Friday, September 11, 2020

कौन मानेगा कि ऐसे भी विधायक-मंत्री होते थे

 


जमुना प्रसाद बोस के निधन के साथ हमने अगली पीढ़ियों के लिए वह जीवित प्रमाण खो दिया है जो साबित करता था कि राजनीति में ईमानदार, नि:स्वार्थ जन सेवक और नैतिकता एवं मर्यादा का पालन करने वाले लोग भी होते थे। अब शायद ही कोई नेता बचा हो जिसे दिखाकर हम नई पीढ़ी को बता सकें कि राजनीति समाज को तोड़ने, देश को लूटने, अपना घर भरने और जनता को ठगने वालों का क्षेत्र नहीं है। आज की पीढ़ियां राजनीति को इन्हीं चरित्रों से पहचानती हैं।

कुछ वर्ष पहले जसवंत सिंह बिष्ट भी अत्यंत गरीबी और गुमनामी में यह संसार छोड़ गए। उन्हें देखकर कभी नहीं लगता था कि वे विधायक रहे होंगे। सामान्य कुर्ते-पाजामे में वे हवाई चप्पल फटफटाते गांवों से लखनऊ तक दौड़ा करते थे। कई बार चप्पल का फीता टूट जाता या निकल जाता तो उसे हाथ में लिए जोड़ते हुए चलते चले जाते थे। एक विधायक और सामान्य ग्रामीण में फर्क कर पाना कठिन था।

ये नेता उस पीढ़ी की आखिरी निशानी थे, जिसके लिए विधायक या मंत्री होने का एक ही अर्थ था- जनता की सेवा करना, उसके लिए समर्पित रहना। अपने लिए कुछ बटोरने या संततियों को स्थापित करने का सवाल ही नहीं था। जो कुछ था अपने पास, पूरा जीवन ही देश और समाज की सेवा में लगा दिया। उन लोगों के लिए नेताशब्द अब अपमानजनक लगता है। इस शब्द के अर्थ पूरी तरह बदल गए हैं। उसमें सम्मान रहा ही नहीं।

नेतागीरी आज शुद्ध व्यवसाय है, खूम कमाऊ धंधा। व्यवसाय होना बुरा नहीं है। जनता के सेवक को भी घर-परिवार चलाना होता है, बच्चे पालने-पढ़ाने होते हैं। वह जमाना रहा नहीं कि पत्नी के जेवर बेच कर देश सेवा कर रहे हैं। उसकी आवश्यकता भी नहीं। एक विधायक को इतने वेतन-भत्ते और सुविधाएं वैधानिक रूप से मिलते हैं कि वह अच्छी तरह जी सके और जन सेवा कर सके। जन-सेवाविधायक का दायित्व या कर्तव्य रहा नहीं और अच्छी तरह जीने की कोई सीमा बनी नहीं। लूट सके तो लूट वाला हिसाब है। इसमें भी प्रतिद्वद्विता है।

प्रशासनिक सेवाओं की सबसे उच्च श्रेणी का हाल देख लीजिए। एक आईएएस अधिकारी को क्या नहीं मिलता- वेतन-भत्तों का शानदार पैकेज और पूरे कार्यकाल में सत्ता की बागडोर हाथ में। और क्या चाहिए, लेकिन कितने अधिकारी हैं जो वेतन-भत्तों-सुविधाओं से प्रसन्न और संतुष्ट रहते हैं? आला अधिकारियों के भ्रष्टाचार के किस्से माननीयों के किस्सों से कहीं कम नहीं। बल्कि, विधायकों को मलाल रहता है कि हम तो चुनाव जीतने पर ही मेवा पाते हैं, आईएएस अफसरों की पांचों अंगुलियां हमेशा घी में डूबी रहती हैं।

कर्तव्य-परायणता और सेवा-भाव लुप्त-प्राय गुण हैं। इन्हें बचाने का जतन भी कहीं नहीं हो रहा। यह देखकर घनघोर अचम्भा होता है कि इस कोरोना काल में भी नेता और अफसर दवाओं-उपकरणों की खरीद में घोटाला करने में लगे हैं। कल सांस आएगी या नहीं, इसका भरोसा नहीं लेकिन अधिक से अधिक लूटने का कोई अवसर नहीं जाने देना है। साथ कुछ नहीं जाता लेकिन लिप्सा का कोई अंत नहीं।

जमना प्रसाद बोस के पास अपनी कहने को एक छत भी नहीं थी। निधन के बाद उनकी ईमानदारी के अविश्वसनीय किस्से कहे-सुने जा रहे हैं। जिन्होंने जनता की लूट से घर भर लिए और परिवार के परिवार सिहासनों पर बैठा दिए वे भी उनके गुण गा रहे हैं। भला क्यों?

(सिटी तमाशा, नभाटा, 12 सितम्बर, 2020)       

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