Sunday, November 06, 2022

उत्तराखंड के बनने-बिगड़ने का मुकम्मल दस्तावेज- “देवभूमि डेवलपर्स”

 राकेश                                   

"पिछले पाँच दशकों के उत्तराखंड के आंदोलनों ने जनता को सामाजिक रूप से चेतना सम्पन्न तो बनाया लेकिन उसमें परिवर्तनकारी राजैतिक चेतना पैदा करने में वे असफल रहे। बल्कि यह कहना सही होगा कि (वाम संगठनों को छोड़कर) सक्रिय आंदोलनकारी संगठन, स्पष्ट राजनीतिक दृष्टि के अभाव या उससे परहेज़ के कारण जनता को कोई राजनीतिक विकल्प नहीं दे सके और स्वयं भी अप्रासंगिक होते गए। सत्ता के बगलगीर होकर लाभ लेने और विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन करने एवं पहाड़ों का विनाश करने वाला बड़ा स्वार्थी वर्ग इसी दौर में तेज़ी से विकसित हुआ। आंदोलनकारी संगठनों, दलों और नेताओं ने भी कुछ खोया नहीं, जिसे त्याग करना कहा जा सकता, बल्कि सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक रूप से काफी कुछ पाया ही। उनकी व्यक्तिगत अंतरराष्ट्रीय-राष्ट्रीय छवियां बनीं, सम्मान-पुरस्कार और पद मिले या उनके लिये जोड़-तोड़ की गई, वे स्थापित-प्रतिष्ठित हुए और अनेक संस्थाएं-संस्थान-एनजीओ पुष्पित-पल्लवित हुए। इस कारण भी जनता के बीच उनकी पहचान "त्यागी" और विश्वसनीय जन-हितैषी की नहीं बनी।"                               

यह वह निष्कर्ष है जिसे नवीन जोशी ने अपने ताज़ा उपन्यास "देवभूमि डेवलपर्स" के अंत में उपन्यास की, एक अर्थों में 1984 से 2015 तक उत्तराखंड के विविध आंदोलनों की सहयात्री रही कविता श्रीवास्तव की "उत्तराखंड के आंदोलनों का अध्ययन" के बहाने दर्ज़ किया है।   इस विश्लेषण पर आंदोलनों के दूसरे सहयात्री पुष्कर तिवारी का सवाल भी दर्ज़ है- "त्यागी मतलब?"                 

 "जैसे, शंकर गुहा नियोगी या ब्रह्मदेव शर्मा या मेधा पाटकर---ऐसा भी कोई  हुआ यहां?" कविता के जबाब पर पुष्कर सहमति में सिर हिलाता रह गया था। यह उपन्यास उत्तराखंड के जनांदोलनों और उससे जुड़े संगठनों के जय-पराजय, उत्थान-पतन, लड़ाकू योद्धाओं, जन गायकों, जनता के पक्षधर पत्रकारों,  संस्कृतिकर्मियों  की गाथा के साथ-साथ पहाड़ के लोगों की बोली-बानी, संस्कृति-संस्कार, लोकगीत-नृत्य, पलायन, स्त्रियों की जिजीविषा, जातीय संरचना के विद्रूप-विडम्बना, सत्ता-पूंजी के गठजोड़ और कथित विकास के छद्म का एक तरह से आंखों देखा इतिहास है।                                       

उत्तराखंड के आंदोलनों की इस "आँखन-देखी" में नवीन जोशी की दो आंखें हैं एक, अल्मोड़ा के सुदूर बीहड़ गांव "सुमकोट" का मूल निवासी, मातृभूमि के प्रति अपनत्व और रूमानियत से भरा, उत्तराखंड के आंदोलन की उपज पत्रकार और आन्दोलनकारी  पुष्कर तिवारी, जिसके "ब्राह्मण" होने की विडंबना भी उपन्यास में दर्ज़ है, जिस पर चर्चा बाद में। दूसरी आंख है कविता श्रीवास्तव जिसके इंजीनियर पिता बचपन में ही संन्यास ले कर पत्नी और बेटी को अकेला छोड़कर चले गए थे। कविता माँ की मृत्यु के बाद दिल्ली में अपने जमे-जमाये पत्रकारिता के कैरियर को छोड़ कर पुष्कर से विवाह करके उसके पैतृक गांव और आंदोलन में ही रच-बस जाती है। उसके विश्लेषण में एक "तटस्थता" है लेकिन कहीं-कहीं वह पुष्कर की रूमानियत से प्रभावित भी है।                               

उपन्यास कूच करो भई, कूच करो, ‘खोली के धूसर द्वार की चमकदार आरसी, ‘बांध दी गई नदी में डूबता समाज, ‘राजधानी से राज्य छुड़ा कर लाना है, ‘शांत हिमालय धधक रहा है, ‘वजीरा, पानी पिला उर्फ़ बनना एक राज्य का, ‘प्रधानी का चुनाव और जंगल में नेचर हट्स, ‘विकास अर्थात ट्रिकल डाउन इकॉनमी, तथा देवी का थान पतुरिया नाचे शीर्षकों के साथ नौ खंडों में विभाजित है जिसमें उत्तराखंड के विविध आंदोलनों और पुष्कर-कविता और उनके पत्रकार एवं आंदोलनकारी मित्रों  की जीवन-यात्रा समानांतर रूप से  दर्ज है। इस गाथा में   26 मार्च, 1984 से शरू नशा विरोधी आंदोलन, उमेश डोभाल की हत्या, संघर्ष वाहिनी की टूटन, आरक्षण विरोधी आंदोलन, टिहरी बांध विरोधी आंदोलन, टिहरी के डूबने, अलग राज्य उत्तराखंड के आंदोलन, भाजपा और फिर कांग्रेस के सत्ता में आने और दोनों के ही विकास के नाम पर पूंजी और भू-माफिया से गठजोड़ से  2014 में मोदी के आने के बाद साम्प्रदायिकता के उभार तक को इस उपन्यास में समेटा गया है। अलग अलग खंडों की कथा-वस्तु की चर्चा न करते हुए मैं  सामाजिक-राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, जातीय-संरचना, विकास के नाम पर लूट, सत्ता-भूमाफिया गठजोड़, विकास के नाम पर संसाधनों के दोहन, जनवादी आन्दोलनों की असफलताओं, आम आंदोलनकारियों और महिलाओं की जिजीविषा, कथित 'पर्यावरण-पहाड़ पुरुषों' की  उदासीनता जैसे उन विन्दुओं को रेखांकित करने का प्रयास करूंगा जिनकी मीमांसा लेखक ने निस्पृहता के साथ की है।                   

 उपन्यास की शुरुआत "नशा नहीं, रोजगार दोआंदोलन के साथ होती है:-   " गरमपानी बाज़ार आक्रोश से उबल रहा था। आंदोलनकारी जगह-जगह पहरा दे रहे थे।"   ज़ाहिर है कि "चिपको आंदोलन" के बाद संघर्ष वाहिनी द्वारा संचालित पहाड़ की जनता का "नशे" के विरोध में यह एक और पड़ाव था जिसमें महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका थी।   शराब की अति का शिकार अपने बेटे की कुछ दिन पहले हुई मृत्यु का बदला शराब व्यवसायी बलवंत से बूढी सावित्री इस तरह लेती है "इस खबीस को पूरा नंगा कर दो।" सावित्री ने दातुले से बलवंत के कच्छे का नाड़ा काट दिया और वापस सड़क की मुंडेर पर बैठ कर रोने लगी।            इस खंड में "नशा विरोधी आंदोलन", संघर्ष वाहिनी में पनप रही फूट और कविता-पुष्कर के विवाह, उनके पैतृक गांव जाने की कथा समानांतर रूप से साथ-साथ चलती है। आंदोलन की कथा में प्रवेश होता है, उत्तराखंड के अनेक जनांदोलनों के नायक, कवि, जन गायक जीवंत "गिर्दा" का और तब पाठकों को पता लगता है कि "कूच करो भई, कूच करो, जन एकता कूच करो" उस गीत का मुखड़ा है जिसे गिर्दा ने इस आंदोलन के लिए तैयार किया है। यह आंदोलनकारी जन  गायक अन्य आंदोलनकारियों के साथ कविता-पुष्कर की शादी का बराती भी है और उसी तर्ज़ पर "शकुनाखर" भी गा रहा है:- "बन्नी के दाज्यू बर ढूँढ निकले/बन्नी की भाभी ये पूछती है/कितना बन्ने ने पढ़ा लिखा है/क्या करने को वो जा रहे हैं/एमए-बीए बर पढ़ा लिखा है/आंदोलन करने को वो जा रहे हैं/नैनीताल रैली को वो जा रहे हैं।" नैनीताल रैली के बाद पुष्कर और कविता के पुष्कर की बहन के गांव जाने और गांव में उनके स्वागत के दिलचस्प विवरण हैं पहाड़ की ग्रामीण संस्कृति, संस्कारों, बानी-बोली और लोक गीतों का अद्भुत और मोहक समन्वय है। मोहक इतना कि कविता पुष्कर के पैतृक गांव जाने की घोषणा कर देती है।                                    पुष्कर के पैतृक गांव "सुमकोट" जाने की कहानी के समानांतर "संघर्ष वाहिनी" की टूटन और टिहरी बांध विरोधी आंदोलन की आहट दर्ज़ है। गांव के बारे में पाठक को पता लगता है- "इस तरह पूरा सुमकोट गांव तिवाड़ी-ब्राह्मणों का था, गांव की दक्षिणी सीमा पर बसे चार हलवाहा परिवारों को छोड़कर। वैवाहिक रिश्तों में कहीं-कहीं ऊंच-नीच भी हुई थी लेकिन वह कलह के समय ही एक-दूसरे को सुनाई जाती थी।" गांव के बदलाव की कथा यूँ तो हर अन्तरसंवाद में दर्ज है लेकिन उसकी एक बानगी- "सड़क गाँव से आज भी दूर थी, बिजली नहीं पहुंची थी और पानी दूर धारे या नौले से भरकर लाना पड़ता था। इसके बावजूद नई पीढ़ी को बाहर की हवा छू रही थी। घाघरा-आँगड़ा की जगह "धोती-बिलौज" आम पहनावा हो गया था। किशोरियों ने माला-मुनड़ी (अंगूठी) और चूड़ी से आगे "किरीम-पौडर-लिपस्टिक" और 'नेल-पॉलिश' का आकर्षण सीख लिया थाकिशोर होते लड़के 'नंगे-सिर'(बिना टोपी) देसी फूंकने (हिंदी बोलने) में शान समझने लगे थे।"                                               

संघर्ष वाहिनी की टूटन : "संघर्ष वाहिनी आरोप प्रसारिणी बनी हुई थी ….संघर्ष वाहिनी टूट गई थी। सबसे बड़ी टूटन पुष्कर के मन में हुई। उस रात उसने कविता की तरफ मुँह करके भारी साँस छोड़ते हुए पश्चाताप व्यक्त किया-"ेकार ही लखनऊ छोड़ा।" इस सम्बंध में आंदोलन के सजग और कर्मठ साथी सलीम और पुष्कर के बीच का संवाद इस टूटन को स्पष्टता से रेखांकित करता है।                        अगला खंड "बांध दी गई नदी में डूबता समाज"- इस खंड में कुछ जीवंत चरित्र हैं, कुछ सही नामों से, कुछ बदले हुए नामों के साथ। सही नामों के साथ आते हैं पत्रकार उमेश डोभाल, लेखक और सुप्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता विद्यासागर नौटियाल। बदले हुए नामों के साथ टिहरी बांध के विरोध में अनशन  कर रहे बाबा  जीवनलाल। पाठक सहज ही समझ लेता है कि यह सुंदरलाल बहुगुणा हैं। आंदोलन में अपनी अनुपस्थिति से भी उपस्थिति दर्ज कराते रामप्रसाद हैं। पाठक उन्हें भी चंडी प्रसाद भट के रूप में पहचान सकता है, टिहरी बांध विरोधी आंदोलन की वास्तविक शुरुआत करने वाले  वीरेंद्र दत्त सकलानी को भी। इन सबकी निस्पृह चरित्र मीमांशा भी उपन्यास में दर्ज है, शायद इसीलिए कुछ नाम परिवर्तित किये गए  जबकि सीधे सपाट आंदोलनकारी अपने सही नामों के साथ हैं। डूब की कगार पर टिहरी के मार्मिक विवरण, मुआवज़े के खेल, पत्रकार उमेश डोभाल की हत्या, हत्या के खिलाफ देशव्यापी आन्दोलन, सी बी आई जांच के समानांतर कविता और पुष्कर की भावी संतान की उम्मीद को तोड़ती कविता की जटिल शल्य-चिकित्सा। जैसे, लेखक ने उम्मीदों को तोड़ने के कई समानान्तर रूपक गढ़े हों।                               सी बी आई की विशेष अदालत द्वारा उमेश डोभाल की हत्या के अभियुक्तों को बाइज्जत बरी करने का विवरण- "मोहन नेगी समेत सभी अभियुक्तों ने अदालत के बाहर निकलते ही ख़ूब ख़ुशी मनाई। अब वे अभियुक्त नहीं थे। अदालत के फ़ैसले ने उनके सभी दाग धो दिए थे। वे उजले, माननीय, मसीहा लोग थे। जो दाग बिना धुले रह गए थे, वे उमेश डोभाल के नाम पर थे। यह न्याय हुआ।" पहाड़ की खुदाई के कारण भू-स्खलन, गाँवों में फिर पसर रही नशे की लत, मंडल कमीशन के विरोध में छात्रों के आंदोलन, उत्तराखंड के दलित और पिछड़ों की विडंबना से लेकर दिल्ली में  अलग उत्तराखंड राज्य की मांग के लिए रैली के विवरण,  उत्तराखंड की मांग के लिए निकले लोगों के दमन, रामपुर तिराहा और नारसन में स्त्रियों के बलात्कार के विवरण स्वप्न और यथार्थ के मर्मस्पर्शी संयोजन से बुने गए हैं। स्वप्न के रेशे की टीस यथार्थ है और यथार्थ स्वप्न सरीखा। कविता और पुष्कर के बीच संवाद की एक बानगी- "जब फ़ौजें दुश्मन देश में घुसती हैं तो सबसे पहले उसकी औरतों का रेप करती हैं। युद्धों का इतिहास बलात्कारी फ़ौजों के कुकर्मों का इतिहास भी हैउत्तराखंड एक दिन बनेगा साहबो, लेकिन इतिहास तुम्हें क्षमा नहीं करेगा। वोट की राजनीति के लिये तुमने लाशें ही नहीं गिराईं, पहाड़ की स्त्रियों के समूचे अस्तित्व और उनकी आत्मा को रौंदने का षड्यंत्र किया।"

"हाँ कविता, उत्तराखंड एक दिन अवश्य बनेगा। जब लोग बलिदानों को याद करेंगे तो स्त्रियों का ज़िक्र सबसे पहले आएगा।" पुष्कर भावुक हो गया।                                           

कविता ने तड़प कर पुष्कर को देखा- "नहीं, तुम पुरूषों के लिए बलात्कार को भी बलिदान बना देना कितना आसान है। बलिदान नहीं, यह बर्बर पुरुष-समाज और शासन-व्यवस्था का पाशविक व्यवहार है। यह स्त्री उत्तराखंड राज्य में भी ठगी और लूटी जाएगी।" मुज़फ्फरनगर से सुलगी आग पहाड़ों की तरफ सरपट दौड़ी। अखबारों में झूठ परोसने की शुरुआत हो चुकी थी।                                   

उत्तराखंड राज्य- उत्तर प्रदेश की कोख से आज आधी रात को एक नया राज्य जन्म लेने वाला है। लखनऊ से कई उत्सुक प्रवासी उत्तराखंडी, मीडिया के दल और सत्ता के गलियारों में घूमने वाले भांति-भांति के लोग सैकड़ों की संख्या में देहरादून पहुंच रहे थे। नए राज्य की राजधानी कहाँ होगी, यह विधेयक में बताया न राजाज्ञा में। नेता नैनीताल या देहरादून या कालागढ़ जैसे नाम सुझाने लगे। जनता की निर्विवाद राजधानी गैरसैंण का कहीं नाम ही नहीं। लगता है दलाल-माफिया-नेता-अफसर गठजोड़ पर्दे के पीछे सक्रिय हो गया है। इनमें एक है लखनऊ में रियल-स्टेट कारोबारी, प्रवासी कुंदन शाह जो लखनऊ में पहाड़ के प्रवासियों के लिए कई सहकारी समितियों का संचालक है, 'कुमाऊँ गौरव' और  'उत्तराखंड श्री' सम्मान से सम्मानित है। नए राज्य में उसने भी दस्तक दे दी है। फिलहाल भीमताल में भवाली रोड के कुछ नीचे  आठ नाली और देहरादून-मसूरी रोड पर सहस्त्रधारा के पास दो एकड़ ज़मीन खरीद कर वहां क्रमशः ' कूर्मांचल कॉटेजेज' और 'सहस्त्रधारा कॉटेजेज' का बोर्ड लगा दिया है। राजपुर रोड पर एक बड़े से बंगले में 'देवभूमि डेवलपर्स' का कार्यालय खुल गया है। कविता और पुष्कर गांव आ कर बस गए हैं। भाजपा के नेतृत्व में बने "उत्तरांचल" के पहले विधान सभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधी लड़ाई के बीच आर्थिक रूप से  विपन्न लोक वाहिनी, क्रांति दल और कम्युनिस्ट पार्टियों का संयुक्त मोर्चा भी चुनाव में है। कांग्रेस की विधान सभा मे जीत, हरीश रावत की जगह नारायण दत्त तिवारी के मुख्यमंत्री बनने के समानांतर पुष्कर के गांव में 'शाह-चड्ढा ग्रुप ऑफ नेचर कॉटेजेज' के बहाने किसानों से ज़मीन हथियाने और नेता-माफिया गठजोड़ के सामने पुष्कर के ग्राम प्रधानी का चुनाव हारने, पुष्कर की हताशा लेकिन गैरसैंण में राजधानी बनाने के लिए चल रहे आंदोलन में कविता की भागीदारी के साथ टिहरी के डूबने के जादुई यथार्थ में पगे मर्मस्पर्शी विवरण हैं।

विकास अर्थात ट्रिकल डाउन इकोनॉमी: "खतलिंग से निकलने वाली भिलंगना नदी टिहरी में भागीरथी से मिलने की आतुरता में भी अपने गांवों को जीवन से सराबोर करना नहीं भूलती। घणसाली कस्बे से दसेक किमी और ऊपर जाने पर फलेंडा, सरुणा, जनेत, बहेड़ा, थरेली, रौसाल, डाबसौड़ जैसे गाँव धान की रोपाई के लिये बादलों का मुँह नहीं जोहते। भिलंगना के दोनों तटों पर बनाई गई छह पक्की गूलें(नहरें) पानी नहीं ज़िंदगी बहाती चलती हैं।" यहीं कथित विकास की दौड़ में 'पावर-प्रोजेक्ट' बनने जा रहा था। ग्रामीण आंदोलन पर हैं, दमन का शिकार हो रहे हैं। "भिलंगना घाटी के ग्रामीणों का जीवन पटरी से उतर गया था। सन 2004 से लड़ते लड़ते 2006 आ गया …. उनके संघर्ष की ओर किसी पार्टी, संगठन या पर्यावरण-संत का ध्यान नहीं था। 'हिमालय को बचाने के लिए ' टिहरी में अनशन कर चुके बाबा जीवन लाल और 'पर्यावरण पुरूष' बन चुके रामप्रसाद जी को न हिमालय खतरे में दिखा न पर्यावरण। क्षेत्र का विधायक कंपनी की भाषा बोल रहा था।उत्तराखंड की दूसरी विधानसभा के चुनाव(2007) भी सम्पन्न हो गए। मात्र एक परिवर्तन के पुरानी ही कहानी दोहराई गई। कांग्रेस को अपदस्थ कर भाजपा सत्ता में आ गई। …. कुंदन शाह के दोनों हाथों में फिर लड्डू होने ही थे। ….अखबारों में पूरे पेज के रंगीन विज्ञापन और खबरिया चैनलों में लघु फिल्में जोर-शोर से एलान कर रही थीं- उत्तराखंड विकास के पथ पर तेज़ी से अग्रसर।"

इस नए राज्य में लेखक जन गायक गिर्दा के गीत के साथ उपस्थित होता है। "कस होलो उत्तराखंड, कास हमारा नेता/कसि होलो विकास नीति,कसि होली व्यवस्था/जड़ि-कंजड़ि उखेल भली कै, पुरि बहस करुंलो/हम लड़ते रयाँ भुलू,हम लड़ते रूंलो। ज़माने को जगाने वाला गिर्दा गहरी नींद सो गया।" कोई नहीं कहेगा कि खामोश रहा गिर्दा,कभी नहीं। उसकी छटपटाहट से निकलते रहे गीत,कविताएं, नाटक, नारे, सुर-ताल और सबकी बेचैनी को स्वर देते रहे। छटपटाहट की लहरें पैदा करते रहे। इसीलिए कभी ठीक से सो ही नहीं पाया।" आंदोलन होते रहे लेकिन सत्ता सिर्फ एक हाथ से दूसरे में हस्तांतरित होती रही।" सन 2012 में उत्तराखंड विधानसभा के तीसरे चुनाव थोड़े हेर-फेर के साथ पहले जैसे परिणाम देकर संपन्न हो गए। भाजपा अपदस्थ और कांग्रेस सत्तारूढ़ हो गई। इंडस्ट्रियल कॉरिडोर, आईटी हब, एमओयू और इंटरनेशनल टूरिस्ट डेस्टिनेशन जैसे शोर में आंदोलनकारियों के यदा-कदा जुलूस, धरना-प्रदर्शन और जन गीत खो जा रहे थे।" नानीसार में आंदोलनकारी किसानों और ग्रामीणों का दमन करके नए मुख्यमंत्री रावत द्वारा पहले इंटरनेशनल स्कूल का शिलान्यास किया जा रहा था। …. पुष्कर के गांव का हाल यह था- "पैंतीस-चालीस मवासों के सुमकोट में अब मुश्किल से बारह परिवार रह गए थे।" हलवाहे धनराम के पलायन के बाद ब्राह्मण असहाय महसूस कर रहे थे। ऐसे में एक दिन "खेत में सचमुच बैल जुते हुए थे। हल की मूंठ पुष्कर के हाथ मे थी।" पुष्कर की काकी ब्राह्मण-भतीजे के हल चलाने को लेकर न सिर्फ उससे संबंध विच्छेद कर लेती है, बल्कि मृत्यु के बाद 'क्रिया-कर्म' के लिए भी मना करती है। जातीय व्यवस्था की इस जकड़न का लेखक ने मार्मिक चित्रण किया है।  अलग राज्य की मांग मंडल कमीशन की पिछड़ों के लिए आरक्षण के विरोध में सवर्ण छात्रों के आंदोलन के गर्भ से जन्मी लेकिन यहां भी लेखक ने सजगता के साथ दलित और पिछड़ों के पक्ष को रेखांकित किया है। "आप अवश्य अपनी रणनीति तय कीजिए। मैं और मेरे बहुत से साथी इसका हिस्सा बनना चाहते हैं लेकिन हमारी कुछ शंकाएँ हैं। हम दलित युवक किस भरोसे इस आंदोलन में शामिल हों? पिछड़ी जातियां भी उत्तराखंड में हैं। कम हैं लेकिन हैं। वे आंदोलन में कैसे साथ आएं, क्यों आएं?"                                             

माओवाद के नाम पर आदिवासियों का दमन- "लंगड़ा बोझ गाँव में सलीम अहमद के ठिकाने से हथियार, गोलियां, हथगोले और प्रतिबंधित साहित्य बरामद हुआ है। ….गिरफ्तार माओवादियों से पूछताछ चल रही है।" पुष्कर जेल में सलीम से मिलने पहुंचा है। "ये रामचंदर, गोकुल और गोवर्धन वही हैं न जिनसे हम कुछ साल पहले दिनेशपुर के ढाबे में मिले थे, जब कविता बीबीसी के लिये रिपोर्ट कर रही थी? जिनकी ज़मीन सिख रसूखदारों ने हड़प रखी है?"  सलीम ने हाँ में गर्दन हिला दी- "पकड़ा भी वहीं गाँव से।"          मीडिया में मुठभेड़ की खबर है, जंगल मे ट्रेनिंग कैम्प।"  "पुराने पुलिसिया तरीके।" वह हंसा। फिर एकाएक  गंभीर होकर कहने लगा "एक काम करोगे, पुष्कर भाई? भाभी के और अपने पत्रकार मित्रों से कहो कि पता लगाएं कि कहां, कब और कैसे मुठभेड़ हुई? ट्रेनिंग कैम्प लगा होगा और गोलियां चली होंगी तो कुछ सबूत होंगे ….कोई जाकर पूछे दिनेशपुर, लंगड़ाबोझ गांव में, क्या कहते हैं वे आदिवासी? उनकी ज़मीन किसके कब्जे में है जिसका लगान वे खुद भरते आये हैं। …. मुझे जेल से डर नहीं है,  न ही मार खाने से, न मौत से। यह जरूर चाहता हूँ कि जनता के सामने सच्चाई आये।" 

साम्प्रदायिकता की आहट: "मास्टर मुस्तफा टेलरिंग शॉप" के सामने ऊंचे स्टूल पर चढ़े असगर भाई दूकान के नाम-पट को साफ कर रहे थे।"  "अच्छा किया पुष्कर, आ गए। तुम्हें कई दिनों से याद कर रहा था।"  "बताइये भैया"  "बताना क्या है, ऊपर देखो"  किसी ने 'मुस्तफा' को काटकर उसके ऊपर 'माओवादी' लिख दिया था।  "किसने किया? कब?” पुष्कर सदमे से उबर नहीं पा रहा था। "अक्सर कोई रात में कर देता है। कभी बीफ ईटर लिख देते हैं" वे रुआंसे हो गए। 

इस प्रकरण पर लेखक की टिप्पणी बहुत कुछ कहती है- "इसी अल्मोड़े की रामलीला का मंच सलीम के दादा मास्टर मुस्तफा बनाया करते थे, जिन्हें यहीं के कुछ लंपट अब 'माओवादी' और 'बीफ ईटर' लिख रहे हैं। कलीम चच्चा मंच निर्माण की व्यस्तता के कारण अपनी दुकान भी बंद कर देते थे। यहां के प्रसिद्ध दशहरा जुलूस के पुतलों की रखवाली में हमीदा चाची रात भर जागती थीं। कुछ पुतले तो उन्हीं के आंगन में बनते थे। तो, 2014 के बाद हिंदुस्तान इस तरह बदल रहा है।"

उपन्यास का समापन गांव लौटते हुए पुष्कर और कविता के बीच आसपास पसर रहे बाज़ार, कथित विकास और आंदोलन की जरूरत के संवादों और गांव के ऊपर पहाड़ी पर एक जोरदार धमाके के साथ होता है। यह विकास का धमाका है। 

कुल मिलाकर वरिष्ठ पत्रकार, लेखक नवीन जोशी का उपन्यास 'देवभूमि डेवलपर्स' पहाड़ की बोली-बानी, संस्कृति-संस्कार में रचा-पगा अत्यंत पठनीय और पहाड़ को समझने का अनूठा दस्तावेज है।

((जनसंदेश टाइम्स में रविवार, 6 नवम्बर 2022 को प्रकाशित

No comments: