
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र के एक प्रोफेसर इसलिए
गिरफ्तार किए गए हैं क्योंकि उन्होंने दिल्ली के निजामुद्दीन में हुई उस तबलीगी जमात
में हिस्सा लिया, जहां से कई कोरोना संक्रमित जमाती देश भर में फैले, कुछ विदेशी जमातियों को उन्होंने प्रयाग में ठहराया भी लेकिन यह जानकारी छुपाई.
उस ‘विद्वान’ प्रोफेसर से अपेक्षा थी कि
वे सारी जानकरी स्वयं प्रशासन को देकर कोरोना संक्रमण रोकने में मदद करेंगे. उधर,
चेन्नै में एक सीनियर डॉक्टर फूट-फूटकर रो रहे हैं क्योंकि उन्हें अपने
सहयोगी वरिष्ठ डॉक्टर के शव को अपने हाथों से कब्र खोदकर दफनाना पड़ा, जबकि एक भीड़ शव नहीं दफनाने देने के लिए उन पर हमला कर रही थी. वह डॉक्टर कोरोना
संक्रमितों का इलाज करते हुए खुद भी संक्रमित होकर प्राण गंवा बैठे थे. अपना फर्ज़ निभाते
हुए कई डॉक्टरों, सहायकों और सिपाहियों ने जान दी है.
छत्तीसगढ़ से मजदूरी करने तेलंगाना गई और कोरोना-बंदी में फंसने
पर भूखी-प्यासी घर लौट रही 12 साल की बच्ची के प्राण-पखेरू 100 किमी पैदल चलने के बाद
उड़ गए. दिल्ली से 400 किमी दूर अपने घर को पैदल ही निकल पड़ा घर का अकेला कमाऊ श्रमिक
200 किमी चलकर गिर पड़ा और प्राण छूटने से पहले घर वालों को फोन पर इतना ही कह सका कि
कोई लेने आ सकता है तो आ जाओ. ढाई हजार रु में अपना मोबाइल बेचकर, बच्चों
के खाने का समान जुटाने के बाद आत्महत्या करने को मजबूर मजदूर का किस्सा कैसे भूला जा सकता है. ये किस्से अकेले नहीं हैं.
देश भर से आ रहे तमाम कोरोना-किस्से पढ़ी-लिखी जनता की जहालत
और घमण्ड से लेकर उसके सामान्य जन के त्याग, शौर्य और देवता-रूप का परिचय भी देते हैं. रोग
छुपाने और डॉक्टरों पर हमला करने वाले भी यहां हैं और मेडिकल स्टाफ के लिए ताली बजाने
और खाने पहुंचाने वाले भी. उस सिपाही की फोटो आंसुओं के साथ अभिमान से भी भर देती है
जो घर के बाहर बैठकर खाना खा रहा है और उसका नन्हा बेटा भीतर के दरवाजे की झिर्री से
पिता को डबडबाई आंखों से देखे जा रहा है.
कई डॉक्टर और चिकित्सा कर्मचारी कई सपताह
से अस्पताल के वार्ड में ही रह रहे हैं. एक युवा डॉक्टर अपनी गर्भवती पत्नी की सहायता
के लिए नहीं जा सकता. एक नर्स-मां ने अपने दुधमुंहे बच्चे को गोद में लेना तो दूर,
दो सप्ताह से आमने-सामने देखा तक नहीं. कई पुलिस
वाले जो बुजुर्गों के लिए दवा और खाना घर-घर पहुंचा रहे हैं. बहुत सारे लोग जो सुदूर
इलाकों में भूखों तक भोजन पहुंचा रहे हैं. उनकी सेवा और त्याग का क्या प्रतिदान है?
वे भी इसी देश के नागरिक हैं जो थोड़ी-सी मदद की खूब सारी तस्वीरें सोशल
मीडिया में दिखा रहे हैं और वे भी जो तरह-तरह के स्वादिष्ट व्यंजन बनाकर उनकी फोटो
अपनी पाक-कला के सबूत के तौर पर पेश कर रहे हैं. इस संकट-काल में भी साम्प्रदायिक नफरत
फैलाने में जुटे लोग हैं तो इंसानियत के टीसते घावों पर मलहम लगाने वालों की भी कमी
नहीं है.
जितना बड़ा और विविध देश उतनी तरह की जनता और उसके रंग.