आठ नवम्बर, सन दो हजार की रात। परेड मैदान, देहरादून।
यह मनुष्यों की भीड़ है या बांस-बल्लियों की?
कहां से आए हैं ये लोग? अनजाने-पराए क्यों लग
रहे हैं? चमोली की जनता नहीं दिख रही? पौड़ी
वाले कहां है, राजू भाई? महिलाएं पीछे
रह गई क्या? ओ विमला जी, तारा जी,
मंच के करीब आइए न! महिलाओं को सबसे आगे रहना है। इस राज्य के लिए
असली लड़ाई उन्हीं ने लड़ी। शैली, मेरे दोस्त, देखो, महिलाओं की ताकत! तुम बेवजह ही संदेह करते रहे।
वो रहा गैरसैण, चौखुटिया, द्वाराहाट,
सोमेश्वर वालों का विशाल दल। ढोल-नगाड़े बज रहे। निशाण हवा में लहरा
रहे। अरे, इधर आओ, इधर। वहां कहां जा
रहे, उलटी दिशा में? निशाण वालों को
कहो, मंच इस तरफ है... कहां गायब होते जा रहे सब? … ये कौन लोग आ गए इतने सारे? पुलिस वाले कहां से आ गए? अरे शम्भू, तुमने खादी का सफेद कुर्ता-पाजामा-टोपी क्यों पहन लिए आज? सी पी है कि चन्दर कि राधाबल्लभ? … इनकी शक्लें
क्यों बदली हुए हैं? फूली तोंद वाले, मसाला
चबाते-थूकते, लाल गालों वाले मुस्टण्डे…। शैली, तुम इन्हें लखनऊ से क्यों ले आए यहां? बाहर निकालो... हमारे उत्तराखण्ड की सरकार का शपथ ग्रहण समारोह है। यूपी
समझ रखा है क्या! इनका यहां कोई काम नहीं। काम तो पुलिस का भी नहीं है।
‘गैरसैण-गैरसैण, राजधानी गैरसैण। गैरसैण-गैरसैण ...।’
शांत रहो, दोस्तो!
अब क्यों नारे लगा रहे हो? राजधानी गैरसैण ही होगी। मंच से
घोषणा होने वाली है। धीरज धरो। पहले शपथ तो होने दो। सी पी, राधाबल्लभ,
समझाओ यार, इन लड़कों को। आज नारे लगाने का दिन
नहीं है। आज त्योहार का दिन है। अरे, जनता ने घरों में
अंधेरा क्यों कर रखा है? बिजली के लट्टू जलाओ। दीपमाला बारो।
आज मनाओ बग्वाल, गोवर्धन, एगास। गोठ के गाय-बैलों को छापो, ओने-कोने का दलिद्दर भगाओ। भुय्यां निकाल दो गरीबी की, उपेक्षा और शोषण की। गई गोरख्याली! पहाड़ के इतिहास में एक नया अध्याय
शुरू हो रहा है...। शैली... शैली... मैं बैठना चाहता हूं... थक गया हूं। खुशी
मुझसे सम्भाली नहीं जा रही...। वजीरा, पानी पिला। हां,
अब ठीक है।
सुनो-सुनो, मंच से
कोई घोषणा हो रही है! बहुत शोर है यार। ठीक से सुनाई नहीं दे रहा। क्या कह रहे हैं?
अच्छा, गिर्दा को बुला रहे हैं मंच पर! बढ़िया
बात है, शपथ ग्रहण समारोह की शुरुआत जन-संघर्षों के गीतों से
ही होनी चाहिए... आज हिमाल तुमन कें धत्यूछौ.... जाग गए हैं, जाग गए हैं अब मेरे लाल... शर्माओ नहीं गिर्दा! आज सड़क पर नहीं, मंच से गाने का दिन है... बीड़ी का सुट्टा लगाने में रह गए क्या? क्या कहा, गिर्दा नहीं आए हैं? क्यों नहीं आए बल...! ये भी ऐन मौके पर टेड़ी जाते हैं। चलो नरेंद्र भाई,
तुम आ जाओ। एक ही बात हुई.. बोल भै-बंदू तुमथैं कनु उत्तराखण्ड
चयेणू छ... अभी बताएंगे नरेंद्र भाई, हमारे भाई-बंधुओं को
कैसा उत्तराखंड चाहिए। तनिक प्रतीक्षा करो। बस, रात के बारह
बजने ही वाले हैं। आओ-आओ, बाबा जीवनलाल और रामप्रसाद जी,
पधारो। मंच पर आपके नाम के आसन विराजमान हैं। सही समय पर पधारे। आप
के बिना कैसे बने उत्तराखण्ड।
‘मैं…’
‘मैं, सुजीत बरनाला
...’
क्या! मना कर रहे हैं बरनाला जी?
अच्छा, बडूनी जी को बुला रहे हैं शपथ लेने के
लिए? … नहीं, बरनाला जी, इंद्रमणि बडूनी तो कूच कर गए लड़ते-लड़ते। उनको चाहिए भी नहीं था कोई पद। ना,
आप ले लो शपथ ... वाहे गुरुजी दी फतह, वाहे
गुरुजी दा खालसा ... राज करेगा खालसा। शैली डियर, हम पंजाब
में कैसे पहुंच गए? हम तो परेड मैदान, देहरादून
में थे! ये उत्तरांचल-उत्तरांचल किसने लगा रखी है मंच से?
वजीरा, पानी पिला। गला सूख रहा है।
‘गैरसैण-गैरसैण, राजधानी गैरसैण ...। दून नहीं गैरसैण, राजधानी
गैरसैण।’
‘मैं...’
‘मैं, सत्यानंद
स्वामी... मुख्यमंत्री के रूप में भय या पक्षपात, अनुराग या
द्वेष के बिना सभी लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार कार्य करूंगा ... मैं...’
तालियां! बधाई! बधाई,
चमोली की महिलाओ, पौड़ी के लड़ाकाओ, अल्मोड़ा के आंदोलनकारियो, नैनीताल के जांबाजो,
सीमांतों के रहवासियो, हमको अपना राज्य मिल गया,
राज्यपाल मिल गया, मुख्यमंत्री मिल गया।
बधाइयां, शुभकामनाएं! दीप जलाओ घर-घर...घी के दीए... इस दिन
के लिए कितना संघर्ष किया, कितने बलिदान दिए। अंतत: यह दिन आ
गया... वजीरा, पानी पिला दे।
ट्रिस्ट विद डेस्टिनी! ... आज आधी रात को जबकि
दुनिया सोती है, उत्तराखण्ड के लिए नई सुबह हो रही
है। ऐसा क्षण इतिहास में विरले ही आता है, जब हम पुराने युग
से निकलकर नए युग में प्रवेश करते हैं, जब एक युग समाप्त हो
जाता है... जब तक एक भी आंख में आंसू है, तब तक हमारा काम
समाप्त नहीं होगा...।
‘सत्यानंद स्वामी ज़िंदाबाद, ज़िंदाबाद-जिंदाबाद, भारतीय
जनता पार्टी, जिंदाबाद!’ ... ‘गैरसैण-गैरसैण, राजधानी गैरसैण!’
किसकी तबीयत खराब है,
शैली? नहीं, मैं ठीक हूं।
हां, स्वामी जी के घुटनों में दर्द है। उम्र हो गई। पहाड़ों
में लिफ्ट नहीं होती, बता देना उनके पीएस को। चढ़ाई में अधिक
नहीं दौड़ा देना।
ठहरो-ठहरो! कहां चले? राज्य-गीत तो हुआ नहीं... उत्तराखण्ड मेरी मातृभूमि, मातृभूमि मेरी पितृभूमि, ओ भूमि तेरी जै-जैकारा,
म्यार हिमाला... बुम-बुहुम-बुम-बुम... हिमाला तेरी जै-जैकारा।
सुनो-सुनो, मुख्यमंत्री
क्या कह रहे हैं... शैली, ठीक से नोट करना... ‘राजधानी गैरसैण, गैरसैण-गैरसैण...’ पहले नारे लगाने वालों को चुप कराओ...। लाठी मत चलाओ, एसपी साहब! आंदोलन नहीं हो रहा। लड़कों को आज के दिन मारो मत...। सी एम की
सुनो, क्या रहे? जुलूस निकालने वाली
दस-पंद्रह महिलाओं को चाय पर बुला रहे? उन्हें मना लेंगे कह
रहे? गिनती गड़बड़ हो गई, स्वामी जी!
पूरा उत्तराखंड भरकर हैं महिलाएं। चाय रहने दे वजीरा, पानी
पिला।
शैली, मुझे लेटने
दो... वो देखो, ऊपर। अरे वाह बाबू! आज तुम खित-खित हंस रहे
हो! तुम जो अपने पुरखों के गांव को जीवित रखने के लिए लखनऊ में गली-गली घूमकर
अखबार बेचा करते थे, जिसे एक दिन अपने सपनों के साथ ट्रक
कुचल गया था। ओ मेरी इजा, तुम खुश दिख रही हो! तुम, जो सालों साल पूरा पहाड़ अपने सिर पर उठाए पति और बेटे की प्रतीक्षा में रातों
के बुखार से तड़प-तड़प कर मर गई... ओ हमीदा चच्ची, प्यारे प्रताप
सिंह... ओ, हंसा धनाई और बेलमती चौहान… सलीम अहमद और परमजीत, भैजी रवींद्र रावत और पंकज
त्यागी और तुम सब नाम-अनाम शहीदो, जो ऊपर से देख रहे हो,
तुम सबको बधाई… वजीरा, पानी
पिला।
बहुत गर्मी है। राज्य बनने में इतनी गर्मी
लगती है क्या! शैली डियर, छत्तीसगढ़ वालों से
पूछो तो।
(उपन्यास 'देवभूमि डेवलपर्स' का एक अंश)
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