Friday, July 15, 2022

संस्कृत में डॉन क्विग्जोट!

सन 1935 की एक दोपहर जब धनवान अमेरिकी व्यापारी कार्ल टेल्डिन केलर किताबों के अपने संग्रह को गर्व से निहार रहा था तो उसकी नजर दुनिया का पहला आधुनिक उपन्यास मानी जाने वाली सर्वांतीस की बहु-प्रसिद्ध रचना डॉन क्विग्जोटपर पड़ी। इस उपन्यास के मूल स्पेनी संस्करण के अलावा उसके संग्रह में विश्व की कई भाषाओं में अनूदित प्रतियां थीं। अचानक उसे सूझा डॉन क्विकजोटका संस्कृत अनुवाद भी उसके पास होना चाहिए। उसने सुन रखा था कि संस्कृत दुनिया की प्राचीन भाषाओं में एक है।

केलर को दुनिया की बेहतरीन पुस्तकें एकत्र करने का जुनून था। श्रेष्ठ साहित्यिक पुस्तकों के विभिन्न भाषाओं में अनूदित संस्करणों के संग्रह का जुनून। बस, वह जुट गया अपना ख्वाब पूरा करने की कोशिश में। उसने अपने दोस्त सर मार्क ऑरेल स्टाइन से सम्पर्क किया जो कि अच्छे प्राच्य भाषाविद, पुरातत्वविद, अन्वेषी और भारत के जानकार थे। केलर ने स्टाइन को लिखे पत्र में स्वीकार किया कि “मैं अपनी इस ख़्वाहिश के बचकानेपन को समझ रहा हूं लेकिन फिर भी मैं अपनी इस इच्छा को पूरी करने के लिए बहुत उतावला हूं। भले ही कुछ अंश हों, लेकिन संस्कृत में हों।” केलर को भरोसा था कि उसका दोस्त इस काम के लिए सही आदमी की तलाश कर देगा।

स्टाइन ने केलर को निराश नहीं किया। उसने अपने कश्मीरी मित्र, संस्कृत विद्वान नित्यानंद शास्त्री से सम्पर्क किया और केलर की इच्छा पूरी कर देने का अनुरोध भी। शास्त्री जी उन दिनों पक्षाघात के कारण बिस्तर तक सीमित थे लेकिन स्टाइन के आग्रह और इस काम के रोमांच को देखते हुए राजी हो गए। अपनी सहायता के लिए उन्होंने दूसरे कश्मीरी पण्डित और संस्कृत विद्वान जगाधर जदू को रख लिया। दोनों कश्मीरी पण्डितों को स्पेनी भाषा तो आती नहीं थी, सो उन्होंने डॉन क्विग्जोटके अंग्रेजी अनुवाद से संस्कृत अनुवाद करना तय किया और अठारहवीं सदी के चार्ल्स जार्विस के मूल स्पेनी से अंग्रेजी अनुवाद को इसके लिए छांटा।

केलर के मन में डॉन क्विकजोटका संस्कृत अनुवाद हासिल करने की इच्छा अंकुरित होने करीब दो साल बाद कश्मीरी पंडितों की मेहनत रंग लाई और इस उपन्यास के आठ अध्याय प्रांजल संस्कृत में केलर के संग्रह की शोभा बढ़ा रहे थे। लेकिन यह इतनी आसानी से नहीं हुआ था। केलर और स्टाइन के बीच इस दौरान जो चिट्ठी-पत्री चली, उससे पता चलता है कि इस काम पर विश्व युद्ध और हिटलर के आतंक का साया भी मंडराया था। स्टाइन यहूदी मूल के थे और अपनी यात्राओं में देख-समझ रहे थे कि नाजी क्या करने वाले हैं। स्टाइन तो बच गए लेकिन उनके परिवार को यहूदी होने की कीमत चुकानी पड़ी। इस भयावह दौर में भी केलर का जुनून और स्टाइन का प्राच्य भाषा-प्रेम कायम रहा था।    

1955 में केलर की मौत हो गई। उसकी वसीयत के मुताबिक पुस्तकों का उसका दुर्लभ और विशाल संग्रह हार्वर्ड विश्वविद्यालय को सौंप दिया गया। नित्यानंद और जगाधर जी की वह संस्कृत पांडुलिपि भी उनमें थी जिस पर अगले 57 साल तक किसी की नजर नहीं पड़ने वाली थी।

सन 2002 में नित्यानंद शास्त्री जी के पोते सुरिंदर नाथ पण्डित ने एक लेख में अपने दादा जी के इस अनुवाद का उल्लेख किया था जिस पर 2012 में बिल्कुल अचानक ही डॉ द्रागोमीर दिमित्रोव की नजर पड़ी। डॉ दिमित्रोव मारबर्ग, जर्मनी के फिलिप्स विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं और भारत एवं तिब्बत के विशेषज्ञ होने के साथ ही संस्कृत में उनकी बड़ी रुचि है। वे इस पांडुलिपि की खोज में जुट गए। हार्वर्ड विवि के हाउटन पुस्तकालय की एक शेल्फ में उन्हें यह भुरभुरी और नाजुक पड़ चुकी पाण्डुलिपि हाथ लग गई। मधुर, प्रांजल संस्कृत में डॉन क्विग्जोटके पृष्ठ देखकर डॉ दिमित्रोव चमत्कृत रह गए। तभी उनके मन में एक नई ख्वाहिश ने अंगड़ाई ली। स्पेन, भारत और जर्मनी के बीच सांस्कृतिक सहयोग की एक परियोजना शुरू हुई कि डॉन क्विग्जोटका ऐसा अभिनव द्वि-भाषी संस्करण प्रकाशित किया जाए जिसमें एक पेज पर अंग्रेजी और दूसरे पेज पर संस्कृत अनुवाद छपा हो। इसके लिए डॉ दिमित्रोव उपन्यास का चार्ल्स जार्विस का किया वही अंग्रेजी अनुवाद भी खोज लाए, जिससे नित्यानंद और जगाधर जी ने 1935-36 में संस्कृत अनुवाद किया था।

डॉ दिमित्रोव के सम्पादन में पुणे विश्वविद्यालय ने इसे प्रकाशित करने की जिम्मेदारी ली और अंतत: 07 जुलाई, 2022 को दिल्ली में हुए एक समारोह में डॉन क्विग्जोटके अंग्रेजी-संस्कृत अनुवाद का यह अभिनव संस्करण जारी किया गया, जिसमें शास्त्री जी के पोते सुरिंदर नाथ पंडित, स्पेनी राजदूत और पुणे विश्वविद्यालय के सम्पादक समेत कई विद्वान उपस्थित थे। किताब के साथ संस्कृत में एक ऑडियो बुक भी जारी की गई है। सुरिंदर नाथ पंडित के लिए स्वाभाविक ही यह बहुत भावुक लेकिन गर्वीला क्षण था।

एक अमेरिकी धनवान संग्रहकर्ता की 1935 की एक बचकानी ख्वाहिशसन 2022 में दिल्ली में एक अनोखी धरोहर, भाषा-प्रेम और अन्तर्राष्ट्रीय सहकार का शानदार प्रतीक बनी। (The Guardian में प्रकाशित लेख पर आधारित)           

 - नवीन जोशी, 15 जुलाई, 2022  

         

1 comment:

सुधीर चन्द्र जोशी 'पथिक' said...

बढ़िया लेख ! अच्छी जानकारी ! वही टेक्स्ट दोबारा आ गया है, एक डिलीट कर दो !