Friday, June 01, 2018

यह पहले भी हुआ था और फिर होगा



यह पहली बार नहीं हुआ कि मैनहोल की जहरीली गैस से एक सफाई मजदूर की मौत हो गयी और दो मरते-मरते बचे. यह भी पहली बार नहीं हुआ कि मजदूरों को बिना सुरक्षा उपकरणों के मैनहोल में उतार दिया गया था. यह भी पुराना रिवाज है कि मैनहोल की सफाई के लिए जिम्मेदार जल निगम के अधिकारियों ने दुर्घटना की जिम्मेदारी ठेकेदार पर डाल दी. ठेकेदार के बचाव में कई प्रभावशाली लोग उतर आये, यह भी पुराना किस्सा है.  

अनुभव से हम कह सकते हैं कि जलील नाम के मजदूर की मौत से कहीं कोई पत्ता नहीं हिलेगा. उस गरीब का परिवार कुछ दिन रो-धो कर रोजी-रोटी के जुगाड़ में फिर खतरे उठायेगा. हम फिर देखेंगे कि चोक मैनहोलों को साफ करने के लिए गरीब मजदूर मात्र कच्छा पहने उनमें उतर रहे हैं. किसी और दिन अखबारों में ऐसे ही किसी मजदूर के मरने की खबर छपेगी.

सुरक्षा मानक कहते हैं कि मैनहोल में उतरने से पहले उसके भीतर की जहरीली गैस का जायजा लिया जाना चाहिए. उसे पानी डालकर निष्क्रिय किया जाना चाहिए. अव्वल तो सफाई के लिए अब मशीनें उपलब्ध हैं. मैनहोल में मजदूरों को उतारने की जरूरत नहीं होनी चाहिए. जरूरत पड़ने पर मजदूर को ऑक्सीजन मास्क, दस्ताने, हेलमेट, वगैरह पहना कर उसमें उतारा जाना चाहिए. ऐसा क्यों नहीं किया गया? जल निगम का जवाब है कि यह जिम्मेदारी ठेकेदार की थी. ऐसे ठेकेदार को काम ही क्यों दिया गया, जो यह व्यवस्था नहीं करता या करना ही नहीं चाहता? इसका जवाब कौन देगा?

बिजली लाइनों की मरम्मत में भी आये दिन निरीह मजदूर करण्ट लगने से मर जाते हैं. सुरक्षा के नाम पर उनके पास रबर के दस्ताने तक नहीं होते, हेलमेट,आदि की कौन कहे. निजी इमारतों की छोड़िए, सरकारी इमारतों के निर्माण के दौरान भी अक्सर मजदूर ऊंचाई से गिर कर दम तोड़ देते हैं.  बहुत दिन नहीं हुए जब विधान सभा के सामने निर्माणाधीन लोक भवन की ऊपरी मंजिल से गिर कर मजदूर की जान गयी थी. इन दिहाड़ी मजदूरों को जरूरी हेल्मेट तक नहीं दिये जाते. नियम तो नीचे जाल बिछाने का भी है.

यह सब इसलिए होता है कि इन दिहाड़ी मजदूरों की जान की कोई कीमत नहीं समझी जाती. वे इतने गरीब हैं कि दो जून की रोटी के लिए किसी भी तरह का खतरा उठाने को मजबूर हैं. सरकार, प्रशासन और ठेकेदार की नजरों में उनकी कीमत कीड़े-मकौड़ों से ज्यादा नहीं. इसलिए उनकी मौत पर कोई हंगामा नहीं होता. जिम्मेदारों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती.

ठेकेदारों को अधिक से अधिक मुनाफा कमाना होता है. इसलिए भी कि ठेका लेने के बदले उन्हें अधिकारियों को कमीशन देना पड़ता है. मजदूरों की सुरक्षा का बंदोबस्त अधिकारियों के कमीशन की भेंट चढ़ जाता है. तो क्या कमीशनखोर अधिकारी इन मज्दूरों की मौत के जिम्मेदार नहीं? ठेकेदारों के साथ उन्हें भी कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए. उन सब के खिलाफ हत्या का मुकदमा क्यों नहीं दर्ज होना चाहिए? यह सब कुछ नहीं होगा. कहीं से कुछ मुआवजा मिल जाएगा, बस. फिर सब लोग भूल जाएंगे जब तक कि कोई नया हादसा न हो जाए.

ये सिलसिले क्यों नहीं बदलते होंगे? सुरक्षा के मानक क्यों बनाये गये होंगे? उनके पालन की जिम्मेदारी किसी को क्यों दी गयी होगी? उस जिम्मेदार अधिकारी के कर्तव्यपालन का निरीक्षण भी किसी के जिम्मे होगा. क्या इनमें से किसी को यह नहीं लगता होगा कि अपनी जिम्मेदारी का सही पालन नहीं करके वह बड़ा अपराध कर रहा है. एक मज्दूर की मौत क्या किसी भी अधिकारी की अंतरात्मा को कचोटती नहीं होगी?

छोड़िए भी. ये सवा, हम पूछ किससे रहे हैं?

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