Tuesday, September 12, 2023

हिंदी कहानी में इसलिए अद्वितीय हैं शेखर जोशी

मैं अपनी बात शेखर जी के कथा-समग्र में लिखी गई भूमिका के एक पैराग्राफ से शुरू करता हूं- उन्होंने अपने लिए एक खामोश, शालीन, धैर्यवान और थोड़ा लिखा-बहुत समझनावाली भाषा-शैली निर्मित की। उनकी कहानियां न चौंकाती हैं, न चमत्कृत करती हैं, न नारे लगाती या क्रांति करती हैं, न सैद्धांतिक बहसों में पड़ती हैं और न लम्बे विवरणों में ले जाती हैं। वे एक सामान्य, छोटे-से वाक्य या संवाद से शुरू होती हैं और धीर-गम्भीर-मंथर गति से चलते हुए लगभग चुपचाप पूरी हो जाती हैं। कहीं से भी आरोपित या बहुत श्रम करके लिखी गई नहीं लगतीं। कई बार लगता है- अच्छा, कहानी पूरी भी हो गई! और, तब उसके अर्थ खुलने लगते हैं। सहज-सरल शब्दों में कथाकार जो कह गया, वह पाठक के मन में अपना आकार और अर्थ बढ़ाने लगता है। परतें धीरे-धीरे खुलती हैं, गहरा अर्थ-बोध कराती जाती हैं और याद रह जाती हैं। उनके व्यक्तित्व के अनुरूप ही उनकी कहानियां भी लगती हैं- बहुत कम लेकिन सधा हुआ बोलने वाले, बिना उत्तेजित हुए अपनी अर्थपूर्ण बात कह जाने वाले, विनम्र, दोस्ताना और कहीं-कहीं व्यंग्य की हलकी-सी छौंक। कहानियां पढ़ते हुए जैसे हम शेखर जोशी को ही सुन रहे हों!

शेखर जी बहुत सचेत कहानीकार हैं। उन्होंने लेखक बनने या प्रसिद्धि पाने के लिए नहीं लिखा। लिखना उनके लिए समाज को बदलने की एक विनम्र कोशिश थी। इसलिए उनकी कहानियां सोद्देश्य हैं। वे समाज की नब्ज पर हाथ रखते हैं, व्याधि का निदान करने की कोशिश करते हैं, विसंगतियों और अंतर्विरोधों पर लिखते हैं। लेकिन ऐसा करते हुए वे कोई नारेबाज या फॉर्मूलाबद्ध लेखन नहीं करते। यहां तक कि श्रमिकों और कारखानों की उनकी कहानियों में भी किसी गेट मीटिंग, आंदोलन या हड़ताल या नारेबाजी का उल्लेख नहीं मिलता यद्यपि शोषण की चेतना, असंतोष और प्रतिरोध के स्वर वहां पर्याप्त हैं। उनकी विशेषता ही यह है कि वे बड़ी से बड़ी बात कहते हुए बड़बोले कहीं से भी नहीं लगते, बल्कि बहुत सहज, सरल और चुपके से कहानी के रूप में वह विचार पाठक तक पहुंचा देते हैं। इसमें कहानी पूरी तरह बची रहती है, बल्कि खिल उठती है और उसका आस्वाद बचा रहता है।    

उनकी कई कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें वे वास्तव में जो कहना चाहते हैं, वह या तो शब्दों में नहीं कहते नहीं, या मात्र संकेत  देकर पाठक के निष्कर्ष निकालने के लिए छोड़ देते हैं। कमाल यह है कि जिस निष्कर्ष की ओर वे पाठक को ले जाना चाहते हैं, बिना किसी जोर-दबाव के, पाठक उसके अतिरिक्त दूसरा कोई निष्कर्ष निकाल ही नहीं पाता। अक्सर तो उनकी कहानी का मर्म उसकी घटनाओं में अंतर्गुम्फित होता है जिसे अलग से कहने की आवश्यकता रह ही नहीं जाती।  

जैसे, छोटे शहर के बड़े लोग में वे यह नहीं लिखते कि कस्बे के खां साहब ने बिल्कुल अचानक भीड़ के सामने यह बात क्यों कही कि मछली वाले का ठेला कल रात एक ट्रक ने बैक करते समय तोड़ दिया। तोड़ा था उसे साम्प्रदायिक घृणा से उन्मत्त एक व्यक्ति ने। यह बात सब जानते थे और मछली वाला भी लेकिन खां साहब बड़ी समझदारी से साम्प्रदायिक घटना को वाहनजनित दुर्घटना का रूप देकर साम्प्रदायिक तनाव से खौल रहे उस कस्बे को सद्भाव से भर देते हैं। यह बात कहीं लिखी नहीं गई है लेकिन पाठक ठीक-ठीक यही समझते हैं। संकेत है तो मात्र शीर्षक में कि इस छोटे से शहर के लोग वास्तव में कितने बड़े हैं।

बदबू उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध और चर्चित कहानियों में है। जो नायक है, वह उस कारखाने में काम करते हुए अपने हाथों की बदबू को बनाए रखना चाहता है और बदबू गायब हो जाने की आशंका मात्र से परेशान हो जाता है। शेखर जी कहीं नहीं लिखते कि वह बदबू क्या है और क्यों वह उसे बचाए रखना चाहता है लेकिन कहानी में घटनाओं की बुनावट इतनी खूबसूरत और सहज है कि पाठक न केवल आसानी से समझ जाता है कि बदबू है क्या, बल्कि उस बदबू को खुद भी आत्मसात कर लेना चाहता है। यह बदबू की खुशबू है जो दूर तक और देर तक सुवासित होती रहती है।

मृत्यु कहानी देखिए, कहानीकार अपने पात्रों से मृत्यु की कई हृदयविदारक घटनाएं कहलवाता है। उसी समय वहां एक छोटी-सी घटना होती है। एक आदमी घर की घंटी बजाता है। घर की मालकिन दरवाजा खोलकर आगंतुक से कुछ कहती है और वह लौट जाता है। घऱ में बैठे लोग फिर बातें करने लगते हैं। जो इस बीच बहुत कम समय के लिए हुआ, उस पर कोई बात नहीं करता, जबकि उस नामालूम-सी लगने वाली घटना में ही एक भयावह मृत्यु हो गई है, जिसमें किसी के प्राण तो नहीं जाते लेकिन वहां उपस्थित लोगों की चेतना, गरिमा और प्रतिरोध का उनका स्वर दम तोड़ देते हैं। कहानीकार यह सब कुछ नहीं कहता, जिसे कहने के लिए उसने कहानी बुनी। वह मात्र एक वाक्य लिखकर कथा समाप्त कर देता है कि “हममें से किसी ने भी मृत्यु के उन क्षणों की चर्चा नहीं की, जिनके हम तीनों संयुक्त रूप में साक्षी रहे थे।” क्या आज भी हम अपने चारों ओर रोज ऐसी कितनी ही मौतें नहीं देख रहे?

इस कहानी में एक और मृत्यु की ओर इशारा है। घर की जो मालकिन है, शकुन, जो बाथरूम में छुप गए अपने पति के लिए झूठ बोल देती है कि वे तो ट्रेन रोकने के लिए स्टेशन ही गए हैं, वह कॉलेज के दिनों की एक सचेत, स्वतंत्र व्यक्तित्व एवं प्रगतिशील विचारों वाली लड़की थी, आज मात्र पति की चेरी, एक गृहस्थन है। पति ने उसे नौकरी भी नहीं करने दी। उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व और प्रतिभा की भी मृत्यु यहाँ हुई है। ध्यान दीजिए कि इस कहानी में दो प्रकार की मौतें हैं—एक वे मौतें जिनकी चर्चा कहानी के पात्र खुलकर कर रहे हैं और दूसरे वे, जिनकी चर्चा कोई नहीं कर रहा। यही अचर्चित मौतें हैं जो समाज के लिए अत्यंत चिंताजनक हैं। कहानीकार का फोकस वहीं है। जिन प्रसंगों के माध्यम से और जिस खामोश शैली में शेखर जी इन मौतों की सूचना बिना पाठक तक पहुंचाते हैं, वह विशिष्ट है।   

किस्सागो जिसकी चर्चा कम ही हुई है। वह एक लेखक की कहानी है और सोद्देश्य एवं यथार्थ लेखन के बारे में महत्त्वपूर्ण बात कहती है। बचपन से ही बड़े काल्पनिक और रहस्य-रोमांच से भरपूर किस्से सुनाने वाला किस्सागो बाद में शहर जाकर लेखक बन जाता है। कहानी में कुछ रोमांचक किस्से सुनाए भी गए हैं। एक बार यह लेखक किसी गमी में अपने गांव पहुंचता है और उस गरीब परिवार के गुमसुम हो गए बच्चे को खुश करने के उद्देश्य से बाहर ले जाकर एक रोमांचक कहानी गढ़ता है। बच्चा कभी सुन रहे होने का संकेत देने के लिए हां-हूं करता है और कभी कहीं खो जाता है। चलते-चलते बच्चे को रास्ते के किनारे एक सूखी टहनी दिखती है जिसे वह लपककर उठा लेता है और घसीटते हुए ले चलता है। लेखक के कथा सुनाने में खड़-खड़ की ध्वनि व्यवधान डालती है। वह बच्चे को टोकता है- इस लकड़ी को क्यों लिए चल रहे हो नन्नू, बेकार खड़-खड़ हो रही है।बच्चा जवाब देता है –घर में ईंधन नहीं है दद्दा, बारिश भी होने वाली है। इसके बाद दो लाइनें और हैं, जिनमें बताया गया है कि कहानीकार की कल्पना गड़बड़ा गई है, फिर भी वह उसे समेटने की कोशिश कर रहा है। इसी के साथ कहानी समाप्त हो जाती है। देखिए कि कहां से कहानी शुरू हुई थी और कहां जाकर पूरी हुई और जो कहना-बताना था वह कैसे बिना लिखे कह डाला! कहानी में अगर जीवन का यथार्थ नहीं है तो वह निरी कल्पना है, गप्प है, निरर्थक है। बच्चे के सूखी लकड़ी उठाकर कर खड़-खड़ करते हुए चलने और छोटी सी उम्र में घर की चिंता करने के बीहड़ यथार्थ की तुलना में उस लेखक की बड़ी मेहनत से कल्पित कथा का कोई अर्थ नहीं है। इसका संकेत शेखर जी कहानी में एक जगह देते हैं। गांव के दिनों में जब किस्सागो अपनी “कल्पना में सम्भव-असम्भव कुछ भी जोड़ लेता तो बूढ़े बुबु के अनुभवी कान सही वक्त पर खोटे और खरे की पहचान कर लेते। उनका घुटनों पर झुका, पंखी में लिपटा सिर ऐसे मौकों पर जोर-जोर से हिलने लगता। और, जब किस्सागो कुछ ज़्यादा ही दूर की कौड़ी लाने की कोशिश करता तो बुबु थोड़ा सा सिर उठाकर हाथ की लकड़ी से आग को कुरेदने लगते या ठीठों को इनारे-किनारे से खिसकाकर केंद्र में पहुंचा देते।”

नौरंगी बीमार है अकेली ऐसी कहानी है जिसके पाठकों ने ही नहीं, कुछ समीक्षकों ने दो सर्वथा विपरीत पाठ किए हैं। खजांची की असावधानी से नौरंगी को वेतन के साथ दो सौ रु अतिरिक्त मिल गए हैं- मिल ही गए हैं, ऐसा निश्चित तौर पर नहीं बताया गया है। सभी को संदेह है कि नौरंगी के हाथ ही लगे हैं। नौरंगी का व्यवहार स्वयं भी सन्देह उत्पन्न करता है लेकिन कुछ रोज बीमारी का बहाना करने के बाद वह एक सुबह सिर ऊंचा  किए नौकरी पर हाजिर हो जाता है जैसे कुछ हुआ ही न हो। एक पाठ यह किया गया है की नौरंगी को दो सौ रु अधिक नहीं मिले थे, वह शक किए जाने के कारण शर्म से गड़ा हुआ छुट्टी पर चला गया था और बाद में यह तय करके कि ईमानदार को तानों और शक से क्या परेशान होना, वह सिर ऊंचा किए नौकरी पर आ जाता है। दूसरा पाठ या निष्कर्ष यह है कि नौरंगी को ही अतिरिक्त रु मिले थे और उसने दबा लिए। शुरू में वह अपराध बोध से शर्मशार रहा लेकिन अफसरों के भ्रष्टाचार के किस्से याद कर-कर उसे इतनी ताकत मिल गई कि वह शर्म को पचाकर ठाठ से नौकरी पर आ गया। अर्थात वह भी भ्रष्ट हो गया। शेखर जी बताते थे कि इस कहानी वे यह दिखाना चाहते हैं कि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे आता है। यही यथार्थ है। पहलसम्मान ग्रहण करते समय दिए गए वक्तव्य में उन्होंने कहा भी था कि मेरे लेखन का आधार मेरे चारों ओर बिखरा हुआ यथार्थ रहा है।

तो, यह हैं हमारे शेखर जोशी। मेंटल, दौड़, हेड मासिंजर मंटू, जी हजूरिया, नौरंगी बीमार है, भद्रलोक का नीड़, सहयात्री, प्रतीक्षित, डांगरीवाले जैसी कई कथाएं हैं जिनमें जीवन के यथार्थ के साथ उनका यह कथा-कौशल अत्यंत सुंदर और प्रभावी रूप में व्यक्त हुआ है। ये कहानियां जितनी खामोशी से शुरू हुई थीं, उतनी ही चुपचाप पूरी हो गईं। इन खामोशियों में एक गूंज है जो कहानी समाप्त होने के बाद देर तक अनुगूंजों में बनी रहती है। इसीलिए पचास-साठ-सत्तर साल बाद भी उनकी कहानियां याद की जाती हैं। 

शेखर दाज्यू का उनके प्यारे शहर में सादर स्मरण।

- न जो, 12 सितम्बर, 2023

(10 सितम्बर 2023 को इलाहाबाद में आयोजित 'शेखर जोशी स्मृति आयोजन' के लिए तैयार किया गया वक्तव्य लेकिन फिर वहां उनके जीवन पर आधारित दूसरा ही वक्तव्य देना पड़ा। इस आलेख को उसी सुबह 'जनसंदेश टाइम्स' ने प्रकाशित किया था)

 

 

       

 

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