यमान है, जिसका जीवन्त चित्रण यहां है। उत्तराखंड के आधुनिक जीवन और विकास के नाम पर होने वाली राजनीति को समझने के लिए यह एक ज़रूरी पुस्तक है।

-नमिता सिंह, प्रसिद्ध लेखिका

(https://aabohawa.org/edition-28/) 

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