Friday, November 20, 2020

जीवन की नींव में जिसने कुछ खास ईंट-गारा भर दिया

 


लखनऊ विश्वविद्यालय अपनी स्थापना का शताब्दी वर्ष मना रहा है। एक सौ साल का दौर किसी भी संस्थान के लिए ऐतिहासिक एवं गौरवपूर्ण होता है। विश्वविद्यालय तो पूरी एक सदी के इतिहास के साक्षी ही नहीं, उस उथल-पुथल भरे काल में अपना विविध योगदान भी देते हैं। लखनऊ विश्वविद्यालय से किसी भी रूप में सम्बद्ध व्यक्तियों के लिए यह निजी रूप में भी ऐतिहासिक और गौरवपूर्ण अवसर है। चंद दिनों से शोसल साइटों पर विश्वविद्यालय से जुड़ी स्मृतियों का अम्बार इसीलिए लगा हुआ है। 

युवावस्था का वह दौर प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में सबसे खूबसूरत समय होता है। सपनों, उम्मीदों, उमंगों और कुछ कर गुजरने की तमन्ना से भरा हुआ। 1973 में जयनारायण इण्टर कॉलेज से बारहवीं पास करने के बाद हमारे झिझके कदम भी इस विश्वविद्यालय परिसर में पड़े थे। विश्वविद्यालय में पढ़ने की ललक थी, रोमांच था लेकिन बहुत सारे संकोच भी थे। आस-पास के शहरों और कस्बों से पढ़कर आए मध्य-निम्न मध्य वर्ग के लड़के-लड़कियों की बड़ी संख्या थी जो पहली बार छात्र-छात्राओं के अलग-अलग कॉलेजों के सीमित दायरे से निकलकर विश्वविद्यालय पहुंचे थे, संकोच से भरे लेकिन चमत्कृत भी, लेकिन जिनके समूचे व्यक्तित्व को बहुत शीघ्र खिल और खुल जाना था।

पहली सनसनी एक ही कक्षा में लड़कियों के साथ बैठना था! वे सकुचाई हुई किनारे की कुछ बेंचों पर समूह में बैठी होतीं और लगभग सभी लड़कों की नज़रें सामने प्रोफेसर साहब की बजाय उसी कोने पर लगी होतीं। किसी सहपाठिनी से किसी साहसीलड़के का पहला सम्वाद होने में महीनों लग जाते और वह सबसे बड़ी उपलब्धि की तरह चाय-समोसे के साथ मनाया जाता। जो लड़के ऐसी हिम्मत नहीं कर पाते वे कागज के गोले बनाकर चुपके से उस कोने की ओर उछालने या घर जाकर डायरी में उसांसें भरते।

विश्वविद्यालय ने पढ़ाई से इतर बहुत कुछ सिखाया और जीवन में वही अधिक काम आया। टैगोर लाइब्रेरी के सामने वाले लॉन में दोपहर बाद स्टडी सर्किलकी बैठकें होतीं जहां साहित्य-संगीत-रंगमच से लेकर राजनीति और समाज पर दुनिया भर की चर्चाएं होतीं। पढ़ना, बोलना और बहस करना। छात्र संघ के चुनावों को जो लोग गंदी राजनीति मानकर बिदकते रहे हैं, वे शायद नहीं जानते या जानना नहीं चाहते कि विश्वविद्यालयों की छात्र राजनीति ने युवा पीढ़ी और देश की राजनीति को कैसे स्पंदित किया है। आज छात्र संघ चुनावों से वंचित विश्वविद्यालय समाज और देश के हालत में क्या कोई सार्थक और जरूरी हस्तक्षेप कर पा रहे हैं? आज की तुलना साठ-सत्तर-अस्सी के दशकों हालात से करिए तो!

वह 1974 के अंतिम या 1975 के शुरुआती महीने थे जब कला संकाय के सामने वाले मैदान में जे पी यानी जयप्रकाश नारायण की सभा हुई थी। गुजरात और बिहार में छात्र-आंदोलन उग्र हो रहा था। ठसाठस भरे मैदान में उमड़ते युवाओं के सैलाब को देखकर जे पी ने कहा था- यह अधजल गगरी है जो छलक रही है या पूरी भर गई है?’ सभा से हजारों हाथ उठे थे इस उद्घोष के साथ कि पूरी भर चुकी है!उस सभा का रोमांच आज भी अनुभव होता है। कैण्टीन और मिल्क बार में कई दिनों तक उस सभा की चर्चा होती रही थी और कई लड़के जेपी की छात्र संघर्ष वाहिनी से जुड़ने बिहार भी गए थे।

विश्वविद्यालय अपने छात्रों को और उनके माध्यम से देश को क्या-क्या देते हैं, इसका हिसाब लगाना आसान नहीं है। वह समाज के भविष्य की नींव भरने का काम करते हैं। किताबी पढ़ाई उस नींव में एक छोटी-सी ईंट भर है। लखनऊ विश्वविद्यालय के इस शताब्दी वर्ष में पूर्व छात्र और अध्यापक भी अनुभव कर रहे होंगे कि उनके जीवन की मजबूत नींव में उस दौर ने कैसा-कैसा गारा भरा था।

(सिटी तमाशा, नभाटा, 21 नवम्बर, 2020)              

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