उनके लिए
छुपाना कविता है
मेरे लिए उघाड़ना
दरअसल झगड़ा
यहीं से शुरू होता है
वे भाषा में रचनात्मकता चाहते हैं
मैं कविता में
-महेश पुनेठा
2021 में प्रकाशित ‘अब पहुंची हो तुम’ (समय साक्ष्य, देहरादून) उनका
तीसरा कविता संग्रह है। वे पहाड़ में ग्रामीण जन-जीवन के अत्यंत निकट रहते हैं,
इसलिए पहाड़ और वहां का संघर्षपूर्ण जीवन उनकी कविताओं में सम्पूर्णता
से आता है लेकिन देश-दुनिया के ज्वलंत मुद्दों और विद्रूपताओं से वे अछूती नहीं हैं।
उनकी गहरी, तीखी दृष्टि सब देखती है और उस तथ्य तक पहुंच जाती है, जिसे छुपाया जाता है-
पिछली बार उन्होंने घोषणा की थी
हम तुम्हारा भला चाहते हैं
कुछ सालों में ही
हमारे खेतों से
हमारे अपने बीज गायब हो गए (हम तुम्हारा भला चाहते
हैं)
न उस राजा के कारण
न पारदर्शी पोशाक के कारण
न उस पोशाक के दर्जी के कारण
न चापलूस मंत्रियों के कारण
न डरपोक दरबारियों के कारण
कहानी अमर हुई बस
उस बच्चे के कारण
जिसने कहा- राज़ा नंगा है (अमर कहानी)
जब पति के बगल में
पत्नी की भी
पुरानी चिट्ठियां
पुरानी डायरियां सजी होंगी? (उनकी
डायरियों के इंतज़ार में)
वह आज अचानक नहीं मरी
हां आज अंतिम बार मरी
उसको जानने वाले कहते हैं
मरी क्या बेचारी तर गई (जो दवाएं भी बटुए के अनुसार खरीदती थी)
प्रकृति से प्रक्रिया तक
वहां बदल गया है बहुत कुछ
लेकिन उन रसोइयों में भी
नहीं बदले हैं
सदियों से अब तक
रसोई को सजाने-संवारने वाले
वे दो हाथ (नहीं बदले)
वह कभी जींस-टॉप
कभी सलवार-कमीज
कभी साड़ी में भी दिख जाती है
वह अपने जीवन के सारे फैसले खुद लेती है
इन दिनों वह आपदा राहत कार्यों में लगी है
वह जब भी घर से निकलती है
मुहल्ले की औरतें
अपनी छत की रेलिंग पर खड़ी
उसको दूर तक जाते देखती रहती हैं
जैसे देख नहीं खोज रही हैं कुछ सदियों से (उसके पास पति नहीं है)
संग्रह की शीर्षक-कविता प्रकाशन के बाद से बहुत उद्धृत की जा चुकी है, सोशल मीडिया से लेकर जर्नलों तक। पहाड़ों में जहां सड़कें सुगम यातायात के लिए आवश्यक मानी जाती हैं, वहीं वे भू-स्खलनों से लेकर प्राकृतिक-सम्पदा के अंधाधुंध दोहन का कारण भी बनती हैं। इस द्वैध में एक नया त्रासद कोण भी जुड़ता गया है कि जब तक गांवों से पलायन बहुत तेज नहीं हुआ था या पलायन आर्थिक पक्ष तक सीमित था, तब तक सड़कें दूर-दूर रहीं लेकिन अब अब विकास के नाम पर सड़कों का गांव-गांव जाल बिछाया गया है तो गांव खाली हो गए हैं। महेश पुनेठा इस विकास के पीछे छिपी राजनीति-पोषित लिप्सा पर लिखते हैं-
सड़क!
अब पहुंची हो तुम गांव
जब पूरा गांव शहर जा चुका है
सड़क मुस्कराई
सचमुच कितने भोले हो भाई
पत्थर, लकड़ी और खड़िया तो बची है न! (गांव में
सड़क)
मेरे गांव के पास से गुजरती हुई
एक सड़क फैल रही है
एक नदी सिकुड़ रही है (ठिठकी स्मृतियां)
बड़े बांध, विस्थापन का दर्द, पुनर्वास के छल, पलायन, स्थानीय स्वाद, बच्चे, रसोई, लोकतंत्र, मां, मजदूर और बाजार भी इन कविताओं में आते हैं , जैसे वे हमारे जीवन में आते हैं। यह इन कविताओं की सम-सामयिकता की पहचान है और अपने समय के सत्य से आंख मिलाने का कवि का साहस भी। कवि की दृष्टि बहुत साफ है, इसीलिए वह ‘प्रार्थना’ को अच्छी तरह पहचानता है-
जब नहीं रहा होगा नियंत्रण
परिस्थितियों पर
फूटी होगी उसके कण्ठ से पहली प्रार्थना
विपत्तियों से उसे बचा पाई हो या नहीं प्रार्थना
पर विपत्तियों ने अवश्य बचा लिया पार्थना को
(-न जो, 31 मई, 2023)
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