बहुजन समाज पार्टी की नेत्री मायावती
कभी किसी गैर-पार्टी के नेता के समर्थन में खुल कर सामने नहीं आतीं. मुद्दा आधारित
समर्थन भले उन्होंने किसी को दिया हो लेकिन किसी नेता के बचाव में उनका खड़ा होना
दुर्लभ है. चंद रोज पहले उन्होंने समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव को
व्यक्तिगत रूप से फोन करके अपना समर्थन व्यक्त किया. कहा कि उन्हें सीबीआई की जांच
या छापों से घबराने की जरूरत नहीं है, बल्कि
डट कर मुकाबला करने की आवश्यकता है. उन्होंने याद दिलाया कि 2003 में उन्हें ताज
कॉरिडोर मामले में फँसाने की कोशिश की गयी थी लेकिन 2007 में जनता ने उन्हें पूर्ण
बहुमत से सत्ता में बैठाया.
मायावती ने यह भी सुनिश्चित किया कि
अखिलेश को उनके फोन करने का समाचार मीडिया में प्रमुख रूप से आये. इसके लिए
उन्होंने प्रेस नोट भी भिजवाया. इतना ही नहीं, उन्होंने
अपने वरिष्ठ नेता और पार्टी महासचिव सतीशचंद्र मिश्र को निर्देश दिये कि वे संसद
भवन में समाजवादी पार्टी के महासचिव
रामगोपाल यादव के साथ इस मुद्दे पर साझा प्रेस कांफ्रेंस करें. दोनों सपा-बसपा
नेताओं ने सीबीआई के इस्तेमाल पर प्रेस कांफ्रेंस में भाजपा की तीखी निंदा की.
उत्तर प्रदेश में भाजपा के विरुद्ध
सपा-बसपा के गठबन्धन पर यह पहली सार्वजनिक मुहर है. यह माना तो जा रहा था कि ये
दोनों पार्टियाँ मिल कर चुनाव लड़ेंगी लेकिन इसमें कुछ किंतु-परंतु भी लगे हुए थे.
इसका मुख्य कारण मायावती की चुप्पी थी जो अचानक अपना रुख बदल देने के लिए ख्यात
हैं. मायावती के खुल कर अखिलेश के पक्ष में खड़े हो जाने से अब यह निश्चित हो गया
कि सपा-बसपा चुनाव-पूर्व गठबंधन के तहत मैदान में उतरेंगे. यह गठबंधन और कितना
विस्तार लेता है, यह बाद की बात है.
उत्तर प्रदेश में इस ताकतवर गठबंधन को
एकाएक वास्तविकता बना देने का श्रेय सीबीआई यानी स्वयं भाजपा सरकार को जाता है. आम
तौर पर यही समझा जाता है कि सीबीआई राजनैतिक संदर्भ वाले मामलों में केंद्र सरकार
के इशारे के बिना कदम नहीं उठाती. हुआ यह कि उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में अवैध
खनन के पुराने मामलों में सीबीआई ने एक आईएएस अधिकारी समेत कुछ व्यक्तियों के यहाँ
छापे डाले. ये कथित घोटाले
अखिलेश यादव सरकार में हुए. इस बारे में दर्ज एफआईआर
में पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का नाम नहीं है लेकिन भाजपा नेताओं ने
अतिउत्साह में ऐसे बयान दे डाले कि इस सिलसिले में अखिलेश से भी पूछताछ होगी.
जिस दिन ये छापे पड़े उससे ठीक एक दिन
पहले दिल्ली में मायावती और अखिलेश की मुलाकात की खबरें मीडिया की सुर्खियाँ बनी
थीं. ऐसे समय सीबीआई की कार्रवाई को राजनैतिक मुद्दा बनना ही था. वैसे भी यह
अनुमान लगाये जा रहे थे कि सपा-बसपा गठबंधन न बनने देने के लिए भाजपा सीबीआई जांच
का दांव चल सकती है. कयास तो यह थे कि सीबीआई मायावती के खिलाफ आय से अधिक
सम्पत्ति समेत नोटबंदी के दौरान खातों में जमा बड़ी रकम के मामलों में जांच शुरू कर
देगी. यह भी अटकलें थीं कि सपा-बसपा गठबंधन का ऐलान मायावती इसी आशंका में नहीं कर
रही हैं. लालू यादव का उदाहरण दिया जा रहा था.
सीबीआई ने अखिलेश के कार्यकाल के खनन
मामले में छापे डालने शुरू किये तो मायावती डरने की बजाय खुल कर उनके बचाव में आ
गईं. इस चुनाव वेला में मायावती ने जवाबी राजनैतिक दाँव चलते हुए सीधे भाजपा को
निशाने पर ले लिया कि वह राजनैतिक बदले की भावना से सीबीआई का इस्तेमाल कर रही है.
मायावती के बयान के बाद कांग्रेस समेत कुछ अन्य दलों के नेताओं ने भी इस कार्रवाई
के लिए भाजपा की खूब आलोचना की. उन्हें भाजपा के खिलाब बड़ा गठबन्धन बनाने के लिए
यह उचित अवसर भी जान पड़ा. मायावती के रुख से उनका मनोबल बढ़ गया.
राजनैतिक विरोधियों को भयाक्रांत
करने के लिए सीबीआई का इस्तेमाल कांग्रेस सरकारें भी खूब करती थीं. अब भाजपा ने भी
वही दाँव आजमाने शुरू किये हैं. लालू हों या मुलायम या अखिलेश-मायावती या अन्य
क्षेत्रीय क्षत्रप उनके दामन पर कम-ज्यादा दाग होते ही हैं. दुर्भाग्यपूर्ण यह है
कि कई बार भ्रष्टाचार के बहुत गम्भीर मामले भी जाँच और कार्रवाई की स्वाभाविक
परिणति तक इसलिए नहीं पहुँच पाते कि सीबीआई जाँच राजनैतिक बदले की भावना से कराई
जाती है या चुनावी मुद्दा बना दी जाती है. इस कारण ताजा कार्रवाई विपक्षी नेताओं
को करीब ले आयी तो कोई आश्चर्य नहीं.
इस मामले में कांग्रेस ने बढ़-चढ़ कर
अखिलेश यादव का साथ दिया ही इसीलिए कि इसी बहाने सही सपा-बसपा गठबंधन में उसे
सम्मानजनक स्थान मिलने का रास्ता खुले. राहुल गांधी ने अकारण ही यह नहीं कहा कि
क्षेत्रीय दलों को कांग्रेस को हलके में नहीं लेना चाहिए. कांग्रेस जानती है कि
उत्तर प्रदेश की राजनीति पर छाये रहे ये दोनों दल उसे महत्त्व नहीं देंगे लेकिन
भाजपा को दोबारा केंद्र की सत्ता में आने से रोकने के लिए कांग्रेस गठबंधन का
हिस्सा बनने को उत्सुक है.
आदर्श गणित यह कहता है कि यदि सभी विपक्षी दल मिल कर 80 सीटों वाले उत्तर
प्रदेश में भाजपा को 20-25 तक सीमित कर दें तो दिल्ली की गद्दी उससे काफी दूर चली जाएगी.
किताबी गणित और व्यवहार में बहुत अन्तर है. फिलहाल आसार यही हैं कि कांग्रेस को
यहाँ अकेले ही लड़ना होगा. अखिलेश ने भी अब कांग्रेस के पति मायावती जैसा रुख अपना
लिया है. अजित सिंह के रालोद को अवश्य गठबन्धन में जगह मिल जाएगी. भाजपा की कोशिश
है कि मुकाबला तिकोना-चौकोना हो. अखिलेश से बगावत कर चुके चाचा शिवपाल की पार्टी
को इसीलिए भाजपा प्रोत्साहित करने में लगी है.
राष्ट्रीय स्तर पर भी विरोधी दलों का मोर्चा बनने के आसार अब तक तो
नहीं दिख रहे. 19 जनवरी को कोलकाता में ममता बनर्जी विरोधी दलों की बड़ी रैली करने
जा रही हैं. इसमे शामिल होने के लिए उन्होंने कांग्रेस के अलावा सभी क्षेत्रीय
दलों को आमंत्रण भेजा है. उनकी यह पहल ‘फेडरल
फ्रण्ट’ बनाने के लिए है जो 2019 में भाजपा को राष्ट्रीय
स्तर पर कड़ी टक्कर दे. इससे पहले चंद्रबाबू नायडू और चंद्रशेखर राव अपनी-अपनी
मुहिम चला चुके हैं जो कहीं पहुँचती दिखाई नहीं देती. ममता की पहल के लिए भी अन्य
क्षेत्रीय दलों में बहुत उत्साह नहीं दिख
रहा.
जो परिदृश्य उभर रहा है उसमें भाजपा
विरोधी एक मोर्चा बनने की बजाय राज्य-स्तर पर क्षेत्रीय दलों का भाजपा से सीधा
मुकाबला होने की सम्भावना ज्यादा बन रही है. उत्तर प्रदेश का समीकरण भी ऐसे ही
संकेत दे रहा है. भाजपा के लिए यह स्थिति शायद और ज्यादा कठिन साबित हो.
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