Saturday, March 09, 2024

मनसुप-1: जेठाक घाम

कास घाम पड़ि रान! जेठाक घाम! सुर्ज आग बरसूणौ। अगाश में कें एक टुकुड़ बादव न्हांति। जेठ लागीं द्वि-चारै दिन है रान। आजि पुर म्हैण बाकि भय। अषाड़ लागीं बेर ले झट्ट बर्ख कां हुंछि! आषाढ़स्य प्रथम दिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं...लेखि गई कालिदास। अषाड़ लाग नै, अगाश में बादवनक गरजन-तर्जन हुं बल। कां हुंणौ आब? जाणि कालिदासकि सुणनईं बादव! क्वे-क्वे बरस पुर अषाड़ सुक न्है जां। फिर असौज में जब घाम चैं खेत-पाति कें, उ बखत बरसण लागौं। क्वे बरस अषाड़ै बटि सरगा द्वार ढकी जानी। यतु बरसल जाणी धरती बगै ल्हिजाल। जाग-जाग पैर, गाड़-गध्यार बौई जानी, बरबादी-बरबादी। गौं, गाड़-भिड़, सड़क, बोट-डाव सब बगै ल्हिजांछ। क्वे भरोस नि रैगे मौसमक। यसि अणहोति माया हैगे। के कूं!

जेठा म्हैणै बात कूणैछ्यूं। भ्यार यास घाम है रान कि भितेर ले आंखन सुदै त्यूर जस लागणौ। भ्यार चांण में आंख बुजी जाणान। यां लखनौ में कम्र भितेर गोठी रयां। पंख चलणौ फर-फर-फर। हाव ले यसि गरम खितणौ जाणी कम्र भितेर आफर जोति राख हुन्यल। नानतिननलि ए सी लगै राखौ लगूणै तें, पै के करछा। भ्यार है रौ 42 डिग्री और भितेर 20-22 डिग्री में कसिक रौओ! मेरि त तबियतै बिगड़ जैं कूंछा। लागण हुं त ठंडी हाव भलि लागैं, पै आङ फिर क्वे कामक नि रै जान। फिर ए सी बिना नि रईंन और ज़्यादे देर चलै दियो त आङ पीड़, गाव में खाजि, छींका-छींक, औरी बात। त है भल भय पंखैकि गरम हाव खै ल्हियो। के करीं! आम कूंछि- मी जां कां, करम ल्हिजां जां!करमै हुन्याल जो पहाड़ छुटौ और यां लखनौक गरमाक हाथ पड़्यूं। जै बखत लू चनैं, जिबड़ाक ताव ले सुकि जां। आङ में पाणी नि हुन्यल के सोचीं। पाणि पी-पी बेर पेट उसै जांछ, पै तीस जो फिटि ग्ये! नानतिन कूंनी, फ्रिजौ पाणि किलै नि पीना, तसि ले टेड़ कि भ्ये! पै जसि ए सी हाव भ्ये, उस्सै मी तें फ्रिजौ पाणि भय। कभतै एक तुड़ुक पी हालौ, पट्ट गव बुजी जां। यसि गर्मीं में सर्दी-जुकाम! बब्बा हो, धो है जांछि। जाणि एकारि सांस लागि रै। एक सुराई धरि राखी। वीक पाणि मणी कल्जून टैण पाड़ि द्युं।

कम्र भितेर कि करौ दिन भरि! कभतै बैठ गयां, कभतै पड़ि गयां, फिर उठि बेर बैठ गयां। उड़भाड़ जस है रूं। बुड़ी कूंछि कि है रौ तुमन कैं, एक जाग भलि कै नि रै सकना! आब वी थें कि कूण भय? उ त दिन भरि टीवी लै जेड़ी रूं। मणी टीवी बंद भयो, मोबाइल चलि जां। पै, त टी वी लै म्यर बिल्कुल मन नि लागन कूंछा।औरी कलाट लगै राखनान। दिन भर नाच-गीता नाम पर सुदै उपन जा चटकूनी त च्याल-चेलिन कें। छि! मोबाइल में ले वी भय हर बखत। अरे, फोन छ त, यथ-उथ बात करणै तै ठीक भय। पै तै में ले सिनेमा, वीडियो, फोटो, क्याप-क्याप ऊंण लागि ग्यो। जै कें देखछा वी मोबाइल में माती रौ। ओच्छ्याट जस नै लागनै पै! खैर, जमान-जमानै बात भ्ये। पैली मी टी वी में दिन में द्वि बखत समाचार जरूर सुणंछ्यूं, रत्तै-ब्याव। आब उं ले बजी गईं। समाचार जै कि हुनी आब! नाम रै ग्यो समाचार, करण भै ग्यान अनाचार। अखबार में ले के मन लागणी जस नि हुंन। के भल बांचण जस नि हुन। पै, एक फ्यार पेज पल्टण बाट छनै छन। कभतै-कभतै मी यस चितूं कि यो नई जमान हमार जास मैंसनै तैं नि रै गय। पै के करीं, उमर काटण भ्ये, जसी-तसी काटणयां।

बैठी-बैठियैं मनसुप लागनी। पुराण दिन आंखना सामणि रिटण लागनी। सिनेमा जस देखीं। स्कूल नि भय तब हमार गों में। भय त, मांतर भौत टाड़ भय। बाट-घाट में नानतिन अथा उपद्रव करनेर भाय। इजालि कौ, म्यर एक्कै झूस जस च्यल छ त, धो-धो पावणयूं। स्कूल ऊंण-जाण में क्वे धांक-मुक करौल, क्वे ढुंङ-पाथर हाणल, कें भ्यव घुरी रौल। आफी बजी रौं त स्कूल-फिस्कूल। घरै बैठि रयूं। भिटौलि ल्ही बेर माम ज्यू आय एक साल। उनूलि इज थें कय- “त्वील खाल्लि क्यै कुकुर्यै राखौ यो भाण्‍ज कें? म्यार दगाड़ लगै दे। वैं पढ़ै द्यूंल तकें।” तसकै लखनौ पुज्यूं माम ज्यू दगाड़। उनूंलि भली कै घ्वगा-पढ़ा आपण नानतिनन जस। यैं नौकरी लागी। मामज्यूलि यैं ब्या ले करै दे। इज छना हर साल पहाड़ जानेरै भयां। इजा मरीं बाद पट्ट हैगे। पहाड़ छुटि गय। जब तक नौकरी रै, फुर्सत नि भ्ये। फिर नानतिननै जिम्मेदारी है ग्ये। यैं लटपटी गयूं। आब बड़ै पछताव हुंछ। पहाड़ नि छोड़न चैंछी। कुड़ सुदारी हुन, कै कें साज-समाव करणै तें धरीं हुन त आब कभतै वां जाना। द्वि-चार दिनै सई, वां रूंना। ठंडि हाव-पाणि खाना। आब कां बटि? कुड़ खन्यार है गय। ढुंङ-पाथर ले छन भलै नै! 

उसिक यो ले खाल्लि मनक चुलबुलाट भय। को रै ग्यो आब पहाड़ में? जाग-जाग बै खबर मिलैं, गों उजड़ि ग्यान। घर-बार, खेति-पाति, गोर-भैंस सब छोड़-छाड़ि बेर मैंस न्है ग्यान तलिकै। हमार गों में त मैंस कूण हुं ले क्वे नि रै गय बल। परारि साल सुरेश राठ ग्यान द्याप्त पुजण। यां ऐ रौछी बतूणै तें। मील ले गोल्ल ज्यू तें भेट भेजि दे वीक हाथ। लौटि बेर असीख लै रौछी। कूण बैठौ- “काक ज्यू, क्वे नि रै गय गों में। उजाड़ है ग्यो। गट्ट लागौ देखि बेर। ग्वल्ल ज्यू मण जाणै तें ले बाट बड़ि मुश्किललि बणा। सड़क नजीक ऐ ग्ये। बिजुलि खम्भ ले लागि ग्यान। पाणी डिक्की ले बणि ग्ये। पैं कै तें? क्वे मैंस हुन धैं वां!” सुणि बेर मी कें ले गट्ट लागौ कूंछा। के कूणै जै नि आय। बड़ी उदासि लगै ग्यो सुरेश उ दिन। यस हाल है रान गोंक और मी कें यां सुर लागि रईं कि खाल्लि छोड़ि दे गों! क्याप जै कूंछी- मन कूंछ दूद-भात खूंल, करम कूंछ दगाड़ै रूंल! सांच्चि भ्ये, करम दगाड़ै , रूनेर भय। नानछना खूब रामलिल देखि राखी। राम, लक्ष्मण वन-वन डोईणान। सीताक हरण है ग्यो। लक्ष्मण परेशान छन। तब राम उनन कें समझूंनी- “भैया, करम रेख न टारी...।” हमार ले करम हुन्याल। वनवासै समझो।

दोफरी द्वि बाजि रईं। अल्लै भात खा। बुड़ी ए सी चलै बेर टोप दी ल्ही रै। टी वी-मोबाइल देखन-देखनै आंख पटै ग्या हुन्याल। च्याल-ब्वारि दफ्तर भाय। नाति-नातिणि समर कैम्प में जै रान। स्कूलै छुट्टी भया, कबै क्वे कैम्प, कबै क्वे ट्रेनिंग। फुर्सत नि भ्ये यो नानतिनन कें। घर में भया मुणी म्यर ले ब्यांव जस है रूं। दद्दू-दद्दू कै बेर दगाड़ै लागि रूंनी। काथ-क्वीड़ सुणणक बड़ै शौक भय द्वीननै कें। पै फुर्सत नि भ्ये। तबै ऐल निपट्ट शांति है रै घर में। पार सड़क बटि मोटर-गाड़िनाक चिंचाट सुणीणौ कभतै-कभतै। और के नै। सब सुनसानी छ। एक्कै म्यार मन में न्हांति शांति। मना क्वाठ भितेर ढानभुई जस है रौ।

मुणी आंख लागि जान धैं! चित्त कें चैन ऊंन। असल में, यो चित्तै छ चंचल। एक ठौर थिरीणि नि भय। अल्लै नाति-नातिणि में जै रौछी, अल्लै पहाड़ पूँजी ग्यो। नानछनाकि फाम। मामज्यू हर बरस गर्मिनै छुट्टी में मी कें पहाड़ भेजि दिनेर भाय। इजाक ले कड़कड़ाट लागि रूनेर भय- ‘भुली, म्यार भौ कें भेजि दिये। अथा नरै लागि रै। माम ज्यू लखनौ बटि ट्रेन में बिठै दिनेर भाय। मी हल्द्वाणि बटि मोटर में आफी न्है जानेर भयूं। एक बरस जेठा महैण यसि रूड़ पड़ ग्ये, कि बतूं। गोर-बाछनै तें एक हर्यूं तिनण कें नि रै गय। बांज, दुधिल, भ्यकु, सब बोट मुण्या हाल। पाणी खाव-चुप्टौव-नौव सब सुकि गाय। हमार पाणी धार में गर-गर पाणि उनेर भय। बांजाणी पाणि भय, औरी मिठ, टैण। ऊंणी-जाणी बटाव उत्ती लै पटै बिसूनेर भाय। धौ कै बेर पाणि पीनेर भाय। हाथ-खुट ध्वै, मूख छपकूनेर भाय। कूनेर ले भाय- यतु भल, मिठ पाणि और कें नि मिलौ रे, पेट भरि पी जावो। बांजाणी पाणि तस्सै हुनेर भय। संजाती वन भय उ। क्वे वांक बांज काटनेर नि भाय। पौराईं भय जंगव। औरी भल लागनेर भय। जै बखत हाव पड़ी, फर-फर-फर बांजा पात यथ-उथ फरकनेर भाय, पल्टनेर भाय। एक बखत उनरि हर्यू चाल देखियलि, दुसरि बखत सुकिल चाल। हर्यू-सुकिल, हर्यू-सुकिलहमि चाय्यैं रै जानेर भयां। त, उ बरस यसि रूड़ पड़ी कि पाणी धाराक बांज ले काटण भै गाय मैंस। चोरि-चोरि बेर काटणाय। त्वील काटीं-त्वील काटीं कै झगड़ है गय गों में। कज्जी मचि गय। बांज काटियलि धारक पाणि ले सुकि गय। तुड़-तुड़ रै गय। एक गगरि भरीण में एक घण्ट लागि जानेर भय। पाणी तें मारामार- लुछालूछ है ग्ये। जै खाव में हमि भैंसन नवूनेर भयां, वी में क्च्यार ले सुकि गय। तोर गध्यार बटि भैंसनै तें पाणि सारन-सारन कमर टुटि ग्ये। वी बरसैकि जै रूड़, बब्बा हो! फिर एक दिन बादवा फुलुक देखीणान, पार हिमाल बटी ऊण लाग बादव। हाथ जोड़ि बेर अगास चाण लाग सब जाणि- हे भगवान, हे द्याप्तो, दैण है जाया। पै ब्याव जाणे उरी गाय बादव। तौड़ातौड़ बरसण लाग। इज हपूर धुर जाई भ्ये लाकाड़ लूणै तें। वैं बै धत्यूणि लागि- “ओ नंदन, त भान-कुन लगै दे रे बंधारि! च्यला, जतु भान छन, रस्या बटि भद्याव, तौल, बाल्टी, गोठ बटि ढुट, जि हाथ पणौ सब बंधारि लगै दे धें।” यस्सै हकाहाक है गय पुर गों में। आज ले मीकें वी दिनै फाम छ।

भ्यार चड़ैक घाम है रौ। जेठ लागि रौ। किस्सै भय- जेठाक जा घाम! जेठ में घाम न भयो पैं कब होला कै है रौछा? पै, मौसमाक जास लच्छण है रान, वीमें क्वे भरोस नै। जेठ में ले चौमासै जै बर्ख है सकें। ऐली बेर त चैत-वैशाख में खूब बर्ख भ्ये। पहाड़ में त वैशाख में डाव पड़ी, ह्यूं ले पड़ौ बल। यें लखनौ में  वैशाख में जाड़ जस हुंण लागौ। यस आग लागि रौ मौसमा ख्वार, के कईं। चित्त ले यसै है रौ।

आब देखौ धें, यो चड़ैक घामन में ह्यूं पड़ियें फाम ऊणै। हमरि ब्वारि कें बड़ मलाल छ कि वील आजि तक स्नो फॉल नि देख राख कै। एक बरस पहाड़ ग्यान ह्यूंन में, ह्यूं देखुंल कै। नैनताल, राणिखेत, पार कौसाणि जाणे ग्यान। हफ्तेक रान मगर ह्यूं नि पड़। आब तसिकै जै कि पड़ि जां ह्यूं तुमि ऐ रौछा कै बेर! खिसै बेर वापस ऐ गाय। मी थें कुणैछी- पापा, स्नो फॉल कैसे देखने को मिलेगा?” जाणि मी छ्युं मौसम विज्ञानी! कटकी रयूं। फिर कूंण लागी- आपने तो खूब देखा होगा स्नो फॉल।” मी कें हंसि ऐ ग्ये। मील कय –“खूब देखा है बेटा। बचपन में स्नो फॉल क्या, स्नो-अरेस्ट हुए हैं हम!” उ त फटफट नै-ध्वै, बणि-ठणि दफ्तर जानी रै, मी कें छोड़ ग्ये स्नो-अरेस्ट में।

भौत पुराणि फाम जगै ग्ये। पांच-छयेक बरसक हुनेल्युं। पूसौ महैण छी। दिन भरि मशिण बर्ख लागी भ्ये। ब्याव हुंण जाणे काव-पट्ट है ग्ये। सब कूण बैठ- ह्यूं पड़ौल आब। खै-पी, ढकी-ढाकी पड़ि गाय। जाड़ हई भय निमखण। रत्तै बिजां जब तो भ्यार सुकिलपट्ट हईं भ्ये। कतु ह्यूं पड़ौ कै तब जाणी जब खोई द्वार नि उघाड़ि साक।आदु खोई जाणे ह्यूं थुपीण भय। भ्यार जाणै मुश्किल है ग्ये। घर में बैग कुणै तें एक मी भयूं। इजै तबीयत खराब छी। भौत कमजोर है रैछी। बेल्च ल्ही बेर बाट बणूणै सकत नि भ्ये वी कें। उतुक ह्यूं में मेरि क्ये सकत हुंछि! मै-च्याल द्विय्यै गोठी गाय भितेर। हका-हाक धता-धात करी। वाल-पाल मोव वाव आपणै बाट बणूंण में लागी भाय। मी भितेरै हगि भरी गयूं। दोफरि है ग्ये, तब एक काक ज्यूलि ब्यल्चलि ह्यूं पलि खितौ तब हमि भ्यार ऐ सक्यां। भ्यार ले हिटण बाट कां भय। ह्यूं पकै बेर पाणी इंतजाम करौ। गोठा भितेर भैंस औरी अलाण लागी भ्ये। ब्याव है ग्ये, तब वीक मुख लै न्यार खित सकां। उतु ह्यूं पड़ी में कल्ली बड़बाज्यू ले मरि गाय। शिबौ, भौतै भाल मैंस छी। आब उनन कें कसिक उठाओ! घाट ल्हिजाणक बाटै नि भय। सबनलि सल्ला करि कि बेर मुर्द कें गोठ में धरि दे। कि करछी पै? किस्स कूनेर भाय कि पाकी खाण और मरीं मैंस कें झट्ट निपटै दिण चैं! पै, वी बरस कल्ली बड़बाज्यूक मुर्द द्वि दिन गोठ धरियैं रौ। अलच्छिण बात भ्ये मगर क्वे और बाट नि भ्यो। तिसार दिन मुर्द ल्हि जाणैक लैक बाट बणै सकान। यस स्नो फॉलदेखी भय हमर। आजकला टूरिस्ट कन बड़ि है रू स्नो फॉल-स्नो फॉल। पगली रूंनान। कबै ह्यूंक हाथ पड़न तब मालुम हुन स्नो फॉलकस हुं कै। खेल है रान!

बुड़ी बिजि ग्ये। आब चहा बणालि। एक घुटुक मीकें ले द्येलि। नानतिन देखना कून- “दद्दू, इत्ती गर्मी में चाय कैसे पी लेते हो?’ उनन हुं क्याप्प भ्ये! आइसक्रीम, सॉफ्टी, कोल्डड्रिंक, जूस, जाणि क्याप-क्याप खानेर भाय। हमन हुं भय यो चहाक अमल। गरमी छाड़ि, आग बरसि जावो, हमि चहा नि छोड़ि सकना। एक-द्वि गिलास रत्तै, एक ब्याव चैनेरै भय। क्वे ऐ गयो, वीक दगाड़ ले एक-घुटुक खै ल्हिनेर भयां। ब्वारि हमरि सुदै काव पाणि खांछि। दुदौ त्वप नै खितनि। पै, हमि बुड़ि-बाड़ि मस्त कै दूद खितनू, पत्ती ले। गटबट चहा खाईं बिना धौ नि हुनेर भ्ये। चहा जरूरै चैनेर भय, दुदौ गिलास नि भयो क्वे बात नै।

ब्याव हुणि लागि ग्ये। घाम न्है ग्यो। आजि ले गरम हाव यसि चलणै, कि बतूं। रात भरि चललि त लू। रत्तै ले गरमै भ्ये हाव। पै, यस्सै में मुणी भ्यार पन हिट ऊंछु रत्तै-ब्याव। हाथ-खुट हिलूण बाट है जांछ। वाल-पाल घराक बुड़-बाड़ि देखी जानान। भेट-घाट है ग्ये, कुशव-बात, फसक-फराव है ग्ये, मन ब्यांई जां। कां-कां बटी आईं भाय यां मैंस। पहाड़ाक छन, बंगालाक छन, पंजाबाक छन, दक्षिण भारतक ले भया। सब्बै जागाक मैंस एकबटीण भाय शहरन में। द्वि र्वाट सबनै कें चैनान। जां पेट ल्हि गय, जाण भय। सबन कें आपण-आपण मुलुकै नरै लागें। सब्बै आपणि-आपणि जागै फसक करनान। बंगालक बुड़ कलकत्ताकि बात करंछ- आमार सोनार बांग्लाकूनै रूंछ। वी कें सबन है बांकि नरै माछनकि लागें। यां उस माछ मिलनै नै, योई वीक दुख भय। एक सरदार बुड़ छ, औरी मस्त, बकु-भाट। वी कें नरै-हरै के नै लागनि। हौर सुणाओ जी पंडत जी, पहाड़ दी गल्लकूं मीकें देखि बेर। एक केरलक कालो-काल बुड़ छ। लुंगी लगै बेर घुमणै तें दगाड़ लागि जांछ। नानतिन वी कें मल्लू-मल्लूकै बेर गिजूनान। कतुकै मैंस भाय यां। किसम-किसमाक, जाग-जागाक। बदइ भई जानै रूंनान। सामव बाद, ट्रक में खित, सो गाय! फिर दुसार किरायदार ऐ जानान। एक मुशई राठ ले छन। भौतै भाल, सिद-साद मैंस। लखनौक पुराण रूणि छन। हमर भल दगड़ छी। घर ऊंण-जाण, रत्तै-ब्याव दगाड़ै घुमड़। द्वि-चार बरसन बटी भौत कम बुलाण भै ग्यान। ऊंण-जाण ले कम करि हालौ। डरीं-डरीं जास चिताइनी मी कें। क्या हो गया, मौलाना?” पुछण में उनार आंख डबडबै जानीं। एक दिन सज्योल कूण बैठान- “हम यहां से कहां चले जाएं पण्डित जी, यही हमारा मुलुक हुआ!”  कैले के कै दे हुन्यल। कूण-न कूण कूण भै ग्यान अच्छ्यालन। कि है ग्यो हुन्यल आब मैंसन कें? न उनिल कें जाण भय, न हमिल। यांई जमि गयां। कां जानूं? पहाड़ बटि जड़-उपाड़ है गय। याईं बटी जूंल मलिकै। जब तक टैम दी राखौ भगवानलि, दिन काटणै रयां। पै यारो, पहाड़ नि भुलीन। कै खुवा को चड़ सुवा, कै खुवा ऐ पड़ो!

चलो, जेठा महैणा घाम देखि यतु फसक-फराव तुमन थें ले है ग्ये। मुणी टैम काटी गय। हिटनू आब। भल है रया। कभतै फिर भेट होलि त और सुख-दुख लगूंल।

-नवीन जोशी, लखनऊ

 ('दुदबोलि', अक्टूबर-दिसम्बर 2023 में प्रकाशित)

                             

       

                     

         

       

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