Friday, February 19, 2021

हमारे पुलिस थाने और महिला शौचालय

1970 के दशक से पुलिस में महिलाओं की भर्ती शुरू हुई थी। 1972 किरन बेदी पहली आईपीएस अधिकारी बनी थीं। एक साल बाद दूसरी आईपीएस अधिकारी कंचन चौधरी भट्टाचार्य कालांतर में उत्तराखण्ड की पहली पुलिस महानिदेशक बनीं। सिपाही से लेकर महानिरीक्षक स्तर की महिला पुलिस अधिकारी यहां आनुपातिक रूप से कम, लेकिन गिनाने को काफी हैं हालांकि उत्तर प्रदेश को अभी पहली महिला पुलिस महानिदेशक बनने की प्रतीक्षा है।

यह पृष्ठभूमि देने का संदर्भ यह है कि सन 2021 में, महिलाओं की पुलिस में भर्ती शुरू होने के कोई पचास साल बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने प्रदेश सरकार को निर्देश दिया है कि राज्य के सभी थानों में महिला शौचालय तत्काल बनवाए जाएं। इलाहाबाद के कुछ विधि छात्रों ने इसके लिए अदालत में जन हित याचिका दायर की थी।

बड़े शहरों के कुछेक थानों को छोड़कर प्रदेश के पुलिस थाने आज भी बदहाल हैं। राजधानी लखनऊ में ही कई थानों में सिपाही बरामदे या पेड़ के नीचे बसेरा करते और खुले में नहाते दिख जाते हैं। दूर-दराज के पुलिस थानों की स्थिति और भी दयनीय है। ऐसे में महिलाओं के लिए पृथक शौचालय बनवाने के बारे में कौन सोचता। अदालती आदेश के बाद अब कुछ हलचल होगी। वैसे, अदालत को आश्वासन देने या थोड़ा बहुत काम करके आदेश की खानापूर्ति कर लिए जाने की परिपाटी यहां अधिक दिखती है।

महिला सिपाही किन स्थितियों में काम करती हैं, इसकी बानगी पिछले साल दो वायरल तस्वीरों में खूब दिखती है। पहली तस्वीर नोएडा की थी, जहां मुख्यमंत्री के दौरे के समय सिपाही  प्रीति रानी अपने नन्हे बेटे में गोद में पकड़े वीआईपी ड्यूटी में तैनात थी। यह तस्वीर खूब वायरल हुई और तब सवाल उठे थे कि थानों में शिशु गृह (क्रेच) क्यों नहीं बनवाए जाते। फिर झांसी के एक थाने की सिपाही अर्चना सिंह की फोटो वायरल हुई जिसमें वह अपनी दुधमुंही बिटिया को मेज पर लिटाकर काम में व्यस्त थी। सोशल मीडिया की अति-सक्रियता के इस दौर में इन महिला सिपाहियों की कर्तव्य परायणता की प्रशंशा हुई और पुलिस प्रशासन की भर्त्सना। अर्चना की फोटो देखकर पुलिस महानिदेशक ने तत्काल उसका तबादला उसके घर के पास करवा दिया और यह भी घोषणा की थी कि वे क्रेच बनवाने की व्यवस्था कराएंगे।

सोशल मीडिया में जितनी तेजी से मुद्दे उठते हैं, उतनी ही शीघ्रता से भुला भी दिए जाते हैं। महिला सिपाहियों की सुविधा के लिए क्रेच बनवाने की बात अब तक पुलिस महकमे के ज़िम्मेदार भूल गए होंगे। अब जनहित याचिका के बहाने थानों में महिला शौचालय न होने का मुद्दा उछला है। गोद में बच्चा लेकर वीआईपी ड्यूटी करती या मेज में बिटिया को सुलाकर काम करती महिला सिपाहियों की फोटो की तरह शौचालय का मुद्दा वायरल नहीं हो सकता। इस मुद्दे में वह अपीलन मुख्य धारा के मीडिया को दिखती है न सोशल मीडिया के अति सक्रिय हरकारों को। तो भी अदालती चाबुक के कारण शायद कुछ पुलिस थानों में महिला शौचालय बन जाएं।     

पुलिस थाने ही क्यों, ऐन लखनऊ में ही कई सरकारी कार्यालयों में महिलाओं के शौचालयों का कोई पुरसा हाल नहीं है। गंदे शौचालयों से महिलाओं को संक्रमण होने शिकायतें आम हैं और डॉक्टर इसकी पुष्टि करते हैं। शौचालय जाने से बचने के लिए दिन भर पानी न पीने वाली कामकाजी महिलाएं अपना दर्द आपस में ही कह पाती हैं। जरा-जरा सी बात पर नारे लगाने वाले कर्मचारी संगठन भी इसे मुद्दा नहीं बनाते। यह समझ और सम्वेदना की बात है।

महिलाओं के लिए साफ-सुथरे, सुविधा युक्त शौचालय कितने आवश्यक हैं, यह वही व्यवस्था समझ सकती है जो अत्यंत संवेदनशील हो। पुलिस विभाग तो वैसे भी सर्वाधिक संवेदनहीन माना जाता है। (सिटी तमाशा, नभाटा, 20 फरवरी, 2021)           

 

   

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