Wednesday, November 19, 2025

सेक्स, सोसायटी एंड शी - बहुत जरूरी मुद्दे पर 365 डिग्री चर्चा

हमारी पीढ़ी के लिए 'सेक्स' शब्द मुंह से निकालना आज भी शर्म और दुस्साहस की बात है। महिलाओं की मत पूछिए। गांव की ऐसी कुछ महिलाओं की स्मृति है जो शादी के बाद अपने पति को हाथ लगाने देने में भी इतना डर जाती थीं कि कमरे से भाग आती थीं और इसी कारण जीवन भर मायके में 'परित्यकता' बनी रहीं। मेरे उपन्यास 'देवभूमि डेवलपर्स' में काकी का एक चरित्र है, जिन्हें काका शादी के दूसरे हफ्ते मायके पहुंचा आए थे, यह ताना मारते हुए कि जब शादी का मतलब भी नहीं जानती तो ब्याह क्यों किया!  

जो महिलाएं ससुराल में टिकी रहीं, वे केवल बच्चे जनने की मशीन बनी रहीं। सेक्स-सुख जैसी कोई चीज उन्होंने नहीं जानी। कई बार खेतों-जंगलों से उनकी 'चरित्रहीनता' के किस्से हवाओं में बहते आते थे या फिर हिस्टीरिया के उनके बढ़ते दौरे देवता या भूत या जिन सवार हो जाने के अंधविश्वासों का शिकार बनते थे। आज भी ऐसा नहीं होता, कौन कह सकता है?

मैं समझता था, आज की नई पीढ़ी इस मामले में बहुत बिंदास है, भाग्यशाली है, क्योंकि उनकी बातचीत में ही नहीं, गीतों और लिबासों में भी 'सेक्सी' शब्द 'ब्रेकफास्ट', 'लंच' या 'डिनर' की तरह आता है।  

अरशाना अजमत की किताब 'सेक्स, सोसायटी और शी' (ग्रे पैरट पब्लिशर्स, लखनऊ) ने मेरी यह धारणा ध्वस्त कर दी। नई से नई पीढ़ी 'सेक्स' और 'सेक्सी' धड़ल्ले से बोलती जरूर है मगर उसके बारे में उनकी समझ बहुत सतही और अनेक बार नासमझी भरी ही है। सेक्स शिक्षा जैसी किसी चिड़िया के पंख आज भी नहीं उगे। जो कुछ पाठ्यक्रम में है, वह सरकारी-तकनीकी हिंदी जैसा अबूझ है और टीचर उसे कभी साफ समझाते नहीं।

अरशाना अपनी किताब में बाल सुलभ जिज्ञासाओं पर माता-पिताओं के संकोच और नासमझी भरे जवाब की बात करती है। वह तरुणाई में शारीरिक परिवर्तनों, आशंकाओं-प्रश्नों व झिझक को खुलकर बताती है। वह लड़के-लड़कियों की दोस्ती, 'लव', सेक्स, वगैरह से जुड़ी भ्रांतियों को खोलकर रखती है। वह सेक्स के बारे में लड़कों के पहलू से भी बात करती है, यद्यपि इस पुस्तक का केंद्र 'शी' है। 

यहां माहवारी की लड़कियों की समस्या और अंधविश्वासों (हां, वह आज के समय में भी बहुत हैं) पर हर कोण से चर्चा है। सेक्स-सुख और उससे वंचित स्त्रियों की अपूर्णता का मुद्दा है। इस आनंद को उनका हक ठहराते हुए अपने पार्टनर से उसकी स्पष्ट मांग करने की वकालत भी यहां है, बिना डरे कि यह 'चरित्रहीनता' का प्रमाण माना जाता है। 

अरशाना की भेदती नज़र नए दौर में बहुप्रचलित 'डेटिंग', 'आउटिंग', 'रिलेशनशिप', 'हुक-अप', 'लव', 'सेक्स' के 'ऑनलाइन बिजनेस' और उसके धोखों के प्रति आगाह करती है। वह अनेक 'डेटिंग साइट्स' के खुद व सखियों के अनुभवों के आधार पर नई पीढ़ी को आगाह करती है कि कहां सच में 'फन' है, कहां सीमा है जिससे आगे बड़ा फंदा है। 'ए आर (ऑगमेंटेड रियलिटी) एवं वी आर (वर्चुअल रियलिटी) सेक्स' का नया प्रचलित फण्डा-फंदा  तो अवश्य ही नई पीढ़ी को ठीक से समझ लेना चाहिए।  

अरशाना अनचाही 'प्रेग्नेंसी' और  'अबार्शन' के कारण स्त्री-स्वास्थ्य के कम जाने गए खतरों को सामने रखती है। गर्भ निरोधकों के उत्पादकों ने स्त्री शरीर कि किस कदर प्रयोगशाला बना दिया है और इसका कितना दुष्परिणाम वे सहती है, इसकी तो चर्चा ही नहीं होती। 

यह सब स्पष्ट करते हुए अरशाना पूछती है कि सबसे सुरक्षित गर्भ निरोधक 'कंडोम' को पुरुष आखिर क्यों इस्तेमाल नहीं करते। वह लड़कियों से आग्रहशील है कि उन्हें अपने पुरुष साथियों को इसके लिए बाध्य करना चाहिए, क्योंकि यह बेवजह बहाना है कि 'कंडोम' पुरुष के आनंद में बाधक है।

इस किताब में बात मुख्यत: स्त्री के नज़रिए से कही गई है लेकिन लड़कियों एवं सेक्स के मामलों में लड़कों की भी नासमझी सवालों के घेरे में है। एक जगह वह लिखती है कि बाज लड़कियों को मां या दीदी या भाभी से कुछ टिप्स मिल जाया करते हैं लेकिन लड़कों को यह तनिक खुली खिड़की भी उपलब्ध नहीं होती। 

समय पर वैज्ञानिक ढंग से सेक्स शिक्षा के अभाव में झूठी, मनगढ़ंत, सनसनीखेज किताबों या 'गूगल' से अर्जित अवैज्ञानिक यौन जानकारियां युवाओं को अंधी खाई की ओर ही धकेलती हैं। और, "बॉलीवुड ने जो सबसे खतरनाक काम किया, वो ये कि हमारे दिमाग में प्रेम और सेक्स के बीच विभाजक रेखा खींच दी... उसने इसे नैतिकता-अनैतिकता से जोड़ दिया।"

मुस्लिम समाज व मुस्लिम लड़कियों के कोण से भी तमाम बातें स्पष्ट की गई हैं।  उन्हें लेकर बहुत सी सच्ची-झूठी चर्चाएं चलती हैं। 'हलाला' और कई अन्य मुद्दों पर तर्कों के साथ खूब खुलकर बात रखी है। अरशाना इस मामले में धर्मांधता को चुनौती देने की सीमा तक जाती है। कई भ्रांतियां और अंधविश्वास सभी समाजों में समान भी हैं।    

 अनुभव जुटाने के लिए लेखिका ने कुछ व्याहारिक प्रयोग भी किए, जैसे स्कूली बच्चों के बीच सेक्स-सर्वे, जिसमें उनसे खुलकर सवाल पूछे गए। कई बरस पहले स्त्री के यौन आनंद और सेक्स की उसकी 'च्वाइस' को मुद्दा बनाकर अरशाना ने मंच पर एक नाटक किया था। वे सभी अनुभव इस किताब का हिस्सा हैं और इसे प्रामाणिक बनाते हैं।

इस पुस्तक में 'करो-न करो' के उबाऊ निर्देश नहीं हैं। इसमें किसी काउंसिलर की सलाहों का पुलिंदा भी नहीं है। वास्तव में यहां कोई 'निषेध' नहीं है। सब कुछ आपकी मर्जी और आजादी पर निर्भर है, किंतु सजग विवेक एवं पूरी समझदारी के साथ। 

तन आपका है, मन आपका है, दिमाग भी आपका होना चाहिए, क्योंकि बड़े खतरे हैं इस राह में। 'टेन कमाण्डमेंट्स' की तर्ज़ पर यहां दस ऐसी बातें भी दी गई हैं, जो हर बच्चे को पढ़ाई-सिखाई जानी चाहिए और जो एक व्यावहारिक-वैज्ञानिक सेक्स शिक्षा का आधार बन सकती हैं। 

इस किताब के बहुत सारे पक्ष हैं जो इसे अत्यंत उपयोगी और अवश्य पठनीय बनाते हैं। यहां कई प्रकार के विमर्श भी हैं। मसलन, स्त्री-पुरुष बराबरी के प्रश्न पर अरशाना का स्पष्ट मानना है कि "खुदा ने सबको बराबर नहीं बनाया है, न जिस्म से न मन से। इसलिए बराबरी की लड़ाई लड़नी ही नहीं चाहिए। लड़ाई लड़नी चाहिए एक-दूसरे से अलग होते हुए भी एक-दूसरे का मान-सम्मान करने की।" 

और, यह कि "भारत एक लोकतांत्रिक देश है और संविधान से चलता है। लिहाजा कानून की चलनी चाहिए, लेकिन एक समस्या है। देश तो लोकतांत्रिक है लेकिन समाज कतई लोकतांत्रिक नहीं है और न ही संविधान के अनुसार चलता है।" 

यह किताब लिखकर अरशाना ने एक बड़ी रिक्तता को भरने की कोशिश की है। सेक्स, समाज और स्त्री को लेकर इतनी स्पष्ट, बेबाक और विज्ञान-मनोविज्ञान सम्मत पुस्तक हिंदी में तो नहीं मिलेगी। अंग्रेजी में भी शायद ही लिखी गई हो।  

इसीलिए यह हर पीढ़ी के लिए अनिवार्य रूप से पठनीय है। पुस्तक amazon पर उपलब्ध है।

-न जो, 20 नवम्बर 2025   

 

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