Saturday, January 05, 2019

हमारी चुनौतियां और सरकार की प्राथमिकताएँ


प्रदेश में शुष्क शौचालयों को हाथ से साफ करने या सिर पर मानव मल ढोने वालों की ठीक-ठीक संख्या भी सरकार को पता नहीं है. अलग-अलग सरकारी सर्वेक्षणों में कभी इनकी संख्या करीब 1200 बताई गई तो उसके बाद के आकलन में बताया गया कि यह संख्या 12 हजार से ज्यादा है. राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी वित्त विकास निगम के कहने पर केन्द्र सरकार ने राज्य सरकार से एक बार फिर इनका सत्यापन करने को कहा है. कम से कम 47 जिले ऐसे हैं जहाँ यह कुप्रथा आज भी जारी है. इस काम में लगे लोगों के पुनर्वास के लिए योजनाएँ घोषित हैं लेकिन इससे मुक्ति को प्रतिबद्ध ईमानदार प्रयास नहीं होते.

राजधानी लखनऊ में झुग्गी-झोपड़ी बस्तियाँ बढ़ती जा रही हैं. दूर-दराज से रोजी-रोटी की जद्दोजहद के लिए राजधानी का रुख करने वालों को नारकीय जीवन जीना पड़ता है. हजारों लोग गन्दगी से लबलबाते इलाकों, नालों के किनारों, रेल पटरी के इर्द-गिर्द किसी तरह रह रहे हैं. कचरा-मलवा उलट-पुलट कर उसमें रोजी ढूँढने वालों को कहीं भी देखा जा सकता है. वे इनसान हैं और इसी प्रदेश के नागरिक हैं. उनके जीवन को तनिक बेहतर बनाने के लिए कहीं कुछ हो रहा है?

गाँव-देहातों के प्राथमिक चिकित्सा केंद्र बदहाल हैं. सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों की स्थिति दयनीय है. वहाँ सामान्य चिकित्सा मिलना भी अपवाद-सा है. इसीलिए गाँव-कस्बों के बीमार लोग या तो कुछ बेच-बाचकर शहरों के अस्प्तालों को दौड़ते हैं या फर्जी डॉक्टरों के हाथ पड़ते हैं. चिकित्सा पर सरकारी खर्च अत्यंत कम है. डॉक्टरों की भारी कमी है. तमाम सरकारी प्रचार और दावों के बावजूद गरीब ग्रामीण जच्चा-बच्चा की जान दाँव पर लगी रहती है क्योंकि उनकी पहुँच सरकारी अस्पतालों तक नहीं हो पायी है.

जापानी इंसेफ्लाइटिस हर साल कितने ही बच्चों की जान लेता है, कितने अपंग हो जाते हैं. मलेरिया आज भी बड़ी महामारी बना हुआ है. मच्छर जनित रोगों पर काबू पाना तो दूर, उन पर प्रभावी नियंत्रण भी नहीं हो पा रहा. टीकाकरण का बजट बहुत कम है और रफ्तार बहुत सुस्त.

खूबसूरत नारों के बावजूद प्रदेश के सभी बच्चे स्कूल नहीं जा पाते. प्राथमिक स्कूलों की दुर्दशा आये दिन चर्चा में रहती है. प्रशिक्षित और काबिल अध्यापक नहीं हैं. साल-दर-साल कक्षाएँ पास करते बच्चे ठीक से पढ़ना-लिखना, हिसाब करना नहीं जानते. आज भी भूख से मौतें होती हैं. शीत लहर से भी गरीब-गुरबे जान गँवाते हैं. बहुत सारी विकट समस्याएँ हैं जिनसे जूझना सरकारों की सर्वोच्च प्राथमिकताओं में होना चाहिए.

प्रदेश सरकार की नयी प्राथमिकता गाय-बछड़ों का संरक्षण है. गोरक्षा पर सर्वाधिक जोर होने के कारण उत्पन्न हुई छुट्टा जानवरों की समस्या से किसान त्रस्त हैं. वे फसलें चौपट कर रहे हैं. कई जिलों में किसानों ने छुट्टा जानवरों को स्कूलों में बंद कर दिया. बच्चे बाहर जानवर अंदर.

अब जिलाधिकारियों के लिए फरमान जारी हुआ है कि वे सुनिश्चित करें कि छुट्टा जानवरों को स्कूलों में बंद न करने दिया जाए. गोसंरक्षण केंद्र (कांजी हाउस का नया नाम) का विस्तार करें और दस जनवरी तक सभी छुट्टा गाय-बछड़े गोसंरक्षण गृहों में बंद हो जाने चाहिए.

करोड़ों रु का बजट जारी हो रहा है. शराब, टोल टैक्स, आदि पर सेस (उप-कर) लगाया जा रहा है जिससे अर्जित य गोसंरक्षण पर खर्च होगी. यह नहीं सोचा जा रहा कि छुट्टा गाय-बछड़ों की यह समस्या क्यों पैदा हुई. किसान अनुपयोगी जानवरों को भी पालते रहने के लिए क्यों बाध्य हो

क्या यह हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौतियों में शामिल है जो इसे सर्वोच्च प्राथमिकता दी जा रही है

(सिटी तमाशा, नभाटा, 06 जनवरी, 2019)  

       
      

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