सुबह दूध की दुकान पर जबर्दस्त बहस छिड़ी हुई थी। कुछ बूढ़े, कुछ प्रौढ़ और दो-तीन युवा पॉलीथीन के थैलों में दूध के पैकेट लिए घर जाते-जाते बहस में उलझ गए थे। जैसा कि इन दिनों हर जगह हो रहा है, वे किसानों पर बात कर रहे थे। एक धड़ा आंदोलनकारी किसानों को सरकार विरोधी, विपक्ष का भड़काया हुआ और देशद्रोही तक बता रहा था। बाकी लोग उन्हें नए कानूनों से उत्पीड़ित देश का अन्नदाता बता रहे थे।
आज़ादी के बाद शायद ही कभी किसान इतनी
व्यापक और विविध चर्चा का कारण बने हों।
अकाल, बाढ़, सूखे और
दूसरी आपदाओं के दौर में किसानों पर बहुत कम बात होती रही। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्डब्यूरो
के अनुसार 1995 से अब तक करीब तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। यह आंकड़ा वास्तविकता
में कहीं अधिक है। इतनी बड़ी संख्या में किसानों के जान देने के बावजूद किसान और
खेती की समस्याओं से शहरी मध्य-निम्न मध्य वर्ग का कोई वास्ता नहीं है। महंगाई पर वह
अपनी जेब पर बोझ के कारण फिक्र करता है लेकिन इस पर माथा पच्ची नहीं करता कि
आलू-प्याज-टमाटर के भाव कभी आसमान और कभी सड़क पर क्यों आ जाते हैं। क्यों किसान
बड़ी मेहनत से उगाई अपनी फसल कभी खेत में सड़ने को क्यों छोड़ देते हैं या सड़कों पर
बहाकर अपना कैसा दुख दिखाते हैं।
पिछले कुछ समय से तीन नए कृषि
कानूनों के विरोध में चल रहे किसान आंदोलन और दिल्ली की घेराबंदी के बहाने आज हर कोई
किसानों के बारे में बात कर रहा है। अब भी बातचीत का केंद्र किसान और किसानी की
मूल समस्याएं नहीं हैं। बात उनके समर्थन और विरोध के बहाने सरकार के समर्थन और
विरोध की हो रही है। यह दौर ही ऐसा हो गया है कि प्रत्येक मुद्दा सरकार के समर्थन
और विरोध पर आकर टिक जाता है। मूल मुद्दे
पर चर्चा ही नहीं होती।
आज बहुत बड़ी आबादी गांवों और खेती से
विमुख होकर शहरों में बसी हुई है। उद्योग-धंधों के विकास,
रोजगार के दूसरे अवसरों के विस्तार और तीव्र शहरीकरण ने कई पीढ़ियों
को खेती-किसानी से दूर कर दिया। ऐसी पीढ़ियां हमारे बीच हैं जिन्हें शाक-सब्जियों
और गेहूं-धान की पहचान नहीं रही। यह भी पता नहीं कि बाजार में बिकने वाला ‘चावल’ कहां से आता है। शायद किसी फैक्ट्री में बनता होगा,
हालांकि उनके बाबा-दादा किसान ही थे।
आज़ादी के बाद से ही खेती ऐसा ‘निकृष्ट’ धंधा बना दी गई कि किसान के बेटे जमीन
बेचकर नौकरी ढूंढने शहरों का रुख करते रहे। आर्थिक उदारीकरण के दौर ने किसानों और
भी नुकसान पहुंचाया। आत्महत्याओं का दौर उसी के बाद बहुत तेज़ हुआ। उपेक्षा,
शोषण और क्रूर नीतियों की कहानी लम्बी है। कृषि इस देश की
अर्थव्यवस्था का सबसे मजबूत आधार हो सकती थी। किसान को सर्वाधिक सम्मानित नागरिक
बनना चाहिए था। विकास की वह राह हमारी राजनीति ने चुनी ही नहीं। जो राह तय की
उसमें खेती मध्यस्थों के हाथों कॉरपोरेट हाथों में जानी ही है। बोने-काटने-बेचने
का फैसला किसान के हाथ में नहीं रह जाना है।
शहरी मध्यवर्ग को इससे कोई सरोकार नहीं। उसके लिए खेती सुपर मार्केट और ई-कॉमर्स के रूप में उपलब्ध है। किसान का असली दर्द वह नहीं जानना चाहता। वह सरकार के समर्थन और विरोध में बंट गया है या बांट दिया गया है। जिन्हें खेती और किसान के बारे में कुछ नहीं मालूम या बहुत कम जानते हैं, वे किसानों पर सबसे अधिक जोर से बात कर रहे हैं।
(सिटी तमाशा, नभाटा, 06 फरवरी, 2021)
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