लम्बे और व्यापक जन भागीदारी वाले आंदोलन के बावजूद सरदार सरोवर बांध बन गया लेकिन नर्मदा घाटी के लोग हारे नहीं। बांध बन गया, इसलिए आंदोलन असफल हो गया- इसे वे नहीं मानते और कहते हैं कि "आंदोलन ने विकास के मापदण्डों को नया आयाम दिया है। अब यह सिर्फ बांध विरोधी संघर्ष नहीं है, बल्कि अब यह सामाजिक परिवर्तन का संघर्ष है।" इसलिए वे आज भी लड़ रहे हैं। गांव डूबे हैं, विस्थापन हुआ है लेकिन ‘जमीन के बदले जमीन’ वाले पुनर्वास और नदी तथा जंगल के लिए आंदोलन जारी है। नर्मदा आंदोलन की बहुपक्षीय आंशिक एवं दीर्घकालिक सफलताएं हैं। जिन ग्रामीणों ने मुआवजा ले लिया और अन्यत्र बस गए वे भी आंदोलन में भाग लेते हैं।
'नर्मदा घाटी से बहुजन गाथाएं' (नवारुण प्रकाशन) शीर्षक किताब नर्मदा घाटी के उन सीधे, सरल किंतु जीवट वाले ग्रामीणों और वनवासियों की जुबानी कहे गए, अपने हक के लिए लड़ने के अनुभवों और उसकी जय-पराजयों के बारे में है। ये वही आदिवासी हैं, वनवासी और आम ग्रामीण हैं, जिन्हें पता नहीं था कि सरकारी विकास क्या होता है, बांध क्या होता है, वह उनका क्या-क्या छीन लेगा, और जिन्हें ‘मेधा ताई’ या ‘मेधा दीदी’ और उनके साथियों ने धीरे-धीरे समझाया और एक बार जब वे समझ गए तो ऐसे गांधीवादी लड़ाका बन गए कि उनकी आवाज राष्ट्रीय सीमाएं पार कर अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर कही-सुनी गई, उसका असर हुआ जिसके कारण बांध बनने के बावजूद वे अपना अधिकार जताने और अपने विरोध को जायज ठहरा पाने में काफी हद तक कामयाब हुए। यह वनों पर, नदियों पर, जमीनों पर आम ग्रामीणों के अधिकार की चेतना और उसे बचाने के लिए लड़ने का संकल्प ही है, जो पीढ़ी-दर पीढी वे लड़ पा रहे हैं।
‘नर्मदा घाटी से बहुजन कथाएं’ सामान्य
लेकिन संघर्ष की चेतना से भरे चौदह ग्रामीणों की कहानी है जिसे तीनों राज्यों की
बांध प्रभावित नर्मदा घाटी में घूम-घूम कर उन्हीं की भाषा में एकत्र किया गया,
अंग्रेजी में उसे सम्पादकों की एक टीम (ओजस एस वी, मधुरेश कुमार, एम जे विजयन और जो अत्यालि) ने
लिखा-सम्पादित किया और फिर चिन्मय मिश्र ने हिंदी में अनुवाद करके प्रस्तुत किया।
इसीलिए यह सामान्य किताब नहीं है। यह इस देश के अत्यंत साधारण लोगों के मुंह से
निकली वह आवाज है जो पूरी ताकत से कहती है कि अपने पानी, अपने
जंगल, अपनी जमीन और अन्य प्राकृतिक संसाधनों पर पहला हक
हमारा है और विकास के नाम पर हमें अपनी जड़ों से बेदखल करना वास्तव में पूरी सभ्यता,
संस्कृति और जीवन-शैली को नष्ट करना है और हमें ज़िंदा रहने के लिए
उससे लड़ना है।
जिस अंदाज और शैली में ये बातें कही गई हैं, उन्हें
कोई पर्यावरणविद, कोई समाजशास्त्री, कोई
जन नेता या विशेषज्ञ नहीं कह सकता क्योंकि ग्रामीणों की आवाज प्रकृति के साथ
सदियों के तादात्म्य से उपजी मौलिक भाषा में निकली है। उदाहरण के लिए, डोमखेड़ी, महाराष्ट्र की अत्यंत जुझारू आंदोलनकारी
डेडली बाई वसावे ने बांध बनाने वालों से पूछा- “हमारे पास
पूरी नदी है और बदले में तुम हमें हैंडपम्प दे रहे हो?” यह
बात उन लोगों के अलावा और कौन कह सकता है जिन्होंने पीढ़ियों से नदियों, जंगलों और जमीनों के साथ आत्मीय रिश्ता बनाकर जीवन जीया है? सम्पादकीय में ठीक ही कहा गया है कि “यह पुस्तक नर्मदा आंदोलन के सरदार
सरोवर परियोजना प्रभावित क्षेत्रों से आने वाले कार्यकर्ताओं की ढेर सारी आवाजों
को एक साथ रखने का प्रयास है जो काफी हद तक परिष्कार रहित है और जटिलताओं को आपस
में जोड़ने में उतनी महारत शायद नहीं रखतीं। परंतु उनके पास उनके और हमारे आसपास
मौजूद भिन्न-भिन्न सामाजिक व राजनीतिक मुद्दों को लेकर एक स्पष्ट और मजबूत नजरिया
मौजूद है।”
बामनी, महाराष्ट्र के पुण्या वसावे ने पुनर्वास
स्वीकर कर लिया और सोमवाल जाकर बस गए लेकिन वे मूल गांव एवं आंदोलन से जुड़े हुए
हैं और नियमित भागीदारी करते हैं। वे कहते हैं- “विस्थापन और पुनर्वास के अनुभव से
हमें यह समझ में आया कि सरकार इसे लेकर जो तमाम कानून और नीतियां बनाती है,
वह न सिर्फ बेकार हैं, बल्कि विनाशकारी भी
हैं। सरकार बजाय छोटी योजनाएं बनाने के अनावश्यक रूप से बड़ी परियोजनाओं में धन
बर्बाद कर रही है। नर्मदा बचाओ आंदोलन ने बिलगांव में एक छोटी परियोजना बनाकर
दिखाई है जो कि पूरे गांव के लिए बिजली पैदा कर सकती है। लेकिन इस बड़े बांध ने
बहुत सारी उपजाऊ जमीन और जंगल डुबो दिए हैं और अनेक समुदायों को विस्थापित भी किया
है।” खार्या भादल, मध्य प्रदेश के गोखरू मण्डल ने गांव उजाड़ने
आए अफसरों, पुलिस वालों से पूछा- “आपका काम तो गांव की रक्षा
करना है और इसके बजाय आप गांव को नष्ट कर रहे हो। तो, अपराधी
कौन है?” इस तरह वे समझ गए कि “यदि हम नहीं लड़ेंगे तो भी हर
हाल में अपने अधिकारों को खो देंगे। यह तो मौत से भी बदतर है।”
सभी आंदोलन कमजोर पड़ते हैं लेकिन उसका क्या असर होता है? गोखरू
कहते हैं- “बहुत से लोगों ने हमारा साथ छोड़ दिया है और राज्य के दलाल बन गए हैं।
नदी पार करते ही ककराना गांव में शराब की दुकानें फिर दिखाई देने लगी हैं।
दुकानदारों और पुलिस की मिली भगत है। लोगों की अधिक मात्रा में धन कमाने की
आकांक्षा की वजह से हमारी एकता नष्ट हो गई है। शराब दुकानें उन लोगों की हैं
जिन्हें जमीन मिल गई है और वे पुनर्वास स्थल पर चले गए हैं।”
शिक्षक की नौकरी छोड़कर आंदोलन में शामिल हुए भीलखेड़ा, मध्य
प्रदेश के कैलाश अवास्या आन्दोलन द्वारा संचालित ‘जीवनशालाओं’
के बारे में बताते हैं- “जीवनशालाएं आंदोलन के ‘नवनिर्माण’ से सम्बंधित प्रयासों का हिस्सा हैं।
दीर्घकालिक संघर्ष से कई बार लोग थकान महसूस करने लगते हैं। अतएव नवनिर्माण या रचनात्मक
कार्य करने की आवश्यकता होती है।” जीवनशाला वास्तव में वे स्कूल हैं जो सरकारी
स्कूलों की बदहाली और उपेक्षा से खिन्न होकर ग्रामीणों ने खुद बनाई और चलाईं,
क्योंकि बच्चों के लिए पढ़ना जरूरी है। जीवनशालाओं ने नई पीढ़ी को न
केवल स्कूली शिक्षा दी बल्कि सामाजिक, राजनीतिक चेतना भी दी
जिससे आंदोलन को नई पीढ़ी का साथ मिलता गया। इतना लम्बा आंदोलन एक ही पीढ़ी नहीं चला
सकती थी। बकौल रहमत- “मुख्य धारा की शिक्षा बच्चों को गांव के नजरिए से कुछ भी
नहीं पढ़ाती। तो बच्चे पढ़ने के बाद गांव छोड़ देते हैं। इसके बजाय जीवनशाला ने श्रम
की गरिमा और गांधी जी की नई तालीम पर जोर दिया जिससे उस नजरिए से एक शिक्षित
आदिवासी पीढ़ी तैयार हुई।” जातीय भेदभाव भी इससे काफी हद तक दूर हुआ। कैलाश से यह सुनना
भी महत्त्वपूर्ण है कि “हमें भी चुनाव लड़ना चाहिए क्योंकि वर्तमान परिस्थितियां
हमारे पक्ष में नहीं हैं। हमारे कार्यकर्ता बिखरे हुए हैं और इसलिए हमारे पास इतनी
ताकत नहीं है कि चुनाव लड़ें और जीत सकें परंतु पंचायत स्तर पर हमारे लोग लड़ते हैं
और जीतते हैं तथा वे हमारे मुद्दे उठाते हैं।”
बांध को वे नहीं रोक पाए लेकिन इसे आंदोलन की असफलता नहीं
मानते। कड़माल, मध्य प्रदेश के देवराम भाई कनेरा से सुनिए- “आन्दोलन ने कई
क्षेत्रों में अपना प्रभाव छोड़ा है। लोगों में आए परिवर्तन, उनकी
सोच, नजरिए और जागरूकता में आए परिवर्तन बहुत-बहुत उल्लेखनीय
हैं। हमारे परिप्रेक्ष्य से देखें तो महिलाओं और आदिवासियों का सशक्तीकरण, जन आंदोलनों की ताकत का प्रदर्शन और दलितों, कमजोरों
और गरीबों को आवाज देना सम्भवत: अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।” और, चिखल्दा, मध्य प्रदेश के रेहमत इसी बात को और साफ
करते हैं- “कई बार लोग पूछते हैं- संघर्ष से क्या हासिल हुआ, बांध तो बन गया? हमारा विश्लेषण इतना सामान्यीकरण
वाला भी नहीं होना चाहिए कि चूंकि बांध बन गया, इसलिए आंदोलन
असफल हो गया। आंदोलन ने विकास के मापदण्डों को नया आयाम दिया है। अब यह सिर्फ बांध
विरोधी संघर्ष नहीं है, बल्कि अब यह सामाजिक परिवर्तन का
संघर्ष है। इसने तमाम छोटे संघर्षों जैसे महिलाओं और किसानों के मुद्दों के
संघर्षों को प्रेरणा दी है।”
पुनर्वास कैसा हो, आदिवासी राण्या गोंज्या पडवी की जुबानी
सुनिए- “पुनर्वास स्थल की स्थिति ऐसी है कि खेती से चाहे हम जितना उपजा लें, पूरा ही नहीं पड़ता। 30 लोग केवल पांच एकड़ जमीन पर आश्रित हैं। शहरों में
इतनी कम जमीन के साथ जी पाना सम्भव नहीं है। यहां न तो वृक्ष हैं और न ही
पेड़-पौधे। यदि हमें अधिक जमीन मिल भी जाती है तो शहरों में ज़िंदा रह पाना कमोबेस
असम्भव है। हम सिर्फ जमीन के सहारे नहीं रह सकते। हमें पेड़ों और जंगलों की
आवश्यकता भी है।” नदी कहना शायद उनसे छूट गया होगा।
सभी चौदह लोगों के पास वे अनुभव हैं जो जन-आंदोलन के नेताओं
के पास भी शायद ही होते हों, समाजविज्ञानियों और पर्यावरण विशेषज्ञों की
तो छोड़ ही दीजिए। इतनी लम्बी लड़ाई के बाद जो निष्कर्ष उनके हैं, वह गौर करने लायक हैं। चिमलखेड़ी, महाराष्ट्र के
विज्या जुगल वसावे कहते हैं- “किसी दिन हम भी पुनर्वास स्थल पर चले जाएंगे परंतु
हम जानते हैं कि यदि हमें नई जमीन मिल भी जाती है तो भी हमें संघर्ष को ज़िंदा रखना
है। आज देश के सभी हिस्सों के आदिवासियों एवं गरीबों के पास गरिमामय जीवन जीने के
लिए संघर्ष के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं है।” संघर्ष और संकल्प के इन जमीनी
बयानों को पढ़ना, प्रकृति और उसके संसाधनों का पूरा सम्मान
करते हुए इस दुनिया को बेहतर एवं गरिमापूर्ण बनाने की लड़ाई को जारी रखने का नर्मदा
घाटी के लोगों का हौसला समझना है।
अंत में बात मेधा पाटकर की। इन बयानों में मेधा पाटकर किसी
शीर्ष नेता की तरह नहीं, ‘दीदी’, ‘जीजी’
और ‘ताई’ के आत्मीय रूप
में उपस्थित हैं। मीडिया ने उन्हें नर्मदा बचाओं आंदोलन की शीर्ष नेता के रूप में
पेश किया और आम तौर पर वे जानी भी इसी तरह जाती हैं लेकिन ये किस्से बताते हैं कि
मेधा पाटकर ने नेता की तरह नहीं, ग्रामीणों-वनवासियों के बीच
उन्हीं की तरह रहते-जीते एक प्रेरक सहयोगी के रूप में काम किया। उनकी कोशिश रही कि
हर कार्यकर्ता नेता की तरह विकसित हो और आंदोलन उन्हीं पर निर्भर हो। जन-आंदोलनों
के नेताओं और मेधा में यही फर्क है जो इस किताब से बहुत साफ-साफ उजागर होता है।
देखिए- “ताई यह सुनिश्चित करती थीं कि बैठक में आए प्रत्येक व्य्यक्ति, जिनमें बच्चे, वृद्ध और महिलाएं तक शामिल थे,
को भागीदारी का मौका मिले” (पुण्या वसावे), “जब
संघर्ष के लिए इकट्ठा होते तो दीदी जानबूझकर हरिजन या आदिवासी के यहां खाना खाती
थीं” (देवराम भाई कनेरा), “ताई,
डॉ बरंठ और हम कुछ सौ लोग 14 दिन के लिए धुले जेल में बंद थे। मेरे
बच्चे भी जेल में थे। कोर्ट ने हमें 300 रु की जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया।
हमने आपस में बातचीत की और ताई ने मुझसे पूछा- डेडली बाई, हम
क्या करें? हम सबको इस काम के लिए तीन-चार लाख रु लगेंगे।
मैंने जमा करने से मना कर दिया... ताई हमेशा हमारा हौसला बढ़ाते हुए कहती थीं कि हम
एक अच्छे मकसद के लिए संघर्ष कर रहे हैं, हमें कुछ नहीं
होगा।” (डेडली बाई वसावे), “पत्रकारों ने मेधा दीदी से पूछा-
आपने न्यायालय के सामने बहुत अच्छे सवाल खड़े किए लेकिन यदि सरकार आपकी नहीं सुनती
तो क्या होगा? उन्होंने कहा- मुझसे यह मत पूछो, उनसे पूछो जो प्रभावित हैं। सरकार ये सब गरीबों के नाम पर कर रही है। तब
मैंने कहा- हमारी जीवन शैली में बिजली की कोई जरूरत नहीं है। इसके बावजूद सरकार हम
सबको भूमिहीन बनाकर बिजली उत्पादन के लिए विशाल बांध बना रही है। दिल्ली में भी
यमुना नदी है। आप बिजली उत्पादन के लिए इस पर बांध क्यों नहीं बनाते और दिल्ली को
क्यों नहीं डुबोते? क्या हमारे अधिकार दिल्ली के लोगों से
अलग हैं?” (बाबा महरिया, जलसिंघी,
मध्य प्रदेश)।
इस तरक प्रत्येक कार्यकर्ता ने मेधा पाटकर की जो तस्वीर पेश की है, वह नेता की नहीं, जरूरी सहयोगी की है, जो अपने को और अपने फैसलों को आगे रखने की बजाय हर कार्यकर्ता को आगे करती हैं और उनके बराबर खड़ी रहती हैं। उनमें वह ‘व्यक्तिगत नायकत्व’ की चाह नहीं है, जो हम अन्यत्र आंदोलनों के नेताओं में पाते हैं।
नर्मदा घाटी के इन सामान्य लेकिन संकल्पबद्ध लोगों की संघर्ष कथाएं पढ़ते हुए बार-बार टिहरी बांध विरोधी आंदोलन की याद आती है। उस आंदोलन की भी दुनिया भर में चर्चा हुई थी लेकिन भिलंगना और भागीरथी घाटियों के लोग टूट गए, हार गए। अपने अधिकारों के लिए लड़ने की बजाय वे अधिक से अधिक आर्थिक मुआवजा पाने में लग गए और शायद अब भी लगे हैं। अपने गहन शोध-अध्ययन 'हरी-भरी उम्मीद' (पृष्ठ 384-85, वाणी प्रकाशन) में शेखर पाठक लिखते हैं-
“नर्मदा घाटी के लोग नष्ट नहीं होना चाहते थे और अब तक लड़ रहे हैं। उत्तराखण्ड में पिछली डेढ सदी की पलायन की प्रक्रिया ने अपनी जड़ों से कटने के मनोविज्ञान को एक सीमा तक उचित मान लिया था। अत: सबसे बेहतरीन जमीन को बचाने की लड़ाई वे शुरू ही नहीं कर सके।... सुंदर लाल बहुगुणा और मेधा पाटकर के फर्क को समझना भी जरूरी है...। आज टिहरी से गए विस्थापित और यहां शेष रह गए लोग आवाज विहीन हैं।”
'नर्मदा घाटी से बहुजन गाथाएं' टिहरी बांध और सुंदरलाल बहुगुणा का जिक्र किए बुना मेधा पाटकर और बहुगुणा जी का फर्क साफ समझा देती है।
पुस्तक की प्रस्तावना में अरुणा राय लिखती हैं कि “यह संकलन हर उस
व्यक्ति को पढ़ना चाहिए जो भारतीय लोकतंत्र के सबसे कमजोर और सबसे अरुचिकर हिस्से
को समझना चाहते हैं।” इसके साथ ही मैं कहूंगा कि देश में जहां-जहां जनता के आंदोलन
चल रहे हैं, विशेष रूप से उत्तराखण्ड के उन सब कार्यकर्ताओं और नेताओं को
यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए जो जानना चाहते हैं कि ‘ऐतिहासिक
जन-आंदोलनों’ के बाद भी उनके समाज में बदलाव की राजनैतिक
चेतना क्यों विकसित नहीं हुई।
‘नवारुण प्रकाशन’ ने यह पुस्तक प्रकाशित
करके अत्यंत महत्त्वपूर्ण काम किया है।
....
पुस्तक- ‘नर्मदा घाटी से बहुजन गाथाएं। सम्पादक—ओजस
एस वी, मधुरेश कुमार, विजयन एम जे,
जो अत्यालि। अनुवादक- चिन्मय मिश्र। प्रकाशक- नवारुण प्रकाशन। मूल्य-
रु 350/- सम्पर्क- 9811577426
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