Monday, March 06, 2023

खूबसूरत वादियों, मोहिले जन और विचित्र कथाओं का वृतांत

करीब छह-सात वर्ष पहले जब कुमाऊं मंडल विकास निगम का बेहतरीन प्रकाशन थ्रोन ऑफ गॉड्स’ (धीरज सिंह गर्ब्याल और अशोक पाण्डे) हाथ में आया था तब उसके पाठ की बजाय उसमें प्रकाशित अत्यंत सुंदर-कलात्मक चित्रों में खोकर रह गया था। हमारे सीमांत जिले पिथौरागढ़ के तिब्बत से सटीं  ब्यांस, दारमा और चौंदास घाटियों, वहां की शौका (रङ) जनजाति और उनके बहुत कम जाने गए जीवन, संस्कृति, इतिहास और परम्परा पर यह एक कॉफी टेबल बुकसे कहीं अधिक मायने रखती है- संदर्भ ग्रंथ की तरह भी। पिछले दिनों जब अशोक पाण्डे की नई किताब जितनी मिट्टी उतना सोनापढ़ना शुरू किया तो सबसे पहले थ्रोन ऑफ गॉडकी याद आई। उसकी तस्वीरों ने मोह लिया था तो इसके शब्दों की सरलता, यात्रा वृतांत की रोचकता-गहनता और उससे मस्तिष्क में उभर आने वाले शब्द-चित्रों ने पकड़े रखा। किताब पूरी कर चुकने के बाद भी वे शब्द-चित्र और उनका अत्यंत साधारण कहन दिल-दिमाग में बने हुए हैं।

अशोक पांडे ने अपनी ऑस्ट्रियाई साथी, मानवशास्त्री सबीने लीडर के साथ 1994 से 2003 के बीच ब्यांस, चौंदास और दारमा घाटी के सुदूर अंतरे-कोनों की लम्बी-लम्बी शोध-यात्राएं की, रङ गांवों में कई-कई दिन बिताए, उनके जीवन के विविध पक्षों का अध्ययन किया और मोहिले रिश्ते बनाए। स्वयं अशोक के शब्दों में इन घाटियों के गांवों में उन्होंने कुल मिलाकर तकरीबन चार साल बिताए। 'जितनी मीटी उतना सोना' उन्हीं यात्राओं का वृतांत है। 'थ्रोन ऑफ गॉड्स' में भी उन्हीं शोध यात्राओं का निष्कर्ष बोलता है।

'लप्पूझन्ना' और 'बब्बन कार्बोनेट' जैसी पुस्तकों के विरल कथ्य और कहन से पिछले दिनों चर्चित रहे अशोक पांडे यहां बिल्कुल दूसरे रूप में हैं। यहां उनकी खिलदंड़ी और व्यंग्यात्मक भाषा नहीं है। इस किताब के अत्यंत सरल गद्य में उनके कवि, अनुवादक, अध्येता, घुमक्कड़ और सहज मित्र रूप के दर्शन होते हैं। अशोक और सबीने तीनों सीमांत घाटियों के पुरुषों, महिलाओं, युवाओं-बूढ़ों-बच्चोंं से बहुत आत्मीय होकर मिलते हैं, उनके घरों, गोठों या रसोइयों में रात बिताते हैं, खाना खाते हैं और बात-बात में उनके इतिहास, वर्तमान, देवी-देवता, मिथकों और परम्पराओं की पड़ताल करते जाते हैं। इसलिए इस किताब का गद्य सामान्य बातचीत वाला  है जिसमें स्थानीय मुहावरे, लोकोक्तियां और कहानियां अपना अलग आस्वाद रचती हैं। वे घोड़ों की उदासी, बकरियों की दार्शनिकता, हरियाली की सुस्ती, अंधेरे का हरापन, चमकीले दिन का आलस, नक्काशीदार दरवाजों पर लगे तालों की उदासी, वगैरह भी देख ही लेते  है और ऐसे अनिर्वचनीय मानवीय दृश्य भी "जिन्हें देखे जा सकने की कल्पना भी हमारे सभ्य संसार में नहीं की जा सकती।" तब "आप असीम कृतज्ञ होने के अलावा क्या कर सकते हैं!" 

सिन-ला जैसे बीहड़ दर्रे को खराब मौसम एवं खतरनाक स्थितियों में पार करने का रोमांच भी इसमें मिल जाता है- "बर्फ टूटने की आवाज से बड़ी, कड़कदार और डरावनी आवाज मैंने आज तक नहीं सुनी है। यह बहरा कर देने वाली चीख जैसी होती है। यही है हिमालय! मैं अपने आप को बताता हूं।" यह हिमालय को बहुत करीब से देखने, अनुभव करने, बर्फ-नदियों-झरनों-पत्थरों से बतियाने और मिथकों की कल्पनाशीलता से चमत्कृत होने का वृतांत भी है। 

यह यात्रा वृतांत दारमा, ब्यांस और चौंदास घाटियों के प्राकृतिक और मानवीय सह-जीवन का अत्यंत सरल लेकिन विश्वसनीय दस्तावेज बन गया है।1962 से पहले तिब्बत से व्यापार पर लगभग एकाधिकार के कारण जो शौका खूब सम्पन्न थे, जो उतने ही विनम्र एवं शालीन थे, जिनका इलाका दुर्गम ही नहीं एक रहस्यलोक-सा था, जिनकी कई व्यवस्थाएं एवं परम्पराएं सभ्य कहे जाने वाले समाजों को मात करती थीं, उन शौकाओं के बारे में आज से सवा सौ साल पहले चार्ल्स ए शेरिंग जैसे प्रशासनिक अधिकारी और गहन अध्येता ने लिखा था- "इन खूबसूरत वादियों में अब भी जीवन का रूमान और कविता बचे हुए हैं।" विकास की बहुत सारी अतियों और पलायन के बावजूद आज भी वहां बहुत कुछ बचा हुआ है, इसकी गवाही अशोक पाण्डे की यह किताब देती है। यह भी पच्चीस साल पहले की गई यात्राओं की किताब है और इस बीच वहां बहुत कुछ बदला होगा। आज वे अत्यंत सुंदर वादियां उतनी दुर्गम नहीं रहीं लेकिन जीवन और कविता वहां बची रहे, यह कामना है। 

'जितनी मिट्टी उतना सोना' (हिंदयुग्म प्रकाशन) पढ़ते हुए बार-बार लगता रहा कि अगर शांति काकी या सनम काकू से नहीं मिले और च्यक्ती भी नहीं पी तो जीवन क्या जिया! पिछले दिनों पिण्डर घाटी का अनिल यादव का यात्रा वृतांत 'कीड़ाजड़ी' पढ़ते हुए भी ऐसी ही अनुभूति हुई थी। 

- न.जो, 6 मार्च, 2023     

     

2 comments:

गणेश जोशी said...

इस पुस्तक को पढ़ने की मधुर अनुभूति के साथ आपकी लेखनी मुझे आकर्षित करती है। सोच को विस्तार ही नहीं देती बल्कि एक नए आयाम की तरफ भी ले जाती है। शुक्रिया।
वैसे मेरी पत्रकारिता की शुरुवात आपके साथ वर्ष 2005 की उस मुलाकात से होती है, जब मुझे आपने दो महीने बाद आने को कहा था। पता नहीं आपने ऐसा क्यों कहा?
इसके बाद फिर मैं पत्रकारिता में ऐसा रमा रहा कि आपसे कभी पूछ भी नहीं सका। हिम्मत भी नहीं हुईं, लेकिन पुस्तकालय में आपके उपन्यास और समाचार पत्र में ' तमाशा मेरे आगे' पढ़ने के साथ- साथ मेरी पत्रकारिता आगे बढ़ती रही।
जरूर एक बार आपसे एक और संक्षिप्त मुलाकात हुई थी। तब भी ज्यादा बात नहीं हो सकी। देवभूमि डेवलपर्स पढ़ने की इच्छा है। जल्द पढ़ता हूं। उम्मीद है कि आपसे फिर बात हो।

सादर

Naveen Joshi said...

गणेश जी, अपना सम्पर्क नम्बर दें 9793702888 पर बात कर सकते हैं। अच्छा लगेगा।
- नवीन